- 2,977
- 2,865
- 159
अब मेरे पास करण जैसा पक्का दोस्त, परेशानी रहित अच्छी जिंदगी, ना चाहते हुए भी गुरुग्राम का ये घर और राजौरिया अंकल की ताउम्र जिम्मेदारी थी, जो इस इंटरव्यू करने के एवज में उन दोनों ने जबरदस्ती मुझ पर थोपी.
***************
अगले दिन मैं और रोज़दा दिल्ली और मेरठ के बीच बहती गंग नहर के बेड पर ताजा गुड़(jaggery) खा रहे थे. हमारा इधर आने का मकसद था डैड के दोस्त की फसल के लिए दवाईयां देना और उनसे देशी सिरका लेना. मगर उनके फार्म-हाउस के बराबर से आने वाली एक मीठी सुगंध ने हमें यहां तक पहुंचा दिया. यह बिजली से चलनी वाली एक मिडिल साइज गन्ने की मिल थी जिससे जूस निकाल कर यहां फ्लेवर वाला गुड़ बनाया जा रहा था, और इस प्रोसेस में निकलने वाली खुशबू यहां दूर दूर तक फैल रही थी. हालांकि इस गांव में मेरी ये शायद दूसरी विजिट थी मगर अदरक-मूंगफली मिक्स ताजे गुड़ का टेस्ट मैंने पहली बार किया.
रोज़दा को नहर मे स्विमिंग करनी थी मगर प्राइवसी और टाइम की कमी ने हमें वापस लौटने पर मजबूर कर दिया. आज शाम करण के यहां हमारी दावत थी मगर मैडम का दिमाग अभी भी गंगनहर की स्विमिंग और उस फ्लेवर्ड गुड़ को एक सही बाजार दिलाने पर अटका था. दिल्ली पहुंचने से पहले माॅम से आदेश मिला चांदनी चौक से काॅटन और सिल्क की साडियां लाने का और फिर मैड़म के जेहन से गंगनहर का तिलिस्म गायब था. ये तो तब था जब उसे साडियों के बारे में क, ख, ग नहीं आता था मगर माॅम की शागिर्दगी में उसे अब यह सब सीखना तो बनता ही था.
शादी से पहले बीवी का ध्यान बंटाने के नुस्खे तो मुझे मिल रहे थी मुझे, मगर इनके साथ दिक्कत यह थी कि वो मेरी जेब पर भारी पड़ते. खरीददारी खत्म होने के बाद अगली मुश्किल थी सामान को पार्किंग तक पहुंचाने की, और वहां की भीड़-भाड़ को देख मेरी रीसेंटली इंजर्ड कलाई और कंधे पहले से ही रोने लगे थे. आखिरकार डेढ़ घंटे के बाद साडियां और अन्य कपडे़ सलैक्ट कर माॅम ने विडियो काॅलिंग बंद की, और उसके बाद हमारा काम शाॅप ओनर ने मिनटों में करा दिया. बेस्ट पार्ट था कि रोज़दा कच्ची खिलाडी थी इसलिए मॉम ने उसे बख्श दिया, एल्स अब तक वो हमें 17 आउटलेट्स के चक्कर लगाने के बाद 18 वें में टहला रही होती.
लौटते वक्त पूरे टाइम वो साइदा के साथ फोन पर थी, कुर्दिश नहीं आती थी मुझे पर 'लहंगा' वो एक लफ्ज था जो बार बार रिपीट हो रहा था, दूसरा साडी़, तीसरा चांदनी चौक और लास्ट था गेंजी़स मतलब गंगा. खैर, घर आने पर आंटी का रोज़दा से पहला सवाल था कि अपनी तरफ से मैंने क्या दिलाया है उसे तो जवाब में उसने खुद को आगे कर दिया. सवाल यह नहीं था कि मैंने आज क्या दिलाया उसे, मगर फिलहाल जो सांगानेरी कुर्ता उसने पहना हुआ था, वो भी तो कभी मैंने ही उसे दिलाया था.
खाना खाने के बाद कोई 30-40 मिनिट्स की नैप लिया होगा मैंने कि अचानक मुझे रूम में किसी के होने का अहसास हुआ. साइड बदल कर देखा तो बाथरूम का दरवाजा खुला हुआ था और वहां से किसी के सिसकने की आवाज़ आ रही थी. इसके कुछ सैकिंड्स बाद रोज़दा का नाम दिमाग में क्लिक हुआ और फिर मैं सुपरमेन की फुर्ती से बाथरूम के अंदर था और वो मेरी बाजुओं में. अंदाजा नहीं था क्या वजह रही उसके इस हाल में यहां होने की पर मेरे दिमाग की सूई दो जगह अटक रही थी.
पहली, मेरी खुद की माॅं. थोडा़ सा भी भरोसा नहीं था मुझे उन पर क्यूंकि वो थी ही इतनी लापरवाह कि अपने मजे के लिए किसी को भी अफेंड कर सकती थी. और दूसरा, वो मिस कर रही थी अपने डैड को, मगर फिर मुझे लगा मेरे दोनों ही अंदाजे गलत हैं. यह भी तो हो सकता था वो अपनी माॅम को मिस कर रही हो, क्यूंकि मेरी माॅं तो बेसब्री से इंतजार कर रही थी अपनी होने वाली बहू का और रोज़दा को रुला कर वो अपने अरमानों का गला घोंटने से बेशक परहेज करती.
मैं अभी इन खयालों के बीच राशनल होने की कोशिश कर रहा था कि रोज़दा एक लौंग लिपलाॅक ने मुझे एक दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया. रेस लगाती धड़कनों के बीच बस एक ही कोशिश थी हमारी, उस Oneness तक पहुंचना, जहां से वापसी कभी पाॅसिबल न हो. गजब अहसास था यह मगर कुछ देर बार डोर पर हुई नाॅक की आवाज ने हमें जता दिया कि कुछ सामाजिक नियमों से बंधे हम अदने से इंसान हैं. थोडा़ अफसोस तो जरूर हुआ मगर जाते हुए रोज़दा के इन अल्फाजों ने फिर से हौंसला भर दिया इन बंदिशों से बाहर निकल फिर से एक होने का.
" तुम्हारे साथ सोना है मुझे.... पीरियड "
………………
अब यहां रुकने का और मन नहीं था मेरा. करण ने भी पूछा मैं खोया-खोया क्यूं हूं, तब ना जाने कैसे मेरी जुबान से वो बहाना निकल आया जिसकी मदद से हम तुरंत जयपुर निकल सकते थे. वैसे भी हमें अगले दिन वापस जाना ही था, इसलिए किसी पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा. पर जिसके लिए मैं यह कर रहा था उसके दिमाग में पता नहीं क्या भरा हुआ था. सच बोलते हैं कि लड़कियों का दिमाग टखनों में होता है और मैड़म एन उनमें से एक थी.
अगली दिन सालिड़ लडाई के बाद मैं अपने दफ्तर में था और रोज़दा उदयपुर अपने घर. नाराज़गी यह नहीं थी कि उसने मेरे प्लान पर वीटो किया, वजह थी उसका वो बचकाना जवाब कि उसे रात में 250 किलोमीटर ट्रैवल नहीं करना था. पूरे सप्ताह हमारे बीच तनातनी रहने से बोल-चाल बंद रही. इक्का दुक्का एक्सचेंज आफ मैसेजिस जरूर होते थे उदयपुर गार्जियन को लेकर, लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं.
अकादमी में खास काम नहीं था, मगर मेरा रुकना मजबूरी थी क्यूंकि होली की छुट्टियां होनी थी और ज्यादातर तैयारी कर रहे थे अपनों के संग यह पर्व मनाने की. वीकेंड पर करण के साथ माॅम-डैड और अंकल आंटी आ गए तो पता नहीं लगा दो दिन कैसे निकल गये. उसके बाद करण-शिवानी गुरुग्राम चला गए और बाकी लोग उदयपुर. ये सोचकर कि इस बार हमारी होली रोज़दा के परिवार के साथ मनेगी मगर ऐन वक्त पर अतिरिक्त काम मिलने से मेरा प्रोग्राम कैंसिल हो गया. और जब मैंने उन्हें बताया नहीं आने के अलावा दूसरा आप्शन नहीं है तो फिर मुझे फोन पर ही गालियां सुनने को मिलने लगी.
रोज़दा का नंबर बिजी जा रहा था, उसकी द़ोस्त से बात हुई तो उसने बताया वो आज आई नहीं थी. दो-तीन बार ट्राई करने पर रिस्पांस नहीं मिला तो उसके डैड से बात हुई, वो खफा थे DIG झा और मेरे बीच चल रहे चूहे-बिल्ली के खेल से. उनका अभी भी यही मानना था कि उदयपुर ट्रैफिक के लिए मना करने की यह गलती उनकी बेटी पर भारी पड़ने वाली थी. और इस बात का सही मतलब मुझे तब समझ आया जब देर रात रोज़दा ने पूछा खाना लेकर एकेडमी आना है या सर्किट हाउस.
तकरीबन एक घंटे बाद कलैक्टरेट सर्किल से उसने मुझे पिक किया, और बस एक झलक देखने भर से हमारी नाराजगी दूर हो गई. मैं खुश था कि मेरे लिए वो इतना पेन लेकर यहां आई और ये खुशी डबल तब हो गई जब उसके तीन बैग्स ड्रैग कर मैं रूम में ले जा रहा था. रोज़दा के शाॅवर लेने तक मैंने पोर्टल का काम फिनिश किया और फिर खाना गर्म करने की रिक्वेश्ट कर नहाने चला गया.
" एक मिलियन फौलोअर्स हो गये हैं हमारे और वालंटियर्स की तो.... कहीं जाना है तुम्हें? "
" हां.... फोर्स कम है तो स्पेशल ड्यूटी लगी है, पब्लिक मीटिंग है बस एक. उसके बाद सुबह तक फ्री " डेनिम में शर्ट को टक कर कफ बटन लगाते हुए मैंने जवाब दिया.
" ये क्या होता है यार... बिल्कुल भी... पहले बता देते मैं होटेल चली जाती " रुआंसी सूरत बना कर रोज़दा की आंखे एकाएक आंसुओं से भर गई.
" पागल... पता होता तो पहले ही न निबटा लेता... रियली एन. फाइन... खाना खा कर साथ में चलते हैं. और जयपुर वालों के साथ सेलिब्रेट करते हैं तुम्हारे उदयपुर गार्जियंस परिवार के दस लाख फोलोअर्स होने का सफर... " गोद में बिठाते हुऐ आंसुओं से भरी उसकी झील सी आंखों मैं देखते हुए मैंने कहा.
" थकी हुई हूं मैं "
" पैर दबा दूंगा.... प्रामिश " मैंने सोल्यूशन ऑफर किया.
" हैड मसाज? "
" डन "
" डेली? "
" पक्का "
इस तरह उसकी इक दो शर्त और थी. मसलन से किसी भी हालत में हम बात करना बंद नहीं करेंगे और एक दूसरे को भरोसे में लिए बिना कुछ भी प्लान करने से बचेंगे. खाना खाने के बाद रोजदा ने थोडा़ वक्त चेंज करने में लगाया, इतने में मैंने गणेश को वहां स्नैक्स और साॅफ्ट-ड्रिंक का इंतजाम कराने के लिए बोल दिया.
मीटिंग की वजह थी मिक्स्ड कम्यूनिटी वाली जगहों पर सोशल पुलिसिंग की हैल्प से फैस्टिव सीजन के दौरान सद्भाव, सौहार्द और भाईचारा कायम करना. क्यूंकि उर्स के साथ पुष्कर मेला सम्पन्न कराने का मुझे सफल अनुभव था, और होली के ठीक बाद मस्जिदों में रमजान की तैयारियां चल रही थी. उपद्रवियों से दोनों कम्यूनिटियों के त्यौहार में कोई भंग ना डले, इस वजह से सभी वर्गों के जनप्रतिनिधि, समाजसेवक और भद्र-जनों को इस मीटिंग में बुलाया गया था.
बेस्ट पार्ट रहा गणेश का रोज़दा को आडिटोरियम से पहले रोक देना. क्यूंकि उस मीटिंग में जनता को छोड़कर, हर उस तबके की भागीदारी थी, जिनके लिए कभी भारतीय दंड संहिता को लागू किया गया. बहुत पर्सनल होने लगा था DIG, अफवाहों को सीढी बना कर मेरी बेदाग सर्विस को निशाना बनाने चला था.
मुनासिब मौका था अब रोज़दा का मेरी ज्याती और पेशेवर जिंदगी में दाखिल होने का, और फिर उसके संवाद के बाद पब्लिक के नाम का मुखौटा पहने टट्टुओं का चेहरा देखने लायक था. नेशनल मीडिया पर पकड़ के साथ-साथ उसके पास फौज थी स्टूडैंट्स, टीचर्स, डाक्टर्स, वकील, ड्राइवर्स से लेकर रहडी-पटरी पर काम करने वाले उन वालंटियर्स की, जो जनहित में उसके एक इशारे पर मरने-मारने के लिए तैयार थे.
Last edited: