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Shayari शायरी और गजल™

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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अभी इक शोर सा उठा है कहीं,
कोई ख़ामोश हो गया है कहीं!!

है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ,
इस से पहले भी हो चुका है कहीं!!

तुझ को क्या हो गया कि चीज़ों को,
कहीं रखता है ढूँढता है कहीं!!

जो यहाँ से कहीं न जाता था,
वो यहाँ से चला गया है कहीं!!

आज शमशान की सी बू है यहाँ,
क्या कोई जिस्म जल रहा है कहीं!!

हम किसी के नहीं जहाँ के सिवा,
ऐसी वो ख़ास बात क्या है कहीं!!

तू मुझे ढूँड मैं तुझे ढूँडूँ,
कोई हम में से रह गया है कहीं!!

कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम,
जिस को देखो गया हुआ है कहीं!!

मैं तो अब शहर में कहीं भी नहीं,
क्या मिरा नाम भी लिखा है कहीं!!

मिल के हर शख़्स से हुआ महसूस,
मुझ से ये शख़्स मिल चुका है कहीं!!

इसी कमरे से कोई हो के विदाअ',
इसी कमरे में छुप गया है कहीं!!

~जॉन एलिया
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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वो पैकर-ए-जमाल है, कमाल है,
वो हुस्न बे मिसाल है, कमाल है!!

वो पूछते हैं आप क्यों बदल गए,
यही मेरा सवाल है कमाल है!!

मुझे हराम है शराब का नशा,
तुम्हें लहू हलाल है, कमाल है!!

रक़ीब को बुरा भला मैं क्यूं कहूं,
वो सिर्फ़ हम-ख़याल है, कमाल है!!

~अम्मार इक़बाल
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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मोहब्बत के सफ़र में कोई भी रस्ता नहीं देता,
ज़मीं वाक़िफ़ नहीं बनती फ़लक साया नहीं देता!!

ख़ुशी और दुख के मौसम सब के अपने अपने होते हैं,
किसी को अपने हिस्से का कोई लम्हा नहीं देता!!

न जाने कौन होते हैं जो बाज़ू थाम लेते हैं,
मुसीबत में सहारा कोई भी अपना नहीं देता!!

उदासी जिस के दिल में हो उसी की नींद उड़ती है,
किसी को अपनी आँखों से कोई सपना नहीं देता!!

उठाना ख़ुद ही पड़ता है थका टूटा बदन 'फ़ख़री',
कि जब तक साँस चलती है कोई कंधा नहीं देता!!

~ज़ाहिद फ़ख़री
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा,
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा!!

हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए,
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तेरा!!

इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें,
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तेरा!!

कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर,
जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तेरा!!

हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी,
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तेरा!!

दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए,
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तेरा!!

ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ,
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तेरा!!

हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र,
रस्ता कभी रोका तिरा दामन कभी थामा तेरा!!

हाँ हाँ तिरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं,
इक शख़्स के अशआ'र से शोहरा हुआ क्या क्या तेरा!!

बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल,
आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा 'इंशा' तेरा!!

~इब्न ए इंशा
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हम लोग सोचते हैं हमें कुछ मिला नहीं,
शहरों से वापसी का कोई रास्ता नहीं!!

इक चेहरा साथ-साथ रहा जो मिला नहीं,
किस को तलाश करते रहे कुछ पता नहीं!!

शिद्दत की धूफ, तेज हवाओं के बावज़ूद,
मैं शाख़ से गिरा हूँ, नज़र से गिरा नहीं!!

आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मक़बरा,
हम ज़िन्दगी थे, हमको किसी ने जिया नहीं!!

जिसकी मुख़ालिफ़त हुई, मशहूर हो गया,
इन पत्थरों से कोई परिन्दा गिरा नहीं!!

तारीकियों में और चमकती है दिल की धूप,
सूरज तमाम रात यहाँ डूबता नहीं!!

किसने जलाई बस्तियाँ, बाज़ार क्यों लुटे,
मैं चाँद पर गया था, मुझे कुछ पता नहीं!!

~बशीर बद्र
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हम ने कब चाहा कि वो शख़्स हमारा हो जाए,
इतना दिख जाए कि आँखों का गुज़ारा हो जाए!!

हम जिसे पास बिठा लें वो बिछड़ जाता है,
तुम जिसे हाथ लगा दो वो तुम्हारा हो जाए!!

तुम को लगता है कि तुम जीत गए हो मुझ से,
है यही बात तो फिर खेल दुबारा हो जाए!!

है मोहब्बत भी अजब तर्ज़-ए-तिजारत कि यहाँ,
हर दुकाँ-दार ये चाहे कि ख़सारा हो जाए!!

~यासिर ख़ान इनाम
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आए,
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आए!!

तलवार की नेयाम कभी फेंकना नहीं,
मुमकिन है दुश्मनों को डराने के काम आए!!

कच्चा समझ के बेच न देना मकान को,
शायद कभी ये सर को छुपाने के काम आए!!

ऐसा भी हुस्न क्या कि तरसती रहे निगाह,
ऐसी भी क्या ग़ज़ल जो न गाने के काम आए!!

वह दर्द दे जो रातों को सोने न दे हमें,
वह ज़ख़्म दे जो सबको दिखाने के काम आए!!

~ मुनव्वर राना
 

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सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता,
हर आदमी के मुक़द्दर में घर नहीं होता!!

कभी लहू से भी तारीख़ लिखनी पड़ती है,
हर एक मा'रका बातों से सर नहीं होता!!

मैं उस की आँख का आँसू न बन सका वर्ना,
मुझे भी ख़ाक में मिलने का डर नहीं होता!!

मुझे तलाश करोगे तो फिर न पाओगे,
मैं इक सदा हूँ सदाओं का घर नहीं होता!!

हमारी आँख के आँसू की अपनी दुनिया है,
किसी फ़क़ीर को शाहों का डर नहीं होता!!

मैं उस मकान में रहता हूँ और ज़िंदा हूँ,
'वसीम' जिस में हवा का गुज़र नहीं होता!!

~वसीम बरेलवी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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दिल मोहब्बत में मुब्तला हो जाए,
जो अभी तक न हो सका हो जाए!!

ख़ुद को ऐसी जगह छुपाया है,
कोई ढूँढे तो लापता हो जाए!!

तुझ में ये ऐब है कि ख़ूबी है,
जो तुझे देख ले तिरा हो जाए!!

मैं तुझे छोड़ कर चला जाऊँ,
साया दीवार से जुदा हो जाए!!

बस वो इतना कहे मुझे तुम से,
और फिर कॉल मुंक़ता' हो जाए!!

दिल भी कैसा दरख़्त है 'हाफ़ी',
जो तिरी याद से हरा हो जाए!!

~Tahzeeb Hafi
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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इश्क़ में जीत के आने के लिए काफी हूँ,
मैं अकेला ही ज़माने के लिए काफी हूँ!!

हर हकीकत को मेरी ख्वाब समझने वाले,
मैं तेरी नींद उड़ाने के लिए काफी हूँ!!

ये अलग बात के अब सूख चुका हूँ फिर भी,
धूप की प्यास बुझाने के लिए काफी हूँ!!

बस किसी तरह मेरी नींद का ये जाल कटे,
जाग जाऊँ तो जगाने के लिए काफी हूँ!!

जाने किस भूल भुलैय्या में हूँ खुद भी लेकिन,
मैं तुझे राह पे लाने के लिए काफी हूँ!!

डर यही है के मुझे नींद ना आ जाये कहीं,
मैं तेरे ख्वाब सजाने के लिए काफी हूँ!!

ज़िंदगी ढूंढती फिरती है सहारा किसका...?
मैं तेरा बोझ उठाने के लिए काफी हूँ!!

मेरे दामन में हैं सौ चाक मगर ऐ दुनिया,
मैं तेरे ऐब छुपाने के लिये काफी हूँ!!

मेरे बच्चों मुझे दिल खोल के तुम खर्च करो,
मैं अकेला ही कमाने के लिए काफी हूँ!!

~ डॉ राहत इंदौरी
 
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