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क्या आप का तात्पर्य अमर के स्तंभन से है?बिल्कुल सही है।
किसी को ले कर शरीर की प्रतिक्रिया जैसी होती है, वैसी ही भावना हमारे मन में होती है।
Ha ha not at all..!! Thnx for noticing. and pl ignoreभ्राताश्री, कृपया हिन्दी में ही लिख लिया करें, आपकी अंग्रेज़ी व्याकरण पढ़कर बड़ा अजीब सा लगता है।
(अगर बात का बुरा लगे तो क्षमा कीजिएगा।)
बिल्कुल, अमर का हेसिटेशन यही है की लतिका उसके घर की ही बच्ची है, जो उसके सामने ही बड़ी हुई है। इसीलिए वो उसकी तरफ अपने अवचेतन मन में आकर्षित महसूस नहीं कर रहा।आप सब ने तो मुझे भ्रमित कर दिया है, आख़िर कहना क्या चाह रहे हैं?
क्या आप का तात्पर्य अमर के स्तंभन से है?
रात में अब मां चीजों को और क्लियर करेंगी।अचिन्त्य - Update # 12
माँ और पापा ने आज मेरा, मिष्टी और लतिका का जन्मदिन साथ में मनाने का प्रोग्राम बनाया हुआ था। दीपावली जैसे शुभ अवसर पर जन्मदिन जैसे कार्यक्रम रखना बहुत ही अच्छा विचार था। सकारात्मक माहौल रहता है, सभी लोग खुश खुश रहते हैं! लेकिन जैसी उम्मीद थी, जैसे ही घर के छोटे बच्चों को इस आयोजन के बारे में मालूम हुआ, तो उनको जन्मदिन मनाने को लेकर सभी से अधिक उत्साह हो आया। नन्हे बच्चे थे, लेकिन उनको इस प्रोग्राम की अच्छी समझ थी। आदर्श और अभया क्रमशः अगस्त और सितम्बर में पैदा हुए थे, लिहाज़ा उनको भी अपना जन्मदिन मनाने का उत्साह होने लगा। आदित्य थोड़ा बड़ा हो गया था, तो उसको खुद पर थोड़ा नियंत्रण था, लेकिन बस, ‘थोड़ा’ ही! अपनी बात करूँ, तो मैं स्वयं ऐसे प्रयोजनों से हिचकिचाता हूँ - जन्मदिन वगैरह नन्हे बच्चों को बहलाने के लिए मनाना चाहिए, न कि मुझ जैसे बुड्ढे को! वैसे भी अब यह सब करने की इच्छा नहीं होती थी - देवयानी थी, तो अलग बात थी। हाँ, बाकी लोगों का जन्मदिन मनाने में मैं हमेशा ही बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था। लेकिन माँ और पापा को ये सब बातें कहता, तो उनको बहुत बुरा लगता, और उनसे लम्बा चौड़ा लेक्चर सुनने को मिलता, इसलिए मैंने इस विषय में चुप रहना ही ठीक समझा। करने दो, जो मन करे!
सब कुछ शाम को होना था, इसलिए दिन भर मैं फ्री था। इंजीनियरिंग के समय के कुछ दोस्त लोग यहाँ मुंबई में थे, जिनसे मिले हुए एक लम्बा अर्सा हो गया था। तो, उनसे मिलने मैं चला गया। लेकिन माँ ने कह दिया कि शाम को छः बजे से पहले वापस आ जाऊँ। अच्छी बात है! दोस्तों से मिल कर, पुराने दिनों की बातें कर के आनंद आ गया। ऐसा लगा ही नहीं कि कभी उनसे बिछड़े थे! सोलह साल बाद मिलने पर भी हमारी बातें वहीं से शुरू हुईं, जहाँ इंजीनियरिंग का चौथा साल ख़तम करते समय छूटी थीं। फिर से वैसे दोस्त मिलना लगभग असंभव है! अच्छी बात यह थी कि सोशल मीडिया - ऑर्कुट और याहू ग्रुप्स - के जरिए हमको एक दूसरे के जीवन के बारे में पता चलता रहता था।
कुछ अज़ीज़ दोस्तों ने - जो माँ और डैड से वाकिफ़ थे - माँ और डैड के बारे में पूछा! उनको डैड के गुजरने के बारे में पता नहीं था। सच कहूँ तो मुझे भी अब डैड के जाने का ‘ग़म’ नहीं महसूस होता था - ऐसा नहीं है कि इस बात से मुझको कोई ख़ुशी मिलती है, लेकिन वो बात अब सालती नहीं - चुभती नहीं। उनके बारे में बस अच्छा अच्छा ही याद आता था अब! यह था पापा का असर! इसलिए दोस्तों के पूछने पर मैंने उनको बताया कि माँ और ‘पापा’ बहुत सुख से हैं, और पिछले कुछ सालों में उनकी लाइफ में रोमांस फिर से रीडिस्कवर हुआ है! जिसके कारण पिछले आठ साल में उनको तीन और भी बच्चे हुए हैं! यह सुन कर सभी को बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ - आजकल यह सब सुनने में नहीं आता है न, शायद इसलिए! शायद इसलिए भी कि लोगों को उनकी ख़ुशी देख कर थोड़ी ईर्ष्या भी हुई हो! क्या पता!
माँ और पापा की बात जान कर मेरी दो सहेलियों ने कहा कि मैं फिर से शादी क्यों नहीं कर लेता? ऐसे अकेले रह कर क्या मिलेगा? तो मैंने उनको मज़ाक में उत्तर दिया कि कोई बढ़िया सी लड़की ढूंढ दो मेरे लिए यार... क्योंकि अब मुझ अकेले से तो नई लड़की नहीं ढूंढी जा सकती है। हाँलाकि मैं यह सब कह तो रहा था, लेकिन कहते समय ज़बान थोड़ा लड़खड़ा अवश्य गई। फिर से लतिका का वही अक्स दिमाग के परदे पर उभर आया! दिल की धड़कनें फिर से बढ़ गईं! मेरे पुरुष दोस्तों को तो नहीं, लेकिन मेरी सहेलियों को मेरा अचानक से बदला हुआ लहज़ा साफ़ सुनाई दिया। दोनों ने तुरंत भाँप लिया कि कोई तो है मेरी लाइफ में! तो उन्होंने बड़े अर्थपूर्वक मुझसे कहा कि इसके बारे में वो मेरे संपर्क में रहेंगी!
ख़ैर, पुराने दोस्तों के साथ शानदार समय बिताने के बाद, शाम को नियत समय पर घर पहुँचने के लिए मैं वापस आने लगा। मुंबई में अक्सर ही छोटी छोटी दूरियाँ भी लम्बी हो जाती हैं! वापस आने से पहले मैंने आभा के लिए, और सभी बच्चों के लिए उपहार भी लेता आया। न जाने किस प्रेरणा से लतिका के लिए काले रंग के बेहद सेक्सी अधोवस्त्र भी खरीद लाया - यह अच्छी तरह जानते हुए कि मैं उसको ये सब नहीं दे सकूँगा... देने की हिम्मत भी नहीं रहेगी... फिर भी! न जाने मन में क्या समाया! चोर चोरी से जाए, लेकिन हेरा फेरी से न जाए! लतिका को ले कर मेरे मन में एक चोर तो बैठ ही गया था अम्मा की बातें सुन कर!
घर आ कर देखा तो पाया कि पापा ने ‘जन्मदिन’ मनाने का सारा बंदोबस्त कर रखा था! सत्या जी आये हुए थे, और अपने साथ अपनी ही बेकरी से एक बड़ा सा और बहुत ही सुन्दर सा केक ले कर आए हुए थे। उनको देख कर याद आया कि कल उनके यहाँ भी जाना है - बिना उनके परिवार से मिले वापस दिल्ली नहीं जा सकते! माँ और अम्मा ने एक बार फिर से शानदार भोजन का बंदोबस्त कर रखा था। इन लोगों का बस चले तो पूरे मोहल्ले को खाना पका पका कर खिलाती रहें! न जाने हमारी माताएँ खाना पकाने से थकती क्यों नहीं! अब इस पार्टी का और क्या ज़िक्र करूँ? बस, बड़े आनंद से शाम बीती।
बड़ा सा केक था, और उस पर कुल मिला कर केवल तीन ही मोमबत्तियाँ लगी थीं - एक आभा, एक लतिका, और एक मेरे लिए! हम तीनों ने मिल कर केक काटा - पहले आभा ने चाकू पकड़ा हुआ था, लेकिन फिर उसने लतिका को पकड़ा कर, ज़िद कर के लतिका का हाथ मुझको पकड़ा कर, सबसे ऊपर अपना हाथ रखा! शरारती बच्ची! ख़ैर, उसने जो भी कुछ किया हो, मन में मेरे एक मीठी सी लहर - एक मीठी सी गुदगुदी होने लगी! बाप रे... जब किसी का रूप आपके मन में बदलने लगता है, तो कैसा अलग प्रभाव पड़ने लगता है!
ख़ैर, केक काटने के बाद मैंने सबसे पहले ससुर जी के पैर छू कर आशीर्वाद लिया।
“कीर्तिमान भव, यशस्वी भव, आयुष्मान भव...” उन्होंने आशीर्वाद दिया, और बोले, “अमर बेटे... इस सुन्दर मौके पर तुमको कुछ दे रहा हूँ, आदरपूर्वक ले लेना... मेरा आशीर्वाद है!”
“जी डैडी,” मैंने कहा, “आप आज्ञा करें!”
“सबसे अच्छा बेटा है मेरा...” उन्होंने कहा और थोड़ा ठहर कर बोले, “बच्चों, मैंने अपनी वसीयत लिख दी है...”
“अरे डैडी,” मैंने कहना शुरू किया।
“अरे सुनो तो...” उन्होंने कहा, “जया (जयंती दी) को बता दिया है इसके बारे में, इसलिए ये मत सोचना कि उसको किसी अँधेरे में रखा है,”
उनकी बातें सुन कर मुस्कुराए बिना नहीं रह सकते! बिलकुल ब्लैक एंड व्हाइट में बातें करते थे,
“आधा तुम्हारी दीदी (जयंती दी) के नाम लिखा है... उससे कम लिखता तो उसका हस्बैंड जान खा लेता...”
मुझको फिर से हँसी आ गई,
“और आधा आधा अपनी इन दोनों बेटियों - सुमन और काजल के नाम लिखा है!” उन्होंने माँ और अम्मा को देखते हुए कहा।
“बाबू जी!?” माँ और अम्मा दोनों एक साथ बोल पड़े।
“हमको आपके आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं चाहिए,” अम्मा ने कहा, “... आप हैं, तो सब है!”
“अरे पुत्रियों, ये सब अपने साथ थोड़े ही ले जाऊँगा! सब अपने बच्चों के लिए ही कमाया है... बनाया है, तो सब अपने बच्चों में ही बाँट रहा हूँ! ... लोग खाली हाथ जाते हैं, लेकिन मैं बड़ी ख़ुशी से कह सकता हूँ कि मैं अपने साथ तुम सभी का प्यार ले कर जाऊँगा!”
“बाबू जी,” अम्मा डैडी की बात पर दुःखी होते हुए, लगभग शिकायत करती हुई बोलीं।
“लेकिन...” उसी समय माँ बोलने लगीं, तो डैडी ने उनकी बात बीच में ही काट दी,
“बेटे, ये बताओ, अगर तुम्हारे पिता जी यही काम करते, तो यूँ बहस करती उनसे?”
“बाबू जी,” माँ की आँखें भी डबडबा आईं, “आपको अपने पिता से कम माना है कभी मैंने?”
“इसीलिए तो... जो कह रहा हूँ, चुपचाप मान लो!” फिर मेरी तरफ़ देख कर वो बोले, “... ये वसीयत है मेरी... ये तो हुआ जो चल संपत्ति है! अचल संपत्ति, मतलब मेरा मकान... वो, मैंने अमर बेटे... तुम्हारे...”
सुनते ही मेरा दिल धक् से कर गया!
जिस मकान की बात वो कर रहे थे, वो मकान नहीं, बंगला था! क़ीमत तो करोड़ों में थी, लेकिन उससे अधिक मूल्य उसका यह था कि वो उनका घर था। मेरी भी अनगिनत स्मृतियाँ उस स्थान से जुड़ी हुई थीं।
“... और लतिका बेटी के नाम कर दिया है!” वो कह रहे थे।
“व्हाट!” लतिका भी यह सुन कर आश्चर्यचकित रह गई, “लेकिन बाबू जी...”
“बहस नहीं बेटे... तुमने इतनी सेवा करी है मेरी! और इसको संपत्ति समझ कर मत स्वीकारो... समझो कि यह मकान मेरी निशानी है... जैसे मुझको सम्हाल रही हो न, वैसे ही इसको सम्हाल लेना!” फिर लतिका के सर पर हाथ फिराते हुए बोले, “मुझे मालूम है बच्चे, तू इसको अच्छे से सम्हाल लेगी!” कहते हुए ससुर जी का गला भर आया।
ऐसा बड़ा झटका लगा था मुझको, कि मुझसे हिला भी नहीं जा पाया कुछ देर तक, लेकिन लतिका ने उनको बहुत देर तक पकड़ के रखा। उसकी भी आँखों से आँसू आ गए। जब भावना का ज्वार घटा, तब उसने भी उनके पैर छू कर आशीर्वाद लिया। अपने बड़ों से मुझको इतना प्रेम मिलता है - तो किस बात की शिकायत करूँ, और किस मुँह से?
“नाना जी,” आभा ने ठुनकते हुए शिकायत कही, “मेरे लिए कुछ नहीं लाए?”
चलो, कम से कम इस भारी हो चले माहौल में कुछ हल्कापन तो आया!
“अरे है न तेरे लिए भी गिफ़्ट! ... मेरा तो सब कुछ मेरी मीठी मिष्टी बिटिया का ही तो है... लेकिन तू बड़ी तो हो जा!”
“नो,” उसने मुँह बनाया।
उसकी बात पर सभी की हँसी निकल गई! इसीलिए बच्चे होने आवश्यक हैं। उनके भोलेपन से आप कभी दुःखी नहीं रह सकते। उनके कारण रौनक बनी रहती है।
“अरे बाबा... सॉरी सॉरी,” ससुर जी ने कान पकड़ते हुए कहा, “अच्छा... ये लो!” और उसको चॉकलेट की एक थैली पकड़ा दी। उसको देखते ही आभा की बाँछे खिल उठीं!
“ये कॉन्टिनुएशन वाला गिफ्ट है मिष्टी बेटू...” उन्होंने कहा, “कल मैं और तुम आइसक्रीम खाने चलेंगे!”
“हाँSSS...” आभा ख़ुशी के मारे चहक उठी, “थैंक यू नाना जी!”
“यू आर वेलकम बेटा!”
सत्या जी भी हमारे लिए उपहार लाए थे... लिफ़ाफ़े में... लक्ष्मी जी वाला! उनसे मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे। अम्मा को सुख से, और प्रसन्न रखते थे, इसलिए मुझको उनके लिए बड़ा आदर आता था। और चूँकि थे तो वो भी मुझसे उम्र में बड़े ही, इसलिए मैंने उनके भी पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया। लतिका ने बड़े हक़ से ‘बापू... मेरे लिए क्या लाए?’ कह कर अपने हिस्से के गिफ़्ट की मांग करी।
हम लोगों को इतना कुछ मिल रहा था, तो हमारे नन्हे बच्चे कैसे पीछे रह जाते? तो मैं इसी मौके के लिए उनके लिए लाए गए उपहार, उनमें बाँटने लगा। बच्चों को अपने लिए नई वस्तु देख कर कभी मन नहीं भरता। बच्चों को उनके उपहार बाँटते समय उनके चेहरे पर ख़ुशी की रौनक देखते ही बन रही थी।
आभा अब अपने टीन-ऐज में प्रवेश कर गई थी, लेकिन वो भी अन्य बच्चों की ही भाँति, अपना उपहार पा कर ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी! छोटे बच्चों में ईगो नहीं होता, इसलिए वो हर बात का आनंद ले पाते हैं! माँ ने आभा को उपहार में एक बड़ा सा पैकेट दिया - आभा को लगा कि न जाने क्या गज़ब की चीज़ है उसमें! उसने बड़े उत्साह से पैकेट खोला, तो देखा कि उसमें कंप्यूटर मॉनिटर का बस डब्बा ही है! उसने निराशा में अपना थूथन निकाल लिया - जैसे अपने दादा-दादी से रूठ गई हो!
“दादी!” उसने शिकायत करते हुए कहा, “इतना बड़ा सा... और वो भी खाली डब्बा?”
“हा हा... अरे बेटू... अपना कंप्यूटर यहाँ से लाद के ले जाएगी क्या दिल्ली?” माँ ने उसको समझाया, “आर्डर प्लेस कर दिया है... घर पे डिलीवरी हो जाएगी तीन दिन बाद!”
“व्हाट!!!!?” उसने किलकारी मारते और बड़े उत्साह से चहकते हुए कहा, “मेरा कंप्यूटर? माय पर्सनल कंप्यूटर? वाआआआआओ! थैंक यू सो मच दादी माँ! थैंक यू सो मच!” और माँ से जा कर चिपक गई।
“दादी माँ की बच्ची...” पापा ने हँसते हुए कहा, “गिफ़्ट पा के अपने दादा जी को भूल गई?”
“नहीं नहीं... ऐसे कैसे दादू! आई लव यू सो सो सो मच!” कह कर वो पूरे लाड़ से पापा को चूमी!
“और ये रहा मेरी प्यारू बेटू के लिए... चोकी!” पापा ने एक चॉकलेट का पैकेट निकाल कर आभा को दे दिया।
हम सभी को मालूम था कि इसमें आभा को कम, और बाकी सभी बच्चों का अधिक हिस्सा लगेगा! लेकिन बच्चों के इसी खेल में तो हम बड़ों का आनंद है।
“थैंक यू सो मच दादू!” कह कर अभी ने पापा को फिर से चूम लिया।
“हाँ... इनको बस यही चाहिए!” माँ ने हँसते हुए कहा।
“अरे दुल्हनिया... और क्या चाहिए मुझको... मेरे बच्चे मेरे पास हैं, तुम हो मेरे पास! बस क्या!” पापा ने बिंदास तरीके से मुम्बईया स्टाइल में कहा।
उनके कहने के तरीके पर हम सभी हँसने लगे... और माँ के चेहरे पर ख़ुशी और शर्म की लाली फ़ैल गई। डैडी और सत्या जी के सामने इस तरह का रोमांटिक इज़हार पापा कम ही करते थे। लेकिन आज मौके पर उन्होंने चौका मार दिया था!
लतिका की तरफ़ मुखातिब होती हुई माँ बोलीं, “मेरी नटखट ननदिया,” माँ ने बड़े अर्थपूर्वक यह शब्द कहा, “इधर आ...”
“अरे वाह! ... मेरे लिए भी है क्या कुछ, बोऊ दी?” लतिका ने माँ को छेड़ते हुए कहा, “वैसे जो भी मिलना है, आप ही से मिलना है... आपके पतिदेव जी से कुछ भी मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं है... आप ही कुछ दे दें, तो...”
उनकी यह मीठी छेड़-छाड़, भोलेपन वाली नोंक-झोंक, माँ की पापा के साथ शादी के बाद हमेशा होती रहती थी। हम इसकी हक़ीक़त समझ गए थे, और उसको इग्नोर करना सीख गए थे! क्योंकि हमको मालूम था कि ये दिखावे की छेड़खानी है। केवल दो मिनट में पापा और ये दोनों पुच्ची पुच्ची करने लगेंगी, और हम सभी लोग उल्लू बन जाएँगे!
“अरे तेरे लिए भी है मेरे पास...” कह कर पापा ने अपनी जेब से एक चवन्नी निकाली, और लतिका की तरफ़ उछाल कर बोले, “ले... और ऐश कर...”
“अरे क्यों छेड़ता है उसको?” अम्मा ने कहा।
“अरे अम्मा, एक ही तो सयानी बहन है मेरी! इस नन्ही गार्गी को तो नहीं छेड़ सकता न...! अब मैं अपनी पुचुकी को भी न छेड़ूँ, तो किसको छेड़ूँ?” पापा ने हँसते हुए कहा और फिर जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर लतिका के हाथों में थमा दिया, “ले... अब ऐश कर!”
“थैंक यू दादा,” लतिका ने कहा, और पापा को चूम लिया, “... और छेड़ना है तो बोऊ दी हैं न!”
“पिटेगी तू अब...”
“हा हा... ये देखो... कभी तोला, तो कभी माशा! कभी अपने दादा की शिकायत करती है, तो कभी उनको प्यार... मेरे पास आने का मुहूर्त हो गया क्या? अगर हाँ, तो आ!” माँ ने हँसते हुए कहा।
जब लतिका माँ के पास पहुँची, तो माँ ने उसको एक हार पहना दिया। वो हार देख कर लतिका की आँखें चौड़ी हो गईं। उसको मालूम था उस हार का इतिहास! यह हार - अगर उसको हार कहा भी जाए तो - सोने की एक साधारण सी ज़ंजीर थी। उसमें कुछ मीनाकारी की गई थी, और सोने के ही कुछ बूटे लगे हुए थे। देखने में पुराना लगता था, क्योंकि पुराना था भी और उसकी डिज़ाइन भी पुरानी थी... थोड़ा गँवई! यह हार माँ ने साढ़े सैंतीस साल पहले, अपनी शादी के समय पहना था - तो एक तरह से यह हार मेरे नाना-नानी की आख़िरी भौतिक निशानी थी! हाँलाकि यह हार उस समय भी सस्ता था, और तो जाहिर सी बात है, कि इस समय भी वो सस्ता ही था। हार था तो सस्ता, लेकिन वो जिस बात को सूचित करता था, वो अमूल्य थी! माँ और लतिका दोनों के लिए! बस, मुझको ही समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है!
“बो...ऊ...दी...!!” वो विस्फारित आँखों से माँ को देखती हुई बुदबुदाई।
माँ ने मुस्कुराते हुए बस ‘हाँ’ में सर हिलाया और लतिका को अपने आलिंगन में कस के पकड़ लिया।
मुझे सब सुनाई नहीं दिया - बस इतना ही समझ आया कि शायद लतिका रो रही है। उसके शरीर में होने वाले आंदोलन उसी ओर इंगित कर रहे थे।
“थैंक यू मम्मा... थैंक यू सो मच!” वो बुदबुदाते हुए माँ से कह रही थी।
“थैंक यू बेटा!” माँ ने उसके माथे को चूमते हुए कहा, “हमेशा ख़ुश रहो... हमेशा सुखी रहो!”
लतिका माँ के पैरों पर झुक गई!
माँ के आँचल के तले उसको हमेशा केवल माँ का शुद्ध प्रेम ही मिला था। और आज भी उस प्रेम का स्वरुप बदला नहीं था। आज भी माँ ने उसको अपनी पुत्री के रूप में ही स्वीकारा था - उनके लिए पुत्रवधू और पुत्री में कोई अंतर नहीं था! कभी भी नहीं! खुद को ऐसे स्वीकारे जाने से लतिका का मन भर आया। उसको जी में आया कि वो ख़ुशी के मारे खूब रोए, लेकिन जब इतनी ख़ुशी होती है, तो हम न तो ठीक से रो सकते हैं, और न ही हँस सकते हैं!
“अरे मेरी बच्ची...” कहते हुए माँ ने उसको उसके कंधे पकड़ कर उठा लिया और फिर से अपने सीने से लगा कर बोली, “... रोना नहीं है कभी तुझे! ... मेरे रहते वो नौबत नहीं आएगी! समझी?”
मुस्कुराने की कोशिश करती हुई वो ‘हाँ’ में सर हिलाई।
फिर माँ मेरे पास आ कर बोलीं, “मैं तुमको क्या दूँ बेटे... बस यही आशीर्वाद देती हूँ कि तुम हमेशा ख़ुश रहो! ... दीर्घायु भव, यशस्वी भव! अपने कुल का नाम रोशन करो...”
“माँ... आपका आशीर्वाद ही तो चाहिए! आपके प्यार और आशीर्वाद का ही तो भूखा हूँ! ... आप लोग हैं, तो सब कुछ है!” मैं उनके पैर छूने को झुका कि माँ ने मुझको भी लतिका की भाँति पकड़ कर अपने सीने से लगाया, और मेरे कान में चुपके से कहा, “सोने के लिए सीधे हमारे पास आ जाना, समझा?”
मैंने फिर पापा के पैर छुए, “बेटा मेरा...” कहते हुए उन्होंने मुझको सीने से लगा लिया और बोले, “माँ सही कहती हैं बेटा... हम क्या दें तुमको! बस, हमारी सारी ख़ुशियाँ, हमारा सारा आशीर्वाद तुमको मिल जाए... यही ईश्वर से प्रार्थना है!”
वो बोले, फिर अपनी जेब से एक और लिफ़ाफ़ा निकाल कर मुझको देते हुए बोले, “... लेकिन बेटे, लक्ष्मी माता का आना शुभ होता है... ख़ास कर तब जब माँ बाप अपने बच्चों को दें!”
मैंने सहर्ष उनका आशीर्वाद ले लिया और अपनी जेब में डाल लिया।
अंत में हमने अम्मा के पैर छुए - वो भी हमारे लिए जन्मदिन के आशीर्वाद के लिए लिफ़ाफ़े में ‘लक्ष्मी माता’ रख के लाई थीं। बिना कोई बहस किए हमने वो स्वीकार कर लिया।
खाना पीना कर के हमने सत्या जी को विदा किया। कल उनके घर हम सभी जाने वाले थे... लिहाज़ा अम्मा और गार्गी कल विदा होते। उनके जाने के बाद ससुर जी, पापा, और मैं, हम सभी के लिए एक एक लार्ज पेग स्कॉच का बना कर, बालकनी में आराम से बैठ कर पीने लगे। माँ, अम्मा, और लतिका अन्य बच्चों को देखने और सुलाने की व्यवस्था करने लगीं। वैसे ये पापा की ड्यूटी होती है - बच्चों को कहानी सुना कर सुलाने की! कुछ देर में माँ ने पापा को आवाज़ लगाई, तो वो भी ‘गुड नाईट’ बोल कर उठ गए।
उनके जाने के बाद डैडी ने मुझसे कहा, “अमर बेटे... अपना परिवार देख कर बड़ा आनंद आता है! ... सुनील बेटे ने सुमन बिटिया को बड़े प्रेम से, बड़े आदर से रखा है!”
“जी डैडी...”
“तुम भी तो उससे कितना घुल-मिल गए हो... बड़ा अच्छा लगता है जब तुम उसको अपने पिता जैसा ही आदर देते हो!”
“लेकिन वो मेरे पिता हैं डैडी! ... जो जगह मेरे मन में आपके और डैड के लिए है, वही पापा के लिए भी है!”
“हाँ हाँ... इसीलिए तो कह रहा हूँ कि बड़ा अच्छा लगता है!” उन्होंने संतुष्ट हो कर कहा, “कभी सोच नहीं सकता था कि एक दिन मेरा इतना सुन्दर सा परिवार होगा!” वो कुछ देर रुके और फिर बोले, “बेटे... मैं जानता हूँ कि मेरी ज़िद के कारण तुम निराश हो...”
“नहीं डैडी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
“अरे बेटा... आई अंडरस्टैंड! माँ बाप के साथ रहने की इच्छा... मैं समझता हूँ! ... और ऊपर से लतिका बेटे ने भी मेरे ही कारण से यहाँ आने से मना कर दिया...”
“डैडी, फिर वही बात! लतिका ने जो किया, वो उसका आपके लिए प्यार है! ... उसका आपके लिए रेस्पेक्ट है! वैसे भी, वो एडल्ट है... अपने निर्णय लेने का उसको पूरा अधिकार है!”
“हाँ हाँ... बिल्कुल है... मैं वो नहीं कह रहा हूँ,”
“तो अपने आप को इन सब बातों के लिए दोष मत दीजिए! आप हमारी जड़ हैं! आपसे दूर हम नहीं जाना चाहते हैं! ... पॉसिबल हुए, तो पापा और माँ दिल्ली भी आ कर रह सकते हैं!”
“हाँ बेटे... वाह! तुम्हारे मुँह में घी शक्कर! ... अगर ऐसा हो सके, तो क्या आनंद रहे! अगर सुमन बिटिया और सुनील बेटा दिल्ली आ कर रह सकें... तो क्या आनंद रहे!”
“हाँ डैडी! ... मेरा भी बहुत मन है कि हम सब साथ साथ रह सकें! ... मन नहीं लगता... किसी एक के भी जाने से!”
“हाँ न... और मुझको देखो! बूढ़ा हो गया हूँ, इसलिए बहुत बदल नहीं सकता। ... लेकिन मन तो मेरा भी यही करता है न कि तुम सब मेरे पास रहो!”
कुछ समय पहले ही मैं मन ही मन कोई जुगत सोच रहा था कि ससुर जी को किसी तरह से मुंबई आने के लिए मना लिया जाए; या फिर लतिका को! इन दोनों की ज़िद के आगे मैं अपने माँ बाप से अलग रहने पर मजबूर था! यह विचार आ ही गया। लेकिन फिर तुरंत ही अगला विचार आया, कि ये लोग भी अपने हैं - दोनों का ही मेरे जीवन पर अमिट प्रभाव तो था ही। लेकिन डैडी की बात सुन कर मुझे लगा कि वो भी हमारे साथ ही रहना चाहते थे, लेकिन दिल्ली छोड़ना उनके लिए संभव नहीं था।
“आई नो डैडी... कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकलेगा! मुझे भी बड़ा अच्छा लगता है सोच कर कि हम सभी साथ में रह सकेंगे! ... बस यही सोचता हूँ आज कल!” मैंने कहा, “... मैं पापा और माँ से बात कर के देखता हूँ। ऐसा नहीं हो सकता कि दिल्ली में उनके लिए कोई काम ही न हो! ... कितनी सारी इंटरनेशनल कम्पनियाँ थीं यहाँ... आई ऍम श्योर कि पापा को बड़े आराम से बढ़िया जॉब मिल सकती है!”
“हाँ बेटे... बात करो! ... अच्छा, अब सो जाता हूँ! थोड़ी थकावट हो गई है!”
कह कर ससुर जी अपने कमरे में चले गए। मैं वहीं बालकनी में बचा रह गया! झिलमिल रौशनी में रात की ख़ामोशी (जितनी मुंबई में संभव थी) बड़ी भली लग रही थी! स्कॉच सिप करते करते मैं सोच रहा था कि हम सब साथ में रहेंगे, तो कैसा रहेगा? लतिका के साथ कैसा रहेगा? उसके साथ अपना परिवार बनाना कैसा रहेगा इत्यादि!
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रात में अब मां चीजों को और क्लियर करेंगी।
सुंदर अपडेट।
ये सही है की बड़ों को इस उमर में अपनी जड़ों में ही रहने दिया जाय।
आप प्रेम के जादूगर हे । कितना प्यार भरा हे आपमें .कैसे लिख लेते हे आप। इस कहानी में अमर की हर लव स्टोरी को जिस तरह आपने बढ़ाया हे वो बेमिसाल हे। आप मेरे आदर्श हे प्यार के मामले में। में ईर्ष्या करती हु आपसे
Me kabhi apko apne khilaf nhi manti Apne mujhe bahut sneh Diya he or margdarshan bhi kiya he.prem kesahi mayne apse samjhe he aap mere guru he jo mujhe samjhate he .bhabhi or bachhe thik hongeजूही, मैंने शुभम की कहानी के पेज पर जो लिखा, वो आपके खिलाफ़ नहीं था। न तो मैंने बुराई करी, और न ही बढ़ाई।
जानता हूं कि यहां उपस्थित महा-ढीले लोगों के कारण पाठिकाएं सुकून से कमेंट भी नहीं कर पातीं।
इस कहानी को प्यार देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका। साथ बनी रहिए -- जल्दी ही खतम हो जाएगी ये कहानी, लेकिन कुछ नए रंग जरूर दिखाएगी।
वैसे ईर्ष्या करने की क्या वजह है? मैंने ऐसा क्या कर दिया!!