सुबह की पूजा-अर्चना कर चेत्री, भगवान शिव की प्रतिमा को निहार रही थी, वैसे तो वो कई बार इस महान प्रतिमा को देख चुकी थी जब वह राजा के साथ महीने में एक बार यहाँ आती थी लेकिन आज, आज कुछ विशेष लग रही थी !
यहाँ विशेष शब्द का प्रयोजन, उस प्रतिमा को लेकर नहीं था
विशेष था समय !
बहुत बार हम किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान को कई महीनो या कोई तो कई वर्षो तक ऐसे ही आखो के सामने से चली जाती है लेकिन उसके रूप, स्वरुप या खूबियों को नहीं देख पाते है !
चित्र को देखकर हम उसका अंदाजा लगा सकते है लेकिन कोई कहे की आखे बंद कर उसको देखो तो उसके आकर के अलावा कुछ नहीं देख सकते ! उसका सौन्दर्य, उसका स्पर्श, उसकी खुशबु कुछ याद नहीं रहता !
कई बार हमें यह आश्चर्य होता है की जीवन भर उसके साथ रहने के बावजूद भी हम उसके चंद बातो या लम्हों के अलावा कुछ भी याद ही नहीं रहता !
यहाँ पर बात याद रखने की नहीं है बात है जीने की !
उन पलो में जीने की !
वर्तमान में जीने की !
आज चेत्री को अपने कार्यो को लेकर कोई जल्दी नहीं थी, आज कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं था, किसी से मिलना भी नहीं था ! आज वो अपने जिम्मेदारियों से आजाद थी, अपने को स्वतंत्र महसूस कर रही थी
एक बच्चे की भांति !
जैसे एक बच्चा वर्तमान में जीता है उसे कल की कोई चिंता नहीं रहती है, आने वाले पल की कोई चिंता नहीं रहती वह जीता है अपने आप में !
आज उसे सब कुछ विशेष लग रहा था आज वर्तमान में जी रही थी वो ! उसने कभी मंदिर को इस तरह कभी नहीं देखा था ! शिव की विशाल प्रतिमा उन्मुक्त गगन की छु रही थी !
पत्थर से बनी नंदी की मूर्ति कुछ विशेष लग रही थी ! गौर से देखने पर पता चला की नंदी के सिंग पत्थर के ना होकर किसी अलग धातु के थे लेकिन रंग की वजह से कोई नहीं कह सकता था !
मंदिर की दीवारों पर नटराज की मुर्तिया बनी हुई थी जो अलग-अलग आकृतियों में नृत्य कर रहे थे ! पूरी दीवारों को देखने पर पता चलता है की ये पूरा नटराज के एक नृत्य की शिल्पकृति थी जो बहुत ही अचंभित थी !
चेत्री ये सब देख ही रही थी की एक तरफ उसे बाबा बसोंठा दिखाई देते है वो ध्यान लगाये बैठे हुए थे लेकिन थोड़े पास में जाकर चेत्री ने उन्हें देखा तो एसा लग रहा था की जैसे वो अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हो !
चेत्री उनका ध्यान भंग ना कराते हुए वो मंदिर से बाहर जा ही रही थी की डामरी वो दरवाजे की तरफ अन्दर आते हुए देखती है !
“प्रणाम, राजवैद्यीजी” डामरी ने दूर से ही हल्के उचे स्वर में, अपने नटखट अंदाज में, अभिवादन किया !
चेत्री ने आखो से जैसे उस अभिवादन का उत्तर दिया और उसे पास आने का इशारा किया !
“सुबह-सुबह कहा से आ रही हो डामरी”
“आपको तो पता ही है राजवैद्यीजी, मुझे कितना काम रहता है सुबह से लेकर रात तक, गुरूजी के उठने से लेकर सोने तक पूरी व्यस्था मुझे ही देखनी पड़ती है और हा, खाने का इन्तेजाम भी तो मुझे ही करना पड़ता है” डामरी एक ही सास में पूरा बोल देती है
चेत्री उसकी चंचलता और चपलता पर हल्की सी मुस्कुराती हुयी “वो तो ठीक है लेकिन तुम आ कहा से रही हो”
“गुरूजी ने मुझे आज दिन भर का अवकाश दे रखा है, कहा है की आज के दिन उन्हें किसी भी बात के लिए परेशांन ना करे”
“तुमने वापस मेरी बात का उत्तर नहीं दिया” वापस चेत्री बोल पड़ती है
माफी के अंदाज में दातो तले जीभ दबाते हुए डामरी बोलती है “क्या है ना राजवैद्यीजी, बहुत दिनों बाद अवकाश मिला था तो सोचा की सुबह-सुबह थोडा गाव में घूम आऊ”
“मेरे साथ नहीं चलोगी घुमने”
“अकेले-अकेले में मजा नहीं आता है, हम किसी से बात भी नहीं कर सकते, इसीलिए में वापस आ गयी थी, और गाव में भी सभी अपना-अपना काम कर रहे थे, सोचा क्यों किसी को परेशान करू” डामरी एक ज्ञान देने वाली शिक्षिका के अंदाज में बोलती है “चलो अब हम दो हो गए है तो अब मजा आयेया, चलो चलते है”
दोनों मंदिर के विशाल दरवाजे से बाहर चले जाते है