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लो भाई हम आपके सफर में साथी हो गएनींव - शुरुवाती दौर - Update 1
मुझे यह नहीं पता कि आप लोगों में से कितने पाठकों को सत्तर और अस्सी के दशक के भारत - ख़ास तौर पर उत्तर भारत के राज्यों के भीतरी परिक्षेत्रों - उनके कस्बों और गाँवों - में रहने वालों के जीवन, और उनके रहन सहन के बारे में पता है। तब से अब तक - लगभग पचास सालों में - उन इलाकों में रहने वालों के रहन सहन में काफ़ी बदलाव आ चुके हैं, और अधिकतर बदलाव वहाँ रहने वाले लोगों की बेहतरी के लिए ही हुए हैं। मेरा जीवन भी तब से काफ़ी बदल गया है, और उन कस्बों और गाँवों से मेरा जुड़ाव बहुत पहले ही छूट गया है। लेकिन भावनात्मक स्तर पर, मैं अभी भी मज़बूती से अपनी भूमि से जुड़ा हुआ हूँ। मुझे उन पुराने दिनों की जीवंत यादें आती हैं। शायद उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अगर किसी का बचपन सुखी, और सुहाना रहता है, तो उससे जुड़ी हुई सभी बातें सुहानी ही लगती हैं! आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसकी बुनियाद ऐसी ही जगहों - कस्बों और गाँवों - में पड़ी। मैं आप सभी पाठकों को इस कहानी के ज़रिए एक सफ़र पर ले चलना चाहता हूँ। मैं हमारे इस सफ़र को मोहब्बत का सफ़र कहूँगा। मोहब्बत का इसलिए क्योंकि इस कहानी में सभी क़िरदारों में इतना प्यार भरा हुआ है कि उसके कारण उन्होंने न केवल अपने ही दुःख दर्द को पीछे छोड़ दिया, बल्कि दूसरों के जीवन में भी प्यार की बरसात कर दी। इस कहानी के ज्यादातर पात्र प्यार के ही भूखे दिखाई देते हैं, और उसी प्यार के कारण ही उनके जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। साथ ही साथ, सत्तर और अस्सी के दशक के कुछ पहलुओं को भी छूता चलूँगा, जो आपको संभवतः उन दिनों की याद दिलाएँगे। तो चलिए, शुरू करते हैं!
आपने महसूस किया होगा कि बच्चों के लिए, उनके अपने माँ और डैड अक्सर पिछड़े, दक़ियानूसी, और दखल देने वाले होते हैं। लेकिन सच कहूँ, मैंने अपने माँ और डैड के बारे में ऐसा कभी महसूस नहीं किया : उल्टा मुझे तो यह लगता है कि वो दोनों इस संसार के सबसे अच्छे, सबसे प्रगतिशील, और खुले विचारों वाले लोगों में से थे। आपने लोगों को अपने माता-पिता के लिए अक्सर कहते हुए सुना होगा कि वो ‘वर्ल्ड्स बेस्ट पेरेंट्स’ हैं! मुझे लगता है कि अधिकतर लोगों के लिए वो एक सतही बात है - केवल कहने वाली - केवल अपने फेसबुक स्टेटस पर चिपकाने वाली। उस बात में कोई गंभीरता नहीं होती। मैंने कई लोगों को ‘मदर्स डे’ पर अपनी माँ के साथ वाली फ़ोटो अपने फेसबुक पर चिपकाए देखी है, और जब मैंने एकाध की माँओं से इस बारे में पूछा, तो उनको ढेले भर का आईडिया नहीं था कि मदर्स डे क्या बला है, और फेसबुक क्या बला है! ख़ैर, यहाँ कोई भाषण देने नहीं आया हूँ - अपनी बात करता हूँ।
मेरे लिए मेरे माँ और डैड वाक़ई ‘वर्ल्ड्स बेस्ट पेरेंट्स’ हैं। अब मैं अपने जीवन के पाँचवे दशक में हूँ। लेकिन मुझे एक भी मौका, एक भी अवसर याद नहीं आ पाता जब मेरी माँ ने, या मेरे डैड ने मुझसे कभी ऊँची आवाज़ में बात भी की हो! डाँटना तो दूर की बात है। मारना - पीटना तो जैसे किसी और ग्रह पर हो रहा हो! माँ हमेशा से ही इतनी कोमल ह्रदय, और प्रसन्नचित्त रही हैं कि उनके अंदर से केवल प्रेम निकलता है। उनके ह्रदय की कोमलता तो इसी बात से साबित हो जाती है कि सब्ज़ी काटते समय उनको जब सब्जी में कोई पिल्लू (इल्ली) दिखता है, तो वो उसको उठा कर बाहर, बगीचे में रख देती हैं। जान बूझ कर किसी भी जीव की हत्या या उस पर कैसा भी अत्याचार उनसे नहीं होता। वो ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकतीं। डैड भी जीवन भर ऐसे ही रहे! माँ के ह्रदय की कोमलता, उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम् हिस्सा है। माँ को मैंने जब भी देखा, उनको हमेशा हँसते, मुस्कुराते हुए ही देखा। वो वैसे ही इतनी सुन्दर थीं, और उनकी ऐसी प्रवृत्ति के कारण वो और भी अधिक सुन्दर लगतीं। डैड भी माँ जैसे ही थे - सज्जन, दयालु, और अल्प, लेकिन मृदुभाषी। कर्मठ भी बड़े थे। माँ थोड़ी चंचल थीं; डैड उनके जैसे चंचल नहीं थे। दोनों की जोड़ी, वहाँ ऊपर, आसमान में बनाई गई थी, ऐसा लगता है।
मेरे डैड और माँ ने डैड की सरकारी नौकरी लगने के तुरंत बाद ही शादी कर ली थी। अगर आज कल के कानून के हिसाब से देखा जाए, तो जब माँ ने डैड से शादी करी तो वो अल्पवयस्क थीं। अगर हम देश के सत्तर के शुरुआती दशक का इतिहास उठा कर पढ़ेंगे, तो पाएँगे कि तब भारत में महिलाओं को चौदह की उम्र में ही कानूनन विवाह योग्य मान लिया जाता था [हिन्दू मैरिज एक्ट 1955]। माँ के माता-पिता - मतलब मेरे नाना-नानी - साधन संपन्न नहीं थे। वे सभी जानते थे कि वे माँ की शादी के लिए आवश्यक दहेज की व्यवस्था कभी भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए, जैसे ही उन्हें अपनी एकलौती बेटी के लिए शादी का पहला ही प्रस्ताव मिला, वैसे ही वे तुरंत ही उस विवाह के लिए सहमत हो गए। माँ के कानूनन विवाह योग्य होते ही मेरे नाना-नानी ने उनका विवाह मेरे डैड से कराने में बिलकुल भी समय बर्बाद नहीं किया। डैड उस समय कोई तेईस साल के थे। उनको हाल ही में एक सरकारी महकमे में क्लर्क की नौकरी मिली थी। सरकारी नौकरी, मतलब स्थयित्व, पेंशन, और विभिन्न वस्तुओं पर सरकारी छूट इत्यादि! छोटे छोटे कस्बों में रहने वाले मध्यमवर्गीय माँ-बापों के लिए मेरे डैड एक बेशकीमती वर होते। मेरी माँ बहुत सुंदर थीं - अभी भी हैं - इसलिए, डैड और मेरे दादा-दादी को वो तुरंत ही पसंद आ गईं थीं। और हालाँकि मेरे नाना-नानी गरीब थे, लेकिन फिर भी वे अपने समुदाय में काफ़ी सम्मानित लोग थे। इसलिए, माँ और डैड की शादी बिना किसी दहेज़ के हुई थी। उनके विवाह के एक साल के भीतर ही भीतर, मैं इस दुनिया में आ गया।
माँ और डैड एक युवा जोड़ा थे, और उससे भी युवा माता - पिता! इस कारण से उनको अपने विवाहित जीवन के शुरुवाती वर्षों में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। लेकिन उनके साथ एक अच्छी बात भी हुई - मेरे डैड की नौकरी एक अलग, थोड़े बड़े क़स्बे में थी, और इस कारण, उन दोनों को ही अपने अपने परिवारों से अलग रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। न तो मेरे दादा-दादी ही, और न ही मेरे नाना-नानी उन दोनों के साथ रह सके। यह ‘असुविधा’ कई मायनों में उनके विवाह के लिए एक वरदान साबित हुआ। उनके समकालीन, कई अन्य विवाहित जोड़ों के विपरीत, मेरे माँ और डैड एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त थे, और उनका पारस्परिक प्रेम जीवन बहुत ही जीवंत था। अपने-अपने परिवारों के हस्तक्षेप से दूर, वो दोनों अपने खुद के जीने के तरीके को विकसित करने में सफ़ल हो सके। कुल मिलाकर मैं यह कह सकता हूँ कि हम खुशहाल थे - हमारा एक खुशहाल परिवार था।
हाँ - एक बात थी। हमें पैसे की बड़ी किल्लत थी। अकेले मेरे डैड की ही कमाई पर पूरे घर का ख़र्च चलता था, और उनकी तनख्वाह कोई अधिक नहीं थी। हालाँकि, यदि देखें, तो हमको वास्तव में बहुत अधिक पैसों की ज़रुरत भी नहीं थी। मेरे दादा और नाना दोनों ने ही कुछ पैसे जमा किए, और हमारे लिए उन्होंने एक दो-बेडरूम का घर खरीदा, जो बिक्री के समय निर्माणाधीन था। इस कारण से, और शहर (क़स्बे) के केंद्र से थोड़ा दूर होने के कारण, यह घर काफ़ी सस्ते में आ गया था। घर के अधिकांश हिस्से में अभी भी पलस्तर, पुताई और फ़र्श की कटाई आदि की जरूरत थी। अगर आप आज उस घर को देखेंगे, तो यह एक विला जैसा दिखेगा। लेकिन उस समय, उस घर की एक अलग ही दशा थी। कालांतर में, धीरे धीरे करते करते डैड ने उस घर को चार-बेडरूम वाले, एक आरामदायक घर में बढ़ा दिया, लेकिन उसमें समय लगा। जब हमारा गृह प्रवेश हुआ, तब भी यह एक आरामदायक घर था, और हम वहाँ बहुत खुश थे।
आज कल हम ‘हेल्दी’ और ‘ऑर्गनिक’ जीवन जीने की बातें करते हैं। लेकिन मेरे माँ और डैड ने मेरे जन्म के समय से ही मुझे स्वस्थ आदतें सिखाईं। वो दोनों ही यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीने में विश्वास करते थे। इसलिए हमारे घर में प्रोसेस्ड फूड का इस्तेमाल बहुत ही कम होता था। हम अपने पैतृक गाँव से जुड़े हुए थे, इसलिए हमें गाँव के खेतों की उपज सीधे ही मिलती थी। दही और घी मेरी माँ घर में ही बनाती थीं, और उसी दही से मक्खन और मठ्ठा भी! माँ ख़ुद भी जितना हो सकता था उतना घरेलू और प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल करती थीं। खाना हमेशा घर का बना होता था, और खाना पकाने के लिए कच्ची घानी के तेल या घी का ही इस्तेमाल होता था। इन सभी कारणों से मैंने कभी भी मैगी या रसना जैसी चीजों को आजमाने की जरूरत महसूस नहीं की। बाहर तो खाना बस यदा कदा ही होता था - वो एक बड़ी बात थी। ऐसा नहीं है कि उसमे अपार खर्च होता था, लेकिन धन संचयन से ही तो धन का अर्जन होता है - मेरी माँ इसी सिद्धांत पर काम करती थीं। हाँ, लेकिन हर इतवार को पास के हलवाई के यहाँ से जलेबियाँ अवश्य आती थीं। गरमा-गरम, लच्छेदार जलेबियाँ - आहा हा हा! तो जहाँ इस तरह की फ़िज़ूलख़र्ची से हम खुद को बचाते रहे, वहीं मेरे पालन पोषण में उन्होंने कोई कोताही नहीं करी। हमारे कस्बे में केवल एक ही अच्छा पब्लिक स्कूल था : कोई भी व्यक्ति जो थोड़ा भी साधन-संपन्न था, अपने बच्चों को उस स्कूल में ही भेजता था। मैं बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि स्कूल के बच्चे ही नहीं, बल्कि उनके माँ और डैड भी एक-दूसरे के दोस्त थे।
उस समय उत्तर भारत के कस्बों की एक विशेषता थी - वहाँ रहने वाले अधिकतर लोग गॉंवों से आए हुए थे, और इसलिए वहाँ रहने वालों का अपने गॉंवों से घनिष्ठ संबंध था। यह वह समय था जब तथाकथित आधुनिक सुविधाएँ कस्बों को बस छू ही रही थीं। बिजली बस कुछ घंटे ही आती थी। कार का कोई नामोनिशान नहीं था। एक दो लोगों के पास ही स्कूटर होते थे। टीवी किसी के पास नहीं था। मेरे कस्बे के लोग त्योहारों को बड़े उत्साह से मनाते थे : सभी प्रकार के त्योहारों के प्रति उनका उत्साह साफ़ दिखता था। पास के मंदिर में सुबह चार बजे से ही लाउडस्पीकरों पर भजन के रिकॉर्ड बजने शुरू हो जाते थे। डैड सुबह की दौड़ के लिए लगभग इसी समय उठ जाते थे। माँ भी उनके साथ जाती थीं। वो दौड़ती नहीं थी, लेकिन वो सुबह सुबह लंबी सैर करती थीं। मैं सुबह सात बजे तक ख़ुशी ख़ुशी सोता था - जब तक कि जब तक मैं किशोर नहीं हो गया। मेरी दिनचर्या बड़ी सरल थी - सवेरे सात बजे तक उठो, नाश्ता खाओ, स्कूल जाओ, घर लौटो, खाना खाओ, खेलो, पढ़ो, डिनर खाओ और फिर सो जाओ। डैड खेलने कूदने के एक बड़े पैरोकार थे। उनको वो सभी खेल पसंद थे जो शरीर के सभी अंगों को सक्रिय कर देते थे - इसलिए उनका दौड़ना, फुटबॉल खेलना और कबड्डी खेलना बहुत पसंद था। हमारा जीवन बहुत सरल था, है ना?
बहुत बहुत धन्यवाद!Bahut hi shandaar update hai
Padh kar maja aa gaya
Dhanyawad
हा हा! स्वागत है भाई। उम्मीद है सफ़र शानदार रहेगा, और मज़ेदार भीलो भाई हम आपके सफर में साथी हो गए
धन्यवाद भाई। साथ बने रहें।zabardast updates.!! Hai bhai maza aa gaya