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सोलवां सावन
बीसवीं फुहार
घर आँगन में
झूले पे
दिनेश
गनीमत था कि जब मैं घर पहुँची तो भाभी और चम्पा भाभी नहीं थी, सिर्फ बसंती थी। उसने बताया कि सब लोग पड़ोस के गांव में गये हैं और शाम के आस-पास ही 3-4 घंटे बाद लौटेंगे, मेरा खाना रखा है और उसे भी कुछ काम से जाना है।
मैं अपने कमरे में चली गई और जल्दी से कपड़े बदले। कहीं जाना तो था नहीं इसलिये मैंने, एक टाप और स्कर्ट पहना और खाना खाने आ गयी।
खाने के बाद मैं अपने कमरें में थोड़ी देर लेटी थी और बसंती सब काम समेट रही थी। तभी बसंती ने दरवाजे के पास आकर बताया कि दिनेश आया है।
मैं चौंक कर उठ बैठी और मुश्कुराने लगी। मुझे याद आया कि जब मैंने चन्दा से दिनेश के बारे में पूछा था तो उसने हँसकर कहा था कि खुद देख लेना। और बहुत खोदने पर वो बोली-
“मिलने के पहले कम से कम आधी शीशी वैसलीन की लगा लेना…
मैंने बसंती से कहा- “बैठाओ, मैं आ रही हूं…”
मैंने अपने ड्रेस की ओर देखा।
मेरी टाप खूब टाइट थी या शायद इधर दबवा-दबवा कर मेरे जोबन के साईज़ कुछ बढ़ गये थे, मेरे उभार… यहां तक की निपल भी दिख रहे थे।
ब्रा तो मैंने गांव आने के बाद पहननी ही छोड़ दी थी। और स्कर्ट भी जांघ से थोड़ी ही नीचे थी।
खड़ी होकर मैं ड्रेसिंग टेबल के पास गयी और लिपिस्टक हल्की सी लगा ली।
सामने वैसलीन की बोतल थी, मैंने दोनों उंगलीयों में लेकर टांग फैलाकर अपनी चूत के एकदम अंदर तक लगा ली। फिर थोड़ी और लेकर चूत के मुहाने पर भी लगा ली।
मुझे एक शरारत सूझी और मैंने हल्की सी लिपिस्टक चूत के होंठ पर भी लगा ली।
मैं बाहर निकली तो दिनेश इंतजार कर रहा था, उसने पूछा- “
क्यों भाभी नहीं हैं क्या…”
मैंने हँसकर कहा-
“नहीं, आज तो हमीं से काम चलाना पड़ेगा…”
और मैंने उसको सुनाते हुए बसंती से पूछा-
“क्यों भाभी लोग तो शाम को आयेंगी, तीन चार घंटे बाद…”
बसंती काम खतम करती हुई बोली- “हां शाम के आसपास, और मैं भी जा रही हूं, दरवाजा बंद कर लेना…”
दरवाजा बंद करके मैंने मुश्कुराते हुए कहा-
“चलो, अंदर कमरें में चलते हैं…”
उसको लेकर चूतड़ मटकाती आगे आगे चलती मैं कमरें में आयी। उसे पलंग पर बैठाकर उसके सामने पड़ी कुरसी पर बैठकर मैंने धीरे-धीरे अपनी जांघें फैलानी शुरू कीं।
उसका ध्यान एकदम मेरी स्कर्ट से साफ-साफ दिख रही भरी-भरी गोरी-गोरी जांघों की ओर ही था। बैठते समय मेरी स्कर्ट थोड़ी ऊपर चढ़ भी गयी थी।
मैंने उसे छेड़ा- “कहां ध्यान है… तुम दिखते नहीं, कहां रहते हो… मैंने भाभी से भी पूछा कई बार…”
“नहीं नहीं… कहीं नहीं… मेरा मतलब है…” हडबड़ा कर अब उसने अपनी निगाहें ऊपर कर लीं।
पर मैं कहां मानने वाली थी।
मेरे कबूतर तो वैसे ही मेरे कसे टाप को फाड़कर बहर निकलना चाहते थे, मैंने उनको थोड़ा और उभारा। अब उसकी निगाहें वहीं चिपक गयीं थीं। मैंने अपने दोनों हाथों को उनके बेस को क्रास करके उन्हें पूरा पुश करते हुए भोलेपन से पूछा-
“अच्छा… एक बात बताओ, मैं तुमको कैसी लगती हूं…”
उसका तम्बू अब साफ-साफ तनने लगा था- “अच्छी लगती हो… बहुत अच्छी लगती हो…”
मैंने अपने टाप के बाकी बटन भी खोलते हुये कहा- “उमस लग रही है ना, आराम से बैठो…” बटन खुलने से मेरा क्लीवेज तो अब पूरा दिख ही रहा था, मेरे रसीले जोबन भी झांक रहे थे।
उसकी हालत एकदम बेकाबू हो रही थी पर मैं कहां रुकने वाली थी।
मैंने अपने दोनों पैर मोड़ लिये और स्कर्ट को एड्जस्ट करके अच्छी तरह फैला लिया।
अब तो उसे मेरी चूत की झलक भी अच्छी तरह मिल रही थी। उसकी निगाहें मेरी जांघों के बीच अच्छी तरह धंसी हुई थीं और उसका लण्ड उसके पाजामे से बाहर आने को बेताब था।
थोड़ी देर वह देखता रहा फिर अचानक उठकर मैं उसके पास आकर, एकदम सटकर बैठ गयी। मैंने उसका हाथ खींचकर अपने कंधे को रख लिया और उसे अपने भरे-भरे जोबन के पास ले गयी और मेरा गोरा हाथ उसकी जांघ पे था, उसके तने हुए टेंटपोल के पास।
“अच्छा… अगर मैं तुम्हें अच्छी लगती हूँ तो तुम मेरे पास क्यों नहीं आते…” मैंने मुश्कुराकर पूछा।
“मुझे लगता है… था… कि कहीं तुम बुरा ना मानो…”
मैंने अब खींचकर उसका हाथ अपने जोबन पर रखकर हल्के से दबा दिया और बोली
“बुद्धू, अरे अगर किसी को कोई लड़की अच्छी लगेगी, तो वह बुरा क्यों मानेगी, उसे तो और अच्छा लगेगा…”
और उसके हाथ अब खूब कस के अपने जोबन पर दबाते हुए, मेरा हाथ जो उसकी जांघ पर था,
हल्के से उसके खड़े खूंटे को छूने लगा।
मैंने अपने दहकते होंठों से उसके कान को सहलाते हुये कहा-
“और मुझे तो तुम कुछ भी… कुछ भी करोगे तो बुरा नहीं लगेगा…”
“सच… कुछ भी… करूं…” उसकी आवाज थरथरा रही थी।
मैंने अपने गुलाबी गाल उसके गाल से रगड़ते हुए कहा- “हां… कुछ भी जो तुम चाहो… जैसे भी… जितनी बार… जब भी…
बीसवीं फुहार
घर आँगन में
झूले पे
दिनेश
गनीमत था कि जब मैं घर पहुँची तो भाभी और चम्पा भाभी नहीं थी, सिर्फ बसंती थी। उसने बताया कि सब लोग पड़ोस के गांव में गये हैं और शाम के आस-पास ही 3-4 घंटे बाद लौटेंगे, मेरा खाना रखा है और उसे भी कुछ काम से जाना है।
मैं अपने कमरे में चली गई और जल्दी से कपड़े बदले। कहीं जाना तो था नहीं इसलिये मैंने, एक टाप और स्कर्ट पहना और खाना खाने आ गयी।
खाने के बाद मैं अपने कमरें में थोड़ी देर लेटी थी और बसंती सब काम समेट रही थी। तभी बसंती ने दरवाजे के पास आकर बताया कि दिनेश आया है।
मैं चौंक कर उठ बैठी और मुश्कुराने लगी। मुझे याद आया कि जब मैंने चन्दा से दिनेश के बारे में पूछा था तो उसने हँसकर कहा था कि खुद देख लेना। और बहुत खोदने पर वो बोली-
“मिलने के पहले कम से कम आधी शीशी वैसलीन की लगा लेना…
मैंने बसंती से कहा- “बैठाओ, मैं आ रही हूं…”
मैंने अपने ड्रेस की ओर देखा।
मेरी टाप खूब टाइट थी या शायद इधर दबवा-दबवा कर मेरे जोबन के साईज़ कुछ बढ़ गये थे, मेरे उभार… यहां तक की निपल भी दिख रहे थे।
ब्रा तो मैंने गांव आने के बाद पहननी ही छोड़ दी थी। और स्कर्ट भी जांघ से थोड़ी ही नीचे थी।
खड़ी होकर मैं ड्रेसिंग टेबल के पास गयी और लिपिस्टक हल्की सी लगा ली।
सामने वैसलीन की बोतल थी, मैंने दोनों उंगलीयों में लेकर टांग फैलाकर अपनी चूत के एकदम अंदर तक लगा ली। फिर थोड़ी और लेकर चूत के मुहाने पर भी लगा ली।
मुझे एक शरारत सूझी और मैंने हल्की सी लिपिस्टक चूत के होंठ पर भी लगा ली।
मैं बाहर निकली तो दिनेश इंतजार कर रहा था, उसने पूछा- “
क्यों भाभी नहीं हैं क्या…”
मैंने हँसकर कहा-
“नहीं, आज तो हमीं से काम चलाना पड़ेगा…”
और मैंने उसको सुनाते हुए बसंती से पूछा-
“क्यों भाभी लोग तो शाम को आयेंगी, तीन चार घंटे बाद…”
बसंती काम खतम करती हुई बोली- “हां शाम के आसपास, और मैं भी जा रही हूं, दरवाजा बंद कर लेना…”
दरवाजा बंद करके मैंने मुश्कुराते हुए कहा-
“चलो, अंदर कमरें में चलते हैं…”
उसको लेकर चूतड़ मटकाती आगे आगे चलती मैं कमरें में आयी। उसे पलंग पर बैठाकर उसके सामने पड़ी कुरसी पर बैठकर मैंने धीरे-धीरे अपनी जांघें फैलानी शुरू कीं।
उसका ध्यान एकदम मेरी स्कर्ट से साफ-साफ दिख रही भरी-भरी गोरी-गोरी जांघों की ओर ही था। बैठते समय मेरी स्कर्ट थोड़ी ऊपर चढ़ भी गयी थी।
मैंने उसे छेड़ा- “कहां ध्यान है… तुम दिखते नहीं, कहां रहते हो… मैंने भाभी से भी पूछा कई बार…”
“नहीं नहीं… कहीं नहीं… मेरा मतलब है…” हडबड़ा कर अब उसने अपनी निगाहें ऊपर कर लीं।
पर मैं कहां मानने वाली थी।
मेरे कबूतर तो वैसे ही मेरे कसे टाप को फाड़कर बहर निकलना चाहते थे, मैंने उनको थोड़ा और उभारा। अब उसकी निगाहें वहीं चिपक गयीं थीं। मैंने अपने दोनों हाथों को उनके बेस को क्रास करके उन्हें पूरा पुश करते हुए भोलेपन से पूछा-
“अच्छा… एक बात बताओ, मैं तुमको कैसी लगती हूं…”
उसका तम्बू अब साफ-साफ तनने लगा था- “अच्छी लगती हो… बहुत अच्छी लगती हो…”
मैंने अपने टाप के बाकी बटन भी खोलते हुये कहा- “उमस लग रही है ना, आराम से बैठो…” बटन खुलने से मेरा क्लीवेज तो अब पूरा दिख ही रहा था, मेरे रसीले जोबन भी झांक रहे थे।
उसकी हालत एकदम बेकाबू हो रही थी पर मैं कहां रुकने वाली थी।
मैंने अपने दोनों पैर मोड़ लिये और स्कर्ट को एड्जस्ट करके अच्छी तरह फैला लिया।
अब तो उसे मेरी चूत की झलक भी अच्छी तरह मिल रही थी। उसकी निगाहें मेरी जांघों के बीच अच्छी तरह धंसी हुई थीं और उसका लण्ड उसके पाजामे से बाहर आने को बेताब था।
थोड़ी देर वह देखता रहा फिर अचानक उठकर मैं उसके पास आकर, एकदम सटकर बैठ गयी। मैंने उसका हाथ खींचकर अपने कंधे को रख लिया और उसे अपने भरे-भरे जोबन के पास ले गयी और मेरा गोरा हाथ उसकी जांघ पे था, उसके तने हुए टेंटपोल के पास।
“अच्छा… अगर मैं तुम्हें अच्छी लगती हूँ तो तुम मेरे पास क्यों नहीं आते…” मैंने मुश्कुराकर पूछा।
“मुझे लगता है… था… कि कहीं तुम बुरा ना मानो…”
मैंने अब खींचकर उसका हाथ अपने जोबन पर रखकर हल्के से दबा दिया और बोली
“बुद्धू, अरे अगर किसी को कोई लड़की अच्छी लगेगी, तो वह बुरा क्यों मानेगी, उसे तो और अच्छा लगेगा…”
और उसके हाथ अब खूब कस के अपने जोबन पर दबाते हुए, मेरा हाथ जो उसकी जांघ पर था,
हल्के से उसके खड़े खूंटे को छूने लगा।
मैंने अपने दहकते होंठों से उसके कान को सहलाते हुये कहा-
“और मुझे तो तुम कुछ भी… कुछ भी करोगे तो बुरा नहीं लगेगा…”
“सच… कुछ भी… करूं…” उसकी आवाज थरथरा रही थी।
मैंने अपने गुलाबी गाल उसके गाल से रगड़ते हुए कहा- “हां… कुछ भी जो तुम चाहो… जैसे भी… जितनी बार… जब भी…