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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके।
हम जितना चाहते थे मोहब्बत न कर सके।।

सामान-ए-गुल-फ़रोशी-ए-राहत न कर सके,
राहत को हम शरीक-ए-मोहब्बत न कर सके।।

यूँ कसरत-ए-जमाल ने लूटी मता-ए-दीद,
तसकीन-ए-तिश्ना-कामी-ए-हैरत न कर सके।।

अब इश्क़-ए-खाम-कार ही अरमाँ को दे जवाब,
हम उन को बे-क़रार-ए-मोहब्बत न कर सके।।

बे-मेहरियों से काम रहा गो तमाम-उम्र,
बे-मेहरियों को सहने की आदत न कर सके।।

कुछ ऐसी इल्तिफ़ात-नुमा थी निगाह-ए-दोस्त,
होते रहे तबाह शिकायत न कर सके।।

नाकामियाँ तो फ़र्ज़ अदा अपना कर गईं,
हम हैं कि ए'तिराफ़-ए-हज़ीमत न कर सके।।

फ़ख़्र-ए-मुनासिबत में तिरा नाम ले लिया,
हम ख़ुद ही पर्दा-ए-दारी-ए-उलफ़त न कर सके।।

हर-चंद हाल-ए-दीदा-ओ-दिल हम कहा किए,
तशरीह-ए-कैफ़ियात-ए-मोहब्बत न कर सके।।

अफ़्लाक पर तो हम ने बनाईं हज़ार-हा,
ता'मीर कोई दहर में जन्नत न कर सके।।

हमसाएगी-ए-ज़ाहिद-ए-बद-ख़ू के ख़ौफ़ से,
परवरदिगार तेरी इबादत न कर सके।।

________हबीब अहमद सिद्दीक़ी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कई दिनों से उसे मुझ से कोई काम नहीं।
यही सबब है कि मुझ से दुआ सलाम नहीं।।

अभी सफ़र में हूँ चलना मिरा मुक़द्दर है,
पहुँच गया हूँ जहाँ वो मिरा मक़ाम नहीं।।

फ़ज़ा कसीफ़ किए जा रहे हैं लोग मगर,
लगाता उन पे यहाँ पर कोई निज़ाम नहीं।।

वो लौटने का बहाना भी ढूँड सकता है,
ख़याल है मिरा लेकिन ख़याल ख़ाम नहीं।।

तुम्हारे महल की बुनियाद में हैं दफ़्न मगर,
कोई भी महल में लेता हमारा नाम नहीं।।

_________हबीब कैफ़ी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना।
रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना।।

लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना,
हम ने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना।।

न सिले की न सताइश की तमन्ना हम को,
हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना।।

हम ने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा,
शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना।।

इस से बढ़ कर मिरी तहसीन भला क्या होगी,
पढ़ के ना-ख़ुश हैं मिरा साहब-ए-सरवत लिखना।।

दहर के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए,
सर्व क़ामत को जवानी को क़यामत लिखना।।

कुछ भी कहते हैं कहीं शह के मुसाहिब 'जालिब'
रंग रखना यही अपना इसी सूरत लिखना।।

_________हबीब 'जालिब'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे।
नए चराग़ जला रात हो गई प्यारे।।

तिरी निगाह-ए-पशेमाँ को कैसे देखूँगा,
कभी जो तुझ से मुलाक़ात हो गई प्यारे।।

न तेरी याद न दुनिया का ग़म न अपना ख़याल,
अजीब सूरत-ए-हालात हो गई प्यारे।।

उदास उदास हैं शमएँ बुझे बुझे साग़र,
ये कैसी शाम-ए-ख़राबात हो गई प्यारे।।

वफ़ा का नाम न लेगा कोई ज़माने में,
हम अहल-ए-दिल को अगर मात हो गई प्यारे।।

तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब'
अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे।।

________हबीब 'जालिब'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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जवानी ज़िंदगानी है न तुम समझे न हम समझे।
ये इक ऐसी कहानी है न तुम समझे न हम समझे।।

हमारे और तुम्हारे वास्ते में इक नया-पन था,
मगर दुनिया पुरानी है न तुम समझे न हम समझे।।

अयाँ कर दी हर इक पर हम ने अपनी दास्तान-ए-दिल,
ये किस किस से छुपानी है न तुम समझे न हम समझे।।

जहाँ दो दिल मिले दुनिया ने काँटे बो दिए अक्सर,
यही अपनी कहानी है न तुम समझे न हम समझे।।

मोहब्बत हम ने तुम ने एक वक़्ती चीज़ समझी थी,
मोहब्बत जावेदानी है न तुम समझे न हम समझे।।

गुज़ारी है जवानी रूठने में और मनाने में,
घड़ी-भर की जवानी है न तुम समझे न हम समझे।।

मता-ए-हुस्न-ओ-उल्फ़त पर यक़ीं कितना था दोनों को,
यहाँ हर चीज़ फ़ानी है न तुम समझे न हम समझे।।

अदा-ए-कम-निगाही ने किया रुस्वा मोहब्बत को,
ये किस की मेहरबानी है न तुम समझे न हम समझे।।

________सबा अकबराबादी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक।
मुक़द्दर में है या रब आरज़ू-ए-ख़ुदकुशी कब तक।।

तड़पने पर हमारे आप रोकेंगे हँसी कब तक,
ये माथे की शिकन कब तक ये अबरू की कजी कब तक।।

किरन फूटी उफ़ुक़ पर आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर की,
सुनाए जाओ अपनी दास्तान-ए-ज़िंदगी कब तक।।

दयार-ए-इश्क़ में इक क़ल्ब-ए-सोज़ाँ छोड़ आए थे,
जलाई थी जो हम ने शम्अ' रस्ते में जली कब तक।।

जो तुम पर्दा उठा देते तो आँखें बंद हो जातीं,
तजल्ली सामने आती तो दुनिया देखती कब तक।।

तह-ए-गिर्दाब की भी फ़िक्र कर ऐ डूबने वाले,
नज़र आती रहेगी साहिलों की रौशनी कब तक।।

कभी तो ज़िंदगी ख़ुद भी इलाज-ए-ज़िंदगी करती,
अजल करती रहे दरमान-ए-दर्द-ए-ज़िंदगी कब तक।।

वो दिन नज़दीक हैं जब आदमी शैताँ से खेलेगा,
खिलौना बन के शैताँ का रहेगा आदमी कब तक।।

कभी तो ये फ़साद-ए-ज़ेहन की दीवार टूटेगी,
अरे आख़िर ये फ़र्क़-ए-ख़्वाजगी-ओ-बंदगी कब तक।।

दयार-ए-इश्क़ में पहचानने वाले नहीं मिलते,
इलाही मैं रहूँ अपने वतन में अजनबी कब तक।।

मुख़ातब कर के अपने दिल को कहना हो तो कुछ कहिए,
'सबा' उस बेवफ़ा के आसरे पर शाइरी कब तक।।

________'सबा' अकबराबादी
 

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सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए।
अब धूप सर पे आ गई है आँख खोलिए।।

याद आ गया जो अपना गरेबाँ बहार में,
दामन से मुँह लपेट लिया और रो लिए।।

अब और क्या करें तिरे तर्क-ए-सितम के बाद,
ख़ुद अपने दिल में आप ही नश्तर चुभो लिए।।

परवाना-ए-रिहाई-ए-ख़ामा तो मिल गया,
लेकिन हुज़ूर अब दर-ए-ज़िंदाँ भी खोलिए।।

अपने लिए तअय्युन-ए-मंज़िल कोई नहीं,
जो भीड़ जिस तरफ़ को चली साथ हो लिए।।

थी नागवार-ए-तब्अ तुझे सादगी-ए-इश्क़,
ले आज हम ने पलकों में मोती पिरो लिए।।

हर इक ब-ज़ोम-ए-ख़्वेश जहाँ हो सुख़न-शनास,
बेहतर ये है 'सबा' कि वहाँ कुछ न बोलिए।।

_________'सबा' अकबराबादी
 

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ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं।
तेरी मंज़िल में कहीं नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी नहीं।।

आप की राह में दुनिया नज़र आती है मुझे,
इक क़दम और जो बढ़ जाऊँ तो दुनिया भी नहीं।।

आप क्या सोच के ग़म अपना अता करते हैं,
हिम्मत-ए-दिल तो ब-क़द्र-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं।।

तुम तो बे-मिस्ल हो तौहीद-ए-मोहब्बत की क़सम,
तुम सा क्या होगा जहाँ में कोई मुझ सा भी नहीं।।

हश्र की भीड़ में एक एक का मुँह तकता हूँ,
इस भरी-बज़्म में इक जानने वाला भी नहीं।।

हुस्न ने दावत-ए-नज़्ज़ारा हर इक रंग से दी,
इश्क़ ने आँख उठा कर कभी देखा भी नहीं।।

एक तुम हो कि तमन्नाओं के दुश्मन ही रहे,
एक मैं हूँ मुझे एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं।।

जुज़्व-ए-दिल बन के समाती है मोहब्बत दिल में,
ये वो काँटा है कि है और खटकता भी नहीं।।

याद आती है 'सबा' बे-वतनों की किस को,
मुझ को यारान-ए-वतन से कोई शिकवा भी नहीं।।

_________'सबा' अकबराबादी
 

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जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं।
जो सोचिए कि ख़फ़ा हैं तो वो ख़फ़ा भी नहीं।।

वो और होंगे जिन्हें मक़दरत है नालों की,
हमें तो हौसला-ए-आह-ए-ना-रसा भी नहीं।।

हद-ए-तलब से है आगे जुनूँ का इस्तिग़्ना,
लबों पे आप से मिलने की अब दुआ भी नहीं।।

हुसूल हो हमें क्या मुद्दआ' मोहब्बत में,
अभी सलीक़ा-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ भी नहीं।।

शगुफ़्त-ए-गुल में भी ज़ख़्म-ए-जिगर की सूरत है,
किसी से एक तबस्सुम का आसरा भी नहीं।।

ज़हे हयात तबीअ'त है ए'तिदाल पसंद,
नहीं हैं रिंद अगर हम तो पारसा भी नहीं।।

सुना तो करते थे लेकिन 'सबा' से मिल भी लिए,
भला वो हो कि न हो आदमी बुरा भी नहीं।।

________'सबा' अकबराबादी
 
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