Update #3
महल के अनुरूप ही मुख्य भोजनगृह भी विशालकाय था। महल में इसके अतिरिक्त भी कई भोजनगृह थे, लेकिन यह प्रत्येक मुख्य आयोजनों में इस्तेमाल किया जाता था। डाइनिंग टेबल चालीस लोगों के बैठने के लिए निर्मित की गई थी, जो अपने हिसाब से एक बड़ी व्यवस्था थी। दो बड़े फ़ानूसों की रौशनी से टेबल सुशोभित था। जब प्रियम्बदा ने भोजन गृह में प्रवेश किया, तो वहाँ उपस्थित सभी लोग उसके सम्मान में खड़े हो गए - उसके सास ससुर भी! ऐसा होते तो कभी सुना ही नहीं... देखना तो दूर की बात है!
‘सच में - बहुओं का तो कैसा अनोखा सम्मान होता है यहाँ,’ उसने सोचा।
सोच कर अच्छा भी लगा उसको और बेहद घबराहट भी! मन में उसके यह डर समाने लगा कि कहीं वो ऐसा कुछ न कर बैठे, जिससे ससुराल का नाम छोटा हो! लेकिन उसके डर के विपरीत, उसके ससुराल के लोग यह चाहते थे कि उसको किसी भी बात का डर न हो! और वो अपने नए परिवार में आनंद से रह सके। उसको और हरीश को साथ में बैठाया गया। प्रियम्बदा के चेहरे पर, नाक तक घूँघट का आवरण था, लिहाज़ा देखने की चेष्टा करने वालों को केवल उसके होंठ और उसकी ठुड्डी दिखाई दे रही थी। उसके बगल में बैठा हुआ हरीश भी उसको देखना चाहता था, लेकिन शिष्टाचार के चलते वो संभव नहीं था।
यह एक मल्टी-कोर्स भोज था, और उसके यहाँ की व्यवस्था से थोड़ा अलग था। उसको भी लग रहा था कि नई बहू के स्वागत में उसके ससुराल वाले बढ़ चढ़ के ‘दिखावा’ कर रहे थे! खाने का कार्यक्रम बहुत देर तक चला - एक एक कर के कई कोर्स परोसे जा रहे थे। इस तरह की बहुतायत उसने पहले नहीं देखी थी। भोजन आनंदपूर्ण और स्वादिष्ट था, और आज के बेहद ख़ास मौके के अनुकूल भी था! नई बहू जो आई थी। खैर, आनंद और हँसी मज़ाक के साथ अंततः रात्रिभोज समाप्त हुआ।
“बहू,” अंततः महारानी जी (सास) ने प्रियम्बदा से बड़े ही अपनेपन, और बड़ी अनौपचारिकता से अपने गले से लगाते हुए कहा, “अब तुम विश्राम करो... आशा है कि सब कुछ तुम्हारी पसंद के अनुसार रहा होगा! अभी सो जाओ... सवेरे मिलेंगे! तब तुमको इस्टेट दिखाने ले चलेंगे! कल कई लोग तुमसे मिलने आएँगे!”
“जी माँ!” उसने कहा और उनके पैर छुए। फिर अपने ससुर के भी।
“सदा सुहागन रहो! ... सदा प्रसन्न रहो!” दोनों ने उसको आशीर्वाद दिया।
“और,” उसके ससुर ने यह बात जोड़ी, “हमसे बहुत फॉर्मल होने की ज़रुरत नहीं है बेटे... ये तुम्हारा घर है! हमको भी अपने माता पिता जैसा ही मानो। जैसे उनके साथ करती हो, वैसे ही हमारे साथ करो... बस, यही आशा है कि अपने तरीक़े से, बड़े आनंद से रहो यहाँ!”
यह बात सुन कर उसका मन खिल गया।
‘श्रापित परिवार,’ यह बात सुन सुन कर उसका मन खट्टा हो गया था। लेकिन कैसे भले लोग हैं यहाँ! अच्छा है कि वो एक श्रापित परिवार में ब्याही गई... अनगिनत ‘धन्य’ परिवारों में ब्याही गई अनगिनत लड़कियों की क्या दशा होती है, सभी जानते हैं।
दो सेविकाएँ उसको भोजन गृह से वापस उसके कमरे में लिवा लाईं। कमरे में आ कर उसने देखा कि कमरे में रखी एक बड़ी अलमारी में उसका व्यक्तिगत सामान आवश्यकतानुसार - जैसे मुख्य कपड़े और ज़ेवर इत्यादि - सुसज्जित और सुव्यवस्थित तरीक़े से लगा दिया गया था। उसका अन्य सामान महल में कहीं और रखा गया था, जिनको सेविकाओं को कह कर मँगाया जा सकता था।
कमरे में उसको लिवा कर सेविकाओं ने उससे पूछा कि उसको कुछ चाहिए। उसने जब ‘न’ में सर हिलाया, तब दोनों उसको मुस्कुराती हुई, ‘गुड नाईट’ बोल कर बाहर निकल लीं। शायद सेविकाओं में भी यह चर्चा आम हो गई हो कि नई बहू बहुत ‘सीधी’ हैं।
अब आगे क्या होगा, यह सोचती हुई वो अनिश्चय के साथ पलंग पर बैठी रही।
सेविकाओं के बाहर जाने के कोई पंद्रह मिनट बाद हरिश्चंद्र कमरे में आता है। पलंग पर यूँ, सकुचाई सी बैठी रहना, प्रियम्बदा को बड़ा अस्वाभाविक सा, और अवास्तविक सा लग रहा था। विवाह से ले कर अभी तक के अंतराल में उसकी हरीश से बस तीन चार बार ही, और वो भी एक दो शब्दों की बातचीत हुई थी। एक ऐसी स्त्री, जिसका काम शिक्षण का था, होने के नाते यह बहुत ही अजीब से परिस्थिति थी उसके लिए। उसकी आदत अन्य लोगों से बात चीत करने की थी, उनसे पहल करने की थी, लेकिन यहाँ सब उल्टा पुल्टा हो गया था!
और तो और, पलंग पर उसके बगल बैठ कर हरीश भी उतना ही सकुचाया हुआ सा प्रतीत हो रहा था। दो अनजाने लोग, यूँ ही अचानक से एक कमरे में एक साथ डाल दिए गए थे, इस उम्मीद में कि वो अब एक दूसरे के साथ अंतरंग हो जाएँगे! कुछ लोग शायद हो भी जाते हैं, लेकिन बहुत से लोग हैं, जिनके लिए ये सब उतना आसान नहीं होता।
“अ... आपको हमारा महाराजपुर कैसा लगा?” उसने हिचकते हुए पूछा।
“अच्छा,” शालीन सा, लेकिन एक बेहद संछिप्त सा उत्तर।
कुछ देर दोनों में चुप्पी सधी रही। शायद हरीश को उम्मीद रही हो कि प्रियम्बदा इस बातचीत का सूत्र सम्हाल लेगी! उधर प्रियम्बदा को आशा थी कि शायद हरीश कुछ आगे पूछें! लेकिन ऐसे दो टूक उत्तर के बाद आदमी पूछे भी तो क्या?
जब बहुत देर तक प्रियम्बदा ने कुछ नहीं कहा, तब हरीश को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे! खुद को लड़कियों से दूर रखने की क़वायद में उसको यह ज्ञान ही नहीं आया कि उनसे बात कैसे करनी हैं। दोनों काफी देर तक चुप्पी साधे बैठे रहे, इस उम्मीद में कि अगला/अगली बातें करेगा/करेगी!
अंततः हार कर हरीश ने ही कहा, “अ... आप... आप सो जाईए! कल मिलते हैं!”
“क्यों?” प्रियम्बदा ने चकित हो कर कहा, “... म्मे... मेरा मतलब... आप कहाँ...?”
उसको निराशा भी हुई कि शायद उसी के कारण हरीश का मन अब आगे ‘और’ बातें करने का नहीं हो रहा हो।
“कहीं नहीं...” हरीश ने एक फ़ीकी सी हँसी दी, “मैं यहाँ सोफ़े पर लेट जाऊँगा!”
“क्यों?” ये तो और भी निराशाजनक बात थी।
“कहीं आपको... उम्... अजीब न लगे!” उसने कहा, और पलंग से उठने लगा।
वो दो कदम चला होगा कि, “सुनिए,” प्रियम्बदा ने आवाज़ दी, “... मैं... अ... हम... आप...” लेकिन आगे जो कहना था उसमें उसकी जीभ लड़बड़ा गई।
“जी?”
प्रियम्बदा ने एक गहरी साँस भरी, “जी... हम आपसे कुछ कहना चाहते हैं!”
“जी कहिए...”
“प... पहले आप बैठ जाईए... प्लीज़!”
हरीश को यह सुन कर बड़ा भला लगा। जीवन में शायद पहली बार स्त्री का संग मिल रहा था उसको! प्रियम्बदा सभ्य, सौम्य, स्निग्ध, और खानदानी लड़की थी - यह सभी गुण किसी को भी आकर्षित कर सकते हैं।
“हमको मालूम है कि... कि अपनी... आ... आपके मन में कई सारी हसरतें रही होंगी... अपनी शादी को ले कर!” प्रियम्बदा ने हिचकते हुए कहना शुरू किया, “ले... लेकिन,”
“ओह गॉड,” हरीश ने बीच में ही उसकी बात रोकते हुए कहा, “... अरे... आप ऐसे कुछ मत सोचिए... प्लीज़! ... पिताजी ने कुछ सोच कर ही हमको आपके लायक़ समझा होगा! ... मैं तो बस इसी कोशिश में हूँ कि आपको हमसे कोई निराशा न हो!” कहते हुए हरीश ने अपना सर नीचे झुका लिया।
उसकी बात इतनी निर्मल थी कि प्रियम्बदा का हृदय लरज गया, “सुनिए... देखिए हमारी तरफ़...”
हरीश ने प्रियम्बदा की ओर देखा - उसका चेहरा अभी भी घूँघट से ढँका हुआ था, “... आप की ही तरह हम भी अपने पिता जी की समझदारी के भरोसे इस विवाह के लिए सहमत हुए हैं... किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि आप हमको पसंद नहीं! ... हमको... हमको आपके गुणों... आपकी क़्वालिटीज़ का पता है! ... आप हमको बहुत... बहुत पसंद हैं!”
अपनी बढ़ाई सुन कर हरीश को बहुत अच्छा लगा।
“... और,” प्रियम्बदा ने कहना जारी रखा, “आपको सोफ़े पर सोने की कोई ज़रुरत नहीं है! ... हमारे पति हैं आप!”
यह सुन कर हरीश में थोड़ा साहस भी आया; उसने मुस्कुराते हुए पूछा, “हम... हम आपका घूँघट हटा दें?”
प्रियम्बदा ने लजाते हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया। अनायास ही उसके होंठों पर एक स्निग्ध मुस्कान आ गई। लज्जा की सिन्दूरी चादर उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।
हरीश ने कम्पित हाथों से प्रियम्बदा का घूँघट उठा कर पीछे कर दिया... इतनी देर में पहली बार प्रियम्बदा को थोड़ा खुला खुला सा लगा। उसने एक गहरी साँस भरी... उसकी नज़रें अभी भी नीचे ही थीं, लेकिन होंठों पर मुस्कान बरक़रार थी। साँस लेने से उसके पतले से नथुने थोड़ा फड़क उठे। उसके साँवले सलोने चेहरे की यह छोटी छोटी सी बातें हरीश को बहुत अच्छी लगीं। अच्छी क्यों न लगतीं? अब ये लड़की उसकी अपनी थी!
अवश्य ही प्रियम्बदा कोई अगाध सुंदरी नहीं थी, लेकिन उसके रूप में लावण्य अवश्य था। साधारण तो था, लेकिन साथ ही साथ उसका चेहरा मनभावन भी था। हरीश का मन मचल उठा, और दिल की धड़कनें बढ़ गईं।
रहा नहीं गया उससे... अचानक ही उसने प्रियम्बदा को अपनी बाहों में भर के उसके होंठों पर चुम्बन रसीद दिया। एक अप्रत्याशित सी हरकत, लेकिन प्रियम्बदा के पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई - एक अपरिचित सी सिहरन! जैसा डर लगने पर होता है। ऐसी कोई अनहोनी नहीं हो गई थी, लेकिन इस आक्रमण से प्रियम्बदा थोड़ी अचकचा गई। और... सहज वृत्ति के कारण उसने अपनी हथेली के पिछले हिस्से से, अपने होंठों पर से हरीश का चुम्बन पोंछ दिया।
“अरे,” हरीश ने लगभग हँसते हुए और थोड़ी निराशा वाले भाव से शिकायत करी, “आपने इसको पोंछ क्यों दिया?”
“आपने मुझको यूँ जूठा क्यों किया?” उसने भोलेपन से अपनी शिकायत दर्ज़ करी।
अंतरंगता के मामले में दोनों ही निरे नौसिखिए सिद्ध होते जा रहे थे!
यौन शिक्षा के अभाव, और चारित्रिक पहरे में पले बढ़े लोगों का शायद यही अंजाम होता है। उन दोनों को सेक्स को ले कर जो भी थोड़ा बहुत अधकचरा ज्ञान मालूम था, वो अपने मित्रों से था। परिवार से इस बारे में कुछ भी शिक्षा नहीं मिली थी। शायद परिवार वालों ने उनसे यह उम्मीद की हुई थी, कि जब आवश्यकता होगी, तब वो किसी सिद्धहस्त खिलाड़ी की तरह सब कर लेंगे! जहाँ प्रियम्बदा को ‘पति पत्नी के बीच क्या होता है’ वाले विषय का एक मोटा मोटा अंदाज़ा था, वहीं हरीश को उससे बस थोड़ा सा ही अधिक ज्ञान था। लेकिन ‘करना कैसे है’ का चातुर्य दोनों के ही पास नहीं था।
“मैं नहीं तो आपको और कौन जूठा कर सकता है?” हरीश ने पूछा।
“कोई भी नहीं!” प्रियम्बदा ने बच्चों की सी ज़िद से कहा।
“क्या सच में...” हरीश बोला, और प्रियम्बदा के बेहद करीब आ कर उसके माथे को चूम कर आगे बोला, “... कोई भी नहीं?”
प्रियम्बदा ने हरीश के इस बार के चुम्बन में कुछ ऐसी अनोखी, अंतरंग, और कोमल सी बात महसूस करी, कि उससे वो चुम्बन पोंछा नहीं जा सका। उसका दिल न जाने कैसे, बिल्कुल अपरिचित सी भावना से लरज गया।
हरीश ने इस सकारात्मक प्रभाव को बख़ूबी देखा, और बड़े आत्मविश्वास से प्रियम्बदा की दोनों आँखों को बारी बारी चूमा। इस बार भी उसके चुम्बनों को नहीं पोंछा गया।
“कोई भी नहीं?” उसने फिर से पूछा।
प्रियम्बदा ने कुछ नहीं कहा। बस, अपनी बड़ी बड़ी आँखों से अपने पति की शरारती आँखों में देखती रही।
हरीश ने इस बार प्रियम्बदा की नाक के अग्रभाग को चूमा।
“कोई भी नहीं?” उसने फिर से पूछा।
उत्तर में प्रियम्बदा के होंठों पर एक मीठी सी मुस्कान आ गई।
हरीश ने एक बार फिर से उसके होंठों को चूमा। इस बार प्रियम्बदा ने भी उत्तर में उसको चूमा।
“कोई भी नहीं?”
“कोई भी नहीं!” प्रियम्बदा ने मुस्कुराते हुए, धीरे से कहा।
कुछ भी हो, मनुष्य में लैंगिक आकर्षण की यह प्रवृत्ति प्रकृति-प्रदत्त होती है। यह ज्ञान हम साथ में ले कर पैदा होते हैं। कुछ समय अनाड़ियों जैसी हरकतें अवश्य कर लें, लेकिन एक समय आता है जब प्रकृति हम पर हावी हो ही जाती है। उस समय हम ऐसे ऐसे काम करते हैं, जिनके बारे में हमको पूर्व में कोई ज्ञान ही नहीं होता! हरीश और प्रियम्बदा के बीच चुम्बनों का आदान प्रदान होंठों तक ही नहीं रुका, बल्कि आगे भी चलता रहा। होंठों से होते हुए अब वो उसकी गर्दन को चूम रहा था।
और उसके कारण प्रियम्बदा का घूँघट कब का बिस्तर पर ही गिर गया। प्रियम्बदा ने जो चोली पहन रखी थी, वो पारम्परिक राजस्थानी तरीक़े की थी - कुर्ती-नुमा! लेकिन उसकी फ़िटिंग ढीली ढाली न रहे, उसके लिए चोली के साइड में डोरियाँ लगी हुई थीं, जिनको आवश्यकतानुसार कसा या ढीला किया जा सकता था। हरीश को मालूम था इस वस्त्र के बारे में, लेकिन प्रियम्बदा को नहीं। उसको सामान्य ब्लाउज पहनने की आदत थी। इसलिए जब उसने अचानक ही अपने स्तनों पर कपड़े का कसाव लुप्त होता महसूस किया, तो उसको भी कौतूहल हुआ।
एक तरफ़ हरीश उसके वक्ष-विदरण को चूम रहा था, तो दूसरी तरफ़ उसका हाथ चोली के भीतर प्रविष्ट हो कर उसके एक स्तन से खेल रहा था। पुरुष का ऐसा अंतरंग स्पर्श अपने जीवन में प्रियम्बदा ने पहली बार महसूस किया था। उसके दोनों चूचक उत्तेजित हो कर सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। हरीश भी आश्चर्यचकित था - कैसे वो इतने साहस से ये सब कुछ कर पा रहा था! प्रियम्बदा उससे उम्र में कहीं अधिक बड़ी है, और अपनी से बड़ी लड़कियों और महिलाओं का वो बहुत आदर करता था... उनके पैर छूता था, उनसे नज़र मिला कर बात नहीं करता था। फिर भी न जाने किन भावनाओं के वशीभूत हो कर वो ऐसे ऐसे काम कर रहा था, जिनकी उसने अभी तक केवल कल्पना ही करी थी। अपनी हथेली पर चुभते हुए प्रियम्बदा के चूचक उसको बड़े ही भले लग रहे थे। यह जो भी ‘अदृश्य शक्ति’, या अबूझ भावना थी, जो उससे यह सब करवा रही थी, अभी भी संतुष्ट नहीं हुई थी। उसको और चाहिए था! बहुत कुछ चाहिए था!
हरीश की प्रियम्बदा को चूमने की चाह कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी। उसके सीने के खुले हुए भाग पर जब उसके होंठों का स्पर्श हुआ, तब उसको एक अलग ही आनंद की अनुभूति हुई।
‘कितना कोमल... कितना सुखकारी अंग...’
हरीश के मन में उस कोमल और सुखकारी अंग को देखने की ललक जाग उठी... और प्रियम्बदा में उस कोमल और सुखकारी अंग को दिखाने की!
उनके पलँग पर मसनद तकिए लगे हुए थे। उन पर पीठ टिका कर आराम से अधलेटी अवस्था में आराम किया जा सकता था। हरीश ने थोड़ा सा धकेल कर उसको मसनद से टिका कर आराम से बैठा दिया, और उसकी चोली उतारने कर उपक्रम करने लगा। अंदर उसने कुछ भी नहीं पहना हुआ था, लिहाज़ा, कुर्ती-नुमा चोली के ऊपर होते ही उसके स्तन उजागर हो गए। हरीश को जैसे होश ही न रहा हो।
उसको नहीं मालूम था कि अपनी पत्नी के स्तनों की कल्पना वो किस प्रकार करे! तुलना करने के लिए कोई ज्ञान ही नहीं था। स्तनों के नाम पर उसने अपनी माँ और धाय माँ के स्तन देखे थे, और अब उस बात को भी समय हो चला। ऐसे में वो क्या उम्मीद करे, वो बस इस बात की कल्पना ही कर सकता था। हरीश की कल्पना के पंखों को एक बार उड़ान मिली अवश्य थी - जब वो खजुराहो घूमने गया था। उसने वहाँ जो देखा, उस दृश्य ने उसके होश उड़ा दिए! अनेकों आसन... अनेकों कल्पनाएँ! फिर भी, वहाँ के मंदिरों की दीवारों पर उकेरी हुई मूर्तियों को देख कर कितना ही ज्ञान हो सकता है? असल जीवन में उतनी क्षीण कटि, वृहद् नितम्बों और उन्नत वक्षों वाली स्त्रियाँ भला होती ही कहाँ हैं? वो तो मूर्तिकार की कल्पना का रूपांतर मात्र है!
लेकिन इस समय जो उसके सम्मुख था, वो कल्पना से भी बेहतर था। शरीर के अन्य हिस्सों के रंगों के समान ही प्रियम्बदा के स्तनों का रंग था। आकार में वो बड़े, और गोल थे। उसके चूचक भी हरीश की मध्यमा उंगली के जितने मोटे, और उनके गिर्द करीब ढाई इंच व्यास का एरोला! उसके स्तनों को देख कर हरीश को ऐसा लग रहा था जैसे वो दोनों कलश हों, और उन दोनों कलशों में मुँह तक दूध भरा हुआ हो!
वो दृश्य देखते ही, हरीश तत्क्षण एक ऊर्ध्व चूचक से जा लगा, और पूरे उत्साह से चूसने लगा। प्रियम्बदा उसके सामने नग्न होने के कारण वैसे भी घबराई हुई थी, यह सोच कर कि क्या वो अपने पति को पसंद आएगी या नहीं, और इस अचानक हुए आक्रमण से वो चिहुँक गई!
“आह्ह्ह्हह...” उसको उम्मीद नहीं थी कि इतने उच्च स्वर में उसकी चीख निकल जाएगी!
‘हे प्रभु,’ उसने सोचा, ‘कहीं किसी ने सुन न लिया हो!’
प्रत्यक्षतः उसने कहा, “क... क्या कर रहे हैं आप?”
उत्तर देने से पहले हरीश ने कुछ पल और चूसा, फिर बोला, “इनमें... इनमें दूध ही नहीं है...”
यह सुन कर प्रियम्बदा हँसती हुई बोली, “अब आप आ गए हैं न... अब आ जाएगा इनमें दूध!”
“सच में?”
उसने मुस्कुराते हुए ‘हाँ’ में कई बार सर हिलाया।
“आप हमको माँ बनने का सुख दे दीजिए... फिर हम आपको पिलाएँगे...” उसने शरमाते हुए कहा।
“सच में?” हरीश ने उसके करीब आते हुए फुसफुसा कर कहा।
प्रियम्बदा ने फिर से ‘हाँ’ में सर हिलाया, और हाथ बढ़ा कर उसने हरीश का कुर्ता ऊपर किया, और उसके चूड़ीदार पाजामे का इज़ारबंद खोलने लगी। हरीश ने अंदर लँगोट बाँध रखा था। उसने थोड़ा झिझकते हुए हरीश के लिंग को ढँकने वाले वस्त्र को एक तरफ हटाया। एक स्वस्थ उत्तेजित लिंग प्रियम्बदा के सामने उपस्थित था!
“सुनिए...” उसने धीरे से कहा।
“जी?”
“हम... हमें आपको... आपको... नग्न देखना है!”
“क्या? बिना किसी वस्त्र के?”
प्रियम्बदा ने ‘हाँ’ में सर हिलाया। कहा तो उसने! कितनी बार एक ही बात को बोले?
“जी ठीक है...”
वो हरीश की पत्नी अवश्य थी, लेकिन हरीश के मन में उसके लिए एक आदर-सूचक स्थान था - न केवल अपने संस्कार के कारण, बल्कि प्रियम्बदा से छोटा होने के कारण भी! एक तरह से उसको आज्ञा मिली थी अपनी पत्नी से!
हरीश पलँग से उठा, और उठ कर अपने वस्त्र उतारने लगा। रात में थोड़ी सी ठंडक अवश्य थी, लेकिन ऐसी नहीं कि बिना वस्त्रों के न रहा जा सके। थोड़े ही समय में वो पूर्ण नग्न हो कर प्रियम्बदा के सामने उपस्थित था। बिना किसी रूकावट के अब उसका लिंग और भी प्रबलता से स्तंभित था।
प्रियम्बदा ने मन भर के अपने पति को देखा - ‘कैसा मनभावन पुरुष!’ सच में, वो पूरी तरह से हरीश पर मोहित हो गई। कैसी किस्मत कि ऐसा सुन्दर सा पति मिला है उसको!
“आप... आप बहुत... बहुत सुन्दर हैं...” प्रियम्बदा ने कहा, और कहते ही हथेलियों के पीछे अपना चेहरा छुपा लिया।
हरीश अपनी बढ़ाई सुन कर आनंदित हो गया।
“क्या हम आपको भी...” अपनी बात पूरी करने से वो थोड़ा हिचकिचाया।
“आ... आप कर दीजिए... ह... हमसे हो नहीं पाएगा...” वो लजाती हुई बोली, “बहुत लज्जा आएगी...!”
हाँ - लज्जा तो आएगी! थोड़े ही वस्त्र हटे थे, और उतने में ही प्रियम्बदा की मनोस्थिति लज्जास्पद हो गई थी। पूर्ण नग्न होने में तो बेचारी शर्म से दोहरी तिहरी हो जाती!
हरीश ने धड़कते हृदय से प्रियम्बदा को निर्वस्त्र करना शुरू कर दिया - उसको इस काम में आनंद आ रहा था, लेकिन अगर कोई बाहर से देखता, तो उसको यह कोई कामुक कार्य जैसा नहीं लगता! बहुत उद्देश्यपूर्वक वो बस एक के बाद एक कर के उसके कपड़े उतारता जा रहा था। कुछ ही देर में प्रियम्बदा भी पूर्ण नग्न हो कर हरीश के सामने आँखें मींचे हुए बिस्तर पर आधी लेटी हुई थी। उन दोनों में बस इतना ही अंतर था कि प्रियम्बदा का शरीर आभूषणों से लदा-फदा था, और हरीश के शरीर पर नाम-मात्र के आभूषण थे।
हरीश ने पहली बार एक पूर्ण नग्न नारी के दर्शन किए थे! उसने पाया कि प्रियम्बदा की देहयष्टि अच्छी थी! मांसल देह थी, लेकिन स्थूलता केवल उचित स्थानों पर थी, जैसे कि स्तनों पर और नितम्बों पर। योनि-स्थल पूरी तरह से साफ़ था - यह देख कर उसको आश्चर्य हुआ! शायद उसको शहद के प्रयोगों के बारे में नहीं मालूम था। उसको अपनी पत्नी बहुत अच्छी लगी! मन में अनेकों प्रकार की कामनाओं ने घर कर लिया। अब और देर नहीं की जा सकती थी।
वो वापस पलँग पर आया, और बिना कुछ कहे प्रियम्बदा के सामने बैठ गया। वो भी समझ रही थी कि मिलान की घड़ियाँ बस निकट ही हैं। सहज प्रत्याशा में उसने अपनी जाँघें दोनों ओर फ़ैला कर, जैसे हरीश को आमंत्रित कर लिया हो। हरीश ने भी प्रियम्बदा के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए, अपने लिंग को योनिमुख पर बैठाया और उसके अंदर प्रविष्ट हो गया।
*
एक सेविका, महारानी के व्यक्तिगत कक्ष के दरवाज़े पर शिष्ट दस्तख़त देती है।
“आ जाओ...” महारानी ने उसको अंदर आने को कहा।
यह कक्ष प्रियम्बदा और हरीश के कक्ष से छोटा था, और महारानी के अपने निजी प्रयोग के लिए था। वो आज के रात्रि-भोज के बाद शायद इसी इंतज़ार में बैठी हुई थीं। उस सेविका का नाम ‘बेला’ था। महारानी के विवाह के समय वो उनके साथ ही, उनके मायके से आई थी! इसलिए वो उनकी सबसे विश्वासपात्री थी।
बेला को देखते ही वो बड़ी उम्मीद से बोलीं, “बोलो बेला...”
बेला हाथ जोड़ कर शर्माती हुई मुस्कुराई। कुछ बोली नहीं। इतना संकेत बहुत था।
महारानी ने संतोष भरी साँस ली। जैसे मन से कोई बड़ा बोझ उतर गया हो।
“युवराज को युवरानी पसंद तो आईं?”
“जी महारानी जी... बहुत पसंद आईं... और सच कहें, तो युवरानी हैं भी बड़ी सुन्दर!” उसने अर्थपूर्वक कहा।
“बढ़िया!” फिर कुछ सोचते हुए, “... दोनों एक दूसरे के अनुकूल तो हैं?”
“जी महारानी जी! बहुत अनुकूल हैं...” वो फिर से संकोच करने लगी, लेकिन जो काम मिला था वो जानकारी तो देनी ही थी उसको, “आधी घटिका से थोड़ा अधिक ही दोनों का खेल चला...”
“बहुत बढ़िया... बहुत बढ़िया! ... दोनों अभी क्या कर रहे हैं?”
“जी, उनके सोने के बाद ही वहाँ से आई हूँ!”
“अच्छी बात है... देखना, कोई उनके विश्राम में ख़लल न डाले! ... महाराज क्या कर रहे हैं?”
“आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं... रोज़ की भाँति!” बेला ने महारानी को मानो छेड़ते हुए कहा, “किसी सेविका को आपको लिवा लाने का आदेश भी दिया है उन्होंने!”
इस बात पर महारानी मुस्कुराईं।
“बढ़िया...”
*