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दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके।
हम जितना चाहते थे मोहब्बत न कर सके।।
सामान-ए-गुल-फ़रोशी-ए-राहत न कर सके,
राहत को हम शरीक-ए-मोहब्बत न कर सके।।
यूँ कसरत-ए-जमाल ने लूटी मता-ए-दीद,
तसकीन-ए-तिश्ना-कामी-ए-हैरत न कर सके।।
अब इश्क़-ए-खाम-कार ही अरमाँ को दे जवाब,
हम उन को बे-क़रार-ए-मोहब्बत न कर सके।।
बे-मेहरियों से काम रहा गो तमाम-उम्र,
बे-मेहरियों को सहने की आदत न कर सके।।
कुछ ऐसी इल्तिफ़ात-नुमा थी निगाह-ए-दोस्त,
होते रहे तबाह शिकायत न कर सके।।
नाकामियाँ तो फ़र्ज़ अदा अपना कर गईं,
हम हैं कि ए'तिराफ़-ए-हज़ीमत न कर सके।।
फ़ख़्र-ए-मुनासिबत में तिरा नाम ले लिया,
हम ख़ुद ही पर्दा-ए-दारी-ए-उलफ़त न कर सके।।
हर-चंद हाल-ए-दीदा-ओ-दिल हम कहा किए,
तशरीह-ए-कैफ़ियात-ए-मोहब्बत न कर सके।।
अफ़्लाक पर तो हम ने बनाईं हज़ार-हा,
ता'मीर कोई दहर में जन्नत न कर सके।।
हमसाएगी-ए-ज़ाहिद-ए-बद-ख़ू के ख़ौफ़ से,
परवरदिगार तेरी इबादत न कर सके।।
________हबीब अहमद सिद्दीक़ी
हम जितना चाहते थे मोहब्बत न कर सके।।
सामान-ए-गुल-फ़रोशी-ए-राहत न कर सके,
राहत को हम शरीक-ए-मोहब्बत न कर सके।।
यूँ कसरत-ए-जमाल ने लूटी मता-ए-दीद,
तसकीन-ए-तिश्ना-कामी-ए-हैरत न कर सके।।
अब इश्क़-ए-खाम-कार ही अरमाँ को दे जवाब,
हम उन को बे-क़रार-ए-मोहब्बत न कर सके।।
बे-मेहरियों से काम रहा गो तमाम-उम्र,
बे-मेहरियों को सहने की आदत न कर सके।।
कुछ ऐसी इल्तिफ़ात-नुमा थी निगाह-ए-दोस्त,
होते रहे तबाह शिकायत न कर सके।।
नाकामियाँ तो फ़र्ज़ अदा अपना कर गईं,
हम हैं कि ए'तिराफ़-ए-हज़ीमत न कर सके।।
फ़ख़्र-ए-मुनासिबत में तिरा नाम ले लिया,
हम ख़ुद ही पर्दा-ए-दारी-ए-उलफ़त न कर सके।।
हर-चंद हाल-ए-दीदा-ओ-दिल हम कहा किए,
तशरीह-ए-कैफ़ियात-ए-मोहब्बत न कर सके।।
अफ़्लाक पर तो हम ने बनाईं हज़ार-हा,
ता'मीर कोई दहर में जन्नत न कर सके।।
हमसाएगी-ए-ज़ाहिद-ए-बद-ख़ू के ख़ौफ़ से,
परवरदिगार तेरी इबादत न कर सके।।
________हबीब अहमद सिद्दीक़ी