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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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नज़र नज़र बे-क़रार सी है नफ़स नफ़स में शरार सा है।
मैं जानता हूँ कि तुम न आओगे फिर भी कुछ इंतिज़ार सा है।।

मिरे अज़ीज़ो मिरे रफ़ीक़ो चलो कोई दास्तान छेड़ो,
ग़म-ए-ज़माना की बात छोड़ो ये ग़म तो अब साज़गार सा है।।

वही फ़सुर्दा सा रंग-ए-महफ़िल वही तिरा एक आम जल्वा,
मिरी निगाहों में बार सा था मिरी निगाहों में बार सा है।।

कभी तो आओ कभी तो बैठो कभी तो देखो कभी तो पूछो,
तुम्हारी बस्ती में हम फ़क़ीरों का हाल क्यूँ सोगवार सा है।।

चलो कि जश्न-ए-बहार देखें चलो कि ज़र्फ़-ए-बहार जांचें,
चमन चमन रौशनी हुई है कली कली पे निखार सा है।।

ये ज़ुल्फ़-बर-दोश कौन आया ये किस की आहट से गुल खिले हैं,
महक रही है फ़ज़ा-ए-हस्ती तमाम आलम बहार सा है।।

_________'साग़र' सिद्दीक़ी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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दुनिया से वफ़ा कर के सिला ढूँढ रहे हैं।
हम लोग भी नादाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं।।

कुछ देर ठहर जाइए ऐ बंदा-ए-इंसाफ़,
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं।।

ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ,
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं।।

दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं।।

_________सुदर्शन 'फ़ाकिर'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा।
कि एक रूह था मैं जिस्म था निशाँ मेरा।।

हर एक साँस नया साल बन के आता है,
क़दम क़दम अभी बाक़ी है इम्तिहाँ मेरा।।

मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले,
न आसमाँ का रहूँ मैं न आसमाँ मेरा।।

चला गया तिरे हमराह ख़ौफ़-ए-रुस्वाई,
कि तू ही राज़ था और तू ही राज़-दाँ मेरा।।

तुझे भी मेरी तरह धूप चाट जाएगी,
अगर रहा न तिरे सर पे साएबाँ मेरा।।

मलाल-ए-रंग-ए-जलाल-ओ-जमाल ठहरा है,
दयार-ए-संग हुआ है दयार-ए-जाँ मेरा।।

कई 'नजीब' इसी आग से जनम लेंगे,
कि मेरी राख से बनना है आशियाँ मेरा।।

_________'नजीब' अहमद
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कुछ दिन तो बसो मिरी आँखों में,
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या।।

कोई रंग तो दो मिरे चेहरे को,
फिर ज़ख़्म अगर महकाओ तो क्या।।

जब हम ही न महके फिर साहब,
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या।।

इक आइना था सो टूट गया,
अब ख़ुद से अगर शरमाओ तो क्या।।

तुम आस बंधाने वाले थे,
अब तुम भी हमें ठुकराओ तो क्या।।

दुनिया भी वही और तुम भी वही,
फिर तुम से आस लगाओ तो क्या।।

मैं तन्हा था मैं तन्हा हूँ,
तुम आओ तो क्या न आओ तो क्या।।

जब देखने वाला कोई नहीं,
बुझ जाओ तो क्या गहनाओ तो क्या।।

अब वहम है ये दुनिया इस में,
कुछ खोओ तो क्या और पाओ तो क्या।।

है यूँ भी ज़ियाँ और यूँ भी ज़ियाँ,
जी जाओ तो क्या मर जाओ तो क्या।।

________उबैदुल्लाह अलीम
गायक:- गुलाम अली
 

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अज़ाब आए थे ऐसे कि फिर न घर से गए।
वो ज़िंदा लोग मिरे घर के जैसे मर से गए।।

हज़ार तरह के सदमे उठाने वाले लोग,
न जाने क्या हुआ इक आन में बिखर से गए।।

बिछड़ने वालों का दुख हो तो सोच लेना यही,
कि इक नवा-ए-परेशाँ थे रहगुज़र से गए।।

हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई,
कि इक सफ़र में रहे और हर सफ़र से गए।।

कभी वो जिस्म हुआ और कभी वो रूह तमाम,
उसी के ख़्वाब थे आँखों में हम जिधर से गए।।

ये हाल हो गया आख़िर तिरी मोहब्बत में,
कि चाहते हैं तुझे और तिरी ख़बर से गए।।

मिरा ही रंग थे तो क्यूँ न बस रहे मुझ में,
मिरा ही ख़्वाब थे तो क्यूँ मिरी नज़र से गए।।

जो ज़ख़्म ज़ख़्म-ए-ज़बाँ भी है और नुमू भी है,
तो फिर ये वहम है कैसा कि हम हुनर से गए।।

________उबैदुल्लाह अलीम
 

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नींद आँखों से उड़ी फूल से ख़ुश्बू की तरह।
जी बहल जाएगा शब से तिरे गेसू की तरह।।

दोस्तो जश्न मनाओ कि बहार आई है,
फूल गिरते हैं हर इक शाख़ से आँसू की तरह।।

मेरी आशुफ़्तगी-ए-शौक़ में इक हुस्न भी है,
तेरे आरिज़ पे मचलते हुए गेसू की तरह।।

अब तिरे हिज्र में लज़्ज़त न तिरे वस्ल में लुत्फ़,
इन दिनों ज़ीस्त है ठहरे हुए आँसू की तरह।।

ज़िंदगी की यही क़ीमत है कि अर्ज़ां हो जाओ,
नग़्मा-ए-दर्द लिए मौजा-ए-ख़ुश्बू की तरह।।

किस को मालूम नहीं कौन था वो शख़्स 'अलीम'
जिस की ख़ातिर रहे आवारा हम आहू की तरह।।

________उबैदुल्लाह 'अलीम'
 

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गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं।
समझो कि अब हूँ और दोबारा नहीं हूँ मैं।।

इक तब्अ' रंग रंग थी सो नज़्र-ए-गुल हुई,
अब ये कि अपने साथ भी रहता नहीं हूँ मैं।।

तुम ने भी मेरे साथ उठाए हैं दुख बहुत,
ख़ुश हूँ कि राह-ए-शौक़ में तन्हा नहीं हूँ मैं।।

पीछे न भाग वक़्त की ऐ ना-शनास धूप,
सायों के दरमियान हूँ साया नहीं हूँ मैं।।

जो कुछ भी हूँ मैं अपनी ही सूरत में हूँ 'अलीम'
'ग़ालिब' नहीं हूँ 'मीर'-ओ-'यगाना' नहीं हूँ मैं।।

________उबैदुल्लाह 'अलीम'
 

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मैं दुआ माँगूँ तो दिल मुझ से ख़फ़ा हो जाएगा।
सर झुका तो सर को सज्दों का नशा हो जाएगा।।

ख़्वाहिशों के डूबते सूरज ने बतलाया न था,
मेरा साया मेरे क़द से भी बड़ा हो जाएगा।।

या तो मुझ से छीन लो ये बुत-तराशी का हुनर,
वर्ना मैं जो बुत तराशूँ तो ख़ुदा हो जाएगा।।

गुफ़्तुगू में ज़ब्त लाज़िम है ज़रा सी चूक पर,
लब पे आ के हर्फ़ हर्फ़-ए-मुद्दआ' हो जाएगा।।

ये मुझे मालूम कब था ख़्वाहिशों की भीड़ में,
मेरा इक इक साँस जीने की सज़ा हो जाएगा।।

मेरे दर्द-ओ-कर्ब की परछाइयाँ चेहरे पे हैं,
मैं ये आँसू रोक भी लूँगा तो क्या हो जाएगा।।

बात तो जुर्म-ओ-सज़ा की है मगर महशर के दिन,
कुछ न कुछ उस से हमारा फ़ैसला हो जाएगा।।

________ओम कृष्ण राहत
 

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उभरती डूबती साँसों का सिलसिला क्यूँ है।
कभी ये सोच कि जो कुछ हुआ हुआ क्यूँ है।।

बने हैं एक ही मिट्टी से हम सभी लेकिन,
हमारी सोच में इस दर्जा फ़ासला क्यूँ है।।

लगा रखा है ये किस ने कड़ी को अंदर से,
उजाड़ घर का दरीचा डरा डरा क्यूँ है।।

अभी तो फूल भी आए नहीं हैं शाख़ों पर,
अभी से बोझ दरख़्तों पे पड़ रहा क्यूँ है।।

ठहर गया है वो आ कर अना के नुक़्ते पर,
उसी के साथ मिरा वक़्त रुक गया क्यूँ है।।

तुम्हीं ने सोच के बिच्छू लगा के रक्खे थे,
नहीं तो ज़ख़्म तुम्हारा हरा-भरा क्यूँ है।।

समझ रहा है कि तेरी कोई सुनेगा नहीं,
तू अपने जिस्म की चीख़ों से बोलता क्यूँ है।।

________उबैद हारिस
 

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जिस का बदन गुलाब था वो यार भी नहीं।
अब के बरस बहार के आसार भी नहीं।।

पेड़ों पे अब भी छाई हैं ठंडी उदासियाँ,
इम्कान जश्न-ए-रंग का इस बार भी नहीं।।

दरिया के इल्तिफ़ात से इतना ही बस हुआ,
तिश्ना नहीं हैं होंट तो सरशार भी नहीं।।

राहों के पेच-ओ-ख़म भी उसे देखने का शौक़,
चलने को तेज़ धूप में तय्यार भी नहीं।।

बिछड़े हुओं की याद निभाते हैं जान कर,
वर्ना किसी को भूलना दुश्वार भी नहीं।।

जितना सितम-शिआर है ये दिल ये अपना दिल,
उतने सितम-शिआर तो अग़्यार भी नहीं।।


अहल-ए-हुनर के बाब में उस का भी ज़िक्र हो,
'फ़िक्री' को ऐसी बात पे इसरार भी नहीं।।

________प्रकाश 'फ़िक्री'
 
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