बाहर गुलबिया थी, बसंती की बुलाने आई थी। बिंदु सिंह की बछिया बियाने वाली थी इसलिए उसको और बसंती को बुलाया था। गुलबिया अंदर तो नहीं आई लेकिन जिस तरह से वो मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी, ये साफ था की वो समझ गई थी कि बसंती मेरे साथ क्या कर रही थी?
उसने ये भी बोला- “भाभी और उनकी माँ गाँव में तो आ गई है लेकिन वो लोग दिनेश के यहाँ रुकी है, और उन्होंने कहलवाया है की वो लोग आठ बजे के बाद ही आएंगी, इसलिए खाना बना लें और मैंने खाना खा लूँ, उन लोगों का इन्तजार न करूँ…”
बादल एक बार फिर से घिर रहे थे, एक बार फिर दरवाजे से झाँक के बंसती ने मुझे देखकर मुश्कुराते हुए बोला- “घबड़ाना मत, घंटे भर में आ जाऊँगी…” और गुलबिया के साथ चल दी।
जिस तरह से वो गुलबिया से बतिया रही थी, ये साफ लग रहा थी की उसने सब कुछ,
और मैंने चम्पा भाभी की ओर देखा। मुझे लगा की शायद वो मुझे चिढ़ाए, खिझाएं, लेकिन, बस उन्होंने मेरी ओर देखा और मुश्कुरा दीं। और मैंने शर्माकर आँखें नीचे कर लीं।
शाम ढले चम्पा भाभी ने आँखें ऊपर करके चढ़ते बादलों को देखा और जैसे घबड़ा के बोलीं- “अरी गुड्डी, साली बसंती तो चुदाने चली गई अब हमको, तुमको ही सारा काम सम्हालना पड़ेगा। चल जल्दी ऊपर, कभी भी पानी आ सकता है…”
आगे आगे वो और पीछे-पीछे मैं धड़धड़ाते सीढ़ी से चढ़कर छत पर पहुँच गए। भाभी का घर गाँव के उन गिने चुने 10-12 घरों में था जहां पक्की छत थी। और उनमें भी उनके घर की छत सबसे ऊँची थी। और वहां से करीब-करीब पूरा गाँव, खेत बगीचे और दूर पतली चांदी की हंसुली सी नदी भी नजर आती थी।
वास्तव में काम बहुत फैला था। छत पर बड़ी सुखाने के लिए डाली हुई थी, कपड़े और भी बहुत कुछ। आज बहुत दिन बाद इतना चटक घाम निकला था इसलिए, लेकिन अब मुझे और चम्पा भाभी को सब समेटना था, नीचे ले जाना था। हम दोनों लग गए काम पे। पहले तो हम दोनों ने बड़ी समेटी और फिर भाभी उसे नीचे ले गई। और मैं डारे पर से कपड़े उतारने लगी। बादल तेजी से बढ़े चले आ रहे थे। भाभी ऊपर आ गई और हम दोनों ने जल्दी-जल्दी।
“बस थोड़े से कपड़े बचे हैं इसे उतार के तुम…” और भाभी नीचे सब सामान लेकर चली गईं।
हवा बहुत अच्छी चल रही थी, एक पल के लिए मैं छत के किनारे खड़ी हो गई। दूर-दूर तक खड़े गन्ने के खेत दिख रहे थे और धान के चूनर की तरह लहलहाते खेत दिख रहे थे। एक पोखर और अमराई के आगे खूब घना गन्ने का खेत था, और एक पल के लिए मैं शर्मा गई।
उसके बाद वो मैदान था जिधर मेला लगता था। उसी खेत से तो शुरू हुई थी सारी कहानी।
भले मेरी नथ सबसे पहले अजय ने उतारी हो, लेकिन मेरे बदन में मदन की ज्वाला जगाने वाला तो सुनील था। उसी गन्ने के खेत में सबसे पहले, मैंने उसे हचक कर चन्दा, मेरी सहेली को चोदते देखा था और उसके मुँह से से ये सुन के की वो मुझे भी चोदना चाहता है, लजा गई थी। लेकिन मेरा पहली बार मन भी करने लगा जोर-जोर से चुदवाने का।
और उसी खेत में ही अगले दिन चन्दा मुझे बहला फुसलाकर ले गई और क्या मस्त सुनील ने गन्ने के खेत में जबरदस्त चोदा था, और सिर्फ चोदा ही नहीं था, बल्की शाम को बगल में जो अमराई दिख रही है, उसमें शाम को आने का वायदा भी करा लिया। और वहां रवी के साथ, फिर तो मेरी सारी लाज शर्म झिझक निकल गई और खाली चुदवास बची।
और मेरा पिछवाड़े का डर तो कभी जाता ही नहीं, लेकिन उस चन्दा की बच्ची ने किस तरह मुझे अपने घर बुलाया और वहां भी सुनील ने ही पहली बार… मैं चिल्लाती रही, चूतड़ पटकती रही, उसकी माँ बहन सब गरियाती रही। लेकिन मेरी कसी कुँवारी कच्ची गाण्ड मार के ही सुनील ने छोड़ा।
कल की ही तो बात है, लेकिन लग रहा है कितने दिन हो गए उससे मिले। बहुत तेज याद आ रही थी सुनील की। उसकी दो बातें जो शुरू में थोड़ी ऐसी वैसी लगती थीं, अब बहुत अच्छी लगती हैं। एक तो उसकी चोदते समय, गालियां देने की आदत, एक से एक गन्दी गालियां… और दूसरे जबरदस्ती करने की आदत।
अब तो मैं कई बार जानबूझ के ना ना करती थी, जिससे वो जबरन, खूब जबरदस्ती करके, गाली दे दे के चोदे। सोच-सोच के चुनमुनिया में खुजली मचने लगी। तभी मुझे लगा की कोई मुझे बुला रहा है, नाम ले ले के, मैंने चारों ओर देखा, और मेरी आँखों में चमक आ गई।
शैतान का नाम लो, शैतान हाजिर।