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माँ और कच्ची अमिया
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मैंने गर्दन जरा सा नीचे की तो मेरी दोनों अनावृत्त गोलाइयां, चांदनी सावन में मेरे जोबन से होली खेल रही थी।
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उनका उभार कड़ापन और साथ ही साथ सुनील की शैतानियां भी, हर बार वो ऐसी जगह अपने निशान छोड़ता था, दांतो के, नाखूनों के की, मैं चाहे जितना ढकना छिपाना चाहूँ,वो नजर आ ही जाते थे। फिर तो मेरी सहेलियों को भाभियों को छेड़ने का वो मौका मिल जाता था की, और आज तो उसके साथ-साथ उसने निपल के चारों और दांतों की माला पहना दी थी, ऊपर से कस-कस के खरोंचे गए नाखून के निशान।
मेरी निगाहों का पीछा करते माँ की निगाहें भी उन निशानों पर पहुँच गई, और वो बोल उठीं-
“ये लड़के भी न बस… कच्ची अमिया मिल जाए देख कैसे कुतर-कुतर के…”
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और जैसे कोई घावों पर मरहम लगाए, पहले तो उनकी उंगलियों की टिप, फिर होंठ अब सीधे जहां-जहां लड़कों के दांत के नाखून के निशान मेरे कच्चे उभारों पर थे, बस हल्के-हल्के सहलाना, चूमना, चाटना।
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और साथ में वो बहुत हल्के-हल्के बुदबुदा रही थीं, जैसे खुद से बोल रही हों-
“अरे लड़कों को क्यों दोष दूँ, जिस दिन तू आई थी पहले पहल उसी दिन मेरा मन भी इस कच्ची अमिया को देखकर ललचा गया था, आज मौका मिला है रस लेने का…”
और फिर तो जैसे कोई सालों का भूखा मिठाई की थाली पर टूट पड़े, मेरे निपल उनके मुँह के अंदर, दोनों हाथ मेरे कच्चे टिकोरों पर, जिस तरह से वो रगड़ मसल रही थीं, चूस रही थीं, चूम रहीं थी, मैंने सरेंडर कर दिया।
मैं सिर्फ और सिर्फ मजे ले रही थी।
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लेकिन असर मेरी सहेली पर, मेरी दोनों मस्ती में फैली खुली जाँघों के बीच मेरी चिकनी गुलाबो पर पड़ा और वो भी पनियाने लगी।
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और मेरी निगाह राकी से टकरा गई, एकदम पास ही तो नीम के पेड़ से बंधा खड़ा था वो। उसकी निगाहें मेरी गुलाबो से, पनियाती गीली मेरी कुँवारी सहेली से चिपकी थीं। लेकिन उसके बाद जो मैंने देखा तो मैं घबरा गई, उसका शिष्न खड़ा हो रहा था, एकदम कड़ा हो गया था, लाल रंग का लिपस्टिक सा उसका अगला भाग बाहर निकल रहा था, तो क्या मतलब वो भी मेरी गीली पनियाई खुली चूत को देखकर गरमा रहा है, उसका मन कर रहा है मुझे,
लेकिन मेरी चूत ये देखकर और फड़फड़ाने लगी जैसे उसका भी वही मन कर रहा हो जो राकी के खूँटे का कर रहा हो। गनीमत थी, माँ हम दोनों का नैन मटक्का नहीं देख रही थी, वो तो बस मेरी कच्ची अमिया का स्वाद लेने में जुटी थीं।
लेकिन तभी रसोई से गुलबिया निकली, उसके एक हाथ में तसला था राकी के लिए, दूध रोटी, और दूसरे हाथ में बोतल और कुछ खाने पीने का सामान था। बोतल तो मैंने झट से पहचान ली देसी थी, एक बार सुनील और चन्दा ने मिल के मुझे जबरदस्ती पिलाई थी, दो चार घूँट में मेरी ऐसी की तैसी हो गई थी।
और गुलबिया ने मुझे राकी का ‘वो’ देखते देख लिया।
पास आके सब समान आँगन में रख के मेरे और माँ के पास धम्म से वो बैठ गई और मेरा गाल मींजते बोली-
“बहुत मन कर रहा है न तेरा उसका घोंटने का, अरे दोपहर को तेरी भाभी बीच में आ गई वरना उसी समय मैं तो तुम दोनों की गाँठ जुड़वा देती…”
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गुलबिया की बात सुन के पल भर के लिए मेरे कच्चे टिकोरों पर से मां ने मुँह हटा लिया और गुलबिया को थोड़ा झिड़कते बोलीं-
“बहुत बोलती है तू, अरे जो बात बीत गई, बीत गई। अब तो और कोई नहीं है न और पूरी रात है…आज कर लो जो भी करना है इस कच्ची कली के साथ, मैं कुछ भी नहीं बरजुंगी, छोटी ननद है तेरी भावज हो तुम,... ऐसी काली अंधेरी रात मन पूरा करने के लिए ही तो है,... ”
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बिना उनकी बात के खत्म होने का इन्तजार किये गुलबिया ने सब कुछ साफ कर दिया-
“चल अब मैं हूँ तो फिर तोहार और राकी के मन क कुल पियास बुझा दूंगी, घबड़ा मत। दर्द बहुत होगा लेकिन सीधे से नहीं तो जबरदस्ती…”
मेरी निगाह आंगन के बंद दरवाजे पे और उस पे लटके मोटे ताले पर चिपकी थी।
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मेरी निगाहों का पीछा करते माँ की निगाहें भी उन निशानों पर पहुँच गई, और वो बोल उठीं-
“ये लड़के भी न बस… कच्ची अमिया मिल जाए देख कैसे कुतर-कुतर के…”
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और फिर तो जैसे कोई सालों का भूखा मिठाई की थाली पर टूट पड़े, मेरे निपल उनके मुँह के अंदर, दोनों हाथ मेरे कच्चे टिकोरों पर, जिस तरह से वो रगड़ मसल रही थीं, चूस रही थीं, चूम रहीं थी, मैंने सरेंडर कर दिया।
मैं सिर्फ और सिर्फ मजे ले रही थी।
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लेकिन मेरी चूत ये देखकर और फड़फड़ाने लगी जैसे उसका भी वही मन कर रहा हो जो राकी के खूँटे का कर रहा हो। गनीमत थी, माँ हम दोनों का नैन मटक्का नहीं देख रही थी, वो तो बस मेरी कच्ची अमिया का स्वाद लेने में जुटी थीं।
लेकिन तभी रसोई से गुलबिया निकली, उसके एक हाथ में तसला था राकी के लिए, दूध रोटी, और दूसरे हाथ में बोतल और कुछ खाने पीने का सामान था। बोतल तो मैंने झट से पहचान ली देसी थी, एक बार सुनील और चन्दा ने मिल के मुझे जबरदस्ती पिलाई थी, दो चार घूँट में मेरी ऐसी की तैसी हो गई थी।
और गुलबिया ने मुझे राकी का ‘वो’ देखते देख लिया।
पास आके सब समान आँगन में रख के मेरे और माँ के पास धम्म से वो बैठ गई और मेरा गाल मींजते बोली-
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“बहुत बोलती है तू, अरे जो बात बीत गई, बीत गई। अब तो और कोई नहीं है न और पूरी रात है…आज कर लो जो भी करना है इस कच्ची कली के साथ, मैं कुछ भी नहीं बरजुंगी, छोटी ननद है तेरी भावज हो तुम,... ऐसी काली अंधेरी रात मन पूरा करने के लिए ही तो है,... ”
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मेरी निगाह आंगन के बंद दरवाजे पे और उस पे लटके मोटे ताले पर चिपकी थी।