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Fantasy रहस्यमयी टापू MAZIC Adventure (Completed)

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--भाग(१६)

राजकुमारी सारन्धा की आंखें क्रोध से लाल थीं और उनसे अश्रुओं की धारा बह रहीं थीं, उनकी अन्त: पीड़ा को भलीभाँति समझकर नीलकमल आगें आई और सारन्धा को अपने गले लिया___
क्षमा करना बहन!आप कब से अपने भीतर अपार कष्ट को छिपाएँ बैठीं थीं और हम सब इसे ना समझ सकें, आपकी सहायता करने मे हम सब को अत्यंत खुशी मिलेगी, आप ये ना समझें की आपका कुटुम्ब आपके निकट नहीं हैं, हम सब भी तो आपका कुटुम्ब ही हैं,अब आप अपने अश्रु पोछ लिजिए और मुझे ही अपनी बहन समझिए,यहां हम सब भी शंखनाद के अत्याचारों से पीड़ित हैं,हम सब का पूर्ण सहयोग रहेगा आपके प्रतिशोध मे,आप स्वयं को असहाय मत समझिए,नीलकमल ने सारन्धा से कहा।।
धन्यवाद, बहन! और सबसे क्षमा चाहती हूँ जो अपने क्रोध को मैं वश मे ना रख सकीं,क्या करती? कोई मिला ही नहीं जिससे अपनी ब्यथा कहती,परन्तु आप सब जबसे मिले थे तो एक आशा की किरण दिखाई पड़ी कि आप लोग ही मुझे मेरे प्रतिशोध को पूर्ण करने मे सहयोग कर सकते हैं, सारन्धा ने सभी से कहा।।
तभी अघोरनाथ जी ने आगें आकर सारन्धा के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा___
इतनी ब्यथित ना हो बेटी! तुम्हारे कष्ट को मैं भलीभाँति समझ रहा हूँ, जो ब्यतीत हो चुका उसे भूलने मे ही भलाई हैं, आज से तुम मुझे ही अपना पिता समझों।।
इतना सुनकर सारन्धा ने अघोरनाथ जी के चरण स्पर्श कर लिए और अघोरनाथ जी ने सारन्धा को गले से लगा लिया।।
तब राजा विक्रम,सारन्धा के सामने आकर बोले__
क्षमा करें राजकुमारी, बहुत बड़ी भूल हुई मुझसे और आपसे एक बात और ज्ञात करना चाहूँगा कि अमरेन्द्र नगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के माता-पिता से आप कभी मिलीं हैं, राजा विक्रम ने सारन्धा से प्रश्न किया।।
नहीं, उन्होंने कहा कि उनके माता पिता का स्वर्गवास हो चुका हैं, राजकुमारी सारन्धा ने उत्तर दिया।।
तात्पर्य यह हैं कि आपसे भी उन्होंने ये राज छुपाया, राजा विक्रम बोले।।
तभी राजकुमार सुवर्ण बोले, क्या बात हैं मित्र! इतने समय से पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं, हम सबको भी तो ज्ञात हो कदाचित् बात क्या है?
तब राजा विक्रम बोले___
मित्र! सुवर्ण, जिस राजकुमार सूर्यदर्शन की बात राजकुमारी सारन्धा कर रहीं हैं, वो सच मे बहुत धूर्त और पाखंडी हैं, राजा विक्रम बोले।।
तो,मित्र ! क्या आप भी सूर्यदर्शन से भलीभाँति परिचित हैं, सुवर्ण ने विक्रम से पूछा।।
जी,हां! राजकुमार सुवर्ण,वो सूर्यदर्शन नहीं,क्षल-कपट की मूर्ति हैं, उसने ना जाने कितने लोगों के साथ क्षल किया हैं___
आप विस्तार से बताएं, सूर्यदर्शन के विषय मे,सुवर्ण ने कहा।।
हां,तो आप सभी सुने,सूर्यदर्शन के विषय मे और राजा विक्रम ने कहना प्रारम्भ किया___
मानसरोवर नदी के तट पर एक सुंदर राज्य था जिसका नाम बांधवगढ़ था,उस राज्य के वनों में वन्यजीवों की कोई भी अल्पता नहीं थीं, राज्य के वासियों को उन वन्यजीवों का आखेट निषेध था,नागरिक अपना भरण पोषण उचित प्रकार से कर सकें इसके लिए वहां के राजा मानसिंह ने उचित प्रबन्ध कर रखें थे,वैसे भी राज्य मे किसी भी प्रकार की कोई भी अल्पता नहीं थी,मानसरोवर नदी ही वहाँ की जीविका की मुख्य स्श्रोत थी,चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली थी।।
राजा सदैव नागरिकों की सहायता हेतु कुछ ना कुछ प्रयास करते रहते,उन्हें सदैव अपनी प्रजा अपनों प्राणों से भी प्रिय थीं,उनकी रानी विद्योत्तमा सदैव उनसे कहती की कि प्रजा के हित में उनका इतना चिंतन करना उचित नहीं हैं, इससें आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता हैं परन्तु महाराज कहते कि ये प्रजा तो मेरे पुत्र पुत्री समान हैं, भला इनके विषय मे चिंतन करने से मुझे क्या हो सकता हैं।।
ऐसे ही दिन ब्यतीत हो रहे थे,राजा के अब दो संतानें हो चुकी थीं,उन्होंने पुत्र का नाम विक्रम और पुत्री का ना संयोगिता रखा,उनकी दोनों संतानें अब यौवनावस्था मे पहुंच चुकीं थीं ।।
तभी राज्य में चारों ओर से वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं आने लगीं,राजा मानसिंह इन सूचनाओं से अत्यधिक ब्याकुल रहने लगे और उन्होंने इन सबके कारणों के विषय में अपनी प्रजा और राज्य के मंत्रियों से विचार विमर्श किया, परन्तु कोई भी मार्ग ना सूझ सका और ना ही किसी को कोई कारण समझ मे आया,ना गुप्तचर ही कोई कारण सामने ला पाए।।
तब राजा मानसिंह ने निर्णय लिया कि वो ही वन में वेष बदलकर रहेंगे और कारणों को जानने का प्रयास करेंगे,राजा मानसिंह ने कुछ सैनिको के साथ वन की ओर प्रस्थान किया और आदिवासियों का रूप धरकर वन मे रहने लगें,इसी तरह कुछ दिन ब्यतीत हो गए परन्तु कोई भी कारण सामने ना आ सका,अब राजा और भी गहरी सोंच मे डूबे रहते।।

अन्ततः एक रात्रि उन्होंने कुछ अनुभव किया कि कोई आकृति वायु में उड़ते हुए आई और एक वन्यजीव पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया,मृत पशु की त्वचा को शरीर से निकाला और पुनः वायु मे उड़ चला,मानसिंह ने अपने भाले से उस पर प्रहार किया, जिससे वो भयभीत हो गया और उसनें अपनी गति बढ़ा थी और वायु में अदृश्य हो गया, राजा उसके पीछे पीछे भागने लगे क्योंकि उस मृत पशु की त्वचा अदृश्य नहीं हुई थी और इस बार मानसिंह ने अपने बाण का उपयोग किया जिससे वो अदृश्य आकृति मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी,मानसिंह भागकर उस स्थान पर गए,तब तक वो आकृति अपना रूप ले चुकी थी, राजा ने शीघ्र अपने सैनिकों को पुकारा और उसे बंदी बनाने को कहा___
उसे बंदी बनाने के उपरांत मानसिंह ने उससे उसका परिचय पूछा___
कौन हो तुम? और यहां क्या करने आए थे,ऊंचे स्वर मे मानसिंह ने पूछा।।
मैं हूं दृष्टिबंधक (जादूगर)शंखनाद, मैं यहाँ वन्यजीवों का आखेट करने आया था और राजन तुम मुझे अधिक समय तक बंदी बनाकर नहीं रख पाओगे, अभी मेरी शक्तियों से तुम परिचित नहीं हो,एक बार मेरी दृष्टि जिस पर पड़ गई,इसके उपरांत उस पर किसी का भी अधिकार नहीं रहता और अब ये वन मेरा हैं इस पर मेरा अधिकार हैं,शंखनाद बोला।।
और कुछ समय उपरांत शंखनाद पुनः अदृश्य आकृति मे परिवर्तित होकर वायु में अदृश्य हो गया,मानसिह और उनके सैनिकों ने चहुँ ओर अपनी दृष्टि डाली परन्तु वो कहीं भी नहीं दिखा।।
परन्तु उस रात्रि के उपरांत वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं नहीं आईं,अब राजा मानसिंह भी निश्चिन्त हो गए थे कि कदाचित् शंखनाद के भीतर भय ब्याप्त हो गया हैं,इसलिए वन्यजीवों का आखेट करना उसने छोड़ दिया हैं।।
परन्तु यहीं राजा मानसिंह से भूल हो गई और वे पुनः राजपाट मे ब्यस्त हो गए,इसी बीच एक दिन राजकुमारी संयोगिता के लिए अमरेन्द्रनगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के विवाह सम्बन्ध का प्रस्ताव आया,राजा मानसिंह सहमत भी हो गए, परन्तु राजकुमार विक्रम बोले___
पिता श्री,मैं पहले अपने संदेह दूर कर लूं, इसके उपरांत आप विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करें,मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी और राजा मानसिंह ने अपनी सहमति विक्रम को दे दी।।
विक्रम वेष बदलकर अमरेंद्र नगर पहुंचा,वहां वो कुछ दिनों तक अपनी पहचान छिपाकर रहा,उसने पता किया कि सूर्य दर्शन एक कपटी व्यक्ति हैं, वो अपने पिता सत्यजीत को बंदी बनाकर स्वयं राजा बन बैठा और अब कुछ समय से शंखनाद से मित्रता कर ली हैं और उसने धूर्तता की सारी सीमाएं लांघ लीं हैं,उसका चरित्र भी गिरा हुआ हैं, दिन रात्रि मद मे डूबा रहता हैं, विक्रम समय रहते जानकारी ज्ञात कर सारी सूचनाएं लेकर महाराज मानसिंह के समीप पहुंचे।।
ये सब सुनकर मानसिंह अत्यधिक क्रोधित हुए,उन्होंने सूर्यदर्शन के विवाह प्रस्ताव को सहमति नहीं दी और इस कारण सूर्यदर्शन को अपने अपमान का अनुभव किया और उसने राजा मानसिंह से प्रतिशोध लेने की सोचीं।।
और एक रात्रि सूर्यदर्शन, शंखनाद के संग महाराज मानसिंह के राज्य बांधवगढ़ पहुंचा,शंखनाद ने बांधवगढ़ की प्रजा के घरों में अग्नि लगाना प्रारम्भ कर दिया, सारा राज्य अग्नि के काल में समाने लगा, प्रजा त्राहि त्राहि कर उठीं, अपने महल के छज्जे से प्रजा की ऐसी दशा देखकर राजा मानसिंह बिलख पड़े।।
उसी समय महल से बाहर आए,परन्तु उसी समय शंखनाद ने अपने अदृश्य रूप में उनका वध कर दिया,रानी बिलखती हुई राजन..राजन करते हुए उनके समीप आईं तब रानी पर प्रहार कर राजकुमारी संयोगिता को अपने साथ उठा ले गया।।
तब मैं राजकुमार विक्रम अपनी बहन संयोगिता की खोज में ना जाने कितने दिनों तक भटकता रहा, मुझे ये ज्ञात हुआ कि शंखनाद और सूर्यदर्शन ने ये षणयंत्र रचा था और शंखनाद ने संयोगिता को ले जाकर बांधवगढ़ की सीमा पर छोड़ दिया था और उसे वहां से शंखनाद के जादू से बने राक्षस ने तलघर में बंदी बना लिया हैं, मैं उस तलघर के अत्यंत समीप पहुंच गया तभी उसी समय मुझ पर किसी ने प्रहार किया और मैं मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा,इसके उपरांत आप सब मिले,उसके आगें की कथा तो आप सबको ज्ञात हैं।।
romanchak update ..vikram kahani suna raha hai sabko suryadarshan ki ki kaise usne hatya ki bandhavgadh ke maharaj aur maharani ki .
 
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भाग(१७)

इसका तात्पर्य है कि शंखनाद ने सबके जीवन को हानि पहुंचाई हैं,अब हम सबके प्रतिशोध लेने का समय आ गया है, शंखनाद और चित्रलेखा ने बहुत पाप कर लिए,अब उनके जीवन से मुक्ति लेने का समय आ गया है, अघोरनाथ जी क्रोधित होकर बोले।।
हां, बाबा! इतना पाप करके,इतने लोगों की हत्या करके अब तक कैसे जीवित है वो,बकबक ने कहा।।,
हां..बकबक,मैं भी यही सोच रहा था,सुवर्ण बोला।।
परन्तु, क्या हो सकता हैं अब,किसी के मस्तिष्क मे कोई विचार या कोई उपाय हैं,हम केवल सात लोंग हैं और शंखनाद इतना शक्तिशाली, हम किस प्रकार उसे पराजित कर सकते हैं, उसके साथ चित्रलेखा और सूर्यदर्शन भी हैं,हमें तो ये भी अभी ज्ञात नहीं कि सच मे चित्रलेखा के प्राण उस गिरगिट में हैं जो उसने अपने उस घर में छिपा रखा हैं, मानिक चंद बहुत ही अधीर होकर बोला ।।
आप!सत्य कह रहे हैं,मानिक चंद! इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं सूझ रहा हैं, सुवर्ण ने कहा।।
अब जो भी हो परन्तु अभी तो सूर्य अस्त हो चुका हैं और रात्रि होने वाली हैं, रात्रि भर के विश्राम के लिए कोई उचित स्थान खोजकर विश्राम करते हैं, प्रातःकाल उठकर विचार करेंगे कि आगें क्या करना हैं?राजकुमार विक्रम बोले।।
सब उचित स्थान खोजकर विश्राम करने लगे,आज अमावस्या की रात्रि थी इसलिए चन्द्र का प्रकाश मद्धम था,घना वन जहाँ केवल साँय साँय का स्वर ही सुनाई दे रहा था,यदाकदा किसी पंक्षी,झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता और झरने के गिरते हुए जल का स्वर कुछ उच्च स्वर से गिर रहा था,रात्रि का दूसरा पहर ब्यतीत हो चुका था,बकबक पहरा दे रहा था।।
एकाएक उसे पत्तों की सरसराहट का स्वर सुनाई दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे कोई रेंग रहा हैं, बकबक को भय का अनुभव हुआ, परन्तु कुछ समय पश्चात वो स्वर सुनाई देना बंद हो गया,बकबक ने सोचा होगा कोई वनीय जीव और वो पुनः निश्चिंत होकर पहरा देने लगा।।
तभी बकबक को अपने पैरों पर किसी वस्तु का अनुभव हुआ, वो कुछ सोंच पाता उससे पहले ही वो वृक्ष से उल्टा लटक चुका था और अब उसने बचाओं... बचाओ... का स्वर लगाना शुरू किया, उसका स्वर सुनकर सभी जागे और बकबक को छुड़ाने का प्रयास करने लगे,परन्तु तब तक वो सब भी वृक्षों के तनों से बांधे जा चुके थे, अंधकार होने से कुछ ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था,सब दुविधा मे थे कि ये सब क्या हो रहा हैं।।
तभी मानिक चंद क्रोधित होकर बोला__
मैंने कहा था ना बाबा ! कि शंखनाद अवश्य कुछ ऐसा करेगा कि हम सब विवश हो जाए और हमसे जीतने के लिए फिर उसने अपनी शक्तियां भेंजी हैं, जिससे हम अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सकें, जिससे वो हमारी विवशता का लाभ उठाकर हमारी हत्या कर सकें।।
हो सकता हैं कि ये शंखनाद का नहीं ,किसी और का कार्य हो,अघोरनाथ जी बोले।।एक संकट समाप्त नही होता कि दूसरा संकट आकर खड़ा हो जाता हैं, पता नहीं कौन सी अशुभ घड़ी थी जो मै इस द्वीप पर आया, मानिक चंद पुनः क्रोध से बोला।।
तभी एक प्रकाश सा हुआ और एक छोटा नर पिशाच प्रकट हुआ और सबके समक्ष आ खड़ा हुआ, जिसकी त्वचा लसलसी थी,जिसके कान का आकार बहुत बड़ा था ,नाक चपटी,हाथ पैर छोटे छोटे और पेट मटके के समान था,सबके समक्ष आकर उसने पूछा।।आप सब अभी किसके विषय में कह रहें थे___
तुम हो कौन?ये पूछने वाले,मानिकचंद गुस्से से बोला।।
कृपया,आप बताएं, कहीं आप दृष्टि बंधक(जादूगर) शंखनाद के विषय मे वार्तालाप तो नहीं कर रहें थे।।
परन्तु तुम कैसे जानते हो?शंखनाद को,सुवर्ण ने पूछा॥
क्योंकि शंखनाद हमारा भी शत्रु हैं, उस नर पिशाच ने कहा।।
परन्तु ,पहले ये बताओं कि तुम हो कौन?राजकुमार विक्रम ने पूछा।।
मैं इस स्थान के नरपिशाचों का राजा घगअनंग हूँ, मैं तो केवल अपना कर्तव्य कर रहा था,अपनी प्रजा की रक्षा करना मेरा धर्म हैं और मै तो केवल अपना धर्म निभा रहा था,आप सब को मेरे कारण इतना कष्ट उठाना पड़ा,उसके लिए मैं आप सबका क्षमाप्रार्थी हूं, घगअनंग बोला।।
यद्पि आपका परिचय पूर्ण हो गया हो महाशय तो कृपया, मुझ बंधक पर भी अपनी कृपादृष्टि डालें, कब तक ऐसे उल्टा लटका कर रखेगें मुझे, बकबक बोला।।
बकबक की बात सुनकर सब हंसने लगे।।
क्षमा करें, मान्यवर,मै तो भूल ही गया लीजिए अभी आप मुक्त हुए जाते। है, राजा घगअनंग बोले।।
और घगअनंग ने अपनी ताली बजाई और बहुत सी नर पिशाच सेना उपस्थित हो गई, राजा घगअनंग ने आदेश दिया कि सभी को मुक्त कर दिया जाए और सभी सैनिकों ने राजा घगअनंग के आदेश का पालन किया।।
सबके मुक्त हो जाने पर राजा घगअनंग ने अघोरनाथ जी से कहा___
कहिए, महाशय मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं?
बस,इतनी सी कि अगर शंखनाद के विषय में अगर आपको कोई जानकारी हो तो हमें दीजिए, जिससे हम सब का प्रतिशोध सरल हो जाए,अघोरनाथ जी ने घगअनंग से कहा।।
जी,अवश्य, किन्तु पहले आप सब हमारें निवास स्थान चलकर कुछ स्वल्पाहार करें, आप सबका स्वागत करने मे मुझे अत्यंत खुश मिलेंगी,घनअनंग बोले।।
आप इतना आग्रह कर ही रहें तो चलिए, आपके निवास स्थान चलते हैं, अघोरनाथ जी बोले।।
ये सब देखकर मानिक चंद बोला।।
ये क्या बाबा, इन सब पर आपने विश्वास भी कर लिया, इन्होंने हमसे छल किया तो ,पुनः बंदी बना लिया तो,मानिक चंद मन मे संदेह लाते हुए बोला।।
सालों हो गए, मानवों को देखते हुए, कपटी और सज्जन मे अन्तर कर सकता हूँ, मानिक बेटा,ये केश सूर्य के प्रकाश में श्वेत नहीं हुए हैं,अघोर नाथ जी ने मानिक चंद से कहा।।
और अघोरनाथ जी सभी के साथ घगअनंग के निवास स्थान की ओर चल दिएअभी रात्रि बीती नहीं थीं,मार्ग बहुत ही अंधकारमय था,तभी बकबक ने अपना प्रकाश वाला पत्थर निकाला, जिससे मार्ग मे प्रकाश फैल गया, सभी घगअनंग के निवास स्थान पहुंचे।।
बहुत ही सुंदर स्थान था,विशाल विशाल वृक्षों के तनों में छोटे छोटे घर स्थित थे,जो प्रकाश से जगमगा रहें थें, उनकी छटा ही निराली थी,उनकी शोभा देखते ही बन रही थी,जो एक बार देखें मोहित हो जाए।।सभी उस स्थान की निराली छटा देखकर मोहित हो उठे,बारी बारी से महिला नर पिशाचिनी आईं और सबका स्वागत किया, जो भी उनके पास खाने योग्य आहार था,उन्होंने उपस्थित किया, घगअनंग की प्रजा बहुत प्रसन्न थी,बहुत समय पश्चात उनके निवास स्थान पर अतिथि आएं थे,कुछ संगीत और नृत्य के भी कार्यक्रम भी किए गए, बहुत दिनों पश्चात् सारन्धा के मुख पर हंसी देखकर विक्रम भी प्रसन्न था।।
विक्रम बस सारन्धा को ही निहारे जा रहा था,उसकी दृष्टि केवल सारन्धा की ओर थी,उसकी ऐसी अवस्था देखकर, सुवर्ण ने विक्रम को छेड़ते हुए कहा___
और मित्र!आनंद आ रहा ना।।
और विक्रम ने हल्की हंसते हुए, दूसरी ओर मुख फेरते हुए सुवर्ण से कहा___
मित्र! आप भी,कैसी बातें कर रहें हैं?
हां...हांं..मित्र, ये प्रेम होता ही कुछ ऐसा हैं,आप कितना भी छुपाएं, सबको आपकी दृष्टि से ज्ञात हो ही जाता हैं, सुवर्ण ने विक्रम से कहा।।
सच,मित्र! मै सारन्धा से प्रेम करने लगा हूँ किन्तु उनकी ऐसी अवस्था देखकर अपने हृदय की बात कहना अच्छा नहीं लगा,विक्रम ने अपने हृदय की बात सुवर्ण को सुनाते हुए कहा।।
कोई बात नहीं मित्र! अभी राजकुमारी सारन्धा की मनोदशा स्थिर नहीं हैं, बहुत बड़ा आघात पहुंचा हैं उन्हें, समय रहतें, वो अवश्य ही आपके निश्छल प्रेम को समझने का प्रयास करेंगी, आप अकारण ही चिंतित ना हो,सुवर्ण ने विक्रम को सांत्वना देते हुए कहा।।
हांं,अवश्य ही ऐसा होगा, मुझे अपने प्रेम पर विश्वास हैं, विक्रम ने सुवर्ण से कहा।।
lovely update .shankhnad ke saare shatru ikattha ho rahe hai usse badla lene ke liye .
ab dekhte hai ghananangh ki kya kahani hai jo wo shankhnad se dushmani kar baitha hai .
 
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राजकुमारी सारन्धा की आंखें क्रोध से लाल थीं और उनसे अश्रुओं की धारा बह रहीं थीं, उनकी अन्त: पीड़ा को भलीभाँति समझकर नीलकमल आगें आई और सारन्धा को अपने गले लिया___
क्षमा करना बहन!आप कब से अपने भीतर अपार कष्ट को छिपाएँ बैठीं थीं और हम सब इसे ना समझ सकें, आपकी सहायता करने मे हम सब को अत्यंत खुशी मिलेगी, आप ये ना समझें की आपका कुटुम्ब आपके निकट नहीं हैं, हम सब भी तो आपका कुटुम्ब ही हैं,अब आप अपने अश्रु पोछ लिजिए और मुझे ही अपनी बहन समझिए,यहां हम सब भी शंखनाद के अत्याचारों से पीड़ित हैं,हम सब का पूर्ण सहयोग रहेगा आपके प्रतिशोध मे,आप स्वयं को असहाय मत समझिए,नीलकमल ने सारन्धा से कहा।।
धन्यवाद, बहन! और सबसे क्षमा चाहती हूँ जो अपने क्रोध को मैं वश मे ना रख सकीं,क्या करती? कोई मिला ही नहीं जिससे अपनी ब्यथा कहती,परन्तु आप सब जबसे मिले थे तो एक आशा की किरण दिखाई पड़ी कि आप लोग ही मुझे मेरे प्रतिशोध को पूर्ण करने मे सहयोग कर सकते हैं, सारन्धा ने सभी से कहा।।
तभी अघोरनाथ जी ने आगें आकर सारन्धा के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा___
इतनी ब्यथित ना हो बेटी! तुम्हारे कष्ट को मैं भलीभाँति समझ रहा हूँ, जो ब्यतीत हो चुका उसे भूलने मे ही भलाई हैं, आज से तुम मुझे ही अपना पिता समझों।।
इतना सुनकर सारन्धा ने अघोरनाथ जी के चरण स्पर्श कर लिए और अघोरनाथ जी ने सारन्धा को गले से लगा लिया।।
तब राजा विक्रम,सारन्धा के सामने आकर बोले__
क्षमा करें राजकुमारी, बहुत बड़ी भूल हुई मुझसे और आपसे एक बात और ज्ञात करना चाहूँगा कि अमरेन्द्र नगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के माता-पिता से आप कभी मिलीं हैं, राजा विक्रम ने सारन्धा से प्रश्न किया।।
नहीं, उन्होंने कहा कि उनके माता पिता का स्वर्गवास हो चुका हैं, राजकुमारी सारन्धा ने उत्तर दिया।।
तात्पर्य यह हैं कि आपसे भी उन्होंने ये राज छुपाया, राजा विक्रम बोले।।
तभी राजकुमार सुवर्ण बोले, क्या बात हैं मित्र! इतने समय से पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं, हम सबको भी तो ज्ञात हो कदाचित् बात क्या है?
तब राजा विक्रम बोले___
मित्र! सुवर्ण, जिस राजकुमार सूर्यदर्शन की बात राजकुमारी सारन्धा कर रहीं हैं, वो सच मे बहुत धूर्त और पाखंडी हैं, राजा विक्रम बोले।।
तो,मित्र ! क्या आप भी सूर्यदर्शन से भलीभाँति परिचित हैं, सुवर्ण ने विक्रम से पूछा।।
जी,हां! राजकुमार सुवर्ण,वो सूर्यदर्शन नहीं,क्षल-कपट की मूर्ति हैं, उसने ना जाने कितने लोगों के साथ क्षल किया हैं___
आप विस्तार से बताएं, सूर्यदर्शन के विषय मे,सुवर्ण ने कहा।।
हां,तो आप सभी सुने,सूर्यदर्शन के विषय मे और राजा विक्रम ने कहना प्रारम्भ किया___
मानसरोवर नदी के तट पर एक सुंदर राज्य था जिसका नाम बांधवगढ़ था,उस राज्य के वनों में वन्यजीवों की कोई भी अल्पता नहीं थीं, राज्य के वासियों को उन वन्यजीवों का आखेट निषेध था,नागरिक अपना भरण पोषण उचित प्रकार से कर सकें इसके लिए वहां के राजा मानसिंह ने उचित प्रबन्ध कर रखें थे,वैसे भी राज्य मे किसी भी प्रकार की कोई भी अल्पता नहीं थी,मानसरोवर नदी ही वहाँ की जीविका की मुख्य स्श्रोत थी,चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली थी।।
राजा सदैव नागरिकों की सहायता हेतु कुछ ना कुछ प्रयास करते रहते,उन्हें सदैव अपनी प्रजा अपनों प्राणों से भी प्रिय थीं,उनकी रानी विद्योत्तमा सदैव उनसे कहती की कि प्रजा के हित में उनका इतना चिंतन करना उचित नहीं हैं, इससें आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता हैं परन्तु महाराज कहते कि ये प्रजा तो मेरे पुत्र पुत्री समान हैं, भला इनके विषय मे चिंतन करने से मुझे क्या हो सकता हैं।।
ऐसे ही दिन ब्यतीत हो रहे थे,राजा के अब दो संतानें हो चुकी थीं,उन्होंने पुत्र का नाम विक्रम और पुत्री का ना संयोगिता रखा,उनकी दोनों संतानें अब यौवनावस्था मे पहुंच चुकीं थीं ।।
तभी राज्य में चारों ओर से वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं आने लगीं,राजा मानसिंह इन सूचनाओं से अत्यधिक ब्याकुल रहने लगे और उन्होंने इन सबके कारणों के विषय में अपनी प्रजा और राज्य के मंत्रियों से विचार विमर्श किया, परन्तु कोई भी मार्ग ना सूझ सका और ना ही किसी को कोई कारण समझ मे आया,ना गुप्तचर ही कोई कारण सामने ला पाए।।
तब राजा मानसिंह ने निर्णय लिया कि वो ही वन में वेष बदलकर रहेंगे और कारणों को जानने का प्रयास करेंगे,राजा मानसिंह ने कुछ सैनिको के साथ वन की ओर प्रस्थान किया और आदिवासियों का रूप धरकर वन मे रहने लगें,इसी तरह कुछ दिन ब्यतीत हो गए परन्तु कोई भी कारण सामने ना आ सका,अब राजा और भी गहरी सोंच मे डूबे रहते।।

अन्ततः एक रात्रि उन्होंने कुछ अनुभव किया कि कोई आकृति वायु में उड़ते हुए आई और एक वन्यजीव पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया,मृत पशु की त्वचा को शरीर से निकाला और पुनः वायु मे उड़ चला,मानसिंह ने अपने भाले से उस पर प्रहार किया, जिससे वो भयभीत हो गया और उसनें अपनी गति बढ़ा थी और वायु में अदृश्य हो गया, राजा उसके पीछे पीछे भागने लगे क्योंकि उस मृत पशु की त्वचा अदृश्य नहीं हुई थी और इस बार मानसिंह ने अपने बाण का उपयोग किया जिससे वो अदृश्य आकृति मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी,मानसिंह भागकर उस स्थान पर गए,तब तक वो आकृति अपना रूप ले चुकी थी, राजा ने शीघ्र अपने सैनिकों को पुकारा और उसे बंदी बनाने को कहा___
उसे बंदी बनाने के उपरांत मानसिंह ने उससे उसका परिचय पूछा___
कौन हो तुम? और यहां क्या करने आए थे,ऊंचे स्वर मे मानसिंह ने पूछा।।
मैं हूं दृष्टिबंधक (जादूगर)शंखनाद, मैं यहाँ वन्यजीवों का आखेट करने आया था और राजन तुम मुझे अधिक समय तक बंदी बनाकर नहीं रख पाओगे, अभी मेरी शक्तियों से तुम परिचित नहीं हो,एक बार मेरी दृष्टि जिस पर पड़ गई,इसके उपरांत उस पर किसी का भी अधिकार नहीं रहता और अब ये वन मेरा हैं इस पर मेरा अधिकार हैं,शंखनाद बोला।।
और कुछ समय उपरांत शंखनाद पुनः अदृश्य आकृति मे परिवर्तित होकर वायु में अदृश्य हो गया,मानसिह और उनके सैनिकों ने चहुँ ओर अपनी दृष्टि डाली परन्तु वो कहीं भी नहीं दिखा।।
परन्तु उस रात्रि के उपरांत वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं नहीं आईं,अब राजा मानसिंह भी निश्चिन्त हो गए थे कि कदाचित् शंखनाद के भीतर भय ब्याप्त हो गया हैं,इसलिए वन्यजीवों का आखेट करना उसने छोड़ दिया हैं।।
परन्तु यहीं राजा मानसिंह से भूल हो गई और वे पुनः राजपाट मे ब्यस्त हो गए,इसी बीच एक दिन राजकुमारी संयोगिता के लिए अमरेन्द्रनगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के विवाह सम्बन्ध का प्रस्ताव आया,राजा मानसिंह सहमत भी हो गए, परन्तु राजकुमार विक्रम बोले___
पिता श्री,मैं पहले अपने संदेह दूर कर लूं, इसके उपरांत आप विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करें,मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी और राजा मानसिंह ने अपनी सहमति विक्रम को दे दी।।
विक्रम वेष बदलकर अमरेंद्र नगर पहुंचा,वहां वो कुछ दिनों तक अपनी पहचान छिपाकर रहा,उसने पता किया कि सूर्य दर्शन एक कपटी व्यक्ति हैं, वो अपने पिता सत्यजीत को बंदी बनाकर स्वयं राजा बन बैठा और अब कुछ समय से शंखनाद से मित्रता कर ली हैं और उसने धूर्तता की सारी सीमाएं लांघ लीं हैं,उसका चरित्र भी गिरा हुआ हैं, दिन रात्रि मद मे डूबा रहता हैं, विक्रम समय रहते जानकारी ज्ञात कर सारी सूचनाएं लेकर महाराज मानसिंह के समीप पहुंचे।।
ये सब सुनकर मानसिंह अत्यधिक क्रोधित हुए,उन्होंने सूर्यदर्शन के विवाह प्रस्ताव को सहमति नहीं दी और इस कारण सूर्यदर्शन को अपने अपमान का अनुभव किया और उसने राजा मानसिंह से प्रतिशोध लेने की सोचीं।।
और एक रात्रि सूर्यदर्शन, शंखनाद के संग महाराज मानसिंह के राज्य बांधवगढ़ पहुंचा,शंखनाद ने बांधवगढ़ की प्रजा के घरों में अग्नि लगाना प्रारम्भ कर दिया, सारा राज्य अग्नि के काल में समाने लगा, प्रजा त्राहि त्राहि कर उठीं, अपने महल के छज्जे से प्रजा की ऐसी दशा देखकर राजा मानसिंह बिलख पड़े।।
उसी समय महल से बाहर आए,परन्तु उसी समय शंखनाद ने अपने अदृश्य रूप में उनका वध कर दिया,रानी बिलखती हुई राजन..राजन करते हुए उनके समीप आईं तब रानी पर प्रहार कर राजकुमारी संयोगिता को अपने साथ उठा ले गया।।
तब मैं राजकुमार विक्रम अपनी बहन संयोगिता की खोज में ना जाने कितने दिनों तक भटकता रहा, मुझे ये ज्ञात हुआ कि शंखनाद और सूर्यदर्शन ने ये षणयंत्र रचा था और शंखनाद ने संयोगिता को ले जाकर बांधवगढ़ की सीमा पर छोड़ दिया था और उसे वहां से शंखनाद के जादू से बने राक्षस ने तलघर में बंदी बना लिया हैं, मैं उस तलघर के अत्यंत समीप पहुंच गया तभी उसी समय मुझ पर किसी ने प्रहार किया और मैं मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा,इसके उपरांत आप सब मिले,उसके आगें की कथा तो आप सबको ज्ञात हैं।।
Very nice update bhai
 
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भाग(१७)

इसका तात्पर्य है कि शंखनाद ने सबके जीवन को हानि पहुंचाई हैं,अब हम सबके प्रतिशोध लेने का समय आ गया है, शंखनाद और चित्रलेखा ने बहुत पाप कर लिए,अब उनके जीवन से मुक्ति लेने का समय आ गया है, अघोरनाथ जी क्रोधित होकर बोले।।
हां, बाबा! इतना पाप करके,इतने लोगों की हत्या करके अब तक कैसे जीवित है वो,बकबक ने कहा।।,
हां..बकबक,मैं भी यही सोच रहा था,सुवर्ण बोला।।
परन्तु, क्या हो सकता हैं अब,किसी के मस्तिष्क मे कोई विचार या कोई उपाय हैं,हम केवल सात लोंग हैं और शंखनाद इतना शक्तिशाली, हम किस प्रकार उसे पराजित कर सकते हैं, उसके साथ चित्रलेखा और सूर्यदर्शन भी हैं,हमें तो ये भी अभी ज्ञात नहीं कि सच मे चित्रलेखा के प्राण उस गिरगिट में हैं जो उसने अपने उस घर में छिपा रखा हैं, मानिक चंद बहुत ही अधीर होकर बोला ।।
आप!सत्य कह रहे हैं,मानिक चंद! इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं सूझ रहा हैं, सुवर्ण ने कहा।।
अब जो भी हो परन्तु अभी तो सूर्य अस्त हो चुका हैं और रात्रि होने वाली हैं, रात्रि भर के विश्राम के लिए कोई उचित स्थान खोजकर विश्राम करते हैं, प्रातःकाल उठकर विचार करेंगे कि आगें क्या करना हैं?राजकुमार विक्रम बोले।।
सब उचित स्थान खोजकर विश्राम करने लगे,आज अमावस्या की रात्रि थी इसलिए चन्द्र का प्रकाश मद्धम था,घना वन जहाँ केवल साँय साँय का स्वर ही सुनाई दे रहा था,यदाकदा किसी पंक्षी,झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता और झरने के गिरते हुए जल का स्वर कुछ उच्च स्वर से गिर रहा था,रात्रि का दूसरा पहर ब्यतीत हो चुका था,बकबक पहरा दे रहा था।।
एकाएक उसे पत्तों की सरसराहट का स्वर सुनाई दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे कोई रेंग रहा हैं, बकबक को भय का अनुभव हुआ, परन्तु कुछ समय पश्चात वो स्वर सुनाई देना बंद हो गया,बकबक ने सोचा होगा कोई वनीय जीव और वो पुनः निश्चिंत होकर पहरा देने लगा।।
तभी बकबक को अपने पैरों पर किसी वस्तु का अनुभव हुआ, वो कुछ सोंच पाता उससे पहले ही वो वृक्ष से उल्टा लटक चुका था और अब उसने बचाओं... बचाओ... का स्वर लगाना शुरू किया, उसका स्वर सुनकर सभी जागे और बकबक को छुड़ाने का प्रयास करने लगे,परन्तु तब तक वो सब भी वृक्षों के तनों से बांधे जा चुके थे, अंधकार होने से कुछ ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था,सब दुविधा मे थे कि ये सब क्या हो रहा हैं।।
तभी मानिक चंद क्रोधित होकर बोला__
मैंने कहा था ना बाबा ! कि शंखनाद अवश्य कुछ ऐसा करेगा कि हम सब विवश हो जाए और हमसे जीतने के लिए फिर उसने अपनी शक्तियां भेंजी हैं, जिससे हम अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सकें, जिससे वो हमारी विवशता का लाभ उठाकर हमारी हत्या कर सकें।।
हो सकता हैं कि ये शंखनाद का नहीं ,किसी और का कार्य हो,अघोरनाथ जी बोले।।एक संकट समाप्त नही होता कि दूसरा संकट आकर खड़ा हो जाता हैं, पता नहीं कौन सी अशुभ घड़ी थी जो मै इस द्वीप पर आया, मानिक चंद पुनः क्रोध से बोला।।
तभी एक प्रकाश सा हुआ और एक छोटा नर पिशाच प्रकट हुआ और सबके समक्ष आ खड़ा हुआ, जिसकी त्वचा लसलसी थी,जिसके कान का आकार बहुत बड़ा था ,नाक चपटी,हाथ पैर छोटे छोटे और पेट मटके के समान था,सबके समक्ष आकर उसने पूछा।।आप सब अभी किसके विषय में कह रहें थे___
तुम हो कौन?ये पूछने वाले,मानिकचंद गुस्से से बोला।।
कृपया,आप बताएं, कहीं आप दृष्टि बंधक(जादूगर) शंखनाद के विषय मे वार्तालाप तो नहीं कर रहें थे।।
परन्तु तुम कैसे जानते हो?शंखनाद को,सुवर्ण ने पूछा॥
क्योंकि शंखनाद हमारा भी शत्रु हैं, उस नर पिशाच ने कहा।।
परन्तु ,पहले ये बताओं कि तुम हो कौन?राजकुमार विक्रम ने पूछा।।
मैं इस स्थान के नरपिशाचों का राजा घगअनंग हूँ, मैं तो केवल अपना कर्तव्य कर रहा था,अपनी प्रजा की रक्षा करना मेरा धर्म हैं और मै तो केवल अपना धर्म निभा रहा था,आप सब को मेरे कारण इतना कष्ट उठाना पड़ा,उसके लिए मैं आप सबका क्षमाप्रार्थी हूं, घगअनंग बोला।।
यद्पि आपका परिचय पूर्ण हो गया हो महाशय तो कृपया, मुझ बंधक पर भी अपनी कृपादृष्टि डालें, कब तक ऐसे उल्टा लटका कर रखेगें मुझे, बकबक बोला।।
बकबक की बात सुनकर सब हंसने लगे।।
क्षमा करें, मान्यवर,मै तो भूल ही गया लीजिए अभी आप मुक्त हुए जाते। है, राजा घगअनंग बोले।।
और घगअनंग ने अपनी ताली बजाई और बहुत सी नर पिशाच सेना उपस्थित हो गई, राजा घगअनंग ने आदेश दिया कि सभी को मुक्त कर दिया जाए और सभी सैनिकों ने राजा घगअनंग के आदेश का पालन किया।।
सबके मुक्त हो जाने पर राजा घगअनंग ने अघोरनाथ जी से कहा___
कहिए, महाशय मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं?
बस,इतनी सी कि अगर शंखनाद के विषय में अगर आपको कोई जानकारी हो तो हमें दीजिए, जिससे हम सब का प्रतिशोध सरल हो जाए,अघोरनाथ जी ने घगअनंग से कहा।।
जी,अवश्य, किन्तु पहले आप सब हमारें निवास स्थान चलकर कुछ स्वल्पाहार करें, आप सबका स्वागत करने मे मुझे अत्यंत खुश मिलेंगी,घनअनंग बोले।।
आप इतना आग्रह कर ही रहें तो चलिए, आपके निवास स्थान चलते हैं, अघोरनाथ जी बोले।।
ये सब देखकर मानिक चंद बोला।।
ये क्या बाबा, इन सब पर आपने विश्वास भी कर लिया, इन्होंने हमसे छल किया तो ,पुनः बंदी बना लिया तो,मानिक चंद मन मे संदेह लाते हुए बोला।।
सालों हो गए, मानवों को देखते हुए, कपटी और सज्जन मे अन्तर कर सकता हूँ, मानिक बेटा,ये केश सूर्य के प्रकाश में श्वेत नहीं हुए हैं,अघोर नाथ जी ने मानिक चंद से कहा।।
और अघोरनाथ जी सभी के साथ घगअनंग के निवास स्थान की ओर चल दिएअभी रात्रि बीती नहीं थीं,मार्ग बहुत ही अंधकारमय था,तभी बकबक ने अपना प्रकाश वाला पत्थर निकाला, जिससे मार्ग मे प्रकाश फैल गया, सभी घगअनंग के निवास स्थान पहुंचे।।
बहुत ही सुंदर स्थान था,विशाल विशाल वृक्षों के तनों में छोटे छोटे घर स्थित थे,जो प्रकाश से जगमगा रहें थें, उनकी छटा ही निराली थी,उनकी शोभा देखते ही बन रही थी,जो एक बार देखें मोहित हो जाए।।सभी उस स्थान की निराली छटा देखकर मोहित हो उठे,बारी बारी से महिला नर पिशाचिनी आईं और सबका स्वागत किया, जो भी उनके पास खाने योग्य आहार था,उन्होंने उपस्थित किया, घगअनंग की प्रजा बहुत प्रसन्न थी,बहुत समय पश्चात उनके निवास स्थान पर अतिथि आएं थे,कुछ संगीत और नृत्य के भी कार्यक्रम भी किए गए, बहुत दिनों पश्चात् सारन्धा के मुख पर हंसी देखकर विक्रम भी प्रसन्न था।।
विक्रम बस सारन्धा को ही निहारे जा रहा था,उसकी दृष्टि केवल सारन्धा की ओर थी,उसकी ऐसी अवस्था देखकर, सुवर्ण ने विक्रम को छेड़ते हुए कहा___
और मित्र!आनंद आ रहा ना।।
और विक्रम ने हल्की हंसते हुए, दूसरी ओर मुख फेरते हुए सुवर्ण से कहा___
मित्र! आप भी,कैसी बातें कर रहें हैं?
हां...हांं..मित्र, ये प्रेम होता ही कुछ ऐसा हैं,आप कितना भी छुपाएं, सबको आपकी दृष्टि से ज्ञात हो ही जाता हैं, सुवर्ण ने विक्रम से कहा।।
सच,मित्र! मै सारन्धा से प्रेम करने लगा हूँ किन्तु उनकी ऐसी अवस्था देखकर अपने हृदय की बात कहना अच्छा नहीं लगा,विक्रम ने अपने हृदय की बात सुवर्ण को सुनाते हुए कहा।।
कोई बात नहीं मित्र! अभी राजकुमारी सारन्धा की मनोदशा स्थिर नहीं हैं, बहुत बड़ा आघात पहुंचा हैं उन्हें, समय रहतें, वो अवश्य ही आपके निश्छल प्रेम को समझने का प्रयास करेंगी, आप अकारण ही चिंतित ना हो,सुवर्ण ने विक्रम को सांत्वना देते हुए कहा।।
हांं,अवश्य ही ऐसा होगा, मुझे अपने प्रेम पर विश्वास हैं, विक्रम ने सुवर्ण से कहा।।
fantastic update bhai
 
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Bahut hi behtarin kahani hai mitr 👏🏻👏🏻👏🏻
 
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भाग(१८)

घगअनंग जी के निवास स्थान पर सभी रात्रि को विश्राम करने लगें, तब घग अनंग जी बोले_____
मैं अब आप सब को शंखनाद के सभी रहस्यों से अवगत करवाता हूँ!!
जी,हम सब यही ज्ञात करना चाहते थे,आपका बहुत बहुत आभार रहेगा हम सब पर क्योंकि वनदेवी शाकंभरी की स्थिति बहुत ही दयनीय थी,जितने शीघ्र हमें शंखनाद के रहस्य ज्ञात होगें, उतने ही शीघ्रता से हम उनकी सहायता कर पाएंगे एवं हम जितने भी सदस्य हैं उनमें से सभी को शंखनाद ने कष्ट पहुँचाया हैं,अघोरनाथ जी बोले।।
जी,अब उस शंखनाद की मृत्यु निश्चित हैं, जो रहस्य मुझे ज्ञात हैं,मैं आपको बता देता हूँ और कुछ रहस्य आपको हमारा गुप्तचर उड़नछू बताएगा, तभी ज्ञात हो सकेगा कि उसे शंखनाद के किन किन रहस्यों के विषय में ज्ञात हैं,घगअनंग जी बोले।।
जी,कुछ तो मुझे भी ज्ञात हैं क्योंकि मै चित्रलेखा के निवास स्थान पर रह चुका हूँ, परन्तु आश्चर्य की बात है कि उसने मुझे कोई भी हानि नहीं पहुँचाई,मानिक चंद बोला।।
किन्तु, आप वहां रहकर क्या क्या ज्ञात कर पाएं, घगअनंग जी ने पूछा।।
यहीं कि चित्रलेखा के प्राण किसी बक्से मे गिरगिट के रूप में बंद हैं और वो बक्सा उसने तलघर मे कहीं छिपा रखा हैं और ये तो सबको ज्ञात हैं कि शंखनाद मानवों के हृदय से बना एक तरल पदार्थ बनाता हैं जिसे पीकर मृत्यु उसके निकट नहीं आती और सुंदर कन्याओं की त्वचा से बना एक प्रकार का पदार्थ बनाता हैं जो वो अपनी त्वचा पर लगाता हैं जिससे वो वृद्धावस्था मे नहीं पहुंच रहा हैं,मानिक चंद बोला।।
परन्तु ये अभी तक किसी को ज्ञात नहीं है कि शंखनाद के प्राणों को उसने किस स्थान और किसके भीतर सुरक्षित कर रखा हैं? घगअनंग जी बोले।।
ये तो सत्य हैं, परन्तु ज्ञात कैसे किया जाए? अघोरनाथ जी बोले।।
मै अभी अपने गुप्तचर उड़नछू को किसी सैनिक द्वारा बुलवाता हूँ, वो सच्चाई बता सकता हैं, अपने निवास स्थान मे विश्राम कर रहा होगा, घगअनंग जी बोले।।
और घगअनंग जी ने अपने एक सैनिक को भेजकर उड़नछू को बुलवा भेजा, उड़नछू बहुत ही गहरी निद्रा मे था और उसे अभी भी निद्रा ने घेर रखा था,घगअनंग जी के आदेश पर उसे विवशता वश आना पड़ा,उसनें सर्वप्रथम घगअनंग जी को प्रणाम किया और शीघ्र बुलवाने का कारण पूछा___
लगता हैं, उड़नछू,अभी निद्रा रानी ने तुम्हें घेर रखा हैं, घगअनंग जी ने पूछा।।
हां,महाराज! अभी मेरा विश्राम पूर्ण ही कहाँ हुआ हैं, इतने दिनों के उपरांत लौटा था कि कुछ क्षण विश्राम करूँगा, परन्तु आपने विश्राम ही कहाँ करने दिया,उड़नछू ने घगअनंग जी से कहा।।
इन सबके के लिए अब एक पल का भी बिलम्ब करना उचित नहीं हैं,उधर वनदेवी शाकंभरी संकट में हैं, कदाचित् तुम इन्हें शंखनाद के सभी रहस्य बता दो तो प्रातःकाल ही शाकंभरी की सहायता हेतु निकल पड़ेगे, घगअनंग जी ने उड़नछू से कहा।।
जी महाराज, शंखनाद बहुत ही धूर्त और पाखंडी हैं,ये तो मुझे भी ज्ञात हो चुका हैं कि वनदेवी शाकंभरी के जादुई पंखो को शंखनाद ने एक विशाल बरगद के वृक्ष के तने मे एक बक्से के भीतर छुपा रखा हैं और उस वृक्ष को जादुई बाधाओं द्वारा बांध रखा हैं,उस बांधा को तो कोई जादूगर ही तोड़ सकता हैं, उड़नछू बोला।।
थोड़ा बहुत जादू तो मुझे भी आता हैं, मैं भी कुछ दिन रहा था शंखनाद के साथ,तभी सीखा हैं लेकिन शंखनाद जितना श्रेष्ठ नहीं हूँ, राजकुमार सुवर्ण बोला।।
परन्तु उसने अपने प्राणों को किस स्थान और किसके अंदर छुपा रखा हैं, बकबक ने पूछा।।
तो सुनिए, जहाँ उसका निवास स्थान हैं, वहाँ एक जलाशय हैं, उस जलाशय के बीचोंबीच एक स्त्री की मूर्ति हैं और उस स्त्री के हाथों में एक पत्थर का उल्लू हैं उस उल्लू के भीतर ही शंखनाद के प्राण हैं, उड़नछू बोला।।
तो ये तो बहुत ही सरल हुआ,जो अच्छा तैराक होगा वो इस कार्य मे सफल होगा, राजकुमार विक्रम बोला।।
इतना भी सरल नहीं हैं, उस जलाशय में ना जाने कितने प्रकार की बाधाएं डाल रखीं हैं शंखनाद, जादू और तंत्र विद्या दोनों प्रयोग किया गया हैं इस कार्य में,उड़नछू बोला।।
तंत्र विद्या मे तो बाबा जैसा कोई नहीं और थोड़ा बहुत जादू तो मैं कर ही लूँगा परन्तु फिर भी शंखनाद से जीतने के लिए, इतनी शक्तियां और कहाँ से आएंगी,राजकुमार सुवर्ण बोला।।
एक उपाय और हैं,उड़नछू बोला।।
वो क्या? बकबक ने पूछा।।वो ये कि जलाशय के निकट ही शंखनाद के माता पिता की समाधियां बनी हैं और शंखनाद कभी भी उन्हें नहीं छूता, क्योंकि शंखनाद के माता पिता बहुत ही सात्विक विचारों के थे,उन्हें शंखनाद के ये सब कार्य पसंद नहीं थे इसलिए,वो उन समाधियों को नहीं छू सकता और अगर कभी भूलवश छू लिया तो भस्म हो जाएगा, उड़नछू बोला।।
ये तो बहुत अच्छी बात बताई,अघोरनाथ जी बोले।।
हां,बस मुझे इतना ही ज्ञात है महाराज, अब मैं विश्राम करने जाऊँ और मैं सोच रहा था कि मैं भी इनके साथ चला ही जाता हूँ, मेरे इन सब के साथ जाने से इनका कार्य थोड़ा सरल हो जाएगा, उड़नछू बोला।।
हां..हां. क्यों नहीं, उड़नछू, तुमने तो मेरे मन की बात कह दी,घगअनंग जी बोले।।
तो फिर सब अब विश्राम करते हैं,कल बहुत मेहनत करनीं हैं,मानिक चंद बोला।।
और सब विश्राम करने लगें, प्रातःकाल पंक्षियों के कलरव से सब जाग उठे और स्नान ध्यान करके गंन्तव्य की ओर निकल पड़े।।
उड़नछू बोला, बाबा! क्या हम छोटे मार्ग से चलें जिससे हम शीघ्रता से शाकंभरी वनदेवी के पास पहुंच सकते हैं।।
जैसा तुम्हें उचित लगें, उड़नछू, हम सब को तो वहीं बड़ा मार्ग ज्ञात हैं जहां से हम आए थें।।
परन्तु उस मार्ग में दो बाधाएँ हैं, उड़नछू बोला।।
वो क्या हैं?बकबक ने पूछा।।
रास्ते में एक जादुई बोलने वाला वृक्ष मिलेगा जिसके आंखें भी हैं और मुंह भी और वो हमसे पूछेगा कि कहाँ जाना हैं? तो हम सब को एक साथ उत्तर देना हैं कि शाकंभरी के पास नहीं जाना और कहीं भी चले जाएंगें, उड़नछू बोला।।
ये कैसा उत्तर हुआ भला! नीलकमल ने पूछा।।
क्योंकि वो वृक्ष हम से कहेगा, नहीं तुम्हें तो शाकंभरी के पास ही जाना होगा और अपनी शाखा से एक एक पत्ते हम सब को देंगा जिसे हमें आगें मिलने वाली चुडै़ल को देने हैं, वो उन जादुई पत्तो का उपयोग अपना जादुई काढ़ा बनाने में करती है, जिससे वो खुश हो जाएगी और हमेँ आगे जाने देगीं, उड़न छू बोला।।
अच्छा तो ये बात हैं, बकबक बोला।।
और सब आगे बढ़ चलें,चलते चलते उन्हें वहीं चेहरे वाला वृक्ष मिला।।
उस पेड़ ने कहा,ठहरो!!
तब उड़नछू ने अभिनय करते हुए कहा,कौन..कौन हैं वहाँ?
मैं...मैं हूँ यहाँ.. उस वृक्ष ने उत्तर दिया।।
मैं कौन? उड़नछू ने पुनः पूछा।।
मै जादुई वृक्ष,कहाँ जा रहे हो तुम लोग,?उस वृक्ष ने पूछा।।
हम लोग शाकंभरी वनदेवी से मिलने नहीं जाना चाहते,सबने एक साथ उत्तर दिया।।
लेकिन तुम लोगों को जाना पड़ेगा,ये मेरी आज्ञा हैं और ये रहेंं, मेरी शाखाओं के पत्ते,उस मार्ग पर तुम्हें एक चुडै़ल मिलेगी, ये पत्ते उसी को दे देना,उस वृक्ष ने कहा।।
सबने एक एक पत्ता उठा लिया और जादुई वृक्ष को धन्यवाद देकर आगें बढ़ चले।।
आगे जाकर मार्ग में उन्हें वहीं चुड़ैल काढ़ा बनाते हुए दिखी।।
उसने भी पूछा, तुम सब कहाँ जा रहे हो।।
उड़नछू ने कहा,हम वनदेवी शाकंभरी के पास जा रहे हैं,हमें कृपया जाने दे।।
ठीक है जाओ,मैने कब रोका हैं, बस तुम लोग मुझे वो पत्ते देदो,जो तुम्हें जादुई वृक्ष ने दिए हैं।।
सबने अपने अपने पत्ते उस चुडै़ल को दे दिए,चुडै़ल बहुत प्रसन्न हुई और सबको जाने दिया।।
कुछ समय तक उस मार्ग पर चलने के पश्चात् वो सब शाकंभरी वनदेवी के समीप पहुंच गए, शाकंभरी ने जैसे ही बकबक को देखा अत्यधिक प्रसन्न हुई।।
अच्छा नहीं किया आपने,शाकंभरी, आप इतने कष्ट में थीं और मुझे सूचित भी नहीं किया, बकबक ने शाकंभरी से शिकायत करते हुए कहा।।
मेरे निकट कोई भी नहीं था जिससे मैं तुम तक सूचना पहुंचा कर सहायता मांग लेतीं, ये सब आए इन्होंने मेरी ब्यथा सुनी,तब मैने इन्हें सब बताया।।
तो ये लो उड़ने वाले घोड़े का ताबीज इसे इसी क्षण पहन लो और तुम कहो तो आज रात्रि मे ही शंखनाद पर आक्रमण कर देते हैं, बकबक ने कहा।।
परन्तु क्या रात्रि का समय आक्रमण के लिए उचित रहेगा? राजकुमार विक्रम ने पूछा।।
हां..हां क्यों नहीं, अघोरनाथ जी बोल।।
परन्तु, अभी आप लोग बहुत थक चुके हैं, कुछ क्षण विश्राम करें,अर्धरात्रि के समय हम ये कार्य प्रारम्भ करेगें, शाकंभरी वनदेवी बोली।।
 

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भाग(१९)

शाकंभरी की बात सुनकर सब विश्राम करने लगें और अर्धरात्रि के समय सब जाग उठे,जिससे जो बन पड़ा वैसे अस्त्र शस्त्र लेकर शंखनाद से प्रतिशोध लेने निकल पड़े,वनदेवी शाकंभरी उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो गई अब उसने अपने लबादे को हटा दिया था,लबादा हटाते ही उसके शरीर से आते हुए प्रकाश ने सारे वन को जगमगा दिया।।
तभी अघोरनाथ जी बोले,पहले हम ये तो तय करें कि कौन कौन कहाँ कहाँ प्रवेश करेगा, इसके लिए हमे एक रणनीति बनानी होगी,मैं सोच रहा हूँ कि सर्वप्रथम हमें चित्रलेखा के निवास स्थान जाकर चित्र लेखा को समाप्त करना चाहिए, इसके लिए वहाँ राजकुमार सुवर्ण, वो इसलिए कि उन्हें जादू आता है, उनके साथ राजकुमार विक्रम क्योंकि वे बहादुर हैं और राजकुमारी सारन्धा जाएंगी।।
परन्तु ये सब वहाँ पहुंचेगे कैसे, बकबक ने पूछा।।
तभी शाकंभरी वनदेवी बोली, ये सब जाएंगें इस उड़ने वाले घोड़े से।।
हां! यही उचित रहेगा,बाबा अघोरनाथ जी बोले।।
तभी नीलकमल बोली,बाबा! मुझे भी जाने दीजिए।।
नहीं, पुत्री! नीलकमल, चित्रलेखा तुमसे भलीभाँति परिचित है और सुवर्ण का जाना इसलिए आवश्यक हैं कि उसे जादू आता हैं,अघोरनाथ जी बोले।।
और मै बाबा, मानिक चंद बोला।।
सब का अपना अपना कार्य होगा,तनिक सब धैर्य रखें, बाबा अघोरनाथ बोले।।
सुवर्ण, विक्रम और सारन्धा, अर्धरात्रि को ही उसी समय चित्रलेखा के निवास स्थान की ओर चल पड़े।।
घोड़ा तेज रफ्तार मे बादलों में उड़ता चला जा रहा था,सुवर्ण सबसे आगे,विक्रम और सारन्धा प्रतिशोध की ज्वाला आंखों मे भरे आगे बढ़ रहेंं थे,कुछ समय पश्चात् वो सब चित्रलेखा के निवास स्थान पहुँच गए, वो चित्रलेखा के निवास स्थान से उचित दूरी पर उड़ने वाले घोड़े के साथ उतरे।।





छिपते छिपाते वे सब वृक्षों की ओट और झाड़ियों से होते हुए,चुपके चुपके उसके निवास पर पहुंच गए, सुवर्ण ने अपने जादू से द्वार खोले,वे सब भीतर घुसे,अंदर बहुत ही अंधेरा था और चित्रलेखा कहीं भी नजर नहीं आ रही थीं, सबने चित्रलेखा को ढ़ूढ़ना शुरु किया।।

उन्होंने हर स्थान पर खोजने का प्रयास किया,किन्तु चित्रलेखा कहीं पर नहीं मिली,तभी उन्हें एक गुप्त द्वार दिखा,उन्होंने देखा कि वहाँ से नीचे जाने के लिए सीढियां हैं ,वे सब सावधानी के साथ नीचे उतरने लगे,उन्होंने जाकर देखा कि चित्रलेखा कुछ जादू करके तरल पदार्थ बना रही हैं और उसने उस बड़े से गिरगिट को अपने कंधे पर बैठा रखा था जिसमें उसके प्राण सुरक्षित थे,वो अपने कार्य मे इतनी बेसुध थी कि उसे उन सब के आने का क्षण भर भी संदेह ना हुआ और इसी समय का उन सबने लाभ उठाया।।





सबसे पहले सारन्धा ने चित्र लेखा पर जोर का वार किया, जिससें चित्रलेखा भूमि पर जा गिरी,विक्रम ने शीघ्रता से चित्रलेखा की जादुई किताब को अग्नि के सुपुर्द कर दिया, जिसे देखकर चित्रलेखा क्रोध से जल उठी,उसने नहीं.... के स्वर के साथ अपना एक जादुई वार किया, तब तक सारन्धा विक्रम और चित्रलेखा के मध्य आ चुकी थी,चित्रलेखा के इस वार से सारन्धा घायल हो कर धरती पर गिर पड़ी,तब तक सुवर्ण ने चित्रलेखा के जादुई पदार्थ से भरे हुए मटके को धरती पर उड़ेलकर मटके को फोड़ दिया, ये सब देखकर चित्रलेखा का क्रोध साँतवें आसमान पर पहुंच गया,अब वो ये सब सहन नहीं कर सकती थी,उसनें अपने जादुई शक्तियों का सहारा लेकर सुवर्ण पर वार किया, परन्तु सुवर्ण ने अपने जादू को इस कार्य में लाना प्रारम्भ कर दिया और विक्रम ने अपनी तलवार सम्भाल ली,चित्रलेखा ने अपने गिरगिट को (वातायन) खिड़की से बाहर भेजने का प्रयास किया परन्तु विक्रम ने अपनी तलवार से गिरगिट के दो टुकड़े कर डाले और तब तक टुकड़े करता रहा,जब तक की गिरगिट सूक्ष्म टुकड़ों मे ना विभाजित हो गया।।अब चित्रलेखा क्रोध से अपना संतुलन खो बैठी,उसने फिर जादुई शक्ति का वार किया, किन्तु इस बार सुवर्ण ने अपनी सारी शक्ति लगाकर ऐसा वार किया कि चित्रलेखा भस्म हो गई,सुवर्ण ने शीघ्रता से वहीं उपस्थिति अग्नि मे जिसमे चित्रलेखा अपना जादुई पदार्थ बना रही थीं,उसी अग्नि मे गिरगिट के रक्त से लथपथ टुकड़ों को डाल दिया, अब चित्रलेखा की जीवनलीला समाप्त हो चुकी थीं, परन्तु इन सब मे सारन्धा मूर्छित हो चुकी थीं।।
विक्रम ने सारन्धा को उठाने की कोशिश की परन्तु वह नहीं उठी,तब विक्रम ने अपनी तलवार सम्भाली और सुवर्ण से कहा___
मित्र! लगता हैं राजकुमारी सारन्धा की अवस्था अच्छी नहीं हैं, लगता हैं इन्हें गम्भीर क्षति पहुंची हैं, इन्हें तो बाबा ही स्वस्थ कर पाएंगे और चित्रलेखा तो इस संसार से जा चुकी हैं, अब ये शुभ सूचना हमें उन सबको भी देनी चाहिए,कदाचित् यहाँ अब अत्यधिक ठहरना हमारे प्राणों के लिए उचित ना होगा।।
हां ,मित्र! यही उचित रहेगा, आप राजकुमारी सारन्धा को गोद मे उठाइए,हम शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करते हैं, राजकुमारी सारन्धा भी मूर्छित हैं, इनका उपचार बाबा ही कर पाएंगे, राजकुमार सुवर्ण बोला।।
और सब बाहर आकर उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर चल दिए,कुछ समय पश्चात् वो सब शाकंभरी के पास पहुंचे और ये शुभ सूचना सुनाई।।
ये सूचना सुनकर, अघोरनाथ जी को बहुत कष्ट हुआ और कष्ट क्यों ना होगा, चित्रलेखा उनकी बेटी जो थीं, उनकी आंखों से दो बूंद आंसू भी ढ़ुलक पड़े,उनकी ऐसी अवस्था देखकर नीलकमल उनके निकट आकर बोली___
दुखी मत हों बाबा!आपने कहा था ना कि मैं भी आपकी ही पुत्री हूँ, बहुत विशाल हृदय हैं आपका जो आपने इतना बड़ा त्याग किया।।
हां,पुत्री! तुम और सारन्धा भी तो मेरी पुत्री हो,बाबा अघोरनाथ बोले।।
परन्तु बाबा! सारन्धा के प्राण इस समय संकट मे हैं, चित्रलेखा का जादुई वार उसने मेरे प्राण बचाने के लिए अपने ऊपर ले लिया, विक्रम ये कहते कहते रो पड़ा।।
तब सुवर्ण ने विक्रम को दिलासा देते हुए कहा,धैर्य रखो मित्र! राजकुमारी सारन्धा को कुछ नहीं होगा,
आशा तो यहीं हैं कि राजकुमारी को कुछ ना हो,राजकुमार विक्रम बोले।।
 
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