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और मैं रोपती रही ,भीगती रही ,सोखती रही उसकी बूँद बूँद। बहुत देर तक हम दोनों एक दूसरे की बाँहों में बंधे लिपटे रहे।
न उसका हटने का मन कर रहा था न मेरा।
बाहर तूफान कब का बंद हो चुका था ,लेकिन सावन की धीमी धीमी रस बुंदियाँ टिप टिप अभी भी पड़ रही थीं , हवा की भी हलकी हलकी आवाज आ रही थी। …………
एक सवाल मेरे मन को बहुत देर से साल रहा था , मैंने पूछ ही लिया ,
" सुन यार, एक बात पूछूं बुरा मत मानना , वो,.... उस दिन , … वो उस दिन ,… मैं सुनील के साथ , वहां गन्ने के खेत में ,… "
जवाब उस दुष्ट ने तुरंत दिया , अपने तरीके से , कचकचा के मेरी गोरी गोरी चूंची को काट के ,
" तू न हरामी ,सुधरेगी नही , अरे सुनील के साथ क्या , बोल न साफ साफ़ , अब भी तू , … "
मैं समझ गयी वो क्या सुनना चाहता है।
और मैं उसी तरह से बोलने लगी , ( जैसे चंपा भाभी और मेरी भाभी बोलती हैं )
" वो वो , उस दिन मैं सुनील के साथ , वहीँ ,.... गन्ने के खेत में चुदवा रही थी तो तूने बुरा तो नहीं माना। "
धीमे धीमे घबड़ाते मैं बोली।
"पगली ,बुर वाली की बात का क्या बुरा मानना। अरे सुनील ने तुझे चोदा तो क्या हुआ मैंने भी तो उसके माल को, चंदा को चोदा। तू न एकदम बुद्धू है , अरे १०-१२ दिन के लिए गाँव आई है तो खुल के गाँव का मजा ले न , फिर ये तो पूरे गाँव को मालूम है न की तू माल किसकी है ?"
" एकदम ",
ख़ुशी से उसके सीने पे अपनी कड़ी कड़ी चूंचियां रगड़ती मैं बोलीं।
" इसमें किसी को कोई शक हो सकता है क्या , सबके सामने मेले में मैंने खुद ही बोला था ,मैं तेरा माल हूँ , थी और रहूंगी। आखिर मेरी कोरी जवानी को , मेरी कच्ची कली को , .... "
उसने चूम के मेरा मुंह बंद करा दिया , और बोला ,
" बस तो तुझे जवाब मिल गया न। सारे गाँव के लड़के मुझसे जलते हैं की एक तो पहली बार मैंने तेरी ली, दूसरे एक दो बार भले कोई ले ले माल तो तू मेरी ही है। बस ये याद रखना ,तू मेरी माल है और रहेगी। "
" एकदम , "
खुश हो के मैं बोली और अबकी मैंने अपने तरीके से ख़ुशी जाहिर की , उसके सोते जागते शेर को पुचकार के। लेकिन जरा सा मेरे मुठियाते ही वो फिर अंगड़ाई लेने लगा।
तो एक ख़ुशी में हो जाय एक राउंड और मेरे माल की चुदाई "
वो बोला और उसकी ऊँगली मेरी मलाई भरी बुर में।
" तुझे न बस एक चीज सूझती है " गुस्से से बुरा सा मुंह बना के मैं बोली लेकिन मेरे हाथ उसे मुठियाते ही रहे।
कुछ रुक के मैंने फिर कहा , मैं गुस्सा हूँ तेरे से।
" मैं तेरा माल हूँ , मैं मानती हूँ , पूरा गाँव मानता है , तो फिर तुम पूछते क्यों हो तेरा माल है जब चाहे तब चढ़ जाओ। "
खिलखिलाते मैं बोली लेकिन मैंने जोड़ा
“खिड़की खोल दो न उमस हो रही है तूफान तो बंद हो गया है।“
वो खिड़की खोलने गया और पीछे पीछे मैं,
उसे पीछे से पकड़ कर , उसके पीठ में अपने जुबना की बरछी धँसाते,
जीभ से उसके कान में सुरसुरी करते उसके इयर लोब को हलके से काट के मैंने उसके खूंटे को दायें हाथ में पकड़ ,हलके से मुठियाते पूछा ,
" राज्जा , ये कितनी की सुरंग में घुस चूका है "
और बिना पीछे मुड़े उसने नाम गिनाने शुरू कर दिए ,
" कजरी ,पूरबी ,चंदा , उर्मि , … , … "
कुल १८ नाम थे , आधे दर्जन से ज्यादा तो मैं जानती थी , वो सब अब मेरी पक्की सहेलियां थी , तीन चार उसकी भाभियाँ और बाकी सब खेत और घर में काम करनेवालियाँ, मिल मैं उन सब से भी चुकी थी।
" तेरे गाँव से वापस लौटने से पहले तेरा रिकार्ड तोड़ दूंगी ,कम से कम बीस "
जोर जोर से उसकी पीठ पर अपनी छोटी छोटी नयी आई चूंची रगड़ती मैंने अपना इरादा जाहिर किया।
और मेरे इरादे पे उसने सील लगा दी अपने होंठों से , खिड़की खोल के मुड़ के उसने मेरे होंठों को जोर से चूमा और बोला ,
" पक्का , तब मैं मानूंगा की तू मेरी सच में माल है। "
हम दोनों खिड़की से बाहर झाँक रहे थे , यह रात का वह पल था जिसमें रात सबसे गहरी होती है। ढाई तीन बज रहा होगा।
बाहर घना अँधेरा था , तूफान तो रुक चुका था लेकिन उसके निशान चारो और दिख रहे थे।
अंदर से कुछ कमरे की रौशनी छन छन कर आ रही थी और उससे ज्यादा मुझे भी गाँव में रहते पारभासी अँधेरे में कुछ कुछ दिखने लगा था।
अजय के घर के रास्ते वाली पगडण्डी के थोड़ा बगल में वो पुराना पाकुड का पेड़ अररा कर गिरा था , बस बँसवाड़ी के बगल में.
गझिन अमराई की भी एक दो पेड़ों की मोटी मोटी टहनियां गिरी थीं।
हलकी हलकी बूंदे अभी भी आसमान से झर रहीं थीं , लेकिन उनसे ज्यादा मोटी मोटी बूंदे पेड़ों की पत्तियों से टपक रही थीं , और हम लोगों के घर के छत से तो मोटे परनाले सा पानी बह रहा था।
हवा अभी भी तेज थी और उसके झोंके से पानी की फुहार हम दोनों के चेहरे को अच्छी तरह भिगो रही थी।
मैं खिड़की में लगी सलाखें एक हाथ से पकडे थी , अपना चेहरा खिड़की सटाये बौछार का मजा लेती। और वो मेरे ठीक पीछे , एक हाथ मेरे उभार को दबोचे , और मेरे मस्त नितम्बों के बीच उसका खूंटा अब एकबार फिर ९० डिग्री हो गया था।
' बौछार कितनी अच्छी लग रही हैं ,न। " मैंने बिना मुंह उसकी ओर घुमाए कहा।
दोनों हाथों से मेरे निपल्स को पकड़ के गोल गोल घुमाते अपना औजार मेरे पिछवाड़े रगड़ते वो बोला ,
" जानती हो मेरा क्या मन कर रहा है, "…
मैं चुप रही।
वो खुद बोला ,
" तुझे बाहर , भीगते पानी में ले जा के हचक हचक के चोदूँ ".
वो खुद बोला ," तुझे बाहर , भीगते पानी में ले जा के हचक हचक के चोदूँ ".
एक पल मैं चुप रही फिर जोर से अपना चूतड़ उसके खड़े हथियार पे जोर से रगड़ के मैने बोला ,
" तू एक बार समझता नहीं लगता। "
वो समझ गया , मैंने कहा था अगर तूने दोबारा मुझसे पूछा न तो कुट्टी , वो भी पक्की वाली।
पांच मिनट में हम दोनों बाहर थे ,
उस मोटे पाकड़ के तने के पीछे ,ठीक बँसवाड़ी के बीच जहाँ दिन में ढूंढने पे भी आदमी न मिले।
और इस समय तो घुप्प अँधेरा था , और हाँ वो मुझे अपनी गोद में उठा के ले आया था।
तगड़ा प्रेमी होने का कुछ तो फायदा हो ,लेकिन उसके तगड़े होने सबूत और मिल गया मुझे जब उसने निहुरा दिया ,
कुतिया की तरह उस पाकड़ के पेड़ के मोटे तने को पकड़ के ,और एक झटके में अंदर।
दो बार की मलाई पूरी अंदर थी।
बारिश की बूंदे , आम के पेड़ों से टपकती पानी की धार मुझे भिगो रही थी और ऊपर से अजय की शरारतें ,
"तूने खुद बोला है छिनार की जनी कम से कम २० से चुदेगी, इस गाँव में. \अगर एक भी कम हुआ न तो मुट्ठी पेल दूंगा और जैसे कुतिया बनी है न वैसे ही कुतिया बना के गाँव के जितने,देसी … "
अब मुझे लगा की वो चंपा भाभी का पक्का देवर है यही वार्निंग ठीक मुझे चंपा भाभी ने दी थी ,
" अगर छिनरो ,गाँव का कौनो मरद बचा न त जाने से पहले तोहरी बुरिया में , ई मुट्ठी पूरा पेल दूंगी सोच लो ,लंड खाना है या मुट्ठी। "
इस बार उस ज़ालिम ने हद कर दी , बिना मेरे दर्द की परवाह किये , एक बार में पूरा मूसल पेल दिया जड़ तक ,
उस सन्नाटे में मेरी चीख निकल गयी , लेकिन मेरे बलमाको कोई परवाह नहीं थी।
मैं कुतिया की तरह , झुकी हुयी , दोनों हाथ मेरे पेड़ के तने पे ,
और उस के दोनों हाथ मेरी चूंचियों को दबाते हुए ऐसे जोर जोर से निचोड़ रहे थे की क्या कोई जूस स्टाल वाला नारंगी निचोड़ेगा।
गपागप गपागप , सटासट सटासट ,
वो पेल रहा था मैं लील रही थी , खुले आसमान के नीचे ,खुले मैदान में.
बारिश एक बार फिर तेज हो गयी , सावन की छोटी छोटी बूंदे ,तेज धार में बदल गयी थी ,
आसमान में फिर बिजली चमकने लगी थी.
लेकिन उस बेरहम पे कोई फरक नहीं पड़ने वाला था , बल्कि उसकी चुदाई की रफ्तार और बढ़ गयी।
जो मुझे चंदा और बसंती ने बताया सिखाया था , अगर मरद दो बार झड़ चुका है और फिर चोद रहा है ,
तो समझ लो चूत के चिथड़े उड़ेंगे ,और वो वही कर रहा था ,धकापेल चुदाई।
जोर जोर से उसके धक्कों की थाप मेरे भारी भारी चूतड़ों पर पड़ रही थी,
झुक झुक के मेरे मीठे मालपूआ ऐसे गालों को वो बेशरम कचाक कचाक काट रहा था।
घूस गइल , धंस गइल ,अंडस गइल हो ,
लेकिन उसे कोई फरक पड़ने वाला था क्या , इतनी जोर जोर से वो बेरहम पेल रहा था ठेल रहा था , मेरी कसी कच्ची चूत को फैलाते,चौड़ा करते ,.... इत्ते जोर से मेरी छरछरा रही थी , लेकिन अब चुदवाने के अलावा कोई रास्ता भी था क्या।
एक पल के लिए उसने चूंची पर से एक हाथ उठाया तो मैंने गहरी सांस ली लेकिन मुझे क्या पता की अब क्या होने वाला था ,
उसने उस हाथ से अपना मोटा बांस ऐसा लंड जो अभी भी ३/४ करीब ६ इंच से ज्यादा मेरी चूत में घुसा था पकड़ लिया और लगा गोल गोल घुमाने।
चूत की अंदरुनी दीवालों को रगड़ता अब वो सीधे मेरी जान लेने पे तुला था और उस सन्नाटे में कौन सुनता मेरी सिसकियों और चीखों को ,
और जो सुन रहा था वो तो बस हचक हचक कर चोदने में जुटा था। मैं सोच रही थी ,
चल गुड्डी आज तुझे असली गाँव की चुदाई का मजा मिल रहा है।
जोर से उसने निपल पिंच किया और गाली एक के बाद एक , गलती मेरी थी जब वो हाथ से पकड़ के गोल गोल अपना मोटा लंड चूत में घुमा रहा था , मेरी मुंह से दर्द के मारे निकल गया ,
उईइइइइइइइइइइ माँ
बस ,
“तेरी माँ की , न जाने कितने भंडुवों से चुदवा के उसने तेरा जैसे गरम माल अपने भोसड़े से निकाला , \उसका भोसड़ा मारूं ,मादरचोद "
और मेरी हिम्मत नहीं हुयी की कुछ बोलूं क्यों की उसी के साथ ,
उसने सुपाड़े तक लंड बाहर निकाल के एक धक्के में , … इत्ते जोर से मेरी बच्चेदानी पे लगा की मेरी चीख निकल गयी और उसके बाद फिर उसकी गालियां ,
"तेरे सारे मायकेवालों की चूत मारूं, गांड मारूं अब तक कहाँ छिपा के रखी थी ऐसी मस्त छिनार चूत, साल्ली।”
और फिर ,
धक्के पर धक्के और साथ में , गालियों की झड़ी,
" गदहे की जनी, जनम की चुदक्क्ड़ , तेरी सारी चुदवास मिट जायेगी , ऐसी चुदेगी हमारे गाँव में न गिनती भूल जायेगी ,कितने लंड घुसे ,कितने निकले ,दिन रात सड़का टपकता रहेगा , किसी को मना किया न तेरी माँ बहन सब चोद दूंगा .
…
" मादरचोद ,तेरी माँ का भोंसड़ा मारूं क्या मस्त माल पैदा किया है हमारे गाँव वालों के लिए , … "
"तूने खुद बोला है छिनार की जनी कम से कम २० से चुदेगी, इस गाँव में. अगर एक भी कम हुआ न तो मुट्ठी पेल दूंगा और जैसे कुतिया बनी है न वैसे ही कुतिया बना के गाँव के जितने,देसी … "
अब मुझे लगा की वो चंपा भाभी का पक्का देवर है यही वार्निंग ठीक मुझे चंपा भाभी ने दी थी ,
" अगर छिनरो ,गाँव का कौनो मरद बचा न त जाने से पहले तोहरी बुरिया में , ई मुट्ठी पूरा पेल दूंगी सोच लो ,लंड खाना है या मुट्ठी। "
आज उसकी गालियां बहुत प्यारी लग रही थीं ,
कई बार रिश्ते ऐसे हो जाते हैं की कोई बिना गाली के बात करे तो गाली लगता है।
मुझे बस इतना याद है की जब वो झडा तो पानी की झड़ी एक बार फिर कम हो गयी थी।
मैं चल नहीं पा रही थी ,वो एक बार फिर मुझे गोद में उठा के कमरे में ले आया शायद साढ़े तीन बजा था।
और साढ़े चार पौने पांच के आसपास जब वो गया, मैंने पीछे वाला दरवाजा बंद किया।
अँधेरा कुछ धुंधला रहा था ,बरसात बंद हो चुकी थी।
लेकिन जाने के पहले के एक बार और उसने नंबर लगा दिया था ,
कुल चार बार रात भर में।
….
सुबह सुबह पूरी देह टूट रही थी , उठने का मन नहीं कर रहा था।
अलसाया अलसाया लग रहा था।
मैं सुबह उठी तो साढ़े आठ बज रहे थे , उठी क्या बसंती ने उठाया।
बस मन कर रहा था , एक बार फिर अजय आ जाय। साल्ले ने रात में रगड़ के रख दिया था ,
जरा मैंने गर्दन झुकाई तो पूरे उभारों पर उसके दांतों के ,नाखूनों के निशान रात की गवाही दे रहे थे ,
ख़ास तौर से जो मेरी गोलाइयों के ऊपरी हिस्से में ( जो न मेरी चोली में छुपती हैं और जिन्हे न मैं छुपाना चाहती हूँ )
जबरदस्त कचकचा के काटा था उस दुष्ट ने ,जैसे अपनी मुहर लगा दी हो , आज से ये माल मेरा है।
बात तो उसकी सही थी , माल तो मैं उसकी थी ही।
मेरी सारी सहेलियां मुझे अजय का माल कह के ही बुलाती थी और मेरी नथ भी तो उसी ने उतारी थी ,मेरे सारे नखड़े के बावजूद , और कल रात जो उसने चुदाई की थी
मैं मान गयी।
जो मैं सोचती थी मर्द कैसा होना चाहिए एकदम वैसा , जो ज़रा भी ना नुकुर न सुने , केयरिंग भी हो लेकिन चोदने के समय , एकदम गाली दे दे के रगड़ रगड़ के चोदे ,…
एकदम वैसा और ताकत भी कितनी , भाभी सही कह रही थीं जिस दिन चढ़ेगा ननद रानी ढंग से दो दिन टांग फैला के चलोगी।
मैं मुस्कराने लगी उसकी और अपनी बात सोच के , एक बात जो मुझे साल रही थी उस की भी फाँस उस ने निकाल दी ,
और फिर खुद तो हुजूर ने किसी को छोड़ा नहीं है मेरी कोई सहेली नहीं बची , उसकी कितनी भौजाइयों और घर खेत में काम करने वालियां , और कैसे बेलौस सब उस ने खुद ही बोल भी दिया और अपनी मर्जी भी बता दी , … बस अब अपने अजय का हुक्म भी है और , मन तो यार मेरा भी करता है ,…
किसी तरह चारपाई पकड़ के मैं उठी ,और उठते ही मेरी गोरी गोरी जाँघों पर मेरे साजन की रात भर की मेहनत की कमाई ,खूब गाढ़ी गाढ़ी सफेद थक्केदार मलाई की धार , सड़का टपक रहा रहा था पूरी जांघ लिसलिसी हो रही थी।
किसी तरह अपने को थोड़ा बहुत ठीक किया ,
बाहर निकलते समय ताखे पर निगाह पड़ी ,कल जो बोतल कड़वे तेल की चंपा भाभी पूरी भर के रख गयीं थीं अब आधी हो गयी थी।
मुश्किल से मुस्कराहट रोकी मैंने।
किचेन में चाय देते समय बसंती खुल के मुस्करा रही थी।
उस की निगाहों से कुछ छिपता है क्या , और फिर अब छिपाने से फायदा भी क्या ,वो भी तो अपने ही गोल की हो गयी थी।
चंपा भाभी का कमरा अभी भी बंद था।
मुझे याद आया की आज पूरबी आने वाली है ,मुझे नदी नहाने ले किये ,मैं जल्दी जल्दी हाथ मुंह धो ,साडी पहन तैयार हुयी।