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Erotica होली है - होली के किस्से , कोमल के हिस्से

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कोमल जी ! आप अपने आप में ही एक सम्पूर्ण पैकेज हो । आप की लेखनी और उस पर जो पिक्चर डालती हो , वो सच में फुल एरोटिक होता है ।
बहुत ही बढ़िया कोमल जी ।
 

komaalrani

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कोमल जी ! आप अपने आप में ही एक सम्पूर्ण पैकेज हो । आप की लेखनी और उस पर जो पिक्चर डालती हो , वो सच में फुल एरोटिक होता है ।
बहुत ही बढ़िया कोमल जी ।


Thanks so much bas saaath baanaye rakhiye
 

komaalrani

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देह के रंग



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मेरे उत्तेजित शिश्न को पकड़ के भी-

“इसे क्यों छिपा रहे हो, यहाँ भी तो रंग लगाना है या इसे दीदी की ननद के लिए छोड़ रखा है…”




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आगे पीछे करके सुपाड़े का चमड़ा सरका के उसने फिर तो… लाल गुस्साया सुपाड़ा, खूब मोटा…

तेल भी लगाया उसने।



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आले पर रखा कड़ुआ (सरसों) तेल भी उठा लाई वो।



अनाड़ी तो अभी भी था मैं, पर उतना शर्मीला नहीं।

कुछ भाभी की छेड़छाड़ और खुली खुली बातों ने, फिर मेडिकल की पहली साल की रैगिंग जो हुई

और अगले साल जो हम लोगों ने करवाई।

पिचकारी तो अच्छी है पर रंग वंग है कि नहीं, और इस्तेमाल करना जानते हो…

तेरी बहनों ने कुछ सिखाया भी है कि नहीं…”




उसकी छेड़छाड़ भरे चैलेंज के बाद…


उसे नीचे लिटा के मैं सीधे उसकी गोरी-गोरी मांसल किशोर जाँघों के बीच… लेकिन था तो मैं अनाड़ी ही।

उसने अपने हाथ से पकड़ के छेद पे लगाया और अपनी टाँगें खुद फैलाकर मेरे कंधे पर।

मेडिकल का स्टूडेंट इतना अनाड़ी भी नहीं था, दोनों निचले होंठों को फैलाकर मैंने पूरी ताकत से कस के, हचक के पेला…


उसकी चीख निकलते-निकलते रह गई।


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कस के उसने दाँतों से अपने गुलाबी होंठ काट लिए।

एक पल के लिए मैं रुका, लेकिन मुझे इतना अच्छा लग रहा था।

रंगों से लिपी पुती वो मेरे नीचे लेटी थी।

उसकी मस्त चूचियों पे मेरे हाथ के निशान…

मस्त होकर एक हाथ मैंने उसके रसीले जोबन पे रखा और दूसरा कमर पे



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और एक खूब करारा धक्का मारा।

“उईईई माँ…” रोकते-रोकते भी उसकी चीख निकल गई।

लेकिन अब मेरे लिए रुकना मुश्किल था।

दोनों हाथों से उसकी पतली कलाईयों को पकड़ के हचाक… धक्का मारा। एक के बाद एक… वो तड़प रही थी, छटपटा रही थी।

उसके चेहरे पे दर्द साफ झलक रहा था।

उईईई माँ ओह्ह… बस… बस्सस्स…” वह फिर चीखी।



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अबकी मैं रुक गया। मेरी निगाह नीचे गई तो मेरा 7” इंच का लण्ड आधे से ज्यादा उसकी कसी कुँवारी चूत में…


और खून की बूँदें…

अभी भी पानी से बाहर निकली मछली की तरह उसकी कमर तड़प रही थी। मैं रुक गया।


उसे चूमते हुए, उसका चेहरा सहलाने लगा। थोड़ी देर तक रुका रहा मैं।

उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें खोलीं। अभी भी उसमें दर्द तैर रहा था-


“हे रुक क्यों गए… करो ना, थक गए क्या?”



“नहीं, तुम्हें इतना दर्द हो रहा था और… वो खून…”


मैंने उसकी जाँघों की ओर इशारा किया।



“बुद्धू… तुम रहे अनाड़ी के अनाड़ी… अरे कुँवारी… अरे पहली बार किसी लड़की के साथ होगा तो दर्द तो होगा ही…

और खून भी निकलेगा ही…”

कुछ देर रुक के वो बोली-

“अरे इसी दर्द के लिए तो मैं तड़प रही थी, करो ना, रुको मत… चाहे खून खच्चर हो जाए,
चाहे मैं दर्द से बेहोश हो जाऊँ… मेरी सौगंध…”

और ये कह के उसने अपनी टाँगें मेरे चूतड़ों के पीछे कैंची की तरह बांध के कस लिया और जैसे कोई घोड़े को एंड़ दे…

मुझे कस के भींचती हुई बोली-




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“पूरा डालो ना, रुको मत… ओह… ओह… हाँ बस… ओह्ह… डाल दो अपना लण्ड, चोद दो मुझे कस के…”

बस उसके मुँह से ये बात सुनते ही मेरा जोश दूना हो गया और उसकी मस्त चूचियां पकड़ के

कस-कस के मैं सब कुछ भूल के चोदने लगा।



साथ में अब मैं भी बोल रहा था-

“ले रानी ले, अपनी मस्त रसीली चूत में मेरा मोटा लण्ड ले ले… आ रहा है ना मजा होली में चुदाने का…”

“हाँ राजा, हाँ ओह्ह… ओह्ह… चोद… चोद मुझे… दे दे अपने लण्ड का मजा ओह…”


देर तक वो चुदती रही, मैं चोदता रहा। मुझसे कम जोश उसमें नहीं था।


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पास से फाग और चौताल की मस्त आवाज गूंज रही थी।

अंदर रंग बरस रहा था, होली का, तन का, मन का… चुनर वाली भीग रही थी।

हम दोनों घंटे भर इसी तरह एक दूसरे में गुथे रहे और जब मेरी पिचकारी से रंग बरसा…


तो वह भीगती रही, भीगती रही। साथ में वह भी झड़ रही थी, बरस रही थी।

थक कर भी हम दोनों एक दूसरे को देखते रहे,

उसके गुलाबी रतनारे नैनों की पिचकारी का रंग बरस-बरस कर भी चुकने का नाम नहीं ले रहा था।

उसने मुश्कुरा के मुझे देखा, मेरे नदीदे प्यासे होंठ, कस के चूम लिया मैंने उसे… और फिर दुबारा।

मैं तो उसे छोड़ने वाला नहीं था लेकिन जब उसने रात में फिर मिलने का वादा किया,

अपनी सौगंध दी तो मैंने छोड़ा उसे। फिर कहाँ नींद लगने वाली थी।


नींद चैन सब चुरा के ले गई थी चुनर वाली।



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कुछ देर में वो, भाभी और उनकी सहेलियों की हँसती खिलखिलाती टोली के साथ लौटी।

सब मेरे पीछे पड़ी थीं कि मैंने किससे डलवा लिया और सबसे आगे वो थी… चिढ़ाने में।


मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।
 
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रंग रसिया










मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।


रात में आंगन में देर तक छनन मनन होता रहा।

गुझिया, समोसे, पापड़… होली के तो कितने दिन पहले से हर रात कड़ाही चढ़ी रहती है। वो भी सबके साथ।


वहीं आंगन में मैंने खाना भी खाया फिर सूखा खाना कैसे होता जम के गालियां हुयीं


और उसमें भी सबसे आगे वो… हँस-हँसकर वो।

तेरी अम्मा छिनार तेरी बहना छिनार,

जो तेल लगाये वो भी छिनाल जो दूध पिलाये वो भी छिनाल,
अरे तेरी बहना को ले गया ठठेरा मैंने आज देखा।





एक खतम होते ही वो दूसरा छेड़ देती।

कोई हँसकर लेला कोई कस के लेला।

कोई धई धई जोबना बकईयें लेला
कोई आगे से लेला कोई पीछे से ले ला तेरी बहना छिनाल।

देर रात गये वो जब बाकी लड़कियों के साथ वो अपने घर को लौटी तो मैं एकदम निराश हो गया


की उसने रात का वादा किया था…

लेकिन चलते-चलते भी उसकी आँखों ने मेरी आँखों से वायदा किया था की,








जब सब सो गये थे तब भी मैं पलंग पे करवट बदल रहा था।

तब तक पीछे के दरवाजे पे हल्की सी आहट हुई, फिर चूड़ियों की खनखनाहट… मैं तो कान फाड़े बैठा ही था। झट से दरवाजा खोल दिया।

पीली साड़ी में वो दूधिया चांदनी में नहायी मुश्कुराती…





उसने झट से दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो उसने उंगली से मेरे होंठों पे को चुप करा दिया।

लेकिन मैंने उसे बाहों में भर लिया फिर होंठ तो चुप हो गये लेकिन बाकी सब कुछ बोल रहा था,

हमारी आँखें, देह सब कुछ मुँह भर बतिया रहे थे।



हम दोनों अपने बीच किसी और को कैसे देख सकते थे तो देखते-देखते कपड़े दूरियों की तरह दूर हो गये।

फागुन का महीना और होली ना हो…

मेरे होंठ उसके गुलाल से गाल से…

और उसकी रस भरी आँखें पिचकारी की धार…


मेरे होंठ सिर्फ गालों और होंठों से होली खेल के कहां मानने वाले थे,

सरक कर गदराये गुदाज रस छलकाते जोबन के रस कलशों का भी वो रस छलकाने लगे।





और जब मेरे हाथ रूप कलसों का रस चख रहे थे तो होंठ केले क खंभों सी चिकनी जांघों के बीच प्रेम गुफा में रस चख रहे थे।

वो भी कस के मेरी देह को अपनी बांहों में बांधे, मेरे उत्थित्त उद्दत्त चर्म दंड को

कभी अपने कोमल हाथों से कभी ढीठ दीठ से रंग रही थी।





दिन की होली के बाद हम उतने नौसिखिये तो नहीं रह गये थे।

जब मैं मेरी पिचकारी… सब सुध बुध खोकर हम जम के होली खेल रहे थे तन की होली मन की होली।

कभी वो ऊपर होती कभी मैं।

कभी रस की माती वो अपने मदमाते जोबन मेरी छाती से रगड़ती और कभी मैं उसे कचकचा के काट लेता।






जब रस झरना शुरू हुआ तो बस… न वो थी न मैं सिर्फ रस था रंग था, नेह था।


एक दूसरे की बांहों में हम ऐसे ही लेटे थे की उसने मुझे एकदम चुप रहने का इशारा किया।

बहुत हल्की सी आवाज बगल के कमरे से आ रही थी।

भाभी की और उनकी भाभी की।

मैंने फिर उसको पकड़ना चाहा तो उसने मना कर दिया।

कुछ देर तक जब बगल के कमरे से हल्की आवाजें आती रहीं तो उसने अपने पैर से झुक के पायल निकाल ली और मुझसे एकदम दबे पांव बाहर निकलने के लिये कहा।

हम बाग में आ गये, घने आम के पेडों के झुरमुट में।

एक चौड़े पेड़ के सहारे मैंने उसे फिर दबोच लिया।

जो होली हम अंदर खेल रहे थे अब झुरमुट में शुरू हो गई।






चांदनी से नहायी उसकी देह को कभी मैं प्यार से देखता, कभी सहलाता, कभी जबरन दबोच लेता।

और वो भी कम ढीठ नहीं थी।

कभी वो ऊपर कभी मैं… रात भर उसके अंदर मैं झरता रहा, उसकी बांहों के बंध में बंधा और हम दोनों के ऊपर…



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आम के बौर झरते रहे, पास में महुआ चूता रहा और उसकी मदमाती महक में चांदनी में डूबे हम नहाते रहे।



रात गुजरने के पहले हम कमरे में वापस लौटे।

वो मेरे बगल में बैठी रही, मैंने लाख कहा लेकिन वो बोली- “तुम सो जाओगे तो जाऊँगी…”

कुछ उस नये अनुभव की थकान, कुछ उसके मुलायम हाथों का स्पर्श… थोड़ी ही देर में मैं सो गया।

जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।

अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने। मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।
 
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सुबह -सबेरे

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जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।


अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने।


मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।


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जब मैंने मुँह धोने के लिये शीशे में देखा तो माजरा साफ हुआ।




मेरे माथे पे बड़ी सी बिंदी, आँखों में काजल, होंठों पे गाढ़ी सी लिपस्टीक…


मैं समझ गया किसकी शरारत थी।


तब तक उसकी आवाज सुनायी पड़ी, वो भाभी से कह रही थी-


“देखिये दीदी… मैं आपसे कह रही थी ना की ये इतना शरमाते हैं जरूर कहीं कोई गड़बड़ है? ये देवर नहीं ननद लगते हैं मुझे तो। देखिये रात में असली शकल सामने आ गई…”

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मैंने उसे तरेर कर देखा।

तिरछी कटीली आँखों से उस मृगनयनी ने मुझे मुश्कुरा के देखा और अपनी सहेलियों से बोली-





“लेकिन देखो ना सिंगार के बाद कितना अच्छा रूप निखर आया है…”

“अरे तुझे इतना शक है तो खोल के चेक क्यों नहीं कर लेती…”


चंपा भाभी ने उसे छेड़ा।


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“अरे भाभी खोलूंगी भी चेक भी करुंगी…”

घंटियों की तरह उसकी हँसी गूंज गई।

रगड़-रगड़ के मुँह अच्छी तरह मैंने साफ किया। मैं अंदर जाने लगा की चंपा भाभी (भाभी की भाभी) ने टोका-

“अरे लाला रुक जाओ, नाश्ता करके जाओ ना तुम्हारी इज्जत पे कोई खतरा नहीं है…”

खाने के साथा गाना और फिर होली के गाने चालू हो गये। किसी ने भाभी से कहा- “


मैंने सुना है की बिन्नो तेरा देवर बड़ा अच्छा गाता है…”

कोई कुछ बोले की मेरे मुँह से निकल गया की पहले उर्मी सुनाये।

और फिर भाभी बोल पड़ीं की आज सुबह से बहुत सवाल जवाब हो रहा है? तुम दोनों के बीच क्या बात है?

फिर तो जो ठहाके गूंजे… हम दोनों के मुँह पे जैसे किसी ने एक साथ इंगुर पोत दिया हो।


किसी ने होरी की तान छेड़ी, फिर चौताल लेकिन मेरे कान तो बस उसकी आवाज के प्यासे थे।

आँखें बार-बार उसके पास जाके इसरार कर रही थीं, आखिर उसने भी ढोलक उठायी… और फिर तो वो रंग बरसे-


मत मारो लला पिचकारी, भीजे तन सारी।
पहली
पिचकारी मोरे, मोरे मथवा पे मारी,

मोरे बिंदी के रंग बिगारी भीजे तन सारी।

दूसरी पिचकारी मोरी चूनरी पे मारी,

मोरी चूनरी के रंग बिगारी, भीजै तन सारी।
तीजी
पिचकारी मोरी अंगिया पे मारी,

मोरी चोली के रंग बिगारी, भीजै तन सारी।

जब वो अपनी बड़ी बड़ी आँखें उठा के बांकी चितवन से देखती तो लगता था उसने पिचकारी में रंग भर के कस के उसे खींच लिया है।

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और जब गाने के लाइन पूरी करके वो हल्के से तिरछी मुश्कान भरती तो लगता था की बस

छरछरा के पिचकारी के रंग से तन बदन भीग गया है और मैं खड़ा खड़ा सिहर रहा हूं।

गाने से कैसे होली शुरू हो गई पता नहीं, भाभी, उनकी बहनों, सहेलियों, भाभियों सबने मुझे घेर लिया।

लेकिन मैं भी अकेले…

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मैं एक के गाल पे रंग मलता तो तो दो मुझे पकड़ के रगड़ती…


लेकिन मैं जिससे होली खेलना चाहता था तो वो तो दूर सूखी बैठी थी, मंद-मंद मुश्कुराती।

सबने उसे उकसाया, सहेलियों ने उसकी भाभियों ने…


आखीर में भाभी ने मेरे कान में कहा और

होली खेलते खेलते उसके पास में जाके बाल्टी में भरा गाढ़ा लाल उठा के सीधे उसके ऊपर।




वो कुछ मुश्कुरा के कुछ गुस्से में कुछ बन के बोली- “ये ये… देखिये मैंने गाना सुनाया और आपने…”


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“अरे ये बात हो तो मैं रंग लगाने के साथ गाना भी सुना देता हूँ लेकिन गाना कुछ ऐसा वैसा हो तो बुरा मत मानना…”

“मंजूर…”

“और मैं जैसा गाना गाऊँगा वैसे ही रंग भी लगाऊँगा…”

“मंजूर…” उसकी आवाज सबके शोर में दब गई थी।

मैं उसे खींच के आंगन में ले आया था।


लली आज होली चोली मलेंगे,
गाल
पे गुलाल… छातीयां धर डालेंगे,
लली
आज होली में
जोबन।


गाने के साथ मेरे हाथ भी गाल से उसके चोली पे पहले ऊपर से फिर अंदर।

भाभी ने जो गुझिया खिलायीं उनमें लगता है जबर्दस्त भांग थी।


हम दोनों बेशरम हो गये थे सबके सामने।


अब वो कस-कस के रंग लगा रही थी, मुझे रगड़ रही थी।


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रंग तो कितने हाथ मेरे चेहरे पे लगा रहे थे

लेकिन महसूस मुझे सिर्फ उसी का हाथ हो रहा था। मैंने उसे दबोच लिया, आंचल उसका ढलक गया था।

पहले तो चोली के ऊपर से फिर चोली के अंदर, और वो भी ना ना करते खुल के हँस-हँसकर दबवा, मलवा रही थी।



लेकिन कुछ देर में उसने अपनी सहेलियों को ललकारा और भाभी की सहेलियां, बहनें, भाभियां…


फिर तो कुर्ता फाड़ होली चालू हो गई। एक ने कुर्ते की एक बांह पकड़ी और दूसरे ने दूसरी।

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कपड़ा फाड़ होली



मैं चिल्लाया- “हे फाड़ने की नहीं होती…”

वो मुश्कुरा के मेरे कान में बोली- “तो क्या तुम्हीं फाड़ सकते हो…”


मैं बनियान पाजामें में हो गया। उसने मेरी भाभी से बनियाइन की ओर इशारा करके कहा-



“दीदी, चोली तो उतर गई अब ये बाडी, ब्रा भी उतार दो…”

“एकदम…” भाभी बोलीं।



मैं क्या करता। मेरे दोनों हाथ भाभी की भाभियों ने कस के पकड़ रखे थे। वो बड़ी अदा से पास आयी। अपना आंचल हल्का सा ढलका के रंग में लथपथ अपनी चोली मेरी बनियान से रगड़ा।


मैं सिहर गया।



एक झटके में उसने मेरी बनियाइन खींच के फाड़ दी।

और कहा- “टापलेश करके रगड़ने में असली मजा क्या थोड़ा… थोड़ा अंदर चोरी से हाथ डाल के…"

फिर तो सारी लड़कियां औरतें, कोई कालिख कोई रंग। और इस बीच चम्पा भाभी ने पजामे के अंदर भी हाथ डाल दिया। जैसे ही मैं चिहुंका, पीछे से एक और किसी औरत ने पहले तो नितम्बों पर कालिख फिर सीधे बीच में।



भाभी समझ गई थीं। वो बोली- “क्यों लाला आ रहा है मजा ससुराल में होली का…”


उसने मेरे पाजामे का नाड़ा पकड़ लिया। भाभी ने आंख दबा के इशारा किया और उसने एक बार में ही।

उसकी सहेलियां भाभियां जैसे इस मौके के लिये पहले से तैयार थीं। एक-एक पायचें दो ने पकडे और जोर से खींचकर… सिर्फ यही नहीं उसे फाड़ के पूरी ताकत से छत पे जहां मेरा कुर्ता बनियाइन पहले से।



अब तो सारी लड़कियां औरतों ने पूरी जोश में… मेरी डोली बना के एक रंग भरे चहबच्चे में डाल दिया। लड़कियों से ज्यादा जोश में औरतें ऐसे गाने बातें।



मेरी दुर्दसा हो रही थी लेकिन मजा भी आ रहा था। वो और देख-देख के आंखों ही आंखों में चिढ़ाती।



जब मैं बाहर निकला तो सारी देह रंग से लथपथ। सिर्फ छोटी सी चड्ढी और उसमें भी बेकाबू हुआ मेरा तंबू तना हुआ।



चंपा भाभी बोली-

“अरे है कोई मेरी छिनाल ननद जो इसका चीर हरण पूरा करे…”





भाभी ने भी उसे ललकारा,

बहुत बोलती थी ना की देवर है की ननद तो आज खोल के देख लो।




वो सहम के आगे बढ़ी। उसने झिझकते हुए हाथ लगाया। लेकिन तब तक दो भाभियों ने एक झटके में खींच दिया। और मेरा एक बित्ते का पूरा खड़।



अब तो जो बहादुर बन रही थी वो औरतें भी सरमाने लगीं।

मुझे इस तरह से पकड़ के रखा था की मैं कसमसा रहा था। वो मेरी हालत समझ रही थी।
तब तक उसकी नजर डारे पे टंगे चंपा भाभी के साये पे पड़ी। एक झटके में उसने उसे खींच लिया और मुझे पहनाते हुये बोली-

“अब जो हमारे पास है वही तो पहना सकते हैं…”

और भाभी से बोली-

“ठीक है दीदी, मान गये की आपका देवर देवर ही है लेकिन हम लोग अब मिल के उसे ननद बना देते हैं…”





“एकदम…” उसकी सारी सहेलियां बोलीं।


 
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“ठीक है दीदी, मान गये की आपका देवर देवर ही है लेकिन हम लोग अब मिल के उसे ननद बना देते हैं…”

रसिया को नारि बनाऊँगी





“एकदम…” उसकी सारी सहेलियां बोलीं।



फिर क्या था कोई चूनरी लाई कोई चोली। उसने गाना शुरू किया-






रसिया को नारि बनाऊँगी रसिया को

सर पे उढ़ाई सबुज रंग चुनरी,


पांव महावर सर पे बिंदी अरे।

अरे जुबना पे चोली
पहनाऊँगी।



साथ-साथ में उसकी सहेलियां, भाभियां मुझे चिढ़ा-चिढ़ा के गा रही थीं। कोई कलाइयों में चूड़ी पहना रही थी तो कोई अपने पैरों से पायल और बिछुये निकाल के। एक भाभी ने तो करधनी पहना दी तो दूसरी ने कंगन। भाभी भी… वो बोलीं- “ब्रा तो ये मेरी पहनता ही है…” और अपनी ब्रा दे दी।



चंपा भाभी की चोली… उर्मी की छोटी बहन रूपा अंदर से मेकप का सामान ले आयी और होंठों पे खूब गाढ़ी लाल लिपिस्टक और गालों पे रूज लगाने लगी तो उसकी एक सहेली नेल पालिश और महावर लगाने लगी। थोड़ी ही देर में सबने मिल के सोलह सिंगार कर दिया।



चंपा भाभी बोलीं- “अब लग रहा है ये मस्त माल। लेकिन सिंदूर दान कौन करेगा?”



कोई कुछ बोलता उसके पहले ही उर्मी ने चुटकी भर के… सीधे मेरी मांग में। कुछ छलक के मेरी नाक पे गिर पड़ा। वो हँसकर बोली- “अच्छा शगुन है… तेरा दूल्हा तुझे बहुत प्यार करेगा…”



हम दोनों की आंखों से हँसी छलक गई।



अरे इस नयी दुलहन को जरा गांव का दर्शन तो करा दें। फिर तो सब मिल के गांव की गली डगर… जगह जगह और औरतें, लड़कियां, रंग कीचड़, गालियां, गानें।



किसी ने कहा- “अरे जरा नयी बहुरिया से तो गाना सुनवाओ…”



मैं क्या गाता, लेकिन उर्मी बोली- “अच्छा चलो हम गातें है तुम भी साथ-साथ…” सबने मिल के एक फाग छेड़ा-



रसरंग में टूटल झुलनिया

रस लेते छैला बरजोरी, मोतिन लर तोरी।


मोसो बोलो ना प्यारे… मोतिन लर तोरी।



सबके साथ मैं भी… तो एक औरत बोली- “अरे सुहागरात तो मना लो…” और फिर मुझे झुका के… पहले चंपा भाभी फिर एक दो और औरतें।



कोई बुजुर्ग औरत आईं तो सबने मिल के मुझे जबरन झुका के पैर भी छुलवाया तो वो आशीष में बोलीं- “अरे नवें महीने सोहर हो… दूधो नहाओ पूतो फलो। बच्चे का बाप कौन होगा?”



तो एक भाभी बोलीं- “अरे ये हमारी ननद की ससुराल वाली सब छिनाल हैं, जगह-जगह…”



तो वो बोली- “अरे लेकिन सिंदूर दान किसने किया है नाम तो उसी का होगा, चाहे ये जिससे मरवाये…”



सबने मिल के उर्मी को आगे कर दिया। इतने में ही बचत नहीं हुई। बच्चे की बात आई तो उसकी भी पूरी ऐक्टिंग… दूध पिलाने तक।



फागुन दिन रात बरसता। और उर्मी तो… बस मन करता था कि वो हरदम पास में रहे… हम मुँह भर बतियाते… कुछ नहिं तो बस कभी बगीचे में बैठ के कभी तालाब के किनारे… और होली तो अब जब वह मुझे छेड़ती तो मैं कैसे चुप रहता… जिस सुख से उसने मेरा परिचय करा दिया था। तन की होली मन की होली… मेरा मन तो सिर्फ उसी के साथ… लेकिन वह खुद मुझे उकसाती।
 

komaalrani

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फागुन


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फागुन दिन रात बरसता। और उर्मी तो…


बस मन करता था कि वो हरदम पास में रहे… हम मुँह भर बतियाते…


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कुछ नहिं तो बस कभी बगीचे में बैठ के कभी तालाब के किनारे… और होली तो अब जब वह मुझे छेड़ती तो मैं कैसे चुप रहता… जिस सुख से उसने मेरा परिचय करा दिया था। तन की होली मन की होली… मेरा मन तो सिर्फ उसी के साथ…

लेकिन वह खुद मुझे उकसाती।



एक दिन उसकी छोटी बहन रूपा… हम दोनों साथ-साथ बैठे थे सर पे गुलाल छिड़क के भाग गई।

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मैं कुछ नहीं बोला।

वो दोनों हाथों में लाल रंग लेकर मेरे गालों पे।



उर्मी ने मुझे लहकाया।



जब मैंने पकड़ के गालों पे हल्का सा रंग लगाया तो मुझे जैसे चुनौती देते हुए, रूपा ने अपने उभार उभारकर दावत दी।



मैंने जब कुछ नहीं किया तो उर्मी बोली-

“अरे मेरी छोटी बहन है, रुक क्यों गये मेरी तो कोई जगह नहीं छोड़ते…और खुद उसका दुप्पटा खींच के दूर फेंक दिया, कान में बोली तेरी साली लगेगी ”

फिर क्या था मेरे हाथ गाल से सरक कर।



रूपा भी बिना हिचके अपने छोटे छोटे।

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पर उर्मी… उसे शायद लगा की मैं अभी भी हिचक रहा हूँ, बोली- “अरे कपड़े से होली खेल रहे हो या साली से। मैं तेरे भैया की साल्ली हूँ तो ये तुम्हारी…”



मैं बोला- “अभी बच्ची है इसलिये माफ कर दिया…”

वो दोनों एक साथ बोलीं- “चेक करके तो देखो…”


फिर क्या था… मेरे हाथ कुर्ते के अंदर कच्चे उभरते हुए उभारों का रस लेने लगे, रंग लगाने के बहाने।

उर्मी ने पास आके उसका कान पकड़ा और बोली- “क्यों बहुत चिढ़ाती थी ना मुझे, दीदी कैसे लगता है तो अब तू बोल कैसे लग रहा है?”


वो हँसकर बोली- “बहुत अच्छा दीदी… अब समझ में आया की क्यों तुम इनसे हरदम चिपकी रहती हो…” और छुड़ा के हँसती हुई ये जा… वो जा।



दिन सोने के तार की तरह खिंच रहे थे।

मैं दो दिन के लिये आया था चार दिन तक रुका रहा। भाभी कहती- “सब तेरी मुरली की दीवानी हैं…”

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मैं कहता- “लेकिन भाभी अभी आपने तो हाथ नहीं लगाया, मैं तो इतने दिन से आपसे…”



तो वो हँसकर कहतीं-

“अरे तेरे भैया की मुरली से ही छुट्टी नहीं मिलती। और यहां तो हैं इतनी… लेकिन चल तू इतना कहता है तो होली के दिन हाथ क्या सब कुछ लगा दूंगी…”



और फिर जाने के दिन… उर्मी अपनी किसी सहेली से बात कर रही थी।

होली के अगले दिन ही उसका गौना था। मैं रुक गया और उन दोनों की बात सुनने लगा। उसकी सहेली उसके गौने की बात करके छेड़ रही थी। वो उसके गुलाबी गालों पे चिकोटी काट के बोली-


“अरे अबकी होली में तो तुझे बहुत मजा आयेगा। असली पिचकारी तो होली के बाद चलेगी… है ना?”



“अरे अपनी होली तो हो ली। होली आज जरे चाहे, काल जरे फागुन में पिया…”

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उसकी आवाज में अजब सी उदासी थी। मेरी आहट सुन के दोनों चुप हो गई।



मैं अपना सूट्केस ढूँढ़ रहा था। भाभी से पूछा तो उन्होंने मुश्कुरा के कहा- “आने पे तुमने जिसको दिया था उसी से मांगों…”



मैंने बहुत चिरौरी मिनती की तो जाके सूटकेस मिला लेकिन सारे कपड़ों की हालत… रंग लगे हाथ के थापे, आलू के ठप्पों से गालियां और सब पे मेरी बहन का नाम ले लेकर एक से एक गालियां…



वो हँसकर बोली- “अब ये पहन के जाओ तो ये पता चलेगा की किसी से होली खेल के जा रहे हो…” मजबूरी मेरी… भाभी थोड़ी आगे निकल गई तो मैं थोड़ा ठहर गया उर्मी से चलते-चलते बात करने को।



“अबकी नहीं बुलाओगी…” मैंने पूछा।



“उहुं…” उसका चेहरा बुझा बुझा सा था- “तुमने आने में देर कर दी…” वो बोली और फिर कहा- “लेकिन चलो जिसकी जितनी किश्मत… कोई जैसे जाता है ना तो उसे रास्ते में खाने के लिये देते हैं तो ये तुम्हारे साथ बिताये चार दिन… साथ रहेंगें…”



मैं चुप खड़ा रहा।



अचानक उसने पीठ के पीछे से अपने हाथ निकाले और मेरे चेहरे पे गाढ़ा लाल पीला रंग… और पास में रखे लोटे में भरा गाढ़ा गुलाबी रंग… मेरी सफेद शर्ट पे और बोली-

“याद रखना ये होली…”



मैं बोला- “एकदम…”

तब तक किसी की आवाज आयी- “हे लाला जल्दी करो बस निकल जायेगी…”

रास्ते भर कच्ची पक्की झूमती गेंहूँ की बालियों, पीली-पीली सरसों के बीच उसकी मुश्कान।
 
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