जैसा मैंने पहले भी कहा है कि औरतों, और आंसुओं का एक एक अटूट रिश्ता है। चाहे ख़ुशी हो चाहे दुःख, जब भी इनको निकासी का कोई रास्ता मिलता है, ये बाहर आने शुरू हो जाते हैं। और मीनाक्षी तो कल से भावनाओं के बारूद के भंडार पर बैठी हुई थी। प्रेम के दो शब्दों को सुनते ही उस भण्डार में विस्फ़ोट हो गया। और वो बिलख बिलख कर रोने लगी। समीर और उसके पिता जी को समझ नहीं आया कि अचानक उसको क्या हो गया। माँ पास ही खड़ी थीं, तो उन्होंने ही सम्हाला,
“अरे! बेटा क्या हो गया? हां? क्या हो गया बच्चे? मम्मी पापा की याद आ रही है?” माँ ने मीनाक्षी को अपने सीने से लगाते और उसके आँसूं पोंछते हुए कहा।
“समीर, बहू के घर फ़ोन तो लगा! हम भी कितने उल्लू हैं, इतनी देर हो गई यहाँ आये हुए, और समधियाने कॉल भी नहीं किया! वो भी घबरा रहे होंगे। मत रो बेटा! बस कराते हैं बात।”
मीनाक्षी का गला रूँध गया, और उसकी आवाज़ ऐसी भीगी कि गले से बाहर न निकल सकी। अब तो माँ को कैसे समझाए की उसको रोना अपने मायके के बिछोह के कारण नहीं, बल्कि ससुराल में मिलने वाले प्रेम के कारण आ रहा था।
‘ऐसे निष्कपट, स्नेही और सरल लोग! क्या वो सचमुच इतनी लकी है!’
“अरे फ़ोन लगा कि नहीं? ट्रंक कॉल लगा रहे क्या!” माँ ने समीर को उलाहना दी, “इधर बिटिया का रो रो कर बुरा हाल हो रहा है, और तुझसे एक छोटा सा काम नहीं हो पा रहा। जल्दी लगा।”
“मम्मी! आप भी न! अब मैं उड़ कर थोड़े ही कनेक्ट हो जाऊँगा! ऍम टी एन एल है, बिजी हो जाता है। लीजिए, घण्टी जा रही है।”
“हाँ, ला इधर,” कह कर माँ ने फ़ोन ले लिया और मीनाक्षी को पकड़ा दिया, “ले बेटा”
फ़ोन पर उस तरफ मीनाक्षी की माँ थीं, “कैसी हो बेटा?”
वो बोलती भी तो कैसे! आवाज़ तो निकल ही नहीं रही थी। उधर से रोने की आवाज़ सुन कर उसकी माँ भी घबरा गईं।
“तू ठीक तो है न बिट्टो?”
“हूँ” रोते रोते मीनाक्षी इतना ही बोल पाई।
“वहाँ लोग अच्छे हैं बेटा?”
“हूँ”
“तुम्हारा मन तो लग रहा है न?”
“हूँ” फिर थोड़ा संयत हो कर, “हाँ माँ!”
“सच में बेटा?”
“हाँ माँ। सच में! बस यूँ ही रोना आ गया। और मम्मी ने आपको कॉल कर दिया।” मीनाक्षी ने रोते रोते ही इतना कह दिया। वह यह तो नहीं कह पाई कि घर की बहुत याद आ रही है। और यह भी नहीं कह पाई कि उसको इतनी देर में ही इतना प्यार मिल गया है कि शायद घर की ‘उतनी’ याद न आए।
लेकिन उसकी माँ समझ रही थी। लोगों को परखने में गलतियाँ तो होती हैं, लेकिन कोई ऐसे ही, बिना जाने, बिना देखे, बिना मांगे, बिना जांचे अपने एकलौते लड़के की शादी किसी भी लड़की से नहीं कर देता। खास तौर पर तब, जब वो लड़का समीर के जैसा हो।
“पापा कैसे हैं माँ? अभी तक रो रहे हैं?” पीछे से अपने पिता के सिसकने की आवाज़ सुन कर मीनाक्षी ने सुबकते हुए पूछा।
“सब लोग ठीक हैं बेटा! तुम यहाँ की चिंता मत करो। हम सब खुश हैं।” फिर कुछ सोचते हुए माँ ने कहा, “बेटा… देखो। वो बहुत अच्छे लोग हैं। तुझे बहू नहीं, बेटी बनाकर रखेंगे। बस तुम कोई गलती मत करना!”
“हाँ माँ!”
“एक बार अपनी मम्मी से भी बात करवा दे।”
मीनाक्षी ने फोन अपनी सास को पकड़ा दिया, और समीर का इशारा देख कर कुर्सी पर बैठ गई। समीर ने उसकी आँखों में दो क्षण देखा और पूछा, “क्या हो गया आपको?”
“कुछ नहीं,” उसने सुबकते हुए और आँसूं पोंछते हुए कहा, “कुछ भी नहीं।”
उधर समधियों और समधनों में कोई पांच मिनट और वार्तालाप हुआ। तब जा कर लंच शुरू हो पाया।