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Incest पाप ने बचाया

Sweet_Sinner

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Index

~~~~ पाप ने बचाया ~~~~

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Lutgaya

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सरसों के तेल की चिकनाहट और सुनीता वाह
 
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Incestlala

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Update- 63

महेन्द्र तेज कदमों से अपने ससुर जी के बताए रास्ते पर चलते हुए खेतों की ओर जाने लगा। बिरजू ने अपने दामाद को अपने खेत दिखाए, पास ही कुछ बागों की सैर कराई, दोनों इधर उधर की बातें करते रहे और दो तीन घंटे में घूम फिर कर घर की तरफ चल दिये। दोपहर हो चुकी थी, बादल कुछ हल्के हो गए थे, कभी कभी बादलों के बीच से तेज धूप निकलकर बारिश से हुई थोड़ी ठंड में गर्माहट पैदा कर दे रही थी। मौसम ऐसा था कि कभी छांव हो जाती तो कभी तेज धूप निकल आती, तेज धूप बदन को मानो लेस दे रही थी, दोनों ससुर दामाद घर पहुचे।

नीलम खाना तैयार करके दोपहर में रसोई के बगल वाले कमरे में पड़ी खाट पर इंतज़ार करते करते सो ही गयी थी, बेसुध होकर सोने की वजह से साड़ी उसकी अस्त व्यस्त हो गयी थी, गोरे गोरे मांसल पैर नीली साड़ी में चमक रहे थे। काले ब्लॉउज के अंदर 34 साइज की कसी कसी दोनों चूचीयाँ तनकर किसी पहाड़ की तरह खड़ी थी, पल्लू सरक कर नीचे गिर गया था, उल्टा हाँथ उसने पेट पर नाभि से थोड़ा ऊपर रखा हुआ था और सीधा हाँथ उठाकर सर के ऊपर खाट पर रखने की वजह से उसकी कांख दिख रही थी, जो कि पसीने से गीली थी, पसीने से ब्लॉउज भी कई जगह गीला हो रखा था। सांसों से उसकी चूचीयाँ हल्का हल्का ऊपर नीचे हो रही थी, और नाभि वो तो कहर ढा ही रही थी।

बिरजू को अभी अपने मित्र के यहां भी जाना था इसलिए वो अब जल्दी जल्दी घर की तरफ बढ़ रहा था।

जैसे ही बिरजु और महेंद्र घर पहुचे, महेंद्र तो बाहर ही खाट पर बैठ गया और बिरजू नीलम को आवाज लगाता हुआ घर में गया।

बिरजू- नीलम.......नीलम बेटी....आ गए हम लोग....कहाँ हो तुम.....सो गई क्या?

अब रात भर पिता से संभोग सुख पाकर थकी मांदी नीलम एक बार जब खाट पर पड़ी तो एक बार आवाज लगाने से कहाँ उठने वाली थी, बिरजू ने पहले रसोई में देखा नीलम वहां नही थी, वो समझ गया कि जरूर सो गई होगी, वो बगल वाले कमरे में गया, अपनी बेटी को अस्त व्यस्त बेसुध होकर सोते देख वासना की खुमारी उसको फिर चढ़ने लगी।

एक पल के लिए बिरजू ने पीछे पलट कर देखा कि कहीं महेन्द्र पीछे पीछे तो नही आ गया, पर महेन्द्र तो मन मानकर बाहर खाट पर लेट चुका था, बिरजू सोती हुई नीलम के ऊपर अपने दोनों हाँथ खाट के दोनों पाटी पर रखते हुए झुका और उसकी गहरी गोरी गोरी नाभी को चूम लिया, अचानक गोरे गोरे बदन पर मर्दाना चुम्बन मिलने से नीलम के बदन में गहराई तक एक कंपन का संचार हुआ और गनगना कर वो उठ गई, अपने बाबू को देख कर मुस्कुरा पड़ी, आंखें उसकी लाल थी, बिरजू को एक बार तो अच्छा नही लगा कि उसने कच्ची नींद से अपनी बेटी को जगाया पर क्या करता, मदमस्त यौवन वो भी सगी बेटी का देखकर उससे रहा नही गया।

नीलम- बाबू आ गए आप?....और ऐसे जागते हैं कोई.........सीधा नाभि पर चूमकर.......मैं तो डर ही गयी थी।

बिरजू- अकेले में तो मैं ऐसे ही जगाऊंगा अपनी बेटी को, मन तो कर रहा था कि कहीं और चूम के जगाऊँ पर वो रात के लिए छोड़ दिया, और वैसे भी उसके लिए मुँह साड़ी में डालना पड़ता।

नीलम- अच्छा जी........तो डाल लेते....बेटी की साड़ी में मुँह डालने का मजा ही कुछ और है.....है न बाबू?

बिरजू- है तो मेरी जान, पर क्या करूँ।

नीलम- पर वहां चूम लेते तब तो मैं उछल ही जाती खाट से....

बिरजू- तो लाओ अब वहीं पर चूम लेता हूँ।

नीलम- अरे नही..नही...बाबू....अभी नही....मैं तो ऐसे ही बोल रही थी, इस वक्त ठीक नही, अकेले में चूम लेना जो भी चूमना हो।

(ऐसा कहते हुए नीलम साड़ी से अपने पैरों को ढकने लगी और दोनों मुस्कुराने लगे)

बिरजू- अच्छा चल उठ खाना निकाल, असली चीज़ अब रात को ही खाऊंगा।

(नीलम ने प्यार से एक मुक्का अपने बाबू की जांघ पर मारा)

नीलम- बदमाश! असली चीज़........बहुत बदमाशी आती है आपको न, क्या है असली चीज़? जरा मैं भी तो जानू।

(नीलम कामुक बातें करते हुए आगे बढ़ी)

बिरजू ने उंगली से नीलम की बूर की तरफ इशारा करके कहा- असली चीज़ ये, ये है असली चीज़, असली भूख तो इसकी है।

नीलम ने ऊपरी शर्म दिखाते हुए "धत्त" बोलकर एक चिकोटी बिरजू के गाल पर काटी तो बिरजू ने नीलम को पकड़कर फिर से चूम लिया।

नीलम- अच्छा बाबू...आप और वो हाँथ मुँह धोकर आइए मैं खाना लगाती हूँ।

बिरजू- हाँ निकाल खाना, खाना खा के जाऊं मैं जल्दी, उस मित्र के यहां भी जाना है न, क्या पता कुछ उपाय मिल जाय।

नीलम- हाँ बाबू, जल्दी जाओ ताकि वक्त से वापिस आ जाओ।

नीलम ने सबका खाना निकाला और सबने दोपहर का खाना खाया, खाना खाने के बाद नीलम ने अपने बाबू और महेंद्र को मिठाई खाने को दी।

सबने मिठाई खाई और बिरजू तुरंत महेन्द्र को ये बोलकर की वो किसी जरूरी काम से बाहर जा रहा है शाम तक आएगा अपने मित्र से मिलने चला गया।

महेन्द्र को तो मानो मुँह मांगी मुराद मिल गयी हो, नीलम के साथ दिन में ही अकेले वक्त बिताने का वक्त जो मिल गया था।

पर जैसे ही बिरजू के जाने के बाद महेन्द्र घर के अंदर जाने लगा एक चूड़ी बेचने वाली बूढ़ी औरत सर पर टोकरी रखे तेज तेज आवाज लगाते हुए "चूड़ी लेलो चूड़ी.....अच्छी मजबूत चूड़ियां......लाल....नीली.....हरी....पीली रंग की चूड़ियां" द्वार पर आ गयी।

ये सुनकर नीलम घर से बाहर आई पर घर के दरवाजे पर ही महेन्द्र उसे घर के अंदर आता हुआ मिला तो नीलम उसका हाँथ पकड़कर बाहर ले जाते हुए बोली- चलो न मुझे चूड़ी दिलाओ, ये चुड़िहारिन कितने दिनों बाद आई है, आज का दिन ही कितना अच्छा है, इसके पास बहुत अच्छी अच्छी चूड़ियां रहती हैं।

महेन्द्र कहाँ घर के अंदर जाने वाला था उल्टा नीलम उसको घर के बाहर घसीट लायी। मरता क्या न करता, बात माननी ही पड़ी।

महेन्द्र- हाँ हाँ ले लो न चूड़ी, पहन लो जो तुम्हे पसंद हो।

नीलम- अरे आप पसंद करो न.....अम्मा रुको जरा, चूड़ी दिखाओ कैसी कैसी हैं आपके पास।

चूड़ीवाली रुक गयी, महेन्द्र वहीं खाट पर दुबारा बैठ गया, चूड़ीवाली ने चूड़ी से भरी टोकरी उतार कर जमीन पर रखी और बगल में बैठ गयी, तरह तरह की चूड़ियां उसने नीलम को दिखाई, चूड़ियां काफी अच्छी-अच्छी थी, नीलम को कई तरह की चूड़ियां पसंद आ रही थी, तभी उसके मन में आया कि वो अपनी सहेली रजनी को भी बुला ले ताकि वो भी अपनी मन पसंद की चूड़ियां ले ले, फिर न जाने कब ये चूड़ीवाली आये न आये।

नीलम- अम्मा चूड़ियां तो बहुत अच्छी अच्छी लायी हो आप, जरा रुको मैं अपनी सहेली को भी बुला लाती हूँ, उसको भी लेना है, वो भी पसंद कर लेगी।

चूड़ीवाली- हाँ बिटिया ले आ बुला के मैं यही बैठी हूँ, पर जल्दी आना।

नीलम भागते हुए रजनी के घर की तरफ ये बोलते हुए गयी- हाँ अम्मा मैं अभी आयी, बस थोड़ा रुको।
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Update-4

पिछला-
(रजनी ने इस वक्त अपने पति के बारे में क्या सोचा, की वह उनके बगैर कैसे रहेगी और वो आ गया तो क्या होगा, रजनी ने अपना ससुराल छोड़कर अपने मायके में अपने पिता के साथ रहने का निर्णय लेने में देरी क्यों नही की, और रजनी के ससुर ने ऐसा क्यों बोला कि "मेरा दिल कहता है कि आने वाले वक्त में तुझे भरपूर सुख मिलेगा" इसके बारे में अगले अपडेट में)

अब आगे-

रजनी ने अपने मायके जाते वक्त अपने पति के बारे में, उनके निर्णय के बारे में इंतजार नही किया और न ही कुछ सोचा क्योंकि इनके पीछे कुछ कारण थे :

1.घर में उनके पति की कोई अहमियत नही रह गयी थी, ये उसके पति की खुद की करतूतों की वजह से हुआ था। जिस इंसान ने कभी अपने घर के लोगों की कोई परवाह न कि हो, हमेशा अपने मन की किया हो, एक वक्त ऐसा आता है कि उसकी अहमियत कम हो जाती है।

2. वो खुद 8 9 महीने से बिना किसी से कुछ बताये लापता हो गया था, कुछ सूत्रों से पता लगा था कि वो इस गांव के नियम कानून, उसकी सदियों से चली आ रही प्रतिष्ठा को दरकिनार करके, अपने घरवालों को छोड़कर, अपने पत्नी और बेटी को छोड़कर सदा के लिए बाहरी सांसारिक दुनिया में जीने के लिए चला गया था, जहां हर तरह के गलत काम होते थे और उनमे उसको मजा आने लगा, कुछ पता नही था कि वो कहाँ है और आएगा भी या नही।

3. रजनी तो वैसे भी अकेली ही जीवन बिता रही थी चाहे उसका पति हो या न हो उसके जीवन में कोई रस या उमंग नही था, अब तो वो उसे छूता भी नही था, छूने की बात तो बहुत दूर थी वो रजनी को मानता ही नही था, वो तो हमेशा ही कामाग्नि में जलती रहती थी, इसलिए रजनी ने भी उसे अपने दिल से निकल दिया था पर वो अंदर से उदास रहती थी।

4. जब रजनी के सामने ये बात आई कि वह अपने बाबू जी के साथ रह सकती है तो वो अंदर ही अंदर खिल उठी। रजनी का अपने बाबू से बचपन से ही बहुत लगाव था, वो अपने पिता की लाडली थी, हमेशा से ही वो अपने पिता के लिए एक मित्र बनकर रही है। जब उसकी शादी में उसकी बिदाई हो रही थी तो उसके बाबू जी उसकी जुदाई में बेहोश हो गए थे, रजनी को भी होश नही था वो भी ससुराल में काफी दिनों तक रोती रही थी और इधर रजनी के पिता अपनी बेटी के वियोग में बीमार भी पड़ गए थे काफी झाड़ फूक के बाद जाके ठीक हुए थे।
उसके पिता भी रजनी के अंदर अपनी पत्नी की छवि देखते थे क्योंकि रजनी अपनी माँ की तरह दिखती थी पर असलियत मे वो अपनी माँ से कहीं ज्यादा सुंदर और कामुक औरत थी।

वैसे भी रजनी ससुराल में भी अकेली ही थी बिना पति के क्या ससुराल, वो मन ही मन अपने बाबू जी के पास आना चाहती थी, पर उसने कभी ये जिक्र नही किया था और जब ये प्रस्ताव उनके सामने आया तो वह मना नही कर पाई।
वैसे भी मायके में लड़कियां ज्यादा स्वछंद और खुले रूप में रह सकती है, ससुराल की तरह वहां ज्यादा कोई बंदिश नही होती, जैसे चाहो वैसे रहो, जैसा मन में आये पहनो।

रजनी को कहीं न कहीं ये अहसास था कि उसका पति वापिस नही आएगा अब, क्योंकि गांव ही उसे स्वीकार नही करेगा, वो सारे नियम क़ानून तोड़कर बाहरी दुनिया में मजे लेने गया था उसे अब कोई स्वीकार नही करेगा।

एक तरीके से वो अब विधवा सी हो गयी थी, और अगर वो आ भी गया तब भी वो ससुराल जाने वाली नही अब, अब वो ही घर जमाई बनके मायके में रहेगा अगर आएगा तो, पर ऐसा कभी होगा ही नही, इसलिए अब उसका रास्ता साफ था, वो तो अब अपने बाबू जी के ही साथ रहना चाहती थी, उसने तो शादी से पहले भी कई बार अपने बाबू से कहा था कि- मुझे नही करनी शादी वादी, मैं तो अपने बाबूजी के ही साथ रहूंगी, इस पर उसके बाबू जी हंस देते और कहते- बेटी ये तो नियम है सृष्टि का।

पर अब सब बदलने वाला था अब वो हो रहा था जो रजनी का दिल चाहता था।

इसलिए रजनी बिना ज्यादा देर किए अपने बाबू जी के पास मायके में आ गयी।

अन्य पात्र-

सुखिया काकी-
सुखिया काकी यही कोई 60 62 साल की होंगी। हालांकि वो उसकी दादी की उम्र की थी पर रजनी बचपन से ही उन्हें काकी कहती थी।
सुखिया काकी रजनी के मायके में पड़ोस में ही रहती थी हालांकि गांव में घर थोड़ा दूर दूर थे पर एक सुखिया काकी का ही घर था जो रजनी के घर के काफी नजदीक था।
सुखिया काकी के घर में केवल उसकी 2 बेटियां थी जिनकी शादी हो चुकी थी वो अब अकेली ही रहती थी, ज्यादातर वो रजनी के घर पर ही रहती थी अक्सर खाना भी उनका यहीं बन जाता था।
सुखिया काकी ने रजनी को बचपन से ही पाला पोशा था और उस वक्त जब रजनी की माँ का देहान्त हो गया था तो सुखिया काकी ने ही रजनी और उसके भाई अमन को पाल पोश के बड़ा किया था इसलिए सुखिया काकी को रजनी अपनी माँ ही मानती थी और उनसे अपने दिल की हर बात कह देती थी।

सुखिया काकी को रजनी ने ही कहा था कि -
काकी आप यहीं रहा करो न हमारे घर, आप भी अकेली ही रहती हो अपने घर में, मेरे साथ ही रहो आपका खाना पीना तो मैं यहीं बना ही देती हूं, आप इस उम्र में क्यूं इतना काम करती हो। मेरे साथ ही रह करो अब मैं आ गयी हूं न।

तो काकी बोली- बेटी तू कहती तो सही है। मेरा भी मन करता है कि मैं तेरे साथ ही रहूं, तेरे साथ मुझे भी सुकून मिलता है मन भी लगा रहता था, पर उधर भी देखभाल तो करना ही पड़ेगा न, अब अगर उधर बिल्कुल न जाऊं तो सब खराब हो जाएगा, साफ सफाई भी करना रहता है, एक गाय है उसको भी चार पानी देना पड़ता है, पर मैं सुबह शाम तेरे पास ही तो रहती हूं, देख तू खाना भी मेरा यहीं बना देती है तो खाना खाने के लिए तो आती ही हूं।

तो रजनी बोली- अरे मेरी प्यारी काकी माँ तुमने मुझे पाल पोश ले बड़ा किया है क्या मेरा इतना भी फ़र्ज़ नही की मैं अब इस उम्र में तुम्हारा काम संभाल लूं, देखो अब मैं आ गयी हूं न तो मैं अब इस घर का और उस घर का, दोनों घर का काम संभाल लूंगी, आप बस मेरे साथ ही रहा करो,
हाँ अगर घूमे फिरने और देखभाल करने या टहलने के लिए जाना हो तो उधर चली जाया करो, पर अब मेरे साथ ही रहो, मुझे तुम्हारा और बाबूजी का साथ बहुत अच्छा लगता है।

तो काकी बोली- अच्छा मेरी बिटिया ठीक है, पर तू अकेले ही कितना काम करेगी, और मैं अगर बिल्कुल बैठ गयी तो मेरे शरीर में भी तो जंग लग जाएगा न, काम करने की तो हम गांव के लोगों को आदत होती है बेटी, इसलिए मुझे काम करने से न रोक, नही तो मैं भी जल्दी ही ऊपर चली जाउंगी बीमार होके, और रही बात तेरे साथ ही रहने की तो मैं तेरे साथ ही रहूंगी, पर अपने बाबू जी से तो पूछ लेती एक बार।

इस पर रजनी बोली- बाबू जी मेरी बात कभी नही टालते, और उन्हें इस बात से क्यों परेशानी होगी? ठीक है काकी जैसा आपको ठीक लगे आप काम करो पर ज्यादा नही।

काकी- ठीक है मेरी बिटिया।


(ऐसी है सुखिया काकी)

(रजनी के ससुर ने ऐसा क्यों बोला कि "मेरा दिल कहता है कि आने वाले वक्त में तुझे भरपूर सुख मिलेगा" इसके बारे में कहानी में आपको आगे चलकर पता लग जायेगा, इसके अलावा इस गांव पर क्या ऐसा काला साया था जो इतने ईमानदार लोग अच्छे लोग, जिन्होंने कभी कुछ गलत किया ही नही फिर भी उन लोगों के साथ इतना गलत हो रहा था कि धीरे धीरे लोग कम हो रहे थे, अपनो को खो रहे थे, जन्मदर बहुत कम था और मृत्युदर ज्यादा,
जो एक बैलेंस बिगड़ गया था उसका रास्ता क्या है?
क्या होगा इसका हल?
कैसे बचेगा इस गांव का अस्तित्व?
कहानी में आगे पता चलेगा)
 
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Update-5

(रजनी घर के अंदर से एक लोटा पानी साथ में गुड़ लेकर बाहर आई)

रजनी- लो बाबू जी पानी।

(उदयराज खाट पर लेटा हुआ था और अंगौछा मुँह पर डाल लिया था)

उदयराज - (खाट से उठते हुए) हाँ बिटिया ला, अरे गुड़ क्यों ले आयी, ऐसे ही पानी दे देती।

रजनी- ऐसे भला क्यों दे देती पानी अपने बाबू को, खाली पानी नही देते पीने को।


(रजनी खाट पर अपने बाबू जी के बगल में बैठते हुए बोली, उसने आज लाल रंग का लहँगा चोली पहना हुआ था, जिसमे वो बहुत खुबसूरत लग रही थी)

उदयराज- ये गुड़ कुछ नया सा लग रहा है, इतना मीठा गुड़ मैंने आजतक नही खाया।

रजनी- बाबू जी ये आपकी बिटिया के हाँथ का गुड़ है जो उसने अपनी ससुराल में बनाया था, और आते वक्त अपने बाबू जी के लिए ले आयी हूं, ये एक नई किस्म के गन्ने से बना गुड़ है। जिसको मैंने बनाया है, ताकि आपके जीवन में मिठास भर सकूँ (रजनी ने बड़े ही चहकते हुए मुस्कुराकर कहा)

उदयराज- बेटी मेरे जीवन की मिठास तो तू है, तेरे आने से तो वैसे ही अब मेरे जीवन में बाहार आ गयी है। मैं बहुत अकेला हो गया था पर अब तेरा साथ पा कर मैं बहुत खुश हूं, और यह गुड़ तो वाकई में तेरा मेरे प्रति प्रेम की मिठास का अहसास करा रहा है।

रजनी- बाबू अब मैं आ गयी हूं न तो अब आप अकेले बिल्कुल नही है, और मैं अब आपके जीवन में ख़ुशियों के रंग भर दूंगी। ऐसा कहते हुए रजनी अपने बाबू जी के गले से लग गयी।

उदयराज- ओह्ह! मेरी बेटी, मेरी लाडली।


(ऐसा कहते हुए उदयराज ने भी रजनी को निष्छल भाव से कस के अपनी बाहों में भर लिया)

(परंतु रजनी की जब मोटी मोटी चूचियाँ उदयराज के सीने से टकराई और दब गई तो उदयराज थोड़ा झिझका, परंतु रजनी अपने बाबू से लिपटी रही, उसके मादक, गदराए बदन ने उदयराज को थोड़ा विचलित सा तो कर दिया पर तुरंत ही उसने मन में आये इस गंदे भाव को झिड़क दिया)

उदयराज ने जब महसूस किया कि रजनी हल्का हल्का सुबुकने सी लगी है तो उसने उसको अपने से थोड़ा अलग करते हुए उसके सुंदर और गोरे गोर चहरे को अपने हांथों में लेकर बोला-

उदयराज- अरे तू रो रही है, क्यों भला, अब मेरे पास आ गयी है फिर भी रो रही है, अभी तो बोल रही थी कि मेरी जिंदगी खुशियों से भर देगी मेरी बिटिया, क्या ऐसे रो रो के भरेगी क्या? ह्म्म्म

रजनी- बाबू ये तो खुशी के आंसू है, सच तो ये है कि मैं आपके बिना नही रह सकती अब, मैं आपको बचपन से ही बोलती आ रही थी न कि मुझे शादी नही करनी, मुझे तो बस आपके साथ रहना है, और आज ईश्वर ने मेरी सुन ली, इसलिए ये आंसू निकल आये।

उदयराज- बेटी मैं भी तेरे साथ ही रहना चाहता था, कौन पिता भला अपनी बेटी के साथ नही रहना चाहेगा पर इस दुनियां के, समाज के नियम कानून तो नही बदल सकते न, मेरा बस चलता तो मैं तेरे जीवन में किसी तरह का कोई दुख आने ही न देता।

रजनी- मैं जानती हूं बाबू, आप मुझे कितना स्नेह करते हैं। पर अब हम कभी दूर नही रहेंगे चाहे जो भी हो।

उदयराज- हां बिल्कुल मेरी बेटी।


(दोनों घर के सामने द्वार पर खुले आसमान के नीचे एक दूसरे को बाहों में लिए खाट पे बैठे थे।
गांव का कोई भी दूसरा इंसान कभी भी इस तरह अपनी जवान गदराई सगी बेटी को बाहों में नही लेता था पर उदयराज और रजनी की बचपन की ये आदत गयी नही थी। जो जवानी में भी बरकार थी। हालांकि कभी भी उनके मन में कभी कोई पाप नही था। ये बस बाप बेटी का एक निश्छल प्रेम था)

तभी सुखिया काकी सामने से आती हुई बोली-

अरे आज बहुत प्यार आ रहा है अपने बाबू पर hmmm

रजनी कुछ झेंपती हुई उदयराज से झट से अलग हो गयी और बगल में बैठते हुए बोली- क्यों न आये काकी कितने दिनों बाद अपने बाबू जी के पास आई हूं।

काकी- अरे बाबा तो करले प्यार पगली मैंने कब मना किया, तुझे तो पता ही है मेरी मजाक करने की आदत है, मैं तो ये कहने आयी थी कि तेरी गुड़िया जो अंदर कमरे में सो रही है वो अब उठ गई है जा के उसको दूध पिला दे, जैसे तुझे अपने बाबू की जरूरत है वैसे ही उसे तेरी।


इतना कहकर काकी हंसने लगी और रजनी भागी भागी घर में गयी और अपने 2 साल की बेटी जो रो रही थी उसको दूध पिलाते हुए बाहर आने लगी।

उदयराज थोड़ी देर काकी से इस बार अगली फसल कब तक बोई जाए इस पर बातचीत करने लगा फिर उठकर उसने जो बोझ फेंका था उसको उठाकर एक साइड में दालान में रखा और बैलों को चारा डालने चला गया।
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उदयराज बैलों को चारा डाल कर आया और आते ही काकी से पूछा- रजनी कहाँ गयी?

काकी- वो रात का खाना बनाने अंदर रसोई में गयी है।


(उदयराज भी सुखिया को काकी ही बुलाता था)

उदयराज- काकी आज गर्मी कितनी है न देखो मैं कितना पसीना-पसीना हो गया, बैलों को चारा डालते-डालते, ये नया बैल जो पिछले महीने खरीदा है न, इसके बड़े नखरे हैं सूखा भूसा तो खाता ही नही है बिल्कुल, जब तक उसमे हरी घास काटकर न मिलाओ, दूसरा वाला पुराना बैल बहुत सीधा है जो दे दो खा लेता है।
इसी नए के चक्कर में रोज घास को मशीन में डालकर काटना पड़ता है और इतना काम बढ़ जाता है। सोच रहा हूँ कुएं पे जा के नहा लूँ।


ऐसा कहते हुए उसने अपनी बनियान निकल दी और खाट पर बैठ गया, काकी जो पंखा बच्ची को कर रही थी वो अब उदयराज को करने लगी स्नेहपूर्वक, और उसके इस उम्र में भी गठीले शरीर को देखते हुए बोली- हां तो जा के नहा ले न कुएँ के ठंडे ठंडे पानी से राहत मिल जाएगी, रस्सी कुएँ पर ही है बाल्टी लेता जा घर के अंदर से, साबुन भी ले लेना कुएं पर होगा नही, रजनी ने दोपहर को हटा दिया था वहां से।

उदयराज खाट से उठा और अंगौछा कन्धे पे रख के घर के अंदर जाने लगा।

(उदयराज के घर का मुख्य दरवाज़ा पुर्व की तरफ था, घर पक्का बना हुआ था, घर में एक आंगन और चारों तरफ चार कमरे थे उन चार कमरों के पीछे एक छोटी सी कोठरी भी थी उस कोठरी के ऊपर घर के पीछे लगे बरगद के पेड़ की ठंडी छाया आती थी जिससे वो कोठरी गर्मियों के मौसम में दिन में भी ठंढी रहती थी, पहले जो औरतें घर में रहा करती थी वो अक्सर कोठरी में ही खाट बिछा के वही लेटती थी। अब तो खैर घर में रजनी और काकी ही थे। घर के मुख्य दरवाजे और आंगन के बीच एक बरामदा था, उन चार कमरों में जो दक्षिण की तरफ कमरा था वो रसोई थी। उसके ठीक सामने जो कमरा था उसके बगल में बाथरूम था और बाथरूम के सामने एक चौकी थी जिसपर पानी से भरी बाल्टियां या खाली बाल्टियां भी रखी रहती थी।

घर के आगे बड़ा सा द्वार था, द्वार पर कई तरह के पेड़ थे जैसे नीम, महुआ, अमरूद, सफेदा, आम, गूलर।

घर के ठीक सामने करीब 100 मीटर दूर कूआं था जो सफेद रंग से पुता हुआ चारों तरफ से क्यारियों से घिरा हुआ बहुत ही सुंदर लगता था, उन क्यारियों में अनार के पेड़ लगे हुए थे जिनपर फूल आ गए थे इसके अलावा वहां कई प्रकार की सब्जियां और फूल भी लगाए हुए थे जो कुएं के आने वाले पानी से हमेशा हरे भरे रहते थे, कुएं से आगे गांव का आम रास्ता था जिसपर इक्के दुक्के लोग आते जाते रहते थे और जब उन्हें उदयराज इधर उधर दिख जाता था तो वो "जय राम जी की मुखिया" कहना नही भूलते थे।

घर के उत्तर की तरफ पशुओं का दालान था और उसके विपरीत दिशा में आम का बाग था)

उदयराज ऊपर से निवस्त्र था बस धोती पहन रखी थी, घर में जाते हुए जब वो बरामदा पार करके आंगन तक पहुंचा तो सामने का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गया।

सामने रजनी पीढ़े पर बैठ के सिलबट्टे पर दाल पीस रही थी, पीसने की वजह से वो काफी झुकी हुई थी जिससे उसकी बड़ी बड़ी गुदाज चुचियाँ साफ दिख रही थी, चुचियों के बीच की घाटी इतनी मादक थी कि कुछ सेकेंड के लिए उदयराज देखता रह गया, दाल पीसने की वजह से वो बार बार आगे पीछे हो रही थी जिससे मोटी मोटी चूचियाँ चोली में हिल रही थी मानो अभी उछल कर बाहर आ जाएंगी। रजनी ने गर्मी की वजह से चुन्नी बगल में रख दी थी।

उदयराज यह देखकर थोड़ा झेंप गया पर एक ही पल में उसके अंदर तक रोमांच दौड़ गया, उसे अपने मन में अपनी ही सगी बेटी की सुडौल चुचियाँ देखते हुए ग्लानि हुई और वह बनावटी खांसी करता हुआ आंगन में आ गया।

उसे देखकर रजनी भी अपनी अवस्था देखकर थोड़ा झिझक गयी और चुन्नी उठाकर चुचियों को ढकते हुए अपने बाबू के बलिष्ट ऊपरी नंगे बदन को देखकर थोड़ी शरमा सी गयी, जब से रजनी मायके आयी थी आज पहली बार उसने अपने बाबू को इस तरह नंगा देखा था, इससे पहले उसने अपने बाबू को इस तरह निवस्त्र कई साल पहले देखा था पर इस समय वो पहले से ज्यादा मजबूत और बलिष्ट दिख रहे थे। अक्सर वो बनियान ही पहने रहते थे पर आज एकदम से हल्के बालों से भरी चौड़ी छाती और मजबूत भुजाओं को देखकर वो भी अंदर तक न जाने क्यों सिरह सी गयी।

फिर मंद मंद मुस्कुराते हुए बोली- क्या हुआ बाबू, कुछ चाहिए क्या?

उदयराज- हां बेटी, वो बाल्टी लेने आया था, काफी गर्मी है न तो मन किया कि कुएं पर जा के नहा लूं।

रजनी- हाँ बाबू क्यों नही, साबुन भी लेते जाना, वहीं रखा है, और तौलिया मैं पहुँचा दूंगी आप जा के नहा लो।

उदयराज- ठीक है मेरी रानी बिटिया।


इतना कहकर वो बाल्टी उठाकर जाने लगा फिर न जाने क्यों वो रुका और पलटकर देखा तो रजनी उसे ही देख रही थी, नजरें मिलते ही रजनी मुस्कुरा दी और वो भी मुस्कुराते हुए बाहर कुएं पे चला गया।
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Update-8

रजनी ने जल्दी जल्दी दाल पीसी और आगे का काम करने लगी कुछ देर बीत गए एकदम उसे याद आया कि अरे तौलिया तो देना भूल ही गयी, याद आते ही वो तुरंत बारामदे में भागती हुई गयी और खूंटी में टंगी तौली उठाकर घर से बाहर आ गयी।

बाहर आ कर उसने देखा कि काकी तो खाट के पास है ही नही, उसने इधर उधर नज़र दौड़ाई तो देखा कि काकी बच्ची को लेकर बगल वाले आम के बाग में टहल रही थी।

वो तौली लेकर तेज कदमों से कुएं की तरफ बढ़ने लगी, शाम का वक्त था 7:30 हुए होंगे थोड़ा अंधेरा छाने लगा था, जैसे ही वो कुएँ के पास पहुंची सामने का नज़ारा देख ठिठक सी गयी और अपने दोनों हाँथ कमर पर रखकर थोड़ा बनावटी गुस्से से अपने मन में ही बोली- ये लो, अभी तक बाबू जी मेरे न जाने क्या सोचते बैठे हैं, अभी तक तो इनको गर्मी लग रही थी, अब न जाने कौन सी दुनिया में खोए हैं

दरअसल उदयराज कुएं से पानी निकालकर लोटा भरकर बगल में रखकर कुछ सोचने लगा और उस सोच में ही डूब गया था, उसका मुंह सड़क की तरफ था और रजनी उसके पीछे थी अभी वो कुएं की सीढ़ियां चढ़ी नही थी।

रजनी को एकदम शरारत सूझी, वो दबे पांव सीढियां चढ़कर चुपके से अपने बाबू के बिल्कुल पीछे आ गयी और बगल में रखा पानी से भरा लोटा उठा कर अपने बाबू के सर के ऊपर करीब 1 फ़ीट तक ले गयी और सर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्ररर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्रर बोलते हुए पानी की धार छोड़ दी और उसकी हंसी छूट गयी, लगी खिलखिला के हंसने।

उदयराज चौंक गया हड़बड़ाहट में उठा तो उसका सर लोटे से लगा, लोटा रजनी के हाँथ से छूट कर कुएं के फर्श पर गिरा और टन्न... टन्न..... टन्न....की आवाज करता हुआ नीचे क्यारियों में चला गया।

रजनी को मानो खुशियों का खजाना मिल गया हो, वो खिलखिलाकर हंसती हुई क्यारियों में उतर गई और लोटा उठा कर लायी जो मिट्टी से सन गया था और उसे धोते हुए बोली- ऐसे नहाओगे आप, बाबू जी मेरे, मै तो भागी भागी आयी तौली लेके, सोचा कि बाबू जी नहा लिए होंगे कहीं देरी न हो जाये और आके देख रही हूं तो जनाब न जाने किस सोच में डूबे हैं, किस सोच में डूबे थे मेरे बाबू?

इतने प्यार और मनोहर तरीके से पूछते हुए रजनी फिर हंसने लगी

उदयराज सम्मोहित सा उसकी अदाओं को देखते हुए खुद भी हंस दिया और बोला- बेटी तूने तो मुझे डरा ही दिया था, अरे वो मैं खेती बाड़ी के बारे में सोचने लगा था तो सोचता ही राह गया।

रजनी- सच, खेती बाड़ी के बारे में ही सोच रहे थे न, कहीं मेरी माँ की याद तो नही सता रही थी मेरे बाबू को।

उदयराज- अब तू आ गयी है तो भला क्यों सताएगी उनकी याद। (उदयराज ये बात तपाक से बोल गया पर बाद में पछता भी रहा था कि मैं ये क्या बोल गया)

रजनी- हां बिल्कुल मैं हूँ न आपका ख्याल रखने के लिए, चलो अब जल्दी से नहा लो।

उदयराज- बेटी एक बात के लिए मुझे माफ़ कर देना।

रजनी- (उदयराज के करीब आते हुए) अरे बाबू आप ऐसे क्यों बोल रहे है, ऐसा क्या किया अपने जो आप ऐसा बोल रहे हैं।

उदयराज- वो अभी 4 बजे के आस पास जब तू मेरे लिए पानी लेकर आई थी पीने के लिए तो खाट पर मैंने तुझे बाहों में ले लिया था, मुझे ऐसा नही करना चाहिए था कोई देखा लेता तो क्या सोचता, और काकी ने तो देख ही लिया था, आखिर जो भी हो रिश्ते की एक मर्यादा होती है, हर चीज़ की एक उम्र, सही तरीका और कायदा होता है, दरअसल बेटी मैं अकेलेपन की वजह से अपनो के लिए तरस गया था इसलिय.......

रजनी ने आगे बढ़कर अपने बाबू के होंठो पर उंगली रखते हुए बोला- अब बस करो, और ये क्या बोले जा रहे हो आप, आपकी बेटी हूँ मैं कोई परायी नही, क्या जब मैं छोटी थी तब आप मुझे गोद में नही लेते थे, तो अगर आज मैं बड़ी हो गयी तो क्या आप मुझे अपने उस प्यार से वंचित कर देंगे, सिर्फ इसलिये की आज मैं बड़ी हो गयी हूँ, और अगर मुझे खुद आपकी गोदी में सुकून मिलता हो तो फिर क्या कहेंगे आप? मैं आपकी बेटी हूँ, आपके सिवा कौन है मेरा, आपके बिना नही रह सकती मैं इसलिए उम्र भर आपकी सेवा के लिए आपके पास आ गयी हूँ, अगर आप भी मुझे गोद में लेकर बाहों में भरकर प्यार और दुलार नही करेंगे तो मुझे मेरी माँ की कमी कौन पूरा करेगा (इतना कहते हुए रजनी की आंखें नम हो गयी) और वो आगे बोली- बाप बेटी का प्रेम तो हमेशा निष्छल रहता है इसमें ये कहाँ से आ गया बाबू की कोई क्या सोचेगा, जो कोई जो सोचेगा सोचने दो, कोई भी चीज़ गलत तब होती है जब जबरदस्ती हो, जब मुझे आपकी बाहों में सुख मिलता है तो आप मुझे इससे वंचित न करो।

उदयराज को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसकी मन की ग्लानि भी छूमंतर हो गयी उसने अपनी बेटी को अपनी बाहों में भर लिया, अंधेरा थोड़ा बढ़ गया था अब, रजनी अपने बाबू की बाहों में समा गई और अपनी बाहें उनकी नंगी पीठ पर लपेट दी और लपेटते ही न जाने क्यों उसकी हल्की सी सिसकी निकल गयी, ये उदयराज ने बखूबी महसूस किया फिर उदयराज उसके आंसुओं को पोछता हुआ बोला- तूने मेरी मन की उलझन दूर कर दी बेटी, मैं तुझे कभी अपने से दूर नही जाने दूंगा क्योंकि मैं भी तेरे बिना नही रह सकता, मैं भी क्या क्या सोचने लगता हूँ।

रजनी बोली- हाँ वही तो कह रही हूं सोचते बहुत हो आप, अब चलो नहा लो जल्दी।


इतना कहते ही वो फिर कुछ ध्यान आते ही चौंकी और बोली- हे भगवान मेरी कड़ाही, वो तो चूल्हे पर लाल हो गयी होगी। फिर वो अपने को उदयराज की बाहों से छुड़ा कर इतना कहते हुए भागी, उदयराज नहाते हुए अपनी बेटी को देखने लगा, भागते वक्त उसके चौड़े नितम्ब अनायास ही ध्यान खींच रहे थे, वह एक टक लगा के जब तक वो घर में चली नही गयी उसके भरपूर गुदाज बदन को देखता रहा, जाने क्यों नज़रें हटा नही पाया और इस बार उसे न जाने क्यों ग्लानि भी नही हुई। एक अजीब सी तरंग उसके बदन में दौड़ गयी, ये सब क्या था वो समझ नही पा रहा था।

नहा कर वो घर में आया और कपड़े पहने फिर मंदिर में दिया जलाने गया तो देखा की दिया पहले से ही जल रहा था, समझ गया कि रजनी ने ही जलाया होगा, मन खुश हो गया उसका ये सोचकर कि मेरे घर की लक्ष्मी आ गयी है अब, भले ही बेटी के रूप क्यों न हो, और पूजा करके बाहर आ गया, बाहर पड़ी खाट पर लेट गया, मस्त हवा चलने लगी और उसकी आंख लग गयी

तब तक काकी बाग़ से वापिस आ गयी और बच्ची को पालने में लिटा दिया और घर में गयी ये देखने की खाना बना या नही।
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Update- 64

नीलम भागते हुए रजनी के घर की तरफ गयी, दोपहर के 1 बज रहे थे। रास्ते में ही उसे काकी मिल गयी

काकी- अरे अरे....नीलम, कहाँ उड़ी जा रही है पतंग जैसे? रुक जरा, सांस तो ले ले।

नीलम- अरे काकी सांस गयी भाड़ में, रजनी कहाँ है?

काकी- क्या हुआ, कुछ बताएगी भी। वो तो अभी सो रही है?

नीलम- सो रही है.....इस वक्त.....क्यों? ये भी कोई सोने का वक्त है।

काकी- हाँ वो रात भर सो नही पाई न, बच्ची उसकी काफी परेशान कर रही थी रात में, इसलिए अभी दोपहर में सो गई।

(काकी ने जानबूझ कर नीलम को नही बताया कि रात भर रजनी और उदयराज बाहर थे, दरअसल अच्छे से तो काकी को भी नही पता था कि किस वजह से रजनी और उदयराज रात भर बाहर थे और उन्होंने वहां किया क्या, पर काकी को शक तो था, लेकिन काकी रजनी के पक्ष में ही थी)

नीलम- बच्ची ठीक है न उसकी, क्या हुआ उसे?

काकी- हाँ वैसे तो ठीक है पर सर्दी जुकाम होने की वजह से रात भर न तो वो खुद सोई और न ही रजनी को सोने दी, मैं कोशिश करती उसको लेने की तो मेरे पास भी नही आ रही थी, इसी वजह से रात में ठीक से सो नही पाई दोनों माँ बेटी और अब सो रही हैं। पर तू बता आखिर क्या हुआ ऐसे भागती हुई आ रही है।

नीलम- अरे काकी कुछ नही बस वो चूड़ीवाली आयी थी न तो रजनी ने मुझसे बोला था कि जब कभी आएगी तो मुझे भी बताना, तो मैंने उसको अपने द्वार पे ही रुकवा रखा है, मैंने सोचा की रजनी को भी बुला लाती हूँ वो भी अपनी मनपसंद की चूड़ियां ले लेगी, खैर कोई बात नही अब वो सो रही है तो मैं उसको जगाऊंगी नही, मैं खुद ही उसके लिए खरीद लेती हूं चूड़ियां, मुझे पता है उसे कैसी पसंद आयेगी चूड़ियां।

काकी- हां ठीक है बेटी, तू ही खरीद ले अपनी भी और उसकी भी, दोनों की पसंद एक जैसी ही तो है, अभी उसको जगाना ठीक नही।

नीलम- ठीक है काकी मैं फिर जाती हूँ, जब वो उठेगी तो उसको बता देना की मैं आयी थी....ठीक है

काकी- हाँ मेरी प्यारी बिटिया बता दूंगी, और हो सके तो मैं और वो आएंगी शाम को घर पे तेरे।

नीलम- ठीक है काकी

(और इतना कहकर नीलम वापिस आ गयी)

नीलम ने फिर चूड़ीवाली से अपनी और रजनी के पसंद की चूड़ियां खरीदी और महेन्द्र ने पैसे दिए, चूड़ीवाली चली गयी, आवाज लगाती हुई वो रजनी के घर की तरफ से भी गुजरी पर काकी ने रजनी को जगाया ही नही।

नीलम ने चूड़ियां ली और महेंद्र से बोली- लो ये पहनाओ मुझे।

महेन्द्र- मेरे से टूट जाएगी तुम खुद पहन लो ।

नीलम- टूट कैसे जाएंगी आराम से पहनाओ.....पहनाओ न

महेन्द्र- ये हरी चूड़ियां तुमने अपने लिए ली हैं और ये नीली चूड़ियां अपनी सखी के लिए।

नीलम- हाँ मेरी सखी को नीली चूड़ियां पसंद हैं।

महेन्द्र- कौन सी सखी, कभी देखा नही मैंने।

नीलम- अरे यहीं थोड़ी दूर पर घर है उसका....रजनी नाम है मेरी सखी का।

महेन्द्र- रजनी

नीलम- हम्म.....रजनी.....क्यों कोई दिक्कत है नाम में

महेन्द्र- अरे दिक्कत नही, नाम तो बहुत प्यारा है...रजनी

नीलम- अच्छा जी और मेरा नाम प्यारा नही है।

महेन्द्र- तुम्हारा नाम तो क्या तुम खुद सबसे प्यारी हो।

नीलम- ह्म्म्म रहने दो....मस्का मत लगाओ.....पता है मुझे सब, किस लिए मस्का लगाया जा रहा है।

महेन्द्र- जब पता है तो दे दो न

नीलम- क्या दे दूं

महेन्द्र- वही जिसके लिए मैं यहां आया हूँ।

नीलम- अच्छा जी, मतलब मेरे लिए नही आये हो खाली उसके लिए आये हो।

महेन्द्र- अरे मेरा मतलब दोनों के लिए मेरी जान...दोनों के लिए।

नीलम- एक चूड़ियां तो तुमसे पहनाई नही जा रही, पहनाओगे तभी मिलेगी, पहले पहनाओ और देखना टूटनी नही चाहिए एक भी, एक भी टूटी तो वही रुक जाना, फिर देखना मैं अपने बाबू को बोलूंगी और देखना वो कैसे पहनाते हैं मजाल है कि एक भी चूड़ी टूट जाये।

(नीलम ने महेन्द्र के सामने जानबूझ के शर्त रखी, उसे पता था कि महेन्द्र पहना नही पायेगा चूड़ियां)

(महेंद्र के पुरुषार्थ पर बात आके टिक गई तो वो भी मर्दानगी दिखाते हुए चूड़ियां पहनाने लगा)

महेन्द्र- अच्छा बाबू तुम्हे चूड़ियां पहनाते हैं....कब से

नीलम- बचपन से ही.....और बहुत अच्छा पहना देते हैं....पता है ये सब कब से शुरू हुआ

महेन्द्र- कब से चल रहा है ये सब

नीलम- क्या मतलब तुम्हारा...कब से चल रहा है।

महेन्द्र- अरे मेरा मतलब की वो कब से तुम्हे चूड़ियां पहनाते आ रहे हैं.....तुम तो भड़क जाती हो यार बहुत जल्दी।

नीलम- अब तुम बात ही ऐसी बोलोगे तो भड़कूँगी नही, बाबू हैं वो मेरे।

महेन्द्र- हाँ तो मैंने कब कहा की सैयां हैं तुम्हारे।

नीलम- बार बार बोलोगे तो सैयां मैं उन्ही को बना लुंगी फिर हाँथ मलते रह जाना।

महेन्द्र- अच्छा तुम बनाओगी और वो बन जाएंगे।

नीलम- कोशिश करने लगूंगी उनको रिझाने की, आखिर कब तक रुकेंगे, आखिर वो एक पुरुष और मैं एक स्त्री हूँ।

(इतना कहकर नीलम मुस्कुराने लगी, महेन्द्र समझ गया कि नीलम खाली उसे छेड़ रही है)

महेन्द्र- अच्छा बाबा माफ कर दो और बताओ कि कब से वो तुम्हे चूड़ियां पहनाते आ रहे हैं।

नीलम- हम्म ये हुई न बात, अब ऐसा वैसा कुछ मत बोलना, वो मुझे बचपन से ही चूड़ी पहनाते आ रहे हैं, एक बार मेरे जिद करने पर अम्मा ने चूड़ी तो खरीद दी पर पहना नही रही थी उसको कोई और काम करना था, काफी व्यस्त थी, बोली कि शाम तक रुक मैं खेत से वापिस आऊंगी तो पहना दूंगी, पर मेरा मन मान नही रहा था, अम्मा के जाने के बाद मैं लगी खुद ही पहनने, आधी से ज्यादा चूड़ी तोड़ डाली, कुछ ही कलाई में रह गयी, लगी रोने की अब अम्मा आएगी और लगेगी मेरी पिटाई, पर इतने में बाबू कहीं बाहर से आये तो मुझे रोता देख और हांथों में कुछ चूड़ियां और नीचे गिरी टूटी हुई चूड़ियां देख सारा माजरा समझ गए, मेरे पास आये और बोले- बस इतनी सी बात के लिए मेरी प्यारी सी बिटिया रो रही है। मैं उस वक्त छोटी थी, आंखों में आंसू भरे बाबू की तरफ देखने लगी, बाबू ने मेरे आंसू पोछे और प्यार से मेरे गालों को चूमकर मुझे गोदी में उठा कर बाजार ले गए और दुबारा वैसी ही चूड़ियां खरीद कर ले आये और फिर......

महेन्द्र- फिर क्या?

नीलम- फिर क्या...सारी चूड़ियां पहनाई मुझे उन्होंने....बड़े प्यार से....पता है एक भी नही टूटी एक भी......इसे कहते है एक पिता का प्यार बेटी के लिए, तभी तो मैं अपने बाबू को अपनी जान से ज्यादा चाहती हूं।

महेन्द्र- अच्छा जी, ऐसे कैसे पहना लेते हैं कि एक भी चूड़ी नही टूटती, तेल लगा के पहनाते हैं क्या?

(महेन्द्र ने double meaning में चुटकी ली, और हंसने लगा, नीलम को फिर लगी गुस्सा, दिखावे के गुस्सा)

नीलम- फिर तुम बहुत बोल रहे हो.....एक भी चूड़ी अभी तक तुमसे पहनाई नही गयी....बस 5 मिनिट से मेरा हाँथ ही पकड़ के तोड़ मरोड़ रहे हो इधर उधर, अगर चूड़ी नही पहना पाए न तो मिलेगी भी नही रात को देख लेना और अगर चूड़ी टूटी तो वहीं रुक जाना फिर। बड़े आये तेल लगा के पहनाते होंगे चूड़ी बोलने वाले, अगर मैं तेल भी लगा दूँ न हाँथ में तो भी तुम नही पहना पाओगे, लगा लो शर्त।

महेन्द्र- चलो ठीक है, लगाओ तेल हाँथ में, न पहनाया तो मेरा नाम भी नही, लगाता हूं मैं शर्त।

(महेंद्र जोश जोश में बोल गया)

नीलम- वो तो ठीक है, पर शर्त हार गए तो।

महेन्द्र- पहली बात तो मैं हारूँगा नही।

नीलम- इतना भरोसा।

महेन्द्र- और क्या?

नीलम- देखते हैं, और हार गए तो।

महेन्द्र- तो जो तुम बोलोगी वही करूँगा। जो तुम चाहोगी वो होगा।

नीलम- सोच लो

महेन्द्र- सोच लिया

नीलम- ठीक है

महेन्द्र ने जो इस वक्त एक चूड़ी लेकर नीलम के नरम नरम हांथों में चढ़ाने की कोशिश कर रहा था उसको छोड़ दिया।

नीलम- अभी तक ये एक भी नही पहना पाए हो, अब जा रही हूं मैं तेल लेकर आने, तुम यहीं बैठो।

महेन्द्र- पर शर्त क्या है, ये तो बता दो।

नीलम मुस्कुराने लगी फिर बोली- शर्त

महेन्द्र- हाँ और क्या, पता तो हो शर्त क्या है?

नीलम- शर्त तो यही है न कि अगर तुम हार गए तो जो मैं चाहूंगी वही होगा, जो कहूंगी वैसा ही तुम करोगे, अभी तो तुमने खुद ही बोला और इतनी जल्दी भूल गए।

महेन्द्र- हाँ ठीक है, और जीत गया तो।

नीलम- अगर तुम जीते तो जो तुम चाहोगे वो मैं करूँगी।

(नीलम को पता था कि महेन्द्र हरगिज नही जीत सकता)

महेन्द्र ये सुनकर खिल उठता है।

नीलम- सोच लो एक बार फिर अभी वक्त है।

महेन्द्र- सोच लिया...मैं भी मर्द का बच्चा हूँ, पीछे नही हट सकता अब।

नीलम- ठीक है।

नीलम घर में गयी और कटोरे में सरसों का तेल लेकर आ गयी।
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Update- 66

नीलम के मुँह से बहुत ही बेबाक तरीके से निकली ऐसी बात सुनकर महेन्द्र सन्न रह गया, उसकी स्थिति सांप छछून्दर जैसी हो चली थी, नीलम ने उसे ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया था कि न तो उससे निगला जा रहा था न उगला।

वो ये जान गया था कि अगर उसने नीलम की शर्त नही मानी और अपना वचन पूरा नही किया तो नीलम यहीं मायके में रहेगी, क्योंकि वो जानता था कि नीलम जिद्दी है, और तो और नीलम कभी उसको यौनसुख भी नही देगी।

दूसरी तरफ वो नीलम की इस बात से भी हैरान था कि नीलम को ये बात लंबे समय से पता है कि उसने छुपकर अपनी सगी बहन की चौड़ी मदमस्त गाँड़ कई बार देख रखी है और शादी से पहले से ही उसके मन में अपनी बहन की बूर देखने की इच्छा है और देखना ही क्या सच तो ये था कि वो चोदना चाहता है अपनी बहन को, ये बात नीलम को पता होने के बाद भी नीलम ने कभी उससे ये सब पूछा नही और न ही कभी किसी तरह का झगड़ा इस बात को लेकर किया कि वो अपनी ही सगी बहन को लेकर ऐसी व्यभिचारिक भावनायें रखता है और आज खुद उसकी पत्नी नीलम उसे उसकी बहन चखाने का वचन दे रही है, अगर वो नीलम की बात नही मानता है तो नीलम तो उससे नाराज़ हो ही जाएगी ऊपर से बहन की बूर का मिलने वाला मजा जिसके सपने वो कब से देखता आ रहा है वो भी हाँथ से चला जायेगा और ये कितना सुरक्षित भी होगा की उसकी पत्नी को पता होने के बाबजूद भी वो अपनी सगी बहन के हुस्न में गोते लगाएगा।

एक बार तो उसने खुद को ठगा सा महसूस किया, उसे एक पल के लिए लगा कि नीलम उसकी पत्नी कितनी चालबाज़ है, ऐसा रूप उसने नीलम का कभी देखा नही था, परंतु सच ये था कि नीलम ऐसी नही थी।

नीलम महेन्द्र की मनोदशा को तुरंत भांप गयी और उसकी आँखों में देखते हुए बोली- क्या सोच रहे हो? मुझे पता है तुम मुझे गलत समझ रहे होगे, तुम्हे लग रहा होगा कि मैं कितनी शातिर और चालबाज़ हूँ, जो मैंने शर्त और वचन तुम्हारे सामने रख दिये।

महेन्द्र- नही नही मैं ऐसा कुछ भी नही सोच रहा, और मुझे पता है तुम ऐसी नही हो।

नीलम- एक बात बोलूं, मैं थोड़ी चंचल और नटखट भले ही हूँ पर दिल की साफ हूँ, मैं चालबाज़ नही हूँ और न ही कभी तुम्हारा दिल दुखाउंगी, मैं जानती हूं कि इस वक्त तुम्हारी स्थिति बहुत असमंजस भरी है। पर जरा ये तो सोचो कि किसी औरत को अगर ये पता चले कि उसका पति अपनी ही सगी बहन को भोगना चाहता है तो क्या वो बर्दाश्त करेगी, पर जब मैंने पहली बार ये बात जानी तो मुझे बस तुम्हारी खुशी का ही ख्याल था, इसलिए मेरे मन में गुस्सा नही आया मैंने इसे सहजता से लिया जानते हो क्यों?

महेन्द्र एक टक लगाए नीलम को बाहों में भरे उसकी आँखों में देखते हुए बोला- क्यों

नीलम- क्योंकि संभोग की भूख ठीक वैसे ही होती है जैसे पेट की भूख, मान लो तुम अपनी थाली में खाना खा रहे हो और बगल वाली थाली में कुछ ऐसा रखा है जो तुम्हे खाने का मन किया तो तुम उसे उठाओगे न

महेन्द्र- हाँ बिल्कुल

नीलम- तो क्या मैं तुम्हे रोकूंगी, अगर मैं वहीं बगल में बैठी हूँ तो?

महेन्द्र- नही बिल्कुल नही

नीलम- पर क्यों?

महेन्द्र ये सुनकर चुप हो गया, नीलम ने एक चपत उसके सर पे लगाया और बोला- अरे बुद्धू क्यों कि मैं तुमसे प्यार करती हूं, और प्यार करने का सबसे सही अर्थ ही यही होता है कि जिससे तुम प्यार करते हो वो भले ही तुम्हे कुछ दे या न दे पर उसे देने में तुम्हारी तरफ से कोई भी कसर न रहे, देने का अर्थ उसकी इच्छा पूरी करने से है, प्यार का अर्थ देना होता है लेना नही। तभी मुझे तुम्हारी वो इच्छा जानकर गुस्सा नही आया और मैंने मन ही मन सोच लिया था कि वक्त आने पर मैं ये बात सामने लाऊंगी और तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगी, अब सोचो मैंने तो कब से ही बिना किसी शर्त के तुम्हारी इच्छा पूरी करने की ठान ली थी।

महेन्द्र- तुम इतनी समझदार होगी ये मैंने कभी सोचा नही था, सही में मैं कितना खुशकिस्मत हूँ जो मुझे इतना समझने वाली पत्नी मिली, आज से जो तुम बोलोगी मैं वही करूँगा, गुलाम हो गया मैं तुम्हारा।

नीलम- वो तो तुम हो ही, बच के कहाँ जाओगे।

नीलम ने आंख नाचते हुए कहा, महेन्द्र धीरे धीरे नीलम की पीठ को सहलाते हुए बोला- अच्छा तुमने बोला कि प्यार का सही अर्थ देना होता है लेना नही तो तुम भी तो मुझसे इसके बदले में कुछ न कुछ लोगी ही.....बोलो

नीलम- अरे वो तो मैं शर्त जीती हूँ न....तो अपनी शर्त का जीता हुआ इनाम नही लूं......और ये तो मेरी अच्छाई हुई पर तुम्हारी अच्छाई फिर क्या होगी......बोलो

(नीलम ने बड़ी शातिराना अंदाज़ से महेन्द्र को फिर दबा दिया)

महेन्द्र- हम्म ये तो है, मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है तुम्हारी इच्छा पूरी करने का।

नीलम- पहले मेरी इच्छा तो जान लो

महेन्द्र- हाँ बोलो, अब बोलो मेरे मन की सारी दुविधा दूर हो गयी, वचन देता हूँ मैं तुम्हे की ये राज सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच रहेगा और मैं तुम्हरी शर्त पूरी करूँगा।

नीलम ने धीरे से कान में कह दिया- मैं भी वचन देती हूं कि तुम्हे तुम्हारी सगी बहन सुनीता की लज़्ज़त भरी बूर का मजा दिलवाऊंगी।

नीलम ने ये कहकर महेन्द्र की आंखों में देखा और चिढ़ाते हुए बोली- देखो कैसे आंखों में कितनी चमक आ गयी......गंदे.....बहन के साथ करोगे.....ह्म्म्म.......बहुत पसंद करते हो न सुनीता को।

महेन्द्र अब थोड़ा खुल गया था, उसने जान लिया था कि राज तो अब खुल ही गया है और नीलम खुद ही उसका रास्ता बना देगी तो दिक्कत क्या है पर फिर भी शर्म तो आ ही रही थी आखिर भाई बहन का रिश्ता पवित्र जो होता है।

महेन्द्र- हाँ करता तो हूँ, क्या करूँ मन नही मानता।

नीलम ने जानबूझ के महेन्द्र को और बेकाबू करने के लिए धीरे से उनके कान में कामुक अंदाज़ में सिसकते हुए बोला- भैया

महेंद्र नीलम को देखता रह गया उसे अजीब सी गुदगुदी हुई, अपनी पत्नी के मुँह से उसके लिए भैया शब्द सुनकर बदन में उसके मदमस्त झनझनाहट हुई।

महेंद्र- ये क्या बोल रही हो, पति को भैया बोलोगी, भैया हूँ मैं तुम्हारा?

नीलम- अरे मेरे पति जी थोड़ी देर सुनीता को महसूस कर लो, मान लो कि मैं तुम्हारी सगी बहन हूँ, मैं भी तो देखूं मेरे पति को कितना जोश चढ़ता है अपनी बहन को सोचकर।

नीलम ने इतना कहकर एक बार फिर महेन्द्र के कान में धीरे से कहा- भैया.....मेरे भैया.......मेरे महेन्द्र भैया......आआआआआहहहहहह......और महेन्द्र के गर्दन को चूम लिया।

महेन्द्र ने कस के नीलम को अपने से चिपका लिया और उसके कान में बोला- दीदी......मेरी बहना.........ओओओओहहहहह......उउउउफ़फ़फ़फ़

नीलम अब जोर से सिसक उठी।

महेन्द्र ने पीछे से हाँथ ले जाकर नीलम की नीली साड़ी को उठाना शुरू कर दिया तो नीलम बोली- गाँड़ छुओगे भैया मेरी

महेन्द्र- हाँ दीदी बहुत मन कर रहा है, छूने दोगी?

नीलम- भैया का तो हक़ होता ही है बहना पर, छू लो न भैया, मैं भी......

नीलम के इस तरीके से महेन्द्र के बदन में तेज सनसनी होने लगी, चेहरा लाल हो गया उसका जोश के मारे, जोश नीलम को भी बहुत चढ़ गया था, महेंद्र बोला- मैं भी.... क्या बहना?

नीलम- भैया मैं भी तरस गयी हूँ आपके लिए।

दरअसल नीलम महेंद्र को खोलना चाहती थी। महेंद्र के लिए ये दोहरा मजा था, उसने कभी सोचा भी नही था कि उसकी पत्नी ही उसे बहन का मजा देगी।
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