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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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वो चाँद हो कि चाँद सा चेहरा कोई तो हो।
इन खिड़कियों के पार तमाशा कोई तो हो।।

लोगो इसी गली में मिरी उम्र कट गई,
मुझ को गली में जानने वाला कोई तो हो।।

मुझ को तो अपनी ज़ात का इसबात चाहिए,
होता है और मेरे अलावा कोई तो हो।।

जिस सम्त जाइए वही दरिया है सामने,
इस शहर से फ़रार का रस्ता कोई तो हो।।

अपने सिवा भी मैं कोई आवाज़ सुन सकूँ,
वो बर्ग-ए-ख़ुश्क हो कि परिंदा कोई तो हो।।

यूँ ही ख़याल आता है बाँहों को देख कर,
इन टहनियों पे झूलने वाला कोई तो हो।।

हम इस उधेड़-बुन में मोहब्बत न कर सके,
ऐसा कोई नहीं मगर ऐसा कोई तो हो।।

मुश्किल नहीं है इश्क़ का मैदान मारना,
लेकिन हमारी तरह निहत्ता कोई तो हो।।

_______अब्बास 'ताबिश'
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा।
क़ज़ा-ओ-क़द्र का चेहरा उतर गया होगा।।

जो अपने हाथों लुटे हैं बस इस पे ज़िंदा हैं,
ख़ुदा कुछ उन के लिए भी तो सोचता होगा।।

तिरी गली में कोई साए रात भर अब भी,
सुराग़-ए-जन्नत गुम-गश्ता ढूँडता होगा।।

जो ग़म की आँच में पिघला किया और आह न की,
वो आदमी तो नहीं कोई देवता होगा।।

तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा,
इस आइने का मुक़द्दर ही टूटना होगा।।

है मेरे क़त्ल की शाहिद वो आस्तीं भी मगर,
मैं किस का नाम लूँ सौ बार सोचना होगा।।

ये मेरी प्यास के साग़र तेरे लबों की शराब,
रवाज-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत का मोजज़ा होगा।।

फिर आरज़ू के खंडर रंग-ओ-बू में डूब चले,
फ़रेब-ख़ुर्दा कोई ख़्वाब देखता होगा।।

सितारे भी तिरी यादों के बुझते जाते हैं,
ग़म-ए-हयात का सूरज निकल रहा होगा।।

सदा किसे दें 'नईमी' किसे दिखाएँ ज़ख़्म,
अब इतनी रात गए कौन जागता होगा।।

________अब्दुल हफ़ीज़ 'नईमी'
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया।
आप याद आए तो ये मंज़र नहीं देखा गया।।

आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी,
आप के जाते ही हम से घर नहीं देखा गया।।

अपनी सारी कज-कुलाही दास्ताँ हो कर रही,
इश्क़ जब मज़हब किया तो सर नहीं देखा गया।।

फूल को मिट्टी में मिलता देख कर मिट्टी हुए,
हम से कोई फूल मिट्टी पर नहीं देखा गया।।

जिस्म के अंदर सफ़र में रूह तक पहुँचे मगर,
रूह के बाहर रहे अंदर नहीं देखा गया।।

जिस गदा ने आप के दर पर सदा दी एक बार,
उस गदा को फिर किसी दर पर नहीं देखा गया।।

आप को पत्थर लगे 'जावेद' जी देखा है ये,
आप के हाथों में गो पत्थर नहीं देखा गया।।

_________अब्दुल्लाह 'जावेद'
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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Waahh The_InnoCent bhai kya shayri hai________

दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा।
क़ज़ा-ओ-क़द्र का चेहरा उतर गया होगा।।

जो अपने हाथों लुटे हैं बस इस पे ज़िंदा हैं,
ख़ुदा कुछ उन के लिए भी तो सोचता होगा।।

तिरी गली में कोई साए रात भर अब भी,
सुराग़-ए-जन्नत गुम-गश्ता ढूँडता होगा।।

जो ग़म की आँच में पिघला किया और आह न की,
वो आदमी तो नहीं कोई देवता होगा।।

तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा,
इस आइने का मुक़द्दर ही टूटना होगा।।

है मेरे क़त्ल की शाहिद वो आस्तीं भी मगर,
मैं किस का नाम लूँ सौ बार सोचना होगा।।

ये मेरी प्यास के साग़र तेरे लबों की शराब,
रवाज-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत का मोजज़ा होगा।।

फिर आरज़ू के खंडर रंग-ओ-बू में डूब चले,
फ़रेब-ख़ुर्दा कोई ख़्वाब देखता होगा।।

सितारे भी तिरी यादों के बुझते जाते हैं,
ग़म-ए-हयात का सूरज निकल रहा होगा।।

सदा किसे दें 'नईमी' किसे दिखाएँ ज़ख़्म,
अब इतनी रात गए कौन जागता होगा।।

________अब्दुल हफ़ीज़ 'नईमी'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कैसे बनाऊँ हाथ पर तस्वीर ख़्वाब की।
मुझ को मिली न आज तक ताबीर ख़्वाब की।।

आँखों से नींद रूठ के जाने किधर गई,
कटती नहीं है रात-भर ज़ंजीर ख़्वाब की।।

जिस शहर में हो ख़्वाब चुराने की वारदात,
कैसे करूँ वहाँ पे मैं तश्हीर ख़्वाब की।।

ख़्वाबों ने हर क़दम पे मुझे हौसला दिया,
देखी नहीं है तुम ने क्या तासीर ख़्वाब की।।

कब तक रहेगी तीरगी तेरे ख़याल में,
रौशन करेगी उस को भी तनवीर ख़्वाब की।।

उस दिन तो मेरे ख़्वाबों को पहचान जाओगे,
जिस दिन लिखेगा कोई भी तफ़्सीर ख़्वाब की।।

ख़्वाबों को ही 'इरम' ने असासा बना लिया,
रहने दो मेरे पास ये जागीर ख़्वाब की।।

__________'इरम' ज़ेहरा
 

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बहुत सजाए थे आँखों में ख़्वाब मैं ने भी।
सहे हैं उस के लिए ये अज़ाब मैं ने भी।।

जुदाइयों की ख़लिश उस ने भी न ज़ाहिर की,
छुपाए अपने ग़म ओ इज़्तिराब मैं ने भी।।

दिए बुझा के सर-ए-शाम सो गया था वो,
बिताई सो के शब-ए-माहताब मैं ने भी।।

यही नहीं कि मुझे उस ने दर्द-ए-हिज्र दिया,
जुदाइयों का दिया है जवाब मैं ने भी।।

किसी ने ख़ून में तर चूड़ियाँ जो भेजी हैं,
लिखी है ख़ून-ए-जिगर से किताब मैं ने भी।।

ख़िज़ाँ का वार बहुत कार-गर था दिल पे मगर,
बहुत बचा के रखा ये गुलाब मैं ने भी।।

_________ऐतबार साजिद
 

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किसी ने दिल के ताक़ पर जला के रख दिया हमें।
मगर हवा-ए-हिज्र ने बुझा के रख दिया हमें।।

हज़ार हम ने ज़ब्त से लिया था काम क्या करें,
किसी के आँसुओं ने फिर रुला के रख दिया हमें।।

हमारी शोहरतें ख़राब इस तरह भी उस ने कीं,
कि अपने आश्नाओं से मिला के रख दिया हमें।।

हमें इस अंजुमन में जाने उस ने क्यूँ बुला लिया,
बुला लिया और इक तरफ़ बिठा के रख दिया हमें।।

फ़क़त हम एक देखने की चीज़ बन के रह गए,
किसी ने ऐसा इश्क़ में बना के रख दिया हमें।।

हम 'ऐतबार' उस की हर शिकस्त में शरीक थे,
मगर बिसात से अलग उठा के रख दिया हमें।।

_________'ऐतबार' साजिद
 

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रुस्वा भी हुए जाम पटकना भी न आया।
रिंदों को सलीक़े से बहकना भी न आया।।

वो लोग मिरी तर्ज़-ए-सफ़र जाँच रहे हैं,
मंज़िल की तरफ़ जिन को हुमकना भी न आया।।

था जिन में सलीक़ा वो भरी बज़्म में रोए,
हम को तो कहीं छुप के सिसकना भी न आया।।

हम ऐसे बला-नोश कि छलकाते ही गुज़री,
तुम ऐसे तुनुक-ज़र्फ़ छलकना भी न आया।।

हम जाग रहे थे सो अभी जाग रहे हैं,
ऐ ज़ुल्मत-ए-शब तुझ को थपकना भी न आया।।

ललचाई कोई ज़ुल्फ़ न मचला कोई दामन,
इस बाग़ के फूलों को महकना भी न आया।।

कम-बख़्त सू-ए-दैर-ओ-हरम भाग रही हैं,
गुलशन की हवाओं को सनकना भी न आया।।

लहराती ज़रा प्यास ज़रा कान ही बजते,
इन ख़ाली कटोरों को खनकना भी न आया।।

________एज़ाज़ अफ़ज़ल
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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लहू ने क्या तिरे ख़ंजर को दिलकशी दी है।
कि हम ने ज़ख़्म भी खाए हैं दाद भी दी है।।

लिबास छीन लिया है बरहनगी दी है,
मगर मज़ाक़ तो देखो कि आँख भी दी है।।

हमारी बात पे किस को यक़ीन आएगा,
ख़िज़ाँ में हम ने बशारत बहार की दी है।।

धरा ही क्या था तिरे शहर-ए-बे-ज़मीर के पास,
मिरे शुऊ'र ने ख़ैरात-ए-आगही दी है।।

हयात तुझ को ख़ुदा और सर-बुलंद करे,
तिरी बक़ा के लिए हम ने ज़िंदगी दी है।।

कहाँ थी पहले ये बाज़ार-ए-संग की रौनक़,
सर-ए-शिकस्ता ने कैसी हमाहमी दी है।।

चराग़ हूँ मिरी किरनों का क़र्ज़ है सब पर,
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ नज़र सब को रौशनी दी है।।

चली न फिर किसी मज़लूम के गले पे छुरी,
हमारी मौत ने कितनों को ज़िंदगी दी है।।

तिरे निसाब में दाख़िल थी आस्ताँ-बोसी,
मिरे ज़मीर ने ता'लीम-ए-सरकशी दी है।।

कटेगी उम्र सफ़र जादा-ए-आफ़रीनी में,
तिरी तलाश ने तौफ़ीक़-ए-गुमरही दी है।।

हज़ार दीदा-तसव्वुर हज़ार रंग-ए-नज़र,
हवस ने हुस्न को बिसयार चेहरगी दी है।।

________एज़ाज़ अफ़ज़ल
 
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