- 4,193
- 23,426
- 159
Last edited:
बहुत बहुत धन्यवाद मेरे भाई!
दुखदन जाने कैसे इस कहानी से किसी को भी इन्सेस्ट वाली शिक्षा मिल सकती है! कमाल ही है!
कोई बात नहीं भैया, कहानी तो आप अच्छी गति से बढ़ा रहे हैं आगे।इस कहानी को पर्याप्त समय न दे पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
वाह, फिर तो मौज हो जाएगी।एक लम्बा अपडेट देने वाला हूँ, इसलिए समय लग रहा है।
आराम से लिखिए, कोई जल्दी थोड़े ना है अपने को।एक अपडेट लिखा था, लेकिन कहानी जिस तरह से बदली है, वो बेकार हो गया।
कुछ दिन मैं आपके इस पन्ने से दूर क्या रहा कहानी को कुछ दूर तक आप ले आए हैं
जहां अमर को सुनील के द्वारा यह मालुम पड़ा कि लतिका की भी ख्वाहिश है अमर से विवाह करने की
लतिका के प्रति हालात और उसे अम्मा और माँ ने एक तरह से आसक्ति जगा दी है कि उसके भीतर अब भावनायें उमड़ने लगे हैं
लतिका का छत पर अंधेरे में अमर से घुमा फ़िरा कर बात करना बहुत ही बढ़िया रहा
अब लगता है कहानी बहुत जल्द निर्णायक मोड़ लेने वाली है
प्रतीक्षा रहेगी अगले अपडेट के लिए
बहुत सुंदर, जयंती और अमर के बीच का संवाद...अचिन्त्य - Update # 15
अगला दिन अम्मा के यहाँ जाने, और फिर वापस आ कर दिल्ली जाने की व्यस्तता में ही बीता।
पहले तो अम्मा के यहाँ इतना आनंद आया कि उनके घर से निकलने का मन ही नहीं कर रहा था - ये केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सभी का ही हाल था। अपनी बात कहूँ, तो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसके दो कारण थे - एक तो यह कि सभी को छोड़ कर जाने में दिल बैठा जा रहा था, और दूसरा यह कि लतिका को ले कर मुझको जो नया संज्ञान मिला था, उससे दो चार होना आसान काम नहीं था! जब कोई अचानक ही आपका ‘लव इंटरेस्ट’ बन जाता है, तब उसके साथ अचानक ही सब कुछ बदल जाता है! उसको देखने का नज़रिया, उसकी बातों का असर... सब कुछ! यहाँ सभी लोगों की उपस्थिति में लतिका से बातें कर पाना आसान था; लेकिन कल जब हम दिल्ली में होंगे, तब? तब कैसे बात करूंगा उससे? हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी कैसी होगी? यह तो पता ही था कि अब लतिका और मेरे बीच सब कुछ बदल गया है, लेकिन फिर भी एक उधेड़बुन तो बनी ही हुई थी मेरे मन में! रात का कुछ समय सामान पैक करने में बीत गया। मिष्टी शाम से ही सभी से रूठी हुई थी - जैसे सभी उसके गुनहगार हों! बच्चों को प्यार मिलता है, तो वो और प्यार की तलाश करने लगते हैं। उसका दोष भी क्या हो? कमोवेश यही हाल, आदित्य, आदर्श और अभया का भी था। बड़ी ‘बहन’ को ऐसे देख कर सभी बच्चे रोनी सूरत बना कर बैठे हुए थे। रात, बड़ी देर तक उनको बहलाने फुसलाने में ही बीत गई।
हम - ससुर जी, लतिका, आभा और मैं - सोमवार को सुबह सुबह की सबसे पहली फ्लाइट ले कर दिल्ली आ गए। मिष्टी और लतिका दोनों को पढ़ाई ज्वाइन करनी थी, और मुझको ऑफ़िस जाना था। हम चारों सीधा मेरे घर गए, और ससुर जी को आज यहीं पर रुक जाने को कहा। उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया - इधर उधर भागने से बेहतर था कि वो दो तीन दिन यहीं रुक जाते। जयंती दी और उनका परिवार अभी भी गोवा में ही था, इसलिए बेहतर था कि वो साथ ही रहते। कामवाली आ कर खाना पका देती उनके और सबके लिए, इसलिए उनका यहीं रहना ठीक था। वापस आ कर मन नहीं लग रहा था। इतना सुन्दर सप्ताहांत बीता था अपने परिवार के साथ कि वापस चले जाने का मन हो रहा था मेरा। लेकिन क्या करें, काम करना भी तो ज़रूरी है!
*
अगले कुछ सप्ताह पंख लगा कर उड़ गए!
लतिका का आम व्यवहार बहुत नहीं बदला! कुछ बातें अवश्य ही बदल गईं। उसके अंदर मुझको ले कर जो थोड़ी बहुत झिझक थी, वो जाती रही। दिनचर्या उसकी अभी भी पहले ही जैसी थी, लेकिन मेरे साथ, उसका व्यवहार अब पहले से अधिक आश्वस्त हो गया था। उसके व्यवहार में एक ‘अधिकार-बोध’ दिखाई देने लगा था। अम्मा, माँ और पापा से हरी झण्डी मिलने के बाद उसको अपनी ‘पसंद’ पर भरोसा हो गया था। लिहाज़ा, अब वो मुझको शिष्ट और दबे-छुपे संकेत देने लगी थी। वो क्षण क्षण पर मंद मंद मुस्कान, कभी कभी बातों ही बातों में मुझको ‘गलती’ से छू लेना, पुनः वो थोड़े छोटे, और मनोहारी कपड़े, जैसे कि, मिडी स्कर्ट पहनना! घर में और रौनक रहने लगी! मेरे कपड़ों पर वो टिप्पणी भी करती कि मुझ पर ये वाला रंग अच्छा लगेगा; वो शर्ट अच्छी लगेगी; आज पैंट नहीं, जीन्स पहने इत्यादि! ये छोटे छोटे परिवर्तन ऑफ़िस में भी लोगों ने नोटिस किए। अच्छा लगता था। एक अलग ही तरह की तरंग और उमंग जीवन में आने लगी थी।
लेकिन शायद मैं ही था जिसको अपनी किस्मत पर भरोसा नहीं था। अभी भी सही दिशा ने किसी धक्के की आवश्यकता थी मुझको!
ऐसे में मैंने जयंती दी से किसी सप्ताहाँत मुलाक़ात करी। उन्होंने हमेशा की ही तरह मेरा हाल चाल लिया, और पुराने दिन याद किए। बातचीत के बहुत अंत में, और उनके बहुत कुरेदने पर, मैंने बहुत हिचकते हुए उनको बताया कि घर में सभी चाहते हैं कि मैं लतिका से शादी कर लूँ।
“पर तुम क्या चाहते हो?” दी ने दो-टूक शब्दों में मुझसे पूछा।
समझ नहीं आया कि मैं क्या उत्तर दूँ।
“दीदी... चाहता तो अब मैं भी हूँ कि मैं भी फिर से घर बसाऊँ... ख़ुश रहूँ...”
“लेकिन?”
“लेकिन... दीदी... डर लगता है अब!”
“किस बात से?”
“पहले गैबी... फिर डेवी... अब...”
“क्या तुमको इस बात का डर है कि उन दोनों के जैसे लतिका भी...” दीदी ने मेरे मन की बात कह दी।
मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“ओह बेटा...” दीदी ने दुःखी होते हुए मेरे हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, “ऐसे क्यों सोचते हो तुम? ... ठीक है... मान लिया कि कुछ समय के लिए तुम्हारी क़िस्मत ख़राब थी! ... लेकिन ये मान लेना कि क़िस्मत हमेशा खराब ही रहेगी, ये तो बड़ी बेवकूफ़ी वाली बात है न!”
ये तो मैं भी समझ रहा था।
“वैसे भी... अगर एक दिन के लिए भी सच्चा प्यार मिले न, तो ख़ुशी ख़ुशी ले लेना चाहिए!”
“वही तो दीदी,” मैंने तुरंत कहा, “गैबी के बाद मैंने सोचा भी नहीं था कि मुझको सच्चा प्यार फिर से मिलेगा... लेकिन फिर देवयानी मिली! ... दो दो बार मिला है मुझको सच्चा प्यार!”
“दो बार मिला, तो फिर तीसरी बार क्यों नहीं मिल सकता? ... तुम बार बार खराब किस्मत, खराब किस्मत कहते तो रहते हो, लेकिन तुम ये भी तो सोचो न कि उस खराब किस्मत के दौरान ही तुमको दो दो बार सच्चा प्यार मिला है!” उन्होंने समझाते हुए कहा, “... गलत कह रही हूँ?”
“नहीं दीदी!”
“इसलिए ये सब मत सोचो... बेवकूफ़ी में भगवान के दिए उपहार मत ठुकराओ! ... लतिका बहुत अच्छी है! मैं कह रही हूँ... और मैं मिष्टी की सगी मौसी हूँ! ... मेरा भगवान जानता है कि पिंकी के जाने के बाद मैं उसको अपनी बेटी बना के पालना चाहती थी। ... लेकिन मैंने लतिका को देखा है... वो कितने डिवोशन से उसको पालती आई है, प्रभु! ... और ये तब से है, जब वो खुद इतनी छोटी सी थी! इतना प्यार, इतनी ममता, और इतनी कोमलता है उसके अंदर!”
मैंने कुछ नहीं कहा।
“अमर... बेटे... तुम... तुम्हारा परिवार... तुम्हारा नया परिवार... बाहर से देखने वालों के लिए अजीब हो सकता है, लेकिन उनमें इतना प्यार भरा हुआ है कि उनके सामने किसी बात का कोई मोल ही नहीं है! ... शायद इसीलिए तुमको भगवान ने इतना कुछ दिया है। इतना प्यार करने वाला परिवार हो किसी के साथ, तो उसको किस बात की कमी रह सकती है?”
मेरी आँखों से आँसू टपक पड़े।
“बस एक ही सदस्य की कमी है... तुम्हारे लिए वाइफ की! समझे? मिष्टी की चिंता न करो! लतिका के रूप में उसको उसकी माँ मिली चुकी है! कोई कमी है, तो बस तुम्हारी लाइफ में ही है।”
“आप सब हैं... क्या कमी है?”
“हर तरह का प्यार चाहिए न? इमोशनल... फिजिकल... तुम और पिंकी तो कितने एक्टिव थे! ... हेल्दी लाइफ के लिए हेल्दी सेक्स लाइफ तो होनी चाहिए ही न!”
उनकी बात सुन कर मेरे गाल शर्म से लाल हो गए। शायद दीदी को मेरी झिझक दिखाई दे गई। वो बोलीं,
“... पता है, एंड आई विल बी वैरी ऑनेस्ट विद यू... जब मैंने दीदी और सुनील की शादी की पॉसिबिलिटी की बात डैडी के मुँह से सुनी, तो बड़ा अजीब लगा था मुझको! ... ये बात सुन कर शायद तुमको बुरा भी लगे... एंड आई ऍम सॉरी फॉर दैट! क्योंकि मैं भी आम लोगों के ही जैसी थी... मुझे सुनील का प्यार, उसके प्यार की सच्चाई समझ ही नहीं आई! ... जब मैंने ये सब सुना, तो सोचा कि कोई टीनएज फंतासी होगी उसकी!”
अगर दीदी ने ये सब सोचा, तो क्या गलत किया? सभी यही सोच रहे थे! मैं भी तो गुस्सा हो गया था - क्षणिक ही सही, लेकिन गुस्सा तो हुआ ही था।
“... दीदी पर हँसी भी आई कि बुढ़ापे में क्या बेवकूफ़ी करने निकली है! ऐसा भी कहीं होता है भला? ... जिसको अपने बच्चे की तरह पाल पोस कर बड़ा किया, अब वो उसके बच्चे करेगी? मैं उनको समझाना चाहती थी कि ऐसी बेवकूफ़ी न करे वो... जग-हँसाई होगी! ... लेकिन अच्छा हुआ कि मेरे कुछ कहने या करने से पहले ही डैडी ने मुझको समझा दिया! ... जब डैडी ने मुझको समझाया, तब थोड़ा थोड़ा समझ में आया कि प्यार क्या होता है!”
ओह, तो मतलब ससुर जी को मुझसे पहले पता था पापा और माँ के प्यार के बारे में? क्या क्या छुपाया गया है मुझसे?
“... तब आई प्यार की समझ मुझे!” दीदी कह रही थीं, “... तब समझ में आया कि तुम्हारे और पिंकी के बीच क्या था! ... वैसा ही भोला, वैसा ही सच्चा प्यार तुम्हारे और गैबी के बीच भी रहा होगा! ... सोचो! इतने साल बाद मुझको समझ में आया कि प्यार क्या होता है... और कहने को मैं इतनी बड़ी हो गई थी! ... सच में, मैं तुम सभी से बहुत सीखती हूँ!”
दीदी कुछ पलों के लिए रुकीं, फिर बोलीं, “देयर इस अ रीज़न कि डैडी लतिका को अपनी बेटी मानते हैं... दीदी को और काजल को अपनी बेटी मानते हैं... शायद मुझको बुरा लगना चाहिए, लेकिन बुरा ही नहीं लगता मुझे! ... वो बेटियाँ ही तो हैं उनकी! ... केवल जन्म लेने से थोड़े ही रिश्ते बनते हैं... प्यार से निभाने से बनते हैं।”
कह कर वो थोड़ी देर के लिए चुप हो गईं। मैंने ही चुप्पी तोड़ी।
“तो मैं क्या करूँ दीदी?”
“सोच के प्यार मत करो बेटा! बस प्यार करो! ... भगवान ने तुमको एक और मौका दिया है... तो जैसे पहले किया था, बस वैसे ही, एक और बार प्यार करो! ... लतिका बहुत प्यारी है... बहुत! तुमको बहुत सुख देगी! और मेरा दिल कहता है कि तुम्हारे परिवार को, तुम्हारे नाम को बढ़ाने में उसका बड़ा रोल रहेगा!” दीदी ने मुस्कुराते हुए, और मेरे सर के बालों को बिगाड़ते हुए कहा।
मैं थोड़ा नर्वस हो कर मुस्कुराया।
“सबसे पहले तो एक्सेप्ट करो कि तुम भी उसको चाहते हो... फिर, उसको भी एहसास कराओ कि तुम उसको चाहते हो! अपने प्यार को परवान चढ़ने दो! ... खुश रहने का मौका मिला है, तो खुश होवो! समझे? ऑल द बेस्ट!”
*
भारत के चौंतीसवें राष्ट्रीय खेल दो साल पहले ही हो जाने चाहिए थे। लेकिन उनको अब तक पाँच बार टाला जा चुका था! कारण? वही पुराना... अपने देश की विश्वविख्यात समस्या! ये राष्ट्रीय खेल, झारखण्ड में होने थे, और वहाँ खेल संबंधी बुनियादी ढांचे, जैसे कि विभिन्न खेलों और प्रतियोगिताएं के लिए स्टेडियम, सड़क, प्रतियोगियों के लिए निवास इत्यादि, को पूर्व-निर्धारित तारीखों पर, समय पर, बनाया नहीं जा सका था। बार बार टलने के और निरंतर अनिश्चितता के कारण, और क्या खेल होंगे भी या नहीं, इन कारणों से कई शीर्ष स्तर के खिलाड़ियों ने इस बार इन खेलों में भाग न लेने का फैसला ले लिया था, जो कि बहुत अच्छी बात नहीं थी। अच्छी बात यह थी कि झारखण्ड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री ने इस बार वायदा किया था, कि इन खेलों में अब और देरी या और स्थगन नहीं होगा। वो राष्ट्रीय खेलों को अपने निर्वाचन की प्राथमिकता बनाना चाहते थे।
ऐसे में हमको भी लतिका की तैयारियों पर फ़ोकस करने में कठिनाई हो रही थी। कोई तय तारिख होती है, तो खिलाड़ी चाहते हैं कि जिस दिन प्रतियोगिता हो, उस दिन उनका सबसे बेहतरीन प्रदर्शन सामने आए - न उसके पहले, और न उसके बाद! ऐसे में अगर बार बार तारीख बदलती रहे, तो अपनी प्रैक्टिस कैसी करनी है, समझ नहीं आती! चोटिल होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। आखिरकार, हमें पता चला कि राष्ट्रीय खेल फरवरी में होंगे! अच्छी बात है! जब एक निश्चित समयरेखा होती है, तो खिलाड़ी अधिक फ़ोकस से काम करते हैं। लतिका भी खूब मेहनत करने लगी। बढ़िया बात यह भी थी कि उसके ग्रेजुएशन के फाइनल एक्साम्स खेलों के दो-तीन महीने बाद होंगे! मतलब किसी भी बात में नुकसान नहीं होना था।
मैं लतिका की तैयारियों में और अधिक सक्रिय हो गया। मैं उसके साथ दौड़ता; उसे चुनौती देता; और उसकी शारीरिक कंडीशनिंग में उसकी मदद करता! एक पर्सनल ट्रेनर और न्यूट्रिशन कोच भी रखा। हमारी मेहनत रंग ला रही थी, क्योंकि अब लतिका सौ मीटर की दौड़, बारह सेकण्ड में दौड़ने लगी थी! ये बहुत रोमाँच भरा परिणाम था! हमको और भी आनंद मिला, जब उसे दिल्ली सरकार से बताया गया कि वो विभिन्न दौड़ों में दिल्ली राज्य का प्रतिनिधित्व करेगी! क्या बात है!
*
आभा की जाड़ों की छुट्टियाँ हुईं, तो प्लान बना कि क्यों न कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चलें, छुट्टियाँ मनाने! आईडिया बड़ा अच्छा था। अब तो मुझको भी यूँ परिवार के साथ समय व्यतीत करने में बड़ा आनंद मिलता था। वो पहली जैसी भागम-भाग वाली भावना नहीं रह गई थी। बिज़नेस बढ़िया जम गया था; मेरी टीम बढ़िया थी - मुझ अकेले से कहीं अधिक क़ाबिल! तो उनके भरोसे छोड़ा जा सकता था सब कुछ!
अब चूँकि फ़रवरी में नेशनल गेम्स शुरू हो जाने वाले थे, और उसके लिए जो शिविर लगता, उसमें लतिका को हिस्सा लेना पड़ता। इसलिए ये छुट्टी बड़े अच्छे मौके पर आई थी। लतिका की कंडीशनिंग के लिए भी अच्छा था कि वो अपनी कमर-तोड़ ट्रेनिंग से थोड़ा ब्रेक लेती! ट्रेनिंग करते रहना ज़रूरी था, लेकिन शरीर को अपना बेस्ट परफॉरमेंस देने के लिए सही कंडीशन में होना आवश्यक है।
कहाँ जाएँ छुट्टी के लिए - इस बात पर आभा ने सुझाया कि क्यों न हम किसी बीच पर छुट्टियाँ मनाते हैं? ये भी अच्छा था - गरम जगह पर चोटिल होने की कम सम्भावना होती है; दिल्ली की हाड़-कंपाऊ ठण्ड से भी कुछ दिनों के लिए ही सही, लेकिन निज़ात मिलती है। सब ठीक था, लेकिन, मेरी हालत वही मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक वाली है [कोई पाठक इस मुहावरे को रिपोर्ट मत देना... इसमें साम्प्रदायिकता वाली कोई बात नहीं है]!
मैंने पापा को कॉल किया, कि मुंबई आ जाऊँ? तो उन्होंने कहा कि ज़रूर आ जाओ... लेकिन उन्होंने मुझको समझाया कि अगर इस ट्रिप में लतिका के साथ थोड़ा रोमांटिक होने का आईडिया है, तो क्यों न गोवा चलो? दो तीन कमरे किसी बढ़िया रिसोर्ट में बुक कर लेंगे, और मज़े करेंगे? उसके बाद अगर मन करे, तो मुंबई आ कर रहूँ! उनका आईडिया बढ़िया था। हम तीनों ने गोवा कभी देखा भी नहीं था, इसलिए सहमति बनी कि छुट्टियों के लिए वो एक अच्छी जगह थी! लिहाज़ा, हम तीनों नियत समय पर दिल्ली से गोवा के लिए रवाना हो गए।
*