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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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आग बहते हुए पानी में लगाने आई
तेरे ख़त आज मैं दरिया में बहाने आई
फिर तेरी याद नए ख़्वाब दिखाने आई।
चाँदनी झील के पानी में नहाने आई।।

दिन सहेली की तरह साथ रहा आँगन में,
रात दुश्मन की तरह जान जलाने आई।।

मैं ने भी देख लिया आज उसे ग़ैर के साथ,
अब कहीं जा के मिरी अक़्ल ठिकाने आई।।

ज़िंदगी तो किसी रहज़न की तरह थी 'अंजुम'
मौत रहबर की तरह राह दिखाने आई।।

_________'अंजुम' रहबर
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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घर किसी का भी हो जलता नहीं देखा जाता।
हम से चुप रह के तमाशा नहीं देखा जाता।।

तेरी अज़्मत है तू चाहे तो समुंदर दे दे,
माँगने वाले का कासा नहीं देखा जाता।।

जब से सहरा का सफ़र काट के घर लौटा हूँ,
तब से कोई भी हो प्यासा नहीं देखा जाता।।

ये इबादत है इबादत में सियासत कैसी,
इस में का'बा या कलीसा नहीं देखा जाता।।

मेरे लहजे पे न जा क़ौल का मफ़्हूम समझ,
बात सच्ची हो तो लहजा नहीं देखा जाता।।

अक्स उभरेगा 'नफ़स' गर्द हटा दे पहले,
धुंधले आईने में चेहरा नहीं देखा जाता।।

__________'नफ़स' अम्बालवी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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वो मेरा दोस्त है और मुझ से वास्ता भी नहीं।
जो क़ुर्बतें भी नहीं हैं तो फ़ासला भी नहीं।।

किसे ख़बर थी कि उस दश्त से गुज़रना है,
जहाँ से लौट के आने का रास्ता भी नहीं।।

कभी जो फूट के रो ले तो चैन पा जाए,
मगर ये दिल मिरे पैरों का आबला भी नहीं।।

सुना है वो भी मिरे क़त्ल में मुलव्विस है,
वो बेवफ़ा है मगर इतना बेवफ़ा भी नहीं।।

वो सो सका न जिसे छीन कर कभी मुझ से,
मैं उस ज़मीन के बारे में सोचता भी नहीं।।

सुना था शहर में हर सू तुम्हारा चर्चा है,
यहाँ तो कोई 'नफ़स' तुम को जानता भी नहीं।।

____________'नफ़स' अम्बालवी
 

VIKRANT

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वो मेरा दोस्त है और मुझ से वास्ता भी नहीं।
जो क़ुर्बतें भी नहीं हैं तो फ़ासला भी नहीं।।

किसे ख़बर थी कि उस दश्त से गुज़रना है,
जहाँ से लौट के आने का रास्ता भी नहीं।।

कभी जो फूट के रो ले तो चैन पा जाए,
मगर ये दिल मिरे पैरों का आबला भी नहीं।।

सुना है वो भी मिरे क़त्ल में मुलव्विस है,
वो बेवफ़ा है मगर इतना बेवफ़ा भी नहीं।।

वो सो सका न जिसे छीन कर कभी मुझ से,
मैं उस ज़मीन के बारे में सोचता भी नहीं।।

सुना था शहर में हर सू तुम्हारा चर्चा है,
यहाँ तो कोई 'नफ़स' तुम को जानता भी नहीं।।

____________'नफ़स' अम्बालवी
Greattt bro. Such a mind blowing poetries. :applause::applause::applause:
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था।
वो उस का साया था कि वही रश्क-ए-हूर था।।

कल मैं ने उस को देखा तो देखा नहीं गया,
मुझ से बिछड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था।।

रोया था कौन कौन मुझे कुछ ख़बर नहीं,
मैं उस घड़ी वतन से कई मील दूर था।।

शाम-ए-फ़िराक़ आई तो दिल डूबने लगा,
हम को भी अपने आप पे कितना ग़ुरूर था।।

चेहरा था या सदा थी किसी भूली याद की,
आँखें थीं उस की यारो कि दरिया-ए-नूर था।।

निकला जो चाँद आई महक तेज़ सी 'मुनीर'
मेरे सिवा भी बाग़ में कोई ज़रूर था।।

_______'मुनीर' नियाज़ी
 

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आ गई याद शाम ढलते ही।
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही।।

खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े,
इक ज़रा सी हवा के चलते ही।।

कौन था तू कि फिर न देखा तुझे,
मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही।।

ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से,
माह-ए-शब-ताब के निकलते ही।।

तू भी जैसे बदल सा जाता है,
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही।।

ख़ून सा लग गया है हाथों में,
चढ़ गया ज़हर गुल मसलते ही।।

________'मुनीर' नियाज़ी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया।
और कुछ तल्ख़ी-ए-हालात ने दिल तोड़ दिया।।

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब,

आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।।

दिल तो रोता रहे ओर आँख से आँसू न बहे,
इश्क़ की ऐसी रिवायात ने दिल तोड़ दिया।।

वो मिरे हैं मुझे मिल जाएँगे आ जाएँगे,
ऐसे बेकार ख़यालात ने दिल तोड़ दिया।।

आप को प्यार है मुझ से कि नहीं है मुझ से,
जाने क्यूँ ऐसे सवालात ने दिल तोड़ दिया।।

________सुदर्शन फ़ाख़िर
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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किस ने संग-ए-ख़ामुशी फेंका भरे-बाज़ार पर।
इक सुकूत-ए-मर्ग तारी है दर-ओ-दीवार पर।।

तू ने अपनी ज़ुल्फ़ के साए में अफ़्साने कहे,
मुझ को ज़ंजीरें मिली हैं जुरअत-ए-इज़हार पर।।

शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से,
जिस तरह ताज़ा लहू चमके नई तलवार पर।।

संग-दिल अहबाब के दामन में रुस्वाई के फूल,
मैं ने देखा है नया मंज़र फ़राज़-ए-दार पर।।

अब कोई तोहमत भी वज्ह-ए-कर्ब-ए-रुसवाई नहीं,
ज़िंदगी इक उम्र से चुप है तिरे इसरार पर।।

मैं सर-ए-मक़्तल हदीस-ए-ज़िंदगी कहता रहा,
उँगलियाँ उठती रहीं 'मोहसिन' मिरे किरदार पर।।

_________'मोहसिन' नक़्वी
 

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रस्म-ए-उल्फ़त सिखा गया कोई।
दिल की दुनिया पे छा गया कोई।।

ता कयामत किसी तरह न बुझे,
आग ऐसी लगा गया कोई।।

दिल की दुनिया उजाड़ सी क्यूं है,
क्या यहां से चला गया कोई।।

वक्त-ए-रुखसत गले लगा कर 'दाग़',
हंसते हंसते रुला गया कोई।।

______"दाग़" देहलवी
 
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