पहली बार रात में श्मशान का अनुभव, दिन की अपेक्षा कुछ अलग लग रहा था, रात में श्मशान कुछ ज्यादा ही शांत रहता है, छोटे-छोटे जन्तुओ की आवाज कुछ ज्यादा ही गहरा जाती है, हर समय ऐसा लग रहा था जैसे की कोई आस-पास ही है लेकिन कोई होता नहीं था, जैसे की कोई नजर रहा हो, जैसे की हवा भी कुछ कहना चाह रही हो लेकिन मुर्दों की ख़ामोशी में सब कुछ मौन रह जाता है !
‘झाड़ियो में कुछ हलचल-सी होती है,’
सप्तोश उस तरफ देखता है,
‘कोई उकडू बैठा हुआ था’
‘वही था’
‘हा’
‘ये वही बुड्ढा था’
‘लेकिन’
‘लेकिन, ये क्या’
स्प्तोश उसे देखकर इतना नहीं चौकता है जितना की उसके हाथ में कुछ देखकर ! उसके हाथ में एक मानव के हाथ का टुकड़ा था जो अभी-अभी खोदे गए छोटे से गड्ढे से पता चल रहा था की उस बुड्ढ़े ने उस हाथ को वही से निकला है !
वो पागल बुड्ढा बिना किसी और ध्यान दिए अपनी मस्ती में उस मानव हाथ को नोच रहा था, खा रहा था !
उस पागल का इतना वीभत्स रूप देख कर सप्तोश को जैसे की साप सूंघ लिया हो, खून जैसे जम सा गया हो ! एक पल के लिए जैसे वह भूल ही गया था की वह यहाँ इस रात को श्मशान में क्यों आया था !
उस बुड्ढ़े ने सप्तोश की तरफ देखा, दोनों की आख ने आख मिली, पागल उकडू बैठे-बैठे ही थोडा पीछे हटता है, उस मानव हाथ को अपने पीछे छिपा देता है जैसे की कोई बच्चा अपने खाने की वस्तु किसी के मांगने पर छुपा देता है ! फिर धीरे-धीरे वो पागल उस हाथ को सामने सप्तोश की तरफ करके बोलता है
“भूख लगी है, खओंगे”
इतना सुनते है सप्तोश का डर भंग होता है, अपने वस्तु-स्तिथि का बोध होते ही वह सहज होने की कोशिश करता है
“तुम हो कौन” सप्तोश सहज होते-होते बोलता है लेकिन उसकी नजर अभी-भी उस नोचे गए हाथ की तरफ थी !
“क्या”
“भूख नहीं लगी है”
“खाना नहीं चाहिए”
“तो क्यों आये हो”
“भागो यहाँ से”
“भागो”
वो पागल क्रोध से और उत्तेजित होते हुए सप्तोश पर चिल्लाता है और वहा से उछलते-कूदते हुए भाग जाता है !
जैसे ही वो पागल वहा से भागता है सप्तोश की तन्द्रा टूटती है और वो भी उस पागल का पीछा करने लग जाता है ! सप्तोश ने इस तरह का आदमी या पागल कभी नहीं देखा था जो उसे एक मास का टुकड़ा खाने का देगा और वो भी एक मानव-मास का !
बहुत देर हो गई लेकिन वो पागल बुड्ढा अभी तक नहीं मिला सप्तोश को ! वो सप्तोश के सामने से कब और किस तरफ भाग गया उसे पता ही नहीं चला ! रात्रि का अंतिम चरण चल रहा था ! आखिर सप्तोश ने हार मान ही ली ! वो वापस जाने के लिए चल पड़ा !
वापस उसी रास्ते चल पड़ता है जहा से उसने श्मशान में प्रवेश किया है ! भीखू डोम अभी-भी वही बैठे-बैठे बीडी पी रहा था, लेकिन सप्तोश उस पर ध्यान नहीं देते हुए उसके पास से बाहर निकल जाता है !
सप्तोश का दिमाग थोड़े समय के लिए सुन्न-सा पड़ गया था, लेकिन अब उसने अपनी हालात पर काबू पा लिया था और वापस सोच-विचार की क्षमता आ गई थी !
सप्तोश प्रौढ़ था, वह उम्र की अपनी उस दहलीज पर था जहा से लोग बूढ़े होने शुरू होने लगते है, लेकिन सप्तोश ने कुछ नया सीखने और जानने में अपनी उम्र को कभी बीच में नहीं लाया था, ३२ वर्ष की उम्र में उसने शिष्यत्व ग्रहण किया था, बीबी-बच्चे सब थे उसके पास !
‘लेकिन’
‘एक बार उसने कुछ देख लिया’
‘कुछ अलग’
‘अलौकिक’
‘जो एक बार कोई अलौकिक घटना को देख लेता है’
‘वो व्यक्ति अपने में नहीं रहता है’
‘अपने ही अस्तित्व से सवाल करने लगता है’
‘वापस उसी अलौकिक घटना को देखना चाहता है’
‘उसी अलौकिकता को महसूस करना चाहता है’
बस इसी प्रबल जिज्ञासा के कारण सब छोड़ दिया उसने !
‘अपना परिवार’
बीवी-बच्चे
बूढ़े माँ-बाप
सब कुछ !
बाबा बसोठा का शिष्यत्व के बाद उसने काफी कुछ घटनाये देखी ! उसकी जिज्ञासा शांत होने लगी लेकिन मिट नहीं गयी, वो कुछ महसूस करना चाहता था लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था की वो अभी तक क्या है जो उसे चाहिए, क्या है जो उसे उसके अधूरेपन का अहसास करवाती है !
लेकिन,
लेकिन कल से जो सब कुछ घटनाये हो रही थी उससे उसकी जिज्ञासा की लों धीरे-धीरे एक दावानल का रूप ले रही थी, उसने फिर ने जाना की इस प्रकति में और भी है, बहुत-कुछ है, जो उसे जानना है, समझना है, महसूस करना है, उसके मन में, छाती पर एक भारीपन आ चूका था जिसे हल्का करने के लिए वह चलते-चलते मुड जाता है एक रास्ते पर !
विचारो की उधेड़बुन में वो चलता जाता है लेकिन ये रास्ता मंदिर की तरफ नहीं जा रहा था,वो जा रहा था गाव के पच्शिम में ! जहा पर......