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फागुन के दिन चार भाग २७
मैं, गुड्डी और होटल
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मैं, गुड्डी और होटल
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बहुत ही शानदार और लाज़वाब अपडेट है आनंद बाबू अब तो पूरा खिलाड़ी बन गया है जब टीचर चंदा भाभी जैसी हो तो अनाड़ी भी जल्दी ही खिलाड़ी बन जाता है चंदा भाभी गुड्डी के साथ पहली बार चुदाई के लिए तैयार कर रही है अब देखते हैं आगे आनंद क्या करता है इस परीक्षा में सफल होता है या ग्रेस लगाकर पास होता हैफगुनाई भौजी
और भाभी के शरारती हाथ भी ना, वो क्यों चुप बैठते।
जो उंगली मेरे पिछवाड़े के छेद में घुसने की कोशिश कर रही थी, वो अब मेरे बाल्स को सहला रही थी। छेड़ रही थी।
और दूसरे हाथ ने जबड़े को छोड़कर, कस-कसकर मेरे निपलों को पिंच करना, कस-कसकर खींचना शुरू कर दिया, और 8-10 मिनट के जबर्दस्त चुम्बन के बाद ही भाभी ने छोड़ा।
लेकिन बस थोड़ी देर के लिए।
मेरा मुँह उन्होंने फिर जबरन खुलवा दिया और अबकी सीधे उनकी चूची, पहले इंच भर बड़े, खड़े निप्पल और उसके बाद रसीली गदराई मस्त चूची। मेरा मुँह फिर बंद हो गया। मैं हल्के-हल्के चूसने लगा। कभी जीभ से फ्लिक करता, कभी हल्के से काट लेता, और कभी चूस लेता।
भाभी ने पहले तो एक हाथ से मेरा सिर पकड़ रखा था
लेकिन वो हाथ एक बार फिर मेरे टिट्स पे, अबकी तो वो पहले से भी ज्यादा जोर से वहां चिकोटी काट रही थी, उसे नोच रही थी। दूसरे हाथ की बदमाश उंगलियां मेरे लण्ड के बेस पे हल्के-हल्के सहला रही थी। वो एकदम तन्नाया हुआ, खड़ा था जोश में पागल, बस घुसने को बेताब। अब चन्दा भाभी के होंठ खुल गए थे।
तो फिर तो वो, एकदम जोश में,... क्या-क्या नहीं बोल रही थी-
“साले, चूस कस-कसकर। बहनचोद। तेरी सारी बहनों की फुद्दी मारूँ, गली के कुत्तों से चुदवाऊं, उन्हीं की चूची चूस-चूसकर ट्रेन हुआ है ना, गान्डू साले…”
चंदा भाभी की गालियां भी इत्ती मस्त थी। साथ में इतने जोर से मेरे मुँह में अपनी बड़ी-बड़ी चूचियां घुसेड़ रही थी जैसे कोई झिझकती शर्माती मना करती दुल्हन के मुँह में जबरदस्ती पहली बार लौड़ा पेले। मेरा मुँह फटा जा रहा था, लेकिन मैं जोर-जोर से चूस रहा था।
भाभी के हाथ ने अब कसकर मेरा लण्ड पकड़ लिया था और वो हल्के-हल्के मुठिया रही थी। लेकिन एक उंगली अभी भी मेरी गाण्ड की दरार पे रगड़ खा रही थी, और अब उनकी गालियां भी-
“साले कहता है की तेरी,... कल देखना तेरी वो हालत करूँगी ना। गाण्ड से भोंसड़ा बना दूंगी। जो लण्ड लेने में चार-चार बच्चों की माँ को पसीना छूटता होगा ना। वो भी तू हँस-हँसकर घोंटेगा। ऐसे चींटे काटेंगे ना तेरी गाण्ड में की खुद चियारता फिरेगा…”
पता नहीं भाभी की गालियों का असर था, या उनके हाथ का, या मेरे मुँह में घुल रहे पलंग-तोड़ पान का। बस मेरा मन कर रहा था की बस भाभी को अब पटक के चोद दूं। भाभी ने अपनी एक चूची निकालकर दूसरी मेरे मुँह में डाल दी।
मैंने भी कसकर उनका सिर पकड़कर अपनी ओर खींचा और कस-कसकर पहले तो निपल चूसता रहा फिर हल्के-हल्के दांत उनके सीने पे गड़ा दिए।
भाभी चीखीं- “उई क्या करता है। तेरे उस माल की चूची नहीं है। निशान पड़ जाएगा…”
जवाब में कसकर मैंने उसी जगह पे दांत और जोर से गड़ा दिए। दूसरी चूची अब कसकर मैं रगड़ मसल रहा था। दांत गड़ाने के साथ-साथ मैंने उनके निपल को भी काटकर पिंच कर दिया।
वो फिर चीखीं, लेकिन वो चीख कम थी सिसकी ज्यादा थी।
मैं रुका नहीं और कस-कसकर उनके निपल को पिंच करता रहा, चूसता रहा। भाभी अब छटपटा रही थी, सिसक रही थी पलंग पे अपने भारी-भारी चूतड़ रगड़ रही थी। उन्होंने मेरे मुँह से अपन चूची निकाल ली और पलंग पे निढाल पड़ गईं।
बिना मौका गवांए मैं भी उनके ऊपर चढ़ गया और उनको कसकर किस लेकर बोला-
“भाभी अबकी मेरा नंबर। अब तो मैं उत्ता अनाड़ी भी नहीं रहा…”
भाभी मुस्कुरायीं और मेरे कान में फुसफुसा के कहा-
“लाला, तुम अनाड़ी भले ना हो लेकिन सीधे बहुत हो। अरे अगर तुम ऐसे किसी लौंडिया से पूछोगे तो क्या वो हाँ कहेगी? अरे बस चढ़ जाना चाहिये उसके ऊपर और जब तक वो सोचे समझे अपना खूंटा ठूंस दो उसके अन्दर…”
और फिर कुछ रुक के बोली-
“चलो देवर हो फागुन है। तुम्हारा हक बनता है लेकिन। तुम अपनी ‘उसको’ समझ के करना। मैं शर्माऊँगी भी, मना भी करूँगी। अगर आज तुम ये बाजी जीत गए तो फिर कभी नहीं हारोगे और वो पहले झड़ने वाली बात याद है ना?”
मैं हँसकर बोला- “हाँ याद है, कैसे भूल सकता हूँ। अगर मैं पहले झड़ा तो आप मेरी गाण्ड मार लेंगी…”
मैं समझ गया था बात भौजी की मतलब रोल प्ले, वो गुड्डी बनेंगी औरमुझे एक ऐसी टीनेजर जिसके साथ पहली बार हो रहा हो, उसके साथ कैसे उसे मनाना है, पटाना है, ना ना करते रहने पर भी करना है और उसे गरम करना है, इतना की वो खुद टाँगे फैला दे। और अगर आज पास हो गया तो कल जब गुड्डी मेरे साथ चलेगी तो रात को, इत्ते दिन का सपना पूरा होगा।
भाभी- “वो तो मैं मारूंगी ही। सुसराल आये हो तो होली में ऐसे कैसे सूखे सूखे जा सकते हो? ये होली तो तुम्हें याद रहेगी…”
तब तक मैं उनके ऊपर चढ़ चुका था और मेरे होंठों ने उनके होंठ सील कर दिए थे। बात बंद काम शुरू, अबकी मेरी जीभ उनके मुँह के अन्दर थी।
वो अपना सिर इधर-उधर हिला रही थी जैसे मेरे चुम्बन से बचने की कोशिश कर रही हों।
मैं समझ गया वो अब उस किशोरी की तरह हैं, जिसे मुझे कल पहली बार यौवन सुख देना है। तो वो कुछ तो शर्मायेंगी, झिझकेंगी और मेरा काम होगा उसे पटाना, तैयार करना और वो लाख ना ना करे उसे कच्ची कली से फूल बना देना। मैंने कसकर उनके मुँह में जीभ ठेल रखी थी।
कुछ देर की ना-नुकुर के बाद उनकी जीभ ने भी रिस्पोंड करना शुरू कर दिया। अब हल्के से मेरी जीभ के साथ खिलवाड़ कर रही थी। उनके रसीले होंठ भी अब मेरे होंठों को धीरे-धीरे कभी चूम लेते। लेकिन मैं ऐसे छोड़ने वाला थोड़े ही था। मेरे हाथ जो अब तक उनके सिर को पकड़े थे अब उनके उभारों की ओर बढ़े और बजाय कसकर रगड़ने मसलने के एक हाथ से मैंने उनके जवानी के फूलों को हल्के-हल्के सहलाना शुरू किया।
जैसे कोई भौंरा कभी फूल पे बैठे तो कभी हट जाय, मेरी उंगलियां भी यही कर रही थी।
दूसरे हाथ की उंगलियां उनके जोबन के बेस पे पहले बहुत हल्के-हल्के सहलाती रही फिर जैसे कोई शिखर पे सम्हल-सम्हल के चढ़े वो उनके निपल तक बढ़ गईं। उनका पूरा शरीर उत्तेजना से गनगना रहा था।
भाभी- “नहीं नहीं। छोड़ो ना। फिर कभी आज नही…”
लेकिन मैंने गालों को छोड़ा नहीं। हल्के से उसी जगह पे फिर किस किया और उनके सपनों से लदी पलकों की ओर बढ़ चला।
भाभी बुदबुदा रही थी- “उन्न्। हो तो गया प्लीज…”
लेकिन मैं नहीं सुनने वाला था। मेरे होंठ अब उनके होंठों को छोड़कर रसीले गालों का मजा ले रहे थे। मैंने पहले तो हल्के से किस किया फिर धीरे से। बहुत धीरे से काट लिया।
भाभी- “नहीं नहीं। प्लीज कोई देख लेगा। निशान पड़ जाएगा। मेरी सहेलियां क्या कहेंगी? वैसे ही सब इत्ता चिढ़ाती हैं। छोड़ो ना। हो तो गया…”
उनकी आवाज में उस किशोरी की घबराहट, डर, लेकिन इच्छा भी थी।एकदम गुड्डी की तरह
लेकिन मैंने गालों को छोड़ा नहीं। हल्के से उसी जगह पे फिर किस किया और उनके सपनों से लदी पलकों की ओर बढ़ चला।
एक बार मैंने जैसे कोई सुबह की हवा किसी कली को हल्के से छेड़े। बस उसी तरह बड़ी-बड़ी आँखों को छू भर दिया। और फिर एक जोरदार चुम्बन से उन शर्माती लजाती पलकों को बंद कर दिया, जिससे मैं अब मन भर उसकी देह का रस लूट सकूँ।
मेरे होंठ उनके कानों की ओर पहुँच गए थे और मेरी जीभ का कोना उनके कान में सुरसुरी कर रहा था, जैसे ना जाने कब की प्रेम कहानियां सुना रहा हो। मेरे होंठों ने उनके इअर-लोबस पे एक हल्की सी किस्सी ली और वो सिहर सी गईं।
उनके दोनों गदराये रस भरे जोबन मेरे हाथों की गिरफ्त में थे। एक हाथ उसे बस हल्के-हल्के सहलाकर रस लूट रहा था और दूसरा बस धीरे-धीरे दबा रहा था। मैं भी बस उन्हें अपनी प्यारी सोन चिरैया ही मान रहा था, जिसका जोबन सुख मैं पहली बार खुलकर लूट रहा होऊं। एक हाथ की उंगलियां टहलते-टहलते धीरे-धीरे उनके यौवन शिखरों की ओर बढ़ रही थी और बस निपल के पास पहुँचकर ठिठक के रुक गईं।
मेरे होंठों ने उनके कानों को एक बार फिर से किस किया, हल्के से पूछा-
“उन उभारों का रस चूस सकता हूँ?”
भाभी बस कुछ बुदबुदा सी उठी और मैंने इसे इजाजत मान लिया।
एक निपल मेरे उंगलियों के बीच में था। मैं उसे हल्के-हल्के दबा रहा था, घुमा रहा था।
दोनों जोबन मारे जोश के पत्थर हो रहे थे। मेरे होंठों ने बस उनके उभार के निचले हिस्से पे एक छोटी सी किस्सी ली। पत्ते की तरह उनकी देह काँप गईं लेकिन मैं रुका नहीं। मेरे होंठ हल्के चुम्बन के पग धरते निपल के किनारे तक पहुँच गए। जीभ से मैंने बस निपल के बेस को छुआ। वो उत्तेजना से एकदम कड़ा हो गया था।
मैं जान रहा था की वो सोच रही थी की अब मैं उसे गप्प कर लूंगा। लेकिन मुझे भी तड़पाना आता था। जीभ की टिप से मैं बस उसे छू रहा था। छेड़ रहा था।
भाभी- ( एकदम गुड्डी की आवाज में गुड्डी की तरह ही ) “छोड़ो ना प्लीज। क्या कैसा हो रहा है। क्या करते हो। तुम बहुत बदमाश हो। नहीं। न न। बस वहां नहीं…”
वो सिसक रही थी। उनकी देह इधर-उधर हो रही थी बिलकुल किसी किशोरी की तरह।
मेरी भी आँखें अपने आप मुंद चली थी और मुझे भी लग रहा था की मेरे साथ चन्दा भाभी नहीं वो मेरे दिल की चोर, वो किशोरी सारंग नयनी है। मैंने जीभ से एक बार इसके उत्तेजित निपल को ऊपर से नीचे तक लिक किया और फिर उसके कानों के पास होंठ लगाकर हल्के से बोला-
“हे सुन। मेरा मन कर रहा है। तुम्हारे इन जवानी के फूलों का रस लेने का। मेरे होंठ बहुत प्यासे हैं। तुम्हारे ये रस कूप। तुम्हारे ये। …”
“ले तो रहे हो। और क्या?” हल्के से वो बुदबुदायीं।
मैंने बोला- “नहीं मेरा मन कर रहा है और कसकर इन उभारों को कस-कसकर…”
साथ-साथ मैं अब कसकर मेरे हाथ उसके सीने को दबा रहे थे। वो शुरू की झिझक जैसे खतम हो जाए। एक हाथ अब कसकर उसके निपल को फ्लिक कर रहा था।
भाभी चुप रही। लेकिन उसकी देह से लग रहा था की उसे भी मजा मिल रहा है।
मैं- “हे प्लीज किस कर लूं तुम्हारे इन रसीले उभारों पे बोलो ना?”
चन्दा भाभी मेरे कान में फुसफुसायीं-
“लाला अरे अब उसे चूची बोलना शुरू करो नहीं तो वो भी शर्माती ही रह जायेगी…”
मैं समझ गया। मैंने दोनों हाथों से अब कस-कसकर उसके जोबन को मसलना शुरू कर दिया और फिर उसके कान में बोला- “सुनो ना। एक बार तुम्हारे रसीले जोबन को किस कर लूं। बस एक बार इन। इन चूचियों का रसपान करा दो ना…”
अबकी उसने जोर से जवाब दिया- “क्या बोलते हो। कैसे बोलते हो प्लीज। ऐसे नहीं। मुझे शर्म आती है…”
मुझे मेरा सिगनल मिल गया था। अब मेरे होंठ सीधे उसके निपल पे थे। पहले मैंने एक हल्के से किस किया फिर उसे मुँह में भरकर हल्के-हल्के चूसने लगा। वो सिसक रही थी उसके चूतड़ पलंग पे रगड़ रहे थे।
दूसरा निपल मेरी उंगलियों के बीच था।
मैंने हाथ को नीचे उसकी जाँघों की ओर किया। वो दोनों जांघें कसकर सिकोड़े हुए थी। हाथ से वो मेरी जांघ पे रखे हाथ को हटाने की भी कोशिश कर रही थी। लेकिन मेरी उंगलियां भी कम नहीं थी। घुटने से ऊपर एकदम जाँघों के ऊपर तक। हल्के-हल्के बार-बार।
भाभी ने दूसरे हाथ से मुझे नीचे छुआ तो मैं इशारा समझ गया। मेरे तन्नाया लिंग भी बार-बार उनकी जाँघों से रगड़ रहा था। मैंने उनके दायें हाथ में उसे पकड़ा दिया। उन्होंने हाथ हटा लिया जैसे कोई अंगारा छू लिया हो। लेकिन मैंने मजबूती से फिर अपने हाथ से उनके हाथ को पकड़कर रखा और कसकर मुट्ठी बंधवा दी।
अबकी भाभी ने नहीं छोड़ा।
थोड़े देर में ही उनकी उंगलियां उसे हल्के-हल्के दबाने लगी।
मेरा दूसरा हाथ उनकी जांघों को प्यार से सहला रहा था। एक बार वो ऊपर आया तो सीधे मैंने उनकी योनि गुफा के पास हल्के से दबा दिया। जांघें जो कसकर सिकुड़ी हुई थी अब हल्के से खुली। मैं तो इसी मौके के इंतजार में था। मैंने झट से अपना हाथ अन्दर घुसा दिया।
और अबकी जो जांघें सिकुड़ी तो मेरी हथेली सीधे योनि के ऊपर।
वो अब अपने दोनों हाथों से मेरा हाथ वहां से हटाने की कोशिश में थी लेकिन ये कहाँ होने वाला था।
“हे छोड़ो ना। वहां से हाथ हटाओ प्लीज। बात मानो। वहां नहीं…” वो बोल रही थी।
“कहाँ से हाथ हटाऊं। साफ-साफ बोलो ना…” मैं छेड़ रहा था साथ में अब योनि के ऊपर का हाथ हल्के-हल्के उसे दबाने लगा था।
जाँघों की पकड़ अब हल्की हो रही थी। और मेरे हाथ का दबाव मजबूत। हाथ अब नीचे दबाने के साथ हल्के-हल्के सहलाने भी लगा था, और वो हालाँकि हल्की गीली हो रही थी। उसका असर पूरे देह पे दिख रहा था। देह हल्के-हल्के काँप रही थी। आँखें बंद थी। रह-रहकर वो सिसकियां भर रही थी। मेरी भी आँखें मुंदी हुई थी। मुझे बस ये लग रहा था की ये मेरी और ‘उसकी’ मिलन की पहली रात है। मेरे होंठ अब कस-कसकर उसके निपल को चूस रहे थे। मैं जैसे किसी बच्चे को मिठाई मिल जाए बस उस तरह से कभी किस करता, कभी चाट लेता, कभी चूस लेता।
देह का फागुन
“कहाँ से हाथ हटाऊं। साफ-साफ बोलो ना…”
मैं छेड़ रहा था साथ में अब योनि के ऊपर का हाथ हल्के-हल्के उसे दबाने लगा था।
चंदा भाभी एकदम गुड्डी का रोल प्ले कर रही थीं, एक शर्माती झिझकती किशोरी जो यौवन दान को तैयार तो बैठी हो लेकिन लज्जा अभी भी उसका हाथ पकड़ के खींच रही हो। कभी आँखे बंद कर ले रही हो तो कभी आधी खुली नीम निगाहों से देख रही
जाँघों की पकड़ अब हल्की हो रही थी। और मेरे हाथ का दबाव मजबूत। हाथ अब नीचे दबाने के साथ हल्के-हल्के सहलाने भी लगा था, और वो हालाँकि हल्की गीली हो रही थी। उसका असर पूरे देह पे दिख रहा था। देह हल्के-हल्के काँप रही थी। आँखें बंद थी। रह-रहकर वो सिसकियां भर रही थी।
मेरी भी आँखें मुंदी हुई थी। मुझे बस ये लग रहा था की ये मेरी और ‘उसकी’ मिलन की पहली रात है। मेरे होंठ अब कस-कसकर उसके निपल को चूस रहे थे। मैं जैसे किसी बच्चे को मिठाई मिल जाए बस उस तरह से कभी किस करता, कभी चाट लेता, कभी चूस लेता।
एक हाथ निपल को फ्लिक कर रहा था, पुल कर रहा था, और दूसरा उसकी योनि को अब खुलकर रगड़ रहा था, और इस तिहरे हमले का जो असर होना था वही हुआ। जांघों की पकड़ अब एकदम ढीली हो गई थी। देह ने पूरी तरह सरेंडर कर दिया था और मौके का फायदा उठाकर मैंने एक घुटना उसकी टांगों के बीच घुसेड़ दिया।
उसे शायद इस बात का अहसास हो गया था इसलिए फिर से अपनी टांगों को सिकोड़ने की कोशिश की।
लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। सेंध लग चुकी थी। मेरे हाथों ने जोर लगाकर अब एक टांग को और थोड़ा फैला दिया और अब मेरे दोनों पैर उसके पैरों के बीच घुस चुके थे। मैंने धीरे-धीरे पैर फैलाए और अब दोनों जांघें अपने आप खुल गईं।
मेरा एक हाथ वापस प्रेम द्वार पे पहुँच गया था।
लेकिन अब सीधे उसकी काम सुरंग के बाहर, दोनों पुत्तियों पे मेरा अंगूठा और तर्जनी थी। मैंने पहले उसे हल्के से दबाया और फिर धीरे-धीरे रगड़ने लगा। वो अब अच्छी तरह गीली हो रही थी। मैंने एक उंगली अब लिटाकर दोनों पुत्तियों के बीच डाल दी, और साथ-साथ रगड़ने लगा। मेरा अंगूठा और तरजनी बाहर से और बीच की उंगली अन्दर रगड़ घिस कर रही थी।
सिसकियों की आवाजें अब तेज हो गई थी।
नितम्ब भी अपने आप ऊपर-नीचे होने लगे थे। मेरे होंठ अब बारी-बारी से दोनों निपलों को चूसते थे, कभी फ्लिक कर लेते थे। साथ में जुबान भी पूरी तरह उत्तेजित खड़े इंच भर लम्बे निपलों को निचे से ऊपर तक तेजी से चाट रही थी। जितनी तेजी से नीचे योनि के अन्दर और बाहर मेरी उंगलियां रगड़ती, उसी तेजी से जीभ निपल चाटती।
भाभी के होंठ सूख रहे थे। जोबन पत्थर हो गए थे। योनि की पुत्तियां काँप रही थी और वो अच्छी तरह गीली हो गईं।
मेरे होंठों ने जोबन को छोड़कर नीचे का रास्ता पकड़ा।
पहले उनके केले के पत्ते ऐसे चिकने पेट पे चुम्बनों की बारिश की और फिर जीभ की टिप उनकी गहरी नाभि में गोल-गोल चक्कर लगाने लगी।
साथ ही मेरी बीच वाली उंगली अब पहली बार उनकी योनि में घुसी।
मैंने बस हल्के से दबाया, बिना घुसेड़ने की कोशिश किये।
चन्दा भाभी ने इत्ती कसकर सिकोड़ रखा था की किसी किशोरी कच्ची कली की ही अनछुई प्रेम गुफा लग रही थी। थोड़ी देर में टिप बल्की टिप का भी आधा घुस पाया। वह इत्ती गीली हो रही थी की अब मुझे रोकना उनके बस में ही नहीं था। पहले मैंने हल्के-हल्के अन्दर-बाहर किया और फिर गोल-गोल घुमाने लगा।
भाभी ने मुझे समझा दिया था की मजे की सारी जगह यहीं होती है।
उंगली के साथ अंगूठे ने अब ऊपर कुछ ढूँढ़ना शुरू किया और जैसे ही उसने क्लिट को छुआ, तो भाभी को लगा की कोई करेंट लग गया हो और उन्होंने झटके से अपने भारी भारी 38” इंच साइज वाले चूतड़ ऊपर उछाले, और ओह्ह… ओह्ह्ह… उनके मुँह से आवाज निकली।
साथ ही मेरी उंगली अब एक पोर से ज्यादा अन्दर घुस गई।
होंठ अब नाभि से बाहर निकलकर उनकी काली घुंघराली केसर क्यारी तक आ पहुँचे थे। वो सोच रही थी की शायद अब मैं ‘नीचे’ चुम्बन लूंगा। लेकिन मैं भी। उन्होंने मुझे बहुत सताया था।
उन्होंने उसके चारों और किस किया और नीचे उतर आये, जांघों के एकदम ऊपरी भाग पे, कभी मैं किस करता, कभी चाटता।
साथ में मेरी मझली उंगली अब कभी तेजी से अन्दर होती, कभी बाहर, कभी गोल-गोल रगड़ती। और अंगूठा भी अब वो क्लिट को प्रेस नहीं कर रहा था बल्की कभी फ्लिक करता कभी पुल करता।
मस्ती के मारे भाभी की हालत खराब थी।
एक पल के लिए मैंने उन्हें छोड़ा और झट से एक मोटी बड़ी तकिया उनके चूतड़ों के नीचे लगाई और कसकर दोनों हाथों से उनकी जांघें पूरी तरह फैला दी, तो अब मेरे प्यासे होंठ सीधे उनकी योनि पे थे।
पहले तो मेरे होंठ उनके निचले होंठों से मिले। हल्की सी किस।
फिर एक जोरदार किस और थोड़ी ही देर में मेरे होंठ कस-कसकर चूम रहे थे, चाट रहे थे।
योनि और पिछवाड़े वाले छेद के बीच की जगह से शुरू करके एकदम ऊपर तक कभी छोटे-छोटे और कभी कसकर चुम्बन। फिर थोड़ी देर में मेरी जुबान भी चालू हो गई। उसे पहली बार चूत चाटने का स्वाद मिला था। क्या मस्त स्वाद था। अन्दर से खारे कसैले अमृत का स्वाद। लालची जीभ रस चाटते-चाटते अमृत कूप में घुस गई।
भाभी- “उह्ह्ह… आह्ह्ह… ओह्ह… ओह्ह्ह… नहीं यीईई…” की सिसकियों, आवाजों से अब कमरा गूँज रहा था।
लेकिन मेरी जीभ किसी लिंग से कम नहीं थी। वो कभी अन्दर घुसती, कभी बाहर आती, कभी गोल-गोल घूमती, साथ-साथ मेरे होंठ कस-कसकर उनकी चूत को चूस रहे थे जैसे कोई रसीले आम की फांक को चूसे और रस से उसका चेहरा तरबतर हो जाए, लेकिन वो बेपरवाह मजे लेता रहे, चूसता रहे।
तभी मुझे भाभी की वार्निंग याद आई- “अगर तुम पहले झड़े तो ‘वो’ भी नहीं मिलेगी…”
ये मौका अच्छा था।
मेरे अंगूठे और तरजनी ने एक साथ उनकी क्लिट को धर दबोचा। मस्ती के मारे वो कड़ी हो रही थी। उसका मटर के दाने ऐसा मुँह खुल गया था। कभी मैं उसे गोल-गोल घुमाता, कभी दबा देता, जुबान होंठों और उंगली के इस तिहरे हमले से। भाभी की आँखें मुंदी हुई थी। वो बार-बार चूतड़ उचका रही थी।
चार-पाँच मिनट में लगातार और बार-बार लगता की भाभी अब झड़ी तब झड़ी।
लेकिन तभी मुझे कुछ याद आया। मेरा तन्नाया जोश में पागल मूसल अन्दर घुसने के लिए बेताब था। वो बार-बार भाभी की जाँघों से टकरा रहा था। भाभी तो आज ‘उसकी’ तरह हैं और मुझे, तो बिना चिकनाहटकर एक कच्ची कली के प्रेम कपाट कैसे खुलते ?
बगल में सरसों के तेल की शीशी रखी थी जिससे अभी थोड़ी देर पहले भाभी ने इस्तेमाल किया था।
मैंने हथेली में तेल लेकर अच्छी तरह पहले सुपाड़े पे फिर पूरे लण्ड पे मला। वो चिकना होकर खड़ा चमक रहा था। भाभी सोच रही थी की अब मैं ‘उसे’ लगाऊँगा। लेकीन मैं भी।
मैंने एक बार फिर कसकर चूत चूसना शुरू किया।
मेरे दोनों होठों के बीच उनके निचले होंठ थे। होंठ चूस रहे थे और जुबान बार-बार अन्दर-बाहर हो रही थी। साथ में मेरी उंगलियां बिना रुके उनके क्लिट को।
थोड़ी देर में भाभी के नितम्ब जोरों से ऊपर-नीचे होने लगे, वो फिर से झड़ने के कगार पे पहुँच गई थी लेकिन मैं रुक गया। मैंने अपने उत्थित लिंग को उनकी चूत के मुंहाने पे, क्लिट पे बार-बार रगड़ा।
भाभी खुद अपनी टांगें फैला रही थी। जैसे कह रही हों- “घुसाते क्यों नहीं। अब मत तड़पाओ…”
लेकिन थोड़ी देर में फिर मैंने उसे हटा लिया, और अबकी जो मेरे होंठों ने चूतरस का पान करना शुरू किया तो। बिना रुके। लेकिन थोड़ी ही देर में मेरे होंठ पहली बार उनके क्लिट पे थे। पहले तो मैंने सिर्फ जीभ की टिप वहां पे लगाई फिर होंठों के बीच लेकर हल्के-हल्के चूसना शुरू किया।
भाभी जैसे पागल हो गई थी-
ओह्ह्ह… अंहं्ह। अह्ह्ह… अह्ह्ह… चूतड़ उठाती मुझे अपनी ओर खींचती। अबकी वो कगार पे आई तो मैं रुका नहीं। मैंने हल्के से उनकी क्लिट पे काट लिया फिर तो। मैंने उनकी दोनों टांगें अपने कंधे पे रख ली। जांघें पूरी तरह फैली हुई।
चंदा भाभी ने गुड्डी का रोल प्ले करके आनंद बाबू के साथ जो मजा किया उसका चित्रण बहुत ही शानदार और लाज़वाब था दोनो के बीच चुदाई का चित्रण बहुत ही कामुक और उत्तेजना से भरपूर था चंदा भाभी की दमदार चुदाई के बाद चंदा ने भी आनंद बाबू को पक्का खिलाड़ी मान लिया है वह भी आनंद से हार गईदेवर बना खिलाड़ी
मैंने हथेली में तेल लेकर अच्छी तरह पहले सुपाड़े पे फिर पूरे लण्ड पे मला। वो चिकना होकर खड़ा चमक रहा था। भाभी सोच रही थी की अब मैं ‘उसे’ लगाऊँगा।
लेकीन मैं भी।
मैंने एक बार फिर कसकर चूत चूसना शुरू किया। मेरे दोनों होठों के बीच उनके निचले होंठ थे। होंठ चूस रहे थे और जुबान बार-बार अन्दर-बाहर हो रही थी।
साथ में मेरी उंगलियां बिना रुके उनके क्लिट को। थोड़ी देर में भाभी के नितम्ब जोरों से ऊपर-नीचे होने लगे, वो फिर से झड़ने के कगार पे पहुँच गई थी लेकिन मैं रुक गया। मैंने अपने उत्थित लिंग को उनकी चूत के मुंहाने पे, क्लिट पे बार-बार रगड़ा।
भाभी खुद अपनी टांगें फैला रही थी। जैसे कह रही हों- “घुसाते क्यों नहीं। अब मत तड़पाओ…”
लेकिन थोड़ी देर में फिर मैंने उसे हटा लिया, और अबकी जो मेरे होंठों ने चूतरस का पान करना शुरू किया तो। बिना रुके। लेकिन थोड़ी ही देर में मेरे होंठ पहली बार उनके क्लिट पे थे।
पहले तो मैंने सिर्फ जीभ की टिप वहां पे लगाई फिर होंठों के बीच लेकर हल्के-हल्के चूसना शुरू किया।
भाभी जैसे पागल हो गई थी- ओह्ह्ह… अंहं्ह। अह्ह्ह… अह्ह्ह… चूतड़ उठाती मुझे अपनी ओर खींचती। अबकी वो कगार पे आई तो मैं रुका नहीं।
मैंने हल्के से उनकी क्लिट पे काट लिया फिर तो। मैंने उनकी दोनों टांगें अपने कंधे पे रख ली। जांघें पूरी तरह फैली हुई। दोनों अंगूठों से मैंने उनकी योनि के छेद को फैलाकर अपने लिंग को सटाया और फिर कमर पकड़कर एक जोरदार धक्का पूरी ताकत से।
उनकी चूत अभी भी एक कच्ची कली की तरह कसी थी। उन्होंने ऐसे सिकोड़ रखा था।
लेकिन अब वो इत्ती गीली थी, और जैसे ही मेरा लिंग अन्दर घुसा, भाभी ने झड़ना शुरू कर दिया। लेकिन बिना रुके कमर पकड़कर मैंने दो-तीन धक्के और लगाए। आधा से ज्यादा अब मेरा लण्ड उनकी चूत में था। एक पल के लिए मैं रुक गया।
उनका चेहरा एकदम फ्ल्श्ड लग रहा था। हल्की सी थकान। लेकिन एक अजीब खुशी। उनके निपल तन्नाये खड़े थे।
मैं एक पल को ठहरा। मैंने हल्के-हल्के चुम्बन उनके चेहरे पे। फिर होंठों पे। और जब तक मेरे होंठ उनके उरोजों तक पहुँचें। भाभी ने मुझे कसकर अपनी बाहों में भींच लिया था। उनकी लम्बी टांगें लता बनकर मेरी पीठ पे मुझे उनके अन्दर खींच रही थी।
लेकिन बस मैं हल्के-हल्के निपल पे किस करता रहा।
उन्होंने अपनी आँखें खोल दी और मुझे देखकर मुश्कुरायी।
मतलब मैं इम्तहान में पास हो गया था। रोल प्ले ख़तम.
अब वह वापस चंदा भाभी के रूप में थी और मैं उनके देवर के रूप में।
मैं भी मुश्कुराया और उसी के साथ उनके उरोजों को कसकर पकड़कर मैंने पूरी ताकत से एक धक्का मारा, उईई, उनके होंठों से सिसकारी निकल गई। मैं कस-कसकर जोबन मसल रहा था, साथ में धक्के मार रहा था। दो-तीन धक्कों में मेरा पूरा लण्ड अन्दर था। दो पल के लिए मैं रुका।
फिर मैंने सूत-सूत करके उसे बाहर खींचा। सिर्फ सुपाड़ा जब अन्दर रह गया तो मैं रुक गया।
मैं भाभी के चेहरे की ओर देख रहा था। वो इत्ती खुश लग रही थी कि बस। और फिर बाँध टूट गया। उन्होंने नीचे से कस-कसकर धक्के लगाने शुरू कर दिए। उनकी बाहों का पाश और तगड़ा हो गया। भाभी अब अपने रूप में आ गई थी, और मेरी उस किशोरी सारंग नयनी के रूप से बाहर आ गई थी।
जैसा उन्होंने सिखाया था उनकी पूरी देह। सब कुछ।
हाथ, नाखून, उंगलियां, उरोज, जुबान और सबसे बढ़कर उनकी मस्त गालियां।
उनके लम्बे नाखून मेरी पीठ में चुभ रहे थे। वो कस-कसकर अपनी बड़ी-बड़ी गदराई चूचियां मेरी छाती में रगड़ रही थी। उनके बड़े-बड़े नितम्ब खूब उचक-उचक के मेरे हर धक्के का जवाब दे रहे थे।
भाभी- “बतलाती हूँ साले अब। ये कोई तुम्हारे मायके वाले माल की तरह कुँवारी कली नहीं है। हचक-हचक के चोदो ना। देवरजी। देखती हूँ कितनी ताकत है तुममें। बहनचोद। बहना के भंड़ुये…”
जवाब में मैं भी,
मैंने उनके पैर मोड़कर दुहरे कर दिए और लण्ड आलमोस्ट बाहर निकाल लिया। फिर जांघें एकदम सटाकर अपने पैरों के बीच दबाकर जब हचक के एक बार में अपना मोटा 8” इंच का लण्ड पेला तो भाभी की चीख निकल गई। वो एकदम रगड़ते घिसटते हुए अन्दर घुसा। लेकिन मैंने अपने पैरों का जोर कम नहीं किया। इनकी जांघें मेरे पैरों के बीच सिमटी हुई थी।
भाभी- “साले बहनचोद तेरी सारी बहनों की बुर में गदहे का लण्ड। साले क्या तेरे मायके वालियों की तरह भोंसड़ा है क्या जो ऐसे पेल रहे हो?”
और उन्होंने भी कसकर एक बार एक हाथ के नाखून मेरी पीठ में और दूसरा मेरी छाती पे सीधे मेरे टिट्स पे। उनकी बुर ने कस-कसकर मेरे लण्ड को अन्दर निचोड़ना शुरू कर दिया।
मुझे लगा की मैं अब गया तब गया। मैंने कहीं पढ़ा था की अगर ध्यान कहीं बटा दो तो झड़ना कुछ देर के लिए टल जाता है। और मैंने मन ही मन गिनती गिननी शुरू दी।
लेकिन भाभी भी नवल नागर थी-
“हे देवरजी ये फाउल है। कल की छोकरियों के साथ ये चलेगा मेरे साथ नहीं…” और उन्होंने कसकर मेरा गाल काट लिया।
मैं बोला “चलो भाभी आप भी ये फागुन याद करोगी…” और मैंने जोर-जोर से लण्ड पूरा बाहर निकालकर धक्के मारने शुरू कर दिए। साथ में तिहरा हमला भी। मेरा एक हाथ उनके निपल के साथ खेल रहा था और दूसरा उनके क्लिट को कस-कसकर रगड़, मसल रहा था, साथ में मेरे होंठ उनकी चूचियों को, निपल को कस-कसकर चूस रहे थे।
भाभी सिसक रही थी, काँप रही थीं, उनकी देह तूफ़ान में पत्ते की तरह थी, प्रेम गली बार बार सिकुड़ रही थी। वो बोलीं
“हाँ ओह्ह… आह्ह… मान गए अरे देवरजी। ओह्ह्ह… बहुत दिन बाद। क्या करते हो। हाँ और जोर से करो। नहीं,... निकाल लो,.... लगता है। ओह्ह्ह…”
कुछ देर बाद मैंने भाभी के दोनों हाथों को अपने एक हाथ से पकड़कर उनके सिर के पास दबा दिया। जिस तरह से वो अपने नाखूनों से मेरे टिट्स को खरोंच रही थी, वो तो रुका और अब जब मेरा लण्ड अन्दर घुसा तो पूरी देह का जोर देकर मैंने बिना आगे-पीछे किये उसे वहीं दबाना शुरू किया।
कभी मैं गोल-गोल घुमा देता, जिससे भाभी की क्लिट मेरे लण्ड के बेस से खूब कस-कसकर रगड़ खा रही थी।
होंठ कभी उनके गालों, कभी होंठों और कभी रसीली चूचियों का रस लूट रहे थे।
“ओह्ह्ह… आह्ह्ह…”
थोड़ी देर में भाभी फिर कगार पे पहुँच गईं। वो बार-बार नीचे से अपने चूतड़ उठाती, लेकिन मैं लण्ड पूरी तरह घुसाए हुए दबाये रहता। लेकिन अब मुझसे भी नहीं रहा जा रहा था। एक बार फिर से मैंने उनकी गोरी लम्बी टांगों को अपने कंधे पे रखा और हचक-हचक के।
भाभी भी कभी गोल-गोल चूतड़ घुमाती कभी जोर-जोर से मेरे धक्के का जवाब देती तो कभी गाली से-
“साले हरामजादे। कहाँ से सीखा है। रंडियों के घर से हो क्या? ओह्ह… आह्ह…”
जवाब में मैं भी कच-कचा के कभी उनके होंठ, कभी निपल काट लेता।
चन्दा भाभी ने झड़ना शुरू किया। लग रहा था कोई तूफान आ गया। हम दोनों के बदन एक दूसरे में गुथे हुए थे। सिर्फ सिसकियां सुनाई दे रही थी। साथ में मैं भी। भाभी की चूत भी,... जैसे कोई ग्वाला गाय का थन दुहता है।
बस उसी तरह कभी सिकुड़ती, कभी दबोचती। मेरे लण्ड को जैसे दुह रह थी और मैं गिर रहा था, पता नहीं कब तक
हम दोनों थके थे। एक दूसरे को कस के बाँहों में भींचे, बाहर चांदनी, पलाश और रात झर रही थी,
आपकी कहानियों में वातावरण.. आस पास का माहौल ...And I am sure like you were able to enjoy the picture of tooth powder, you will surely enjoy all the finer details. And being not a writer but a very adept and popular writer from the very first story, you can appreciate the travails and tribulations a writer passes through. This story will be replete with, folk songs, poetry, folklore and many things more.
I turned towards erotica writing and started enjoying it for one particular reason. I realized that a good number of stories (even in this forum) follow the template of English stories, and sometimes only names are changed, and they are not even good transcraetions.
What I was missing was the feel and flavour of Indian Ethos and Social milieu. And it was particularly jarring when we have such a rich source of erotic poetry both in Sanskrit and Dravdian languages. And it led to that a good number of my stories have Phagun and Saawan two most erotic seasons.
Thanks again for supporting, me I will let the story speak.
I tried to visualize the route and connecting journey and trains availability and it took some time to comprehend the details presented.Wow Madam..such minute detailing is what makes this story a true masterpiece. No doubt about it. Even I did not think so much in depth about the trains..thats why you are so special.. and a dedicated fan following that your story commands..Bravo!!
komaalrani
होली में गोरी और गारी का बहुत महत्व है...फागुन के दिन चार भाग ९
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रीत की रीत, रीत ही जाने
1,11,995
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“नहीं मैं खिलाऊँगी इन्हें। सुबह से इत्ती मेहनत से दहीबड़े बनाये हैं…” रीत बोली और दहीबड़े की प्लेट के पास जाकर खड़ी हो गई।
“नहींईई…” मैं जोर से चिल्ल्लाया- “सुबह गुंजा और इसने मेहनत करके अभी तक मेरे मुँह में…”
गुड्डी बड़ी जोर से हँसी। उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी।
“अरे मुझे भी तो बता?” रीत बोली।
हँसते, रुकते किसी तरह गुड्डी ने उसे सुबह की ब्रेड रोल की, किस तरह उसने और गुंजा ने मिलकर मेरी ऐसी की तैसी की? सब बताया। अब के रीत हँसने की बारी थी।
“बनारस में बहुत सावधान रहने की जरूरत है…” मैं बोला।
“एकदम बनारसी ठग मशहूर होते हैं…” रीत बोली।
“पर यहां तो ठगनियां हैं। वो भी तीन-तीन। कैसे कोई बचे?” मैं बोला।
“हे बचना चाहते हो क्या?” आँख नचाकर वो जालिम अदा से बोली।
“ना…” मैंने कबूल किया।
“बचकर रहना कहीं दिल विल। कोई…” वो जानते हुए भी गुड्डी की ओर ,शोख निगाहों से देख कर बोली।
मैं जाकर गुड्डी के पास खड़ा हो गया था। मैंने हाथ उसके कन्धे पे रखकर कहा-
“अब बस यही गनीमत है। अब उसका डर नहीं है। ना कोई ठग सकता है ना कोई चुरा सकता है…।”
मैंने भी बड़े अंदाज से गुड्डी की आँखों में झांकते कहा।
उस सारंग नयनी ने जैसे एक पल के लिए अपनी बड़ी कजरारी आँखें झुका के गुनाह कबूल कर लिया।
लेकिन रीत ने फिर पूछा- “क्यों क्या हुआ दिल का?”
“अरे वो पहले ही चोरी हो गया…” और अब मेरा हाथ खुलकर गुड्डी के उभारों पे था।
रीत कुछ-कुछ बात समझ रही थी लेकिन उसने छेड़ा- “चोर को सजा क्या मिलेगी?”
“अभी मुकदमा चल रहा है लेकिन आजीवन कारावास पक्का…” मैं मुश्कुराकर गुड्डी को देखते बोला-
“बस डर यही की मिर्चे वाली ब्रेड रोल…”
मेरी बात काटकर रीत बोली-
“अरे यार। ससुराल में, ये तो तुम्हारी सीधी सालियां थी। ये गनीमत मनाओ की मैं इन दोनों के साथ नहीं थी। लेकिन दहीबड़े के साथ डरने की कोई बात नहीं है। लो मैं खाकर दिखाती हूँ…”
और उसने एक छोटी सी बाईट लेकर अपनी लम्बी गोरी उंगलियों से मेरे होंठों के पास लगाया।
मेरे मुँह की क्या बिसात मना करता। मैं खा गया।
“नदीदे…” गुड्डी बोली।
“अरे यार। ऐसी सेक्सी भाभी कम साली । फागुन में कुछ दे, जहर भी दे ना तो कबूल…” मैं मुश्कुराकर बोला।
“अरे ऐसे देवर पे तो मैं बारी जाऊँ…” कहकर रीत ने अपने हाथ में लगा दहीबड़े का दही मेरे गाल पे लगा दिया और थोड़ा और प्लेट से लेकर और।
दही बड़े में मिर्च नहीं थी। लेकिन वो सबसे खतरनाक था। दूबे भाभी के दहीबड़े मशहूर थे वहाँ… उनमें टेबल पे जितनी चीजें थी, उनमें से किसी से भी ज्यादा भांग पड़ी थी। गुड्डी को ये बात मालूम थी लेकिन उस दुष्ट ने मुझे बताया नहीं।
गुड्डी बस खड़ी खी-खी कर रही थी।
मैंने रीत को गुलाब जामुन खिलाने की कोशिश की तो उसने मुँह बनाया। लेकिन मैंने समझाया- “दिल्ली से लाया हूँ…” तब वो मानी।
एक बार में पूरा ही ले लिया लेकिन साथ में मेरी उंगलियां भी काट ली और जब तक मैं सम्हलता। मेरा हाथ मोड़कर शीरा मेरा हाथ का मेरे ही गाल पे लगा दिया।
“चाट के साफ करना पड़ेगा…” मैंने उसे चैलेन्ज दिया।
“एकदम। हर जगह चाट लूँगी, घबड़ाओ मत…” हँसकर वो बोली। रीत की निगाहें टेबल पे कुछ पीने के लिए ढूँढ़ रही थी।
“ठंडाई…” मैंने आफर की।
“ना बाबा ना। चन्दा भाभी की बनायी, एक मिनट में आउट हो जाऊँगी…” फिर उसकी निगाह बियर के ग्लास पे पड़ी- “बियर। पीते हो क्या?”
मैंने मुश्कुराकर कबूल किया- “कभी कभी। अगर तुम्हारा जैसे कोई साथ देने वाला मिल जाय…”
“थोड़ी देर में। लेकिन सबको पिलाना तब मजा आएगा। खास तौर से इसे…” मुड़कर उसने गुड्डी की ओर देखा।
मैं- “एकदम। लेकिन अभी…”
गुड्डी रीत जो बैग साथ लायी थी उसे खोलकर देख रही थी और मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी।
“हे मैं चलूँ। ये बैग अन्दर देकर आती हूँ। कुछ काम वाम भी होगा। बस पांच मिनट में…” गुड्डी बैग लेकर अन्दर जाते हुए बोली।+++
" आराम से आना, दस मिनट क्या पन्दरह मिनट बीस मिनट, तबतक मैं इस अपने देवर कम छोटे जीजा कम साले का क्लास लेती हूँ, "
" एकदम दी, खूब रगड़के, बहुत बोल रहे थे न बनारस की ठगिनियाँ, अब पता चलेगा, " गुड्डी खिलखिलाते हुए जाते जाते बोली, लेकिन मेरी बात सुन के ठहर गयी,
" हे ये देवर, जीजा तक तो ठीक लेकिन साला किधर से " मैंने रीत से पूछा।
मैं देख ज्यादा रहा था, बोल कम रहा था, बड़ी बड़ी कजरारी आँखे, जिसमे शरारत नाच रही थी, धनुष ऐसी भौंहे, सुतवां नाक, भरे हुए होंठ, और निगाहें ठुड्डी की गड्ढे में जाके डूब जा रही थीं,
" स्साले, स्साले को स्साला नहीं बोलूंगी तो क्या " मुस्कराते हुए रीत मेरे पास आयी और कस के पास आयी और मेरी नाक पकड़ के हिलाके चिढ़ाते हुए बोलने लगी। गुड्डी मुझे देख के मुस्करा रही थी।
" स्साले समझ में नहीं आया न, अच्छे अच्छे बनारस में आके बनारसी बालाओं के आगे समझ खो देते हैं तो तुम क्या चीज हो। ये बताओ की तुम अपनी उस ममेरी बहन एलवल वाली छमक छल्लो को यहाँ बनारस में ला के बैठाने वाले हो न, एकदम ठीक सोच रहे हो, अरे जो चीज वो फ्री में बांटेंगी, उसके पास कोई असेट है तो उसे मॉनिटाइज कर सकती है तो करना चाहिए न, काम वही, अंदर बाहर, रगड़ घिस तो कुछ पैसा हाथ में आ जाए तो क्या बुराई और सबसे अच्छी बात अभी तक उस पे कोई जी एस टी भी नहीं, तो ये बताओ दिन रात सब बनारस वाले उस के ऊपर चढ़ेंगे उतरेंगे, उसकी तलैया में डुबकी मारेंगे, तो तुम क्या लगोगे उन सबके साले न, तो स्साले हम सब भी तो बनारस वाले हैं हम सबके भी तो स्साले, तुम साले ही लगोगे न, स्साले "
गुड्डी मुझे देख के मुस्कराती रही जैसे कह रही हो देखा, अब समझ में आया किस के पाले पड़े हो, मैंने तुमसे झूठ ही नहीं कहा था की मेरी रीत दी का दिमाग चाचा चौधरी से भी तेज चलता है, और बैग लेके चंदा भाभी के पास किचेन में।
मैं समझ गया था की बनारसी बालाओं से बहस करना बेकार है, और ये रीत उससे तो बहस के बारे में सोचना ही बेकार है।
क्या हीं डिडक्टिव रीजनिंग लगाया है...रीत की क्लास
मेरी नाक अभी भी रीत के हाथ में थी। नाक पकडे पकडे वो बोली
" स्साले क्या बोल रहे थे तीन ठगिनियाँ, "
लेकिन मेरी निगाह रीत के खूब टाइट कमीज को फाड़ते दोनों उभारों पर थी, वाकई बड़े थे, और मेरे मुँह से निकल गया दो ठग, असल में मुझे एक दोहा याद आ गया था, दूसरी लाइन, मेरे होंठ से निकल गयी
एक पंथ दुई ठगन ते, कैसे कै बिच जाय॥
( एक रास्ता, जोबन के बीच की गहराई और दो दो ठग यानी दोनों जोबन, तो कैसे कोई बच के निकल सकता है )
मैं सोच भी नहीं सकता था, रीत के उरोज अब मेरे सीने को बेधते, जैसे दो बरछियाँ चुभ गयी हों, और रगड़ते उसने उस दोहे को पूरा कर दिया,
उठि जोबन में तुव कुचन, मों मन मार्यो धाय।
एक पंथ दुई ठगन ते, कैसे कै बिच जाय॥
और मुस्कराकर आँखों में आँखे डालकर पूछा, बचना चाहते हो, इन दो ठगों से, अपने दोनों ठगों, मेरे मतलब दोनों कबूतरों की ओर इशारा कर के पूछा
और चंदा भाभी के नाइट स्कूल और गुड्डी की इतनी झिड़कियां सुन के थोड़ा तो सुधर ही गया था, बोला, " एकदम नहीं "
मेरे गाल मींड़ते हुए वो शोख बोली,
" वो चुहिया थोड़ी बेवकूफ है, तेरा असर, वरना तेरे ऐसे चिकने लौंडे को तो पटक के रेप कर देना चाहिए , "
फिर कुछ सोच के समझाते हड़काते बोली,
" हे मेरी छोटी बहन है , पक्की सहेली है बचपन की, मैं चाहे चुहिया कहूं चाहे, तू कुछ मत कहना "
मैंने समझदारी में ना का इशारा किया
" और ये तीन ठगिनिया, " रीत की बात पूरी भी नहीं हुई थी,
" आप, मेरा मतलब तुम, गुड्डी और गुंजा। " मुस्कराते हुए मैंने कबूल किया।
" ठगे वो जाते हैं जो बने ही होते हैं ठगे जाने के लिए और खुद ठगे जाना चाहते हैं, और जो बुद्धू होते हैं उन्हें बनाना नहीं पड़ता वो होते ही वैसे हैं " मुस्कराकर रीत बोली और फिर एकदम से टोन बदलकर, स्कूल मास्टरनी की तरह से थोड़ी दूर खड़ी हो के कड़क आवाज में पूछा
" ठोस तरल और गैस सुना है , तरल क्या होता है ?
और मैंने भी क्लास के उन बच्चो की तरह जो सबसे पहले हाथ खड़ा करते हैं, तन कर बोला ( बस यस मैडम नहीं बोला ),
"तरल पदार्थ की मात्रा और आयतन नियत होता है लेकिन वह जिस पात्र में रखे जाते हैं उसका आकार ग्रहण कर लेते हैं "
" पानी सामान्यतया, रूम टेम्प्रेचर पर क्या होता है " रीत मैडम ने अगला सवाल पूछ।
" तरल " मैंने तुरंत जवाब दिया।
"नाश्ते की टेबल पर क्या कभी किसी तरल पदार्थ को प्लेट, कैसरोल में देखा है "
अब मैं समझ गया बात किधर मुड़ रही थी, लेकिन जो बात थी मैंने बोल दिया, नही।
" प्याले में क्या था ? " अगला सवाल था।
" प्याला था ही नहीं, चाय तो बाद में चंदा भाभी गरम गरम ले आयीं, " मैंने स्थिति साफ़ की।
" टेबल पर क्या था, चंदा भाभी के आने के पहले " रीत सवाल पर सवाल दागे जा रही थी।
मुझे अपनी याददश्त और ऑब्जर्वेशन पावर पर भरोसा था मैंने सब गिना दिया, प्लेट, कैसलरोल, ग्लास, जग, केतली
" ग्लास में पानी था ? " रीत ने जानकर भी पूछा, मैंने किसी तरह झुंझलाहट रोकी, और हाल बयान किया
" होता तो मैं पी न लेता, मिर्च से मुंह जला जा रहा और गुँजा ने ये स्टाइल से जग उठा के दिया ( अभी भी मुझे उसके टॉप से झांकती हवा मिठाई याद आ रही थी )
और सिर्फ दो बूँद पानी "
पानी प्लेट में था नहीं, कैसरोल में होता तो ब्रैडरोल गीले होते, ग्लास और जग में नहीं तो सिर्फ एक ही चीज बचती है। रीत ने एकदम किसी जासूसी किताब में बंद कमरे में लाश मिलने का रहस्य जैसे खोलते हुए बोला। और फिर पूछा,
चंदा भाभी को कितना समय लगा पानी देने में ?
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" एकदम तुरंत, उन्होंने किसी से बात भी नहीं की, बस केतली उठा के ग्लास में पानी " मैंने कबूल किया ।
अभी आनंद बाबू की ट्रेनिंग अधूरी है....लेडी शर्लोक होल्म्स
" ग्लास में पानी था ? " रीत ने जानकर भी पूछा, मैंने किसी तरह झुंझलाहट रोकी, और हाल बयान किया
" होता तो मैं पी न लेता, मिर्च से मुंह जला जा रहा और गुँजा ने ये स्टाइल से जग उठा के दिया ( अभी भी मुझे गुँजा के टॉप से झांकती हवा मिठाई याद आ रही थी) और सिर्फ दो बूँद पानी "
" पानी प्लेट में था नहीं, कैसरोल में होता तो ब्रैडरोल गीले होते, ग्लास और जग में नहीं तो सिर्फ एक ही चीज बचती है। "
रीत ने एकदम किसी जासूसी किताब में बंद कमरे में लाश मिलने का रहस्य जैसे खोलते हुए बोला। और फिर पूछा, चंदा भाभी को कितना समय लगा पानी देने में?
" एकदम तुरंत, उन्होंने किसी से बात भी नहीं की, बस केतली उठा के ग्लास में पानी " मैंने कबूल किया ।
" तो गलती किस की है तेरी या मेरी दो बहनो की, ऑब्जर्वेशन , ओब्जेर्वेंट होना चाहिए पानी जग और ग्लास में नहीं है, प्लेट और कैसरोल में भी नहीं तो केतली, ऑब्जर्वेशन और एनालिसिस, एलिमेंट्री माय डियर वाट्सन "
वो एकदम लेडी शर्लाक होम्स की तरह बोली और मैं ये सेंटेंस बोलता की उसने एक नया मोर्चा खोल दिया।
" कभी जादू का शो देखा है, मजमे वाले की बात नहीं कर रही , जिसमे टिकट लगता है, स्टेज शो " रीत ने पूछ लिया,
" एकदम कितनी बार " और जबतक मैं गोगिया पाशा, पी सी सरकार जूनियर से लेकर आठ दस नाम गिनवाता रीत ने एक टेढ़ा सवाल कर दिया,
" जादू देखते थे या जादूगर के साथ की लौंडियों को, जो मटकती चमकती रहती हैं ? "
मैं क्या बोलता, पहली बार रीत से मिला था और ये बात समझ गया था की रीत के आगे बोलती बंद हो जाती है।
" बस उसी का फायदा उठा के जादूगर हाथ की सफाई दिखा देता है और ये बताओ जब तुझे मिर्ची लग रही थी, पानी पानी चिल्ला रहे थे तो किसे देख रहे थे ? "
रीत का सवाल और मैं समझ गया की इससे झूठ बोलने का कोई फायदा नहीं, वो बोलने के पहले पकड़ लेगी ।
" वो, वो गुंजा को, उसी ने ब्रेड रोल खिलाया था, " मैंने कबूल भी किया और बहाना भी बनाया और पकड़ा भी गया।
" गुंजा को या गुंजा का, "
कह के वो मुस्करायी, फिर बोली,
" अरे यार तेरा तो जीजा साली का रिश्ता है, और तुम बुद्धू टाइप जीजा हो इसलिए देख देख के ललचाते हो, देखता तो सारा मोहल्ला है, सड़क और गली के लड़के हैं,"
और फिर रीत का टोन बदल गया वो अंग्रेजी में आ गयी।
when you have eliminated the impossible, whatever remains, however improbable, must be the truth.
और तुरंत मेरे दिमाग में शर्लाक होम्स की कहानी गूंजी, साइन आफ फोर,
लेकिन रीत फिर तुरंत उस बनारसी बालाओं के रूप में वापस आ गयी जो इस धरा पर अवतरित ही होती हैं, मेरी रगड़ाई करने के लिए,
" गुड्डी तुझे सही ही बुद्धू कहती है, तो टेबल पर अगर प्लेट, कैसरोल, ग्लास और जग में पानी नहीं था तो बची केतली न, तो भले ही अजीब लगे, लेकिन देखने में क्या,... और चंदा भाभी ने देखो एक पल में, "
रीत की मुस्कराहट देख के मैंने हार भी मान ली और बात भी बदल दी,
" कई बार बुद्धू होने का फायदा भी हो जाता है, "
" एकदम तेरा तो हो गया न तीन ठगिनिया मिल गयीं, लेकिन फिर रोते क्यों हो ठगिनियों ने लूट लिया, होली है, बनारस है ससुराल है तो लुटवाने तो आये ही हो, क्या बचाने की कोशिश कर रहे हो, हाँ एक बात और ये बोल, दहीबड़ा खाने में तेरी फट क्यों रही थी, ?"
" वो असल में, सुबह वाली बात, मिर्च, " हकलाते हुए मैंने अपना डर बताया ।
" भोले बुद्धू , मिर्च से भी खतरनाक भी कोई चीज भी तो हो सकती थी उसमे, सोचो, सोचो , " आँख नचाते उस खंजननयनी ने छेड़ा,
और सोच के मेरी रूह काँप गयी, गुझिया ठंडाई से इसलिए मैं दूर था तो कहीं, फिर मैंने ये सोच के तसल्ली दी की डबल डोज वाला गुलबाजामुन मैंने रीत को खिला दिया है, भांग की दो गोलियां बल्कि गोले, बनारस का पेसल गुलाबजामुन।
लेकिन अबकी रीत ने ट्रैक बदल दिया, पूछा उसने
" शाम को मुग़ल सराय किस ट्रेन से पहुंचे, गुड्डी बोल रही थी बहुत उठापटक कर के बड़ौदा से, चलो जानेमन से मिलना है तो थोड़ी उछल कूद तो करनी ही पड़ती है, "
और मैंने अपनी पूरी वीरगाथा ट्रेनगाथा सुना दी, मुग़लसराय तो कालका से, लेकिन बड़ौदा में कोई ट्रेन बनारस के लिए सीधी थी नहीं , तो अगस्त क्रान्ति से मथुरा, फिर दस मिनट बाद ताज एक्सप्रेस मिल गयी, उस से आगरा, और फिर वहां से किसी तरह बस से टूंडला और वहां बस कालका मिल ही गयी, तो कल शाम को आ गया वरना आज सुबह ही आ पाता । "
वो बड़ी देर तक मुस्कराती रही, फिर बोली,
"देवर कम जीजू कम स्साले, फिर तुम दिल्ली कब पहुँच गए नत्था के यहाँ से गुलाब जामुन लेने,"
और मेरे गुब्बारे की हवा निकालने के बाद जोड़ा
: उस गोदौलिया वाले नत्था के गुलाबजामुन का स्वाद मैं पहचानती हूँ, अच्छे थे, लेकिन मेरे बनाये दहीबड़े में भांग की मात्रा उससे दूनी थी, चलो इस बात पर एक और दहीबड़ा हो जाए, मुंह खोलो, अरे यार इतनी देर में तो तेरी बहना अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों खोल देती, खोल स्साले"
और मैंने मुंह खोल दिया, सुन कौन रहा था, समझने का सवाल ही नहीं था, मैं तो सिर्फ रीत को देख रहा था, उसकी देह की सुंदरता के साथ उसकी सोचने की ताकत को,
दहीबड़ा उसने मेरे मुंह में डाल दिया, दही मेरे गाल पे पोंछ दिया, और बाकी उँगलियों में लगी दही चाटते हुए बोली,
" आब्जर्वेशन आनंद बाबू, आब्जर्व, देखते तो सब है लेकिन आब्जर्व बहुत कम लोग करते हैं "
और मैंने तुरंत आब्जर्व किया जो बहुत चालाक बन कर गुलाब जामुन मैंने रीत को खिलाया था उस की चौगुनी भांग रीत के दो दहीबड़ों से मैं उदरस्थ कर चुका हूँ और बस दस मिनट के अंदर उसका असर,...और रीत की ओर अचरज भरी निगाहों से देखता बोला
" आप, मेरा मतलब तुम तो एकदम लेडी शरलॉक होम्स हो "
" उन्हह अपनी दही लगी उंगलिया जो उसने थोड़ी चाट के साफ़ की थीं लेकिन अभी भी लगी थी, मुझे चाटने के लिए ऑफर कर दी और वो मेरे मुंह में, और वो बोली,
" मगज अस्त्र मैं तो फेलु दा की फैन हूँ। "
" सच्ची, " मैं चीखा।
ओह्ह्ह.. फेलू दा पर क्विज़...फेलू दा *
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" आप, मेरा मतलब तुम तो एकदम लेडी शरलॉक होम्स हो "
" उन्हह अपनी दही लगी उंगलिया जो उसने थोड़ी चाट के साफ़ की थीं लेकिन अभी भी लगी थी, मुझे चाटने के लिए ऑफर कर दी और वो मेरे मुंह में, और वो बोली,
" मगज अस्त्र मैं तो फेलु दा की फैन हूँ। "
" सच्ची, " मैं चीखा।
" तुम भी, " वो चीखी।
और हम दोनों ने हाथ नहीं मिलाया, सीधे गले और कस के फिर अलग होने के पहले, पहला सवाल उसी ने पूछा,
" नाम "
"प्रोदेश चंद्र मित्तर, मैंने फेलू दा का असली नाम बता दिया
अगला सवाल मेरा था , पता
रीत ने मुस्कराते हुए बिना एक मिनट खोये झट्ट से जवाब दे दिया, २१ रजनी सेन रोड और एक थोड़ा टेढ़ा सवाल भी दाग दिया,
पहली बार कहाँ, किस कहानी में, ये सवाल सचमुच में टेढ़ा था मुझे सोचना पड़ा और उस शोख ने १ २ ३ गिनना शुरू कर दिया, और मैंने भी मगज अस्त्र का इस्तेमाल किया और उसके ५ पहुँचने के पहले जवाब दे दिया,
" सन्देश, १९६५ और कहानी थी , फेलुदा गोयेंदागिरि या डेंजर इन दार्जिलिंग,"
और बात फिल्मों की ओर मोड़ के मैंने बोला, पहली फिल्म फेलुदा की,
सवाल ख़तम हुआ भी नहीं था की उस शोख का जवाब आ गया, सोनार केला
और अगली यहीं बनारस की जय बाबा फेलुनाथ,
मैंने वो जगह भी देखी हैं शूटिंग हुयी थी, चलो ये बता दो तो मान जाउंगी जय बाबा फेलुनाथ में उत्पल दत्त फेलु दा के एक दोस्त पे चाक़ू फेंक के डराता है , उसका नाम"
अब एक एक सीन किसे याद रहता है, मैंने सोचा और सोचा, और याद आ गया, और मैंने झट्ट से जवाब दे दिया,
"जटायु लालमोहन घोषाल और अपनी ओर से एक बात और जोड़ दी उनके बाबा ने लेकिन उनका नाम रखा था, मेरी बात पूरी भी नहीं हुयी की रीत ने बात पूरी कर दी.
" सर्बोंय गंगोपाध्याय लेकिन वो नाम इस्तेमाल नहीं करते और किताब तो जटायु के नाम से ही बिकती है "
मैं चकित रह गया, ये एक क्विज में फाइनल राउंड का क्वेशन था, और ये लड़की, सत्यजीत राय की ट्रिविया मेरी क्विजिंग का फेवरिट एरिया था और मैंने उनकी सारी कहानियां पढ़ रखी थीं, फिल्मे देख रखी थीं,
यू पी एस सी के इंटरव्यू में हॉबी में सबसे ऊपर मैंने सत्यजीत रे मूवीज एंड स्टोरीज लिखी थी और चेयरमैन भी एक एक बंगाली भद्रलोक, दो सवाल तो सोनार केला पे ही, ८० % नंबर इंटरव्यू में मिले इसलिए फर्स्ट अटेम्प्ट में ही,
लेकिन मुझे नहीं मालूम था की फेलुदा की कोई शिष्या यहाँ सिगरा, औरंगाबाद बनारस में टकरा जायेगी,
" कल अब नहीं है, आनेवाला कल भी नहीं है, बस आज है, बल्कि अभी है, उसे ही मुट्ठी में बाँध लो, उसी का रस लो, यह पल बस, "भूतनाथ की मंगल होरी,
रीत का ध्यान कहीं और मुड़ गया था- “हे म्यूजिक का इंतजाम है कुछ क्या?”
“है तो नहीं। पर चंदा भाभी के कमरे में मैंने स्पीकर और प्लेयर देखा था। लगा सकते हैं। तुम्हें अच्छा लगता है?” मैंने पूछा।
“बहुत…” वो मुश्कुराकर बोली- “चल उसी से कुछ कर लेंगे…”
“और डांस?” मैंने कुछ और बात आगे बढ़ाई।
“एकदम…” उसका चेहरा खिल गया- “और खास तौर से जब तुम्हारे जैसा साथ में हो। वैसे अपने कालेज में मैं डांसिंग क्वीन थी…मजा आजयेगा, बहुत दिन से डांस नहीं किया किसी के साथ, चल यार गुड्डी तो तुझे जिंदगी भर नचाएगी, आज मैं नचाती हूँ , शुरुआत बड़ी बहन के साथ कर लो, जरा मैं भी तो ठोक बजा के देख लू , मेरी बहन ने कैसा माल पसंद किया है। "
तब तक मैंने उसका ध्यान टेबल पे रखे कोल्ड ड्रिंक्स की ओर खींचा- “हे स्प्राईट चलेगा?”
रीत ने गौर से बोतल की सील को देखा, वो बंद थी। मुश्कुराकर रीत बोली- “चलेगा…”मैंने एक ग्लास में बर्फ के दो क्यूब डाले और स्प्राईट ढालना शुरू कर दिया।
उसे कोल्ड-ड्रिंक देते हुए मैंने कहा- “स्प्राईट बुझाए प्यास। बाकी सब बकवास…”
“एकदम…” चिल्ड ग्लास उसने अपने गोरे गालों पे सहलाते हुए मेरी ओर ओर देखा,
और एक तगड़ा सिप लेकर मुझे ऑफर किया, और जबतक मैं कुछ सोचता बोलता अपने हाथों में पकडे पकडे ग्लास मेरे होंठों में
रीत को कौन मना कर सकता है, मैंने भी एक बड़ी सी सिप ले ली।
लेकिन तब तक उसे कुछ याद आया, वो बोली, यार वो चंदा भाभी के कमरे का म्यूजिक सिस्टम मेरे हाथ लगे बिना ठीक नहीं होता, उसका प्लग, कनेक्टर, सब इधर उधर, बस दो मिनट में मैं चेक कर लेती हूँ, फिर सच में मजा आ जाएगा आज होली बिफोर होली का
वो चंदा भाभी के कमरे में घुसी लेकिन दरवाजे के पास रुक के वो कमल नयनी बोली,
" कल अब नहीं है, आनेवाला कल भी नहीं है, बस आज है, बल्कि अभी है, उसे ही मुट्ठी में बाँध लो, उसी का रस लो, यह पल बस, "
और वह अंदर चली गयी और मैं सोचने लगा बल्कि कुछ देर तक तो सोचने की भी हालत में नहीं था, ये लड़की क्या बोल के चली गयी।
मैं सन्न रह गया। बात एकदम सही थी और कितनी आसानी से मुस्कराते हुए ये बोल गयी,
बीता हुआ कल, बल्कि बीता हुआ पल कहाँ बचता है, कुछ आडी तिरछी लकीरों में कुछ भूली बिसरी यादों में जिसे समय पुचारा लेकर हरदम मिटाता रहता है जिससे नयी इबारत लिखी जा सके, और उस बीते हुए पल के भी हर भोक्ता के स्मृतियों के तहखाने में वो अलग अलग तरीके से,
अभी गुड्डी रीत का बैग लेकर चंदा भाभी के पास गयी, बस वो पल गुजर गया, उसका होना, उसका अहसास,
और आनेवाला कल, जिसके बारे में अक्सर मैं, हम सब, वो,
पल भर के लिए मेरा ध्यान नीचे सड़क पर होने वाले होली की हुड़दंग की ओर चला गया, बहुत तेज शोर था, लग रहा था कोई जोगीड़ा गाने वालों की टोली,
सदा आनंद रहे यही द्वारे, कबीरा सारा रा रा ,
वो टोली बगल की किसी गली में मुड़ गयी थी,
और अचानक कबीर की याद आ गयी,
साधो, राजा मरिहें, परजा मरिहें, मरिहें बैद और रोगी
चंदा मरिहें, सूरज मरिहें, मरिहें धरती और आकास
चौदह भुवन के चौधरी मरिहें, इनहु की का आस।
और यही बात तो बोल के वो लड़की चली गयी, कल नहीं है, जो है वो आज है, अभी है। वह पल जो हमारे साथ है उस को जीना, यही जीवन है.
हम अतीत का बोझ लाद कर वर्तमान की कमर तोड़ देते हैं, कभी उसके अपराधबोध से ग्रस्त रहते हैं, कभी उन्ही पलों में जीते रहते हैं और जो पल हमारे साथ है उसे भूल जाते हैं।
जहां छत पर गुड्डी का और चंदा भाभी का घर था वो छत बहुत बड़ी थी और खुली थी, ऊँची मुंडेर से आस पास से दिखती भी नहीं थी, लेकिन अगल बगल के घरों की गलियों की आवाजें तो मुंडेर डाक के आ ही जाती थी। पड़ोस के किसी घर में किसी ने होली के गाने लगा रखे थे और अब छुन्नूलाल मिश्र की होरी आ रही थी,
खेलें मसाने में होरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी,
भूत पसाच बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी।
लखि सुंदर फागुनी छटा के मन से रंग गुलाल हटा के,
चिता भस्म भर झोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी।
यही बात एकदम यही बात, मृत्यु के बीच जीवन, यही तो बोल के गयी वो, कल नहीं रहा, कल का पता नहीं, लेकिन जो पल पास में है उसका रस लो, यही आनंद है आनंद बाबू। उसे जीना, उसका सुख लेना, उस पल का क्षण का अतीत को, भविष्य को भूल कर,
और यही बनारस का रस है। बनारसी मस्ती है, जीवन के हर पल को जीना, उसके रस के हर बिंदु को निचोड़ लेना,
" हे म्यूजिक सिस्टम मिल भी गया, ठीक भी हो गया, आ जाओ अंदर और स्प्राइट भी ले आना " अंदर से रीत की आवाज आयी
बगल से होरी की आखिरी लाइने बज रही थीं,
भूतनाथ की मंगल होरी, देख सिहायें ब्रज की गोरी।
धन धन नाथ अघोरी, दिगंबर मसाने में खेले होरी।
अंदर से बनारस की गोरी आवाज दे रही थी, आओ न मैं म्यूजिक लगा रही हैं। मैं कौन था जो होरी में गोरी को मना करता, मैं रीत के पास.
अब रीत और आनंद बाबू ऐसे दोनों फैन इस कहानी में हैं... वो भी मुख्य भूमिका में...फेलू दा *
आप से में शायद बहुतों का मालूम होगा की मैं फिल्मो की विशेष रूप से सत्यजीत रे की जबरदस्त फैन हूँ, और इसी फोरम में सत्यजीत रे की जन्म शताब्दी पर उन्हें समर्पित मैंने एक थ्रेड भी शुरू किया था। यह पोस्ट फेलू दा आगे भी कहीं कहीं उस का असर इस कहानी में देखने को मिलेगा /
Tribute to Satyajit Ray- Birth Centenary
Serious - Tribute to Satyajit Ray- Birth Centenary
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