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Fantasy वो कौन था

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Little

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द्वितीय अध्याय



सुबह का समय, उषा काल की समाप्ति !

बहुद ही अद्भुत नजारा होता है ! सूर्य की लालिमा चारो तरफ बिखरी रहती है, वातावरण में नमी का अहसास मन को छुकर जा रही थी मानो ऐसा लग रहा हो जैसे एक माँ अपने प्यारे लाडले को ममता भरे स्पर्श से जगा रही हो ! उसी तरह माँ प्रकति भी अपनी संतान को हल्की-हल्की ठंडी वायु के स्पर्श से सबको अपने कर्म की और प्रेरित कर रही थी !

सूर्य भी मानो प्रकति के प्रेमवश अपनी किरणों से आखो को शीतलता प्रदान कर रहे थे, जंगलो से आ रही मोर की मीठी धुन कर्मचक्र के आगाज का शंखनाद कर रहे थे !

कद्पी की प्राकतिक सम्पदा थी ही बहुत निराली,

हा, कद्पी नाम ही था उस गाव का,

स्थानीय भाषा में सब उसको इसी नाम से पुकारते थे

वैसे सही नाम था उसका ‘कदर्पी’

अपने नाम के अनुरूप ही यह गाव अपने अन्दर बहुत सारे रहस्यों और ज्ञान का भंडार भरे हुए था,

लेकिन मनुष्य,

इस प्रकति में चंद समय का मेहमान,

अपने आपको ही इसका ईश्वर समझने लगता है,

बड़ा ही स्वार्थी,

कपट,

और बहुत से आडम्बरो के मध्य छुपा होता है ये,

जिनमे से एक था बाबा बसोठा,

अपने जीवन में बहुत से चल-कपट किये,

बहुत से राजा-महाराजो को अपने शब्दों के मायाजाल में फसाकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया था, वैसे था भी वो बहुत शक्तिशाली, कितने ही प्रेत और महाप्रेतो को पकड़ कर उनसे चाकरी करवाई थी, बहुत से युद्धों को अपने सिर्फ एक गर्जना से ही रुकवा दिया था, जीवन में बहुत से द्वंद्ध जीते थे कभी भी पराजीत नहीं हुआ था, इन सबके ही कारण वह बहुत अहंकारी भी था !

उसका अहंकारी होना जायज भी था,

एक साधारण से मनुष्य के पास यदि थोडा बहुत ही धन आ जाये तो भी अपने-आपको राजा समझने लगता है,

यहाँ तो बात मृत्यु को जीत लेने की थी,

लेकिन अहंकारी होना कोई गलत नहीं है पर साथ में विवेक का ना होना,

यही सबसे बड़ी भूल है,

बिना विवेक के मनुष्य निर्दयी और अत्याचारी हो जाता है,

सही गलत को पहचानना भूल जाता है,

और इसी भूल के कारण,

उसके कर्मचक्र ने उसे इस गाव में बुलाया था !



बाबा मंदिर के प्रांगण में नंदी की प्रतिमा के समकक्ष ध्यान लगाये बैठे थे,

कल जो घटना हुयी उसका चिंतन कर रहा था, ऐसा उसके जीवन में पहली बार हुआ था,

अब उसका लक्ष्य बदल चूका था जिस हेतु उसके राजा को यहाँ बुलाया था

होश आते ही बाबा ने राजा जो वापस भेज दिया था, लेकिन अपने सारे शिष्यों को भी राजा के साथ भेज दिया ताकि आगे के कार्य में उसको कोई व्यवधान न पैदा हो, कुछ गिने-चुने शिष्यों को छोड़कर !

चेत्री, जब से कल की घटनाये उसके सामने से घटी है उसको लगा की इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है जानने के लिए समझने के लिए ! इसीलिए वह सप्तोश के साथ ही रुक जाती है !

मंदिर में बड़े-बड़े घंटो और नगाडो के साथ सुबह की पूजा हो रही थी लेकिन वो आवाजे जैसे बाबा को सुनाई भी नहीं पड़ रही थी, उसको तो बस एक ही वाक्य उसके सर में गूंज रहा था जो उस पागल ने कहा था


“स्वर्णलेखा, नहीं आई ना ? हा हां हा .......”

Bahut achha bhai aisi saaf suthri aur achchi story kam hi padhne ko milti hain
 

Little

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Kahani ud gai
 
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manojmn37

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मंदिर में बड़े-बड़े घंटो और नगाडो के साथ सुबह की पूजा हो रही थी लेकिन वो आवाजे जैसे बाबा को सुनाई भी नहीं पड़ रही थी, उसको तो बस एक ही वाक्य उसके सर में गूंज रहा था जो उस पागल ने कहा था

“स्वर्णलेखा, नहीं आई ना ? हा हां हा .......”

‘हा’

‘स्वर्णलेखा ही कहा था उसने’

‘मेरे कानो ने साफ-साफ सुना था’

‘स्वर्णलेखा’

‘लेकिन’

‘उसको कैसे पता’

‘वो भी एक गाव में रहने वाले को’

‘एक पागल को’

‘नहीं-नहीं’

‘वो तो पागल था’

‘पागल तो कुछ भी बोल लेता है’

‘फिर भी स्वर्णलेखा ही क्यों बोला ?’

बाबा बसोठा के मन में अंतर्द्वंद्ध चल रहा था, उसे समझ नहीं आ रहा था की वो किस बात पर यकीन करे, उसके गुरु की बात पर या उस पागल ने जो कहा था उस पर !

‘गुरु ने तो कहा था की स्वर्णलेखा का जिक्र ना तो कोई पुस्तकों में है और ना ही कोई अन्य ग्रंथो में, और ना की किसी व्यक्ति के पास, ये तो सिर्फ गुरु के पिता को ही पता थी जिन्होंने २५० वर्षो की तपस्या से उस वेताल से प्राप्त की थी जो अपनी जाति का आखिरी ही बचा था, लेकिन पुत्रमोह के कारण उस अज्ञानी ने वो ज्ञान मेरे गुरु को दे दिया और उनसे मेने छीन लिया था’

‘आखिर स्वर्णलेखा की जानकारी उस पागल के पास आई कैसे ?’

‘क्या मुझे उस पागल के पीछे जाना चाहिए’

‘नहीं-नहीं’

‘क्या पता ये कोई चाल हो’

‘किसकी हिम्मत जो मुझे छल सके’

‘लेकिन फिर भी’

इस प्रकार की उधेड़बुन उसके मन में एक चक्र की भांति गोल-गोल घूम कर वापस उसी स्थान पर ले आता है जहा से उसने सोचना शुरू किया था “स्वर्णलेखा”

बाबा बसोठा को अपने जीवन में कभी भी भय नहीं लगा था, अपने गुरु की हत्या करते समय भी उसको तनिक भी भय नहीं लगा था, लेकिन कल की घटना से वो अचानक भय से व्याकुल हो गया जिससे उसके मस्तिस्क की नाडिया पहली बार ऐसा अनुभव करने पर कार्य करना रुक सी गयी थी, इस वजह से वो बेहोश हो गया था ! पहली बार उसने अपने जीवन में डर का अनुभव किया था क्योकि बात उसके ७९ वर्ष की तपस्या और सारी सिद्धियों के व्यर्थ जाने की थी और साथ में १००० वर्षो तक गुलामी की थी ! उसके लिए समय इतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना गुलामी थी ! क्योकि उसने समय को तो जीत ही लिया था लेकिन “स्वर्णलेखा” की गुलामी स्वयं उस वेताल के लिए दुष्कर थी !

इन सभी विचारो से वह इतना उलझ सा गया की उसे पता भी नहीं चला था ! अपरान्ह, हो चूका था लेकिन इतनी गर्मी में भी धुप की तपीश और गर्म हवा का मानो उसे कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था वो अभी भी वही बैठा हुआ था !

‘अचानक उसने आखे खोली’

‘जैसे उसको कुछ सुझा’

‘जैसे इस अंतर्द्वंद से विजय सी पा ली हो’

वो तुरंत उठा और अपने तम्बू में चला गया और साथ ही सबको ये चेताया की कोई भी अगले ३ प्रहर तक उस से संपर्क नहीं करेगा !

.

.

.

कही दूर देश के पर्वतो पर कोई बहुत ही जल्दी-जल्दी नीचे उतर रहा था ! उतर क्या रहा था, दौड़ रहा था, गिर रहा था, उठकर वापस भाग रहा था, सियार की सी फुर्ती थी उसमे ! बड़ी-बड़ी भूरी आखे, कंधो तक बाल, बड़ा-सा कद, पिचका हुआ शरीर, रीड झुकी हुयी, बड़ी सी ललाट, चेहरे पर भय, बस भागे ही जा रहा था और बस एक ही वाक्य रटे जा रहा था –


“वो आ गया है”

“वो आ गया है”

.

.

.



आज तीसरा दिन था, अंतिम दिन था माणिकलाल के लिए, उस अजनबी का कपडा बुनकर तैयार करने में, जो तीसरे दिन बाद आने वाला था, कल का दिन उस बाबा के चक्कर में सबका व्यर्थ चला गया था, आज सुबह से माणिकलाल उस अजनबी का कपडा बुनने में व्यस्त था

“सुनो जी, अब खाना भी खा लो, सुबह से बुन रहे हो, बचा-कुछ शाम को तैयार कर लेना” बकरी को चारा देने के बाद निर्मला, आँगन में आकर माणिकलाल को आवाज देती है !

निर्मला, माणिकलाल की भार्या, बहुत ही सुलझी हुयी और विदुषी महिला थी, वो माणिकलाल जितनी भोली नहीं थी दीन-दुनिया की अच्छी समझ थी उसे ! मुसीबत के समय, उसी की सोच से माणिकलाल अपने आप को सुरक्षित समजता था !

काफी अच्छी और सुगठित देह वाली थी निर्मला की !

‘यौवन से पूर्ण’

‘लालिमा लिए हुए चेहरा ‘

‘चौड़ी-सुन्दर आखे’

‘विशाल वक्ष-स्थल’

‘मांसल देह’

‘गौर-वर्ण ‘

वाकई में पत्नी को लेकर बहुत ही भाग्यशाली था माणिकलाल !

निर्मला की आवाज सुनकर माणिकलाल, विचारो से बाहर आकर, हाथ-पैर धोकर नीचे चटाई पर बैठता है जो निर्मला ने अभी-अभी बिछाई थीं !

“में सोच रहा था की जल्दी से इस कपडे का काम ख़त्म करने सुरभि को वैद्यजी के यहाँ ले चलू” माणिकलाल बैठता हुआ बोलता है

“अब उसकी कोई जरुरत नहीं है” निर्मला भी पास में बैठती हुयी बोलती है !

ये सुनकर माणिकलाल चौक जाता है “क्या हुआ, वैद्यजी को देने के लिए घर में कुछ नहीं है क्या ??” अपनी हालत पर तरस खाकर बोलता है

“नहीं-नहीं, वो मछुआरा दक्खन बोल रहा था की वैद्यजी ने कहा है की कल वो यही आने वाले है” खाना परोसते हुए निर्मला बोली !

“कल वैद्यजी आ रहे है !!” माणिकलाल के मन में कुछ शंका सी होने लगी

दोजू, ज्यादातर झोपड़े से बाहर नहीं निकलता है, जब तक की कोई महत्वपूर्ण कार्य ना हो ! कल दोजू का माणिकलाल के यहाँ आना, माणिकलाल को अजीब सा लग रहा था और कुछ ख़ुशी भी थी, लेकिन इन सब बातो को नजरअंदाज करके माणिकलाल खाना खाकर वापस काम पर लग जाता है !

लेकिन माणिकलाल से थोडा दूर दक्षिण में कोई था जो अभी चल रही समस्या को नजरअंदाज नहीं कर सकता था ! पुरे तम्बू में अँधेरा कर रखा था ! अभी-अभी संध्याकाळ शुरू ही हुआ था लेकिन सूर्य की किरण तम्बू में आने को बेताब, उसे जबरदस्ती रोका गया था ! अँधेरे में चारो तरफ सब कुछ-ना-कुछ व्यवस्थित ढंग से बिखेरा गया था, राख से धरती पर कुछ आकृतिया बनायीं गयी थी !

बाबा बसोठा एक तरफ मानव चर्म के आसन पर बैठ कुछ मंत्र का उच्चारण कर रहा था, धीरे-धीरे मंत्र घोर होते जा रहे थे, एक तरफ सूर्य सबको अंतिम दर्शन देकर चन्द्र को आशीर्वाद दे रहा था तो दूसरी तरफ तम्बू में रहस्यमयी रोशनी की उदय हो रहा था, और वो रोशनी प्रकट हो रही थी एक मानव कपाल से, उसके गुरु के कपाल से !

‘हा, वो बाबा बसोठा एक कपालिक था’

‘लेकिन सब उसे अबतक मांत्रिक ही समझ रहे थे’

‘कपालिक’

‘वो भी उच्चकोटि का’

‘एक सिद्ध’

‘एक दम्भी’

‘उसने सप्तोश को एक हेतु के रूप में चुना था, जो राजा के द्वारा पूर्ण होता था’

‘लेकिन अब वो उस पागल बुड्ढ़े का पता लगाने में व्यस्त था, और उसका पता बस लग ही गया’

बाबा बसोठ मंत्रो में व्यस्त था, उस कपाल से धीरे-धीरे सफ़ेद रंग की रोशनी स्प्फुरित होती है, और वो रोशनी पुरे तम्बू में फ़ैल जाती है, बाबा कपाल को उठा कर उसके कान में प्रश्न पूछता है और उसे जवाब मिलता है – “ब्रह्म शमशान”

बाबा बसोठ चौक जाता है

ब्रह्म-शमशान

‘वो भी इस गाव में’

‘और क्या-क्या छिपा पड़ा है इस गाव में’

‘वो बुड्ढा उस श्मशान में वास करता है’

‘तब तो मुझे आवश्यक जानकारिया जुटानी होगी’

‘आवश्यक सामग्री चाहिए होगी’

‘पूर्ण रात्रि तैयारी करनी होगी’

‘तब जाकर उसका सामना करना होगा’

थोड़े समय पहले उस बुड्ढ़े को पागल समझने वाला बाबा बसोठा, अब उससे सचेत हो गया था, उस उसके सामने जाने पर भी उसे रात्रि भर तैयारी करनी पड़ रही थी

कल पूर्णिमा थी, आज कृष्ण-पक्ष की पहली तिथि है, बाबा बसोठ पूर्ण रात्रि की तैयारी कल दूसरी तिथि में ही कर सकता था

रात्रि का पहला प्रहर, प्रदोष शुरू हो चूका था ! बाबा बसोठ तम्बू से बाहर निकल कर सप्तोश तो उस आवश्यक सामग्री के बारे में बताता है जो कल संध्या तक उसे उपलब्ध कराना था !

सप्तोश बार-बार आज सुबह से बाबा का निरक्षण कर रहा था उसे बाबा कुछ बदले-बदले से लग रहे थे, ऐसा उसने पहले कभी नहीं देखा था

‘वो तेज’

‘वो अभिमान से युक्त बोली’

‘एक तरह का अदम्य साहस’

सब कुछ जैसे कही खो सा गया था ! सप्तोश इसी बात से परेशान था, वो कुछ निश्चय कर चूका था, बस उसे इन्तेजार था सब के सो जाने का !

सब के अर्थात बाबा बसोठ, चेत्री और डामरी के !

‘डामरी भी यही रुकी हुयी है’

‘बाबा ने उसको और सप्तोश को छोड़कर सबको जाने के लिए कह दिया था’

‘डामरी से कुछ विशेष प्रयोजन था उसका’

वैसे भोजन आदि की व्यवस्था सब डामरी ही करती थी, वो एक गाव की अनाथ बच्ची थी जो अपने मामा के साथ रहती थी, लेकिन उसका मामा बहुत लोभी था, लालची था !

उसे मनुष्य और वस्तुओ में भेद करना नहीं आता था,

बेच दिया उसने डामरी को उस बाबा बसोठ को,

बेच दिया उसने अपनी बहिन की आखिरी निशानी को,

अपनी बहिन की आत्मा को !

‘चार साल हो गए डामरी को’

‘बाबा की साध्वी हुए’

’२४ वर्ष की थी डामरी’

‘चेहरे से भोलापन और आखो से चंचलता साफ झलकती थी उसके’

‘श्याम-वर्ण’

‘मांसल देह’

‘कसे हुए अंडाकार वृक्ष-स्थल’

‘कसा हुआ बदन था उसका’

‘भारी कसे नितम्ब’

‘उसके बाह्य अंग अपना यौवन चीख-चीख के मादकता जता रहे थे’

‘गज-गामिनी सी मस्त चाल थी उसकी’

सुरक्षित था उसका यौवन अभी-तक ! बाबा बसोठा की साध्वी होने के कारण कोई भी उस पर आख उठा कर नहीं देख सकता था ! बाबा ने भी उसको हाथ नहीं लगाया था अभी तक ! सुरक्षित थी वो अभी-तक, बाबा के एक गुप्त कार्य के लिए !

.

.

.

.

रात हो चुकी थी, लेकिन वो शख्स अभी-भी भागे जा रहा था, थकान उसके चेहरे पर किंचित मात्र भी नहीं थी, सहसा वो रुका जैसे उसे कुछ याद आया हो !


‘वो रुका’

‘कुछ क्षण विचार किया’

‘और पुनः दौड़ने लगा लेकिन’

‘इस बार उसने दिशा बदल दी’

‘अब वो उन्ही पहाड़ो के पूर्वी और रुख कर लेता है’

‘अब जैसे थोडा भय शांत हुआ लेकिन उसके होठो पर एक ही वाक्य’

“वो आ गया है”

.

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.

.

मध्य रात्रि, लेकिन वातावरण चन्द्र की रोशनी से प्रकाशमान था ! सारे जीव अपने-अपने आशियाने में बैठे आराम कर रहे थे ! रात्रि के जीव विचरण कर रहे थे ! अभी-अभी एक व्यक्ति, सर और चेहरे पर गमछा बांधे, धीरे-धीरे चलता हुआ मंदिर की दिवार को फांद कर बाहर निकल जाता है और रुख करता है गाव के पश्चिम की और ! गाव के शमशान की और !

अभी चंद ही पल बीते होंगे की, बाबा को कुछ सुनाई सा देता है ! बाबा अपने तम्बू के उठ बैठते है और ध्यान से सुनते है !

‘हा ये नगाडो की ही आवाज है’

‘लेकिन इस वक्त’

बाबा अपने तम्बू से बाहर निकलता है, उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता है ! एक हल्की सी गीली चन्दन की खुशबु उसके नथुनों में भर जाती है, खुशबु इतनी स्पष्ट थी की वो उसे नकार नहीं सकता था ! उसे कुछ आलौकिकता का अहसास होता है !

बाबा आखे बंद करता है और कुछ मंत्र बुदबुदाता है और फिर आखे खोलता है

“अद्भुत” उसके मुह से ये शब्द निकल पड़ता है

उसके सामने जो द्रश्य था उसकी कल्पना करना भी सामान्य मनुष्य के लिए असंभव सा था, कोई इस समय इसे देख ले तो चारो खाने चित हो जाये !

लेकिन बाबा को अनुभव था

‘पूरा मंदिर, अलोकिक दीपो से देदीप्यमान रखा था’

‘बड़े-बड़े चांदी के नगाडो से पूरा मंदिर जैसे जागृत हो रहा हो’

तभी बाबा देखता है

‘एक आदमी शिव की भव्य प्रतिमा के सामने खड़ा था’

‘लम्बा-चौड़ा’

‘हष्ट-पुष्ट’

‘सामान्य व्यक्ति से दुगुनी उचाई का’

‘स्वर्णआभूषणों से युक्त’

‘हाथो में’

‘पैरे में’

‘गले में’

‘छाती पर आभूषण धारण किये’

‘गौर-वर्ण था उसका’

‘सौम्य’

‘सुनहरे-श्याम केश’

‘अतुलित बलशाली’

‘अलोकिक देहधारी’

‘जैसे प्रथ्वी पर उसके जैसा सानी कोई नहीं’

यक्ष-पुरुष” सहसा बाबा के मुह से शब्द फुट पड़ा !

जैसे यक्ष ने उसकी आवाज सुन ली हो ! यकायक यक्ष ने बाबा की तरफ देखा ! दोनों की नजरे आपस में मिली ! एक पल के लिए जैसे यक्ष मुस्कुराया

और

फिर

जैसे कोई सपना टुटा ! बाबा धडाम से शय्या से नीचे गिरा और नींद से जाग गया !

‘ये कोई सपना था या हकीकत’

‘यक्षो के लिए ऐसी माया रचना कोई बड़ी बात नहीं’

‘फिर भी’

जैसे बाबा को अभी-अभी जो हुआ उस पर यकीन नहीं हुआ ! वो उठा और बाहर चला गया, देखा, ‘जांचा’ , ‘परखा’ लेकिन सब सामान्य था पूरा सुनसान मंदिर का प्रांगण !

दूसरी तरफ, जो अपने गंतव्य की और बढ़ रहा था और वह था सप्तोश !

सप्तोश, उस पागल को पकड़ कर उसे सब कुछ पूछना चाहता था की आखिर कौन है वो, क्या किया था उसने कल और अपनी पूरी जिज्ञासा शांत करना चाहता था, और उसके लिए वो निकल पड़ा था गाव के शमशान की तरफ उस पागल को खोजने, जिसका जिक्र दोजू ने कहा था !

चन्द्र की रोशनी में सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा था, शमशान में बहुत-सी झाडिया और वृक्ष थे ! ज्यादातर कंटीली झाडिया, बबूल और देवदार के वृक्ष थे, नदी के किनारे होने के कारण कुछ ज्यादा ही फल-फुल रहे थे !

आज शमशान कुछ ज्यादा ही शांत था, रात्रि के जीव भी ख़ामोशी से बैठे थे ! अचानक जैसे सप्तोश को अपने पीछे लकड़ी की आवाज सुनाई दी, वो पीछे देखता है की एक बुड्ढा, हाथ में लाठी और मशाल लिए खड़ा था !

ये इस शमशान का डोम था-भीकू ! शरीर से बुड्ढा हो चूका था, पहनावे में सिर्फ एक नीचे धोती पहन रखी थी और कुछ नहीं ! हाथ में एक लकड़ी जो जानवरों को भागने और उसके सहारे के लिए काम आती थी, और दुसरे हाथ में मशाल थी वो आदतन उसने जलाये रखी थी !

“कौन हो तुम, और इस वक्त यहाँ क्या कर रहे हो” भीकू अपनी आवाज को मुश्किल से उची करके बोलता है !

“तुम कोन हो” सप्तोश उल्टा सवाल पूछ बैठता है !

“में, में इस श्मशान का डोम हु, इस वक्त क्या काम है” दुबारा वही सवाल पूछता है !

“में वो पागल बुड्ढ़े को ढूढ़ रहा हु सुना है वो इसी श्मशान में रहता है”

“हा, रहता तो यही है, लेकिन इस श्मशान में यदि कोई कार्य है तो उसके लिए मुझे वसूली देनी पड़ेगी” भीकू वही नीचे जमीन पर बैठते हुए बोलता है !

सप्तोश, भीकू की बात को नजरअंदाज करके वापस उस बुड्ढ़े को ढूंडने आगे चला जाता है !

पहली बार रात में श्मशान का अनुभव, दिन की अपेक्षा कुछ अलग लग रहा था, रात में श्मशान कुछ ज्यादा ही शांत रहता है, छोटे-छोटे जन्तुओ की आवाज कुछ ज्यादा ही गहरा जाती है, हर समय ऐसा लग रहा था जैसे की कोई आस-पास ही है लेकिन कोई होता नहीं था, जैसे की कोई नजर रहा हो, जैसे की हवा भी कुछ कहना चाह रही हो लेकिन मुर्दों की ख़ामोशी में सब कुछ मौन रह जाता है !

‘झाड़ियो में कुछ हलचल-सी होती है,’

सप्तोश उस तरफ देखता है,

‘कोई उकडू बैठा हुआ था’

‘वही था’

‘हा’

‘ये वही बुड्ढा था’

‘लेकिन’

‘लेकिन, ये क्या’

स्प्तोश उसे देखकर इतना नहीं चौकता है जितना की उसके हाथ में कुछ देखकर ! उसके हाथ में.....





 

kamdev99008

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ab is pagal ke hath mein kya dikh gaya saptosh ko...............

bhai gajab ki kahani likh rahe ho................utsukta badhti hi ja rahi hai

keep it up
 

manojmn37

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Thanks
The Immortal
 
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Studxyz

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ये कहानी तो गज़ब की रोमांचिक थ्रिलर है हर अपडेट के साथ एक नई जिज्ञासा पैदा हो रही है
 
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