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Shayari शायरी और गजल™

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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कभी मसरूफ कभी बहाने कभी इतनी मजबूरियाँ,
तुम साफ लफ्जों में खुदा हाफिज क्यों नहीं कहते।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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हम चाहते थे माह-ए-दरख़्शाँ को देखना,
उस ने हमें दरीचे से चेहरा दिखा दिया।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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कहाँ वफा मिलती हैं मिट्टी के इन हसीन इंसान से,
ये लोग बगैर मतलब के खुदा को भी याद नहीं करते।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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ज़रूरी तो नहीं कि हर रिश्ते की कोई पहचान हो,
ज़ज्बात समझने वाला भी तो अनमोल होता है।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कितनी बेफ़िक्री से तुमने खुद को छीना है मुझसे,
कितनी शिद्दत से हमने ख़ुद को तुम्हारा किया था।।
 
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TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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शायद कोई तराश कर मेरी किस्मत संवार दे,
यह सोच कर हम उम्र..... भर पत्थर बने रहे।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा

फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा

इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
जब नींद बहुत आएगी बिस्तर न मिलेगा

ये सोच लो अब आख़िरी साया है मोहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा

___बशीर बद्र
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई,
ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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इतना भी करम उनका कोई कम तो नहीं है,
ग़म दे के वो पूछे है कोई ग़म तो नहीं है।।
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हज़ारों कांटों से दामन बचा लिया मैंने
अना को मार के सब कुछ बचा लिया मैंने

कहीं भी जाऊँ नज़र में हूँ इक ज़माने की
ये कैसा ख़ुद को तमाशा बना लिया मैंने

अज़ीम थे ये दुआओं को उठने वाले हाथ
न जाने कब इन्हें कासा बना लिया मैंने

अंधेरे बीच में आ जाते इससे पहले ही
दिया तुम्हारे दिये से जला लिया मैंने

मुझे जुनून था हीरा तराशने का तो फिर
कोई भी राह का पत्थर उठा लिया मैंने

जले तो हाथ मगर हाँ हवा के हमलों से
किसी चराग़ की लौ को बचा लिया मैंने

___प्रो वसीम बरेलवी
 
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