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फागुन के दिन चार - भाग १७
रसिया को नार बनाउंगी
२,०८,२४९
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मैं नंग धड़ंग छत पर खड़ा था, और मेरे चारो और वो पांचो, दो टीनेजर्स, गुड्डी और रीत और तीन भाभियाँ, संध्या भाभी, चंदा भाभी और दूबे भाभी सिर्फ देह से चिपकी रंग से लथपथ, आधी फटी खुली ब्रा और,
मेरा मुस्टंडा फड़फड़ा रहा था, खुली हवा में साँस लेकर और चारो ओर का नजारा देखकर,
लेकिन वो पांचो ऐसे बात कर रही थीं जैसे मैं हूँ ही नहीं वहां, हाँ कभी कभी चोरी चोरी चुपके चुपके एक निगाह उसे मोटे मुस्टंडे पर डाल ले रही थी, सबसे ज्यादा ललचायी संध्या भाभी लग रही थीं। रीत और गुड्डी से अलग,... वो स्वाद ले चुकी थीं तो उन्हें मजा मालूम था, लग रहा था अभी लार टपक जायेगी।
चंदा भाभी 'उसे' देख के खुश हो रही थीं, एक तो उनका शिष्य, दूसरे उनकी जो बात मैंने मानी थी। मुस्टंडे का मुंड ( सुपाड़ा ) खूब मोटा, पहाड़ी आलू ऐसा, लाल और एकदम खुला, ... कल पहली सीख उन्होंने यही दी थी। अपने हाथ से 'उसका' घूंघट खोला और बोलीं अब इसको खुला ही रखना और कारण भी समझाया, ' कायदे से रगड़ रगड़ कर घिस घिस कर ये धुस्स हो जाएगा, फिर जल्दी नहीं झड़ेगा।
दूबे भाभी कभी उस तन्नाए बौराये मुस्टंडे को देखतीं तो कभी गुड्डी को, खूब खुश, मुस्कराती,.... मानो कह रही हों ,
" बबुनी, हम लोग तो कभी कभी इसका मजा लेंगे, होली दिवाली , लेकिन तुझे तो ये मूसल रोज घोंटना पडेगा। "और मैं दूबे भाभी की ये निगाहें देख कर खुश हो रहा था। जब गुड्डी का मेरा मामला फाइनल स्टेज में पहुंचेगा, और अगर गुड्डी की मम्मी इसे दूबे भाभी की अदालत में ले गयीं तो फैसला मेरे ही हक में होगा।
लेकिन सबसे जालिम थी और कौन, मेरी साली , रीत।
मैं गुहार लगा रहा था कपडे कपडे, ऐसे बाजार कैसे जाऊँगा, गुड्डी के साथ और उसने हुकुम सुना दिया , " क्यों नहीं जा सकते , बहुत नई दुल्हन की तरह लजाते हो तो एक हाथ से आगे एक हाथ से पीछे ढक लेना और नहीं तो मेरी छोटी बहन की, गुड्डी की चिरौरी करना, हाथ पैर जोड़ना तो चड्ढी , रुमाल कुछ दिलवा देगी, ढक लेना।
लेकिन बचाने आयीं मुझे दूबे भाभी।
“नहीं ये सब नहीं हो सकता…” अब दूबे भाभी मैदान में आ गईं।
मैं जानता था की उनकी बात कोई नहीं टाल सकता।
“अरे छिनारों। आज मैंने इसे किसलिए छोड़ दिया। इसलिए ना की जब ये रंग पंचमी में आएगा तो हम सब इसकी नथ उतारेंगे। लेकिन इससे ज्यादा जरूरी बात। अगर ये लौंडेबाजों के चक्कर में पड़ गया ना तो इसकी गाण्ड का भोंसड़ा बन जाएगा। तो फिर ये क्या अपनी बहन को ले आएगा? तुम सब सालियां अपने भाइयों का ही नहीं सारे बनारस के लड़कों का घाटा करवाने पे तुली हो। कुछ तो इसके कपड़े का इंतजाम करना होगा…”
अब फैसला हो गया था। लेकिन सजा सुनाई जानी बाकी थी। होगा क्या मेरा?
जैसे मोहल्ले की भी क्रिकेट टीमें। जैसे वर्ड कप के फाइनल में टीमें मैच के पहले सिर झुका के न जाने क्या करती हैं, उसी तरह सिर मिलावन कराती हैं, बस उसी अंदाज में सारी लड़कियां महिलाये सिर झुका के। और फिर फैसला आया। रीत अधिकारिक प्रवक्ता थी।
रीत बोली- “देखिये मैं क्या चाहती थी ये तो मैंने आपको बता ही दिया था। लेकिन दूबे भाभी और सब लोगों ने ये तय किया है की मैं भी उसमें शामिल हूँ की आपको कपड़े। लेकिन लड़कों के कपड़े तो हमारे पास हैं नहीं। इसलिए लड़कियों के कपड़े। इसमें शर्माने की कोई बात नहीं है। कित्ती पिक्चरों में हीरो लड़कियों के कपड़े पहनते हैं तो। हाँ अगर आपको ना पसंद हो तो फिर तो बिना कपड़े के…”
मेरे पास कोई रास्ता बचा भी था क्या चुपचाप बात मानने के ? और अब तक मैं समझ चुका था ससुराल में, वो भी अगर बनारस की हो और साली सलहज के झुण्ड में फंस गए तो चुपचाप बात मान लेनी चाहिए, एक तो और कोई चारा भी नहीं दूसरे लांग टर्म बेनिफिट,...
गुड्डी तब तक एक बैग ले आई।
ये वही बैग था जिसे रीत सुबह अपने घर से ले आई थी और गुड्डी लेकर चंदा भाभी के पास चली गई थी। बाद में उसे ही ढूँढ़ने वो चंदा भाभी को लेकर अन्दर ले गई थी। उसमें से ढेर सारी चीजें निकाली गई श्रृंगार की।
अब मैं समझ गया की ये सब नाटक था मुझे तंग करने का। ये सब प्लानिंग पहले से थी।
मैं भी उसे उसी तरह एन्जाय करने लगा। पेटीकोट दूबे भाभी का पहनाया गया। ब्रा और चोली संध्या भाभी की।
और यह काम संध्या भाभी कर रही थीं, पेटीकोट पहनाते हुए पहले तो उन्होंने मुस्टंडे को एक प्यार से हलकी सी चपत भी लगा दी और फिर सबकी नजर बचा के मसल भी दिया कस के और जैसे उससे बोल रही हों, बोलीं,
" हे, तुझी से बोल रही हूँ, उधार नहीं रखती मैं, आज ही, जाने के पहले और यहाँ तक पूरा लूंगी, देखती हूँ की खाली बड़ा और कड़ा ही है की रगड़ता भी है " और फिर मुस्टंडे के बेस पे कस के मुट्ठी से दबा के साफ़ कर दिया, कहाँ तक लेना है, और उस मुस्टंडे ने सर हिला के हामी भी भर दी।
संध्या भाभी सुंदर तो थी ही और जवान भी, रीत से मुश्किल से साल भर बड़ी, बी ए में गयी ही थीं की शादी हो गयी, और शादी के बाद तो जवानी और भड़क जाती है, दहकता रूप, सुलगता जोबन, लेकिन अभी इस मुस्टंडे को छूने पकड़ने और देखने के बाद जो कामाग्नि दहक रही थी, जोबन जिस तरह पथराया था, निप्स टनटना रहे थे, होंठ बार बार सूख रहे थे, वो और साफ़ साफ़ कहूं तो लेने लायक लग रही थीं,और मेरा भी मन यही कर रहा था, कब मौका मिले और उन्हें पटक के,
पेटीकोट के बावजूद तम्बू में बम्बू तना हुआ था।
संध्या भाभी रीत और गुड्डी से कम नहीं छेड़ने, चिढ़ाने में आखिर सबसे बड़ी बहन लगेंगी और फिर ब्याहता, ब्रा पहनाते हुए गुड्डी से बोलीं,
" हे इसके माल की, एलवल वाली बहिनिया की भी इस साइज की है या,... "
" कहाँ भाभी, कहाँ आपका ये माल और कहाँ, उसकी तो मुझसे भी १९ है , ३२ बी " गुड्डी मुंह बिचका के बोली।
लेकिन गुड्डी से तुलना करना ही गलत था, अपनी बाकी क्लास वालियों से उसका २० नहीं २४-२५ कम से कम होगा।
" हे फोटो खींच आज तेरे वाले ने पहली बार ब्रा पहनी है " संध्या भाभी ने गुड्डी को उकसाया, और गुड्डी ने मेरे ही मोबाइल से स्नैप स्नैप।
और फिर पहले संध्या भाभी फिर रीत फिर गुड्डी ने भी मेरे पीछे बैठे के ब्रा को दबाते मसलते , फोटो , और गुड्डी चालाकी में किसी से कम थोड़े ही थी, मैं बाद में डिलीट कर देता तो उसने अपने, रीत के संध्या भाभी के और बाद में पता चला की गुंजा और अपनी मम्मी और छुटकी को भी ,
फिर चोली भी संध्या भाभी ने, खूब टाइट, लाल रंग की,
श्रृंगार का जिम्मा रीत और गुड्डी ने लिया।
मेरे दोनों हाथों में कुहनी तक भर-भर लाल हरी चूड़ियां, रीत पहना रही थी।
रीत झुक के मेरे कान में बोली- “हे बुरा तो नहीं माना?”
“अरे यार बुर वाली की बात का क्या बुरा मानना वो भी होली में…” मैं बोला और हम दोनों हँस पड़े।
वो गाने लगी और बाकी सब साथ दे रहे थे-
रसिया को नार बनाऊँगी रसिया को,
सिर पे उढ़ाय सुरंग रंग चुनरी, गले में माला पहनाऊँगी, रसिया को।
रसिया को नार बनाऊँगी रसिया को,
सिर पर धरे सुरंग रंग चुनरी, अरे सुरंग रंग चुनरी।
जोबन चोली पहनाऊँगी,
रसिया को नार बनाऊँगी, रसिया को।
गाना चल रहा था और मेरे सामने सुबह से लेकर अभी तक का सीन पिक्चर की तरह सामने घूम गया, और मैं समझ गया की पर्दे पे भले ही अभी रीत हो लेकिन इसके पीछे गुड्डी का और थोड़ा बहुत रोल चंदा भाभी का भी था।और अब संध्या भाभी भी उस में शामिल हो गयी थीं।
कल शाम को जिस तरह चंदा भाभी ने मेरे कपड़े उतरवा के गुड्डी को दिए और इस दुष्ट ने उसे रीत तक पहुँचा दिए और फिर भाभी ने गुड्डी के हाथों ही मेरा पूरा वस्त्र हरण, मेरी बनयान चड्ढी सब कुछ, वो सारंग नयनी ले गई थी।
लेकिन उससे भी बढ़कर आज सुबह जिस तरह नहाते समय इस चालाक ने शेविंग क्रीम के बदले हेयर रिमूविंग क्रीम मेरे चेहरे पे अच्छी तरह लिथड़ के मेरी मूंछ का भी,... एकदम मुझे चिकनी चमेली बना दिया।
इसका मतलब प्लान तो सुबह से ही था और रीत जिस तरह बैग में सामान ले आई थी।
अब मैं बैठा हुआ किशोरियों युवतियों के हाथों अपना जेंडर चेंज देख रहा था, और सच कहूँ तो मजे भी ले रहा था। एक अलग तरह का मजा।
गुड्डी ने चेहरे का और रीत के साथ मिलकर बाकी श्रृंगार का जिम्मा सम्हाल रखा था और कमर के नीचे का काम संध्या भाभी के कोमल-कोमल हाथों के जिम्मे। लेकिन उसके पहले साड़ी पहनाई गई। पर उसमें भी रीत ने साड़ी उसी ने लाकर दी। लेकिन बोला पहनो।
अब मैं कैसे पहनता।
और रीत चालू हो गई- “अरे वाह रे वाह। पहले साड़ी दो फिर इन्हें पहनाना सिखाओ। मायाके वालियों ने कुछ सिख विखाकर नहीं भेजा ससुराल की सिर्फ अपनी ममेरी बहन से नैन मटक्का ही करते रहे…”
चंदा भाभी भी मौका क्यों चूकती- “अरे इनकी बिचारी मायकेवालियों को क्यों बदनाम करती हो? बचपन से ही उन्हें सिर्फ खोलने की आदत है चाहे अपनी साड़ी हो या नाड़ा। तो इस बिचारे को कहाँ से सिखाती? अरे मोहल्ले वाले साड़ी बाँधने देते तब ना। साथ में जांघें फैलाना, टांगें उठाना। तो वो बिचारी बांधती भी कैसे?”
संध्या भाभी भी अब हम सबके रंग में रंग गई थी और उन्होंने सबसे पहली साड़ी के एक छोर को साए में बांधकर मुझे सिखाया।
फिर तो कुछ मैंने, कुछ उन्होंने साड़ी बंधवा ही दी।
"साडी पेटीकोट खोलना तो सब मर्दों को आता है लेकिन तुम पहले हो जो बांधना सीख गए, पर इसकी फ़ीस लगेगी "
कान में फुसफुसा के वो बोलीं। समझ तो मैं भी रहा था लेकिन मैंने भी उसी तरह धीरे से बोला, " एकदम भाभी, बस एक बार हुकुम कीजिये "
" ये " मुस्टंडे को दबा के धीरे से बोलीं और फिर जोड़ा, आज और जाने के पहले। " और फिर रीत और गुड्डी के साथ सिंगार में जुट गयीं।
रसिया को नार बनाउंगी
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मैं नंग धड़ंग छत पर खड़ा था, और मेरे चारो और वो पांचो, दो टीनेजर्स, गुड्डी और रीत और तीन भाभियाँ, संध्या भाभी, चंदा भाभी और दूबे भाभी सिर्फ देह से चिपकी रंग से लथपथ, आधी फटी खुली ब्रा और,
मेरा मुस्टंडा फड़फड़ा रहा था, खुली हवा में साँस लेकर और चारो ओर का नजारा देखकर,
लेकिन वो पांचो ऐसे बात कर रही थीं जैसे मैं हूँ ही नहीं वहां, हाँ कभी कभी चोरी चोरी चुपके चुपके एक निगाह उसे मोटे मुस्टंडे पर डाल ले रही थी, सबसे ज्यादा ललचायी संध्या भाभी लग रही थीं। रीत और गुड्डी से अलग,... वो स्वाद ले चुकी थीं तो उन्हें मजा मालूम था, लग रहा था अभी लार टपक जायेगी।
चंदा भाभी 'उसे' देख के खुश हो रही थीं, एक तो उनका शिष्य, दूसरे उनकी जो बात मैंने मानी थी। मुस्टंडे का मुंड ( सुपाड़ा ) खूब मोटा, पहाड़ी आलू ऐसा, लाल और एकदम खुला, ... कल पहली सीख उन्होंने यही दी थी। अपने हाथ से 'उसका' घूंघट खोला और बोलीं अब इसको खुला ही रखना और कारण भी समझाया, ' कायदे से रगड़ रगड़ कर घिस घिस कर ये धुस्स हो जाएगा, फिर जल्दी नहीं झड़ेगा।
दूबे भाभी कभी उस तन्नाए बौराये मुस्टंडे को देखतीं तो कभी गुड्डी को, खूब खुश, मुस्कराती,.... मानो कह रही हों ,
" बबुनी, हम लोग तो कभी कभी इसका मजा लेंगे, होली दिवाली , लेकिन तुझे तो ये मूसल रोज घोंटना पडेगा। "और मैं दूबे भाभी की ये निगाहें देख कर खुश हो रहा था। जब गुड्डी का मेरा मामला फाइनल स्टेज में पहुंचेगा, और अगर गुड्डी की मम्मी इसे दूबे भाभी की अदालत में ले गयीं तो फैसला मेरे ही हक में होगा।
लेकिन सबसे जालिम थी और कौन, मेरी साली , रीत।
मैं गुहार लगा रहा था कपडे कपडे, ऐसे बाजार कैसे जाऊँगा, गुड्डी के साथ और उसने हुकुम सुना दिया , " क्यों नहीं जा सकते , बहुत नई दुल्हन की तरह लजाते हो तो एक हाथ से आगे एक हाथ से पीछे ढक लेना और नहीं तो मेरी छोटी बहन की, गुड्डी की चिरौरी करना, हाथ पैर जोड़ना तो चड्ढी , रुमाल कुछ दिलवा देगी, ढक लेना।
लेकिन बचाने आयीं मुझे दूबे भाभी।
“नहीं ये सब नहीं हो सकता…” अब दूबे भाभी मैदान में आ गईं।
मैं जानता था की उनकी बात कोई नहीं टाल सकता।
“अरे छिनारों। आज मैंने इसे किसलिए छोड़ दिया। इसलिए ना की जब ये रंग पंचमी में आएगा तो हम सब इसकी नथ उतारेंगे। लेकिन इससे ज्यादा जरूरी बात। अगर ये लौंडेबाजों के चक्कर में पड़ गया ना तो इसकी गाण्ड का भोंसड़ा बन जाएगा। तो फिर ये क्या अपनी बहन को ले आएगा? तुम सब सालियां अपने भाइयों का ही नहीं सारे बनारस के लड़कों का घाटा करवाने पे तुली हो। कुछ तो इसके कपड़े का इंतजाम करना होगा…”
अब फैसला हो गया था। लेकिन सजा सुनाई जानी बाकी थी। होगा क्या मेरा?
जैसे मोहल्ले की भी क्रिकेट टीमें। जैसे वर्ड कप के फाइनल में टीमें मैच के पहले सिर झुका के न जाने क्या करती हैं, उसी तरह सिर मिलावन कराती हैं, बस उसी अंदाज में सारी लड़कियां महिलाये सिर झुका के। और फिर फैसला आया। रीत अधिकारिक प्रवक्ता थी।
रीत बोली- “देखिये मैं क्या चाहती थी ये तो मैंने आपको बता ही दिया था। लेकिन दूबे भाभी और सब लोगों ने ये तय किया है की मैं भी उसमें शामिल हूँ की आपको कपड़े। लेकिन लड़कों के कपड़े तो हमारे पास हैं नहीं। इसलिए लड़कियों के कपड़े। इसमें शर्माने की कोई बात नहीं है। कित्ती पिक्चरों में हीरो लड़कियों के कपड़े पहनते हैं तो। हाँ अगर आपको ना पसंद हो तो फिर तो बिना कपड़े के…”
मेरे पास कोई रास्ता बचा भी था क्या चुपचाप बात मानने के ? और अब तक मैं समझ चुका था ससुराल में, वो भी अगर बनारस की हो और साली सलहज के झुण्ड में फंस गए तो चुपचाप बात मान लेनी चाहिए, एक तो और कोई चारा भी नहीं दूसरे लांग टर्म बेनिफिट,...
गुड्डी तब तक एक बैग ले आई।
ये वही बैग था जिसे रीत सुबह अपने घर से ले आई थी और गुड्डी लेकर चंदा भाभी के पास चली गई थी। बाद में उसे ही ढूँढ़ने वो चंदा भाभी को लेकर अन्दर ले गई थी। उसमें से ढेर सारी चीजें निकाली गई श्रृंगार की।
अब मैं समझ गया की ये सब नाटक था मुझे तंग करने का। ये सब प्लानिंग पहले से थी।
मैं भी उसे उसी तरह एन्जाय करने लगा। पेटीकोट दूबे भाभी का पहनाया गया। ब्रा और चोली संध्या भाभी की।
और यह काम संध्या भाभी कर रही थीं, पेटीकोट पहनाते हुए पहले तो उन्होंने मुस्टंडे को एक प्यार से हलकी सी चपत भी लगा दी और फिर सबकी नजर बचा के मसल भी दिया कस के और जैसे उससे बोल रही हों, बोलीं,
" हे, तुझी से बोल रही हूँ, उधार नहीं रखती मैं, आज ही, जाने के पहले और यहाँ तक पूरा लूंगी, देखती हूँ की खाली बड़ा और कड़ा ही है की रगड़ता भी है " और फिर मुस्टंडे के बेस पे कस के मुट्ठी से दबा के साफ़ कर दिया, कहाँ तक लेना है, और उस मुस्टंडे ने सर हिला के हामी भी भर दी।
संध्या भाभी सुंदर तो थी ही और जवान भी, रीत से मुश्किल से साल भर बड़ी, बी ए में गयी ही थीं की शादी हो गयी, और शादी के बाद तो जवानी और भड़क जाती है, दहकता रूप, सुलगता जोबन, लेकिन अभी इस मुस्टंडे को छूने पकड़ने और देखने के बाद जो कामाग्नि दहक रही थी, जोबन जिस तरह पथराया था, निप्स टनटना रहे थे, होंठ बार बार सूख रहे थे, वो और साफ़ साफ़ कहूं तो लेने लायक लग रही थीं,और मेरा भी मन यही कर रहा था, कब मौका मिले और उन्हें पटक के,
पेटीकोट के बावजूद तम्बू में बम्बू तना हुआ था।
संध्या भाभी रीत और गुड्डी से कम नहीं छेड़ने, चिढ़ाने में आखिर सबसे बड़ी बहन लगेंगी और फिर ब्याहता, ब्रा पहनाते हुए गुड्डी से बोलीं,
" हे इसके माल की, एलवल वाली बहिनिया की भी इस साइज की है या,... "
" कहाँ भाभी, कहाँ आपका ये माल और कहाँ, उसकी तो मुझसे भी १९ है , ३२ बी " गुड्डी मुंह बिचका के बोली।
लेकिन गुड्डी से तुलना करना ही गलत था, अपनी बाकी क्लास वालियों से उसका २० नहीं २४-२५ कम से कम होगा।
" हे फोटो खींच आज तेरे वाले ने पहली बार ब्रा पहनी है " संध्या भाभी ने गुड्डी को उकसाया, और गुड्डी ने मेरे ही मोबाइल से स्नैप स्नैप।
और फिर पहले संध्या भाभी फिर रीत फिर गुड्डी ने भी मेरे पीछे बैठे के ब्रा को दबाते मसलते , फोटो , और गुड्डी चालाकी में किसी से कम थोड़े ही थी, मैं बाद में डिलीट कर देता तो उसने अपने, रीत के संध्या भाभी के और बाद में पता चला की गुंजा और अपनी मम्मी और छुटकी को भी ,
फिर चोली भी संध्या भाभी ने, खूब टाइट, लाल रंग की,
श्रृंगार का जिम्मा रीत और गुड्डी ने लिया।
मेरे दोनों हाथों में कुहनी तक भर-भर लाल हरी चूड़ियां, रीत पहना रही थी।
रीत झुक के मेरे कान में बोली- “हे बुरा तो नहीं माना?”
“अरे यार बुर वाली की बात का क्या बुरा मानना वो भी होली में…” मैं बोला और हम दोनों हँस पड़े।
वो गाने लगी और बाकी सब साथ दे रहे थे-
रसिया को नार बनाऊँगी रसिया को,
सिर पे उढ़ाय सुरंग रंग चुनरी, गले में माला पहनाऊँगी, रसिया को।
रसिया को नार बनाऊँगी रसिया को,
सिर पर धरे सुरंग रंग चुनरी, अरे सुरंग रंग चुनरी।
जोबन चोली पहनाऊँगी,
रसिया को नार बनाऊँगी, रसिया को।
गाना चल रहा था और मेरे सामने सुबह से लेकर अभी तक का सीन पिक्चर की तरह सामने घूम गया, और मैं समझ गया की पर्दे पे भले ही अभी रीत हो लेकिन इसके पीछे गुड्डी का और थोड़ा बहुत रोल चंदा भाभी का भी था।और अब संध्या भाभी भी उस में शामिल हो गयी थीं।
कल शाम को जिस तरह चंदा भाभी ने मेरे कपड़े उतरवा के गुड्डी को दिए और इस दुष्ट ने उसे रीत तक पहुँचा दिए और फिर भाभी ने गुड्डी के हाथों ही मेरा पूरा वस्त्र हरण, मेरी बनयान चड्ढी सब कुछ, वो सारंग नयनी ले गई थी।
लेकिन उससे भी बढ़कर आज सुबह जिस तरह नहाते समय इस चालाक ने शेविंग क्रीम के बदले हेयर रिमूविंग क्रीम मेरे चेहरे पे अच्छी तरह लिथड़ के मेरी मूंछ का भी,... एकदम मुझे चिकनी चमेली बना दिया।
इसका मतलब प्लान तो सुबह से ही था और रीत जिस तरह बैग में सामान ले आई थी।
अब मैं बैठा हुआ किशोरियों युवतियों के हाथों अपना जेंडर चेंज देख रहा था, और सच कहूँ तो मजे भी ले रहा था। एक अलग तरह का मजा।
गुड्डी ने चेहरे का और रीत के साथ मिलकर बाकी श्रृंगार का जिम्मा सम्हाल रखा था और कमर के नीचे का काम संध्या भाभी के कोमल-कोमल हाथों के जिम्मे। लेकिन उसके पहले साड़ी पहनाई गई। पर उसमें भी रीत ने साड़ी उसी ने लाकर दी। लेकिन बोला पहनो।
अब मैं कैसे पहनता।
और रीत चालू हो गई- “अरे वाह रे वाह। पहले साड़ी दो फिर इन्हें पहनाना सिखाओ। मायाके वालियों ने कुछ सिख विखाकर नहीं भेजा ससुराल की सिर्फ अपनी ममेरी बहन से नैन मटक्का ही करते रहे…”
चंदा भाभी भी मौका क्यों चूकती- “अरे इनकी बिचारी मायकेवालियों को क्यों बदनाम करती हो? बचपन से ही उन्हें सिर्फ खोलने की आदत है चाहे अपनी साड़ी हो या नाड़ा। तो इस बिचारे को कहाँ से सिखाती? अरे मोहल्ले वाले साड़ी बाँधने देते तब ना। साथ में जांघें फैलाना, टांगें उठाना। तो वो बिचारी बांधती भी कैसे?”
संध्या भाभी भी अब हम सबके रंग में रंग गई थी और उन्होंने सबसे पहली साड़ी के एक छोर को साए में बांधकर मुझे सिखाया।
फिर तो कुछ मैंने, कुछ उन्होंने साड़ी बंधवा ही दी।
"साडी पेटीकोट खोलना तो सब मर्दों को आता है लेकिन तुम पहले हो जो बांधना सीख गए, पर इसकी फ़ीस लगेगी "
कान में फुसफुसा के वो बोलीं। समझ तो मैं भी रहा था लेकिन मैंने भी उसी तरह धीरे से बोला, " एकदम भाभी, बस एक बार हुकुम कीजिये "
" ये " मुस्टंडे को दबा के धीरे से बोलीं और फिर जोड़ा, आज और जाने के पहले। " और फिर रीत और गुड्डी के साथ सिंगार में जुट गयीं।
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