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Romance श्राप [Completed]

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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159
Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28, Update #29, Update #30, Update #31, Update #32, Update #33, Update #34, Update #35, Update #36, Update #37, Update #38, Update #39, Update #40, Update #41, Update #42, Update #43, Update #44, Update #45, Update #46, Update #47, Update #48, Update #49, Update #50, Update #51, Update #52.

Beautiful-Eyes
* इस चित्र का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है! एक AI सॉफ्टवेयर की मदद से यह चित्र बनाया है। सुन्दर लगा, इसलिए यहाँ लगा दिया!
 
Last edited:

Kala Nag

Mr. X
Prime
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Update #3


महल के अनुरूप ही मुख्य भोजनगृह भी विशालकाय था। महल में इसके अतिरिक्त भी कई भोजनगृह थे, लेकिन यह प्रत्येक मुख्य आयोजनों में इस्तेमाल किया जाता था। डाइनिंग टेबल चालीस लोगों के बैठने के लिए निर्मित की गई थी, जो अपने हिसाब से एक बड़ी व्यवस्था थी। दो बड़े फ़ानूसों की रौशनी से टेबल सुशोभित था। जब प्रियम्बदा ने भोजन गृह में प्रवेश किया, तो वहाँ उपस्थित सभी लोग उसके सम्मान में खड़े हो गए - उसके सास ससुर भी! ऐसा होते तो कभी सुना ही नहीं... देखना तो दूर की बात है!

‘सच में - बहुओं का तो कैसा अनोखा सम्मान होता है यहाँ,’ उसने सोचा।

सोच कर अच्छा भी लगा उसको और बेहद घबराहट भी! मन में उसके यह डर समाने लगा कि कहीं वो ऐसा कुछ न कर बैठे, जिससे ससुराल का नाम छोटा हो! लेकिन उसके डर के विपरीत, उसके ससुराल के लोग यह चाहते थे कि उसको किसी भी बात का डर न हो! और वो अपने नए परिवार में आनंद से रह सके। उसको और हरीश को साथ में बैठाया गया। प्रियम्बदा के चेहरे पर, नाक तक घूँघट का आवरण था, लिहाज़ा देखने की चेष्टा करने वालों को केवल उसके होंठ और उसकी ठुड्डी दिखाई दे रही थी। उसके बगल में बैठा हुआ हरीश भी उसको देखना चाहता था, लेकिन शिष्टाचार के चलते वो संभव नहीं था।

यह एक मल्टी-कोर्स भोज था, और उसके यहाँ की व्यवस्था से थोड़ा अलग था। उसको भी लग रहा था कि नई बहू के स्वागत में उसके ससुराल वाले बढ़ चढ़ के ‘दिखावा’ कर रहे थे! खाने का कार्यक्रम बहुत देर तक चला - एक एक कर के कई कोर्स परोसे जा रहे थे। इस तरह की बहुतायत उसने पहले नहीं देखी थी। भोजन आनंदपूर्ण और स्वादिष्ट था, और आज के बेहद ख़ास मौके के अनुकूल भी था! नई बहू जो आई थी। खैर, आनंद और हँसी मज़ाक के साथ अंततः रात्रिभोज समाप्त हुआ।

“बहू,” अंततः महारानी जी (सास) ने प्रियम्बदा से बड़े ही अपनेपन, और बड़ी अनौपचारिकता से अपने गले से लगाते हुए कहा, “अब तुम विश्राम करो... आशा है कि सब कुछ तुम्हारी पसंद के अनुसार रहा होगा! अभी सो जाओ... सवेरे मिलेंगे! तब तुमको इस्टेट दिखाने ले चलेंगे! कल कई लोग तुमसे मिलने आएँगे!”

“जी माँ!” उसने कहा और उनके पैर छुए। फिर अपने ससुर के भी।

“सदा सुहागन रहो! ... सदा प्रसन्न रहो!” दोनों ने उसको आशीर्वाद दिया।

“और,” उसके ससुर ने यह बात जोड़ी, “हमसे बहुत फॉर्मल होने की ज़रुरत नहीं है बेटे... ये तुम्हारा घर है! हमको भी अपने माता पिता जैसा ही मानो। जैसे उनके साथ करती हो, वैसे ही हमारे साथ करो... बस, यही आशा है कि अपने तरीक़े से, बड़े आनंद से रहो यहाँ!”

यह बात सुन कर उसका मन खिल गया।

‘श्रापित परिवार,’ यह बात सुन सुन कर उसका मन खट्टा हो गया था। लेकिन कैसे भले लोग हैं यहाँ! अच्छा है कि वो एक श्रापित परिवार में ब्याही गई... अनगिनत ‘धन्य’ परिवारों में ब्याही गई अनगिनत लड़कियों की क्या दशा होती है, सभी जानते हैं।

दो सेविकाएँ उसको भोजन गृह से वापस उसके कमरे में लिवा लाईं। कमरे में आ कर उसने देखा कि कमरे में रखी एक बड़ी अलमारी में उसका व्यक्तिगत सामान आवश्यकतानुसार - जैसे मुख्य कपड़े और ज़ेवर इत्यादि - सुसज्जित और सुव्यवस्थित तरीक़े से लगा दिया गया था। उसका अन्य सामान महल में कहीं और रखा गया था, जिनको सेविकाओं को कह कर मँगाया जा सकता था।

कमरे में उसको लिवा कर सेविकाओं ने उससे पूछा कि उसको कुछ चाहिए। उसने जब ‘न’ में सर हिलाया, तब दोनों उसको मुस्कुराती हुई, ‘गुड नाईट’ बोल कर बाहर निकल लीं। शायद सेविकाओं में भी यह चर्चा आम हो गई हो कि नई बहू बहुत ‘सीधी’ हैं।

अब आगे क्या होगा, यह सोचती हुई वो अनिश्चय के साथ पलंग पर बैठी रही।

सेविकाओं के बाहर जाने के कोई पंद्रह मिनट बाद हरिश्चंद्र कमरे में आता है। पलंग पर यूँ, सकुचाई सी बैठी रहना, प्रियम्बदा को बड़ा अस्वाभाविक सा, और अवास्तविक सा लग रहा था। विवाह से ले कर अभी तक के अंतराल में उसकी हरीश से बस तीन चार बार ही, और वो भी एक दो शब्दों की बातचीत हुई थी। एक ऐसी स्त्री, जिसका काम शिक्षण का था, होने के नाते यह बहुत ही अजीब से परिस्थिति थी उसके लिए। उसकी आदत अन्य लोगों से बात चीत करने की थी, उनसे पहल करने की थी, लेकिन यहाँ सब उल्टा पुल्टा हो गया था!

और तो और, पलंग पर उसके बगल बैठ कर हरीश भी उतना ही सकुचाया हुआ सा प्रतीत हो रहा था। दो अनजाने लोग, यूँ ही अचानक से एक कमरे में एक साथ डाल दिए गए थे, इस उम्मीद में कि वो अब एक दूसरे के साथ अंतरंग हो जाएँगे! कुछ लोग शायद हो भी जाते हैं, लेकिन बहुत से लोग हैं, जिनके लिए ये सब उतना आसान नहीं होता।

“अ... आपको हमारा महाराजपुर कैसा लगा?” उसने हिचकते हुए पूछा।

“अच्छा,” शालीन सा, लेकिन एक बेहद संछिप्त सा उत्तर।

कुछ देर दोनों में चुप्पी सधी रही। शायद हरीश को उम्मीद रही हो कि प्रियम्बदा इस बातचीत का सूत्र सम्हाल लेगी! उधर प्रियम्बदा को आशा थी कि शायद हरीश कुछ आगे पूछें! लेकिन ऐसे दो टूक उत्तर के बाद आदमी पूछे भी तो क्या?

जब बहुत देर तक प्रियम्बदा ने कुछ नहीं कहा, तब हरीश को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे! खुद को लड़कियों से दूर रखने की क़वायद में उसको यह ज्ञान ही नहीं आया कि उनसे बात कैसे करनी हैं। दोनों काफी देर तक चुप्पी साधे बैठे रहे, इस उम्मीद में कि अगला/अगली बातें करेगा/करेगी!

अंततः हार कर हरीश ने ही कहा, “अ... आप... आप सो जाईए! कल मिलते हैं!”

“क्यों?” प्रियम्बदा ने चकित हो कर कहा, “... म्मे... मेरा मतलब... आप कहाँ...?”

उसको निराशा भी हुई कि शायद उसी के कारण हरीश का मन अब आगे ‘और’ बातें करने का नहीं हो रहा हो।

“कहीं नहीं...” हरीश ने एक फ़ीकी सी हँसी दी, “मैं यहाँ सोफ़े पर लेट जाऊँगा!”

“क्यों?” ये तो और भी निराशाजनक बात थी।

“कहीं आपको... उम्... अजीब न लगे!” उसने कहा, और पलंग से उठने लगा।

वो दो कदम चला होगा कि, “सुनिए,” प्रियम्बदा ने आवाज़ दी, “... मैं... अ... हम... आप...” लेकिन आगे जो कहना था उसमें उसकी जीभ लड़बड़ा गई।

“जी?”

प्रियम्बदा ने एक गहरी साँस भरी, “जी... हम आपसे कुछ कहना चाहते हैं!”

“जी कहिए...”

“प... पहले आप बैठ जाईए... प्लीज़!”

हरीश को यह सुन कर बड़ा भला लगा। जीवन में शायद पहली बार स्त्री का संग मिल रहा था उसको! प्रियम्बदा सभ्य, सौम्य, स्निग्ध, और खानदानी लड़की थी - यह सभी गुण किसी को भी आकर्षित कर सकते हैं।

“हमको मालूम है कि... कि अपनी... आ... आपके मन में कई सारी हसरतें रही होंगी... अपनी शादी को ले कर!” प्रियम्बदा ने हिचकते हुए कहना शुरू किया, “ले... लेकिन,”

“ओह गॉड,” हरीश ने बीच में ही उसकी बात रोकते हुए कहा, “... अरे... आप ऐसे कुछ मत सोचिए... प्लीज़! ... पिताजी ने कुछ सोच कर ही हमको आपके लायक़ समझा होगा! ... मैं तो बस इसी कोशिश में हूँ कि आपको हमसे कोई निराशा न हो!” कहते हुए हरीश ने अपना सर नीचे झुका लिया।

उसकी बात इतनी निर्मल थी कि प्रियम्बदा का हृदय लरज गया, “सुनिए... देखिए हमारी तरफ़...”

हरीश ने प्रियम्बदा की ओर देखा - उसका चेहरा अभी भी घूँघट से ढँका हुआ था, “... आप की ही तरह हम भी अपने पिता जी की समझदारी के भरोसे इस विवाह के लिए सहमत हुए हैं... किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि आप हमको पसंद नहीं! ... हमको... हमको आपके गुणों... आपकी क़्वालिटीज़ का पता है! ... आप हमको बहुत... बहुत पसंद हैं!”

अपनी बढ़ाई सुन कर हरीश को बहुत अच्छा लगा।

“... और,” प्रियम्बदा ने कहना जारी रखा, “आपको सोफ़े पर सोने की कोई ज़रुरत नहीं है! ... हमारे पति हैं आप!”

यह सुन कर हरीश में थोड़ा साहस भी आया; उसने मुस्कुराते हुए पूछा, “हम... हम आपका घूँघट हटा दें?”

प्रियम्बदा ने लजाते हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया। अनायास ही उसके होंठों पर एक स्निग्ध मुस्कान आ गई। लज्जा की सिन्दूरी चादर उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।

हरीश ने कम्पित हाथों से प्रियम्बदा का घूँघट उठा कर पीछे कर दिया... इतनी देर में पहली बार प्रियम्बदा को थोड़ा खुला खुला सा लगा। उसने एक गहरी साँस भरी... उसकी नज़रें अभी भी नीचे ही थीं, लेकिन होंठों पर मुस्कान बरक़रार थी। साँस लेने से उसके पतले से नथुने थोड़ा फड़क उठे। उसके साँवले सलोने चेहरे की यह छोटी छोटी सी बातें हरीश को बहुत अच्छी लगीं। अच्छी क्यों न लगतीं? अब ये लड़की उसकी अपनी थी!

अवश्य ही प्रियम्बदा कोई अगाध सुंदरी नहीं थी, लेकिन उसके रूप में लावण्य अवश्य था। साधारण तो था, लेकिन साथ ही साथ उसका चेहरा मनभावन भी था। हरीश का मन मचल उठा, और दिल की धड़कनें बढ़ गईं।

रहा नहीं गया उससे... अचानक ही उसने प्रियम्बदा को अपनी बाहों में भर के उसके होंठों पर चुम्बन रसीद दिया। एक अप्रत्याशित सी हरकत, लेकिन प्रियम्बदा के पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई - एक अपरिचित सी सिहरन! जैसा डर लगने पर होता है। ऐसी कोई अनहोनी नहीं हो गई थी, लेकिन इस आक्रमण से प्रियम्बदा थोड़ी अचकचा गई। और... सहज वृत्ति के कारण उसने अपनी हथेली के पिछले हिस्से से, अपने होंठों पर से हरीश का चुम्बन पोंछ दिया।

“अरे,” हरीश ने लगभग हँसते हुए और थोड़ी निराशा वाले भाव से शिकायत करी, “आपने इसको पोंछ क्यों दिया?”

“आपने मुझको यूँ जूठा क्यों किया?” उसने भोलेपन से अपनी शिकायत दर्ज़ करी।

अंतरंगता के मामले में दोनों ही निरे नौसिखिए सिद्ध होते जा रहे थे!

यौन शिक्षा के अभाव, और चारित्रिक पहरे में पले बढ़े लोगों का शायद यही अंजाम होता है। उन दोनों को सेक्स को ले कर जो भी थोड़ा बहुत अधकचरा ज्ञान मालूम था, वो अपने मित्रों से था। परिवार से इस बारे में कुछ भी शिक्षा नहीं मिली थी। शायद परिवार वालों ने उनसे यह उम्मीद की हुई थी, कि जब आवश्यकता होगी, तब वो किसी सिद्धहस्त खिलाड़ी की तरह सब कर लेंगे! जहाँ प्रियम्बदा को ‘पति पत्नी के बीच क्या होता है’ वाले विषय का एक मोटा मोटा अंदाज़ा था, वहीं हरीश को उससे बस थोड़ा सा ही अधिक ज्ञान था। लेकिन ‘करना कैसे है’ का चातुर्य दोनों के ही पास नहीं था।

“मैं नहीं तो आपको और कौन जूठा कर सकता है?” हरीश ने पूछा।

“कोई भी नहीं!” प्रियम्बदा ने बच्चों की सी ज़िद से कहा।

“क्या सच में...” हरीश बोला, और प्रियम्बदा के बेहद करीब आ कर उसके माथे को चूम कर आगे बोला, “... कोई भी नहीं?”

प्रियम्बदा ने हरीश के इस बार के चुम्बन में कुछ ऐसी अनोखी, अंतरंग, और कोमल सी बात महसूस करी, कि उससे वो चुम्बन पोंछा नहीं जा सका। उसका दिल न जाने कैसे, बिल्कुल अपरिचित सी भावना से लरज गया।

हरीश ने इस सकारात्मक प्रभाव को बख़ूबी देखा, और बड़े आत्मविश्वास से प्रियम्बदा की दोनों आँखों को बारी बारी चूमा। इस बार भी उसके चुम्बनों को नहीं पोंछा गया।

“कोई भी नहीं?” उसने फिर से पूछा।

प्रियम्बदा ने कुछ नहीं कहा। बस, अपनी बड़ी बड़ी आँखों से अपने पति की शरारती आँखों में देखती रही।

हरीश ने इस बार प्रियम्बदा की नाक के अग्रभाग को चूमा।

“कोई भी नहीं?” उसने फिर से पूछा।

उत्तर में प्रियम्बदा के होंठों पर एक मीठी सी मुस्कान आ गई।

हरीश ने एक बार फिर से उसके होंठों को चूमा। इस बार प्रियम्बदा ने भी उत्तर में उसको चूमा।

“कोई भी नहीं?”

“कोई भी नहीं!” प्रियम्बदा ने मुस्कुराते हुए, धीरे से कहा।

कुछ भी हो, मनुष्य में लैंगिक आकर्षण की यह प्रवृत्ति प्रकृति-प्रदत्त होती है। यह ज्ञान हम साथ में ले कर पैदा होते हैं। कुछ समय अनाड़ियों जैसी हरकतें अवश्य कर लें, लेकिन एक समय आता है जब प्रकृति हम पर हावी हो ही जाती है। उस समय हम ऐसे ऐसे काम करते हैं, जिनके बारे में हमको पूर्व में कोई ज्ञान ही नहीं होता! हरीश और प्रियम्बदा के बीच चुम्बनों का आदान प्रदान होंठों तक ही नहीं रुका, बल्कि आगे भी चलता रहा। होंठों से होते हुए अब वो उसकी गर्दन को चूम रहा था।

और उसके कारण प्रियम्बदा का घूँघट कब का बिस्तर पर ही गिर गया। प्रियम्बदा ने जो चोली पहन रखी थी, वो पारम्परिक राजस्थानी तरीक़े की थी - कुर्ती-नुमा! लेकिन उसकी फ़िटिंग ढीली ढाली न रहे, उसके लिए चोली के साइड में डोरियाँ लगी हुई थीं, जिनको आवश्यकतानुसार कसा या ढीला किया जा सकता था। हरीश को मालूम था इस वस्त्र के बारे में, लेकिन प्रियम्बदा को नहीं। उसको सामान्य ब्लाउज पहनने की आदत थी। इसलिए जब उसने अचानक ही अपने स्तनों पर कपड़े का कसाव लुप्त होता महसूस किया, तो उसको भी कौतूहल हुआ।

एक तरफ़ हरीश उसके वक्ष-विदरण को चूम रहा था, तो दूसरी तरफ़ उसका हाथ चोली के भीतर प्रविष्ट हो कर उसके एक स्तन से खेल रहा था। पुरुष का ऐसा अंतरंग स्पर्श अपने जीवन में प्रियम्बदा ने पहली बार महसूस किया था। उसके दोनों चूचक उत्तेजित हो कर सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। हरीश भी आश्चर्यचकित था - कैसे वो इतने साहस से ये सब कुछ कर पा रहा था! प्रियम्बदा उससे उम्र में कहीं अधिक बड़ी है, और अपनी से बड़ी लड़कियों और महिलाओं का वो बहुत आदर करता था... उनके पैर छूता था, उनसे नज़र मिला कर बात नहीं करता था। फिर भी न जाने किन भावनाओं के वशीभूत हो कर वो ऐसे ऐसे काम कर रहा था, जिनकी उसने अभी तक केवल कल्पना ही करी थी। अपनी हथेली पर चुभते हुए प्रियम्बदा के चूचक उसको बड़े ही भले लग रहे थे। यह जो भी ‘अदृश्य शक्ति’, या अबूझ भावना थी, जो उससे यह सब करवा रही थी, अभी भी संतुष्ट नहीं हुई थी। उसको और चाहिए था! बहुत कुछ चाहिए था!

हरीश की प्रियम्बदा को चूमने की चाह कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। उसके सीने के खुले हुए भाग पर जब उसके होंठों का स्पर्श हुआ, तब उसको एक अलग ही आनंद की अनुभूति हुई।

‘कितना कोमल... कितना सुखकारी अंग...’

हरीश के मन में उस कोमल और सुखकारी अंग को देखने की ललक जाग उठी... और प्रियम्बदा में उस कोमल और सुखकारी अंग को दिखाने की!

उनके पलँग पर मसनद तकिए लगे हुए थे। उन पर पीठ टिका कर आराम से अधलेटी अवस्था में आराम किया जा सकता था। हरीश ने थोड़ा सा धकेल कर उसको मसनद से टिका कर आराम से बैठा दिया, और उसकी चोली उतारने कर उपक्रम करने लगा। अंदर उसने कुछ भी नहीं पहना हुआ था, लिहाज़ा, कुर्ती-नुमा चोली के ऊपर होते ही उसके स्तन उजागर हो गए। हरीश को जैसे होश ही न रहा हो।

उसको नहीं मालूम था कि अपनी पत्नी के स्तनों की कल्पना वो किस प्रकार करे! तुलना करने के लिए कोई ज्ञान ही नहीं था। स्तनों के नाम पर उसने अपनी माँ और धाय माँ के स्तन देखे थे, और अब उस बात को भी समय हो चला। ऐसे में वो क्या उम्मीद करे, वो बस इस बात की कल्पना ही कर सकता था। हरीश की कल्पना के पंखों को एक बार उड़ान मिली अवश्य थी - जब वो खजुराहो घूमने गया था। उसने वहाँ जो देखा, उस दृश्य ने उसके होश उड़ा दिए! अनेकों आसन... अनेकों कल्पनाएँ! फिर भी, वहाँ के मंदिरों की दीवारों पर उकेरी हुई मूर्तियों को देख कर कितना ही ज्ञान हो सकता है? असल जीवन में उतनी क्षीण कटि, वृहद् नितम्बों और उन्नत वक्षों वाली स्त्रियाँ भला होती ही कहाँ हैं? वो तो मूर्तिकार की कल्पना का रूपांतर मात्र है!

लेकिन इस समय जो उसके सम्मुख था, वो कल्पना से भी बेहतर था। शरीर के अन्य हिस्सों के रंगों के समान ही प्रियम्बदा के स्तनों का रंग था। आकार में वो बड़े, और गोल थे। उसके चूचक भी हरीश की मध्यमा उंगली के जितने मोटे, और उनके गिर्द करीब ढाई इंच व्यास का एरोला! उसके स्तनों को देख कर हरीश को ऐसा लग रहा था जैसे वो दोनों कलश हों, और उन दोनों कलशों में मुँह तक दूध भरा हुआ हो!

वो दृश्य देखते ही, हरीश तत्क्षण एक ऊर्ध्व चूचक से जा लगा, और पूरे उत्साह से चूसने लगा। प्रियम्बदा उसके सामने नग्न होने के कारण वैसे भी घबराई हुई थी, यह सोच कर कि क्या वो अपने पति को पसंद आएगी या नहीं, और इस अचानक हुए आक्रमण से वो चिहुँक गई!

“आह्ह्ह्हह...” उसको उम्मीद नहीं थी कि इतने उच्च स्वर में उसकी चीख निकल जाएगी!

‘हे प्रभु,’ उसने सोचा, ‘कहीं किसी ने सुन न लिया हो!’

प्रत्यक्षतः उसने कहा, “क... क्या कर रहे हैं आप?”

उत्तर देने से पहले हरीश ने कुछ पल और चूसा, फिर बोला, “इनमें... इनमें दूध ही नहीं है...”

यह सुन कर प्रियम्बदा हँसती हुई बोली, “अब आप आ गए हैं न... अब आ जाएगा इनमें दूध!”

“सच में?”

उसने मुस्कुराते हुए ‘हाँ’ में कई बार सर हिलाया।

“आप हमको माँ बनने का सुख दे दीजिए... फिर हम आपको पिलाएँगे...” उसने शरमाते हुए कहा।

“सच में?” हरीश ने उसके करीब आते हुए फुसफुसा कर कहा।

प्रियम्बदा ने फिर से ‘हाँ’ में सर हिलाया, और हाथ बढ़ा कर उसने हरीश का कुर्ता ऊपर किया, और उसके चूड़ीदार पाजामे का इज़ारबंद खोलने लगी। हरीश ने अंदर लँगोट बाँध रखा था। उसने थोड़ा झिझकते हुए हरीश के लिंग को ढँकने वाले वस्त्र को एक तरफ हटाया। एक स्वस्थ उत्तेजित लिंग प्रियम्बदा के सामने उपस्थित था!

“सुनिए...” उसने धीरे से कहा।

“जी?”

“हम... हमें आपको... आपको... नग्न देखना है!”

“क्या? बिना किसी वस्त्र के?”

प्रियम्बदा ने ‘हाँ’ में सर हिलाया। कहा तो उसने! कितनी बार एक ही बात को बोले?

“जी ठीक है...”

वो हरीश की पत्नी अवश्य थी, लेकिन हरीश के मन में उसके लिए एक आदर-सूचक स्थान था - न केवल अपने संस्कार के कारण, बल्कि प्रियम्बदा से छोटा होने के कारण भी! एक तरह से उसको आज्ञा मिली थी अपनी पत्नी से!

हरीश पलँग से उठा, और उठ कर अपने वस्त्र उतारने लगा। रात में थोड़ी सी ठंडक अवश्य थी, लेकिन ऐसी नहीं कि बिना वस्त्रों के न रहा जा सके। थोड़े ही समय में वो पूर्ण नग्न हो कर प्रियम्बदा के सामने उपस्थित था। बिना किसी रूकावट के अब उसका लिंग और भी प्रबलता से स्तंभित था।

प्रियम्बदा ने मन भर के अपने पति को देखा - ‘कैसा मनभावन पुरुष!’ सच में, वो पूरी तरह से हरीश पर मोहित हो गई। कैसी किस्मत कि ऐसा सुन्दर सा पति मिला है उसको!

“आप... आप बहुत... बहुत सुन्दर हैं...” प्रियम्बदा ने कहा, और कहते ही हथेलियों के पीछे अपना चेहरा छुपा लिया।

हरीश अपनी बढ़ाई सुन कर आनंदित हो गया।

“क्या हम आपको भी...” अपनी बात पूरी करने से वो थोड़ा हिचकिचाया।

“आ... आप कर दीजिए... ह... हमसे हो नहीं पाएगा...” वो लजाती हुई बोली, “बहुत लज्जा आएगी...!”

हाँ - लज्जा तो आएगी! थोड़े ही वस्त्र हटे थे, और उतने में ही प्रियम्बदा की मनोस्थिति लज्जास्पद हो गई थी। पूर्ण नग्न होने में तो बेचारी शर्म से दोहरी तिहरी हो जाती!

हरीश ने धड़कते हृदय से प्रियम्बदा को निर्वस्त्र करना शुरू कर दिया - उसको इस काम में आनंद आ रहा था, लेकिन अगर कोई बाहर से देखता, तो उसको यह कोई कामुक कार्य जैसा नहीं लगता! बहुत उद्देश्यपूर्वक वो बस एक के बाद एक कर के उसके कपड़े उतारता जा रहा था। कुछ ही देर में प्रियम्बदा भी पूर्ण नग्न हो कर हरीश के सामने आँखें मींचे हुए बिस्तर पर आधी लेटी हुई थी। उन दोनों में बस इतना ही अंतर था कि प्रियम्बदा का शरीर आभूषणों से लदा-फदा था, और हरीश के शरीर पर नाम-मात्र के आभूषण थे।

हरीश ने पहली बार एक पूर्ण नग्न नारी के दर्शन किए थे! उसने पाया कि प्रियम्बदा की देहयष्टि अच्छी थी! मांसल देह थी, लेकिन स्थूलता केवल उचित स्थानों पर थी, जैसे कि स्तनों पर और नितम्बों पर। योनि-स्थल पूरी तरह से साफ़ था - यह देख कर उसको आश्चर्य हुआ! शायद उसको शहद के प्रयोगों के बारे में नहीं मालूम था। उसको अपनी पत्नी बहुत अच्छी लगी! मन में अनेकों प्रकार की कामनाओं ने घर कर लिया। अब और देर नहीं की जा सकती थी।

वो वापस पलँग पर आया, और बिना कुछ कहे प्रियम्बदा के सामने बैठ गया। वो भी समझ रही थी कि मिलान की घड़ियाँ बस निकट ही हैं। सहज प्रत्याशा में उसने अपनी जाँघें दोनों ओर फ़ैला कर, जैसे हरीश को आमंत्रित कर लिया हो। हरीश ने भी प्रियम्बदा के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए, अपने लिंग को योनिमुख पर बैठाया और उसके अंदर प्रविष्ट हो गया।



*


एक सेविका, महारानी के व्यक्तिगत कक्ष के दरवाज़े पर शिष्ट दस्तख़त देती है।

“आ जाओ...” महारानी ने उसको अंदर आने को कहा।

यह कक्ष प्रियम्बदा और हरीश के कक्ष से छोटा था, और महारानी के अपने निजी प्रयोग के लिए था। वो आज के रात्रि-भोज के बाद शायद इसी इंतज़ार में बैठी हुई थीं। उस सेविका का नाम ‘बेला’ था। महारानी के विवाह के समय वो उनके साथ ही, उनके मायके से आई थी! इसलिए वो उनकी सबसे विश्वासपात्री थी।

बेला को देखते ही वो बड़ी उम्मीद से बोलीं, “बोलो बेला...”

बेला हाथ जोड़ कर शर्माती हुई मुस्कुराई। कुछ बोली नहीं। इतना संकेत बहुत था।

महारानी ने संतोष भरी साँस ली। जैसे मन से कोई बड़ा बोझ उतर गया हो।

“युवराज को युवरानी पसंद तो आईं?”

“जी महारानी जी... बहुत पसंद आईं... और सच कहें, तो युवरानी हैं भी बड़ी सुन्दर!” उसने अर्थपूर्वक कहा।

“बढ़िया!” फिर कुछ सोचते हुए, “... दोनों एक दूसरे के अनुकूल तो हैं?”

“जी महारानी जी! बहुत अनुकूल हैं...” वो फिर से संकोच करने लगी, लेकिन जो काम मिला था वो जानकारी तो देनी ही थी उसको, “आधी घटिका से थोड़ा अधिक ही दोनों का खेल चला...”

“बहुत बढ़िया... बहुत बढ़िया! ... दोनों अभी क्या कर रहे हैं?”

“जी, उनके सोने के बाद ही वहाँ से आई हूँ!”

“अच्छी बात है... देखना, कोई उनके विश्राम में ख़लल न डाले! ... महाराज क्या कर रहे हैं?”

“आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं... रोज़ की भाँति!” बेला ने महारानी को मानो छेड़ते हुए कहा, “किसी सेविका को आपको लिवा लाने का आदेश भी दिया है उन्होंने!”

इस बात पर महारानी मुस्कुराईं।

“बढ़िया...”


*
वाव बहुत ही सुंदर और साहित्यिक वर्णन
यहाँ दोनों अपनी अर्धज्ञान के चलते सकुचते रहे पर दोनों ही अपनी अपनी मर्यादा रखी बहुत ही अच्छा लगा l
अंत में बेला और रानी जी की वार्तालाप यह शायद सभी परिवारों में होता होगा
जैसे मेरे मधु रात्री के बाद मुझसे मेरे जीजा ने पुछा था और मेरी पत्नी से मेरी बहन ने l
😁😊😜
 
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Update # 4


सवेरे हरीश की नींद प्रियम्बदा से पहले खुली। उनके शयनकक्ष को सुबह सुबह की रौशनी पूरी तरह से नहला रही थी। हरीश ने आँखें खुलते ही अपने बगल लेटी अपनी पत्नी को देखा - जो करवट में उसी की तरफ़ मुँह कर के लेटी हुई थी। एक क्षण को उसको बड़ा अलग सा एहसास हुआ - जैसा किसी अपरिचित को अचानक से पा कर होता है, लेकिन अगले ही पल वो एहसास ग़ायब हो गया। ‘प्रिया’... हाँ, यही नाम हरीश ने सोचा हुआ था प्रियम्बदा के लिए... प्रिया! उसकी प्रिया... अब उसकी अपरिचित तो नहीं रह गई थी! कल रात में दोनों स्थाई रूप से मिल गए थे - जो बंधन उन्होंने अग्नि को साक्षी मान कर बाँधा था, अब वो पूरी तरह से स्थाई हो चला था। उसने बड़े गर्व से यह सोचा, फिर प्रिया पर दृष्टि डाली!


एक बेहद उत्कृष्ट गुणवत्ता वाली, लेकिन पतली सी चादर से ढँका हुआ उसका शरीर बहुत आकर्षक लग रहा था! कल इसी शरीर के साथ संसर्ग कर के जो अलौकिक आनंद उसको मिला था, वो अवर्णनीय था! कितना डर लग रहा था उसको कि क्या वो अपने से इतनी बड़ी उम्र वाली लड़की से इस तरह से अंतरंग हो भी सकेगा? लेकिन प्रिया आश्चर्यजनक रूप से एक अद्भुत साथी के रूप में सामने आई थी! हरीश की तरह वो भी नौसिखिया थी, लेकिन उसने पूरे सम्भोग के दौरान न केवल हरीश का हौसला ही बढ़ाया था, बल्कि सम्भोग की हर गतिविध में पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लिया था! हर नई ख़ोज, हर नए अनुभव के बारे में उसने हरीश को बताया था। ऐसी पत्नी पा कर वो बहुत खुश था! कुछ देर उसको यूँ निहारने के बाद हरीश से रहा नहीं गया - उसने बहुत गुपचुप तरीके से चादर को हटा दिया, जिससे प्रिया सोती रहे, और वो उसके सौंदर्य का अवलोकन कर सके।

सुबह की ठण्डक का स्पर्श जैसे ही प्रियम्बदा के शरीर पर हुआ, वैसे ही उसकी त्वचा पर नन्हे नन्हे रौंगटे खड़े हो गए। कक्ष में ऐसी ठंडक नहीं थी कि उसको कोई तक़लीफ़ हो। चादर हटते ही कल रात जो कुछ ठीक से नहीं दिख सका, अब वो सब कुछ निर्बाध तरीके से दृषिगोचर हो रहा था : प्रियम्बदा का साँवला सलोना रंग, सुबह की स्वर्णिम रौशनी में ऐसा चमक रहा था, जैसे कि उसकी त्वचा को शहद से सराबोर कर दिया गया हो! कोमल से होंठ - कल इन्ही होंठों को पहली बार चूम कर उसको ऐसा स्वर्गिक आनंद मिला था, जो उसको उम्र भर याद रहेगा! और ये स्तन... अब जा कर उसको प्रिया के स्तनों का सही सही अनुमान लगा! बढ़िया भरे भरे और लगभग गोल स्तन! साँवले लेकिन शफ़्फ़ाक़ चूचक और एरोला! कल रात के जैसे उन चूचकों में उत्तेजना नहीं थी - वो ऐसे लग रहे थे कि मानों अपनी मालकिन की ही भाँति वो भी सो रहे हों!

कल रात की अंतरंग, कोमल बातें उसकी याद में वापस ताज़ा हो आईं - कैसे ठोस हो गए थे ये... और कैसी मिठास थी उनमें! अगर उनमें अभी से ऐसी मिठास है, तो जब इनके स्तनों में दूध भर जाएगा, तब कैसी मिठास हो जायेगी! मन में उसके लालच आ गया... वो मिठास जब आएगी तब आएगी... फिलहाल अभी की मिठास का मज़ा क्यों न लिया जाए! हरीश थोड़ा सा झुका और अनुगृहीत हो कर उसने प्रियम्बदा का एक चूचक अपने मुँह में ले कर चूसना शुरू कर दिया। चूचक इतना कोमल और संवेदनशील अंग होता है कि इसको छेड़ने से किसी भी स्त्री में बिजली सी तरंग दौड़ जाए! जाहिर सी बात है कि हरीश के होंठों का स्पर्श पा कर प्रियम्बदा की नींद टूट गई।

“हम्म?” वो उनींदी हो कर बोली।

सम्भोग क्रीड़ा के बाद ऐसी गहरी नींद आएगी, उसको आशा ही नहीं थी। विवाहिता होना कैसा अद्भुत सा सुख लिए होता है!

“गुड मॉर्निंग...” हरीश उसके चूचक को अपने मुँह में ही रखे हुए बोला।

“आह्ह... तो अब से हमको ऐसे जगाने का इरादा है आपका?” प्रिया ने बुदबुदाते हुए पूछा।

उसको संशय था कि सवेरे जागने के समय, जब उसकी हालत अस्त व्यस्त रहती है, तो उसको देख कर हरीश न जाने कैसी प्रतिक्रिया देंगे! कोई कुछ भी कह ले, लेकिन हम कैसे दिखते हैं, वो हमारे इम्प्रैशन का सबसे ज़रूरी और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। प्रियम्बदा भी कोई अपवाद नहीं थी - वो भी अपने पति को सुन्दर दिखना चाहती थी। उसको मालूम था कि वो कोई सुंदरी नहीं थी, इसलिए वो जैसी है, कम से कम उसको तो अच्छी तरह से प्रस्तुत करे!

लेकिन हरीश को इस बात की कोई परवाह ही नहीं थी। अपनी पत्नी को नग्न-रूप में पा कर जैसे उसको अब किसी दिखावे की आवश्यकता ही नहीं थी!

“नहीं... इससे भी बेहतर तरीक़े से...”

“क्या? ... आऊऊऊऊ...” वो कुछ कह पाती कि उससे पहले हरीश ने उसके स्तन का और भी अधिक हिस्सा मुँह में ले कर ज़ोर से चूसा...

यह कोई सामान्य चूषण नहीं था - कल रात जैसा भी नहीं! कल तो बहुत संयमित सा था सब कुछ! संयमित, और अनिश्चित सा! लेकिन अभी... प्रिया ने हरीश के होंठों का बल अपने चूचक पर महसूस किया! कल से कहीं अधिक आत्मविश्वास था... कल से कहीं अधिक अधिकार-बोध! एक मीठी, कामुक तरंग उसके पूरे शरीर में दौड़ गई! कैसा अनोखा खेल है ये! अपने पति के सामने वो ऐसी निर्लज्जता से नग्न लेटी हुई है, लेकिन फिर भी ‘वैसी’ लज्जा की अनुभूति नहीं हो रही है! इसमें उसको गर्व हो रहा है कि उसका हरीश उसके नग्न रूप को देख सकता है, और उसका मनचाहे तरीके से आस्वादन कर सकता है!

“मीठा मीठा स्वाद आ रहा है...” थोड़ी देर बाद हरीश ने संतुष्ट आनंद भाव से कहा!

“आप भी न...”

“हम भी न क्या?”

“आप बहुत शरारती हैं...”

“हमारी शरारत आपको देखनी है?”

“नहीं...” प्रिया शर्म से मुस्कुराती हुई बोली।

यह कोई विरोध नहीं था। यह हरीश भी समझ रहा था, और प्रिय भी जानती थी! हरीश ने प्रिया का हाथ लिया और अपने स्तंभित लिंग पर रख दिया।

रात्रिकाल के हल्के उजाले में प्रिया को अभी के जैसा संकोच नहीं हुआ था। लेकिन भोर के उजाले में कुछ अलग ही बात महसूस हो रही थी। सही मायनों में उनके बीच की अंतरंगता अब सामने आई थी। उस कठोर अंग को अपने हाथ पर महसूस कर के उसको ही शर्म आने लगी।

“ए जी,” उसने कहा, “ये ऐसा कठोर सा क्यों हो गया है?”

“आपको नहीं मालूम?”

“मालूम है,” प्रिया को यह स्वीकार करने में शर्म आ गई कि उसका पति उसके साथ भोर सुबह भी सम्भोग करने में इच्छुक है, “लेकिन, अभी तो सुबह हो गई है न...”

“तो?”

“तो... मतलब... ये सब करने के बजाए... अच्छे बच्चों के जैसे उठिए... नहाईए धोईये... पूजा पाठ कीजिए... माता पिता का आशीर्वाद लीजिए...”

संभव है कि हरीश प्रिया की बात को गंभीरता से ले लेता... अगर... अगर कल रात वो पूरे उत्साह के साथ सम्भोग क्रीड़ा में भाग न ले रही होती!

“अवश्य... किन्तु यह सब कोई ‘अच्छा बच्चा’ करता! ... है न?”

“आप नहीं हैं अच्छे बच्चे?”

“नहीं!” हरीश ने मुस्कुराते हुए ‘न’ में सर हिलाया, “लेकिन आप हैं न...”

“हम?”

“हाँ... हमारे अच्छे अच्छे बच्चे... आप ही से तो आने वाले हैं!”

“हा हा हा...!” प्रिया को मद्धिम सी हँसी आ गई उसकी बात पर!

“फ़िर?”

“फ़िर... क्या?”

“क्या इरादा है आपका?”

“... आपकी इच्छा... हमारे लिए... आज्ञा है! और आपकी आज्ञा शिरोधार्य है...” प्रिया ने लज्जा से, बड़े धीमे से कहा, “और... हम तो हैं ही... आपकी संतानों की माँ...”

“हमारी संतानें...?”

“... होने वाली संतानें... हम ही से तो आएँगी! हम ही तो हैं उनकी माँ!”

“तो?”

“तो... तो फ़िर... शुरू कीजिए न...”

“अवश्य... युवरानी जी...”

हरीश ने कहा, और प्रिया को बिस्तर पर चित कर के लिटा दिया, और उसकी जाँघें खोल कर, वापस उसके अंदर प्रविष्ट हो गया।

“ओओहहह...” प्रिया के गले से एक मीठी कराह निकल गई, जो हरीश के हर धक्के के साथ और भी गहरी होने लगी!

आठ से दस मिनट तक चले सम्भोग के बाद दोनों संतुष्ट हो कर एक दूसरे के मज़बूत आलिंगन में बँध कर अभी अभी संपन्न हुए सम्भोग की सुखानुभूति लेने लगे।

“क्या सोच रहे हैं आप?” प्रिया ने ही चुप्पी तोड़ी।

“प्रिया... हम आपको प्रिया कह कर बुला सकते हैं?”

“आप मुझको जिस भी नाम से पुकारेंगे, वही मेरा नाम है!”

हरीश मुस्कुराया, “प्रिया, हम आपको हमेशा ख़ुश रखेंगे! यह हमारा वचन है!”

“हमको मालूम है...” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “हम भी आपको वचन देते है कि हम आपकी हर इच्छा को यथासंभव पूरा करेंगे... कम से कम पूरा करने का प्रयास करेंगे!”

प्रिया की बात पर हरीश थोड़ी देर चुप हो गया, और फिर कुछ सोचते हुए बोला,

“हमारी... या यह कह लीजिए कि हमारे परिवार की केवल एक ही इच्छा है... हमारे परिवार पर लगा श्राप उतर जाए... बस!”

“श्राप?”

“आपको किसी ने बताया नहीं?”

“नहीं...” प्रियम्बदा को पता था, लेकिन वो अपने पति के मुख से सब सुनना जानना चाहती थी।

लिहाज़ा हरीश ने उसको सब कुछ बताया। कम से कम इस बात को छुपाया नहीं गया।

“क्या सच में हमारे परिवार में कन्याएँ नहीं होतीं!”

हरीश ने बड़ी निराशा से सर हिलाया, “उस श्राप के बाद से नहीं हुईं... अभी तक!”

न जाने किस प्रेरणा से प्रियम्बदा ने गहरी साँस भर के कहा, “आपसे एक बात कहें?”

हरीश ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“हमको लगता है कि इस श्राप को उतारने में हमारी बड़ी अहम् भूमिका होने वाली है!”

“क्या सच?”

“जी... इतने सुन्दर परिवार पर किसी भी प्रकार का श्राप नहीं लगा होना चाहिए! ... हम आपको वचन देते हैं... हम सारे व्रत और अनुष्ठान करेंगे, लेकिन इस श्राप को बोझ अवश्य उतारेंगे! ... राज परिवार को एक प्यारी सी राजकुमारी अवश्य मिलेगी!”

“ओह प्रिया... प्रिया...” हरीश ने प्रियम्बदा को चूमते हुए आनंदमय होते हुए कहा, “आज हम इतने प्रसन्न हैं कि आपको बता नहीं सकते! ईश्वर आपको और हमको एक पुत्री का वरदान दें... बस यही कामना है!”


*
हम्म्म बहुत ही प्यारी सुप्रभात प्रिया ने वचन दिया है और उसे हमेशा खुश रखेगा हरीश ऐसा वचन भी मिल गया है l
जीवन इतना सरल थोड़े ही है, आगे समय का कालचक्र क्या क्या दिखाएगा देखते हैं l
 
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Update #5


स्थान : शिकागो... ईस्ट इंडिया टेक्सटाइल्स एल एल सी का बोर्ड रूम।

अवसर : कंपनी की एमर्जेन्सी बोर्ड मीटिंग।

इमरजेंसी बोर्ड मीटिंग इसलिए रखी गई थी कि हाल के कुछ समय से कंपनी की आय में जो लगातार कमी हो रही थी, उसको रोका कैसे जाए? कंपनी के सभी अफ़सरान मौज़ूद थे और लगभग सभी ने अपनी अपनी बात और आय कम होने के अपने अपने बहाने सामने रख दिए थे। फिर भी बात जहाँ थी, वहीं अटकी हुई थी। लिहाज़ा, मीटिंग शुरू होने के कोई तीन घण्टे बाद भी समस्या का कोई समाधान नहीं निकला था... और मीटिंग अंत होने का कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था!

सबसे अंत में जय को बोलने का मौका मिला था, और वो पिछले पाँच मिनट से बड़ी सधी हुई और सटीक भाषा में अपनी बात कह रहा था। कम उम्र होने के बड़े नुकसान हैं - फिर चाहे आप किसी कंपनी के सीओओ ही क्यों न हों! जय उसी नुक़सान से त्रस्त था; और अब किसी न किसी तरीके से कंपनी में अपनी आवश्यकता और महत्ता को दर्ज कराना चाह रहा था!

“भैया, मुझको अभी भी लगता है कि अपने बिज़नेस प्रॉब्लम को सॉल्व करने के लिए हमको एक अलग तरीक़े... एक अलग सोच की ज़रुरत है!” जय बड़े उत्साह के साथ कह रहा था, “ऐसा नहीं हो सकता है... नहीं होना चाहिए कि हमारे जैसा एक्सोटिक गुड्स का बिज़नेस, जिसका इतना यूनिक बिज़नेस मॉडल हो... अमेरिकन मार्किट में इस तरह से स्ट्रगल करे!”

जय, ईस्ट इंडिया टेक्सटाइल्स का चीफ ऑपरेटिंग ऑफ़िसर था।

ईस्ट इंडिया टेक्सटाइल्स लिमिटेड लायबिलिटी कॉर्पोरेशन, या ईआईटी, कोई दस साल पहले, अमेरिका के शिकागो शहर में शुरू की गई थी। ईआईटी, भारत से उत्तम किस्म के तमाम फैब्रिक्स की न केवल आयात ही करती थी, बल्कि अमेरिकन ग्राहकों को भारतीय हस्त-कौशल का ऑन-हैंड्स एक्सपीरियंस भी कराती थी। यह कंपनी देखने सुनने में एक कुटीर उद्योग जैसी थी, लेकिन अमेरिका के सभी मुख्य शहरों में सामान की आपूर्ति करती थी - ख़ास कर शिकागो, न्यू यॉर्क, और डेट्रॉइट! ये तीनों, न केवल अमेरिका के सबसे बड़े शहरों में से थे, बल्कि ये ठण्डे शहर भी थे। ईआईटी के एक्सोटिक, रंग-बिरंगे और आराम-दायक ऊनी कपड़े बड़ी आसानी से इन तीनों शहरों में खप सकते थे। शुरू शुरू में ऐसा हुआ भी! किस्म किस्म के सुन्दर फैब्रिक्स की न केवल देसी प्रवासियों, बल्कि अमेरिकी मूल के लोगों में बढ़िया डिमांड थी। स्थानीय फैशन हाउसेस, और ड्रेस-मेकर्स नए फ़ैशनेबल कपड़ों के लिए इसी तरह के फैब्रिक्स की तलाश में रहते थे। इसके साथ ईआईटी ग्राहकों को कपड़ा बुनने और परिधान बनाने की पारम्परिक भारतीय विधि का अनुभव करने का भी अवसर देती थी - तो सप्ताहांत में ग्राहकों का ताँता लगा रहता था।

इन कारणों से शुरू शुरू में बढ़िया मुनाफ़ा भी हुआ, लेकिन हालिया दो तीन सालों में बिज़नेस लड़खड़ाने लगा था। कंपनी मालिकान को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों है!

जय ने शिकागो यूनिवर्सिटी से बैचलर्स ऑफ़ इकोनॉमिक्स की पढ़ाई अभी हाल ही में समाप्त करी थी। पढ़ाई समाप्त करते ही, जैसी की सभी को आशा थी, उसने कंपनी के सीओओ के रूप में कार्यभार सम्हाल लिया था। ईआईटी का सीईओ था जय का बड़ा भाई, आदित्य, जो जय से कोई सात आठ साल बड़ा था। उसने दिल्ली विश्वविद्यालय से कॉमर्स में बीए की डिग्री हासिल करी थी। उसने भी जय की ही भाँति (कहना यह चाहिए कि जय ने आदित्य की भाँति) अपने पिता के साथ कंपनी के कुछ समय बाद से काम करना शुरू कर दिया था। हाँलाकि ईआईटी के बिज़नेस मॉडल की परिकल्पना आदित्य की थी, लेकिन उसकी स्थापना उसके पिता ने करी थी। लेकिन, पाँच-छः साल पहले अपने पिता की मृत्यु होने के बाद, आदित्य ने ही ईआईटी की कमान पूरी तरह से सम्हाल ली। उसके छोटे भाई, जय को उसकी ही देख-रेख में छोड़ दिया गया था, जिससे कि उसकी पढ़ाई लिखाई वहीं, अमेरिका में ही हो सके!

इसलिए आश्चर्य नहीं कि आदित्य और जय, दोनों यहीं अमेरिका के ही निवासी बन कर यहीं रह गए थे, और वहाँ के नागरिक भी बन गए थे। हाँलाकि उनके माँ बाप चाहते तो यही थे कि दोनों का भारत देश से डोर न टूटे, लेकिन आदित्य ने कुछ साल पहले, अमेरिकी मूल की एक श्वेत लड़की, क्लेयर से विवाह कर लिया था। शादी के बाद जल्दी जल्दी उसको क्लेयर से दो बेटे भी हो गए थे। जब अपनी जड़ें दूसरे स्थानों में फैलने लगीं, तो ऐसे में उनके लिए भारत में स्थाई रूप से रह पाना असंभव हो गया था और अव्यवहारिक भी! इस समय जय उसके साथ ही रह रहा था, और उसकी पढ़ाई छुड़ाना सही नहीं था। लिहाज़ा, परिवार में केवल आदित्य की माँ ही थीं, जो भारत में बचीं रही। वो भारत छोड़ कर अमेरिका में आ कर बसना नहीं चाहती थीं, इसलिए भारत में ही रहती थीं। यह अवश्य था कि साल में कम से कम एक बार, वो अपने बेटों से मिलने शिकागो आती थीं, और वो दोनों भी या तो साथ में, या फिर बारी बारी से अपनी माँ से मिलने भारत अवश्य आते! यह व्यवस्था कमोवेश सभी प्रवासी भारतीयों में आज भी देखी जा सकती है।

विदेशी लड़कियों के बारे में हमारे देश में अनेकों भ्रांतियाँ फैली हुई हैं - ख़ास कर उनके चरित्र, व्यवहार, और आचरण को ले कर! ये भ्रांतियाँ ख़ास कर सिनेमा की देन हैं। वहाँ के समाज की सच्चाई चाहे जो कुछ हो, लेकिन सभी आशंकाओं के विपरीत, क्लेयर अपने पति के लिए बड़ी आदर्श पत्नी साबित हुई थी! आदित्य के पिता की मृत्यु के बाद उसने आदित्य को जिस तरह से सम्हाला था, वो दर्शनीय था सभी के लिए। उस नाज़ुक समय पर उसको एक दृढ़ सहारे की आवश्यकता थी, जिसको क्लेयर ने पूरा किया। उसके प्रेम में वो पहले ही पगी हुई थी... उसने न केवल आदित्य से शादी ही करी, बल्कि जल्दी जल्दी दो पुत्रों को जन कर, उसके घर को पूरा भी कर दिया। लोग अपने ही परिवार के सदस्यों को बोझ मानने लगते हैं; लेकिन, क्लेयर ने अपने देवर जय की भी देखभाल में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी! अपने छोटे भाई के समान ही उसने जय की देखभाल करी। कुल मिला कर हँसता खेलता, उच्चवर्गीय, अमेरिकन परिवार था यह!

यह हुई जय और आदित्य के परिवार की जानकारी। अब वापस बोर्ड मीटिंग की तरफ़ मुखातिब होते हैं।

“जय, तुम्हारी बात ठीक है... लेकिन, क्या करें हम? क्या करना चाहिए?” आदित्य ने कहा फिर सोचते हुए बोला, “... कभी कभी कम्पनीज़ यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर्स से अपनी बिज़नेस प्रॉब्लम डिसकस करती हैं... तुम्हारी यूनिवर्सिटी तो बिज़नेस एजुकेशन के लिए फेमस है न! ... क्यों न तुम ही किसी से मिलो?”

“भैया, आपने मेरे मुँह की बात छीन ली... मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रहा था। लेकिन प्रोफ़ेसर नहीं... वो लोग बहुत थेओरेटिकल सोचते हैं... हमको प्रैक्टिकल एडवाइस चाहिए! प्रैक्टिकल एंड क्विक!”

“फेयर एनफ... तो क्या है तुम जो कहना चाहते हो?”

“भैया, क्यों न हम मैनेजमेंट कंसल्टेंट्स हायर करें? ... अधिकतर समय वो बिज़नेस प्रॉब्लम्स की रुट कॉज तक जा कर उसको सोल्व करने का तरीका बताते हैं!”

“ओह, ओके! मैंने सुना है, लेकिन मेरे बिज़नेस सर्किल में किसने उनकी सर्विसेज ली हैं, ये मुझे नहीं पता। ... तुमको कोई अच्छी कंसल्टिंग फर्म मालूम है?”

“दो के बारे में पता है... दोनों में मैंने जॉब के लिए इंटरव्यू किया था...”

“ओह?”

जस्ट फॉर एक्सपीरियंस भैया!” जय ने हँसते हुए कहा।

“कौन कौन सी?”

“एक तो है मकिनली एंड कंपनी, और दूसरी है ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप!”

“कौन सी बेहतर है?”

“वैसे तो दोनों अच्छी हैं, और जानी मानी हैं, लेकिन हमारे लिए बढ़िया वही है, जो हमारी प्रॉब्लम सॉल्व कर दे!”

“अच्छी बात है,” आदित्य ने निश्चयात्मक तरीके से कहा - शायद वो भी इतनी लम्बी बहस और वही घिसे पिटे बहाने सुन कर थक गया था, “तो... एक काम करो! दोनों को कांटेक्ट करो, और हमसे मीटिंग करने के लिए डेलीगेट्स इनवाइट करो! मिलते हैं, और फिर डिसाइड करते हैं? ओके?”

कह कर आदित्य अपनी कुर्सी से उठने लगा।

“ठीक है भैया!”

दोनों के उठने पर सभी उपस्थित लोगों ने राहत की साँस ली! लंच का समय बीत गया था, और सभी थक गए थे! ऐसे में मीटिंग से राहत मिली तो अब आगे की सुध ले सकते थे सभी!

लेकिन जय अपनी बात को सुने जाने और माने जाने से बहुत उत्साहित था। ठीक है, कि फॅमिली बिज़नेस होने के कारण उसका कंपनी में एक बड़ा रोल होना अटल था। लेकिन उसको मालूम था कि अन्य लोग, ख़ास कर सेल्स के अधिकारी, उसकी इज़्ज़त नहीं करते थे। ऐसे में अगर वो किसी तरह से एक कंपनी को इस वित्तीय समस्या से उबारने में साधक सिद्ध हो सकता था, तो न केवल सीओओ के रूप में यह उसकी पहली बड़ी सफलता होती, बल्कि सभी की नज़र में उसका सम्मान भी बढ़ेगा।

उसने बिज़नेस डिरेक्टरी उठाई और मकिनली एंड कंपनी और ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप के साथ साथ एक और कंसल्टिंग कंपनी का कांटेक्ट इन्फॉर्मेशन निकाला और फिर एक बिज़नेस प्रॉब्लम लेटर टाइप कर के उसको उन तीनों कंपनियों को फैक्स कर दिया। बहुत अधिक देर तक इंतज़ार नहीं करना पड़ा उसको। मकिनली एंड कंपनी, और ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप दोनों से ही अगले दो घण्टे के भीतर उसको फ़ोन आ गया - बात करने वालों ने उससे ईआईटी के बिज़नेस, प्रोडक्ट्स, और मार्किट के बारे में कुछ सवाल पूछे, और फिर करीब दो से तीन सप्ताह बाद फिर से बात करने या मिलने के लिए मीटिंग तय कर ली।

आज का दिन समाप्त होते होते जय बहुत संतुष्ट था। वो चाहता था कि कंपनी तरक़्क़ी करे। यह कंपनी पिता जी की निशानी थी... उनकी लेगसी थी! वो चाहता था कि ईआईटी रहे, फूले-फले और आगे बढ़े! अगर इस काम में उसको सफलता मिलती है, तो उसको बहुत संतुष्टि मिलेगी!


*
कहानी अचानक से शिकागो शिफ्ट हो गया है
या तो भारत से बाहर एक समानांतर कोई कहानी चल रही है जो आगे मूल कहानी से टकराएगा या फिर टाइम जम्प किया है l पता नहीं, देखते हैं आगे क्या होता है
 
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जब आपको किसी अभीष्ट की बड़ी तीव्रता से चाह होती है, तब उसको प्राप्त करने के लिए आप कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं।

प्रियम्बदा भी राजपरिवार को एक पुत्री-रत्न देने की चाह में ऐसी पड़ी कि अचानक से ही वो एक नए ख़यालों वाली लड़की से, एक पूजा-पाठ और अनुष्ठान करने वाली दकियानूसी लड़की में बदल गई। पूजा-पाठ करना गलत नहीं होता, अगर उसमें आध्यात्म निहित है। लेकिन केवल अपना काम साधने के लिए किया गया कोई भी काम पाप-विहीन नहीं रह पाता। उसका सारा जीवन जैसे उसी एकमात्र लक्ष्य को साधने पर केंद्रित हो गया। उसके दिन की शुरुवात ही पूजा पाठ से होती। अनेकों व्रत रखती, महंतों, बाबाओं के दर्शन करती, ज्योतिषियों से अपने पूरे परिवार की कुण्डली विचरवाती! वो भी उसको नानाप्रकार के तरीकों से मूर्ख बनाते - कोई भभूत देता, तो कोई यज्ञ करवाता, तो कोई एक विशेष मुहूर्त में सम्भोग करने की सलाह देता! एक अलग ही तरह का पागलपन उसके सर पर सवार हो गया था। ऐसा नहीं था कि उसको एक पुत्री की कोई विशेष चाह थी - बस, पुत्री लिंग की संतान की चाह थी।

वैसे तो उसका आम-तौर पर व्यवहार ठीक ही था, लेकिन हरीश के साथ अंतरंग समयों में उसका व्यवहार ऐसा लगता कि वो जैसे किसी मिशन पर निकली है। सम्भोग के क्षणों में जो कोमल भावनाएँ निहित होती हैं, अब उनके बीच अनुपस्थित थीं। समय साध कर सम्भोग करने में कौन सा आनंद आता है भला? न तो हरीश के लिए, और न ही प्रिया के लिए ही अब वो एक सुखद क्रीड़ा रह गया था। प्रिया अब युवा भी तो नहीं थी - लिहाज़ा उसको गर्भ धारण करने में समय भी लग रहा था। उस कारण से प्रिया की खीझ और भी अधिक बढ़ती जा रही थी। समय बेसमय वो तनाव में दिखाई देती; दसियों को झिड़क देती - ऐसा लगता ही नहीं था कि ये वही हँसमुख प्रिया है, जिसको महाराज घनश्याम सिंह ने अपने पुत्र के लिए पसंद किया था। ऐसा लग रहा था कि दशकों पहले जो श्राप राजपरिवार को मिला था, उसका पूरा बोझ अब प्रिया के सर पर ही आ गया था। उस श्राप ने जैसे उसको अंदर ही अंदर खा लिया था।

अच्छी बात यह थी कि राजमहल के सभी लोग प्रिया के इस बदले हुए स्वरुप का कारण समझते थे, और उससे इस बात के लिए सहानुभूति भी रखते थे। लेकिन फिर भी सभी अंदर ही अंदर चिंतित थे। सभी ईश्वर से यही प्रार्थना करते थे कि प्रभु शीघ्र ही इनकी गोद भर दें, और इनको पुत्री ही दें!

ख़ैर, एक साल के बाद, जो मिशन प्रिया ने साधा था, अब उसमें सफलता दिखाई देनी शुरू हो गई। पूरे महल में हर्ष की लहर दौड़ गई जब पता चला कि युवरानी प्रियम्बदा गर्भवती हो गई हैं! अचानक से ही सभी में प्रसन्नता दिखाई देनी शुरू हो गई - प्रिया भी आनंदित हो गई। उसको पूरा विश्वास था कि उसके देरी से हुए गर्भाधान का कारण यही था कि ईश्वर उसको एक पुत्री की माता होने का आशीर्वाद देना चाहते हैं। उसको विश्वास था कि राजपरिवार का श्राप बस उतरने ही वाला है। प्रिया की देखभाल अब विशेष रूप से होने लगी। देश के सबसे बेहतरीन चिकित्सकों की देख-रेख में उसका गर्भ पल और बढ़ रहा था। इस कारण से पूरे गर्भ की अवधि में कोई समस्या नहीं आई। समय पर उसको प्रसव पीड़ा शुरू हुई और उसको सबसे बेहतरीन अस्पताल में भर्ती किया गया।

प्रसव पीड़ा के कारण प्रियम्बदा कुछ समय के लिए अचेत हो गई। जब उसकी आँखें खुलीं, तो अपने सामने उसने अपने पति का मुस्कुराता हुआ चेहरा पाया। हरीश उसके हाथों को कोमलता से पकड़े हुए उसको चूम रहा था। अपने पतिका संतुष्ट चेहरा देख कर प्रिया समझ गई कि उसकी तपस्या सफ़ल रही। प्रिया का अपने पति के साथ नाता बड़ा अलग प्रकार का था, जो संभवतः अन्य विवाहित जोड़ों से अलग था। आयु में उससे बड़ी होने के कारण उसको ऐसा लगता था कि जैसे वो उसकी अभिवावक है... जैसे उसकी हर इच्छा की पूर्ति करना उसका काम है। एक राहत भरी साँस उसके मुँह से निकल गई, और होंठों पर एक मीठी सी मुस्कान! अचानक ही लगा कि ये वही, पुरानी वाली प्रियम्बदा वापस आ गई!

“आपको कैसा लग रहा है?” हरीश ने पूछा।

एक कमज़ोर सी आवाज़ में वो बोली, “थक गई... कितनी देर के लिए अचेत थे हम?”

“कोई एक घटिका... लेकिन डॉक्टरों ने कहा है कि चिंता वाली कोई बात नहीं है! ... आप पूरी तरह स्वस्थ हैं!” हरीश प्रसन्न होते हुए बोला, “आप क्षत्राणी हैं... हमको तो पहले भी कोई चिंता नहीं थी! ... राजपरिवार को शेर देने वाली स्त्रियाँ दुर्बल नहीं हो सकतीं!”

अपने पति की बात सुन कर प्रिया आनंदित हो उठी।

“और...” उसने उत्सुकतावश पूछा, “हमारी संतान?”

संतान का नाम सुन कर हरीश के चेहरे की मुस्कान और भी बढ़ गई - उसका आनंदित चेहरा इतना सुखकारी था कि प्रिया का मन हुआ कि वो उसको हमेशा उसी रूप में देखे, “हाँ... बहुत बहुत बधाई हो! हम दोनों सिंह के शावक समान ही एक हृष्ट-पुष्ट पुत्र के माता-पिता बन गए हैं!”


*


हाँलाकि प्रियम्बदा को पुत्र-रत्न की प्राप्ति से निराशा अवश्य ही महसूस हुई, लेकिन ऐसे स्वस्थ, सुन्दर, और सूर्य के समान तेजमय चेहरे वाले पुत्र को देख कर अपार संतुष्टि हुई। हमारा समाज ही ऐसा है कि अधिकतर महिलाएँ पुत्र की माता बनने को ही लालायित रहती हैं। तो प्रिया के पास भी कोई कारण नहीं था कि अपनी पहली संतान हेतु, पुत्र की प्राप्ति में, उसको कोई विशेष निराशा होती। वो संतुष्ट थी। क्योंकि उसके सास, ससुर, और पति भी अत्यंत प्रसन्न थे। युवा हर्ष के लिए वो बालक खिलौने जैसा था। दुनिया भर घूम कर, और खेल कर वो हमेशा अपनी भाभी माँ के पास आता, और उस नन्हे बालक के साथ समय बिताता। प्रिया को ऐसा लगता कि वो एक नहीं, बल्कि दो बालकों की माँ है। उसको संतुष्टि होती। जिस पागलपन के कारण उसने अपना जीवन कड़वाहट से भर दिया था, अब वो पागलपन उसके सर से उतर गया था। उसने अपने भाग्य से समझौता कर लिया था - उसको समझ में आ गया था कि जो श्राप एक सती स्त्री ने दिया था, उसको उतार पाना यूँ संभव नहीं है।

बालक के जन्म के कोई चार महीने बाद उसका नामकरण संस्कार का आयोजन रखा गया। सूर्य के जैसे तेज वाले राजकुमार का नाम ‘ज्योतिर्यादित्य’ रखा गया, जो उसके गुणों से हू-ब-हू मेल खाता था!

ज्योतिर्यादित्य बड़ी तेजी से बढ़ रहा था - उसके लालन-पालन, खान-पान, और खेल-कूद का ध्यान रखने के लिए अनेकों दक्ष दासियाँ नियुक्त थीं। वैसे तो अनेकों स्त्रियाँ ज्योतिर्यादित्य की धाय माँ बनने को उत्सुक थीं, लेकिन प्रियम्बदा ने ही यह इच्छा ज़ाहिर करी कि अपने पुत्र को स्तनपान वो ही कराएगी - शावक अपनी सिंहनी माता का दूध पी कर ही सिंह बनता है - बकरी का दूध पी कर नहीं! यह इच्छा राजपरिवारों के चलन से अलग थी, लेकिन किसी ने इस बात का विरोध नहीं किया। सभी जानते थे कि भले ही वो सबके सामने अपनी निराशा जाहिर न होने दे, लेकिन पुत्री न पाने के कारण प्रिया थोड़ी तो निराश थी।

प्रिया की माता ने एक बार उसको यूँ ही, संकेतों में, पुनः गर्भ-धारण करने को समझाया। क्या पता इस बार पुत्री हो? वैसे भी ज्योतिर्यादित्य जिस गति से बड़ा हो रहा था, अब वो अपनी माता का स्तनपान कम ही करता था, और ठोस भोजन करने लगा था। लिहाज़ा, एक तरह से प्रिया के ऊपर से उसके लालन पालन का कर्तव्य-बोझ कम हो गया था। विवाह के आरंभिक एक वर्ष की ही भाँति, हरीश और प्रिया पुनः अगली संतान के लिए प्रतिदिन संभोगरत होने लगे। लेकिन संभवतः अब समय निकल गया था। चौंतीस - पैंतीस की आयु हो जाने के कारण प्रिया की जनन क्षमता कम होने लगी थी। सतत प्रयासों, और दो वर्षों के बाद, प्रिया पुनः गर्भवती हुई, लेकिन गर्भ के दो महीनों बाद ही वो संतान जाती रही। चिकित्सकों ने उन दोनों को समझाया कि अब और प्रयास न करें - अन्यथा प्रिया के स्वास्थ्य को अपूरणीय क्षति होने की आशंका है।

फिलहाल के लिए राजपरिवार अपने ऊपर लगे श्राप को उतार पाने में अक्षम ही रहा!

ऐसे ही चार साल और बात गए!


*


हर्षवर्द्धन - हर्ष, अब युवा हो गया था। देखने में सुन्दर सा, बड़ा ही आकर्षक, और व्यवहार में बड़ा ही सभ्य और मृदुल युवक हो गया था। आज उसका जन्मदिन था। उसके जन्मदिन के आयोजन के लिए सबसे अधिक उत्साह उसकी भाभी माँ को ही था। कभी कभी कुछ ऐसे सम्बन्ध जुड़ जाते हैं, जो कहने सुनने में अविश्वसनीय से लगते हैं। प्रिया और हर्ष का सम्बन्ध वैसा ही था - राजमहल में आते ही जिस व्यक्ति ने प्रिया को बिना किसी पूर्वाग्रह के इतना प्रेम और आदर दिया, वो हर्ष ही था। जैसा कि हमने आप पाठकों को बताया भी, प्रिया भी उसको अपनी पहली संतान जैसा ही मानती थी। दोनों में प्रेम माँ बेटे वाला ही था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि उसके जन्मदिन पर उससे अधिक, और वो भी हमेशा की ही तरह, प्रियम्बदा ही उत्साहित थी।

चूँकि हर्ष सौम्य प्रवृत्ति का व्यक्ति था, उसको यूँ अपना जन्मदिन मनाना बहुत उत्साहित करने वाली बात नहीं लगती थी। थोड़ा शर्मीला था वो! लेकिन इस तरह के प्रयोजनों का एक लाभ यह था कि रियासत की जनता को एक दिन का भोजन करने का अवसर मिल जाता था। हालिया समय में सीमा पर पड़ोसी देश चीन के साथ गहमा-गहमी बढ़ गई थी, और दरबार में अक्सर यह बातें होने लगी थीं कि चीन के साथ युद्ध की सम्भावना है। ऐसे में सरकार के आह्वान में सभी पुरानी रियासतें और राज-परिवार अपने कोष में से यथासंभव योगदान दे रहे थे। जनता पर कर भी बढ़ने लगा था। लिहाज़ा, उसके जन्मदिन के उत्सव के कारण यदि एक दिन के लिए भी जनता को स्वादिष्ट भोजन करने को मिला, तो वो उत्सव सार्थक था। राजपरिवार के उत्सवों के कारण साल में लगभग प्रत्येक माह में ऐसे ही भोज का आयोजन होता ही होता! यह अच्छी बात थी।

लेकिन इस बार, अपनी माँ और भाभी माँ दोनों के भी लाख मनुहार करने के बाद भी वो सज-धज कर तैयार नहीं हुआ था। उसने साधारण वस्त्र - राजस्थानी कुर्ता और धोती पहना, और सर पर राजस्थानी पगड़ी बाँधी! आकर्षक युवक तो वो था ही, लेकिन इस साधारण सी, जन-सामान्य की पोशाक पहनने से उसकी शोभा जैसे सहस्त्रों गुणा बढ़ गई हो! जन्मदिन के आयोजन के अनुसार, सबसे पहला काम यज्ञ का होता था। स्निग्ध सी मुस्कान के साथ जब वो यज्ञ की बेदी पर चढ़ा, तो देखने वाले देखते ही रह गए।

‘कैसा तेज!’

‘कैसा प्रभावशाली व्यक्तित्व!’

‘जैसा सुन्दर व्यक्तित्व, वैसा ही सुन्दर व्यवहार!’

महाराज को अपने छोटे पुत्र के लिए, आज पूरे दिन भर यही बातें सुनने को मिलीं! गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया! देश को चरित्रवान नागरिक देने का उनका सपना साकार हो गया था। दो पुत्र थे उनके, और दोनों ही समझिए आदर्श नागरिक! ऐसी संताने पा कर माता-पिता अपना सर ऊँचा कर के चल पाते हैं!

यज्ञ-पूजा के बाद हर्ष ने अपने परिवार की परम्परानुसार, राज्य की ग़रीब जनता में अनाज की थैलियाँ बाँटीं। महाराज ने अपने पुत्रों को एक शिक्षा यह भी दी थी कि वो भी कोई न कोई काम अवश्य करें, और कुछ धन अवश्य कमाएँ। और साल में जो कुछ भी धन कमाएँ, उसी को वो सबसे पहले दान में दें! वो ही सच्चा दान है, जो श्रम से अर्जित किया जाए और निर्विकार रूप से त्याग दिया जाए! वैसे भी, उनके जीवन यापन के लिए पुरखों की बनाई हुई संपत्ति ही बहुत थी!

संध्याकाल में लोक संगीत, लोक नृत्य का आयोजन था। भोजन तो जनता को पूरे दिन भर कराया जा रहा था। नृत्य और संगीत के आनंद के लिए पूरा राज परिवार और उनके आमंत्रित मेहमान उपस्थित थे। कुछ समय तक लोक संगीत की मनोहर ध्वनि वातावरण में गूँजती रही, और जैसे जैसे रात्रि की गहराई बढ़ती रही, संगीत की ध्वनि और भी आनंदित करने वाली होती रही। जन्मदिवस का अंत लोक नृत्य पर होना था। कोई बारह नृत्यांगनाओं का एक दल, नृत्य करने के लिए उनके सामने उपस्थित हुआ। उधर सारंगी और नागफनी की स्वर-लहरी गूँजी, और उसी की ताल पर जैसे ही धेरु की धमक उठी, नृत्यांगनाओं ने साढ़े हुए अंदाज़ में थिरकना शुरू कर दिया!

जहाँ राजपरिवार के सदस्य मन्त्रमुग्ध हो कर अपने राज्य के अद्भुत लोक संगीत और लोक नृत्य का आनंद ले रहे थे, वहीं राजकुमार हर्षवर्धन की नज़रें, नृत्य प्रदर्शन करती हुई एक लड़की के ऊपर से हट ही नहीं रही थी।

‘रूप लावण्य से भरा, अद्भुत भोला सौंदर्य! ओह!’

हर्ष ने अपने पूरे जीवन में ऐसी भावनाओं का अनुभव नहीं किया था। यह अनुभव जवानी के चढ़ते उफान के कारण नहीं हो रहा था - इस बात का उसको पक्का यकीन था! कुछ तो था इस लड़की में, कि हर्ष चाह कर भी उस पर से अपनी दृष्टि हटा ही नहीं पा रहा था। उसके पिता जी उससे कुछ तो कह रहे थे - लेकिन वो सुन ही नहीं पा रहा था कि वो क्या कह रहे थे। आज से पहले ये हुआ ही नहीं! अपने पिता के साथ वो ऐसी धृष्टता करने की सोच भी नहीं सकता था!

‘कौन है ये लड़की?’

‘क्या नाम है उसका?’

अब उसके मन में बस यही विचार थे!


*
हम्म्म
मतलब प्रियंवदा की तपस्या विफल हो गई
वह एक पुत्र संतान की जननी बन गई
यानी एक और पीढ़ी पर दायित्व आ गया है शायद यह अभिशाप तोड़ने के लिए l
प्रश्न है कौन हर्ष या ज्योति...?
 
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Update #7


मकिनली एंड कंपनी एक पुरानी, स्थापित, और नामचीन कंसल्टिंग कंपनी थी। हाँलाकि ईआईटी ऐसी छोटी कंपनी भी नहीं थी, लेकिन फिर भी, अनेकों स्थापित, बड़ी अमेरिकन कंपनियों के सामने, ईआईटी की कोई हैसियत नहीं थी। यह बात मकिनली एंड कंपनी भी समझ चुकी थी। लिहाज़ा, ईआईटी जैसी कंपनी का प्रोजेक्ट लेना, उनको अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लगा। इसलिए बड़े कंसल्टेंट्स को इस तरह की कंपनी का प्रोजेक्ट लेने में थोड़ा हिचक हो रही थी। इसलिए, उन्होंने दो नौसिखिये कंसल्टेंट्स की टीम को ईआईटी जा कर बात करने को कहा। वो नौसिखिये कंसल्टेंट्स भी अपनी कंपनी के ही रवैये को दिखा रहे थे - उनके प्रेजेंटेशन और हाव भाव सभी में दिख रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वो ईआईटी का प्रोजेक्ट ले कर, उन पर कोई एहसान कर रहे हों।

यह देख कर ईआईटी के बाकी लोगों को तो नहीं, लेकिन जय को बेहद गुस्सा आया! जय ने भले ही अभी तक केवल ग्रेजुएट डिग्री ही हासिल करी थी, लेकिन कम उम्र से ही बिज़नेस देखने, और बिज़नेस और इकोनॉमिक्स में पढ़ाई करने के कारण, उसको ज्ञान अच्छा था - कम से कम इन नौसिखिये कंसल्टेंट्स से कहीं बेहतर, जो केवल बोलना बेहतर जानते थे। थोड़ी ही देर में जय का सब्र जाता रहा - और उसने उन दोनों को लताड़ते हुए वहाँ से दफ़ा हो जाने को कहा। जाहिर सी बात है, दोनों ही कम्पनियाँ एक दूसरे की ब्लैक लिस्ट में शामिल हो गई थीं।

जय को तुरंत ही अपनी गलती का एहसास हो गया और कंपनी को वापस ऊँचाई पर पहुंचाने का अपना यह प्लान डूबता हुआ दिखाई देने लगा। आदित्य ने उससे कहीं अधिक दुनिया देखी थी, इसलिए उसमें अधिक धैर्य था। उसको जय का बताया हुआ तरीका अच्छा लगा! उसको उम्मीद थी कि अवश्य ही मकिनली एंड कंपनी ने उनको निराश किया हो, लेकिन अन्य कंसल्टेंट्स वैसा नहीं करेंगे! ईआईटी कंपनी में जो भी लोग थे, वो अधिकतर सेल्स के लोग थे। उनके काम करने का तरीका निश्चित हो गया था; कुछ नया करने का, नया सीखने का जूनून नहीं था उनमें। अधिकतर या तो देसी या फिर देसी मूल के थे। एक तरह से कम्फर्ट ज़ोन में थे सभी! इसलिए वो चाहता था कि जय का सुझाया हुआ तरीका सफल हो। कोई नई दिशा मिले उनको!

दूसरी कंपनी का हाल मकिनली एंड कंपनी जैसा नहीं था! ये लोग कहीं अधिक प्रोफेशनल लगे; जो बातें उन्होंने बताईं, उससे जय और आदित्य को कुछ नए नए विचार सोचने को मिले। अच्छी बात यह थी कि इस कंपनी ने टेक्सटाइल उद्योग में, और कई मध्यम आकार की कंपनियों के साथ काम किया था। लिहाज़ा, उनको ज्ञान अधिक था। लेकिन एक दिक्कत थी - इनका बिल मकिनली एंड कंपनी के मुकाबले कहीं अधिक होने वाला था। लिहाज़ा, उनको अफ़ोर्ड कर पाना, फिलहाल तो संभव नहीं था।

ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप, उन दोनों कंपनियों से भिन्न लगा! जिस दिन से ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप के लोगों से जय की बात चीत शुरू हुई थी, उसी दिन से लग रहा था कि वो लोग बड़े सधे हुए प्रोफेशनल लोग हैं। जय को ऐसा नहीं लगा कि उनको उसकी कंपनी से धन्धा कमाने का कोई लालच हो! ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप के लोग चाहते थे, कि उनके कंसल्टेंट्स ईआईटी को जो भी उपाय बताएँ, वो उनके काम का हो! इसलिए ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप ने उनसे पुनः कांटेक्ट साधने में थोड़ा समय लिया। फॉर्मल मीटिंग करने से पहले, उनकी टीम का एक कंसलटेंट जय से मिलने आया, और देर तक बैठ कर, बड़े ही बुनियादी सवाल पूछता रहा। जय इस तरह के दृष्टिकोण से बहुत प्रभावित हुआ। उसको भी लगने लगा कि ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप के साथ काम करने की सम्भावनाएँ बलवती हो रही हैं। लेकिन, वो बहुत जल्दी किसी नतीजे पर नहीं पहुँचना चाहता था। सबसे पहली बात, उनके कंसल्टेंट्स दक्ष होने चाहिए, और दूसरी बात, उनका दाम, इनकी पहुँच के भीतर होना चाहिए। दोनों ही बातें आवश्यक थीं!

“क्या लगता है, जय?” आदित्य ने रात में खाने की टेबल पर जय से पूछा, “ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप वाले हमारे काम के होंगे?”


**अमेरिकन परिवार है, लिहाज़ा, ये बातें अंग्रेजी में होती हैं, लेकिन चूँकि लेखक अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही में नहीं लिखना चाहता, इसलिए केवल हिंदी ही में लिखेगा! कभी कभी कुछ बातें अंग्रेज़ी में भी लिखी जाएँगी, लेकिन केवल ज़ोर देने के लिए!**

इस परिवार का यह तरीका नहीं था कि खाने की टेबल पर बिज़नेस की चर्चा करें। लेकिन पिछले कुछ समय से जय जिस तरह से तनाव की स्थिति में था, आदित्य से देखा नहीं गया।

“आदि,” क्लेयर ने अपने पति को चेताया, “नो बिज़नेस टॉक्स व्हाइल व्ही आर डाइनिंग!”

“भाभी, आई ऍम सो सॉरी! भैया की गलती नहीं है... मैं ही इतनी टेंशन में हूँ, कि वो भी क्या करें!”

“टेंशन किस बात की है जय?” क्लेयर ने कहा, “ऐसा तो नहीं है न, कि अगर कंसलटेंट न मिले, तो हमारी कंपनी काम करना बंद कर देगी!”

“नहीं भाभी... वैसा तो नहीं है!”

“फिर?”

“जान, तुम बात को समझा करो,” आदित्य ने उसको समझाते हुए कहा, “जय अभी नया नया है... छोटा है! वैसे भी कंपनी में ये घुटे हुए लोग उसको बहुत वैल्यू नहीं देते हैं... ऐसे में अगर उसका प्लान फेल हो जाता है, तो वो लोग इसकी इज़्ज़त कभी नहीं करेंगे! ... इट्स अ मैटर ऑफ़ प्राइड एंड रेस्पेक्ट, मोर दैन एनीथिंग एल्स!”

“ओह, ऑफिस पॉलिटिक्स?” क्लेयर ने समझते हुए कहा, “लेकिन, तुम लोग मालिक हो न!”

“हाँ, मालिक हैं! लेकिन बिना किसी क्वालिटी के मालिकाना हक़ दिखाना, मतलब बाकी लोगों के सामने खुद को मूर्ख साबित करना! ... अगर इन लोगों को ठीक से काम करना है, तो हमारी रेस्पेक्ट करनी ज़रूरी है!”

“हम्म,”

“अपने एम्प्लॉईज़ को काम करने का, जय को फॉलो करने का आर्डर मैं दे तो सकता हूँ... लेकिन, उनके मन में उसके लिए इज़्ज़त नहीं ला सकता! इसलिए होना यह चाहिए कि जय एक नेचुरल लीडर के जैसे ही कम्पनी में बढ़े!”

“हम्म्म, ठीक है! लेकिन अभी खाना खा लो... ये सब बाद में डिसकस कर लेना!”

“यस मा’म!” आदित्य ने कहा।

“यस भाभी!”

सभी ने एक सभ्य परिवार की भाँति हँसी ख़ुशी भोजन किया, और फिर क्लेयर ने जय और आदित्य को बिज़नेस की बातें करने के लिए अकेला छोड़ दिया। अपने पति की ही तरह क्लेयर भी चाहती थी कि जय तरक्की कर सके - जय को उसने अपने छोटे भाई समान ही अपनी देख-रेख में बड़ा किया था। उसको भी उसकी सफ़लता की आशा थी, उससे अनेकों अपेक्षाएँ थीं। लेकिन, वो भी समझ रही थी कि जय की अगुवाई में इस काम की सफ़लता क्यों आवश्यक है।

“क्या लगता है?” बालकनी में आ कर जय के बगल बैठते हुए आदित्य बोला।

“पता नहीं भैया... अभी तक जैसा एक्सपीरियंस हुआ है, मुझको तो नहीं लगता कि बहुत उम्मीद करनी चाहिए... बट, यू नेवर नो! होने को सब कुछ हो सकता है!”

“हम्म,” आदित्य अचानक ही बड़े भाई वाले अंदाज़ में बोला, “देखो बेटा... बहुत चिंता न करो! हम सभी तुम्हारे साथ हैं। ... कंसलटेंट न मिले, न सही, लेकिन तुम तो हो ही न? मुझे पूरा यकीन है कि तुम कोई न कोई रास्ता निकाल लोगे!”

“थैंक यू भैया!”

“हाँ... मन में डाउट मत रखो! ... गिव योरसेल्फ़ सम स्पेस! ... सब अच्छा हो जाएगा!”

“आई नो भैया... हमारा एक ऑनेस्ट बिज़नेस है... मुझे लगता है कि बस एक नई सोच से बहुत कुछ ठीक हो सकता है! ... यहाँ चाहे कुछ भी हो रहा हो, लेकिन कितने सारे आर्टिसन की वेल-विशेज़ हमारे साथ हैं... हम फ़ेल नहीं हो सकते!”

“सी! दैट्स व्हाट आई वांट टू सी इन यू! ... अपने मन से कभी उम्मीद को कम मत होने देना! ... बस, आगे बढ़ते जाना! ... तुम्हारी भाभी तुम्हारे सामने कुछ नहीं कहतीं, लेकिन वो भी चाहती हैं कि तुम सक्सेस हासिल करो!”

“आई नो भैया... आई नो!”

आदित्य मुस्कुराया, “गुड! तो चलो, अब सो जाओ! कल वो लोग आएँगे... उनसे क्या क्या पूछना है, सोच के रखो! ओके? ... और हाँ, याद रहे, ये प्रोजेक्ट तुम्हारा ही है!”

“हाँ भैया!”

“गुड! ... गुड नाईट!”

“गुड नाईट भैया!”


*


सवेरे जय उठा, तो उसके मन में एक अलग ही तरह की तरंग, एक अलग ही तरह की ऊर्जा थी... जो कल शाम को नहीं थी। नींद से उठते ही उसके मन में एक ख़याल आया कि आज की मीटिंग बेकार नहीं जाने वाली। कल बड़े भाई की बातों से भी उसको बड़ा सम्बल मिला! जब मन आशा से पूर्ण रहता है, तो शरीर में ऊर्जा आ ही जाती है। जय का आज का दिन बड़े उत्साह से बीत रहा था। दोपहर बाद उसको खबर मिली कि ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप के तीन कंसल्टेंट्स मिलने आए हैं। जैसा पिछली दो मीटिंग्स में हुआ, उनको मीटिंग हॉल में बैठाया गया और जय और आदित्य समेत, ईआईटी के सभी अधिकारी उनसे मिलने चले।

वेलकम,” आदित्य ने हाल में प्रवेश करते हुए सभी मेहमानों का स्वागत किया, “टू आवर हम्बल एंटरप्राइज! ... आई ऍम आदित्य!”

उसके पीछे आते हुए जय ने भी अपना परिचय दिया, “... आई ऍम जय!”

“हेलो आदित्य... हेलो जय! आई ऍम जेसन...” टीम के लीडर ने अपना परिचय दिया, “आई विल बी योर लीड कंसल्टेंट! एंड, व्ही आर सो हैप्पी टू बी वर्किंग विद यू!”

टीम के लोग आपस में मिल रहे थे, और जय की नज़रें, कंसल्टिंग टीम की एकमात्र लड़की पर टिकी हुई थीं।

‘ओह गॉड! कितनी सुन्दर... कितनी हसीन...”

ऐसा नहीं है कि जय ने आज से पहले कोई सुन्दर लड़की ही न देखी हो - खूब देखी, भारत में भी और अमेरिका में भी! लेकिन किसी लड़की को देख कर उसको अभी के जैसी भावनाओं का अनुभव कभी नहीं हुआ! बिज़नेस सूट में, प्रोफ़ेशनल हाव-भाव ली हुई यह लड़की पक्के तौर पर भारतीय मूल की थी! सुन्दर थी! उसमें कोई भ्रम नहीं! लेकिन एक अद्भुत आकर्षण था कि जय कोशिश कर के भी उस पर से अपनी दृष्टि हटा ही नहीं पा रहा था। जेसन अपनी टीम में सभी का परिचय दे रहा था... लेकिन जय को जैसे कुछ सुनाई ही न दे रहा था।

“... एंड,” अंततः वो लड़की का परिचय देने लगा, “लास्ट बट नॉट द लीस्ट, प्लीज़ मीट मीना, आवर डोमेन एक्सपर्ट!”

“हेलो मीना,” आदित्य ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा, “नाइस टू मीट यू!”

“हेलो आदित्य,” वो मुस्कुराई, फिर जय से हाथ मिलाती हुई बोली, “हेलो जय...”

जय के शरीर में जैसे विद्युत की तरंग दौड़ गई हो... मन ही मन जय ने महसूस किया कि केवल उसके ही मन में ऐसी उथल पुथल नहीं मची हुई थी... शायद मीना के मन में भी...

दोनों की नज़रें दो तीन क्षणों के लिए मिली रहीं; दोनों के हाथ भी!

फिर मीना ने लगभग दबी हुई आवाज़ में कहा, “आई ऍम मीनाक्षी!”

'एकदम सही नाम है... मीनाक्षी... सुन्दर आँखों वाली... ओह!'

यू आर मोस्ट वेलकम... मीनाक्षी...”

जय मंत्रमुग्ध सा बोला।

उसके दिल की धड़कनें ऐसी बढ़ गईं कि जैसे वो अभी अभी सौ मीटर की दौड़ लगा कर आ रहा हो! होंठ सूख गए!

'ऐसा तो कभी नहीं हुआ!' उसने सोचा!

*
हम्म्म
अब जय अपनी जवानी की एहसास में डोलने लगा है
मीनाक्षी की आँख में डूबने को तैयार है
 
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Update #8


राजकुमार हर्षवर्धन की नज़रें, नृत्य और संगीत के दल को पारितोषिक बाँटते हुए भी, उस लड़की के ऊपर से हट नहीं पा रही थी।

“राजकुमार की जय हो... ईश्वर आपको लम्बी आयु दें,” एक आदमी ने पारितोषिक ग्रहण करते हुए हर्ष को बधाईयाँ दीं, और अपने हैसियत के अनुसार आशीर्वाद दिया।

कभी कभी उम्र में बड़ा होना काफ़ी नहीं होता! आपका सामाजिक ओहदा भी बड़ा मायने रखता है। आप चाहे जो भी हों, सामाजिक ओहदे कभी कभी लोगों का क़द इतना ऊँचा या नीचा कर देते हैं कि अगले के हाथ दूसरे के सर तक नहीं पहुँच पाते!

“धन्यवाद... आप?”

“राजकुमार जी, मेरा नाम गौरीशंकर है...” फिर जैसे राजकुमार की नज़रों का पीछा करते हुए वो बोले, “... और ये है मेरी बेटी, सुहासिनी!”

“सुहासिनी?” हर्ष ने वो नाम बड़ी कोमलता से... लगभग बुदबुदाते हुए दोहराया।

“जी,” गौरीशंकर ने बड़े गर्व से बताया, “महारानी साहिबा ने ही इसका नामकरण किया था... तीन महीने की थी ये, जब इसको देख कर उन्होंने कहा था, कि बड़ा तेज है इस बच्ची के मुख पर! इसलिए इसका नाम सुहासिनी रखा जाए...”

“सुहासिनी...”

लड़की का नाम लेते हुए हर्ष के दिल की धड़कनें इतनी बढ़ गईं कि अगर वातावरण में शांति होती, तो वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति उनको सुन सकता!

सुहासिनी भी शर्माती हुई सी सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक, इस युवा राजकुमार को अपलक देखे जा रही थी। अपनी भोली तरुणाई पर इस तरह की मोहक दृष्टि अभी तक उसने महसूस नहीं करी थी। कुछ अलग था राजकुमार की दृष्टि में... बहुत अलग! एक सम्मोहन...

“अरे लड़की,” गौरीशंकर ने अपनी बेटी को समझाते हुए कहा, “कम से कम राजकुमार का धन्यवाद तो कर... क्या बौड़मों के जैसे उनको ताक रही है? ... उनके जन्मदिन पर ही उनको नज़र लगा देगी क्या?”

सुहासिनी ने महसूस किया कि राजकुमार उसको कुछ दे रहे हैं, और उसकी अंजुली में राजकुमार के हाथ हैं।

“अ...?” सुहासिनी ने एक नज़र अपने बाबा, और दूसरी हर्ष पर डाली, और अचकचाते हुए बोली, “ब... क्षमा करें राजकुमार... आपका बहुत बहुत धन्यवाद!”

उसका नृत्य एक स्तर पर था, लेकिन उसकी आवाज़ कुछ अलग ही मीठी थी! मिश्री घुल गई हो जैसे वातावरण में! ऊपर के उसके कोमल हाथों की छुवन! आह! पहली नज़र का प्रेम अगर ऐसा नहीं होता, तो फिर कैसा होता है? हर्ष का मन हो आया कि वो सुहासिनी के गालों को छू ले... उसको होंठों को चूम ले... उसके कानों की लौ को चूस ले! सुहासिनीं कोई लड़की नहीं, बल्कि एक रसदार, मीठा फल थी, जिसका कर हिस्सा मीठा था! शरीर में उसके ऐसी तपन उठने लगी कि जैसे उसको ज्वर हो गया हो।

“महाराज!” गौरीशंकर ने अचानक ही अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।

हर्ष ने महसूस किया कि उसके पिता महाराज घनश्याम सिंह, उसके बगल ही आ कर खड़े हो गए हैं।

सुहासिनी ने भी अपने पिता की ही देखा-देखी अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।

“गौरीशंकर,” महाराज बोले, “कैसे हैं आप?”

“आपकी कृपा है महाराज... आपकी छत्रछाया में हम सुखी हैं!”

“अरे, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? ... आप तो राज्य ही नहीं, बल्कि प्रदेश और देश के भी आला कलाकारों में से हैं!”

“सब आपकी कृपा है महाराज!” उन्होंने अपने हाथ फिर से जोड़ लिए।

“नहीं गौरीशंकर जी,” महाराज उनका हाथ पकड़ लिए, “माँ सरस्वती की कृपा है आप पर, और आपके पूरे वंश पर!”

वो मुस्कुराये, और हर्ष की तरफ़ मुखातिब हो कर बोले, “जानते हैं राजकुमार? केवल गौरीशंकर जी ही नहीं, बल्कि इनके पूर्वज भी कलाकार थे। ... आपके पिता ही नहीं, बल्कि पितामह भी अपनी कला से हमारे दरबार की शान बढ़ा चुके हैं! ... साज (वाद्य-यंत्र) अवश्य बदल गए, कला अवश्य बदल गईं, लेकिन हुनर नहीं बदला! आपके हुनर का परचम हमेशा बुलंद रहा है... क्या आनंद आया आज! वाह!”

“धन्यवाद महाराज! बहुत बहुत धन्यवाद!” हाथों को जोड़े हुए गौरीशंकर ने भूमि पर लगभग बिछते हुए कहा, "आपको आनंद आया... हमारा प्रयास सफ़ल रहा!"

“ये आपकी पुत्री हैं?” महाराज सुहासिनी की ओर देखते हुए बोले।

“जी महाराज,” वो बोले, और फिर अपनी बुद्धू सी लड़की को समझाते हुए, “महाराज के चरण स्पर्श करो बेटी,”

सुहासिनी उनके चरण छूने को झुकी, लेकिन,

“अरे नहीं नहीं,” महाराज दो कदम पीछे होते हुए बोले, “... बेटियाँ पिता के पाँव नहीं छूतीं... वो तो स्वयं लक्ष्मी माँ का स्वरुप होती हैं! ... पाप लगेगा हमको..."

महाराज की बात सुन कर सुहासिनी के होंठों पर स्निग्ध मुस्कान आ गई।

“नाम क्या है बेटी तुम्हारा?” बड़े वात्सल्य से महाराज ने पूछा।

“सुहासिनी, महाराज!”

“अहो... जैसा नाम, वैसा ही गुण!” महाराज ने आनंदित होते हुए कहा, “नृत्य तो बड़ा सुंदर करती हो, लेकिन क्या तुम पढ़ती भी हो बेटी?”

“जी महाराज...”

“क्यों न पढ़ेगी महाराज,” गौरीशंकर ने बीच ही में कूदते हुए कहा, “महारानी साहिबा, महाराज आप स्वयं ने, और युवरानी जी ने शिक्षा प्राप्ति की जो अलख जगाई है राज्य भर में, कोई उससे अछूता कैसे रह सकता है!”

“बड़ा आनंद हुआ सुन कर!” महाराज बोले, “बेटी, ज्ञान से बलवान कोई धन नहीं! इस बात को गाँठ बाँध लो। ... अपनी शिक्षा पूरी अवश्य करना!”

“जी महाराज!”

फिर हर्ष की तरफ़ मुड़ते हुए, “चलें राजकुमार... या अभी आपको सुहासिनी से और बातें करनी हैं?”

“जी...?” हर्ष ने झेंपते हुए कहा।


*


वो कहते हैं न, कम उम्र का प्रेम, ख़ंजर से भी घातक होता है।

स्कूल के बाद, छुट्टी के समय, जब सुहासिनी ने रास्ते में राजकुमार हर्षवर्धन को देखा, तो उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं। मारे लज्जा के वो उससे अपनी नज़रें न मिला सकी। ऐसा एक दिन हुआ... अगले दिन हुआ... उसके भी अगले दिन हुआ... और अब प्रत्येक दिन होने लगा। सच कहें, तो उसको स्वयं को इस तरह चाहा जाना, बड़ा भला लगा। और चाहने वाला भी कौन? स्वयं राजकुमार! लेकिन राजकुमार से बातें करने, या उसकी तरफ आखें उठा कर देख पाने के लिए लज्जा का आवरण हटा पाने के लिए जो हिम्मत चाहिए, वो हिम्मत उसमें नहीं थी। बस, एक दृष्टि ‘अपने’ राजकुमार पर पड़ती उसकी, और फिर घर जाने समय तक उसकी नज़रें नीची ही रहतीं। दोबारा वो उस तरफ़ देख न पाती!

वो भी ऐसी मूरख निकली कि इतवार को भी सुबह सुबह अपना बस्ता ले कर घर से निकल ली! निरी मूरख!

“अरे बावली,” उसके बाबा ने उसको लताड़ा भी, “आज भी कहाँ चल दी? ... छुट्टी नहीं है क्या तेरे सकूल में?”

“ओह बाबा... मैं भूल ही गई!”

“पढ़ाई लिखाई के साथ साथ घर का काम भी सीख ले कभी!” गौरीशंकर ने सर पीटते हुए कहा, “कब तक अपने बाबा से ही घर का, रसोई का काम करवाती रहेगी? ... अपनी चाची से कोई गुण सीख... कला सीख...”

“माफ़ कर देना बाबा... भूल गई थी!”
“भूल गई थी... याद क्या रहता है?”

गौरीशंकर अपनी बेटी को बहुत चाहते थे। सुहासिनी की अन्य सहेलियों के मुकाबले, वो सच में किसी राजकुमारी जैसी पाली जा रही थी... एक कारण तो यह था कि गौरीशंकर जी एक कलाकार थे, जिनको राजाओं, और सरकारों का संरक्षण प्राप्त था। दूसरे यह भी कि उनको भी माता सरस्वती के प्रति अपार श्रद्धा थी। उनका भी मानना था कि पढ़ना लिखना आवश्यक है, चाहे वो लड़का हो या लड़की! युवरानी प्रियम्बदा इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण थीं। कैसा ओजस व्यक्तित्व था उनका!

लेकिन पढ़ाई लिखाई के साथ साथ गृहणी वाले गुण भी तो चाहिए न?

“ससुराल जाना, तो नाक कटा देना मेरी!”

ससुराल की बात सुन कर वो मन ही मन मुस्कुराई...

‘मेरी ससुराल... राजमहल...!”

क्यों न सुहासिनी ऐसे सपने देखने लगे? अपने बाबा की राजकुमारी वो थी ही... और अब एक सचमुच के राजकुमार की ‘प्रेयसी’ भी थी वो!

“बाबा... आज आपको चक्की की सब्ज़ी बना कर खिलाती हूँ! ... आप उंगलियाँ चाटते न रह जाएँ, तो कहना फिर!”

“बातें ही बनाया कर बस! ... जानती है, समाज का कितना दबाव है तेरे बाबा पर? ... तेरी साथ की अधिकतर लड़कियों का ब्याह हो गया है। और तू... तेरी ये पढ़ाई नहीं, जी का जंजाल हो गई है! ... और ऊपर से तेरी अम्मा... अब बिन माँ की बच्ची को अकेले पालूँ भी तो कैसे?”

“अरे बाबा... आप चिंता न किया करो!” सुहासिनी अपने बाबा के गले में बाहें डाल कर, लगभग झूलती हुई बोली, “देखना कोई राजकुमार आएगा मुझे ब्याहने!”

गौरीशंकर ने सर हिलाया - निराशा में नहीं, बस, अपनी दिवास्वप्न देखती हुई लड़की की बातों पर! भोली लड़की, भोली बातें!

अब इसको कौन समझाए कि सपने देखने का अधिकार समाज में बस कुछ ही लोगों को होता है!

*
हर्ष और सुहासिनी
चलो एक और प्रेम कहानी शुरु हो गई
बस नियति और परिणति साथ दे
 
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Update #9


ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप का प्रेजेंटेशन गज़ब का था - पूरी तैयारी के साथ आए हुए थे वो लोग, और प्रोजेक्ट की पूरी योजना साफ़ थी। तीन सप्ताह के भीतर मार्किट का पूरा विश्लेषण कर के, वो ईआईटी को तीन अनुशंसाएँ देने वाले थे, जो साथ में लागू करनी होंगी। वैसा करने से बिज़नेस की दिशा परिवर्तन में तेजी आने की प्रबल सम्भावनाएँ थीं। बाहर के कंसल्टेंट्स से मिलना बड़ा ही रोचक अनुभव था ईआईटी के सभी अधिकारियों का! ख़ास कर जय का! लेकिन एक अन्य कारण से...

बाकी दोनों कंसल्टेंट्स कुछ कहते, तो जय को जैसे कुछ सुनाई ही न देता... लेकिन जब मीनाक्षी कुछ कहती, तो उसका दिल करता कि बस वो ही बोलती रहे। उसको अपने मन में अनोखा सुकून सा मिलता। सुनाई तो उसको मीनाक्षी की बात पर भी कुछ नहीं था! ऐसा सुन्दर रूप! कैसा चुम्बकीय आकर्षण!

“मेरी एक गुज़ारिश है,” जेसन बोल रहा था, “... और वो यह कि हमारा कोई एक कंसलटेंट आपकी टीम के साथ इस प्रोजेक्ट के पूरे समय लगा रहे!”

“अच्छा आईडिया है...” आदित्य बोला, “एक बार प्रोजेक्ट के लिए एग्रीमेंट हो जाए... फिर, आप जिसको चाहें, वो हमारे यहाँ... हमारे ऑफिस में बैठ सकता है! हमारे सारे रिसोर्स आपकी हेल्प ज़रूर करेंगे!”

“हाँ ज़रूर...” कोई कुछ कहता, उसके पहले ही जय के मुँह से बेसाख़्ता ही निकल गया, “इफ़ यू वांट... मीना यहाँ बैठ सकती हैं!”

आदित्य ने बड़ी मुश्किल से अपनी मुस्कान को दबाया।

‘चाहे कुछ हो या न हो,’ उसने मन ही मन सोचा, ‘लगता है कि हमको अपनी बहू ज़रूर मिल जाएगी अब!’

करीब दो घण्टे तक वार्तालाप चला सभी के बीच... अब तक सभी लोग संतुष्ट थे कि ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप सही कंपनी है! और जब उन्होंने अपने चार्जेस बताए, तो सभी पूरी तरह संतुष्ट हो गए। तय यह हुआ कि जेसन के अलावा ये दो कंसल्टेंट्स ईआईटी के साथ काम करेंगे। अगर कोई समस्या हो, तो जेसन को कांटेक्ट किया जा सकता था। तीन सप्ताह में प्रोजेक्ट समाप्त हो जाएगा, लेकिन अगर ईआईटी चाहें, तो कंसल्टेंट्स अपनी अनुशंसाओं का क्रियान्वयन करने में मदद भी करेंगे!

तो फिर तय रहा... ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप को प्रोजेक्ट मिल गया। वो अगले सप्ताह से काम शुरू करने आएँगे!


*


ऑफिस से बाहर निकलते हुए जेसन ने हँसते हुए मीनाक्षी को छेड़ा, “मीना... वो बेचारा जय तो गया!”

“क्या जेसन... तुम भी! हम लोग प्रोफ़ेशनल हैं...” मीनाक्षी इस छेड़खानी से झेंपती हुई बोली।

“हाँ हैं... लेकिन तुम इस बात से इंकार नहीं कर सकती! जय तुम्हारी तरफ़ अट्रक्टेड तो है!”

“ओफ्फ़!” मीनाक्षी ने भी यह बात नोटिस करी थी, लेकिन उसको यूँ स्वीकार कर लेना मुश्किल था।

“... और वो हैंडसम भी है!” दूसरे कंसल्टैंट ने भी छेड़ा।

नॉट यू आल्सो...”

“हा हा हा...” मीना की बात पर जेसन हँसने लगा।

मीना को इस प्रोजेक्ट में लाने का जेसन के दो उद्देश्य थे - एक तो मीना को टेक्सटाइल्स उद्योग के बारे में अच्छा ख़ासा ज्ञान था, लिहाज़ा वो वाक़ई डोमेन एक्सपर्ट थी। और दूसरा था, उसका भारतीय मूल का होना!

हाँ, अवश्य ही मीना ने अपना ऍमबीए अमेरिका से किया था, और उसका सारा अनुभव अमेरिकन मार्किट में ही था, लेकिन फिर भी, अपने या अपने जैसे लोगों को देखना, किसी को भी सुभीता है। ईस्ट कंसल्टिंग ग्रुप अपेक्षाकृत एक नई कंसल्टिंग फर्म थी, और जेसन को ऊपर से आदेश मिला था कि वो किसी तरह से इसका बिज़नेस बढ़ाए। ऐसे में विदेशी मूल के बिज़नेस के साथ काम करना सबसे सटीक रणनीति लग रही थी। आज एक ने लिया है, तो कल वर्ड ऑफ़ माउथ के चलते कई और लोग लेंगे! इसलिए जेसन को बहुत बढ़िया लगा कि ईआईटी जैसी मध्यम आकार की कंपनी के साथ काम करने को मिल रहा है। ज़ाहिर सी बात है - अगर इनको हमारा काम अच्छा लगा, तो बहुत तरक्की की सम्भावना है!

मीना भी यह बात समझती थी। वो भी बिज़नेस के इरादे से ही वहाँ गई थी, लेकिन जय को देख कर सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया।

बात हँसी मज़ाक की हो रही थी, लेकिन मीना ने भी जय की तरफ़ वैसा ही आकर्षण महसूस किया था। पहली नज़र ही में जैसे जय का चेहरा उसके दिल में उतर गया हो! हाँ, जय हैंडसम था... बहुत हैंडसम था, लेकिन बात इतनी साधारण भी नहीं थी। ... उसको देख कर मीना को लगा था कि जैसे उसका जय से कोई पुराना परिचय हो... वो बड़ा अपना सा लगा था! कुछ लोगों को देख कर ऐसा लगता है...

कम उम्र होने के कारण जय में एक अलग तरीक़े की अधीरता थी, एक उतावलापन था... लेकिन उस अधीरता और उतावलेपन के पीछे उसका शिष्ट और सभ्य व्यवहार, उसको साफ़ दिखाई दिया। दोनों भाई एक समान लगे उसको - सभ्य, संभ्रांत... और, खानदानी! जय का दिल साफ़ था। उसके अंदर जीवन की ललक थी। एक अलग ही तरह की ऊर्जा थी, जिसकी तरफ मीनाक्षी भी अनायास ही खिंच गई थी!


*


जय की उम्मीद के ही अनुसार ईआईटी के ऑफिस में बैठने मीना आई।

आदित्य से जय का उत्साह छुपा हुआ नहीं था। वो जय में दिख रही नई उमंग से बहुत खुश भी था। अब न केवल इस कंपनी को नई सोच ही मिलेगी, बल्कि यह भी बहुत संभव है कि हमारे घर को एक नई बहू भी मिले! आदित्य भी मीना को देख कर उसके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित था। इस प्रोजेक्ट पर काम करने वाले तीनों कंसल्टेंट्स का बायो-डाटा उसके पास था। मीना उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की थी - यह ऐसी उपलब्धि थी जिसको हासिल करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। और फिर भारत से आ कर अमेरिका में ऐसी उपलब्धि हासिल करना... बस यही दिखाता है कि मीना एक उद्यमी, दृढ़-निश्चय रखने वाली, और बुद्धिमान लड़की है। सुन्दर तो ख़ैर वो है ही! तो अगर जय उसकी तरफ़ आकर्षित होता है, तो सही भी है! कुछ नहीं भी हुआ तो, संभव है कि उसको मीना से प्रेरणा तो मिलेगी ही!


*


जय मीना को इतना निकट देख कर रोमांचित अवश्य था, लेकिन उसको अपनी और मीना की प्राथमिकता अच्छी तरह से ज्ञात थी। अपनी कंपनी को वापस सही मार्ग पर लाना बहुत आवश्यक था।

दो सप्ताह तक प्रोजेक्ट पर अनवरत काम हुआ। जय ही उसको इधर उधर ले जाता - कभी कस्टमर्स से मिलने, तो कभी स्टोर दिखाने, तो कभी लॉजिस्टिक्स दिखाने! ईआईटी का बही-खाता भी मीना के सामने था। मीना के साथ रहने, उसके साथ काम करने में जय को बड़ा आनंद आता। एक तो उससे बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था और ऊपर से वो बहुत ही अच्छी लड़की थी! उसको जानने समझने का अवसर वो गँवाना नहीं चाहता था। मीना को भी जय और आदित्य के साथ काम कर के अच्छा लगता था। वाकई, उनका ऑनेस्ट बिज़नेस था, और ये लोग अपने लोकल (भारत में बसे) आर्टिस्ट्स (कामगारों) को अच्छी सैलरी देते थे। अवश्य ही एक बेहद लम्बे अर्से से मीना अपने देश नहीं गई थी, लेकिन फिर भी देश का नाम सुन कर भारतीयता जाग ही उठती है!

दो सप्ताह बाद मीना जय को अपना पहला प्रेजेंटेशन देती है।

“जय,” मीना बोली, “ईआईटी की सबसे बड़ी प्रॉब्लम है इंडियन कस्टमर्स पर ओवर-रिलायंस! ... यह बात आपको कोई भी बता सकता है। आपके फ़ैब्रिक्स पर जो डिज़ाइन है, उन पर पूरी तरह से इंडियन ठप्पा लगा हुआ है। उसके कारण अमेरिकन लोग इनको उतना नहीं अपना पाते, जितना आप चाहते हैं! ... इसलिए आप मुख्यतः इंडियन कस्टमर्स पर डिपेंडेंट हैं, और दिक्कत यह है कि वो हेगल (मोल-भाव) भी करते हैं बहुत!”

हाँ, इस बात का शक जय को भी था। उसने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“... साथ ही साथ अमेरिकन्स अब टेलर्ड नहीं, बल्कि प्री-मेड, प्री-स्टिचड कपड़े पहनना पसंद करते हैं, क्योंकि वो सस्ते होते हैं ... मेरे कहने का मतलब यह है कि आपको अपना बिज़नेस मॉडल बदलना पड़ेगा! ... बदलना चाहिए!”

“ओके, तो हमारे पास चॉइसेस क्या हैं?”

“एक चॉइस तो ये है कि आप लोग अमेरिका के लीडिंग डिज़ाइनर्स के साथ काम करें... उससे विज़िबिलिटी बढ़ती है... आपका प्रोडक्ट प्रीमियम है, उसकी वैलिडिटी मिलेगी! लेकिन उसमें टाइम लगेगा! और वो एक यूनिक स्ट्रेटेजी है!”

“ओके? फिर हम अभी क्या करें?”

“थोड़ी आसान चॉइस ये है कि आप अपने फैब्रिक्स का इंडियन-नेस थोड़ा कम करें! ... आप अमेरिकन मार्किट में सामान बेच रहे हैं, तो कपड़ों का स्टाइल, उनका डिज़ाइन यहाँ के टेस्ट के हिसाब से होना चाहिए।”

“मेक्स सेंस...”

“आपको प्राईसिंग भी देखनी पड़ेगी!”

“लेकिन हमारी प्राईसिंग तो मार्किट में सबसे कम में से हैं!”

“हाँ आई नो दैट - और वो कोई अच्छी बात नहीं है! ... हमारी एनालिसिस कहती है कि आप बहुत डीप डिस्कॉउंटिंग कर रहे हैं, जिसकी ज़रुरत नहीं है! ... आप आराम से बीस परसेंट तक अपने प्राइसेस बढ़ा सकते हैं। ... शार्ट एंड लॉन्ग टर्म में आपकी प्रॉफिटेबिलिटी बहुत बढ़ जाएगी!”

“माय गॉड! ... यू आर करेक्ट!”

“और लास्ट, बट नॉट द लीस्ट... आपका सेल्स स्टाफ़... उसको थोड़ा बदलना पड़ेगा!”

“मतलब?”

“मतलब ये कि आपके सभी सेल्स मैनेजर्स, बड़े कम्फर्ट ज़ोन में हैं! ... पिछले दो साल में न्यू क्लायंट्स केवल दो परसेंट बढ़े हैं! तो क्वेश्चन ये है कि वो लोग कर क्या रहे हैं! ... ये तो आपने भी देखा होगा?”

“हाँ, देखा तो था... लेकिन... कस्टमर अट्रिशन जीरो था... और ये देख कर हम लोग बहुत खुश थे!”

“बेकार बात है... इंडस्ट्री में पिछले दो सालों में न्यू क्लायंट्स एडिशन एवरेज लगभग पंद्रह परसेंट था! ... सो यू आर परफार्मिंग रियली बैड!”

जय का माथा ठनक गया!

‘एक तो ये लोग अपना काम ठीक से नहीं करते, और ऊपर से... मतलब, एक तो चोरी, और ऊपर से सीना-जोरी!’

“तो फिर?” जय ने पूछा।

मीना उसको किसी कुशल शिक्षिका के भाँति देर तक समझाती रही।

जब दोनों की मीटिंग ख़तम हुई, तो देर शाम हो गई थी!

*
भाई यह पूरी तरह से कॉर्पोरेट लव स्टोरी होने वाली है l खैर देखते हैं आगे आगे होता क्या है
 
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Update #10


सुहासिनी की हालत बड़ी अजीब सी थी : जहाँ एक ओर वो हर्ष को देखते ही अपनी नज़रें नीची कर लेती थी, और उसका दिल तेजी से धड़कने लगता था, वहीं दूसरी ओर अगर वो दिन में, उसको बस एक बार, नज़र भर न देख ले, तो उसको चैन नहीं आता था। हर्ष की हालत उससे थोड़ी सी अलग थी - बेहतर या नहीं, कह नहीं सकते - लेकिन उसको भी सुहासिनी को देखे बिना चैन नहीं आता था। शायद दोनों के मन में एक दूसरे के लिए आकर्षण बिल्कुल रोमियो जूलिएट जैसा था। दोनों के आपसी आकर्षण में वैसा ही भोलापन, और वैसी ही शिद्दत थी!

कम उम्र का प्रेम कमाल का होता है! उसमें भोलापन होता है... उसमें तर्क-वितर्क शामिल नहीं होते... वो शुद्ध होता है! हम आप सयाने लोग उसको मूर्खता कहते हैं, उसको आसक्ति कहते हैं! हम उसको ज़लील करते हैं, यह कह कर कि लोग क्या कहेंगे... या फिर यह कि पहले शौचना सीख लो, फिर मोहब्बत कर लेना! बहुत समय पड़ा है, पहले कुछ कर लो, फिर मोहब्बत कर लेना!

इन सब बातों में कोई गलत नहीं है! लेकिन ये सब तर्क की भाषा है... भोले, अबोध प्रेम की नहीं। वो तो नासमझ होता है!

कहते हैं कि इश्क़ और मुश्क़ छुपाए नहीं छुपता! जैसे अपने मुश्क़ (कस्तूरी) की तीक्ष्ण (सु)गंध से, नर कस्तूरी मृग अपनी मादा को आकर्षित करता है, उसको छुपा नहीं सकता, वैसे ही इश्क़ छुपता नहीं! केवल प्रेम में पड़े लोगों को ही नहीं, बल्कि उनके आसपास के लोगों को भी उनके प्रेम के चिन्ह दिखने लगते हैं।

“हर्ष?” एक रोज़ प्रियम्बदा ने अपने देवर को देख कर पुकारा।

“जी भाभी माँ?”

“कभी कभी कुछ समय हमारे साथ भी बैठा करिए?”

“जी भाभी माँ!”

हर्ष को अपनी ‘भाभी माँ’ से अगाध प्रेम था, और उनके लिए अगाध आदर भी! महाराजपुर में पिछले कुछ ही वर्षों में महिलाओं और स्त्रियों की स्थिति इतनी बेहतर हुई है, वो उन्ही के कारण थी! रियासत में लड़कियों के लिए ‘कन्या इण्टर कॉलेज’ अभी हाल ही में बन कर तैयार हुआ था। भाभी माँ ने ही गाँवों में पुरानी पद्धति के तरीके की अनेकों बावलियाँ और तालाब बने थे, जिससे पानी ढोने के लिए महिलाओं को लम्बी लम्बी पदयात्राएँ न करनी पड़ें! घर में ऐसी पढ़ी-लिखी, प्रज्ञ बहू आती है, तो पूरे घर का कायाकल्प हो जाता है।

उनको एक बात का मलाल अवश्य था कि उनको अपने पुत्र के बाद और संतानें न हो सकीं, लेकिन उस कमी को पूरा करने के लिए हर्ष था न! उनका बेटा!

“क्या हो गया है आपको?” प्रियम्बदा ने बड़ी ममता से उसके गालों को सहलाते हुए पूछा, “कुछ समय से आपके व्यवहार में परिवर्तन होता हुआ देख रहे हैं हम!”

“परिवर्तन, भाभी माँ?” वो सकपकाते हुए बोला, “नहीं... नहीं तो! ... ऐसा कुछ भी नहीं है!”

प्रिया मुस्कुराई, “हम्म्म... तो राजकुमार हर्ष इतने बड़े हो गए हैं कि अपनी भाभी माँ से अपने मन की बातें छुपाने लगे हैं!”

“नहीं भाभी माँ... ऐसे मत कहिए! ... एक आप ही तो हैं, जो हमारे बारे में सब जानती हैं! ... आपसे क्या छुपा सकता हूँ!”

“तो फिर क्या बात है बेटा? ... पिछले कुछ दिनों से यूँ अनमने से क्यों हो? ... आओ, यहाँ...” प्रिया ने अपनी गोदी में इशारा करते हुए कहा, “और हमें बताओ, क्या हुआ?”

अपनी भाभी माँ की गोद में सर रखने में हर्ष को वही सुकून मिलता था, जैसा अपनी माँ की गोद में सर रखने पर! हाँ, अंतर बस यह था कि भाभी माँ के साथ वो अपने मन की सब बातें कर सकता था, जो माँ से करने में हिचकता था या उनको बता नहीं सकता था।

हर्ष चुपचाप आ कर प्रिया की गोदी में सर रख कर लेट गया।

“अब बोलो!”

“क्या बोलूँ भाभी माँ?” अभी भी उसको हिचक हो रही थी।

“हम्म्म... तो अभी भी अपनी माँ से छुपाओगे? ... अरे बोलो न?”

हर्ष से कुछ कहा न जा पा रहा था।

“प्रेम हो गया है क्या तुम्हे?”

“आपको कैसे... “” उसके मुँह से अचानक ही निकल गया।

और यहीं पर उसको अपनी गलती का एहसास हो गया। अपनी चोरी पकड़े जाने से हर्ष शर्मा जाता है।

“कौन है वो?” प्रिया अपनी विजय पर मन ही मन मुस्कुराई।

“सुहासिनी...” अब छुपाने से क्या हो सकता है!

“सुहासिनी? बड़ा प्यारा नाम है!”

हर्ष मुस्कुराया!

‘अगर नाम इतना प्यारा लगा है, तो वो तो बहुत प्यारी लगेगी भाभी माँ को!’

“और क्या क्या जानते हो?”

“वो... अह...” वो थोड़ा हिचकते हुए बोला, “उसके पिता गौरीशंकर जी हैं।

“गौरीशंकर जी? ओह, कहीं ये वो ही तो नहीं, जो तुम्हारे जन्मोत्सव पर सारंगी बजा रहे थे?”

“जी भाभी माँ... वो ही...”

“हमने देखा है?” प्रियम्बदा ने पूछा, “... मेरा मतलब, सुहासिनी को?”

“जी भाभी माँ... अवश्य देखा होगा... वो भी नृत्य कर रही थी!”

“अच्छा?” प्रिया हँसते हुए बोली, “कौन सी लड़की थी वो?”

“अब आपको कैसे बताऊँ...!”

“कमाल है!” प्रिया ने बड़े नाटकीय तरीके से कहा, “एक दर्ज़न लड़कियाँ थीं उस दल में... लेकिन तुमको उनमें से बस एक अकेली लड़की भा गई है... उसका मतलब यह है कि वो ज़रूर बहुत ख़ास होगी। ... और तुम हमसे पूछ रहे हो कि ‘कैसे बताऊँ’?”

हर्ष अपनी भाभी माँ की बात पर मुस्कुराया।

“तुमको अच्छी लगती है?”

“बहुत...”

“मिलवाओगे हमसे?”

“क्यों नहीं भाभी माँ! ... लेकिन...”

“लेकिन?”

“लेकिन पहले हमको तो मिल लेने दीजिए...”

“अरे! हा हा! ... तुम दोनों अभी तक मिले नहीं?”

हर्ष ने ‘न’ में सर हिलाया।

“हम्म बड़ी समस्या है फिर तो! सबसे पहले तो आप दोनों का मिलना आवश्यक है... हा हा! चलिए ठीक है... पहले आप दोनों मिल लें, अपने प्रेम की पतंग उड़ा लें... फिर हम भी मिल लेंगे!”

“ओह भाभी माँ! ... हमको पता था कि आप ज़रूर समझेंगी अपने बेटे के मन की बातें!”

“माँ हूँ तुम्हारी!” प्रियम्बदा ने बड़े दुलार से कहा, “क्यों नहीं समझूँगी!”


*


एक रात खाने के बाद गौरीशंकर ने अपनी बेटी को अपने पास बुला कर, उसके सर पर प्यार से हाथ फिराते हुए कहा,

“बिटिया रानी मेरी... ईश्वर जानते हैं कि मैंने तुझे पालने में कोई कमी... कोई कोर कसर नहीं रखी! ... मुझसे जैसा बन पड़ा, जैसी मेरी सामर्थ्य थी, मैंने सब किया! ... समाज में सबकी बातें सुनी... उनका क्या है? लोग तो होते ही हैं बातें बनाने के लिए... लेकिन मैंने तुझे कोई कमी न होने दी...”

“हाँ बाबा! ... मैं भी कहती हूँ... मेरे बाबा सबसे अच्छे हैं!” सुहासिनी ने बड़े लाड़ से अपने पिता के गले में गलबैयाँ डालते हुए, और उनकी गोदी में बैठते हुए कहा।

“तुझे पढ़ाया लिखाया! ... तू जब तक मन करे, पढ़... इस बात की आज़ादी दी!”

“हाँ बाबा!”

“... तू खुद कहती है कि तुझे भी युवरानी प्रियम्बदा जैसी बनना है... तो बन उनके जैसी! ... मैं महाराज जी से प्रार्थना करूँगा कि एक बार वो तुझे युवरानी जी से मिलने दें! ... कुछ सीख उनसे! ... उनके जैसी गरिमामय बन!”

“ओह बाबा!” सुहासिनी खुश होती हुई बोली, “आप मिलवाएँगे मुझे युवरानी जी से?”

“क्यों नहीं बच्चे! ... तेरी ख़ुशी के लिए, मुझसे जो कुछ भी बन पड़ेगा, वो सब कुछ करूँगा!”

वो बोले, और फिर कुछ देर रुके। आगे कुछ भी बोलने से पहले वो थोड़ा हिचक रहे थे, कि बिटिया उनकी बात पर न जाने क्या सोचे? लेकिन अपनी बात कहनी आवश्यक थी।

“... बच्चे, जब बेटियाँ सयानी हो जाती हैं न, तो उनके बाप के कंधे झुक जाते हैं।”

“कंधे झुकें मेरे बाबा के दुश्मनों के... नहीं होना मुझको सयानी वयानी...” सुहासिनी ने बाल-सुलभ चंचलता से साथ कहा।

“हा हा! अरे बच्चे... प्रकृति और समाज को हरा पाना न तो तेरे बस में है, और न ही तेरे बाबा के!” कहते कहते गौरीशंकर की आँखों में आँसू आ गए।

अचानक ही अपनी बाबा की आँखों में आँसुओं और उनकी बदली हुई आवाज़ को सुन कर सुहासिनी को समझ आया कि उसके बाबा कोई मज़ाक वाली बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि कोई गंभीर बात कर रहे हैं।

“क्या हो गया बाबा? आप ऐसे क्यों हो गए?”

“कुछ नहीं बेटा... तो जैसा मैं कह रहा था, जब बेटी सयानी हो जाती है न, तो बाप के कंधे झुक जाते हैं! ... ये समाज का नियम है! ... मैं वो सब सहन कर लूँगा... लेकिन... बच्चे... तू कोई ऐसा काम न करना कि तेरे बाबा का सर झुक जाए!”

“बाबा!” सुहासिनी अपने बाबा को ज़ोर से अपने आलिंगन में बाँधती हुई बोली, “आपकी बेटी आपका गुमान बन कर दिखाएगी! ... मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगी जिससे आपने सर झुके... बल्कि मैं चाहती हूँ कि आपका सर समाज में ऊँचा हो! ... आपका नाम और बढ़े! ... आप मुझको इतना प्यार करते हैं... उस प्यार की कसम है मुझको!”

“ओह बेटी... मेरी बेटी!” गौरीशंकर भावना से अभिभूत हुए बिना न रह सके, “मुझे पता था कि तू मेरा अभिमान है! आयुष्मति भव मेरी बच्ची, सुखी भव, सानंद भव, यशस्वी भव!”


*
मित्र एक बात कहना है
यार अपडेट थोड़ा बड़ा दिया करो
एक्साइटमेंट जब बढ़ने को होती है अपडेट खत्म हो जाती है
 
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सुहासिनी की हालत बड़ी अजीब सी थी : जहाँ एक ओर वो हर्ष को देखते ही अपनी नज़रें नीची कर लेती थी, और उसका दिल तेजी से धड़कने लगता था, वहीं दूसरी ओर अगर वो दिन में, उसको बस एक बार, नज़र भर न देख ले, तो उसको चैन नहीं आता था। हर्ष की हालत उससे थोड़ी सी अलग थी - बेहतर या नहीं, कह नहीं सकते - लेकिन उसको भी सुहासिनी को देखे बिना चैन नहीं आता था। शायद दोनों के मन में एक दूसरे के लिए आकर्षण बिल्कुल रोमियो जूलिएट जैसा था। दोनों के आपसी आकर्षण में वैसा ही भोलापन, और वैसी ही शिद्दत थी!

कम उम्र का प्रेम कमाल का होता है! उसमें भोलापन होता है... उसमें तर्क-वितर्क शामिल नहीं होते... वो शुद्ध होता है! हम आप सयाने लोग उसको मूर्खता कहते हैं, उसको आसक्ति कहते हैं! हम उसको ज़लील करते हैं, यह कह कर कि लोग क्या कहेंगे... या फिर यह कि पहले शौचना सीख लो, फिर मोहब्बत कर लेना! बहुत समय पड़ा है, पहले कुछ कर लो, फिर मोहब्बत कर लेना!

इन सब बातों में कोई गलत नहीं है! लेकिन ये सब तर्क की भाषा है... भोले, अबोध प्रेम की नहीं। वो तो नासमझ होता है!

कहते हैं कि इश्क़ और मुश्क़ छुपाए नहीं छुपता! जैसे अपने मुश्क़ (कस्तूरी) की तीक्ष्ण (सु)गंध से, नर कस्तूरी मृग अपनी मादा को आकर्षित करता है, उसको छुपा नहीं सकता, वैसे ही इश्क़ छुपता नहीं! केवल प्रेम में पड़े लोगों को ही नहीं, बल्कि उनके आसपास के लोगों को भी उनके प्रेम के चिन्ह दिखने लगते हैं।

“हर्ष?” एक रोज़ प्रियम्बदा ने अपने देवर को देख कर पुकारा।

“जी भाभी माँ?”

“कभी कभी कुछ समय हमारे साथ भी बैठा करिए?”

“जी भाभी माँ!”

हर्ष को अपनी ‘भाभी माँ’ से अगाध प्रेम था, और उनके लिए अगाध आदर भी! महाराजपुर में पिछले कुछ ही वर्षों में महिलाओं और स्त्रियों की स्थिति इतनी बेहतर हुई है, वो उन्ही के कारण थी! रियासत में लड़कियों के लिए ‘कन्या इण्टर कॉलेज’ अभी हाल ही में बन कर तैयार हुआ था। भाभी माँ ने ही गाँवों में पुरानी पद्धति के तरीके की अनेकों बावलियाँ और तालाब बने थे, जिससे पानी ढोने के लिए महिलाओं को लम्बी लम्बी पदयात्राएँ न करनी पड़ें! घर में ऐसी पढ़ी-लिखी, प्रज्ञ बहू आती है, तो पूरे घर का कायाकल्प हो जाता है।

उनको एक बात का मलाल अवश्य था कि उनको अपने पुत्र के बाद और संतानें न हो सकीं, लेकिन उस कमी को पूरा करने के लिए हर्ष था न! उनका बेटा!

“क्या हो गया है आपको?” प्रियम्बदा ने बड़ी ममता से उसके गालों को सहलाते हुए पूछा, “कुछ समय से आपके व्यवहार में परिवर्तन होता हुआ देख रहे हैं हम!”

“परिवर्तन, भाभी माँ?” वो सकपकाते हुए बोला, “नहीं... नहीं तो! ... ऐसा कुछ भी नहीं है!”

प्रिया मुस्कुराई, “हम्म्म... तो राजकुमार हर्ष इतने बड़े हो गए हैं कि अपनी भाभी माँ से अपने मन की बातें छुपाने लगे हैं!”

“नहीं भाभी माँ... ऐसे मत कहिए! ... एक आप ही तो हैं, जो हमारे बारे में सब जानती हैं! ... आपसे क्या छुपा सकता हूँ!”

“तो फिर क्या बात है बेटा? ... पिछले कुछ दिनों से यूँ अनमने से क्यों हो? ... आओ, यहाँ...” प्रिया ने अपनी गोदी में इशारा करते हुए कहा, “और हमें बताओ, क्या हुआ?”

अपनी भाभी माँ की गोद में सर रखने में हर्ष को वही सुकून मिलता था, जैसा अपनी माँ की गोद में सर रखने पर! हाँ, अंतर बस यह था कि भाभी माँ के साथ वो अपने मन की सब बातें कर सकता था, जो माँ से करने में हिचकता था या उनको बता नहीं सकता था।

हर्ष चुपचाप आ कर प्रिया की गोदी में सर रख कर लेट गया।

“अब बोलो!”

“क्या बोलूँ भाभी माँ?” अभी भी उसको हिचक हो रही थी।

“हम्म्म... तो अभी भी अपनी माँ से छुपाओगे? ... अरे बोलो न?”

हर्ष से कुछ कहा न जा पा रहा था।

“प्रेम हो गया है क्या तुम्हे?”

“आपको कैसे... “” उसके मुँह से अचानक ही निकल गया।

और यहीं पर उसको अपनी गलती का एहसास हो गया। अपनी चोरी पकड़े जाने से हर्ष शर्मा जाता है।

“कौन है वो?” प्रिया अपनी विजय पर मन ही मन मुस्कुराई।

“सुहासिनी...” अब छुपाने से क्या हो सकता है!

“सुहासिनी? बड़ा प्यारा नाम है!”

हर्ष मुस्कुराया!

‘अगर नाम इतना प्यारा लगा है, तो वो तो बहुत प्यारी लगेगी भाभी माँ को!’

“और क्या क्या जानते हो?”

“वो... अह...” वो थोड़ा हिचकते हुए बोला, “उसके पिता गौरीशंकर जी हैं।

“गौरीशंकर जी? ओह, कहीं ये वो ही तो नहीं, जो तुम्हारे जन्मोत्सव पर सारंगी बजा रहे थे?”

“जी भाभी माँ... वो ही...”

“हमने देखा है?” प्रियम्बदा ने पूछा, “... मेरा मतलब, सुहासिनी को?”

“जी भाभी माँ... अवश्य देखा होगा... वो भी नृत्य कर रही थी!”

“अच्छा?” प्रिया हँसते हुए बोली, “कौन सी लड़की थी वो?”

“अब आपको कैसे बताऊँ...!”

“कमाल है!” प्रिया ने बड़े नाटकीय तरीके से कहा, “एक दर्ज़न लड़कियाँ थीं उस दल में... लेकिन तुमको उनमें से बस एक अकेली लड़की भा गई है... उसका मतलब यह है कि वो ज़रूर बहुत ख़ास होगी। ... और तुम हमसे पूछ रहे हो कि ‘कैसे बताऊँ’?”

हर्ष अपनी भाभी माँ की बात पर मुस्कुराया।

“तुमको अच्छी लगती है?”

“बहुत...”

“मिलवाओगे हमसे?”

“क्यों नहीं भाभी माँ! ... लेकिन...”

“लेकिन?”

“लेकिन पहले हमको तो मिल लेने दीजिए...”

“अरे! हा हा! ... तुम दोनों अभी तक मिले नहीं?”

हर्ष ने ‘न’ में सर हिलाया।

“हम्म बड़ी समस्या है फिर तो! सबसे पहले तो आप दोनों का मिलना आवश्यक है... हा हा! चलिए ठीक है... पहले आप दोनों मिल लें, अपने प्रेम की पतंग उड़ा लें... फिर हम भी मिल लेंगे!”

“ओह भाभी माँ! ... हमको पता था कि आप ज़रूर समझेंगी अपने बेटे के मन की बातें!”

“माँ हूँ तुम्हारी!” प्रियम्बदा ने बड़े दुलार से कहा, “क्यों नहीं समझूँगी!”


*


एक रात खाने के बाद गौरीशंकर ने अपनी बेटी को अपने पास बुला कर, उसके सर पर प्यार से हाथ फिराते हुए कहा,

“बिटिया रानी मेरी... ईश्वर जानते हैं कि मैंने तुझे पालने में कोई कमी... कोई कोर कसर नहीं रखी! ... मुझसे जैसा बन पड़ा, जैसी मेरी सामर्थ्य थी, मैंने सब किया! ... समाज में सबकी बातें सुनी... उनका क्या है? लोग तो होते ही हैं बातें बनाने के लिए... लेकिन मैंने तुझे कोई कमी न होने दी...”

“हाँ बाबा! ... मैं भी कहती हूँ... मेरे बाबा सबसे अच्छे हैं!” सुहासिनी ने बड़े लाड़ से अपने पिता के गले में गलबैयाँ डालते हुए, और उनकी गोदी में बैठते हुए कहा।

“तुझे पढ़ाया लिखाया! ... तू जब तक मन करे, पढ़... इस बात की आज़ादी दी!”

“हाँ बाबा!”

“... तू खुद कहती है कि तुझे भी युवरानी प्रियम्बदा जैसी बनना है... तो बन उनके जैसी! ... मैं महाराज जी से प्रार्थना करूँगा कि एक बार वो तुझे युवरानी जी से मिलने दें! ... कुछ सीख उनसे! ... उनके जैसी गरिमामय बन!”

“ओह बाबा!” सुहासिनी खुश होती हुई बोली, “आप मिलवाएँगे मुझे युवरानी जी से?”

“क्यों नहीं बच्चे! ... तेरी ख़ुशी के लिए, मुझसे जो कुछ भी बन पड़ेगा, वो सब कुछ करूँगा!”

वो बोले, और फिर कुछ देर रुके। आगे कुछ भी बोलने से पहले वो थोड़ा हिचक रहे थे, कि बिटिया उनकी बात पर न जाने क्या सोचे? लेकिन अपनी बात कहनी आवश्यक थी।

“... बच्चे, जब बेटियाँ सयानी हो जाती हैं न, तो उनके बाप के कंधे झुक जाते हैं।”

“कंधे झुकें मेरे बाबा के दुश्मनों के... नहीं होना मुझको सयानी वयानी...” सुहासिनी ने बाल-सुलभ चंचलता से साथ कहा।

“हा हा! अरे बच्चे... प्रकृति और समाज को हरा पाना न तो तेरे बस में है, और न ही तेरे बाबा के!” कहते कहते गौरीशंकर की आँखों में आँसू आ गए।

अचानक ही अपनी बाबा की आँखों में आँसुओं और उनकी बदली हुई आवाज़ को सुन कर सुहासिनी को समझ आया कि उसके बाबा कोई मज़ाक वाली बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि कोई गंभीर बात कर रहे हैं।

“क्या हो गया बाबा? आप ऐसे क्यों हो गए?”

“कुछ नहीं बेटा... तो जैसा मैं कह रहा था, जब बेटी सयानी हो जाती है न, तो बाप के कंधे झुक जाते हैं! ... ये समाज का नियम है! ... मैं वो सब सहन कर लूँगा... लेकिन... बच्चे... तू कोई ऐसा काम न करना कि तेरे बाबा का सर झुक जाए!”

“बाबा!” सुहासिनी अपने बाबा को ज़ोर से अपने आलिंगन में बाँधती हुई बोली, “आपकी बेटी आपका गुमान बन कर दिखाएगी! ... मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगी जिससे आपने सर झुके... बल्कि मैं चाहती हूँ कि आपका सर समाज में ऊँचा हो! ... आपका नाम और बढ़े! ... आप मुझको इतना प्यार करते हैं... उस प्यार की कसम है मुझको!”

“ओह बेटी... मेरी बेटी!” गौरीशंकर भावना से अभिभूत हुए बिना न रह सके, “मुझे पता था कि तू मेरा अभिमान है! आयुष्मति भव मेरी बच्ची, सुखी भव, सानंद भव, यशस्वी भव!”


*
मित्र एक बात कहना है
यार अपडेट थोड़ा बड़ा दिया करो
एक्साइटमेंट जब बढ़ने को होती है अपडेट खत्म हो जाती है
Update #11


ओह गॉश,” मीना ने जब अपनी घड़ी पर नज़र डाली, तो चौंक गई, “कितना टाइम हो गया!”

“कितना टाइम हो गया?” जय ने भी अपनी कलाई पर नज़र डाली, “ओह! सात बज गए! ... वाओ! तुम्हारे साथ टाइम का पता ही नहीं चला...”

“हा हा... आई मस्ट स्टार्ट चार्जिंग यू फॉर ओवरटाइम!” मीना ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा।

विद प्लेज़र... लेकिन वो बाद में! अभी का क्या प्लान है?”

“प्लान? अब क्या प्लान? ... सात बज गए हैं... घर जा कर खाना भी पकाना पड़ेगा!” उसने निराशा में कहा।

“अरे! वीकेंड है... फिर भी ऐसा सैड सा प्लान!?”

“अरे! हा हा हा! तो क्या करूँ? ... मेरा तोरूटीन है... बस यही!”

“हम्म्म... अच्छा, क्या पकेगा?”

“सैंडविच मे बी! ... इतनी देर में और क्या हो सकता है!

व्हाट? वीकेंड में भी सैंडविच?”

“हा हा हा!”

आई हैव अ बेटर प्लान! ... घर चलो?”

“मतलब?”

“मतलब... मेरे घर चलो!”

व्हाट!!?” मीना को यकीन नहीं हुआ।

“अरे बाबा... भैया और भाभी भी होंगे वहाँ... और उनके बच्चे भी!” जय ने अपने माथे पर अपनी हथेली मारी, “तुम लड़कियाँ भी न! आई वास सेइंग कि घर चलो... भैया भाभी ने खाना पकाया होगा!”

“वाओ! तुम्हारे भैया तुम्हारी भाभी की हेल्प करते हैं किचन में?”

“और क्या? किचन उन दोनों का रोमांटिक प्लेस है!”

“हा हा! हाऊ क्यूट!” मीना हँसते हुए बोली, “थैंक यू... लेकिन नहीं! ये तुम लोगों का फॅमिली टाइम है। मैं जबरदस्ती उसको खराब नहीं करूँगी!”

“मीना... डोंट वरी! रियली! भाभी को अच्छा लगेगा! ... उनको नए लोगों से मिलना, उनसे बातें करना, उनको खाना खिलाना बहुत अच्छा लगता है!”

शी विल फ़ील बैड!”

बिलीव मी, शी विल नॉट!”

“ओह जय!”

“अच्छा रुको... मैं उनसे बात कर के परमिशन ले लूँ, तो?”

“ओह...”

“हाँ, तुम ही नहीं आना चाहती, तो अलग बात है!”

“नहीं... ऐसी कोई बात नहीं! आई ट्रस्ट यू... एंड आई वुड लाइक टू कम टू योर प्लेस!”

“फिर तो कोई बात ही नहीं है,” कहते हुए जय ने अपने घर का नंबर लगाया।

कुछ देर बाद उधर फ़ोन उठा,

“भाभी?”

“...”

“बस, निकलने ही वाला हूँ!”

“...”

विल इट बी ओके अगर मेरे साथ मेरी एक दोस्त भी रहेगी आज डिनर पर...”

“...”

“क्या भाभी... आप भी न!”

“...”

“हा हा... हाँ भाभी, वो ही है!”

“...”

“पक्का?”

“...”

“हाँ हाँ, ठीक है! लेकिन कम से कम बता तो दीजिए कि डेज़र्ट के लिए क्या ले आऊँ?”

“...”

मीना को देखते हुए, “तुमको मीठे में क्या पसंद है?”

“ओह गॉड! आई आलरेडी फ़ील बैड... अभी और परेशान नहीं करना चाहती!”

“कोई परेशानी नहीं है... लेकिन ये भाभी का हुक्म है! ... मेरी बात पर विश्वास नहीं तो उन्ही से बात कर लो!”

“बाप रे! न बाबा! ... कुछ भी चलेगा... जो भी पसंद हो!”

जय वापस फ़ोन पर बोलते हुए, “भाभी, मीना कह रही है कि आपको जो भी पसंद हो, वो चलेगा!”

“...”

“ओहो! अच्छा ठीक है भाभी! ... मिलते हैं जल्दी ही!”

“...”

“बाय भाभी... यू आर द बेस्ट... लव यू!”

“...”

जय ने फ़ोन को क्रैडल पर रखते हुए मीना से कहा, “लेट्स गो! लेकिन... रास्ते में कहीं रुकना पड़ेगा! ... भाभी ने कहा है कि घर आते आते तुम्हारी ही पसंद की कोई मीठी सी चीज़ लेता आऊँ!”

“ओह गॉड! ... यू गायज़ आर अमेज़िंग!”

रास्ते में मीना और जय एक अपस्केल इटालियन रेस्त्रां पर रुके। यह मीना की पसंद का रेस्त्रां था, और वो अक्सर यहाँ जाती थी। वहाँ से मीना ने एक बड़ा सा तिरामिसू केक पैक करवाया। बड़ा सा इसलिए क्योंकि उसको आदित्य और क्लेयर के दोनों बच्चों के बारे में पता चला। वैसे मीना की देहयष्टि को देख कर ऐसा ही लगता था कि वो खाने पीने को ले कर बड़ी सतर्क रहती है। खैर, शीघ्र ही दोनों केक ले कर जय के घर पहुँचे। दरवाज़ा आदित्य ने खोला।

“हेलो... हेलो अगेन, आदित्य!”

आदित्य ने मुस्कुराते हुए मीना का स्वागत किया, “वेलकम मीना! ... व्हाई आई ऍम नॉट सरप्राइस्ड दैट जय इस कीपिंग यू बिजी!”

“ओह नो नो... दैट वास एंटायरली माय फाल्ट! सब एक्सप्लेन करते करते कब इतना समय हो गया, पता ही नहीं चला!”

“हा हा... तुम्हे जय को बचाने की कोई ज़रुरत नहीं!” आदित्य हँसते हुए बोला, “बट व्ही आर सो हैप्पी दैट यू कुड कम टू आवर होम!”

फ़ीलिंग इस म्युचुअल, आदित्य!”

“हेलो मीना...” इतने में क्लेयर आती है, “ओह गॉड... जितना जय बताता है, तुम तो उससे भी कहीं अधिक ख़ूबसूरत हो!”

क्लेयर की बात पर मीनाक्षी शर्मा जाती है। अचानक से अपने लिए ऐसी बढ़ाई सुन कर कोई भी शरमा जाए या हिचक जाए!

“क्या भाभी...” जय भी शरमा गया।

“क्या भाभी क्या? ... कोई झूठ थोड़े ही कहा - न तुमने और न ही मैंने!” क्लेयर ने अपनी बातें कहना जारी रखा, “आओ मीना... वेलकम!”

“आप...”

“ओह, व्हेर आर माय मैनर्स! मेरा नाम क्लेयर है! ... और मैं... आदित्य की ‘बेटर हाफ’ हूँ!”

क्लेयर ने बेटर हाफ पर अधिक दबाव देते हुए कहा।

नो डाउट माय डार्लिंग!”
आदित्य ने भी उसकी बात का अनुमोदन किया, और उसको अपने बगल में आलिंगनबद्ध करते हुए मीना को अंदर आने का निमंत्रण दिया, “आओ मीना! दरवाज़े पर कब तक खड़े रहेंगे!”

मीना ने घर में अपनी नज़र डाली - हाँलाकि घर पूरी तरह से आधुनिक, अमेरिकन, और उच्चवर्गीय बंगला था, लेकिन उसके अंदर का तत्व बड़ा की पारम्परिक और परिष्कृत था। क्लेयर गृह-स्वामिनी थी, और इसलिए उम्मीद करी जानी चाहिए थी, कि घर पर ईसाई प्रभाव या कुछ नहीं तो अमेरिकन प्रभाव अधिक रहेगा। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से ऐसा कुछ नहीं था। मुख्य अतिथि कक्ष की बड़ी दीवार पर एक बहुत बड़ी सी, मध्य-कालीन, भारतीय पेंटिंग लगी हुई थी। जाहिर सी बात है, वो भारत से ही लाई गई होगी और उसको यहाँ लाने में अच्छा खासा खर्च भी हुआ होगा। वहीं पर अष्टधातु की नटराज की एक बड़ी सी प्रतिमा भी लगी हुई थी। कक्ष में मेहमानों के बैठने के लिए कई सारे आरामदायक सोफ़े थे।

“बैठो मीना,” आदित्य ने आग्रह किया।

मीना न जाने क्यों थोड़ा हिचक सी गई। उसने बहुत से रईस देखे थे, लेकिन इस परिवार में रईसी का कोई गुमान नहीं दिख रहा था। बड़े प्रेम से और बड़े ही ग़ैर-दिखावटी तरीक़े से सभी पेश आ रहे थे। शायद इसीलिए...

“ओके... क्या लोगी?” क्लेयर ने बड़े प्यार से पूछा।

“पानी?”

“अरे यार! हाँ, पानी भी... लेकिन उसके बाद? ... वाइन चलेगी?”

मीना मुस्कुराई, “ओके!”
क्लेयर ने जय को देखा - कहने का मतलब, उसको वाइन ले आने का इशारा किया।

“परफेक्ट!” जय ने कहा, और वहाँ से गायब हो गया।

उतने में दोनों बच्चे वहाँ आ गए।

“मीना,” क्लेयर ने अपने बच्चों को उससे मिलवाते हुए कहा, “मेरे नन्हे शैतानों से मिलो... ये है अजय, मेरा बड़ा बेटा... और ये है अमर, मेरा छोटा बेटा... और बच्चों, ये हैं मीना... मीनाक्षी!”

“नमस्ते मीनाक्षी...”

“नमस्ते मीनाक्षी...”

दोनों बच्चों ने हाथ जोड़ कर मीना को ‘नमस्ते’ किया तो वो आश्चर्य से फूली न समाई।

“नमस्ते बच्चों...” फिर क्लेयर की तरफ़ मुखातिब होते हुए, “वाओ क्लेयर... आपके दोनों बच्चे तो कमाल के हैं! पूरे संस्कारी!”

“क्यों नहीं होंगे...” जय हाथों में वाइन ग्लास और वाइन बॉटल लाते हुए बोला, “मेरी भाभी भी तो कमाल की हैं!”

“ये आ गया मक्खन लगाने वाला!” क्लेयर हँसते हुए बोली।

“मक्खन नहीं भाभी... यू रियली आर द बेस्ट!”

“हा हा... मीना... और ये है मेरा तीसरा बेटा...”

क्लेयर की बात पर मीना मुस्कुरा दी।

‘कितना सुन्दर परिवार है ये!’

जय ने चार ग्लासों में वाइन डाल कर बारी बारी से पहले मीना, फिर क्लेयर, फिर आदित्य, और फिर खुद को दिया। कुछ देर तक सभी बातें करते रहे। दोनों बच्चे बड़ों की बातें सुन कर ऊब रहे थे, इसलिए आदित्य ने ही सभी को खाने के लिए आमंत्रित किया।

“अच्छा, चलो चलो! हमने बड़े मन से पकाया है!”

आई ऍम सो सॉरी आदित्य... क्लेयर...” मीना ने एक बार फिर से माफ़ी माँगते हुए कहा, “जय ने मेरी एक न सुनी...”

“जय ने बहुत अच्छा किया,” आदित्य बोला, “... और फिर हम सभी दोस्त हैं न!”

“हाँ मीना, तुमको ऐसे हेसीटेट नहीं करना चाहिए!” क्लेयर बड़ी आत्मीयता से बोली, “अपने वतन से इतनी दूर... अगर यहाँ तुम्हारे कोई अपने हों, तो क्या बुरा? ... हमको दोस्त मानो, या परिवार... लेकिन भई, अब हमसे तो तुम जुड़ गई हो! ... अब और बहाने नहीं बनाने देंगे तुमको!”

क्लेयर की बात दिल को इतनी छूने वाली थी कि मीना की आँखों में आँसू आ गए।

थैंक यू सो मच, क्लेयर... थैंक यू...”

“अच्छा चलो चलो भाई! ... तुम सभी बातों बातों में खाना ठण्डा करवा दोगी!” जय बोला।

डाइनिंग टेबल पर माहौल इतना अनौपचारिक था कि आनंद आ गया! मीना को अकेले खाना खाने की आदत थी। पहले ऍमबीए की कठिन पढ़ाई, फिर उसके बाद कंसल्टिंग जैसी कठिन नौकरी! अक्सर घर से बाहर रहती; अनाप-शनाप समय पर घर जाती; इसलिए अनाप-शनाप खाती। अकेले खाने क्या, अकेले रहने की ही आदत हो गई थी।

एक लम्बे समय से वो अमेरिका में रह रही थी। उसके पिता भारत देश में ही थे, और उन्होंने देश छोड़ कर वहाँ न जाने की लगभग कसम खा रखी थी। उन्होंने तब भी देश नहीं छोड़ा जब करीब चार साल पहले उनको कैंसर की बीमारी ने पकड़ लिया था। बीमारी के संज्ञान होने के साल भर के भीतर ही उनकी मृत्यु हो जाने के बाद, मीना का भारत के साथ जो रहा सहा नाता था, वो भी टूट गया। उसका कोई परिवार, कोई सगा वहाँ अब नहीं था। दूर के रिश्तेदारों का कोई महत्त्व नहीं होता, क्योंकि वो केवल मतलब के यार होते हैं!

ख़ैर, अपने पिता की मृत्यु के बाद से अब वो पूरी तरह से कटी पतंग के समान इस देश के खुले आसमान में इधर उधर डोल रही थी। काम संतोषजनक था, उसके एवज़ में मिलने वाला धन संतोषजनक था, लेकिन उसका जीवन संतोषजनक नहीं था। एक कमी हमेशा ही महसूस होती रहती थी - भारत में उसकी जड़ें अब बची नहीं थी, और अमेरिका में कोई जड़ें स्थापित नहीं हुई थीं। ऐसे में उसको लगता कि वो जो सब कर रही है, वो निरुद्देश्य है। जीवन में एक समय आता है, जब आप स्थिरता चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि यहाँ अमेरिका में उसके दोस्त नहीं बने - कई बने! ऍमबीए के समय से अब तक तो कई सारे दोस्त बन चुके थे! लेकिन उसको किसी के साथ भी वैसा खुलापन नहीं महसूस होता था। सबके साथ बड़ा औपचारिक सा महसूस होता उसको। ऍमबीए से अब तक तीन पुरुषों के साथ उसके रोमांटिक सम्बन्ध भी बने थे! लेकिन कोई भी सम्बन्ध अधिक देर नहीं चल सके! कारण? काम में व्यस्तता के कारण समय का अभाव, जो एक दूसरे को जानने समझने का अवसर ही नहीं देती थी, और दूसरा, एक दूसरे को ले कर अलग अलग अपेक्षाएँ!

लेकिन आदित्य के परिवार के साथ अलग सी बात थी! आदित्य क्लाइंट अवश्य था, लेकिन उससे बात कर के दोस्त जैसा महसूस होता। और जय... ओह, जय का एक अलग ही प्रभाव पड़ा था मीना पर! वो शायद ये बात किसी से न स्वीकार करे, लेकिन सच में, जय को पहली ही नज़र देख कर उसको महसूस हुआ था कि ‘ये अपना है’! गज़ब का आकर्षण था जय में! उसका दिल जय की उपस्थिति में अपेक्षाकृत और तेजी से धड़कने लगता था। आख़िर कौन स्त्री ये बात स्वीकार करेगी! वो भी जानती थी कि उसका भी जय पर इसी तरह का प्रभाव था। मीना और जय दोनों ही समझते थे इस बात को, लेकिन दोनों ही इस बात को उजागर नहीं करते! और क्लेयर! पहली ही मुलाक़ात में ऐसी आत्मीयता दिखाने वाली दोस्त शायद ही कोई बने! कुछ बात थी इस परिवार में जो बरबस ही मीना को अपनेपन का एहसास करा रही थी।

इधर उधर की बातें करते हुए भोजन समाप्त हुआ। उसके बाद मीना का पसंदीदा तिरामिसू केक सभी को परोसा गया। अजय और अमर तो आपस में आधा केक खाने वाले थे, और बाकी ये चारों जने! यह बात अपेक्षित भी थी, और मालूम भी! इसलिए हँसी में टाल दिया गया। खाने के बाद एक दो और राउंड वाइन का चला। और उस दरम्यान वो चारों देर तक बातें करते रहे। जब समय देखा तो पता चला कि रात के ग्यारह बज रहे हैं।

ओह माय गॉड!” मीना लगभग चौंकती हुई बोली, “क्लेयर... आदित्य... आई ऍम सो सॉरी! आपकी इवनिंग और रात दोनों खराब कर दी मैंने! ... लेकिन... लेकिन इतने समय के बाद अपने जैसों से मिल कर... सच में... टाइम का पता ही नहीं चला! ... आई ऍम सो सॉरी! ... अब मुझको जाना चाहिए!”

“अरे, इतनी रात गए कहाँ जाओगी?” क्लेयर ने कहा।

“अपने घर... और कहाँ?”

“अपने ही घर में तो हो!” क्लेयर बोली, “इट इस नॉट सेफ टू गो आउट इन दिस ऑवर! और वैसे भी, कल शनिवार है! ... यहीं रुक जाओ न! ... तुमको अच्छा लगा हमसे मिल कर, तो हमको भी तो तुमसे मिल कर अच्छा लगा न!”

“लेकिन...”

“लेकिन वेकिन कुछ नहीं मीना... आज रात यहीं रुको!” क्लेयर ने बड़े अधिकार से कहा, “कल चली जाना... जय छोड़ देगा तुमको तुम्हारे घर!”

“हाँ मीना,” आदित्य बोला, “ज़िद न करो! वाक़ई सेफ नहीं है इतने रात में बाहर जाना!”

“राइट...” क्लेयर फिर से बोली, “और वैसे भी तुमको ये घर भी तो दिखाना है! ... दिन में ज्यादा अच्छा दिखेगा!”

मीना ने कातर दृष्टि से जय को देखा।

जय केवल मुस्कुरा रहा था। वो भी समझ गई कि जय भी यही चाहता है।

उसका दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा।

“लेकिन...”

“अरे, फिर से लेकिन!”

“क्लेयर... नहीं, मैं वो नहीं कह रही थी! ... मैं रुक भी जाऊँ... लेकिन, मेरे पास ये बिज़नेस क्लॉथ्स के अलावा और कुछ नहीं है!”

“बस इतनी सी बात! ... ये तो कोई प्रॉब्लम ही नहीं है!” क्लेयर हँसते हुए बोली, “आओ मेरे साथ... मैं अपना वॉर्डरोब दिखा देती हूँ। वहाँ से जो मन करे, वो ड्रेस सेलेक्ट कर लो! ... और नाईट ड्रेस तो बहुत सी हैं!”

कह कर क्लेयर ने उसका हाथ थाम कर उठाया, और अपने साथ अपने कमरे में लेती गई।

जब दोनों स्त्रियाँ आँखों से गायब हो गईं तो आदित्य ने मुस्कुराते हुए जय को छेड़ा,

“क्या बात है बरखुरदार? ... बात इतनी बढ़ गई है तुम दोनों के बीच कि उसको घर ले आए!”

“हा हा हा... नहीं भैया... बात तो जहाँ थी, वहीं है!”

“गधा है तू...” आदित्य बोला, “लेकिन एक काम बड़ा अच्छा किया तूने, कि तू उसको यहाँ ले आया! ... क्लेयर बहुत खुश है!”

“भाभी को भी पसंद है क्या भैया?”

“भी?”

“आपको तो पसंद है... वो मुझे मालूम है!”

“हा हा हा!” अपने छोटे भाई की बात सुन कर आदित्य ज़ोर से हँस पड़ा, “हाँ, मुझे भी, और तुम्हारी भाभी को भी...”

“थैंक यू भैया...”

“अब कोशिश कर के जल्दी से उसको अपने मन को बात बता दे!”

जय मुस्कुराया। बड़े भाई का समर्थन पा कर उसको भी अपनी ‘पसंद’ पर भरोसा हो गया था।

*
धीरे धीरे रोमांस अपनी चरम की ओर अग्रसर हो रहा है l
 
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Update #12


“सुहासिनी...” सुहासिनी को लगा कि उसको किसी ने बड़े हौले से पुकारा है।

आमतौर पर वो स्कूल से सीधा घर आती थी, लेकिन आज उसके मन में न जाने मन में क्या समाया कि वो स्कूल से पास की बावली की तरफ चल दी। अभी अप्रैल का महीना लगा ही था, लेकिन दिन अभी से तपने लगे थे। और दोपहर की तपती धूप किसी को नहीं सुहाती - न मनुष्यों को, न जानवरों को, और न ही पक्षियों को। एक अलग प्रकार का सन्नाटा छाया हुआ था। बावली के पास बेर के वृक्षों का झुरमुट था। हाँलाकि अधिकतर पेड़ों में फ़सल हो चुकी थी, लेकिन अभी भी, अगर पर्याप्त मेहनत करी जाय, तो काफी बेर इकट्ठे हो जाते हैं। इसलिए पेड़ों पर बंदरों और अनेकों पक्षियों का डेरा देखा जा सकता है।

सुहासिनी का भी मन हुआ कि थोड़ा मस्ती करी जाय - वैसे भी उसके बाबा काम के सिलसिले में बाहर गए हुए थे। सहेलियों से पूछा, तो सभी ने मना कर दिया, किसी न किसी कारणवश! उसने नज़र उठा कर देखा, तो उसका दिल धक् से हो गया।

सामने उसका राजकुमार खड़ा था।

“सुहासिनी?”

“ज्जी...?”

हर्ष उसके पास आ कर खड़ा हो गया - वो भी पसीने से लथपथ था। राजमहल की सुख भरी छाँव में पलने बढ़ने वाला कुमार, ग्रीष्म की गर्मी की मार नहीं झेल पा रहा था। उसकी ऐसी हालत देख कर सुहासिनी को हँसी आ गई, लेकिन उसने बड़े यत्न से अपनी हँसी को दबाया कि वो कहीं बुरा न मान जाए!

“हम... हम बहुत दिनों से आपसे कुछ कहना चाहते थे...”

सुहासिनी समझती थी कि वो क्या कहना चाहता है। लेकिन लड़की जात को किसी बात में - और ख़ास कर इन बातों में - पहल करने की अनुमति नहीं होती। अतः, शिष्टाचार यही कहता है कि वो चुपचाप राजकुमार की बातें सुन ले।

“जी?”

“आप... आप हमसे...” हर्ष ने हिचकते हुए कहा, “आप हमसे...”

“हम आपसे क्या?” न चाहते हुए भी उसकी सुलभ चंचलता सामने आ ही गई।

राजकुमार जैसे रसूख़ वाले व्यक्ति से भी इस तरह की धृष्टता करना, और उस धृष्टता के उत्तर में राजकुमार का उतना ही शिष्ट रहना उसको बड़ा भाया।

“आप हमसे विवाह...” हर्ष ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी।

जब दो पल वो कुछ नहीं बोला, तो सुहासिनी से रहा नहीं गया।

वो बोली, “क्यों?”

“क्यों?”

हर्ष को विश्वास ही नहीं हुआ कि उसको ऐसा उत्तर मिल सकता है। उसको लगता था कि सुहासिनी भी उसको पसंद करती है। उसको उम्मीद थी कि सुहासिनी उसकी बात सुन कर शर्माएगी, सकुचाएगी... लेकिन, ये तो कुछ और ही हो गया!

“हाँ... क्यों?” सुहासिनी अपनी बात पर अड़ गई।

शर्म, संकोच एक तरफ़ और उसका अल्हड़पन दूसरी तरफ!

“आप हमको पसंद नहीं करतीं?” हर्ष का दिल मानो टूट गया।

“करते हैं... पसंद...” सुहासिनी ने ठिठकते हुए इस बात को स्वीकारा, लेकिन अल्हड़पन भी कोई चीज़ होती है,

“लेकिन... हम आपसे... कैसे?”

“क्यों? क्या कमी है हम में?”

“आप में क्या कमी हो सकती है... आप तो राजकुमार हैं!” कहते हुए उसकी आँखें स्वतः नीची हो गईं।

वो हर्ष को यूँ सताना नहीं चाहती थी। लेकिन जब सताना शुरू कर ही दिया है, तो इतनी आसानी से छोड़ना नहीं चाहती थी। पर ये बात कुछ अलग ही थी। हाँ, उसके राजकुमार में कोई कमी नहीं थी!

“तो फिर?” हर्ष अपनी बढ़ाई सुन कर थोड़ा मुस्कुराया।

“हमारी पसंद का क्या? और उसका मतलब भी क्या?" सुहासिनी थोड़ा ठिठकी, "... हमारे लिए दूल्हा तो बाबा लाएँगे न!”

यह बात न तो पूरी तरह से सत्य थी, और न ही पूरी तरह से असत्य! हाँ, समाज में यही चलन था कि परिवार वाले अपनी पसंद के दूल्हे से लड़कियों की शादियाँ करा देते थे, लेकिन उसके परिवार में लड़कियों की पसंद पूछी जाती थी। फिर भी, समाज में प्रचिलित प्रथा के चलते, पिता का ही निर्णय आखिरी और सर्वोपरि होता था।

“आपके बाबा को हम नहीं पसंद आएँगे क्या?”

हर्ष की इस बात पर सुहासिनी का दिल बैठ गया!

पूरे ब्रह्माण्ड में कौन है जो राजकुमार हर्ष को अपनी बेटी के लिए पसंद न करे? उनके जैसा दामाद मिलना तो ईश्वरीय प्रसाद है।

“आपको वो नापसंद भी कैसे करेंगे!” सुहासिनी सकुचाती लजाती बोली।

“तो?”

“तो? तो क्या?” सुहासिनी के होंठों पर एक स्निग्ध मुस्कान आ गई।

“हमारा प्रश्न तो अभी भी ज्यों का त्यों है!”

“कौन सा प्रश्न?”

“आप हमसे विवाह करेंगी?”

सुहासिनी के गालों पर सुर्ख लालिमा फैल गई।

“आप... आप... बाबा से ही...” उसने बात अधूरी ही छोड़ दी।

हर्ष के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान आ गई।

इतने दिनों से वो सुहासिनी से अपनी बात कहने की हिम्मत जुटा रहा था। आज वो बात कह कर वो संतुष्ट हो गया। न केवल वो, बल्कि सुहासिनी भी उसको चाहती थी! बढ़िया! अचानक ही सुहासिनी को ले कर उसके मन में अधिकार भाव जाग गया।

“आज इधर कैसे?” उसने पूछा।

सुहासिनी का अल्हड़ लड़कपन फिर से जाग गया, “बेर तोड़ने आए थे...”

“बेर तोड़ने? ... लेकिन यहाँ... इन पेड़ों में तो कुछ भी नहीं है!”

“अरे खूब सारे तो हैं। ... आप नीचे से देखेंगे तो कुछ नहीं मिलेगा... उसके लिए पेड़ों पर चढ़ना पड़ता है!”

सुहासिनी ने कहा, और अपना बस्ता वहीं ज़मीन पर रख कर, बन्दर के समान चपलता दिखाते हुए एक पेड़ पर चढ़ने लगी।

हर्ष अविश्वसनीय तरीके से इस बेशऊर सी लड़की की बंदरनुमा हरकतें देखता रहा। उस दिन जब ये लड़की नृत्य कर रही थी, तो कैसी रमणीय, कैसी गरिमामय लग रही थी। लेकिन आज... पूरी बन्दर!

लेकिन फिर भी उसकी अल्हड़ सरलता हर्ष को बड़ी अच्छी लगी! न कोई दिखावा, न कोई मिलावट! खालिस राजस्थानी लड़की है सुहासिनी! उसका व्यवहार बस इसलिए नहीं बदलने वाला था कि वो राजकुमार के सामने थी। आस पास के राजवाड़े जब राजपरिवार से मिलने आते हैं, तो कई बार उनके साथ उनके पुत्र और पुत्रियाँ भी होते हैं। वो कैसे परिष्कृत, कैसे शालीन हो कर व्यवहार करते हैं! इस चंचल लड़की से बिल्कुल अलग! शायद यही बात हर्ष को भा गई है!

उसने देखा कि सुहासिनी कैसे अपने दोनों पैर बेर के पेड़ की पतली पतली डालियों पर टिकाए, पूरे मनोयोग से बेर तोड़ने में व्यस्त थी। वो अपनी चुनरी को बेरों को इकठ्ठा करने में इस्तेमाल कर रही थी। अनायास ही हर्ष की दृष्टि सुहासिनी के कुर्ती के महरम (कुर्ती का वो हिस्सा, जिसमें स्तन रहते हैं) पर पड़ी। संभवतः उसके सीने के ये रोचक उभार ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण थे कि ये अल्हड़ सी, बंदरिया, दरअसल एक लड़की भी थी! सुहासिनी जब लपक कर अपनी बाहें बढ़ाती, तो उसके छोटे छोटे स्तन बड़े रुचिकर रूप से बाहर उठ आते! हर्ष को सभ्य रह कर व्यवहार करना सिखाया गया था - ख़ास कर स्त्रियों और लड़कियों के साथ! लेकिन सुहासिनी के सीने, उसके चेहरे से उसकी नज़र हटती ही नहीं!

बेर तोड़ते हुए सुहासिनी ने भी अचानक से देखा कि राजकुमार की नज़र कहाँ है। उस बात का बोध होते ही, अचानक से ही उसके कानों की लोलकियाँ तपने लगीं! उसको लगा कि उसके पूरे शरीर में एक अनजान सी सिहरन फैल गई हो! उसको समझ नहीं आया कि वो राजकुमार की नज़रों का भला माने, या बुरा! लज्जा का मद्धिम रक्तिम आवरण उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गया।

उसके दल की एक लगभग हमउम्र लड़की ने उसको कभी समझाया था कि पुरुषों की आँखें स्त्रियों के किन अंगों की तरफ़ आकर्षित होती हैं! पूरी बात सुनने पर उसको समझ ही नहीं आया कि कैसे स्त्रियों की हर चीज़... उनका हर अंग पुरुषों को उनकी ओर आकर्षित कर सकती हैं - उनकी आँखें, उनके गाल, उनके काले लम्बे बाल, उनकी देह के कटाव, उनकी भाव-भँगिमा! सब कुछ! लेकिन जो सबसे बड़ा रहस्योद्घाटन था वो यह कि जो चीज़ पुरुषों को सबसे अधिक आकर्षित करती है, वो है स्त्रियों लड़कियों की कुर्ती के महरम में कसमसाते, काली चोंच वाले, उनके दोनों कबूतर!

‘तो क्या राजकुमार भी...’ सुहासिनी तो उस बात को सोचने से भी शरमा गई।

सोच कर उसको अच्छा भी लगा, और बुरा भी!

‘ताकना था तो उसका चेहरा ताक लेते... उसकी आँखें भी सुन्दर हैं... होंठ भी और गाल भी! ... लेकिन इनको ताकना है तो बस, इन्ही को! हुँह!’

बेर तोड़ने का आनंद अब कम हो गया - लड़कपन पर लज्जा का आवरण चढ़ गया। उसने कुछ समय बर्दाश्त किया कि संभवतः राजकुमार की नज़रें वहाँ से हट जाएँ, लेकिन जब वैसा नहीं हुआ तो,

“राजकुमार...” उसके मुँह से निकल गया।

“ह...हाँ...” हर्ष जैसे किसी तन्द्रा से जागा हो।

“आपके लिए भी तोड़ लूँ बेर?” सुहासिनी बनावटी गुस्से में तमतमाती हुई बोली।

हर्ष समझ गया कि उसकी चोरी पकड़ ली गई है। उसको भी अपनी हरकतों से बुरा लगा। लेकिन क्या करे वो - जब कोई वस्तु अपनी लगने लगती है, तो फिर स्वयं पर नियंत्रण कैसे हो? और फिर, ऐसी अनकही चोरी के लिए माफ़ी भी कैसे मांगे वो?

“नहीं... नहीं!”

सुहासिनी झटपट पेड़ से नीचे उतर आई।

“तो हम चलें?” वो अपना बस्ता उठाती हुई बोली।

“जी... जी चलिए!” हर्ष बोला।

सुहासिनी ने एक नज़र हर्ष को देखा, और उसको एक बेर पकड़ा कर अपने घर की ओर चल दी। कोई दस कदम चली होगी कि हर्ष की आवाज़ सुनाई दी उसको,

“हम आपके बाबा से बात करेंगे...”

वो मुस्कुराई। लेकिन उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

घर आ कर उसको वहाँ का सूनापन काटने को दौड़ा। घर पर कोई नहीं था, और तपती दोपहरिया के कारण बाहर भी सब चुपचाप था। उस सूनेपन के कारण, अभी थोड़ी देर घटी घटनाओं की याद ताज़ा हो आई। सुहासिनी के मन में अनायास ही अजीब और अपरिचित सी भावनाएँ जागने लगीं। उसने घर के किवाड़ धकेल कर बंद किए और साँकल चढ़ा दी। फिर उसने वो किया, जो शायद पहले कभी नहीं किया था। बंद किवाड़ों से अपनी पीठ टिका कर खड़ी हो कर, उसने अपने दोनों हाथ अपनी कुर्ती के बटनों से उलझा दिए।

कुछ ही क्षणों में सुहासिनी के शरीर का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से निर्वस्त्र हो गया। उसके हाथ अपने ही शरीर पर तेजी से फिसलने लगे। न जाने किस वस्तु की तलाश में उसके हाथ व्यस्त थे - ऐसा तो कुछ नहीं ले लिया राजकुमार ने! शायद उसी कारण उसकी हरकतों में एक अबूझ सी बैचेनी भी दिखने लगी थी! साँसें भी चढ़ आई थीं! क्या हो गया था उसको? सुहासिनी ने दीवार पर टंगा दर्पण उतारा, और अपना शरीर के ऊपरी भाग का मुआयना करने लगी! ये अवसर तो शायद ही कभी मिला हो उसको! जब देखो बस भागम-भाग! सवेरे से ले कर साँझ तक! छोटे से दर्पण में उसने मन भर के अपने शरीर को निहारा! ख़ास कर अपने वक्ष-स्थल पर!

“काली चोंच वाले कबूतर...!” वो अनायास ही बड़बड़ा उठी।

सहेली भी कैसी मूर्ख है! ये और कबूतर? ये भला कैसी उपमा? ... और इनके चोंच काले तो बिल्कुल नहीं हैं! छोटे कबूतर, और काले चोंच तो बिल्कुल भी नहीं!

नारंगी के नन्हे फलों के जैसे थोड़े सख़्त, तो थोड़े मुलायम, थोड़े चिकने, तो थोड़े खुरदुरे... लेकिन गोल-मटोल से अल्हड़ और युवा स्तन!

“कबूतर... हुँह!” सुहासिनी फिर से बड़बड़ाई, फिर अपनी ही बात पर हँसने लगी।

अनिश्चित और काँपते हाथ से उसने एक स्तन को छुआ, फिर दूसरे को! न जाने क्या अजीब शय थे ये दोनों अंग, कि उसके पूरे शरीर में अजीब सी कँपकँपी दौड़ गई!

‘बाप रे,’ उसने सोचा, ‘राजकुमार के देखने भर से ऐसी ही अनुभूति हुई थी... अगर उन्होंने उनको छू लिया, तो!’

फिर उसके मन में ख़याल आया कि ये तो वैसे भी बच्चों के काम की चीज़ है। पति का इनमें क्या...? हाँ, लड़कियाँ और औरतें इनके कारण सुन्दर अवश्य लगती हैं, लेकिन ये पति के भला किस काम के! ये तो बच्चों के भरण पोषण के लिए होते हैं।

ऐसा विचार कर के वो थोड़ा आश्वस्त हुई।

फिर उसके मन में मज़ेदार इच्छा आ गई - अपना घाघरा उतार फेंकने की! यह एक दुस्साहसी काम था! पूर्ण नग्न होना उसने कभी किया ही नहीं था। काँपते हाथों से उसने अपने घाघरे का नाड़ा खोला, और उसको नीचे सरकाना आरंभ किया।

कि तभी किवाड़ पर दस्तक हुई!

काँप गई सुहासिनी! झटपट से उसने घाघरा ऊपर चढ़ाया, नाड़ा बाँधा, अपनी कुर्ती पहनी, और बड़ी तेजी से उसके बटन लगाने लगी।

‘इस समय कौन आया होगा?’

उसके मन में शंका जाग गई।

‘बाबा तो देर में आने वाले थे...’

‘कहीं राजकुमार ही तो नहीं?’ उसका दिल इस बात को सोच कर सहम गया!

अपना पीछा किया जाना किसी को अच्छा नहीं लगता, भले ही वो मनमीत ही क्यों न हो!

कुर्ती खींच कर उसने नीचे किया, और अपने सीने पर उसने ठीक से बैठाया।

किवाड़ खोलने से पहले उसने एक बार बाहर देख लेना ठीक समझा! किवाड़ के मध्य में झिर्री से आँख लगा कर देखा, तो पाया कि पड़ोस की ताई हैं। उसने जल्दी से दरवाज़ा खोला।

“ताई... तुम? सब ठीक है?” थोड़ी निःश्वास आवाज़ में वो बोली।

“हाँ रे... तेरा बाबा बोल गया था कि तुझे खाना दे दूँ!” पडोसी महिला बोलीं, “आ जा... आ कर खा ले!”

*
अल्हड़ नव यौवना को अपने योवन का अनुभव
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