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चालीसवीं फुहार - भोर भिनसारे
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चम्पा भाभी मेरे पीछे पड़ गईं की मैं खाना खा लूँ, मैं लाख जिद करती रही की सबके साथ खाऊँगी, लेकिन…भाभी और माँ को आने दीजिये पर चंपा भाभी एकदम पीछे पड़ी थीं,... अपने हाथ से इतने प्यार दुलार से उन्होंने खिलाया की,...
मुझे थकान और नींद दोनों लग रही थी। कल रात भर जिस तरह मेरी कुटाई हुई थी, फिर सुबह भी, जाँघे फटी पड़ रही थीं। खाने के बाद जैसे ही मैं अपने कमरे में गई तुरंत नीद आ गई। हाँ लेकिन सोने के पहले, जो कामिनी भाभी ने गोली खाने को बोला था, और उभारों पर और नीचे खास तेल लगाने को बोला था, वो मैं नहीं भूली।
पता नहीं सोने के पहले, या आधी नींद में या कच्ची नींद में, मुझे माँ ( भाभी की माँ को मैं भी पहले दिन से ही माँ कहती थी और वो भी उतने ही प्यार दुलार से चिपका लेती थीं, कभी चूम लेती थीं ) की आवाज सुनाई दी और अपनी भाभी की भी. लगता है वो दोनों लोग आ गयीं थी और आते ही चम्पा भाभी ने खिलखिलाते हुए, उन लोगों से पूरा हाल बता दिया की किस तरह बसंती ने मेरे ऊपर चढ़कर, मुझे वो,... वही,... पूरा घलघल घलघल सुनहरा शरबत पिला दिया।
मेरी भाभी की बड़ी ख़ुशी की आवाज आ रही थी, बोली, " भाभी, आप लोग उसे सचमुच खारा नमकीन, पिला पिला के पक्की नमकीन लौंडिया बना के ही यहाँ से भेजेंगी।
लेकिन माँ ने उन्हें हड़का लिया, " तुम लोग न इतना दिन, अरे हम तो कह रहे थे की उसके आने के दूसरे तीन दिन से ही, अरे जउने दिन रतजगा में सबके सामने पूरा उघार कर के खड़ी हुयी, पूरे गाँव क कुल औरतन क सामने आपन बिलिया खोल के, बस अगले दिन ही,... "
" माँ लेकिन बात आप ही की सच होती है देखिये उसने चारों मेरे भाइयों का,... "
और फिर वो तीनों लोग खिलखिलाने लगीं, और मुझे याद आया, जिस दिन मैं भाभी के साथ आयी थी, यहीं बरामदे में, सोहर हो रहा था और हर सोहर में मेरा नाम ले ले कर, पहले सोहर में ही , गाँव सारी भाभियाँ मुझे दिखा दिखा के, चिढ़ा चिढ़ा के सुर में गा रही थीं,
" दिल खोल के मांगो ननदी जो मांगों सो दूंगी, दिल खोल के मांगो,...
अरे सैयां मत मांगो ननदी, अरे सैंया मत मांगो ननदी सेज का सिंगार रे,
सैंया के बदले भैया दूंगी, चोदी चूत तोहार रे , अरे चोदी चूत तोहार रे,
बुर खोल के मांगो ननदी,...
मैं शरमा रही थी, लेकिन ,मेरी भाभी ये मौका क्यों छोड़ देती, मुझे चिढ़ाती मेरी ठुड्डी पकड़ के मेरा चेहरा उठा के मुझसे पूछने लगीं,
" बोल न, अजय, सुनील, रवी दिनेश, चारों में से किसके साथ तेरी गाँठ जुड़वाऊं "
लेकिन उनकी बात काट के भाभी की माँ दुलार से मेरे गोरे गोरे गाल सहलाते बोलीं,
" अरे समझती क्या हो मेरी इस बिन्नो को, एक से क्यों चारों से चुदवायेगी, क्यों हैं न, ... "
और मैं शर्म से लाल हो गयी, पर माँ की बात , सच में उन चारों ने उस दिन के , तीन चार दिन के अंदर ही मुझे अच्छी तरह कई बार चोद दिया।
और माँ मेरी दोनों भाभियों को, मेरी भाभी और भाभी की भाभी, चंपा भाभी को जोर से हड़का रही थीं,
" कल से पानी क एक बूँद भी उसके गले के नीचे से नहीं, बस वही खारा,... " लेकिन उनकी बात मेरी भाभी ने काट दी, आज वो कुछ ज्यादा ही मस्त हो रही थीं, माँ से बोलीं,
" सबसे बड़ी आप हैं, सबसे पहले आप नंबर लगाइए, घलघल घलघल, और आप उसे इतना प्यार दुलार करती हैं,... तो चढ़ के,... "
" एकदम, अरे मेरी बिन्नो है, छोटी। सीधे से नहीं मानेगी तो जबरदस्ती, जाँघों के बीच दबा के, एकाध हलकी चपत लगाना होगा तो वो भी उसके नमकीन गाल पे लगा दूंगी, ... अरे दू दू भौजाई घरे में,... "
अब चम्पा भाभी भी माँ की ओर से हो गयीं और मेरी भाभी की पोल पट्टी खोलने लगीं,
" भूल गयी, एहू से सुकुवार रहलू, जउने साल मैं बियाह के आयी थी, और एही आंगन में होली के दिन पटक पटक के , केतना छटक रही थी, लेकिन मैंने और नउनिया क बड़की बहू दोनों ने कितना पिलाया था, गाँव का कुल मेहरारुन लड़कीन के सामने, अच्छा ई बतावा हमार ननद रानी, अपनी ननद के पीछे तो बहुत पड़ी हो ई बतावा, ठकुराने गयी थी अपने कितने पुराने यारों से चुदवा के आयी हो, ... चार की पांच,... "
मेरी भाभी की बहुत देर तक खिलखलाने की आवाज आती रही, फिर लगता है उन्होंने कुछ ऊँगली से इशारा किया, ... और चंपा भाभी बोल पड़ीं,
" पूरे पांच,... बड़ी मेहनत पड़ी होगी, वो सब के सब नम्बरी चोदू हैं , एक बार के बाद छोड़े थोड़े होंगे, और ये क्या इशारे बाजी करत हाउ, तोहार ननदिया सोवत हौ , और जग भी रही हो तो अब तो हम लोगन क बिरादरी में आय गयी है, अब तो चाहो तो घरे पे बुलाय के ओकरे सामने, और फिर हाँ परसों श्यामू भी आ जाएगा, तो अब तो तू दूध देवे लगी हो , दुहवाना दूध उससे कस कस के , मलाई गटकना उसकी,... "
चंपा भाभी की आवाज सुनाई पड़ी, लेकिन तबतक नींद ने कस के आ घेरा,...
रात भर न एक सपना आया, न नींद टूटी। खूब गाढ़ी, बिना ब्रेक के घोड़े बेच के सोई मैं।
गाँव में रात जितनी जल्दी होती है, उससे जल्दी सुबह हो जाती है। मैं सो भी जल्दी गई थी और न जाने कितने दिनों की उधार नींद ने मुझे धर दबोचा था। एकदम गाढ़ी नींद, शायद करवट भी न बदली हो।
(वो तो बाद में मेरी समझ में आया की मेरी इस लम्बी नींद में, मेरी थकान, रात भर जो कामिनी भाभी के यहां रगड़ाई हुई थी, उससे बढ़कर, जो गोली कामिनी भाभी की दी मैंने कल सोने के पहले खाई थी उसका असर था। और गोली का असर ये भी था की जो स्पेशल क्रीम मेरी जाँघों के बीच आगे-पीछे, कामिनी भाभी ने चलने के पहले लगाई थी न और ये सख्त ताकीद दी थी की सुबह तक अगवाड़े पिछवाड़े दोनों ओर मैं उपवास रखूं, उस क्रीम का पूरा असर मेरी सोन-चिरैया और गोलकुंडा दोनों में हो जाए। दो असर तो उन्होंने खुद बताए थे, कितना मूसल चलेगा, मोटा से मोटा भी, लेकिन मैं जब शहर अपने घर लौटूंगी तो मेरी गुलाबो उतनी ही कसी छुई मुई रहेगी, जैसी जब मैं आई थी, तब थी, बिना चुदी।
और दूसरा असर ये था की न मुझे कोई गोली खानी पड़ेगी और न लड़कों को कुछ कंडोम वंडोम, लेकिन न तो मेरा पेट फूलेगा, और न कोई रोग दोष। रात भर सोने से वो क्रीम अच्छी तरह रच बस गई थी अंदर। हाँ, एक असर जो उन्होंने नहीं बताया था लेकिन मुझे खुद अंदाजा लग गया, वो सबसे खतरनाक था। मेरी चूत दिन रात चुलबुलाती रहेगी, मोटे-मोटे चींटे काटेंगे उसमें, और लण्ड को मना करने को कौन कहे, मेरा मन खुद ही आगे बढ़ के घोंटने को होगा)
और मेरी नींद जब खुली तो शायद एक पहर रात बाकी थी, कुछ खटपट हो रही थी।
मेरी खुली खिड़की के पीछे ही गाय भैंसें बंधती थी। और आज श्यामू (वो जो गाय भैंसों की देख भाल करता था और जिसका नाम ले ले के चम्पा भाभी और बसंती मेरी भाभी को खूब छेड़ती थीं) भी नहीं था, दो दिन की छुट्टी गया था। इसलिए बसंती ही आज, कल चम्पा भाभी ने उसे बोला भी था। मैं अधखुली आँखों से कुछ देख रही थी कुछ सुन रही थी, गाय भैंसों का सारा काम और फिर दूध दूहने का।
चाँद मेरी खिड़की से थोड़ी दूर घनी बँसवाड़ी के पीछे छुपने की कोशिश कर रहा था, जैसे रात भर साजन से खुल के मजे लूटने के बाद कोई नई-नई दुल्हन अपनी सास ननदों से घूंघट के पीछे छिपती शर्माती हो।
उसी बँसवाड़ी के पास ही तो दो दिन पहले अजय ने कुतिया बना के एकदम खुले आसमान के नीचे कितना हचक-हचक के, और कैसी गन्दी-गन्दी गालियां दी थीं उसने, न सिर्फ मुझे और बल्की मेरी सारे मायके वालियों को। शर्मा के मैंने आँखें बंद कर लीं और बची खुची नींद ने एक बार फिर…
और जब थोड़ी देर बाद फिर आँख खुली तो चाँद नई दुल्हन की जैसे टिकुली साजन के साथ रात के बाद सरक कर कहीं और पहुँच चुकी होती है, उसी तरह आसमान के कोने में टिकुली की तरह, लेकिन साथ-साथ हल्की-हल्की लाली भी, जो थोड़ी देर पहले काला स्याह अँधेरा था अब धुंधला हल्का भूरा सा लग रहा था। चिड़ियों की आवाजों के साथ लोगों की आवाजें भी। मेरी देह की पूरी थकान चली गयी थी, कल जो जाँघे फटी पड़ रही थी, कदम रखते ही चिलख उठती थी, अब सब ख़तम. रात भर की गहरी नींद का असर था या कामिनी भाभी की गोली का पता नहीं, बस पूरी देह में हलकी हलकी मस्ती सी लग रही थी. मैं अलसायी सी बिस्तर पे पड़ी थी, एक बार फिर से चादर खींच ली अपने ऊपर.
बसंती की आवाज भी आ रही थी, किसी से चुहुल कर रही थी। जब से श्यामू गया था, मुंह अँधेरे ,भोर में ही आके गाय भैंस का कुल काम, सानी पानी, सब वही देखती थी। उसका बाहर का काम खतम हो गया लगता था।
और बसंती की कल शाम की बात याद आ गई मुझे यहीं आँगन में तो, और चम्पा भाभी के सामने खुले आम आँगन में, मेरे ऊपर किस तरह चढ़ के जबरदस्ती उसने, मैं लाख कसर मसर करती रही… लेकिन बसंती के आगे किसी की चलती है क्या जो मेरी चलती? जो किया सो किया ऊपर से बोल गई, कल सुबह से रोज भोर भिनसारे, मुँह अंधियारे, बिना नागा,... ऐसी नमकीन हो जाओगी न की, …
गौने की दुल्हन जैसे। जब उसकी खिलखिलाती छेड़ती ननदें ले जाके उसे कमरे में बैठा देती हैं, फिर बेचारी घूंघट में मुँह छिपाती है, आँखें बंद कर लेती है, लेकिन बचती है क्या?
बस वही मेरी हालत थी।
मेरी कुठरिया में एक छोटा सा खिड़कीनुमा दरवाजा था। उसकी सिटकिनी ठीक से नहीं बंद होती थी, और ऊपर से कल मैं इतनी नींद में थी, उसे खींच के आगे करो और फिर हल्के से धक्का दो तो बस, खुल जाती थी। अजय भी तो उसी रास्ते से आया था।
उस दरवाजे के चरमर करने की आवाज हुई और मैंने आँखें बंद कर ली। लेकिन आँखें बंद करने से क्या होता है, कान तो खुले थे, बसंती के चौड़े घुंघरू वाले पायल की छम छम, आराम से उसने मेरा टाप उठाया और प्यार से मेरे उभार सहलाए।
मैंने कस के आँखें मींचे थी।
और अब वो सीधे मेरे उभारों के आलमोस्ट ऊपर, उसके हाथ मेरे गोरे गुलाबी गाल सहला रहे थे थे, और दूसरे हाथ ने बिना जोर जबरदस्ती के तेजी से गुदगुदी लगाई,
और मैं खिलखिला पड़ी।
“मुझे मालुम है, बबुनी जाग रही हो, मन-मन भावे, मूड़ हिलावे, आँखें खोलो…”
मुँह तो मेरा खुद ही खुल गया था लेकिन आँखें जोर से मैं भींचे रही, बस एक आँख जरा सा खोल के। दिन बस निकला था, सुनहली धूप आम के पेड़ की फुनगी पर खिलवाड़ कर रही थी, वहां पर बैठी चुहचुहिया को छेड़ रही थी। और खुली खिड़की से एक सुनहली किरन, मेरे होंठों पे, झप्प से मैंने आँखें आधी खोल दी।
सुनहली धूप के साथ, एक सुनहली बूँद, बसंती की… मेरे लरजते होंठ अपने आप खुल गए जैसे कोई सीप खुल जाए बूँद को मोती बनाने के लिए। एक, दो, तीन, चार, एक के बाद एक सुनहरी बूँदें, कुछ रुक-रुक कर, आज न मैं मना कर रही थी न नखड़ा।
थोड़ी देर में ही छर्रर, छरर, और फिर मेरे खुले होंठों के बीच बसंती ने अपने निचले होंठ सटा दिए। मेरे होंठों के बीच उसके रसीले मांसल होंठ घुसे धंसे फंसे थे। सुनहली शराब बरस रही थी। सुनहली धुप की किरणें चेहरे को नहला रही थी। पांच मिनट, दस मिनट, टाईम का किसे अंदाज था। और जब वो उठी तो मेरे गाल अभी भी थोड़े फूले थे, कुछ उसका।
बनावटी गुस्से से उसने मेरे खुले निपल मरोड़ दिए पूरी ताकत से और बोली- “भाईचोद, छिनार, रंडी की जनी, तेरे सारे मायकेवालियों की गाण्ड मारूं, घोंट जल्दी…”
और मैं सब गटक गई।
बसंती दरवाजा खोल के आंगन में चली गई और मैं पांच दस मिनट और बिस्तर पर अलसाती रही। बाहर आंगन में हलचल बढ़ गई थी। दिन चढ़ना शुरू हो गया था। अलसाते हुए मैं उठी, अपना टाप ठीक किया और ताखे के बगल में एक छोटा सा शीशा लटका हुआ था। मैंने बाल थोड़ा सा ठीक किया, ऊपर वाले होंठ पर अभी भी दो चार, सुनहरी बूंदें, चमक रही थीं। मेरी जीभ ने उसे चाट लिया, थोड़ा नमकीन थोड़ा खारा, मेरे उभार आज कुछ ज्यादा ही कसमसा रहे थे।
दरवाजा तो बंसती ने ही खोल दिया था, मैं आँगन में निकल गई।
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चम्पा भाभी मेरे पीछे पड़ गईं की मैं खाना खा लूँ, मैं लाख जिद करती रही की सबके साथ खाऊँगी, लेकिन…भाभी और माँ को आने दीजिये पर चंपा भाभी एकदम पीछे पड़ी थीं,... अपने हाथ से इतने प्यार दुलार से उन्होंने खिलाया की,...
मुझे थकान और नींद दोनों लग रही थी। कल रात भर जिस तरह मेरी कुटाई हुई थी, फिर सुबह भी, जाँघे फटी पड़ रही थीं। खाने के बाद जैसे ही मैं अपने कमरे में गई तुरंत नीद आ गई। हाँ लेकिन सोने के पहले, जो कामिनी भाभी ने गोली खाने को बोला था, और उभारों पर और नीचे खास तेल लगाने को बोला था, वो मैं नहीं भूली।
पता नहीं सोने के पहले, या आधी नींद में या कच्ची नींद में, मुझे माँ ( भाभी की माँ को मैं भी पहले दिन से ही माँ कहती थी और वो भी उतने ही प्यार दुलार से चिपका लेती थीं, कभी चूम लेती थीं ) की आवाज सुनाई दी और अपनी भाभी की भी. लगता है वो दोनों लोग आ गयीं थी और आते ही चम्पा भाभी ने खिलखिलाते हुए, उन लोगों से पूरा हाल बता दिया की किस तरह बसंती ने मेरे ऊपर चढ़कर, मुझे वो,... वही,... पूरा घलघल घलघल सुनहरा शरबत पिला दिया।
मेरी भाभी की बड़ी ख़ुशी की आवाज आ रही थी, बोली, " भाभी, आप लोग उसे सचमुच खारा नमकीन, पिला पिला के पक्की नमकीन लौंडिया बना के ही यहाँ से भेजेंगी।
लेकिन माँ ने उन्हें हड़का लिया, " तुम लोग न इतना दिन, अरे हम तो कह रहे थे की उसके आने के दूसरे तीन दिन से ही, अरे जउने दिन रतजगा में सबके सामने पूरा उघार कर के खड़ी हुयी, पूरे गाँव क कुल औरतन क सामने आपन बिलिया खोल के, बस अगले दिन ही,... "
" माँ लेकिन बात आप ही की सच होती है देखिये उसने चारों मेरे भाइयों का,... "
और फिर वो तीनों लोग खिलखिलाने लगीं, और मुझे याद आया, जिस दिन मैं भाभी के साथ आयी थी, यहीं बरामदे में, सोहर हो रहा था और हर सोहर में मेरा नाम ले ले कर, पहले सोहर में ही , गाँव सारी भाभियाँ मुझे दिखा दिखा के, चिढ़ा चिढ़ा के सुर में गा रही थीं,
" दिल खोल के मांगो ननदी जो मांगों सो दूंगी, दिल खोल के मांगो,...
अरे सैयां मत मांगो ननदी, अरे सैंया मत मांगो ननदी सेज का सिंगार रे,
सैंया के बदले भैया दूंगी, चोदी चूत तोहार रे , अरे चोदी चूत तोहार रे,
बुर खोल के मांगो ननदी,...
मैं शरमा रही थी, लेकिन ,मेरी भाभी ये मौका क्यों छोड़ देती, मुझे चिढ़ाती मेरी ठुड्डी पकड़ के मेरा चेहरा उठा के मुझसे पूछने लगीं,
" बोल न, अजय, सुनील, रवी दिनेश, चारों में से किसके साथ तेरी गाँठ जुड़वाऊं "
लेकिन उनकी बात काट के भाभी की माँ दुलार से मेरे गोरे गोरे गाल सहलाते बोलीं,
" अरे समझती क्या हो मेरी इस बिन्नो को, एक से क्यों चारों से चुदवायेगी, क्यों हैं न, ... "
और मैं शर्म से लाल हो गयी, पर माँ की बात , सच में उन चारों ने उस दिन के , तीन चार दिन के अंदर ही मुझे अच्छी तरह कई बार चोद दिया।
और माँ मेरी दोनों भाभियों को, मेरी भाभी और भाभी की भाभी, चंपा भाभी को जोर से हड़का रही थीं,
" कल से पानी क एक बूँद भी उसके गले के नीचे से नहीं, बस वही खारा,... " लेकिन उनकी बात मेरी भाभी ने काट दी, आज वो कुछ ज्यादा ही मस्त हो रही थीं, माँ से बोलीं,
" सबसे बड़ी आप हैं, सबसे पहले आप नंबर लगाइए, घलघल घलघल, और आप उसे इतना प्यार दुलार करती हैं,... तो चढ़ के,... "
" एकदम, अरे मेरी बिन्नो है, छोटी। सीधे से नहीं मानेगी तो जबरदस्ती, जाँघों के बीच दबा के, एकाध हलकी चपत लगाना होगा तो वो भी उसके नमकीन गाल पे लगा दूंगी, ... अरे दू दू भौजाई घरे में,... "
अब चम्पा भाभी भी माँ की ओर से हो गयीं और मेरी भाभी की पोल पट्टी खोलने लगीं,
" भूल गयी, एहू से सुकुवार रहलू, जउने साल मैं बियाह के आयी थी, और एही आंगन में होली के दिन पटक पटक के , केतना छटक रही थी, लेकिन मैंने और नउनिया क बड़की बहू दोनों ने कितना पिलाया था, गाँव का कुल मेहरारुन लड़कीन के सामने, अच्छा ई बतावा हमार ननद रानी, अपनी ननद के पीछे तो बहुत पड़ी हो ई बतावा, ठकुराने गयी थी अपने कितने पुराने यारों से चुदवा के आयी हो, ... चार की पांच,... "
मेरी भाभी की बहुत देर तक खिलखलाने की आवाज आती रही, फिर लगता है उन्होंने कुछ ऊँगली से इशारा किया, ... और चंपा भाभी बोल पड़ीं,
" पूरे पांच,... बड़ी मेहनत पड़ी होगी, वो सब के सब नम्बरी चोदू हैं , एक बार के बाद छोड़े थोड़े होंगे, और ये क्या इशारे बाजी करत हाउ, तोहार ननदिया सोवत हौ , और जग भी रही हो तो अब तो हम लोगन क बिरादरी में आय गयी है, अब तो चाहो तो घरे पे बुलाय के ओकरे सामने, और फिर हाँ परसों श्यामू भी आ जाएगा, तो अब तो तू दूध देवे लगी हो , दुहवाना दूध उससे कस कस के , मलाई गटकना उसकी,... "
चंपा भाभी की आवाज सुनाई पड़ी, लेकिन तबतक नींद ने कस के आ घेरा,...
रात भर न एक सपना आया, न नींद टूटी। खूब गाढ़ी, बिना ब्रेक के घोड़े बेच के सोई मैं।
गाँव में रात जितनी जल्दी होती है, उससे जल्दी सुबह हो जाती है। मैं सो भी जल्दी गई थी और न जाने कितने दिनों की उधार नींद ने मुझे धर दबोचा था। एकदम गाढ़ी नींद, शायद करवट भी न बदली हो।
(वो तो बाद में मेरी समझ में आया की मेरी इस लम्बी नींद में, मेरी थकान, रात भर जो कामिनी भाभी के यहां रगड़ाई हुई थी, उससे बढ़कर, जो गोली कामिनी भाभी की दी मैंने कल सोने के पहले खाई थी उसका असर था। और गोली का असर ये भी था की जो स्पेशल क्रीम मेरी जाँघों के बीच आगे-पीछे, कामिनी भाभी ने चलने के पहले लगाई थी न और ये सख्त ताकीद दी थी की सुबह तक अगवाड़े पिछवाड़े दोनों ओर मैं उपवास रखूं, उस क्रीम का पूरा असर मेरी सोन-चिरैया और गोलकुंडा दोनों में हो जाए। दो असर तो उन्होंने खुद बताए थे, कितना मूसल चलेगा, मोटा से मोटा भी, लेकिन मैं जब शहर अपने घर लौटूंगी तो मेरी गुलाबो उतनी ही कसी छुई मुई रहेगी, जैसी जब मैं आई थी, तब थी, बिना चुदी।
और दूसरा असर ये था की न मुझे कोई गोली खानी पड़ेगी और न लड़कों को कुछ कंडोम वंडोम, लेकिन न तो मेरा पेट फूलेगा, और न कोई रोग दोष। रात भर सोने से वो क्रीम अच्छी तरह रच बस गई थी अंदर। हाँ, एक असर जो उन्होंने नहीं बताया था लेकिन मुझे खुद अंदाजा लग गया, वो सबसे खतरनाक था। मेरी चूत दिन रात चुलबुलाती रहेगी, मोटे-मोटे चींटे काटेंगे उसमें, और लण्ड को मना करने को कौन कहे, मेरा मन खुद ही आगे बढ़ के घोंटने को होगा)
और मेरी नींद जब खुली तो शायद एक पहर रात बाकी थी, कुछ खटपट हो रही थी।
मेरी खुली खिड़की के पीछे ही गाय भैंसें बंधती थी। और आज श्यामू (वो जो गाय भैंसों की देख भाल करता था और जिसका नाम ले ले के चम्पा भाभी और बसंती मेरी भाभी को खूब छेड़ती थीं) भी नहीं था, दो दिन की छुट्टी गया था। इसलिए बसंती ही आज, कल चम्पा भाभी ने उसे बोला भी था। मैं अधखुली आँखों से कुछ देख रही थी कुछ सुन रही थी, गाय भैंसों का सारा काम और फिर दूध दूहने का।
चाँद मेरी खिड़की से थोड़ी दूर घनी बँसवाड़ी के पीछे छुपने की कोशिश कर रहा था, जैसे रात भर साजन से खुल के मजे लूटने के बाद कोई नई-नई दुल्हन अपनी सास ननदों से घूंघट के पीछे छिपती शर्माती हो।
उसी बँसवाड़ी के पास ही तो दो दिन पहले अजय ने कुतिया बना के एकदम खुले आसमान के नीचे कितना हचक-हचक के, और कैसी गन्दी-गन्दी गालियां दी थीं उसने, न सिर्फ मुझे और बल्की मेरी सारे मायके वालियों को। शर्मा के मैंने आँखें बंद कर लीं और बची खुची नींद ने एक बार फिर…
और जब थोड़ी देर बाद फिर आँख खुली तो चाँद नई दुल्हन की जैसे टिकुली साजन के साथ रात के बाद सरक कर कहीं और पहुँच चुकी होती है, उसी तरह आसमान के कोने में टिकुली की तरह, लेकिन साथ-साथ हल्की-हल्की लाली भी, जो थोड़ी देर पहले काला स्याह अँधेरा था अब धुंधला हल्का भूरा सा लग रहा था। चिड़ियों की आवाजों के साथ लोगों की आवाजें भी। मेरी देह की पूरी थकान चली गयी थी, कल जो जाँघे फटी पड़ रही थी, कदम रखते ही चिलख उठती थी, अब सब ख़तम. रात भर की गहरी नींद का असर था या कामिनी भाभी की गोली का पता नहीं, बस पूरी देह में हलकी हलकी मस्ती सी लग रही थी. मैं अलसायी सी बिस्तर पे पड़ी थी, एक बार फिर से चादर खींच ली अपने ऊपर.
बसंती की आवाज भी आ रही थी, किसी से चुहुल कर रही थी। जब से श्यामू गया था, मुंह अँधेरे ,भोर में ही आके गाय भैंस का कुल काम, सानी पानी, सब वही देखती थी। उसका बाहर का काम खतम हो गया लगता था।
और बसंती की कल शाम की बात याद आ गई मुझे यहीं आँगन में तो, और चम्पा भाभी के सामने खुले आम आँगन में, मेरे ऊपर किस तरह चढ़ के जबरदस्ती उसने, मैं लाख कसर मसर करती रही… लेकिन बसंती के आगे किसी की चलती है क्या जो मेरी चलती? जो किया सो किया ऊपर से बोल गई, कल सुबह से रोज भोर भिनसारे, मुँह अंधियारे, बिना नागा,... ऐसी नमकीन हो जाओगी न की, …
गौने की दुल्हन जैसे। जब उसकी खिलखिलाती छेड़ती ननदें ले जाके उसे कमरे में बैठा देती हैं, फिर बेचारी घूंघट में मुँह छिपाती है, आँखें बंद कर लेती है, लेकिन बचती है क्या?
बस वही मेरी हालत थी।
मेरी कुठरिया में एक छोटा सा खिड़कीनुमा दरवाजा था। उसकी सिटकिनी ठीक से नहीं बंद होती थी, और ऊपर से कल मैं इतनी नींद में थी, उसे खींच के आगे करो और फिर हल्के से धक्का दो तो बस, खुल जाती थी। अजय भी तो उसी रास्ते से आया था।
उस दरवाजे के चरमर करने की आवाज हुई और मैंने आँखें बंद कर ली। लेकिन आँखें बंद करने से क्या होता है, कान तो खुले थे, बसंती के चौड़े घुंघरू वाले पायल की छम छम, आराम से उसने मेरा टाप उठाया और प्यार से मेरे उभार सहलाए।
मैंने कस के आँखें मींचे थी।
और अब वो सीधे मेरे उभारों के आलमोस्ट ऊपर, उसके हाथ मेरे गोरे गुलाबी गाल सहला रहे थे थे, और दूसरे हाथ ने बिना जोर जबरदस्ती के तेजी से गुदगुदी लगाई,
और मैं खिलखिला पड़ी।
“मुझे मालुम है, बबुनी जाग रही हो, मन-मन भावे, मूड़ हिलावे, आँखें खोलो…”
मुँह तो मेरा खुद ही खुल गया था लेकिन आँखें जोर से मैं भींचे रही, बस एक आँख जरा सा खोल के। दिन बस निकला था, सुनहली धूप आम के पेड़ की फुनगी पर खिलवाड़ कर रही थी, वहां पर बैठी चुहचुहिया को छेड़ रही थी। और खुली खिड़की से एक सुनहली किरन, मेरे होंठों पे, झप्प से मैंने आँखें आधी खोल दी।
सुनहली धूप के साथ, एक सुनहली बूँद, बसंती की… मेरे लरजते होंठ अपने आप खुल गए जैसे कोई सीप खुल जाए बूँद को मोती बनाने के लिए। एक, दो, तीन, चार, एक के बाद एक सुनहरी बूँदें, कुछ रुक-रुक कर, आज न मैं मना कर रही थी न नखड़ा।
थोड़ी देर में ही छर्रर, छरर, और फिर मेरे खुले होंठों के बीच बसंती ने अपने निचले होंठ सटा दिए। मेरे होंठों के बीच उसके रसीले मांसल होंठ घुसे धंसे फंसे थे। सुनहली शराब बरस रही थी। सुनहली धुप की किरणें चेहरे को नहला रही थी। पांच मिनट, दस मिनट, टाईम का किसे अंदाज था। और जब वो उठी तो मेरे गाल अभी भी थोड़े फूले थे, कुछ उसका।
बनावटी गुस्से से उसने मेरे खुले निपल मरोड़ दिए पूरी ताकत से और बोली- “भाईचोद, छिनार, रंडी की जनी, तेरे सारे मायकेवालियों की गाण्ड मारूं, घोंट जल्दी…”
और मैं सब गटक गई।
बसंती दरवाजा खोल के आंगन में चली गई और मैं पांच दस मिनट और बिस्तर पर अलसाती रही। बाहर आंगन में हलचल बढ़ गई थी। दिन चढ़ना शुरू हो गया था। अलसाते हुए मैं उठी, अपना टाप ठीक किया और ताखे के बगल में एक छोटा सा शीशा लटका हुआ था। मैंने बाल थोड़ा सा ठीक किया, ऊपर वाले होंठ पर अभी भी दो चार, सुनहरी बूंदें, चमक रही थीं। मेरी जीभ ने उसे चाट लिया, थोड़ा नमकीन थोड़ा खारा, मेरे उभार आज कुछ ज्यादा ही कसमसा रहे थे।
दरवाजा तो बंसती ने ही खोल दिया था, मैं आँगन में निकल गई।