अपडेट -- 16
दोपहर के समय, रितेश और अजय दोनो अजय के घर पर बैठे थे.,
अजय के चेहरे पर परेशानी के भाव साफ झलक रहा था।
ये देख कर रितेश अपने हाथ के पंजो को खाट पर रखते हुए थोड़ा सीधा बैठते हुए बोला'
रितेश - क्या हुआ बे, इतना 'परेशान' क्यूं है''?
अजय का चेहरे पर पसीने के साथ 'साथ- डर के बादल मड़रा रहा था, वो अपने जीभ को अपने होठो पर फीराया'मानो जैसे उसका गला सुख गया हो-
अजय - यार भाई, मुझे बहुत 'डर' लग रहा है!
अजय की बातो में सच में 'डर' साफ झलक रहा था, जो रितेश ने पहेचान लीया था.....रितेश ने अजय के जांघो पर हाथ रखते हुए बोला-
रितेश - मुझे पता है की, तू क्यूं 'डर' रहा है? लेकीन तू चींता मत कर.....ठाकुर को इस बात का, कानो -कान भी खबर नही लगेगा की, वो 'खत' हमने ही लीखा है।
रितेश की बात सुनकर अजय के अँदर थोड़ी 'हिम्मत ' आयी......। अजय खाट पर से उठ कर एक कदम आगे जा कर बोला-
अजय - वो सब तो ठीक है भाई, लेकीन वो 'पैसे'
मुझे पता है ,अजय की बात काटते हुऐ रितेश खाट पर से उठ कर अजय के पास आकर बोला-
रितेश - यही ना की, जब ठाकुर पैसे लेके 'तालाब' के कीनारे आयेगा तो, 'हम उस पैसे को कैसे उठायेगें''?
रितेश की बात सुनकर , अजय अपनी आंखे कीसी उल्लू की तरह बड़ी करते हुए बोला-
अजय - ह......हां भाई!
रितेश की आंखो में एक चमक आयी और अपने होठ को खोलते हुए अपनी मोतीयों जैसे दातं को दीखाते हुऐ हंसा और बोला-
अजय - तो फीर तू ,वो 'झोला' ले -ले और हां एक पतली सी लम्बी 'डोरी ' भी ले-लेना और चल!
रितेश की बात सुनकर अजय थोड़ा सकपका गया, और वो रितेश की तरफ घुमते हुए बोला-
अजय - ये.......डोरी कीस लीये?
अजय की बात सुनकर, रितेश अपने कदम आगे बढ़ाते हुऐ दो-चार कदम चला, और फीर रुक जाता है.......रितेश अपने मोती जैसे दांत दीखाते हुए एक बार फीर हसा, और बोला-
रितेश - तूने........एक कहावत तो सुनी होगी, ।
अजय - कौन सी कहावत?
रितेश एक बार फीर अजय की तरफ घुम जाता है, और उसकी 'तरफ आते हुए' बोला-
रितेश - यही की 'सांप भी मर जाये,और लाठी भी ना टुटे'
तभी घर के अँदर 'पायल ' की झनकारे बजती हुई आवाज़े अजय और रितेश के कानो मैं पड़ी, तो दोनो नज़रे उस तरफ़ की तो.....देखा की अजय की मां ' रेवती' हाथ में खाने की थाली ले कर चली आ रही थी!
रेवती......हरे 'रंग' की साड़ी मे जच रही थी....बहुत ज्यादा खुबसुरत तो नही बोल सकते.....लेकीन उसकी 'मोटी' कमर गदराया हुआ 'पेट' और मस्त हथीनी जैसी चाल ,जब वो चलती है तो, उसकी बड़ी-बड़ी चौड़ी हो चुकी ' गांड' एक-एक करके उपर नीचे 'मटकती' है तो.....कीसी भी जवान 'मर्द ' के सोये हुए 'लंड' को जगा सकता था।
खैर रेवती 'खाने' की थाली' लेकर उन दोनो के करीब आ जाती है,
रेवती के हाथो में मेंहदी लगी हुई थी.....उसके गोरे हाथ पर 'मेहदीं काफी जच रही थी.....वो थोड़ा झुक कर खाने की थाली खाट पर रख रही थी.....तो अजय ठीक उसके पीछे खड़ा था। रेवती जैसे ही झुकी......रेवती की मस्त 'गाड' अजय के सीधा लंड पर जा भीड़ा.....अजय ने जैसे ही अपनी मां की 'मतवाली' गांड अपने लंड पर स्पर्ष कीया तो उसके मुह से इक मादक 'सीसकारी' नीकल पड़ी.......लेकीन तभी रेवती खड़ी होने लगती है,तो......एक बार फीर रेवती की गांड अजय के लंड को धीसते हुए उसके लंड से आजाद हुई।
अजय एकदम सीधा खड़ा था......मानो जैसे उसकी मां की गांड के स्पर्ष ने.....उसके पौरुष को जगा दीया हो, अजय के लंड मे तो उसकी मां ने अपनी मस्त गांड घीसकर 'आग' तो लगा ही दीया था......लेकीन अजय ने अपने एक हाथ से.....खड़े हो चुके लंड को छुपाते हुए खड़ा रहा!
अजय - मां हमे, अभी 'भूख' नही है.....हम कीसी काम से जा रहे है......बाद में आकर खा लेगें।
रेवती अपने साड़ी के पल्लू को उठा कर वो एक कदम आगे जा कर, अजय के माथे पर से 'पसीना' पोछते हुए बोली-
रेवती - अरे....मेरे लाला, दीन भर काम-काम-काम.......खाने का तो तूझे खयाल ही नही रहता॥ पहले खाना खा ले फीर जाना......और हां रितेश बेटा तू भी खाना खा ले, फीर जाना।
ये कहते हुए रेवती पीछे मुड़ी और अपनी भारी भरकम 'गांड ' हीलाते हुए कमरे से बाहर जाने लगी.......अजय अपनी चोर नज़रो से अपनी मां की 'मटकती' हुई गांड देख रहा था.....और एक बार फीर उसके लंड को उसके मां की गांड का छुवन याद आया और उसके लंड ने एक जोर का झटका मारा"
रितेश खाट पर बैठते हुए एक अँगड़ाई ली.....और फीर खाने की थाली हाथ.....मे लेते हुए बोला-
रितेश - चल यार खा लेते है, वैसे भी दीमाग चलाने के लीये 'पेट' भरा होना बहुत जरुरी है।
चंपा अपने तेज कदम 'हवेली' की सीढ़ीयो पर बढ़ा रही थी.......वो जल्द ही रेनुका के 'कमरे' के पास पहुचं' गयी! उसने दरवाजे को अपने हाथो से थोड़ा धक्का दीया , लेकीन दरवाज़ा अँदर से बंद था......।
चंपा ने सोचा, लगता है ये मां-बेटे फीर से चोदम -चादी में लगे है.....यही सोचते हुए उसने दरवाज़े को खटखटाया......
खट्---खट्---खट्
अँदर से आवाज़ आयी......कौन है?
चंपा- अरे.....मालकीन, मै हूं चंपा!
रेनूका ने अँदर से दरवाज़ा खोला......और अपना हाथ बाहर डालकर.....चंपा को अँदर खीच लीया.....।
चंपा अपने आप को इस तरह अंदर की खीचते पा कर वो 'डर' गयी......वो जैसे ही कमरे के अँदर 'दाखील' हुई तो , वो अपने सीने पर हाथ रखकर हांपने हुए बोली-
चंपा - क्या. .....मालकीन, आपने तो मुझे डरा दीया,
लेकीन जब चंपा ने देखा की रेनुका फीर से अँदर से दरवाज़ा बंद कर रही है तो, उसने पुछा 'आप दरवाज़ा क्यूं बंद कर रही है मालकीन?
रेनुका ने कुछ बोला नही.....लेकीन वो एक शातीर औरत की तरह मुस्कुराती हुई आगे बढ़ने लगी.....।
चंपा आश्चर्य से खड़ी होकर रेनुका को देख रही थी.....लेकीन जैसे ही वो पलटी......उसके पैरो तले जमीन खीसक गयी, उसने देखा की पंलग के बगल एक कुर्सी रखी थी......और उस कुर्सी पर कोइ आदमी बंधा है.....उस आदमी का 'पीठ' चंपा की तरफ होने की वजह से वो उसे देख नही सकी......।
चंपा अपने सीने पर से हाथ हटाते हुए हकलाकर बोली-
चंपा - ये......ये कौन है मालकीन....?
रेनुका अपने कदम......चंपा की तरफ बढ़ाते हुए, उसके करीब आयी 'और अपनी एक उगंली उसके चेहरे पर उपर नीचे करते हुए बोली-
रेनुका - तुझे बहुत जल्दी है, जानने की. ...आं?
रेनुका के इस तरह बात करने के अंदाज ने चंपा की हालत थोड़ा खराब कर दी....।
चंपा अपने चेहरे पर थोड़ा 'डर' और थोड़ी 'हंसी' के भाव लाते हुए हकलाके बोली-
चंपा - वो.....वो॥ मालकीन......मैं तो बस.....ऐसे ही!
तभी रेनुका अपने कदम आलमारी की.....तरफ बढ़ायी, औल आलमारी के पास पहुचकर उसने एक बार चंपा की तरफ देखकर मुस्कुराया और फीर, आलमारी खोलकर उसमे से एक 'चाभुक' नीकाला।
ये देखकर चंपा का तो गला सुखने लगा, उसकी हालत तो कीसी सुखे पेड़ की तरह हो गयी, उसने जब देखा की रेनुका वो 'चाभुक' अपने हाथों में लीये उसके तरफ ही चली आ रही है.। तो उसने सोचा की आज तो मै मरी लगता है.।
रेनुका चंपा के एकदम करीब आकर.....उसकी आंखो में आँखे डालती हुई बोली-
रेनुका - तू घबरा मत, ये 'चाभुक' तेरे लीये नही है। ये 'चाभुक- तो उसके लीये है.'रेनुका ने अपनी उगंली का इशारा उस बधें हुए आदमी की तरफ कीया!
ये सुनकर चंपा के शरीर में जैसे 'जान' आयी हो....वो एक लंबी सांस लते हुए बोली-
चंपा - क्या मालकीन, आपने तो मुझे 'डरा' दीया था। लेकीन ये हे कौन"?
रेनुका ने फीर हंसते हुए बोला-
रनुका - ये वो इसानं है, जो मेरा नही मेरे पती का वफ़ादार है....आज इसने मुझे रंगे हाथ पकड़ लीया'' खैर वो सब तू छोड़; तू ये पकड़ रेनुका ने चाभुक चंपा की तरफ करते हुए कहा,
चंपा बेचारी हैरान-परेशान उस 'चाभुक' को अपने हाथों में ले लेती है।
रेनुका उस आदमी के तरफ अपने कदम बढ़ाते हुए बोली-
रेनुता - शाबाश: अब तू इस चाभुक से, इस आदमी की चमड़ी खीचं ले....ऐसी पीटायी कर तू इसकी!
और फीर रेनुका उस बंधे हुए आदमी के पास जाकर बिस्तर पर बैठ जाती है।
चंपा - पर मालकीन, अगर ये चील्लायेगा तो आवाज़ बाहर तक जायेगा।
रेनुका - नही जायेगा.....ये हवेली ये सोच कर बनाया गया था की, दिवारो के भी कान होते है।
'फीर क्या था चंपा बीना सोचे -समझे आगे, बढ़ी और उस आदमी के पास आकर खड़ी हो गयी।
चंपा - लेकीन, मालकीन ये कौन है?
रेनुका बीस्तर पर से खड़ी हो गयी, और गुस्से में पास आकर चंपा के बालो को जोर से खीचंती हुई बोली-
रेनुका - रंडी तूझे जीतना बोला है, 'उतना कर' इस चाभुक से उधेड़ दे इसकी चमड़ी!
चंपा भी 'डर' गयी और लड़खड़ाते हुए लफ़्जो में बोली-
चंपा - जी......जी मालकीन,
फीर क्या था, चंपा ने वो चाभुक उस आदमी के उपर बरसाने शुरु कर दीये.....
वो आदमी तो, दर्द से तीलमीला गया लेकीन मुहं ढ़के होने और बंधे होने के कारण, उसके मुंह से सीर्फ गू......गू......गू......की आवाजें नीकल पायी....।
चंपा ने करीब 20 चाभुक, जोर-जोर के लगाये...उस आदमी के बदन पर के कपड़े फट गये थे और चाभुक पड़ने से उसके बदन पर चाभुक के काले-काले नीशान भी पड़ चुके थे।
वो आदमी कुर्सी में बंधा बहुत छटपटाया....लेकीन चंपा उस पर चाभुक बरसाती रही......इतना चाभुक तो 'घोड़े' पर भी नही चलाते, जीतना चंपा ने उस आदमी के उपर चलाये थे.....।
चंपा ने जैसे ही, अपना हाथ चाभुक मारने के लीये उपर कीया.....वैसे ही रेनुका ने उसे रोक दीया!
रेनुका - बस......बस मेरी चंपा रानी, आज के लीये इतना बहुत है, इसके लीये।
उसके बाद रेनुका ने चंपा को कहां की ये कुर्सी खींच कर पीछे वाले कमरे में ले चले, क्यूकीं यहां इसे कोई भी देख लेगा।
फीर चंपा और रेनुका दोनो ने उस आदमी को खीचं कर , पीछे वाले छोटे से कमरे में ले गये और फीर रेनुका ने बाहर से ताला मार दीया।
रेनुका बीस्तर पर बैठते हुऐ , अपने पैर बीस्तर पर फैला देती है और अपने सर के पीछे तकीया लगाकर दीवाल के सहारे अपना सर टीका कर बोली-
रेनुका - चंपा रानी, इतना याद रखना की इसके बारे में कीसी को कुछ पता ना चले....नही तो तुम जानती हो की, मैं तुम्हारे साथ क्या कर सकती हूं?
चंपा ये सुनते ही रेनुका के पैरो के पास बैठ कर रेनुका के पैर दबाते हुए बोली-
चंपा - अरे मालकीन, मेरी इतनी औकात कहां की, मै आपके साथ 'गद्दारी' करु, मै तो यंहा आपको कुछ बताने आयी थी......
रेनुका अपने हाथ चंपा के सर पर रखकर सहलाने लगती है, 'जैसे कोइ अपने पालतू कुत्ते को सहला रहा हो''
रेनुका - कैसी बात?
फीर चंपा ने ,ठाकुर की सारी बात चामुडां बाबा वाली रेनुका को बताने लगती है....चंपा की बात सुनते हुए रेनुका की आखें बड़ी होती जा रही थी.....जैसे ही चंपा ने अपनी बात पूरी की"
रेनुका उठ कर खड़ी हो जाती है और चंपा के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली-
रेनुका - शाबाश: चंपा......तूझे नही पता की तूने क्या बात बतायी है.....रेनुका तुरतं अपने गले पर हाथ लगाती है, और एक सोने की चैन अपने गले में से नीकाल कर चंपा की तरफ बढ़ा देती है!
चंपा की तो मारे खुशी के झूम गयी.....वो चैन लेते हुए बोली-
चंपा - बस मालकीन , आप अपना हाथ मेरे सर पर हमेशा बनाये रखना, फीर देखना आपकी ये चंपा क्या-क्या करती है।
रेनुका - अब तो मुझे पुर्णमासी की रात होने आने से पहले, मुझे उस बाबा से मीलना होगा!
"रात का समय था.......ठाकुर, विधायक और मुनीम तीनो एक बैग में पैसे लेकर उस 'तालाब' के कीनारे पहुचें॥ ठाकुर के साथ 5 और आदमी थे जो हाथ में बंदूक लीये थे।
'चांद की रौशनी में ठाकुर उस पुलीया पर खड़ा होकर मुनीम से कहा-
ठाकुर - मुनीम, तू पैसे लेकर जा पुलीया के नीचे और पैसो को उस 'झोले' में डालकर वापस आजा, और तुम पांचो अपनी नज़र गड़ाये रखना , और जो भी पैसे लेने आये उसे दबोच लेना!
उन पाचों ने कहा- जी मालीक, और फीर मुनीम भी पैसे लेकर उस 'पुलीया' के नीचे जाता है , मुनीम ने देखा वहां सच में एक 'झोला' रखा है......उसने झट से उन पैसो को 'झोले' में डाला और वापस आ गया!
'यार रितेश मुझे बहुत डर लग रहा है, इन लोगों ने तो पैसे रख दीये, अब क्या करें?
रितेश और अजय 'उस पुलीया से करीब दस कदम दुर झांड़ीयो छुपे थे।
ठाकुर विधायक और मुनीम तीनो पैसे रखने के बाद गाड़ी में बैठकर चले जाते है.....लेकीन वो पांच लोग वही खड़े रहते है।
अजय - यार भाई, ये पांचो तो यही खड़े है।
रितेश - और ये लोग खड़े भी रहेगें, मुझे पता था की, ठाकुर कोई ना कोई तरकीब लगा कर ही आयेगा!
अजय- तो भाई अब पैसे कैसे लेगें?
रितेश- हमने तरकीब क्यूं बनायी थी....चल खीचं डोरी।
अजय के आँखों में एक चमक आ जाती है, और मुस्कुराते हुए 'डोरी' खीचने लगता है जो पैसे वाले 'झोले' में बंधा था।
रितेश और अजय बड़ी चालाकी से डोरी खीचते रहे.....और कुछ ही समय में वो झोला सरकते हुए उन लोग के पास आ गया!
रितेश ने वो झोला लीया और अपने कदम अजय के साथ धीरे- धिरे बढ़ाकर वहां से नीकलने लगा,
कुछ ही समय में वो लोग वहां से आसानी से नीकल जाते है। और गांव के पुलीया पर पहुचं कर वहीं उस पुलीया पर बैठ जाते है।
अजय(खुश होते) - यार भाई......मुझे तो यक़ीन ही नही हो रहा है की हमारे पास 'बीस लाख' रुपया है।
रितेश - लेकीन हमे, इन पैसो का इस्तमाल बहुत सावधानी से करना है, ताकी ठाकुर को इसकी भनक ना लगे!
अजय एक दम उत्सुकता के साथ बोला,
अजय- हां भाई, अब तू ही संभाल इन पैसो को!
रितेश - अरे, भोसड़ी के दस लाख तेरा भी है।
अजय रितेश के पास बैठते हुए बोला,
अजय - कुछ दीनो के लीये तो तुम्हे ही सभांलना पड़ेगा.....नही तो मेरी हरकतो से ठाकुर को पता चल जायेगा! लेकीन भाई इन दस लाख रुपयो का हम करेगें क्या....मैं तो ये सोच कर ही पागल हो जा रहा हूं।
रितेश - फीलहाल तो मैं शादी करने वाला हूं!
अजय - अरे वाह! भाई आँचल मान गयी शादी के लीये लगता है!
रितेश अपने चेहरे पर एक हल्की मुस्कान लाते हुए बोला-
रितेश - अरे मैने तूझे बताया नही......ये शादी आँचल से नही बल्की अपनी मां से कर रह हूं और ये शादी परसो है!
ये सुनकर तो अजय के पैरो तले ज़मीन खीसक गयी.....वो सकपकाते हुए बोला-
अजय - श.....शादी? वो भी मां से, कैसे?
रितेश - बस यार समझ ले.....की नसीब वाला हो जांउगां, अपनी मां से शादी करने के बाद....और हां ये बात की, मै मेरी मां से शादी कर रहा हूं इस बात की खबर कीसी को नही होनी चाहीये!
अजय - वो सब तो ठीक है, भाई लेकीन तेरी मां वो भी 'कजरी' काकी मान कैसे गयी?
रितेश - अबे साले, सीर्फ शादी कर रही है मां, और कुछ नही होगा हमारे बीच!
अजय ये सुनकर अपना सर खुज़ाने लगा और कुछ सोचते हुए बोला-
अजय - ये कैसी शादी हुई भाई? लेकीन जो भी हो शादी के बाद , कजरी काकी तो ठाकुर के अरमानो पर पानी ही फेर देगी!
अजय के मुहं से इतना सुनते ही रितेश खुश हो जाता है......
रितेश - अरे हां यार.....ये तो मैने सोचा ही नही, की शादी के बाद भले ही मेरे और मां के बीच कुछ भी ना हो......लेकीन मेरी मां तो रहेगी तो मेरी पत्नी ही ना!
अजय - हां भाई.....अब तो तू खुश है ना!
रितेश - बहुत यार......अच्छा सुन कल शहर चलेगें मां को कपड़े लेने है। और हां भाई शादी का पुरा इतंजाम तूझे ही करना है।
अजय - वो सब तो ठीक है, लेकीन शादी करेगा कहां?
रितेश - गाँव के बाहर , जो मंदीर है....वंहा!
अजय - लेकीन भाई, सब को पता चल गया तो....क्यूकीं उस मंदीर में गांव के लोग आते जाते रहते है!
रितेश - इसीलीये , ये शादी मैं रात को करुगां.!
अजय- हां भाई ये ठीक रहेगा।
फीर रितेश ने पैसो का 'झोला' उठाया और अजय से बोला-
रितश - चल पहले मेरे घर पर, इन पैसो को कंही छुपा देते है......ये झोला तू पकड़ क्यूकीं अगर इस झोले को मां ने मेरे हाथों मे देख लीया तो गजब हो जायेगा।
और उसके बाद पैसेअजय लेकर , दोनो अपने कदम घर की तरफ बढ़ाने लगते है.....दोनो के कदम जमीन पर इस तरह पड़ रहे थे जैसे वो जमीन को रौदतें हुएआगे बढ़ रहे हो'
अजय और रितेश जैसे ही घर पहुचंते है तो उनका नसीब भी शायद उनके साथ था....कजरी रसोई घर में थी।
रितेश - चल-चल-चल जल्दी, मां रसोई घर में है।
दोनो धीमे-धीमे कदम बढ़ाने लगे, और रितेश अपने कमरे में पहुचं कर अजय के हाथ से 'झोला' ले लेता है.....और झोले को एक बोरी में डालकर उस पर अपना बक्सा रख देता है.....और फीर ~दोनो बाहर आ जाते है।
कुछ समय बाद, कजरी भी बाहर आती है तो देखती है की.......।
kahani jari rahegi dosto!
thanks for your love for this story.