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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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जिस्म ही पामाल हो जाए तो सर क्या कीजिए।
जान तो हम को भी प्यारी है मगर क्या कीजिए।।

देखते रहिए सहर के ख़्वाब झूटे ही सही,
मश्ग़ला ये भी न हो तो रात भर क्या कीजिए।।

गुफ़्तुगू से रफ़्ता रफ़्ता ख़ामुशी तक आ गए,
और हर्फ़-ए-मुद्दआ' को मुख़्तसर क्या कीजिए।।

हर नज़र तुर्फ़ा तमाशा हर क़दम मंज़िल नई,
सैर से फ़ुर्सत नहीं मिलती सफ़र क्या कीजिए।।

कौन जाने कितने बाज़ू नज़्र-ए-तूफ़ाँ हो गए,
फूल फल गिनिए शुमार-ए-बाल-ओ-पर क्या कीजिए।।

जज़्बा-ए-आबाद-कारी लाएक़-ए-तहसीं मगर,
पत्थरों के शहर में शीशों के घर क्या कीजिए।।

सख़्त-जानी अपनी क़िस्मत ज़ंग ख़ंजर का नसीब,
कश्मकश में जान है 'अफ़ज़ल' मगर क्या कीजिए।।

_________एज़ाज़ 'अफ़ज़ल'
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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आज दिल है कि सर-ए-शाम बुझा लगता है।
ये अँधेरे का मुसाफ़िर भी थका लगता है।।

अपने बहके हुए दामन की ख़बर ली न गई,
जिस को देखो चराग़ों से ख़फ़ा लगता है।।

बाग़ का फूल नहीं लाला-ए-सहरा हूँ मैं,
लू का झोंका भी मुझे बाद-ए-सबा लगता है।।

तंगी-ए-ज़र्फ़-ए-नज़र कसरत-ए-नज़्ज़ारा-ए-दहर,
प्यास कच्ची हो तो हर जाम भरा लगता है।।

किस तकल्लुफ़ से गिरह खोल रहा हूँ दिल की,
उक़्दा-ए-दर्द तिरा बंद-ए-क़बा लगता है।।

ख़ार-ज़ारों को सिखा दे न गुलिस्ताँ का चलन,
ये मुसाफ़िर तो कोई आबला-पा लगता है।।

देख तू रौज़न-ए-ज़िंदाँ से ज़रा सू-ए-चमन,
आज क्यूँ दिल का हर इक ज़ख़्म हरा लगता है।।

कौन 'अफ़ज़ल' के सिवा ऐसी ग़ज़ल छेड़ेगा,
दोस्तो ये वही आशुफ़्ता-नवा लगता है।।

_________एज़ाज़ 'अफ़ज़ल
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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किस तरह छोड़ दूँ ऐ यार मैं चाहत तेरी।
मेरे ईमान का हासिल है मोहब्बत तेरी।।

जाने क्या बात है जल्वों में तिरे जान-ए-जहाँ,
याद आता है ख़ुदा देख के सूरत तेरी।।

अब निगाहों में जचेगा न कोई रंग-ओ-जमाल,
मेरी आँखों को पसंद आ गई रंगत तेरी।।

अपनी क़िस्मत पे फ़रिश्तों की तरह नाज़ करूँ,
मुझ पे हो जाए अगर चश्म-ए-इनायत तेरी।।

हरम-ओ-दैर के जल्वों से मुझे क्या मतलब,
शीशा-ए-दिल में उतर आई है सूरत तेरी।।

आस्ताने से तिरे सर न उठेगा मेरा,
मुद्दआ' बन के मिली है मुझे निस्बत तेरी।।

मैं 'फ़ना' हो के पहुँच जाऊँगा तेरे दर तक,
राह दिखलाने लगी मुझ को मोहब्बत तेरी।।

________'फ़ना' बुलंदशहरी
 

Naina

Nain11ster creation... a monter in me
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किस तरह छोड़ दूँ ऐ यार मैं चाहत तेरी।
मेरे ईमान का हासिल है मोहब्बत तेरी।।

जाने क्या बात है जल्वों में तिरे जान-ए-जहाँ,
याद आता है ख़ुदा देख के सूरत तेरी।।

अब निगाहों में जचेगा न कोई रंग-ओ-जमाल,
मेरी आँखों को पसंद आ गई रंगत तेरी।।

अपनी क़िस्मत पे फ़रिश्तों की तरह नाज़ करूँ,
मुझ पे हो जाए अगर चश्म-ए-इनायत तेरी।।

हरम-ओ-दैर के जल्वों से मुझे क्या मतलब,
शीशा-ए-दिल में उतर आई है सूरत तेरी।।

आस्ताने से तिरे सर न उठेगा मेरा,
मुद्दआ' बन के मिली है मुझे निस्बत तेरी।।

मैं 'फ़ना' हो के पहुँच जाऊँगा तेरे दर तक,
राह दिखलाने लगी मुझ को मोहब्बत तेरी।।

________'फ़ना' बुलंदशहरी
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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ज़मीं के बाद हम अब आसमाँ न रक्खेंगे।
ख़ला रहेगा क़दम हम जहाँ न रक्खेंगे।।

जवाब देना पड़ेगा हमें ख़मोशी का,
सो तय किया है कि मुँह में ज़बाँ न रक्खेंगे।।

कहीं इज़ाफ़ा कहीं हज़्फ़ तो कहीं तरमीम,
कहीं की अब वो मिरी दास्ताँ न रखेंगे।।

तुले हैं हाथ जो विर्से पे साफ़ करने पर,
किसी भी दौर का बाक़ी निशाँ न रक्खेंगे।।

बता रहे हैं हम एहसाँ जताने वालों को,
जो सर पे बोझ हो वो साएबाँ न रक्खेंगे।।

नुमू के वास्ते कोशाँ हैं इस यक़ीन के साथ,
बड़े हुए तो हम इस का गुमाँ न रक्खेंगे।।

अगर हो वज्ह-ए-तअल्लुक़ तो हम से दूर रहो,
कोई भी फ़ासला हम दरमियाँ न रक्खेंगे।।

जब अपने घर में ही अपनी अना को ख़तरा है,
हम अपने पास ये जिंस-ए-गिराँ न रक्खेंगे।।

किसी ने मारा है शब-ख़ून ऐसा 'राही' पर,
कि अब वो सुब्ह तलक तन में जाँ न रक्खेंगे।।

_______गुलाम मुर्तज़ा 'राही'
 

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वो मेरे हाल पे रोया भी मुस्कुराया भी।
अजीब शख़्स है अपना भी है पराया भी।।

ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था,
दिया जलाया भी मैं ने दिया बुझाया भी।।

मैं चाहता हूँ ठहर जाए चश्म-ए-दरिया में,
लरज़ता अक्स तुम्हारा भी मेरा साया भी।।

बहुत महीन था पर्दा लरज़ती आँखों का,
मुझे दिखाया भी तू ने मुझे छुपाया भी।।

बयाज़ भर भी गई और फिर भी सादा है,
तुम्हारे नाम को लिक्खा भी और मिटाया भी।।

________आनिस मुईन
 

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सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए।
ख़याल-ओ-ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए।।

मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में,
ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए।।

बस एक ख़ौफ़ में होती है हर सहर मेरी,
निशान-ए-ख़्वाब कहीं आँख पर न रह जाए।।

ये बे-हिसी तो मिरी ज़िद थी मेरे अज्ज़ा से,
कि मुझ में अपने तआक़ुब का डर न रह जाए।।

हवा-ए-शाम तिरा रक़्स ना-गुज़ीर सही,
ये मेरी ख़ाक तिरे जिस्म पर न रह जाए।।

उसी की शक्ल लिया चाहती है ख़ाक मिरी,
सो शहर-ए-जाँ में कोई कूज़ा-गर न रह जाए।।

गुज़र गया हो अगर क़ाफ़िला तो देख आओ,
पस-ए-ग़ुबार किसी की नज़र न रह जाए।।

मैं एक ओर खड़ा हूँ हिसार-ए-दुनिया के,
वो जिस की ज़िद में खड़ा हूँ उधर न रह जाए।।

__________अभिषेक शुक्ला
 

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आँखों में हैं जो ख़्वाब कोई जानता नहीं।
इस दिल का इज़्तिराब कोई जानता नहीं।।

है अपनी अपनी प्यास का हर एक को ख़याल,
दरिया भी है सराब कोई जानता नहीं।।

ये जानते हैं लोग कि अंजाम क्या हुआ,
क्यों आया इंक़लाब कोई जानता नहीं।।

ज़र्रे की रौशनी को समझते हैं सब हक़ीर,
है वो भी आफ़्ताब कोई जानता नहीं।।

इक हश्र सा बपा है अनासिर के दरमियाँ,
किस में है कितनी ताब कोई जानता नहीं।।

दा'वा तो अपने इल्म का सब को है ऐ 'ज़िया'
क्या चीज़ है किताब कोई जानता नहीं।।

_________अब्दुल क़वि 'ज़िया'
 

Rahul

Kingkong
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Good night sweet dreams:snore:
 
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