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Shayari शायरी और गजल™

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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अगर है इश्क सच्चा तो निगाहों से बयाँ होगा,
जुबां से बोलना भी क्या कोई इजहार होता है।।
 
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TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा,
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा!!!

इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश,
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा!!!

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं,
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा!!!

काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन,
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा!!!

किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर,
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा!!!

~परवीन शाकिर साहिबा 🍁
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा,
मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा!!

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा,
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा!!

वो हवाओं की तरह ख़ाना-ब-जाँ फिरता है,
एक झोंका है जो आएगा गुज़र जाएगा!!

वो जब आएगा तो फिर उस की रिफ़ाक़त के लिए,
मौसम-ए-गुल मिरे आँगन में ठहर जाएगा!!

आख़िरश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी,
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जाएगा!!

मुझ को तहज़ीब के बर्ज़ख़ का बनाया वारिस,
जुर्म ये भी मिरे अज्दाद के सर जाएगा!!

~परवीन शाकिर
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत,
घर के दर-ओ-दीवार भी हैं कमज़ोर बहुत!!

तेरे सामने आते हुए घबराता हूँ,
लब पे तिरा इक़रार है दिल में चोर बहुत!!

नक़्श कोई बाक़ी रह जाए मुश्किल है,
आज लहू की रवानी में है ज़ोर बहुत!!

दिल के किसी कोने में पड़े होंगे अब भी,
एक खुला आकाश पतंगें डोर बहुत!!

मुझ से बिछड़ कर होगा समुंदर भी बेचैन,
रात ढले तो करता होगा शोर बहुत!!

अपने बसेरे पंछी लौट न पाया 'ज़ेब',
शाम घटा भी उट्ठी थी घनघोर बहुत!!

आ के कभी वीरानी-ए-दिल का तमाशा कर,
इस जंगल में नाच रहे हैं मोर बहुत!!

~जेब गौरी
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है!!

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो,
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है!!

एक खंडर के हृदय सी एक जंगली फूल सी,
आदमी की पीर गूँगी ही सही गाती तो है!!

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
ये अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है!!

निर्वचन मैदान में तेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से ओट में जो जा के बतियाती तो है!!

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो आकाश सी छाती तो है!!

~दुष्यंत कुमार
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले,
राह में तीरगी होगी मिरे आँसू रख ले!!

तू जो चाहे तो तिरा झूट भी बिक सकता है,
शर्त इतनी है कि सोने की तराज़ू रख ले!!

वो कोई जिस्म नहीं है कि उसे छू भी सकें,
हाँ अगर नाम ही रखना है तो ख़ुश्बू रख ले!!

तुझ को अन-देखी बुलंदी में सफ़र करना है,
एहतियातन मिरी हिम्मत मिरे बाज़ू रख ले!!

मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे,
मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले!!

~राहत इंदौरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है,
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है!!

एक दीवाना मुसाफ़िर है मिरी आँखों में,
वक़्त-बे-वक़्त ठहर जाता है चल पड़ता है!!

अपनी ताबीर के चक्कर में मिरा जागता ख़्वाब,
रोज़ सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है!!

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं,
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है!!

उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो,
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है!!

~राहत इंदौरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या,
ज़माने भर से वा'दा कर लिया क्या!!

तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली,
तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या!!

हुनर-मंदी से अपनी दिल का सफ़्हा,
मिरी जाँ तुम ने सादा कर लिया क्या!!

जो यकसर जान है उस के बदन से,
कहो कुछ इस्तिफ़ादा कर लिया क्या!!

बहुत कतरा रहे हो मुग़्बचों से,
गुनाह-ए-तर्क-ए-बादा कर लिया क्या!!

यहाँ के लोग कब के जा चुके हैं,
सफ़र जादा-ब-जादा कर लिया क्या!!

उठाया इक क़दम तू ने न उस तक,
बहुत अपने को माँदा कर लिया क्या!!

तुम अपनी कज-कुलाही हार बैठीं,
बदन को बे-लिबादा कर लिया क्या!!

बहुत नज़दीक आती जा रही हो,
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या!!

~जॉन एलिया
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है,
जाने वालों का जाना याद आ जाता है!!

बात-चीत में जिस की रवानी मसल हुई,
एक नाम लेते में कुछ रुक सा जाता है!!

हँसती-बस्ती राहों का ख़ुश-बाश मुसाफ़िर,
रोज़ी की भट्टी का ईंधन बन जाता है!!

दफ़्तर मंसब दोनों ज़ेहन को खा लेते हैं,
घर वालों की क़िस्मत में तन रह जाता है!!

अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है,
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है!!

~ जेहरा निगाह
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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तुझ से बिछड़ के हम भी मुक़द्दर के हो गए,
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गए!!!

फिर यूँ हुआ कि ग़ैर को दिल से लगा लिया,
अंदर वो नफ़रतें थीं कि बाहर के हो गए!!!

क्या लोग थे कि जान से बढ़ कर अज़ीज़ थे,
अब दिल से महव नाम भी अक्सर के हो गए!!!

ऐ याद यार तुझ से करें क्या शिकायतें,
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गए!!!

समझा रहे थे मुझ को सभी नासेहान-ए-शहर,
फिर रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद उसी काफ़र के हो गए!!!

अब के न इंतिज़ार करें चारागर कि हम,
अब के गए तो कू-ए-सितमगर के हो गए!!!

रोते हो इक जज़ीरा-ए-जाँ को 'फ़राज़' तुम,
देखो तो कितने शहर समुंदर के हो गए!!!

~अहमद फ़राज़
 
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