बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा,
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा!!!
इक बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश,
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा!!!
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं,
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा!!!
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन,
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा!!!
किस तरह मिरी रूह हरी कर गया आख़िर,
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा!!!
~परवीन शाकिर साहिबा
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