सही छंद का सही जगह इस्तेमाल भी कम काबिलेतारीफ नहीं है...मैंने तो खाली पेश किया
लेखक रीत काल के मूर्धन्य कवि देव है और उनका नाम भी छंद में है।
सही छंद का सही जगह इस्तेमाल भी कम काबिलेतारीफ नहीं है...मैंने तो खाली पेश किया
लेखक रीत काल के मूर्धन्य कवि देव है और उनका नाम भी छंद में है।
खास कर दोहरे अर्थों को अर्था अर्था के बताने वाली भी हो तो...गुड्डी और गुंजा के जलवे से आनंद साहब उबर ही नही पाए थे कि एक और हसीना ' रीत ' ने भी अपने हुस्न के जलवे बिखेरने शुरू कर दिए ।
लेकिन रीत नामक अंगूर आनंद साहब के लिए खट्टे ही लग रहे है मुझे । इस अंगूरी शबाब पर शायद सिर्फ करण साहब की ही मिल्कियत हो । जहां तक मुझे याद है रीत और करण ( अगर यह नाम सच है ) की भूमिका उस वक्त शब्बो शबाब पर थी जब हिन्दुस्तान के कई हिस्सों मे बम ब्लास्ट हुआ करते थे ।
इरोटिका लेखन , शब्दों के साथ खेलना , शब्दों का एक नया अर्थ तैयार करने मे आप का कोई जबाव नही ।
इंटर कोर्स के बाद इस बार कॉमर्स का डेफिनिशन तय किया आपने - काम रस । यह हास्य से लोत प्रोत था और वास्तव मे फनी था ।
इस स्टोरी मे कहीं न कहीं काफी फेरबदल किया गया है ।
वैसे मुझे गॉसिप मे पोस्ट हुई इस स्टोरी का अपडेट दर अपडेट याद नही है लेकिन कुछ बदलाव जरूर महसूस हो रहा है ।
यह एक रीजन है कि हमारा कौतुहल फैक्टर लगातार बढ़ते जा रहा है । क्या आनंद साहब सिर्फ दो चार महिलाओं के साथ प्रणय सीन्स मे नजर आएंगे या वह लेडीज मैन के किरदार मे दिखाई देंगे ।
बहुत ही खूबसूरत अपडेट कोमल जी ।
हमेशा की तरह बेहतरीन और वाह वाह अपडेट ।
बस इज्जत बच जाए.. यही बहुत है...ससुराल हो, वो भी बनारस की, फागुन हो
गूंजा ऐसी दर्जा नौ वाली शोख साली हो,
सलहजें हों,
तो कोई भी सुधबुध खो देगा, सामान क्या सब कुछ लुटाने के लिए तैयार रहेगा
और रसिया को नार बनाउंगी तो होली में होता है,
और घरवाली से बढ़कर साली...अगर आनंद बाबू का सपना पूरा हुआ तो गुड्डी के रिश्ते से सबसे छोटी साली तो वही है।
एक जगह रफुगिरी करनी हो तो ज्यादा मेहनत नहीं...अब आपको इतना ज्यादा याद है तो बता ही देती हूँ, रफ़ूगीरी करना, कपडे सिलने से ज्यादा मुश्किल है, उसी रंग का उसी टाइप का धागा लाओ, उसे से मैच, फिर सरफेस पे भी गैप न लगे,
पहली रफू गिरी करनी पड़ी यूपी बोर्ड के इम्तहान को लेकर।
मैंने बहुत दिमाग कुरेदा होली और बोर्ड के इम्तेहान को लेकर झगड़ा हमेशा रहता है अक्सर होली बीच में पड़ती है, या अगर बहुत जल्दी पड़ी तो इम्तहान शुरू होने के पहले, होली कभी भी मार्च के बाद नहीं पड़ती, इसलिए अगर कोई दसवे या बारहवे में हो तो बोर्ड के इम्तहान के बीच निकलना मुश्किल है ।
छुटकी वाली कहानी जिसका सीक्वेल है, मजा पहली होली का ससुराल में, उसमे भी बोर्ड के इम्तहान और होली का झगड़ा है लेकिन मंझली जो बोर्ड का इम्तहान दे रही है, होली के दिन जीजा के साथ होली खेलकर शाम को ही मिश्राइन भाभी के यहाँ चली जाती है और छुटकी जो अभी नौवे में है और उसकी सहेलियां अगले दिन भी होली खेलती है और बाकी सब कुछ भी,
तो हल ये निकला की गुड्डी की क्लास एक आगे बढ़ेगी, और रीत उससे भी दो तीन साल बड़ी है, तो फिर उसे ग्रेजएशन में जाना होगा।
सिरिएल टाइप कहानियों में परेशानी ये होती है की शुरू के पोस्टों में कहानी का एक रूप रहता है और धीरे धीरे जैसे कहानी आगे बढ़ती है कुछ पाठकों के सुझाव, कुछ घटनाओं के क्रम से कहानी में मोड़ भी आते हैं, पात्रों के रूप बदलते हैं, और उसी में कुछ महीन छोटे छोटे अंतर्विरोध नजर आते हैं, लेकिन एक तो पाठक कहानी के साथ चलते हैं और दूसरे उस से भी बढ़कर उनकी सदाशयता के कारण वो गड़बड़ियां नजर नहीं आतीं।
लेकिन जब आप उस कहानी को फिर से कहना चाहते हैं तो सब से पहले लिखने वाले को ही गड़बड़ी नजर आने लगती है, अब एक लाइन थी इस कहानी में ' गब्बू तुम जाकर रिक्शा ले आ", लाइन अभी भी है बस दो चार शब्दों का हेर फेर हैं, लेकिन उसके लिए बहुत रफ़ूगीरी करनी पड़ी।
जो बातें आप ने कही रीत के बारे में वो सब भी रफ़ूगीरी का नतीजा हैं, और आगे और भी थोड़ी बहुत करनी पड़े, लेकिन रीत एक मस्त बिंदास बनारसी बाला है उस में कहीं कुछ बदलाव नहीं होगा, हाँ इतने बदलाव के बाद भी यह कहानी पुराने का भी मजा देगी नए का भी जैसी देवदास जितनी बार बनी उस समय के हिसाब से बनी और हिट हुयी।
तो इतने बदलाव के कारण इसे एक नयी ही कहानी मान के चलें तो अच्छा रहेगा, हाँ कथावस्तु, मुख्य घटनाएं पात्र वही।
और बनारस में इस ज्ञान से साक्षात्कार भी हो गया...कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।
कबीर दास जी बनारस के थे और ये सत्य उनको बहुत पहले मालूम हो गया था।
आपके शिप वाले प्रसंग में भी काफी रिसर्च किया गया था..इस कहानी को लिखने में रिसर्च का थोड़ा बहुत इस्तेमाल हुआ है और मैं ये शेयर करने से नहीं रोक पा रही हूँ की जिस भाग का आपने उल्लेख किया है, रम का,
आपने यह ध्यान दिया होगा की आनंद बाबू ने एक ऑस्ट्रियन रम stroh ८० का इस्तेमाल किया। इसके पीछे थोड़ी रिसर्च ये थी की हिन्दुस्तान में मिलने वाली ज्यादातर रम में अल्कोहोल कंटेंट ५० % से कम होता है। सबसे प्रचलित ओल्ड मांक में ४३ % के आसपास ( आयतन के अनुसार ) अल्कोहल होती है, और मैक। .वेल, कंटेसा इत्यादि में इतनी ही और कुछ में इससे भी कम करीब ४० % के आसपास
अब आनंद बाबू को लगा की होली का आनंद तभी आएगा, जब साली सलहज सब मस्त हो मिश्रण के लिए ८० % वाली रम और चंदा भाभी के पति विदेश में रहते हैं, शौक़ीन तबियत के हैं तो ऑस्ट्रियन रम उनके पास होना सामान्य सी बात होगी
इसलिए मैंने ढूंढ कर उस ८० % वाली आस्ट्रियन रम के बॉटल का चित्र भी सुधि पाठको के लिए प्रस्तुत किया।
इस प्रकार की बातें और भी मिलेंगी इस कहानी में आगे, बार बार
आपको धन्यवाद, नियमित रूप से पढ़ने के लिए टिप्पणी और सबसे बढ़कर उत्साह वर्धन के लिए।
नूतन... नवीन के साथ मन मोह लेने वाली भी...मैं हर बार यही कहती हूँ रीत के लिए
रीत की रीत रीत ही जाने
और हाँ इस संस्करण में बहुत सारे परिवर्तन हैं जो इसे नूतन और नवीन बना रहे हैं, कुछ पात्रों की भूमिका बढ़ी है, कुछ के स्वरूप में हो सकता है थोड़ा बहुत बदलाव हो, लेकिन असली चीज है रस, चाहे बनारस का हो कहानी का, मैं पूरी कोशिश करुँगी की वो कम न हो।
और जहाँ तक आनंद बाबू का सवाल है, यथा नामे तथा गुणे के अनुसार उनका काम ही आनंद देना, आनंद लेना है। हाँ थोड़ी झिझक थी तो गुड्डी और गुड्डी की मम्मी के हड़काने, चंदा भाभी के नाइट स्कूल और गुड्डी और गूंजा की छेड़खानी से कुछ सुधार तो हो रहा है। अब रीत भी आ गयी है गुड्डी का साथ देने और फिर जब छत पर होली शुरू होगी तो और महिलाये भी, तो एकदम देखिये आनंद बाबू किस किस का रस लेते हैं,
ससुराल है, बनारस है फागुन है
आपका धन्यवाद आभार, आप समय निकल कर इन लम्बे अपडेट्स को पढ़ते हैं और सारे भागों को समेकित कर अपने विचार शेयर करते है, ऐसे समीक्षक जिनके एक एक शब्द के लिए अप्रूवल के लिए इस फोरम की हर लेखनी तरसती है , आप हर भाग पर अपने विचार रख रहे हैं और उत्साहित कर रहे हैं
यह कहानी और मैं कृतार्थ हैं आपका संबल पा कर।
कहानी में आप छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखती हैं..Thanks so much.
Your are correct about the Dant Manjan tooth powders that were commonly used at one time.
I try to focus on two factors in most of the stories, one is locale and the second is time. The purpose is that I feel readers can better visualize and relate. This is especially true for this story. The location of this part is Banaras and it is clearly mentioned in the opening paragraph of the story,
"आओगे तो तुम बनारस के ही रास्ते। रुक कर भाभी के यहाँ चले जाना"
The same post also mentions the journey to Banaras with names of various places en route
बनारस के लिए कोई सीधी गाड़ी नहीं थी इसलिए अगस्त क्रान्ति से मथुरा वहां से एक दूसरी ट्रेन से आगरा वहां से बस और फिर ट्रेन से मुगलसराय और आटो से बनारस।
Now the place of events is established naturally at Banaras, There is further mention of various locations of Banaras. Like Laksa
“अरे वही जो लक्सा पे है ना। जहां एक बार आप मुझे ले गई थी ना…” गुड्डी बोली।
“वही दो जोड़ी स्पेशल पान ले लेना और अपने लिए एक मीठा पान…”
There is mention of गोदौलिया, दालमंडी, सिगरा, औरंगाबाद. And with special features like Dalmndi used to be the place of Kothevaalis of Banars .
The simple purpose is to establish the feel of the place.
The second part is time, Story is based in the second decade of the 21st Century 2011-2012, therefore one can see the mobile, video calls etc. Holi is still a few days away so one can presume it to be March or Phagun. Similarly, day, morning, evening and night are also clearly distinguished.
One tricky question was what train hero should pick up, from Vadodara, with no direct train to Banaras or Mughlsarai. The fastest train is Rajdhani but it reaches Delhi around 9 and after that there is no train by which one can reach Banaras or Mughal Sarai in the evening. So Augst Kranti was specifically picked as is as fast as Rajdhani but has a stoppage at Mathura.
बहुत ही शानदार और मजेदार अपडेट है एक्स्ट्रा शॉर्ट मारने और पलंग तोड़ पान ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है पान का असर जोरदार होने वाला है आनंद बाबू तो पूरे खुल गए हैंपान पलंग तोड़
“क्या हुआ, किधर जा रही हैं आप?” मैंने पूछा।
“कहीं नहीं…” हल्के से उन्होंने बोला और धीरे से दरवाजे की कुण्डी खोलकर बाहर झाँका। दोनों लड़कियां घोड़े बेचकर सो रही थीं। उन्होंने फिर दरवाजा बंद कर दिया और मुझसे बोली-
“अरे वो जो पान तुम लाये थे। वो तो मैंने खाया ही नहीं। और वैसे तो तुम पान खाते नहीं, जब तक कोई जबरदस्ती ना खिलाये। तो फागुन में तो देवर से जबरदस्ती बनती है खास तौर से जब वो अगर तुम्हारे ऐसा चिकना हो। है ना?”
हँसते हुए बर्क में लिपटा हुआ वो ‘स्पेशल’ पान लेकर भाभी आ गईं।
फिर से उन्होंने मेरे गालों को दबाकर मुँह खुलवा दिया। पान का चौड़ा वाला भाग उनके मुँह में था और नोक वाल भाग निकला था।
बिना किसी ना-नुकुर के मैंने ले लिया। ज्यादातर पान उनके हिस्से में गया और थोड़ा सा मेरे में। क्यों ये राज बाद में खुला?
हम दोनों पान का रस ले रहे थे।
भाभी ने हल्के से मेरे होंठ पे काट लिया। मैं क्यों पीछे रहता मैंने और कसकर काट लिया और अपने दांतों का निशान उनके गुलाबी होंठों पे छोड़ दिया। इसका स्वाद थोड़ा अलग सा लग रहा था। स्वाद के साथ एक मस्ती सी छा रही थी। देह में एक मरोड़ सी उठ रही थी। भाभी की आँखों में भी सुरूर नजर आ रहा था।
भाभी ने फिर मुझे चूम लिया और मुश्कुराते हुए पूछा- “जानते हो, इस पान को क्या कहते हैं और ये कब खिलाया जाता है?”
“ना…” मैंने कसकर सिर हिलाया और उन्हें हल्के से गाल पे काट लिया। मेरी हरकतें अब मेरे कंट्रोल में नहीं थी।
“तुम बुद्धू हो…”
उन्होंने कसकर अपने मस्त उरोजों को मेरे सीने पे रगड़ा, और कहा-
“इसे पलंग-तोड़ पान कहते हैं और इसे दुल्हन दूल्हा खाते हैं। दूल्हा डालता है दुल्हन के मुँह में इसलिए मैंने डाला तेरे मुँह में। आज तो मैं दूल्हा तुम दुल्हन। क्योंकि मैं ऊपर तुम नीचे। मैं डाल रही हूँ और तुम डलवा रहे हो…”
“नहीं नहीं भाभी। वो पिछली बार था। अबकी मैं डालूँगा और आप डलवाइयेगा…” मैं भी बोल्ड हो रहा था।
“क्या डालोगे। नाम लेने में तो तेरी साले फटती है…” हँसकर ‘उसे’ हल्के से सहलाती वो बोली।
‘वो’ जोर-जोर से कुनमुनाने लगा। उनकी चूची कस-कसकर दबाकर मैं बोला-
“भाभी लण्ड डालूँगा। आपकी चूत में और वो भी हचक-हचक कर। आपका देवर हूँ कोई मजाक नहीं…”
“अरे मेरे देवर तो हो ही लेकिन साथ में मेरी बिन्नो (मेरी भाभी) ननद साली के ननदोई भी हो। अपनी बहन कम माल के भंड़वे भी हो और उसके यार भी हो…”
अब भाभी ‘उसे’ कस-कसकर आगे-पीछे कर रही थी और ‘वो’ पूरी तरह तन्ना गया था।
“तुमने भी ना देवरजी क्या सोचकर फुल पावर का माँगा था…” भाभी ने मुझे चिढ़ाया।
मैंने बहाना बनाया- “मुझे क्या मालूम। आपने बोला था। तो मुझे लगा फुल पावर मतलब ज्यादा अच्छा होगा…”
मेरे हाथ अब कस-कसकर उनके जोबन का मर्दन कर रहे थे। क्या मस्त चूचियां थी, खूब गदराई, कड़ी-कड़ी रसीली। मेरी उंगलियां उनके निपल को फ्लिक कर रही थी-
“भाभी, दो ना…”
“क्या?” मेरी आँखों में आँखें डालकर चंदा भाभी ने पूछा।
“यही। आपकी ए रसीली मस्त चूचियां, ये। ये। चूत…” मुझे ना जाने क्या हो रहा था।
“तो ले लो ना। मेरे प्यारे देवर। मैंने कब मना किया है। देवर का तो हक होता है और वैसे भी फागुन में और…”
और ये कहकर वो मेरे ऊपर आ गईं।
उनके 36डीडी मेरे टिटस को कस-कसकर रगड़ रहे थे।
मेरे कानों को किस करके वो हल्के से बोली-
“लेकिन याद रख। अगर तू मुझसे पहले झड़ा तो तेरा उपवास हो जायेगा। मैं तो नहीं ही मिलूँगी। वो भी नहीं मिलेगी। अपनी उस मायके वाली छिनाल से काम चलाना। और तेरी गाण्ड मारूंगी सो अलग। और वो तो वैसे भी कल मारी ही जायेगी। ससुराल में वो भी फागुन में आकर बची रहे ऐसी मस्त चिकनी गाण्ड। सख्त नाईन्साफी है…”
और उनकी मझली उंगली मेरे गाण्ड के क्रैक पे रगड़ रही थी।
मेरे पूरे देह में सनसनी फैल गई। जोश के मारे तो ‘उसकी’ हालत खराब थी। मुझे लगा की शायद चन्दा भाभी ‘उसे’ पकड़ लें लेकिन कहाँ.... उनकी उंगली मेरी गाण्ड में घुसने की कोशिश कर रही थी।
अचानक भाभी ने अपने हाथों से मेरे जबड़े को कसकर दबा दिया।
मेरा मुँह खुल गया। उनके रसीले पान से रंगे होंठ मेरे होंठों के ठीक ऊपर थे शायद बस एक इंच ऊपर। वो पान चुभला रही थी और उनकी नशीली आँखें सीधी मेरी आँखों में झाँक रही थीं। उन्होंने मेरे ऊपर से ही, अपना होंठ खोला और सीधे उनके मुँह से मेरे खुले मुँह में।
चन्दा भाभी के मुख रस से घुला मिला, अधखाया कुचला पान का रस।
उनके मजबूत हाथों की पकड़ में मैं अपना चेहरा हिला डुला भी नहीं पा रहा था और पान रस की धार सीधे मेरे मुँह में।
थोड़ी ही देर में भाभी के होंठ मेरे होंठों पे थे। और उन्होंने उसे अच्छी तरह जकड़ लिया, कसकर कचकचा के। कभी वो उसे चूसती, कभी काटती। जैसे सुहागरात के वक्त कोई दुल्हा दुल्हन की नथ उतारने के पहले कस-कसकर उसके मीठे होंठों का रस लूटता है बिलकुल वैसे।
थोड़ी देर में उन्होंने अपनी मोटी रसीली जीभ भी मेरे मुँह में घुसेड़ दी। वो मेरी जीभ को छेड़ रही थी, उससे लड़ रही थी।
और उसके साथ ही भाभी के खाए, कुचले, रस से लिथड़े पान के बचे खुचे टुकड़े, सबके सब मेरे मुँह में और उनकी जुबान उसे मेरे मुँह के अन्दर ठेलती हुई। पूरा पलंग-तोड़ पान मेरे मुँह में घुल रहा था, उसका रस भिन रहा था। मैं पहले धीरे-धीरे फिर खुलकर मेरे मुँह के अन्दर घुसी, भाभी की जीभ को हल्के-हल्के चूसना शुरू कर दिया।
जैसे कोई शर्माती लजाती दुलहन, पहले झिझके फिर अपने मुँह में जबरन घुसे शिश्न को रस ले लेकर चूसने लगे। बहुत अच्छा लग रहा था। और भाभी के शरारती हाथ भी ना, वो क्यों चुप बैठते।
जो उंगली मेरे पिछवाड़े के छेद में घुसने की कोशिश कर रही थी, वो अब मेरे बाल्स को सहला रही थी। छेड़ रही थी। और दूसरे हाथ ने जबड़े को छोड़कर, कस-कसकर मेरे निपलों को पिंच करना, कस-कसकर खींचना शुरू कर दिया, और 8-10 मिनट के जबर्दस्त चुम्बन के बाद ही भाभी ने छोड़ा।