यह कहना आपकी स्वभावगत विनम्रता है, मैंने आपकी कई लघु कथाएं पढ़ीं, पर उनमे रिप्लाई बंद हो गयीं थी, जैसे चरित्रहीन, और उसमें जिस तरह से आपने लोकगीत का प्रयोग किया
‘बेरिया की बेरिया मै बरिज्यो बाबा जेठ जनि रचिहो बियाह … हठी से घोडा पियासन मरिहै गोरा बदन कुम्हलाय
कहो तो मोरी बेटी छत्रछाहों कहो तो नेतवा ओहार … कहो तो मोरी बेटी सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय’
और उसके बाद का दृश्य और फिर संवाद, कितनों की आँख नहीं भर आयी होगी, कितनों के यादों के पन्ने न फड़फड़ाये होंगे, लेकिन उससे भी अद्भुत था उस गाने का दुबारा इस्तेमाल, और एकदम अलग परिस्थिति में, वही शब्द वही गाना लेकिन कितनी बेचारगी का बोध कराता है, फिर लोकल उसकी ये लाइने,
"बस, आँखें ही एक दूसरे से बातें कर रही थीं। जितना अधिक दोनों की आँखें बतिया रही थीं, उतना ही अधिक दोनों एक दूसरे की तरफ़ खिंचे चले आ रहे थे!"
और फिर,
"यह वार्तालाप, आँखों के वार्तालाप के मुक़ाबले नीरस लग रहा था।"
जो न कहा जा सके, पात्र चुप हों पर , उसे कह देना, यही तो कहानी का काम है। अगर हमारे पास कुछ कहने को नहीं तो कहानी लिखने का मतलब नहीं।
हाँ इस कहानी को पढ़ के बस मैं एक बात सोचती रही की ये बात, वेस्टर्न लाइन की है या सेन्ट्रल लाइन की और दोनों उतरे किस जगह पर, आफिस कहाँ था, बी के सी, परेल या साऊथ बॉम्बे, लेकिन बॉम्बे की लोकल मुझे हमेशा फ्रिट्ज लैंग की मशहूर पिक्चर मेट्रोपोलिस की याद दिलाती हैं जहां दो अलग अलग दुनिया है।
और फिर आज रहब यही आंगन, इन में से किसी कहानी में टिप्पणी की जगह बची नहीं थी वरना मैं वहीँ लिखती।
बस यही उम्मीद करुँगी की आप आते रहें और इस कथा यात्रा के सहयात्री बने, यह एक लम्बी यात्रा है। रस्ते में कुछ बतियाते, सुनते सुनाते रस्ता कट जाएगा।
फिर से आभार