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Erotica जोरू का गुलाम उर्फ़ जे के जी

komaalrani

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अपडेट पोस्टेड - एक मेगा अपडेट, जोरू का गुलाम - भाग २३९ -बंबई -बुधवार - वॉर -२ पृष्ठ १४५६

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Rdsingh

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मैं अपनी कहानी जोरू का गुलाम यहाँ शुरू कर रही हूँ , शुरू से। यह कहानी फोरम के अचानक बंद होने के कारण अधूरी रह गयी थी। आप सब सुधी पाठक पाठिकाओं की राय का इन्तजार रहेगा।

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komaalrani

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komaalrani

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जोरू का गुलाम भाग ४४

गीता

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बाहर आसमान में कुछ नशे में धुत्त आवारा बादल टहल रहे थे ,चांदनी को छेड़ते। कभी वो घेर के खड़े हो जाते चंद्रमुख को तो बस रौशनी हलकी हो जाती और जब जबरन वो लोफर बादल उस के चेहरे पर हाथ रख कर भींच लेते तो घुप्प अँधेरा।


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मंजू बाई का घर पास में ही था।


कुछ झोपड़ियां स्लम की तरह ,कच्चे पक्के मकान और उसी के आखिर में एक गली में , मंजू बाई का घर।


थोड़ा कच्चा ,थोड़ा पक्का।

गली में सन्नाटा हो चला था।


आसमान में तो वैसे ही चांदनी और बादलों का लुकाछिपी का खेल चल रहा था ,गली में कुछ कमजोर लैम्पपोस्ट के बल्ब , कमजोर हलकी पीली रोशनी से स्याह अँधेरे को हटाने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे ,

और मंजू बाई के घर के पास के लैम्प पोस्ट का बल्ब निशानेबाजी की प्रैक्टिस का शिकार हो गया था।

घुप्प अँधेरा।

चारो और सन्नाटा था ,फिर मंजू बाई के घर के आसपास कोई घर था भी नहीं , बस एक बड़ा सा पुराना नीम का पेड़ , जिसकी टहनियां मंजू बाई के आंगन को झुक कर छू लेती थीं।

घर की दीवालें तो कच्ची थी ,लेकिन छत पक्की।

उन्होंने आसपास देखा, कोई नहीं दिख रहा था। थोड़ी देर पहले दस बजने के घंटे की आवाज कहीं से आयी थी।

बस मैं नाक करूँगा , और मंजू बाई को बोल कर की उसे कल सुबह नहीं आना है ,ये बता के चला आऊंगा। घर के अंदर एकदम नहीं घुसूंगा।

बार बार ये मन में अपनी सोच दुहरा रहे थे।


लेकिन मंजू बाई के घर का दरवाजा खुला हुआ था , अँधेरे में अदंर से लालटेन की हल्की कमजोर पीली रौशनी बस छन छन कर आ रही थी।

क्या करें ,क्या करें ये सोचते रहे , फिर सांकल खड़का दी।

कोई जवाब नहीं मिला।

अबकी हिम्मत कर सांकल उन्होंने और जोर से खड़काई ,फिर भी कोई जवाब नहीं मिला।

उठंगे ,अधखुले दरवाजे से उन्होंने देखा ,

अंदर कुछ दिख नहीं रहा था , बस एक कच्चा सा छोटा सा बरामदा ,उसके बगल में एक कमरा। लेकिन कोई भी नही दिख रहा था।


उन्होंने अपना इरादा पक्का किया , बस एक बार और सांकल खड़काऊँगाँ , कोई निकला तो ठीक वरना चला जाऊंगा। अंदर नहीं जाऊंगा।


आसमान में आवारा बादलों की संख्या बढ़ गयी थी ,

और कुछ देर रुक के उन्होंने थोड़ी तेजी से सांकल खड़काई ,हलकी आवाज में बोला भी


मंजू बाई ,

लेकिन कोई जवाब नहीं ,और खुले दरवाजे से अंदर का कच्चा बरामदा ,थोड़ा सा कच्चा आँगन साफ़ दिख रहा था।


उहापोह में उनके पैर ठिठके थे।

" कही सो तो नहीं गयी वो लेकिन इस तरह दरवाजा खोल के ,... "

कुछ नहीं तय कर पा रहे थे वो।

" बस एक सेकेण्ड के लिए अदंर जा के ,बस बोल के वापस आ जाऊंगा। "

कमजोर मन से सोचा उन्होंने।


अंदर कोई भी नहीं दिखा।

बस कच्चे बरामदे के एक कोने में लालटेन जल रही थी ,हलकी हलकी परछाईं बरामदे के दीवारों पर पड़ रही थी।

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छोटे से आँगन में भी एक दरवाजा था बाहर का।


कमरा बंद था ,.

उनकी निगाह आंगन की ओर लगी थी तभी बाहर के दरवाजे के बंद होने की आवाज आयी।

चरर , और फिर सांकल लगने की ,ताला लगने की।

मुड़ कर वो दरवाजे के पास पहुंचे ,पर दरवाजा बाहर से बंद हो चुका था।

एक बार उन्होंने फिर बरामदे की ओर देखा , कच्चा मिट्टी के फर्श का बरामदा , उसके एक कोने में टिमटिमाती लालटेन।

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फिर वो दरवाजे के पास गए ,हिलाया ,डुलाया ,झाँक कर देखा।

दरवाजा अच्छी तरह बंद था , कुण्डी में लगा ताला भी दरवाजे की फांक से दिख रहा था।



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किसी ने बाहर से दरवाजा बन्द कर ताला लगा दिया था।
………………………………………….

 

komaalrani

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गीता




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और फिर एक खिलखिलाहट ,जैसे चांदी की हजार घण्टियाँ एक साथ बज उठी हों।

और उन्होंने मुड़ कर देखा तो जैसे कोई सपना हो , एक खूबसूरत परछाईं , एक साया सा ,

बस वो जड़ से होगये जैसे उन्हें किसी ने मूठ मार दी हो।


झिलमिलाती दीपशिखा सी , और एक बार फिर वही हजार चांदी के घंटियों की खनखनाहट ,

' भइया क्या हुआ , क्या देख रहे हो , मैं ही तो हूँ "

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उस जादू की जादुई आवाज ने , वो जादू तोडा.

" माँ ने कहा था तुम आओगे ,अरे ताला बाहर से मैंने ही बंद किया है। ये रही ताली। "

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चूड़ियों की खनखनाहट के साथ कलाई हिला के उसने चाभी दिखाई.

बुरा हो दीवार का , अमिताभ बच्चन का,।

एकदम फ़िल्मी स्टाइल ,

और लग भी रही थी वो एक फ़िल्मी गाँव की छोरी की तरह ,

लेकिन निगाह उनकी बस वहीँ चिपकी थी जहां चाभी छुपी थी ,


छल छलाते ,छलकते हुए गोरे गोरे दूध से ,

दूध से भरे दोनों थन।

एकदम जोबन से चिपका एकदम पतले कपडे का ब्लाउज , बहुत ही लो कट ,

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ब्रा का तो सवाल ही नहीं था ,


अपनी माँ की तरह वो भी नहीं पहनती थी और आँचल कब का सरक कर, ढलक कर ,...

गोल गोल गोलाइयाँ।




"भइया क्या देख रहे हो ,... " शरारत से खिलखिलाते उसने पूछा।


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मालुम तो उसे भी था की उनकी निगाहें कहाँ चिपकी है। ,

चम्पई गोरा रंग , छरहरी देह ,खूब चिकनी,

माखन सा तन दूध सा जोबन ,और दूध से भरा छोटे से ब्लाउज से बाहर छलकता।

साडी भी खूब नीचे कस के बाँधी ,न सिर्फ गोरा पान के पत्ते सा चिकना पेट , गहरी नाभी ,कटीली पतली कमरिया खुल के दिख रही थी ,ललचा रही थी , बल्कि भरे भरे कूल्हे की हड्डियां भी जहन पर साडी बस अटकी थी।

और खूब भरे भरे नितम्ब।


पैरों में चांदी की घुँघुरु वाली पायल ,घुंघरू वाले बिछुए , कामदेव की रण दुंदुभि और उन का साथ देती ,

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खनखनाती ,चुरमुर चुरमुर करती लाल लाल चूड़ियां ,कलाई में , पूरे हाथ में , कुहनी तक।


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गले में एक मंगल सूत्र ,गले से एकदम चिपका और ठुड्डी पर एक बड़ा सा काला तिल ,

एक दम फ़िल्मी गोरियों की तरह , लेकिन मेकअप वाला नहीं एकदम असली।


हंसती तो गालों में गड्ढे पड़ जाते।


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और एक बार फिर हंस के ,खिलखलाते हुए उसने वही सवाल दुहराया , एकदम उनके पास आके , अपने एक हाथ से अपनी लम्बी चोटी लहराते ,उसमें लगा लाल परांदा जब उनके गालों निकल गया तो बस ४४० वोल्ट का करेंट उन्हें मार गया।

" भैया क्या देख रहे हो , बैठो न ,पहली बार तो आये हो। "

और गीता ने उनकी और एक मोढ़ा बढ़ा दिया। और खुद घस्स से पास में ही फर्श पर बैठ गयी।

मोढ़े पर बैठ कर उन्होंने उस जादू बंध से निकलने की कोशिश की , बोलना शुरू किया ,

" असल में मैं आया था ये कहने की ,... लेकिन दरवाजा खुला था इसलिए अंदर आ गया ,... "

लेकिन नए नए आये जोबन के जादू से निकलना आसान है क्या ,और ऊपर से जब वो दूध से छलछला रहा हो ,नयी बियाई का थन वैसे ही खूब गदरा जाता है और गीता के तो पहले से ही गद्दर जोबन ,...


फिर जिस तरह से वो मोढ़े पर बैठे थे और वो नीचे फर्श पर बैठी थी , बिन ढंके ब्लाउज से उसकी गहराई , उभार और कटाव सब एकदम साफ़ साफ़ दिख रहा था।

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एक बार फिर आँख और जुबान की जंग में आँखों की जीत हो गयी थी ,उनकी बोलती बंद हो गयी थी।

" हाँ भैया बोल न ,... "

उसने फिर उकसाया।

वह उठ कर जाना चाहते थे लेकिन उनके पैर जमीन से चिपक गए थे। दस दस मन के।

और फिर ताला भी बाहर से बंद था और चाभी गीता की ,

हिम्मत कर के उन्होंने फिर बोलना शुरू किया ,

" असल में ,असल में ,... मैं ये कहने आया था न की तेरी माँ से की,... की ,... कल ,... "

एक बार फिर चांदी के घुंघरुओं ने उनकी आवाज को डुबो दिया।

गीता बड़े जोर से खिलखिलाई।

" अरे भैय्या , वो मैंने माँ को बोल दिया है। यही कहना था की न भौजी कल सबेरे खूब देर में आएँगी , वो और उनकी माँ कही बाहर गयी है ,यही न "

चंपा के फूल झड रहे थे। बेला महक रही थी।

उनकी निगाहें तो बस उसके गोल गोल चन्दा से चेहरे पर , लरजते रसीले होंठों पर चिपकी थी।

" अब तुम कहोगे की मुझे कैसे मालुम हो गया ये सब तो भैया हुआ ये ,की मैं बनिया के यहाँ कुछ सौदा सुलुफ लेने गयी थी , बस निकली तो भौजी दिख गयीं। गाडी चला रही थी.एकदम मस्त लग रही थी गाडी चलाते। बस ,मुझे देख के गाडी रोक लिया। "


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गीता दोनों हाथों से स्टियरिंग व्हील घुमाने की एक्टिंग कर रही थी और उनकी निगाह उसकी कोमल कोमल कलाइयों पर ,लम्बी लम्बी उँगलियों से चिपकी हुयी थी।

जब इतना कुछ देखने को हो तो सुनता कौन है। गीता चालू रही

" भौजी बहुत अच्छी है , मुझसे बहुत देर तक बातें की फिर बोली की वो लोग रात भर बाहर रहेंगी ,कल सबेरे भी बहुत देर में आएँगी। घर पे आप अकेले है , इसलिए मैं माँ को बोल दूँ की सबेरे जाने की जरुरत नहीं है बस दुपहरिया को आये। और मैंने माँ को बोल भी दिया। वो भी बाहर गयी है , मुझसे रास्ते में मिली थी , तो बस आप का काम मैंने कर दिया ,ठीक न। "




और एक बार फिर दूध खील बिखेरती हंसी ,उस हंसिनी की।


और अब जब वो तन्वंगी उठी तो बस उसके उभार उनकी देह से रगड़ते , छीलते , ,... ऊपर से कटार मारती काजर से भरी कजरारी निगाहें ,

बरछी की नोक सी ब्लाउज फाड़ते जुबना की नोक।

" भैया कुछ खाओगे ,पियोगे? "

अब वो खड़ी थी तो उनकी निगाह गीता के चिकने चम्पई पेट पर ,गहरी नाभी पर थी।

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गीता के सवाल ने उन्हें जैसे जगा दिया और अचानक कही से उनके मन में मंजू बाई की बात कौंध गयी ,

" ,... लेकिन तुझे पहले खाना पीना पडेगा ,गीता का , सब कुछ ,... लेकिन घबड़ाओ मत हम दोनों रहेंगे न ,एकदम हाथ पैर बाँध के , जबरदस्ती ,... "


और वो घबड़ा के बोले ,

" नहीं नहीं कुछ नहीं मैं खा पी के आया हूँ ,बस चलता हूँ। " उन्होंने मोढ़े पर से उठने की कोशिश की।

पर झुक कर गीता ने उनके दोनों कंधे पकड़ के रोक लिया।

पहली बार गीता का स्पर्श उनकी देह से हुआ था ,और वो जैसे झुकी थी , गहरे कटे ब्लाउज से झांकते गीता के कड़े कड़े गोरे गुलाबी उभार उनके कांपते प्यासे होंठों से इंच भर भी दूर नहीं थे।

" वाह वाह ऐसे कैसे जाओगे , मैं जाने थोड़े ही दूंगी। भले आये हो अपनी मर्जी से लेकिन अब जाओगे मेरी मर्जी से , फिर वहां कौन है ,भौजी तो देर सबेरे लौंटेगी न। बैठे रहो चुपचाप ,चलो मैं चाय बनाती हूँ आये हो तो कम से कम मेरे हाथ की चाय तो पी के जाओ न भइया। "

वो बोली और पास ही चूल्हे पर चाय का बर्तन चढ़ा दिया।

चूल्हे की आग की रोशनी में उसका चम्पई रंग ,खुली गोलाइयाँ और दहक़ रही थी।

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……चाय बनाते समय भी वो टुकुर टुकुर , अपनी बड़ी बड़ी कजरारी आँखों से ,उन्हें देख रही थी।

आँचल अभी भी ढलका हुआ था.

" लो भैया चाय " एक कांच की ग्लास में गीता ने चाय ढाल कर उन्हें पकड़ा दिया और दूसरे ग्लास में उड़ेलकर खुद सुड़ुक सुड़ुक पीने लगी।



वास्तव में चाय ने उनकी सारी थकान एक झटके में दूर कर दी। गरम ,कड़क ,... और कुछ और भी था उसमें। या शायद जो उन्होंने बीयर पी थी ,उसका असर रहा होगा।

आँख नचाकर ,शरारत से मुस्कराते हुए गीता ने पूछा ,

" क्यों भैय्या ,चाय मस्त है ना , कड़क। "


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और न चाहते हुए भी उनके मुंह से निकल गया ,

" हाँ एकदम तेरी तरह। "

और जिस शोख निगाह से गीता ने मेरी ओर देखा और अदा से बोली ,

" भैया ,आप भी न "

न जाने मुझे क्या हो रहा था , चाय में कुछ था या बीयर का नशा ,

" हे आप नहीं तुम बोलो। " मैं बोल पड़ा।

" धत्त , आप बड़े हो न " खिस्स से हंस पड़ी वो और दूर बादलों में बिजली चमक गयी।

" तो क्या हुआ ,बोल न ,... तुम। " मैंने जिद की।

" ठीक है ,तुम ,...लेकिन तुम को मेरी सारी बातें माननी पड़ेगीं। " उठती हुयी वो बोलीं ,और जब उसने मेरे हाथ से ग्लास लिया तो पता नहीं जाने अनजाने देर तक उसकी उँगलियाँ ,मेरी उँगलियों से रगडती रहीं।

देह में तो मेरी मस्ती छा रही थी पर सर में कुछ कुछ , अजीब सा ,... "

और मैंने उससे बोल ही दिया ,

" मेरे सर में कुछ दर्द सा ,... "

" अरे अभी ठीक कर देती हूँ ,मैं हूँ न आपकी छोटी बहना। "


और उसने एक कटोरी में तेल लेके आग पे रख दिया गरम होने और मेरे पास आके मुझे भी उठा दिया। मेरे नीचे से मोढा हटा के उसने चटाई बिछा दी।


और फिर एक दम मुझसे सट के ,मेरी छाती पे अपना सीना रगड़ते , उसने बिना कुछ कहे सुने मेरी शर्ट उतार कर वही खूंटी पे टांग दी,

फिर बोली ,

" तुम लेट जाओ ,मैं तेल लगा देती हूँ। "

फिर बोली "नहीं नहीं रुको , आपकी , तेरी पैंट गन्दी हो जाएगी। आप ये मेरी साडी लुंगी बना के पहन लो न। "


और जब तक मैं मना करूँ ,कुछ समझूँ ,सर्र से सरकती हुयी उसकी साडी उसकी देह से अलग हो गयी और बस उसने मेरी कमर के चारो ओर बाँध के मेरी पैंट उतार दी। पेंट भी अब शर्ट के साथ खूंटी पे

और मैं उसकी साडी लुंगी की तरह लपेटे ,


लेकिन मैं उसे पेटीकोट ब्लाउज में देख नहीं पाया ज्यादा ,


उसने मुझे चटाई पर लिटा दिया , पेट के बल ,बोला आँखे बंद क्र लूँ।
 

komaalrani

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Hottttttt

Thanks next post soon
 

komaalrani

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मालिश,...तेल मालिश



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तेल अब उसके पास था और मेरा सर , ...


.ये साफ़ था गीता का पेटीकोट सरक के जाँघों के एकदम ऊपरी हिस्से तक पहुंच गया था ,क्योंकि मेरा सर उसने अपनी खुली मखमली जाँघों पर रखा था और धीरे धीरे अपनी उँगलियों से मेरे सर में ,माथे पर ,कनपटी पर तेल लगा रही थी।



थोड़ी ही देर में आराम हो गया।

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सब कुछ भूल कर बस उसके मांसल जंघाओं के स्पर्श का अहसास हो रहा था।


और पता भी नहीं चला की कब गीता की जादुई उँगलियाँ सर से पैर पर पहुँच गयीं।

जादू था बस।

एक एक मसल्स , एक एक रग , कभी धीरे धीरे कभी पूरी ताकत से ,

उनके तलुओं को पहले दोनों हाथों से , फिर मुट्ठी से हलके हलके मुक्कों से मार के , उँगलियों को तोड़ के ,

सारी थकान ,सब दर्द काफूर।

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और धीरे धीरे वो मुलायम जादुई उँगलियाँ पिण्डलियों की ओर बढ़ी,धीमे धीमे जो साडी लुंगी की तरह ;लपेटी गयी थी , वो ऊपर और ऊपर होती गयी।

पहले जो उँगलियाँ पिंडलियों से घुटनों तक सहला रही थीं , अब जोर जोर से दबा रही थीं ,अंदर की ओर प्रेस कर रही थी।


वो पेट के बल लेटे हुए थे ,

रात भर का रतजगा ,दिन भर के काम की थकान ,सारा तनाव ,दर्द सब धीमेधीमे बूंदबूंद कर बह रहा था।

और गीता की मुलायम रस भरी उँगलियाँ एकदम नीचे से ऊपर तक , उसके नितम्बो को भी कभी कभी छू लेती थी।



लेकिन थोड़ी देर में दोनों रेशमी हथेलियां सीधे नितंबों पर कभी हलके हलके तो कभी कस के , कभी दबाती ,कभी मसलती तो बस हलके हलके सहला देती।
,

लुंगी बनी साडी अब पतला सा छल्ला बना उनके कमर में बस ज़रा सा अटका था बाकी देह , गीता की भूखी उँगलियों के हवाले ,


" अरे अरे भैय्या तुम्हारे सर पर तो एकदम कडा कड़ा लग रहा हो , उफ़ , चलो मेरे ब्लाउज की ,देती हूँ अभी ,... हाँ ज़रा सा सर उठाओ , बस ठीक है अभी , हां ये लो। "

जब तक वो हाँ ना करते गीता का ब्लाउज उनके सर के नीचे तकिया बना कर रख दिया था।


गीता भी अब सिर्फ पेटीकोट में और पेटीकोट भी ऊपर , जाँघों तक चढ़ा हुआ।

और एक बार फिर गीता की उंगलियां उनके नितंबों पर ,


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पहले तो गीता ने उलटे हाथ से हलके हलके ,कभी धीमे कभी तेजी से नितंबों पर सहलाया ,

जैसे उँगलियाँ उसके पिछवाड़े डांस कर रही हों ,

तबले पर ,मृदंग पर थिरक रही हों।



अब उन्हें सिर्फ वो उँगलियाँ महसूस हो रहीं थीं ,उनकी छुअन कभी सिहरा देने वाली थरथरा देने वाली तो कभी लगता

जैसे हजार बिच्छू उनके पिछवाड़े की पहाड़ियों पर चल रहे हों।

एक ऐसी फीलिंग जो आज तक उन्होंने कभी महसूस नहीं की हो।

खूँटा उनका खड़ा था लेकिन वो जिस तरह लेटे थे , तन्नाया फनफनाता उनकी जांघ और चटाई के बीच दबा कसमसाता।


और वो थिरकती उँगलियाँ कभी कभार नितम्ब के बीच से सरक कर , ' वहां ' भी उत्थित शिश्न को भी छू देतीं लेकिन ऐसे की जैसे बस यूँ हीं ,गलती से।


और वो १००० वाट का करेंट ' वहां ' लगाने के लिए काफी था।


अचानक उन दोनों हाथों ने कस के ,पूरी ताकत से उसके दोनों नितंबों को फैला दिया।

और गीता उस पिछवाड़े के भूरे भूरे छेद को फैलाये रही।

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वो कसा दर्रा ,जिसके अंदर अभी तक कोई भी नहीं गया था।


क्या करेगी वो , क्या करेगी वो ,... बस वो सोच रहे थे ,तड़प रहे थे।

और तेल की चार पांच बूंदे बैकबोन के एकदम आखिरी हिस्से से , सरकती ,लुढ़कती पुढकती,

धीमे धीमे उस दरार के अंदर ,


गीता ने पूरी ताकत से दरार को फैला रखा था ,खोल रखा था , अपने कोमल कोमल हाथों से नितंबों को थोड़ा उचका भी दिया।

और सब की सब तेल की बूंदे अंदर।

बस अगले ही पल जैसे कोई खजाने के दरवाजे को बंद कर दे गीता के दोनों हाथों ने दबोच कर दोनों नितंबों को एकदम पास पास सटा दिया ,और आधे तरबूज के कटे दो गोलार्द्धों की तरह आपस में उन्हें रगड़ने लगी।

जैसे कोई चकमक पत्थर को रगड़ कर आग लगाने की कॊशिश कर रहा हो।
नितम्बो की रगड़ , और अंदर जाती ,सरसराती चिकनी तेल की बूंदे।

अंदर तक , एककदम नए तरह का अहसास हो रहा था उन्हें।

और फिर अचानक एक बार फिर गीता ने , नितंबों को फैला दिया और गीता की तेल लगी मंझली ऊँगली , दरार के बीच ,बार बार रगड़ घिस करने लगी।

मन तो कर था की बस वो , ... लेकिन गीता बजाय ऊँगली की टिप से प्रेशर लगाने के पूरी ऊँगली दरार में दरेरती ,रगड़ घिस करती ,




मन तो उनका ये कर रहा था की अब बस वो ,.... लेकिन गीता बस रगड़ रही थी , और अचानक


पूरी कलाई के जोर से


गचाक ,

दो तीन धक्के और ,

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गचाक गचाक

और पूरी ऊँगली अंदर , वो उसे गोल गोल घुमा रही थी। ठेल रही थी।



फिर कुछ गड़ा उन्हें अंदर , उफ़ दर्द ,... और एक अलग तरह का मज़ा।

किताबों में पढ़ा था उन्होंने था इसके बारे में ,... प्रोस्ट्रेट पर प्रेशर ,...

शायद गीता के ऊँगली की अंगूठी गड रही थी अंदर,पर उसका असर ,सीधे खूंटे पर लग रहा था की कहीं ,...

झटके से खुद धनुषाकार उनकी देह हो गयी और जैसे गीता इसी मौके का इन्तजार कर रही थी ,

बस झट से खूंटे को उसने गचाक से अपनी कोमल गोरी गोरी मुट्ठी में दबोच लिया झटके में जो झटका दिया ,


सुपाड़ा घप्प से खुल गया।

एक हाथ लन्ड मुठिया रहा था तो दूसरे की मंझली ऊँगली गांड में धंसी,


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अब गए , अब गए ,... उन्हें लग रहा था ,


कल रात से भूखा था ,पहले सास ने तड़पाया ,आज शाम को मंजू बाई ने।


और अगले पल गीता की चूड़ियों की खनखनाहट भी बंद हो गयी।




दोनो हाथ अलग और अब दोनों हाथ सीधे शोल्डर ब्लेड्स पर फिर मालिश शुरू।

तेल की मालिश कंधो से शुरू होकर बैकबोन के अन्त में ,

एक बार फिर से एक नया नशा तारी होने लगा , सारी थकान गायब और एक नयी ताकत नया जोश ,

लेकिन जैसे ही मालिश शुरू हुयी थी , वैसे ही रुक गयी , और अब गीता की देह का कोई भी अंग उनके देह को छू नहीं रहा था।

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मन कर रहा था की गीता कुछ करे , गीता कुछ करे।

और अचानक उनके कान दहक़ उठे , फागुन में दहकते पलाश वन की तरह।
 

komaalrani

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भइय्या ,




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गीता के आग से होंठ बस उनके इयरलोब्स को छू गए थे ,उसने चूमा था या बस ऐसे ही ,




" भइय्या , "

और गीता के किशोर जोबन की नोक , उसके छलछलाते थनों का अग्रभाग बस , उनके पीठ को छू सा गया।

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लेकिन ये गलती से नहीं था। गीता की दोनों कलाइयों ने उनके हाथ को कस के पकड़ लिया था और भरी भरी छातियाँ पीठ पर रगडती मसलती ,नीचे की ओर ,

और थोड़ी देर में वो रस से भरे उभार पीठ से सरकते फिर सीधे नितंबों पर, साथ ही गीता ने लुंगी बनी साड़ी को जो बस उनकी देह के नीचे दबी कुचली फंसी थी उसे खींच कर दूर कर दिया।

निपल्स अब उनकी गांड के बीच में ,दरारों के बीच जैसे अपनी चूंची से उनकी गांड मार रही हो ,पूरी तेजी से।मस्ती के मारे उनकी हालत खराब हो रही थी।

ऐसा कभी भी नहीं हुआ था ,उनके साथ। कभी भी नहीं।




बीच बीच में कभी कभी उसे लगता है गीता नहीं , गुड्डी है ,


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उसकी अपनी गुड्डी ,ये उभार रुई के फाहे से मुलायम , बड़े बड़े।

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खूँटा लगता था मारे जोश के कहीं ,एकदम तन्नाया,


और गीता ने अचानक अपने दोनों हाथों से कमर के पास से पकड़ के ,

गीता की कोमल कोमल उँगलियाँ उसके तन्नाए औजार से छू गयीं ,इतना तगड़ा करेंट लगा की

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और अब वो पीठ के बल गीता उसके ऊपर , दोनों लंबी टाँगे ,खुली हुयी जाँघे गीता उसके सीने के दोनों ओर घुटने के बल बैठी थी।


गीता ऑन टॉप , टॉपलेस।

लालटेन की हलकी हलकी रोशनी सीधे गीता के उभारों पर पड़ रही थी , बाकी का हिस्सा मखमली अँधेरे में डूबा हुआ था।

कड़े कड़े किशोर उभार गोरे गोरे दूध से छलछलाते, उनकी ललचायी निगाहें बार बार वहीँ , और उन्होंने हाथ बढाया ,

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पर

गीता ने हाथ रोक लिया।

" नहीं भैया , नहीं तुम कुछ नहीं करोगे। छूना मना है /" एक बार फिर हजार चांदी की घंटिया बज उठीं।

" देखो न भैया कैसे हैं मेरे ये , "



अपनी हथेली से दोनों गदराये जोबन को सहलाते ,दबाते उभारते उसने पूछा और अपने खड़े खड़े निपल्स को पहले तर्जनी से उसने फ्लिक किया थोड़ी देर ,फिर अंगूठे और मंझली ऊँगली के बीच दबाते ,मटर के दाने ऐसे कड़े कड़े निपल को रोल करते हुए गीता ने उसे उकसाया।

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"बोलो न भैया , बोल न " फिर गीता ने उकसाया।

" बहुत मस्त ,खूब रसीली है तेरी चूंचियां मस्त है एकदम। " वो बोल पड़े।


और जोर से खिलखला पड़ी वो, और बोली

" सच में बहुत रस है तेरी बहना की चूंची में भइय्या , अभी चखाती हूँ इसका मजा। बस अभी , दबाना चूसना लेकिन ज़रा इसकी भी तो हाल चाल पूछ लूँ ,बहुत तड़प रहा है। इसकी भी तो मालिश कर दूँ न भैया। "

झुक के एक बार उनके होंठों पे गीता ने अपने जुबना रगड़ दिए और फिर मुड़ के सीधे खड़े खूंटे की ओर


कुतबमीनार भी मात था , इतना कस के खड़ा था।

झुक के खुले सुपाड़े को गीता ने बस अपने कड़े निपल से रगड़ दिया ,सीधे पी होल ( पेशाब के छेद ) पे।

" क्या मस्त लन्ड है भइय्या , खाली खाली भउजिये को मजा देते हो ,बिचारि बहन भूखी प्यासी तड़पती है कभी कभार उसको भी तो ,... मोटा कितना है ,भौजी को तो बहुत मजा आता होगा। '


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गीता की गदराई रसीली चूंचियां कड़े बौराये सुपाड़े को रगड़ रही थीं और उसके मुलायम हाथ , एक हाथ से वो उसके बॉल्स सहला रही थी ,उसकी तर्जनी बार बार पिछवाड़े के छेद के बीच में रगड़ रही थी।

दूसरे हाथ की एक ऊँगली मोटे लन्ड के बेस से दबाते रगड़ते ,सुपाड़े तक , लेकिन सुपाड़े को छूने से पहले वो रुक गयी।

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उसकी छुअन इतनी मस्त थी , इतने मजे की और तरह तरह से ,

कभी वो हलके हलके सहलाती , निपल से पेशाब के छेद में सुरसुरी कर देती तो कभी दोनों ताहों से जोर से मथानी की तरह उसे रगडती।

और कभी उसकी एक ऊँगली पिछवाड़े के छेद को छेडती ,गोल छेद के चारो और चक्कर काटती और अचानक गीता ने गचाक से अपनी मंझली ऊँगली पेल दी।


मारे जोश के उन्होंने खुद ही कमर उचका दी।

एक ही झटके में आधी से ज्यादा ऊँगली अंदर थी और दूसरे हाथ से वो जोर जोर से मुठिया रही थी।



लन्ड की हालत खराब थी।

गीता एक बार फिर उनके मुंह के पास उठंगी बैठी थी।


क्यों भैया मजा आया न छुटकी बहिनिया के साथ ,अभी तो बस ,... "

उनकी निगाहें गीता के पेटीकोट पे अटकी थीं , कमर के नीचे बंधा ,जांघ तक चढ़ा। "

और उन्हें देखते देख वो मुस्करा पड़ी ,

" सच में भैया बहुत नाइंसाफी है मैंने तो तेरा सब कुछ देख लिया ,छू लिया ,इतना मस्त मोटा और अपना , खजाना छुपा के बैठी हूँ। "

कुछ देर तक तो वो उनका चेहरा देखती रही फिर उकसाया

" अरे भैया देख क्या रहे हो खोल दो न अपने हाथ से बहन के पेटीकोट का नाड़ा "


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उनके आँखों के सामने एक बार फिर गुड्डी का चेहरा घूम गया।






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