Update #14
स्वतंत्रता मिलने के बाद से राजस्थान में बड़ी शांति हो गई थी। एक समय था जब राजवाड़े आपस में युद्ध किया करते थे, और महाराजपुर जैसी छोटी रियासतों को बड़े राजवाड़ों के साथ उन थोपे हुए युद्धों में शामिल होना पड़ता था। ठहर कर, शांति से खेती-बाड़ी कर पाना लगभग असंभव हो गया था। अंग्रेज़ों के शासन में उन युद्धों से निजात तो मिली, लेकिन अनावश्यक और नाजायज़ करों का आर्थिक बोझ ऐसा बढ़ा, कि लोग युद्ध को ही श्रेष्ठ मानने लगे। अंदर ही अंदर एक अजीब सा आक्रोश व्याप्त हो गया था सभी में! कई लोगों ने उस आक्रोश को सही दिशा में केंद्रित किया और विभिन्न कलाओं में योग्यता हासिल करने में लगाया। जिसके कारण संगीत, भोजन, वेश-भूषा, इत्यादि में बहुत सम्पन्नता आई।
स्वतंत्रता मिलने के बाद, और भारत देश में सभी रियासतों के विलय के बाद उन कलाओं के प्रदर्शन में राजस्थान, गुजरात और पंजाब राज्यों के साथ, देश में अव्वल दर्जे पर रहने लगा। भूतपूर्व राजवाड़ों ने अपनी अपनी रियासतों के कलाकारों को उच्च मुकाम हासिल करने का हौसला दिया और उनको सभी सुविधाएँ मुहैया कराईं। अक्सर ही इन कलाओं के प्रदर्शन का समारोह होता। पिछले एक सप्ताह से एक ऐसा ही समारोह महाराजपुर में भी हो रहा था। जाहिर सी बात है, राजपरिवार के सदस्य भी हर दिन वहाँ उपस्थित रहते। आज हर्ष की बारी थी।
लेकिन उसकी नज़रें आज एक ख़ास व्यक्ति की खोज में थीं। और उस व्यक्ति को देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गई। तेज क़दमों से वो गौरीशंकर जी के पास पहुँचा और उनको पुकारा,
“काका?”
आज की रात इस सांस्कृतिक समारोह का बड़ा प्रदर्शन था, जिसमें राजस्थान के विभिन्न उच्चा कलाकारों की कला का प्रदर्शन होना था। आज रात के समारोह में राजस्थान के मुख्यमंत्री जी के साथ साथ महाराज घनश्याम सिंह और उनके समस्त परिवारजन भी आमंत्रित थे। एक तरह से महाराज घनश्याम सिंह के ही आँगन में समारोह हो रहा था, तो वो मेहमान नहीं बल्कि मेज़बान थे! राज्य के कोने कोने से अनेकों कलाकार आमंत्रित थे, और एक सप्ताह से अपनी अपनी कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे।
“अरे, राजकुमार जी? प्रणाम!”
“काका, आप हमसे बड़े हैं... आप हमको नहीं, हम आपको प्रणाम करना चाहते हैं,” कहते हुए हर्ष ने गौरीशंकर जी के पैर छुए।
“अरे राजकुमार जी,” गौरीशंकर जी इस अचानक मिले आदर से अचकचा गए - राजपरिवार का शायद ही कोई सदस्य हो, जो उनके जैसा सामान्य-जन के पैर छूता हो - और बड़े खेदजनक स्वर में बोले, “खम्मा घणी, हुकुम! मुझसे ये क्या पाप करा रहे हैं आप? ... मेरे पैर... और आप...”
“क्यों? ऐसे क्यों कह रहे हैं आप काका? आप बड़े हैं, गुणी हैं... आपका आशीर्वाद न लूँ तो किसका लूँ?”
गौरीशंकर जी ने अपने हाथ जोड़ दिए, “ओह राजकुमार, अब हम आपको कैसे समझाएँ!”
“बाद में समझा लीजिएगा काका... आज हम आपके पास एक काम से आए हैं।”
“काम? हमसे? ... हमसे आपको क्या काम आन पड़ा, हुकुम? ... कहिए न राजकुमार!”
“नहीं काका... और कम से कम जब हम दोनों अकेले हों, तो हमको हमारे नाम से पुकारिए!” हर्ष ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “... और हमको आपसे काम नहीं, बल्कि विनती करनी है! ... आपके सामने हमारी अपनी... हमारी व्यक्तिगत... कोई हैसियत नहीं है, लेकिन फिर भी... आशा है कि आप कम से कम उस बारे में सोचेंगे!”
“राजकुमार जी, यूँ घुमा फ़िरा कर न कहिए! ... हम आपकी प्रजा हैं... आप हुकुम करें!”
“काका,” हर्ष ने दुनिया जहान की हिम्मत जुटाते हुए कहा, “आप... हम... आपसे... आपसे... अपने लिए... सुहासिनी का हाथ... हाथ माँगना चाहते हैं!”
“क्या? राजकुमार जी? क्या आप सच कह रहे हैं?” गौरीशंकर जी आश्चर्यचकित हो गए।
हर्ष ने हाथ जोड़ दिए, “काका, हमको सुहासिनी... सुहासिनी हमको बहुत अच्छी लगती है! और हमको उससे बहुत प्रेम है... आपके आशीर्वाद से हम उसको अपनी धर्मपत्नी बनाना चाहते हैं!”
यह छोटी सी बात गौरीशंकर जी को एक मधुर संगीत जैसी सुनाई दी।
“अहोभाग्य हमारे! कौन बाप मेरे जैसा भाग्यशाली होगा!” गौरीशंकर जी ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “किन्तु हम सातवें आसमान में उड़ने लगे, उससे पहले दो बातें जान लेनी आवश्यक हैं राजकुमार...”
“जी काका, कहिए न?”
हर्ष का दिल तेजी से धड़कने लगा।
‘कहीं काका इस सम्बन्ध के लिए मना न कर दें!’
“पहली बात, हमारी आपके सामने कोई हैसियत नहीं है राजकुमार! न तो हमारी पैदाइश में, और न ही हमारे सामाजिक क़द में... हम तो इसी बात से धन्य हो गए, कि आपने हमको इस लायक समझा कि आप सुहासिनी को अपनी ब्याहता बनाना चाहते हैं... किन्तु, सच में, यह सम्बन्ध संभव नहीं है...!”
हर्ष कुछ कहने को हुआ कि गौरीशंकर जी ने बीच में उसको रोकते हुए कहा,
“... यह सम्बन्ध संभव नहीं है, बिना महाराज और महारानी की अनुमति के...” गौरीशंकर जी ने कहा, “आज तक ऐसा सम्बन्ध बना नहीं! इसलिए यदि ऐसा कुछ होता है, तो समझिए सौभाग्य की वर्षा हो गई हमारे ऊपर!”
हर्ष पूरे धैर्य से उनकी बातें सुन रहा था।
“यह तो हुई पहली बात... अब दूसरी बात, आप दोनों ही अभी बहुत छोटे हैं... इसलिए आप दोनों का सम्बन्ध अभी सम्भव भी तो नहीं है। आप भी पढ़ रहे हैं, और सुहासिनी भी! ... किन्तु... यदि महाराज की कृपा बने, तो उनकी आज्ञा से हम आपका सगपण (रोका) करने आ सकते हैं!”
सुहासिनी और अपने विवाह की संभावनाओं को क्षीण होता देख कर हर्ष का दिल बैठ गया था, लेकिन इस नई सूचना ने बड़ा ढाढ़स बँधाया!
“ये संभव है क्या काका?” हर्ष ने बड़ी उम्मीद से, और मुस्कुराते हुए कहा।
“संभव है राजकुमार...” कुछ भी हो, अपनी एकलौती बेटी का ब्याह राजपरिवार से होने की आशा मात्र से ही गौरीशंकर जी का मन आंदोलित हो चला, “... सब संभव है! ... लेकिन महाराज और महारानी की कृपा से!”
यह ऐसी सम्भावना थी जो गौरीशंकर जैसे बाप को, अपनी हैसियत से कहीं अधिक बढ़ कर, सपने देखने पर मजबूर कर रही थी।
‘मतलब,’ वो सोचने पर मजबूर हो गए, ‘जब बिटिया कह रही थी कि उसको ब्याहने कोई राजकुमार ही आएगा, तो वो कोई दिवास्वप्न नहीं देख रही थी।’
उनको पता था कि महाराज की बड़ी कृपा थी उन पर। लेकिन उनका कृपा-पात्र होना, और उनका समधी होना - दो अलग अलग बातें थीं। बड़ा खतरा था यह बात सामने आने में - महाराज की कृपादृष्टि उन पर से हट सकती थी। उस स्थिति में आर्थिक सहायता कहाँ से मिलेगी? विभिन्न समारोहों में आमंत्रण कैसे मिलेगा? कुछ दिनों से सुनने में आ रहा था कि गौरीशंकर जी के लिए पद्मश्री पुरस्कार की सिफ़ारिश की जा रही थी। यदि महाराज उनसे नाराज़ हो गए, तो भूल ही जाएँ यह पुरस्कार! सबसे बड़ी बात, जग-हँसाई की थी! सब कुछ झेल सकते थे, लेकिन समाज में सर उठा कर चल पाने में जो संतुष्टि मिलती है, उसका क्या मोल है?
लेकिन अपनी बेटी का राजकुमारी बनना... यह एक ऐसी सम्भावना थी, जिसके लिए गौरीशंकर जी यह सब खतरे मोल ले सकते थे।
“तो...” हर्ष ने बड़ी उम्मीद से कहा, “हम पिताजी महाराज से बात करें?”
“नहीं बेटे,” गौरीशंकर जी ने कहा, “कुछ काम बेटी के बाप को ही करने पड़ते हैं! ... आप चिंता न करें! ... हम उचित समय देख कर महाराज से विनती करेंगे!”
राजकुमार हर्ष के साथ, अपनी बेटी के ब्याह के दिन के सुनहरे दृश्य उनकी आँखों के सामने खिंच गए। समाज में सीना तान कर और सर गर्व से उठा कर चलने का समय आ गया था संभवतः!
“भगवान भोलेनाथ ने चाहा, तो आप दोनों का प्रेम अवश्य सफ़ल होगा!”
“धन्यवाद काका,” हर्ष ने एक बार फिर से गौरीशंकर जी के पैर छू कर आशीर्वाद लिया।
“आयुष्मान भव पुत्र... यशस्वी भव!”
*
जेठ माह की चटक गर्मी अब सर चढ़ने लगी थी। लू का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। दोपहर में सभी लोग प्रायः अपने अपने घरों में ही रहना श्रेयष्कर मानते थे। लेकिन प्रेम में पड़े राजकुमार हर्ष की दशा ऐसी थी कि लू की मार बर्दाश्त कर लेगा, लेकिन अपनी सुहासिनी को देखे बिना उसका दिन नहीं पूरा होता।
रोज़ की ही भाँति आज भी वो सुहासिनी से मिलने आया था। उनके मिलने का कोई ठौर ठिकाना नहीं था - एक एकांत स्थान मिला था, जो गाँव से थोड़ी दूरी पर था। खुले में, बस कैर के कुछ पेड़, और उनके आस पास अनेकों झाड़ियाँ! यही दोनों प्रेमियों के मिलने का ठिकाना था। कैर के पेड़ हरे घने नहीं लगते... उनके नीचे घनी छाया नहीं होती। किन्तु दूर से उनको देखने पर बहुत घने लगते हैं, और कोई बहुत निकट आए बिना यह नहीं जान सकता कि कोई उनके पीछे छुपा हुआ है। इन वृक्षों को रेगिस्तान का आशीर्वाद कहा जाता है, क्योंकि इनसे विकट सूखे में भी भोजन मिलता है। कैर के वृक्ष से राजस्थान की प्रसिद्ध केर-सांगरी की सब्ज़ी बनाई जाती है।
“आपने बाबा से क्या कह दिया?” सुहासिनी ने शर्माते हुए हर्ष से कहा।
वो आज हर्ष से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। आँखें नीची किये हुए, वो भूमि पर आड़ी तिरछी रेखाएँ खींच रही थी, और मिटा रही थी।
“क्या कह दिया हमने?”
“आज कल बहुत चुप से रहते हैं... बताइए न, क्या कहा आपने उनसे?”
“वही, जो कहने का हमने आपसे वायदा किया था... हमने आपसे कहा था न कि हम आपके बाबा से बात करेंगे... सो कर लिए!”
अचानक ही सुहासिनी स्वयं को बहुत निर्बल सा महसूस करने लगी। जब आपके भविष्य का फैसला अन्य लोगों के हाथ में चला जाता है, तो असहाय महसूस करना लाज़िमी ही है!
“बाबा नाराज़ हैं हमसे,” सुहासिनी ने मुस्कुराते हुए राजकुमार को छेड़ा।
हर्ष इस छेड़खानी के चक्कर में नहीं पड़ने वाला था! उसको मालूम था कि गौरीशंकर जी भी उसके और सुहासिनी के विवाह की सम्भावना से प्रसन्न थे। अगर पिताजी महाराज ने मना भी कर दिया, तो वो नाराज़ तो नहीं हो सकते। वैसे, उसको इस बात का भान था कि दो सप्ताह बाद भी गौरीशंकर जी ने पिताजी महाराज से इस बारे में बात नहीं करी थी। वो समझ सकता था कि इन कार्यों के लिए समय चाहिए, और साहस भी!
“हो ही नहीं सकते!”
“क्यूँ भला?”
“अपने दामाद से भला कौन नाराज़ हो सकता है?”
सुहासिनी का दिल यह सुन कर तेजी से धड़कने लगा।
कुछ देर दोनों चुप रहे।
“आपको... आपको लगता है कि सब ठीक हो जाएगा?”
“पूरा विश्वास है हमको...” हर्ष बोला, “आपके बाबा से पहले हमने भाभी माँ से अपने दिल की बात कही थी...”
“क्या! युवरानी जी को?”
“और क्या! आपने हमको क्या समझा है! ... हमारा प्यार झूठा नहीं!”
“ये हमने कब कहा?” सुहासिनी ने लगभग माफ़ी माँगते हुए कहा, और फिर उत्सुकतावश आगे जोड़ा, “क्या कहा युवरानी जी ने?”
हर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा, “बस ये समझ लीजिए कि हमारे प्रेम को उनका आशीर्वाद प्राप्त है...”
“ओह प्रभु एकलिंग जी...” सुहासिनी ने बड़े आदर से आकाश को सम्मुख हो कर अपने हाथ जोड़ दिए।
जीवन में कम ही इच्छाएँ होती हैं, जिनके साकार होने की आशा इतनी बलवती होती है, कि आप कुछ भी कर देने को तत्पर हो जाते हैं। सुहासिनी और हर्ष चाहते थे कि उनका विवाह हो जाए! यह एक तरह से असंभव कार्य था। इसलिए किसी ईश्वरीय हस्तक्षेप का होना अब अपरिहार्य था।
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