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Romance संयोग का सुहाग [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Fabulous story h yaar
Aaj hi pada bhot aacha laga
Keep posting
धन्यवाद मित्र! आ रहे हैं नए अपडेट
 

avsji

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Nice words : Ansoo aur Aurte
यह रूपक कई बार इस्तेमाल किया है इस कहानी में. लेकिन हर बार अलग अलग तरीके से.
उम्मीद है अच्छा लगेगा।
 

avsji

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Me farmer, legal advisor, politician, fighter, graphic designer hone ke alawa.... Diet, health, sex aur nature me bhi experiments karta rahta hu
"Life is a Teacher...so, I Live to Learn
हुज़ूर, टोफू कबूल करो! :)
 

avsji

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यह सोच कर मीनाक्षी को झुरझुरी हो गई। समीर से सम्भोग.... यह तो उसने अभी तक सोचा भी नहीं था। लेकिन वो अभी कुछ सोचने की हालत में नहीं थी। विवाह और फिर यात्रा की थकान की वजह से कपड़े गहने उतारने की शक्ति अब उसमें नहीं बची थी। बिस्तर पर लेटते ही उसको नींद आ गई।


(अब आगे)



“अच्छा, यह बताओ कि बहू को क्या पसंद है खाने में?” समीर की माँ ने उससे पूछा।

जवाब में वो सर खुजाने लगा।

“मतलब तुमको नहीं मालूम?”

“नहीं मम्मी।”

“उसके बारे में कुछ भी मालूम है? मतलब, नाम, शकलो-सूरत, और उसके घर के अलावा?”

जवाब में समीर की झेंपू मुस्कान निकल गई। उसकी माँ भी बिना हँसे न रह सकीं!

“बरखुरदार…. हमको तो लगा था कि तुमको वो पसंद है, तो कुछ तो जानकारी रखे होंगे! हा हा! तुम्हारी शादी! हा हहा! बढ़िया है। तुम्हारी मैरिड लाइफ मजेदार होने वाली है!”

“मुझे आदेश से जो मालूम हुआ, वो मालूम है।”

“अच्छा जी? क्या मालूम है?”

“मीनाक्षी को लिखना पसंद है। पोएट्री भी, और कहानियाँ भी। अखबार में अक्सर छपती है उसकी लिखी कहानियाँ!”

“हम्म्म! और क्या पसंद है?”

“हरा, पीला रंग! एक बार आदेश उसके लिए इसी रंग की ड्रेस खरीद रहा था।”

“गुड! मतलब पूरी तरह से भोंपू नहीं हो! और?”

“डांस करना।”

“अरे, खाने का कुछ मालूम है? या बहू को भूखे पेट ही नचवा दें?”

“खाने का नहीं मालूम! लेकिन आदेश को पुलाव, छोले, पराठे, पनीर की कोई भी डिश पसंद है।”

“मैगी पसंद है उसको?”

“किसको? आदेश को?” माँ ने हाँ में सर हिलाया।

“इसका मतलब तुमको मीनाक्षी को खाने में क्या पसंद है, नहीं पता। कोई बात नहीं, मैं अपनी ही पसंद का कुछ बना देती हूँ। और तू भी मेरी मदद कर दे। बहू जब सुनेगी कि तूने कुछ काम किया है, तो उसके मन में तेरे लिए कुछ प्रेम उमड़ आएगा।”

“क्या मम्मी!”

“क्या मम्मी वम्मी नहीं। तुम दोनों को ही मिल कर सम्हालनी है अपने जीवन की गाड़ी। कभी तुम उसकी, तो कभी वो तुम्हारी ऐसे ही सेवा कर दे, तो घिस नहीं जाओगे।”

“जो आज्ञा माते!” कह कर समीर ने जब माँ के सामने अपने दोनों हाथ जोड़े, तब दोनों ही खिलखिला कर हँसने लगे।

“तुम पायसम बनाओ। और मैं मलाई कोफ्ते, भिंडी दो प्याज़ा, पुलाव, रायता और पूरियाँ बना देती हूँ। बढ़िया रहेगा। हल्का भी, और फीस्ट भी! ठीक है?”

“मम्मी, मैं आपको इस बात के लिए क्या सलाह दूँ! सब बढ़िया है।”

“ठीक है फिर! रात का खाना बाहर खाएँगे। उसके लिए अभी से टेबल बुक कर लो।”

“जी!”

करीब तीन घंटे बाद जब खाना पक चुका, तब मीनाक्षी को उठाने के लिए समीर को भेजा गया।
 

avsji

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मीनाक्षी की नींद तब खुली जब दरवाज़े पर समीर ने हल्की सी दस्तक़ दी।

“मीनाक्षी, आप उठी हैं?”

समीर की आवाज़ सुन कर वो चौंकी और नींद से बाहर आई। पहले तो अपने आसपास के बदले हुए परिवेश को देख कर एक क्षण उसको घबराहट सी हुई, लेकिन अगले ही पल उसको याद आ गया कि वो कहाँ थी।

“जी” उसने लगभग चौंकते हुए जवाब दिया।

“खाने के लिए तैयार हो जाइए। लंच रेडी है!”

‘ओह्हो! कितनी देर सो गई मैं! बाप रे! साढ़े तीन घंटे!! ऐसे सोई जैसे सारे घोड़े बेच डाले हों! लंच भी इन लोगों से ही बनवा लिया! क्या सोचेंगे मेरे बारे में! बोलेंगे कि मैडम आई है ठाठ बैठाने!’ ऐसे कई ख़याल उसके मन में कौंध गए।

“जी ठीक है। मैं आती हूँ।” प्रत्यक्ष उसने कहा।

कितना भी जल्दी करने के बाद भी बाहर आते आते उसको कोई पंद्रह मिनट और लग गए। बहुत सोचा कि क्या पहने, लेकिन फिर उसने डिसाइड किया कि लहँगा पहनना ही ठीक रहेगा। लेकिन ज़ेवर अब कम थे। मेकअप भी इस समय हल्का सा ही था। नई नवेली दुल्हन सज-धज के ही अच्छी लगती है, उसको ऐसा माँ ने समझा दिया था।

बाहर आ कर उसने देखा कि बेड को छोड़ कर बाकी सारे फर्नीचर अपनी अपनी जगह व्यवस्थित कर दिए गए थे। समीर को अपनी नौकरी शुरू किये बस छः महीने ही हुए थे, इसलिए फर्नीचर तो बस नाम-मात्र ही था। उतना बड़ा घर, लेकिन खाली खाली! भूतिया सा माहौल रहता होगा रात में। अच्छा हुआ आदेश ने ज़ोर जबरदस्ती कर के सब सामान भिजवा दिया, नहीं तो समीर अपने आत्मसम्मान के चलते मीनाक्षी को ज़मीन पर ही बैठा देता! और अच्छी बात थी कि डाइनिंग टेबल भी दहेज़ में मिल गया था। इसलिए सभी को साथ बैठने में सहूलियत हो गई। नहीं तो ज़मीन पर बैठ कर खाना पड़ता।

“आओ बेटा, बैठो बैठो!” समीर के पिता जी ने कुर्सी से उठते हुए कहा, और साथ ही में डाइनिंग टेबल की एक कुर्सी को मीनाक्षी के लिए खींच भी दिया।

“माँ, आपने क्यों नहीं जगाया मुझे? सब खुद से ही कर लिया!” उसने ग्लानि भरी आवाज़ में शिकायत करी।

“अरे वाह! अगर जगाना ही होता, तो सुलाते क्यों तुम्हे? लड़कों का क्या है? ये तो जीन्स पहन कर ही ब्याह लाया तुम्हे! असली मेहनत तो दुल्हन की होती है! कभी हल्दी, कभी चन्दन, कभी मेहँदी, तो कभी तेल! और फिर भारी भारी कपड़े! कितने घण्टे सोई हो पिछले तीन दिनों में?” माँ ने प्यार से उसको समझाया।

“वैसे, सारा मैंने नहीं बनाया। कुछ तो तुम्हारे समीर ने भी बनाया है। बताऊंगी नहीं कि क्या! वो मैं तुम पर छोड़ देती हूँ गेस करने के लिए। और देख कर बताना, तुम्हारी पसंद का है सब या नहीं! इस बुध्धू को तुम्हारी पसंद ही नहीं मालूम!”
 

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जैसा मैंने पहले भी कहा है कि औरतों, और आंसुओं का एक एक अटूट रिश्ता है। चाहे ख़ुशी हो चाहे दुःख, जब भी इनको निकासी का कोई रास्ता मिलता है, ये बाहर आने शुरू हो जाते हैं। और मीनाक्षी तो कल से भावनाओं के बारूद के भंडार पर बैठी हुई थी। प्रेम के दो शब्दों को सुनते ही उस भण्डार में विस्फ़ोट हो गया। और वो बिलख बिलख कर रोने लगी। समीर और उसके पिता जी को समझ नहीं आया कि अचानक उसको क्या हो गया। माँ पास ही खड़ी थीं, तो उन्होंने ही सम्हाला,

“अरे! बेटा क्या हो गया? हां? क्या हो गया बच्चे? मम्मी पापा की याद आ रही है?” माँ ने मीनाक्षी को अपने सीने से लगाते और उसके आँसूं पोंछते हुए कहा।

“समीर, बहू के घर फ़ोन तो लगा! हम भी कितने उल्लू हैं, इतनी देर हो गई यहाँ आये हुए, और समधियाने कॉल भी नहीं किया! वो भी घबरा रहे होंगे। मत रो बेटा! बस कराते हैं बात।”

मीनाक्षी का गला रूँध गया, और उसकी आवाज़ ऐसी भीगी कि गले से बाहर न निकल सकी। अब तो माँ को कैसे समझाए की उसको रोना अपने मायके के बिछोह के कारण नहीं, बल्कि ससुराल में मिलने वाले प्रेम के कारण आ रहा था।

‘ऐसे निष्कपट, स्नेही और सरल लोग! क्या वो सचमुच इतनी लकी है!’

“अरे फ़ोन लगा कि नहीं? ट्रंक कॉल लगा रहे क्या!” माँ ने समीर को उलाहना दी, “इधर बिटिया का रो रो कर बुरा हाल हो रहा है, और तुझसे एक छोटा सा काम नहीं हो पा रहा। जल्दी लगा।”

“मम्मी! आप भी न! अब मैं उड़ कर थोड़े ही कनेक्ट हो जाऊँगा! ऍम टी एन एल है, बिजी हो जाता है। लीजिए, घण्टी जा रही है।”

“हाँ, ला इधर,” कह कर माँ ने फ़ोन ले लिया और मीनाक्षी को पकड़ा दिया, “ले बेटा”

फ़ोन पर उस तरफ मीनाक्षी की माँ थीं, “कैसी हो बेटा?”

वो बोलती भी तो कैसे! आवाज़ तो निकल ही नहीं रही थी। उधर से रोने की आवाज़ सुन कर उसकी माँ भी घबरा गईं।

“तू ठीक तो है न बिट्टो?”

“हूँ” रोते रोते मीनाक्षी इतना ही बोल पाई।

“वहाँ लोग अच्छे हैं बेटा?”

“हूँ”

“तुम्हारा मन तो लग रहा है न?”

“हूँ” फिर थोड़ा संयत हो कर, “हाँ माँ!”

“सच में बेटा?”

“हाँ माँ। सच में! बस यूँ ही रोना आ गया। और मम्मी ने आपको कॉल कर दिया।” मीनाक्षी ने रोते रोते ही इतना कह दिया। वह यह तो नहीं कह पाई कि घर की बहुत याद आ रही है। और यह भी नहीं कह पाई कि उसको इतनी देर में ही इतना प्यार मिल गया है कि शायद घर की ‘उतनी’ याद न आए।

लेकिन उसकी माँ समझ रही थी। लोगों को परखने में गलतियाँ तो होती हैं, लेकिन कोई ऐसे ही, बिना जाने, बिना देखे, बिना मांगे, बिना जांचे अपने एकलौते लड़के की शादी किसी भी लड़की से नहीं कर देता। खास तौर पर तब, जब वो लड़का समीर के जैसा हो।

“पापा कैसे हैं माँ? अभी तक रो रहे हैं?” पीछे से अपने पिता के सिसकने की आवाज़ सुन कर मीनाक्षी ने सुबकते हुए पूछा।

“सब लोग ठीक हैं बेटा! तुम यहाँ की चिंता मत करो। हम सब खुश हैं।” फिर कुछ सोचते हुए माँ ने कहा, “बेटा… देखो। वो बहुत अच्छे लोग हैं। तुझे बहू नहीं, बेटी बनाकर रखेंगे। बस तुम कोई गलती मत करना!”

“हाँ माँ!”

“एक बार अपनी मम्मी से भी बात करवा दे।”

मीनाक्षी ने फोन अपनी सास को पकड़ा दिया, और समीर का इशारा देख कर कुर्सी पर बैठ गई। समीर ने उसकी आँखों में दो क्षण देखा और पूछा, “क्या हो गया आपको?”

“कुछ नहीं,” उसने सुबकते हुए और आँसूं पोंछते हुए कहा, “कुछ भी नहीं।”

उधर समधियों और समधनों में कोई पांच मिनट और वार्तालाप हुआ। तब जा कर लंच शुरू हो पाया।
 

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“अमाँ बरख़ुरदार, क्या खुद खाए ले रहे हो!” समीर जैसे ही पहला निवाला लेने को हुआ, उसके डैडी ने उसको टोंका, “इतने क्रान्तिकारी तरीके से बहू को ब्याह कर लाए हो, कम से कम अपने हाथ से पहला निवाला उसको खिलाओ! चलो चलो! शाबाश!”

“हाँ! लेकिन एक सेकंड! ज़रा खिलाते हुए तुम दोनों की एक फ़ोटो तो निकाल लूँ,” कह कर उसकी माँ लपक कर अपने पर्स से छोटा सा कैमरा निकाल लिया और उसको ‘ऑन’ कर के बोलीं, “हाँ, प्रोसीड!”

समीर ने पूरी का पहला निवाला मीनाक्षी के थोड़े से खुले मुँह में डाल दिया।

“बिटिया, इस घर में सब दबा के खाते हैं! खाने में संकोच मत करना!” ये उसके पिता जी की टिपण्णी थी। उनकी बात पर मीनाक्षी बिना मुस्कुराए नहीं रह सकी।

जब लेन-दारी होती है, तब देन-दारी भी होती है। मीनाक्षी ने भी पूरी का एक टुकड़ा कोफ़्ते में अच्छी तरह डुबा कर समीर की तरफ बढ़ा दिया। समीर ने बड़ा सा मुँह खोल कर निवाला तो ले ही लिया, साथ में उसके हाथ को भी काट लिया।

फोटो खींचते हुए उसकी माँ ने कहा, “देखा बेटा? सब दबा के खाते हैं! तुमने इतना बड़ा निवाला दिया, फिर भी तुम्हारे पति को तुम्हारा हाथ भी खाने को चाहिए!”

इस बात पर मीनाक्षी की मुस्कान और चौड़ी हो गई।

“तू रहने दे इसको खिलाने को! पता चला, इस लंच में ही तेरा हाथ खा गया! हा हा हा हा!”

जब मीनाक्षी ने सारे पकवान एक एक बार चख लिए, तो माँ ने पूछा, “गेस कर सकती हो कि तुम्हारे समीर ने क्या क्या बनाया है इसमें से?”

“जी, खीर?” मीनाक्षी से शर्माते, सकुचाते अंदाज़ा लगाया। उसने सोचा मीठा पकवान है। तो शायद यही हो।

“अरे! बिलकुल ठीक! ज़िद कर रहा था कि मम्मी, अपनी बीवी के लिए मीठा तो मैं ही बनाऊँगा!” माँ ने अपनी तरफ़ से बढ़िया मसाला लगा कर कहानी बना दी, “और ये पुलाव और रायता भी इसी ने तैयार किया है। तुम घबराना नहीं! मेरा बेटा जानता है खाना पकाना। तुमको सब अकेले करने की ज़रुरत नहीं है।”

मीनाक्षी हैरान थी। सचमुच हैरान!

‘हे प्रभु! ऐसे लड़के होते हैं क्या! ऐसे परिवार होते हैं क्या! बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा! हे प्रभु, बस ऐसी ही दया बनाए रखना!’

उसने मुस्कुराते हुए अपनी बड़ी बड़ी आँखें उठा कर समीर को प्रेम से देखा।

पहली बार उसके मन में लाचारी के भाव नहीं थे। पहली बार उसके मन में दुःख के भाव नहीं थे। पहली बार उसके मन में हीनता के भाव नहीं थे। पहली बार उसके मन में अज्ञात को ले कर भय के भाव नहीं थे। पहली बार उसके मन में समीर के लिए आभार का भाव था। पहली बार उसके मन में समीर के लिए प्रशंसा का भाव था। पहली बार उसके मन में समीर के लिए गर्व का भाव था। पहली बार उसके मन में समीर के लिए प्रेम का भाव था।
 

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जब भोजन हो गया, तब माँ ने उससे पूछा, “बेटा, तुमने इतना भारी भरकम कपड़े क्यों पहने हुए हैं? मुझको गलत मत समझ - प्यारी तो तू खूब है ही, और प्यारी तो खूब लग भी रही है। लेकिन अब ये तेरा घर है। यहाँ तुझे पूरी स्वतंत्रता है। तुझे जो पहनना है पहन, जैसे रहना है रह। हमारी परवाह न करना। हमको तो गुड़िया चाहिए थी, वो मिल गई।”

“जी मम्मी।”

“क्या पहनती है तू अक्सर?”

“जी शलवार सूट!”

“लाई है साथ में?”

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“अरे! तो फिर?”

“जी, बस साड़ियां ही हैं! ‘वहाँ’ कह रहे थे कि बहुएँ साड़ी में ही अच्छी लगती हैं।” वहाँ की बात सोच कर मीनाक्षी के मन में फिर से टीस उठ गई।

“बेटा, समझ सकती हूँ! लेकिन तुम ‘वहाँ’ नहीं, ‘यहाँ’ हो अब! हमारे यहाँ साड़ी पहन कर, सर ढक कर रहने की ज़रुरत नहीं। और सब काम खुद करने की जरूरत नहीं। तुमको शलवार सूट में सहूलियत होती है, तुम वही पहनो।”

‘एक और ख़ुशी की बात! हे प्रभु, यह सब कोई सपना तो नहीं है?’ मीनाक्षी को मन ही मन बहुत खुशी हुई।

“देख, अभी करीब तीन बज रहे हैं। चल, तुझे शॉपिंग करवा लाती हूँ। यहाँ घर में बैठे बैठे क्या करोगी?’

“पर माँ!”

“अरे, पर वर कुछ नहीं! ऐसे आप धापी में आना पड़ा। न तेरे लिए कुछ ला पाए, न कुछ दे पाए। अभी रिसेप्शन में तेरे मायके से सभी आएँगे, तो उनके लिए भी गिफ्ट्स ले लेंगे! और मैं भी जरा अपने लिए कुछ… समझा कर यार!” माँ ने फुसफुसाते हुए, जैसे वो मीनाक्षी से कोई सीक्रेट प्लान शेयर कर रही हों, वैसे कहा।

इस बार मीनाक्षी से रोका नहीं गया, और उसके गले से हल्की सी हँसी छूट गई।

“हाँ! ऐसे ही हँसती खेलती रह! तू बहू है हमारी… नहीं, बहू नहीं, बेटी है। तेरे मन का ख्याल रखना हमारा फ़र्ज़ है। आज हम तेरा ख्याल रखेंगे, तुझे समझेंगे, तो कल को शायद तू भी हमें समझ कर हमारा ख्याल रखेगी। रिश्ते ऐसे ही तो बनते हैं!”

“माँ” कह कर मीनाक्षी उनसे लिपट गई, “मैंने कुछ बहुत अच्छा किया है पिछले जनम में, तो आप मुझे मिल गईं!”

“मैंने भी!” कह कर उन्होंने उसको लिपटा लिया और उसके सर पर प्रेम से हाथ फेरने लगीं।

“चल, अब ये लहँगा चेंज कर ले, और कोई हल्की साड़ी पहन ले। यहाँ पैदल चल कर शॉपिंग करने में बहुत मज़ा आता है।”



जब दोनों बाहर जाने को तैयार हो गईं तो समीर के डैडी ने कहा, “अरे! किधर को चली सवारी?”

“अट्ठारह! ज़रूरी शॉपिंग करनी है। आप लोग बियर के मज़े लीजिए। और आज के डिनर, और परसों के रिसेप्शन के इंतजाम की जिम्मेदारी आपकी।”

“यस मैडम!” कह कर डैडी ने सल्यूट मारा।
 
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