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Erotica होली है - होली के किस्से , कोमल के हिस्से

Shetan

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कोमल जी ! आप अपने आप में ही एक सम्पूर्ण पैकेज हो । आप की लेखनी और उस पर जो पिक्चर डालती हो , वो सच में फुल एरोटिक होता है ।
बहुत ही बढ़िया कोमल जी ।
Real erotic romantic padhna he to inki mohe rang de padho. Dill khush ho jaega. Ek ek ward sidha dill me utarte chale jaega
 

Shetan

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रंग रसिया










मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।


रात में आंगन में देर तक छनन मनन होता रहा।

गुझिया, समोसे, पापड़… होली के तो कितने दिन पहले से हर रात कड़ाही चढ़ी रहती है। वो भी सबके साथ।


वहीं आंगन में मैंने खाना भी खाया फिर सूखा खाना कैसे होता जम के गालियां हुयीं


और उसमें भी सबसे आगे वो… हँस-हँसकर वो।

तेरी अम्मा छिनार तेरी बहना छिनार,

जो तेल लगाये वो भी छिनाल जो दूध पिलाये वो भी छिनाल,
अरे तेरी बहना को ले गया ठठेरा मैंने आज देखा।





एक खतम होते ही वो दूसरा छेड़ देती।

कोई हँसकर लेला कोई कस के लेला।

कोई धई धई जोबना बकईयें लेला
कोई आगे से लेला कोई पीछे से ले ला तेरी बहना छिनाल।

देर रात गये वो जब बाकी लड़कियों के साथ वो अपने घर को लौटी तो मैं एकदम निराश हो गया


की उसने रात का वादा किया था…

लेकिन चलते-चलते भी उसकी आँखों ने मेरी आँखों से वायदा किया था की,








जब सब सो गये थे तब भी मैं पलंग पे करवट बदल रहा था।

तब तक पीछे के दरवाजे पे हल्की सी आहट हुई, फिर चूड़ियों की खनखनाहट… मैं तो कान फाड़े बैठा ही था। झट से दरवाजा खोल दिया।

पीली साड़ी में वो दूधिया चांदनी में नहायी मुश्कुराती…





उसने झट से दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो उसने उंगली से मेरे होंठों पे को चुप करा दिया।

लेकिन मैंने उसे बाहों में भर लिया फिर होंठ तो चुप हो गये लेकिन बाकी सब कुछ बोल रहा था,

हमारी आँखें, देह सब कुछ मुँह भर बतिया रहे थे।



हम दोनों अपने बीच किसी और को कैसे देख सकते थे तो देखते-देखते कपड़े दूरियों की तरह दूर हो गये।

फागुन का महीना और होली ना हो…

मेरे होंठ उसके गुलाल से गाल से…

और उसकी रस भरी आँखें पिचकारी की धार…


मेरे होंठ सिर्फ गालों और होंठों से होली खेल के कहां मानने वाले थे,

सरक कर गदराये गुदाज रस छलकाते जोबन के रस कलशों का भी वो रस छलकाने लगे।





और जब मेरे हाथ रूप कलसों का रस चख रहे थे तो होंठ केले क खंभों सी चिकनी जांघों के बीच प्रेम गुफा में रस चख रहे थे।

वो भी कस के मेरी देह को अपनी बांहों में बांधे, मेरे उत्थित्त उद्दत्त चर्म दंड को

कभी अपने कोमल हाथों से कभी ढीठ दीठ से रंग रही थी।





दिन की होली के बाद हम उतने नौसिखिये तो नहीं रह गये थे।

जब मैं मेरी पिचकारी… सब सुध बुध खोकर हम जम के होली खेल रहे थे तन की होली मन की होली।

कभी वो ऊपर होती कभी मैं।

कभी रस की माती वो अपने मदमाते जोबन मेरी छाती से रगड़ती और कभी मैं उसे कचकचा के काट लेता।






जब रस झरना शुरू हुआ तो बस… न वो थी न मैं सिर्फ रस था रंग था, नेह था।


एक दूसरे की बांहों में हम ऐसे ही लेटे थे की उसने मुझे एकदम चुप रहने का इशारा किया।

बहुत हल्की सी आवाज बगल के कमरे से आ रही थी।

भाभी की और उनकी भाभी की।

मैंने फिर उसको पकड़ना चाहा तो उसने मना कर दिया।

कुछ देर तक जब बगल के कमरे से हल्की आवाजें आती रहीं तो उसने अपने पैर से झुक के पायल निकाल ली और मुझसे एकदम दबे पांव बाहर निकलने के लिये कहा।

हम बाग में आ गये, घने आम के पेडों के झुरमुट में।

एक चौड़े पेड़ के सहारे मैंने उसे फिर दबोच लिया।

जो होली हम अंदर खेल रहे थे अब झुरमुट में शुरू हो गई।






चांदनी से नहायी उसकी देह को कभी मैं प्यार से देखता, कभी सहलाता, कभी जबरन दबोच लेता।

और वो भी कम ढीठ नहीं थी।

कभी वो ऊपर कभी मैं… रात भर उसके अंदर मैं झरता रहा, उसकी बांहों के बंध में बंधा और हम दोनों के ऊपर…



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आम के बौर झरते रहे, पास में महुआ चूता रहा और उसकी मदमाती महक में चांदनी में डूबे हम नहाते रहे।



रात गुजरने के पहले हम कमरे में वापस लौटे।

वो मेरे बगल में बैठी रही, मैंने लाख कहा लेकिन वो बोली- “तुम सो जाओगे तो जाऊँगी…”

कुछ उस नये अनुभव की थकान, कुछ उसके मुलायम हाथों का स्पर्श… थोड़ी ही देर में मैं सो गया।

जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।

अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने। मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।
Ufff prem ka dhudh ka pyala or sath kamukhta ka shahed. Esa hi kuchh kiya he aap ne komalji. Dill to aap pahele hi jeet chuki ho.
 

Shetan

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रंग रसिया










मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।


रात में आंगन में देर तक छनन मनन होता रहा।

गुझिया, समोसे, पापड़… होली के तो कितने दिन पहले से हर रात कड़ाही चढ़ी रहती है। वो भी सबके साथ।


वहीं आंगन में मैंने खाना भी खाया फिर सूखा खाना कैसे होता जम के गालियां हुयीं


और उसमें भी सबसे आगे वो… हँस-हँसकर वो।

तेरी अम्मा छिनार तेरी बहना छिनार,

जो तेल लगाये वो भी छिनाल जो दूध पिलाये वो भी छिनाल,
अरे तेरी बहना को ले गया ठठेरा मैंने आज देखा।





एक खतम होते ही वो दूसरा छेड़ देती।

कोई हँसकर लेला कोई कस के लेला।

कोई धई धई जोबना बकईयें लेला
कोई आगे से लेला कोई पीछे से ले ला तेरी बहना छिनाल।

देर रात गये वो जब बाकी लड़कियों के साथ वो अपने घर को लौटी तो मैं एकदम निराश हो गया


की उसने रात का वादा किया था…

लेकिन चलते-चलते भी उसकी आँखों ने मेरी आँखों से वायदा किया था की,








जब सब सो गये थे तब भी मैं पलंग पे करवट बदल रहा था।

तब तक पीछे के दरवाजे पे हल्की सी आहट हुई, फिर चूड़ियों की खनखनाहट… मैं तो कान फाड़े बैठा ही था। झट से दरवाजा खोल दिया।

पीली साड़ी में वो दूधिया चांदनी में नहायी मुश्कुराती…





उसने झट से दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो उसने उंगली से मेरे होंठों पे को चुप करा दिया।

लेकिन मैंने उसे बाहों में भर लिया फिर होंठ तो चुप हो गये लेकिन बाकी सब कुछ बोल रहा था,

हमारी आँखें, देह सब कुछ मुँह भर बतिया रहे थे।



हम दोनों अपने बीच किसी और को कैसे देख सकते थे तो देखते-देखते कपड़े दूरियों की तरह दूर हो गये।

फागुन का महीना और होली ना हो…

मेरे होंठ उसके गुलाल से गाल से…

और उसकी रस भरी आँखें पिचकारी की धार…


मेरे होंठ सिर्फ गालों और होंठों से होली खेल के कहां मानने वाले थे,

सरक कर गदराये गुदाज रस छलकाते जोबन के रस कलशों का भी वो रस छलकाने लगे।





और जब मेरे हाथ रूप कलसों का रस चख रहे थे तो होंठ केले क खंभों सी चिकनी जांघों के बीच प्रेम गुफा में रस चख रहे थे।

वो भी कस के मेरी देह को अपनी बांहों में बांधे, मेरे उत्थित्त उद्दत्त चर्म दंड को

कभी अपने कोमल हाथों से कभी ढीठ दीठ से रंग रही थी।





दिन की होली के बाद हम उतने नौसिखिये तो नहीं रह गये थे।

जब मैं मेरी पिचकारी… सब सुध बुध खोकर हम जम के होली खेल रहे थे तन की होली मन की होली।

कभी वो ऊपर होती कभी मैं।

कभी रस की माती वो अपने मदमाते जोबन मेरी छाती से रगड़ती और कभी मैं उसे कचकचा के काट लेता।






जब रस झरना शुरू हुआ तो बस… न वो थी न मैं सिर्फ रस था रंग था, नेह था।


एक दूसरे की बांहों में हम ऐसे ही लेटे थे की उसने मुझे एकदम चुप रहने का इशारा किया।

बहुत हल्की सी आवाज बगल के कमरे से आ रही थी।

भाभी की और उनकी भाभी की।

मैंने फिर उसको पकड़ना चाहा तो उसने मना कर दिया।

कुछ देर तक जब बगल के कमरे से हल्की आवाजें आती रहीं तो उसने अपने पैर से झुक के पायल निकाल ली और मुझसे एकदम दबे पांव बाहर निकलने के लिये कहा।

हम बाग में आ गये, घने आम के पेडों के झुरमुट में।

एक चौड़े पेड़ के सहारे मैंने उसे फिर दबोच लिया।

जो होली हम अंदर खेल रहे थे अब झुरमुट में शुरू हो गई।






चांदनी से नहायी उसकी देह को कभी मैं प्यार से देखता, कभी सहलाता, कभी जबरन दबोच लेता।

और वो भी कम ढीठ नहीं थी।

कभी वो ऊपर कभी मैं… रात भर उसके अंदर मैं झरता रहा, उसकी बांहों के बंध में बंधा और हम दोनों के ऊपर…



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आम के बौर झरते रहे, पास में महुआ चूता रहा और उसकी मदमाती महक में चांदनी में डूबे हम नहाते रहे।



रात गुजरने के पहले हम कमरे में वापस लौटे।

वो मेरे बगल में बैठी रही, मैंने लाख कहा लेकिन वो बोली- “तुम सो जाओगे तो जाऊँगी…”

कुछ उस नये अनुभव की थकान, कुछ उसके मुलायम हाथों का स्पर्श… थोड़ी ही देर में मैं सो गया।

जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।

अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने। मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।
Kahani khubshurat to najrana to banta he.

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Real erotic romantic padhna he to inki mohe rang de padho. Dill khush ho jaega. Ek ek ward sidha dill me utarte chale jaega
कोमल जी का मै तब से फैन हूं जब उनकी कहानी " फागुन के दिन चार " पढ़ा था। उसके बाद " जोरू का गुलाम " कहानी जिसे तब तक शायद एक सौ के आसपास अपडेट आ चुके थे।
लेकिन फोरम के बंद होने के बाद पता नही ऐसा किस्मत ने कौन सा खेल दिखाया कि चाहकर भी उनके थ्रीड पर न आ सका।
कोमल जी को कुछ भी साबित नही करना है कि वो क्या है और इरोटिका लिखने मे क्या हस्ती रखती है । वो लिजेंड है। वो अद्भुत है।
शायद नये राइटर्स को मोटिवेट करने के चक्कर मे उनके थ्रीड पर समय नही दे सका।
ए पी भाई की कहानी के चौथे पार्ट से ही जुड़ा। जबकि तीन पार्ट पढ़ा ही नही है।
कभी न कभी तो जरूर कोमल जी के साथ उनके थ्रीड पर मौजूद रहूंगा। बस वक्त की बात है।
 

Shetan

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कोमल जी का मै तब से फैन हूं जब उनकी कहानी " फागुन के दिन चार " पढ़ा था। उसके बाद " जोरू का गुलाम " कहानी जिसे तब तक शायद एक सौ के आसपास अपडेट आ चुके थे।
लेकिन फोरम के बंद होने के बाद पता नही ऐसा किस्मत ने कौन सा खेल दिखाया कि चाहकर भी उनके थ्रीड पर न आ सका।
कोमल जी को कुछ भी साबित नही करना है कि वो क्या है और इरोटिका लिखने मे क्या हस्ती रखती है । वो लिजेंड है। वो अद्भुत है।
शायद नये राइटर्स को मोटिवेट करने के चक्कर मे उनके थ्रीड पर समय नही दे सका।
ए पी भाई की कहानी के चौथे पार्ट से ही जुड़ा। जबकि तीन पार्ट पढ़ा ही नही है।
कभी न कभी तो जरूर कोमल जी के साथ उनके थ्रीड पर मौजूद रहूंगा। बस वक्त की बात है।
Ohh to purane kadardan ho. Chalo badhiya he. Me aap se 100% sahemat hu. Vese aap ko kya padhna pasand he. Me thoda bahot bhap gai thi. Or mohe rang de meri fev he.
 
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Thanks soooooooooooooooo much
 
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सुबह -सबेरे

morning-4.jpg


जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।


अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने।


मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।


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जब मैंने मुँह धोने के लिये शीशे में देखा तो माजरा साफ हुआ।




मेरे माथे पे बड़ी सी बिंदी, आँखों में काजल, होंठों पे गाढ़ी सी लिपस्टीक…


मैं समझ गया किसकी शरारत थी।


तब तक उसकी आवाज सुनायी पड़ी, वो भाभी से कह रही थी-


“देखिये दीदी… मैं आपसे कह रही थी ना की ये इतना शरमाते हैं जरूर कहीं कोई गड़बड़ है? ये देवर नहीं ननद लगते हैं मुझे तो। देखिये रात में असली शकल सामने आ गई…”

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मैंने उसे तरेर कर देखा।

तिरछी कटीली आँखों से उस मृगनयनी ने मुझे मुश्कुरा के देखा और अपनी सहेलियों से बोली-





“लेकिन देखो ना सिंगार के बाद कितना अच्छा रूप निखर आया है…”

“अरे तुझे इतना शक है तो खोल के चेक क्यों नहीं कर लेती…”


चंपा भाभी ने उसे छेड़ा।


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“अरे भाभी खोलूंगी भी चेक भी करुंगी…”

घंटियों की तरह उसकी हँसी गूंज गई।

रगड़-रगड़ के मुँह अच्छी तरह मैंने साफ किया। मैं अंदर जाने लगा की चंपा भाभी (भाभी की भाभी) ने टोका-

“अरे लाला रुक जाओ, नाश्ता करके जाओ ना तुम्हारी इज्जत पे कोई खतरा नहीं है…”

खाने के साथा गाना और फिर होली के गाने चालू हो गये। किसी ने भाभी से कहा- “


मैंने सुना है की बिन्नो तेरा देवर बड़ा अच्छा गाता है…”

कोई कुछ बोले की मेरे मुँह से निकल गया की पहले उर्मी सुनाये।

और फिर भाभी बोल पड़ीं की आज सुबह से बहुत सवाल जवाब हो रहा है? तुम दोनों के बीच क्या बात है?

फिर तो जो ठहाके गूंजे… हम दोनों के मुँह पे जैसे किसी ने एक साथ इंगुर पोत दिया हो।


किसी ने होरी की तान छेड़ी, फिर चौताल लेकिन मेरे कान तो बस उसकी आवाज के प्यासे थे।

आँखें बार-बार उसके पास जाके इसरार कर रही थीं, आखिर उसने भी ढोलक उठायी… और फिर तो वो रंग बरसे-


मत मारो लला पिचकारी, भीजे तन सारी।
पहली
पिचकारी मोरे, मोरे मथवा पे मारी,

मोरे बिंदी के रंग बिगारी भीजे तन सारी।

दूसरी पिचकारी मोरी चूनरी पे मारी,

मोरी चूनरी के रंग बिगारी, भीजै तन सारी।
तीजी
पिचकारी मोरी अंगिया पे मारी,

मोरी चोली के रंग बिगारी, भीजै तन सारी।

जब वो अपनी बड़ी बड़ी आँखें उठा के बांकी चितवन से देखती तो लगता था उसने पिचकारी में रंग भर के कस के उसे खींच लिया है।

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और जब गाने के लाइन पूरी करके वो हल्के से तिरछी मुश्कान भरती तो लगता था की बस

छरछरा के पिचकारी के रंग से तन बदन भीग गया है और मैं खड़ा खड़ा सिहर रहा हूं।

गाने से कैसे होली शुरू हो गई पता नहीं, भाभी, उनकी बहनों, सहेलियों, भाभियों सबने मुझे घेर लिया।

लेकिन मैं भी अकेले…

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मैं एक के गाल पे रंग मलता तो तो दो मुझे पकड़ के रगड़ती…


लेकिन मैं जिससे होली खेलना चाहता था तो वो तो दूर सूखी बैठी थी, मंद-मंद मुश्कुराती।

सबने उसे उकसाया, सहेलियों ने उसकी भाभियों ने…


आखीर में भाभी ने मेरे कान में कहा और

होली खेलते खेलते उसके पास में जाके बाल्टी में भरा गाढ़ा लाल उठा के सीधे उसके ऊपर।




वो कुछ मुश्कुरा के कुछ गुस्से में कुछ बन के बोली- “ये ये… देखिये मैंने गाना सुनाया और आपने…”


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“अरे ये बात हो तो मैं रंग लगाने के साथ गाना भी सुना देता हूँ लेकिन गाना कुछ ऐसा वैसा हो तो बुरा मत मानना…”

“मंजूर…”

“और मैं जैसा गाना गाऊँगा वैसे ही रंग भी लगाऊँगा…”

“मंजूर…” उसकी आवाज सबके शोर में दब गई थी।

मैं उसे खींच के आंगन में ले आया था।


लली आज होली चोली मलेंगे,
गाल
पे गुलाल… छातीयां धर डालेंगे,
लली
आज होली में
जोबन।


गाने के साथ मेरे हाथ भी गाल से उसके चोली पे पहले ऊपर से फिर अंदर।

भाभी ने जो गुझिया खिलायीं उनमें लगता है जबर्दस्त भांग थी।


हम दोनों बेशरम हो गये थे सबके सामने।


अब वो कस-कस के रंग लगा रही थी, मुझे रगड़ रही थी।


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रंग तो कितने हाथ मेरे चेहरे पे लगा रहे थे

लेकिन महसूस मुझे सिर्फ उसी का हाथ हो रहा था। मैंने उसे दबोच लिया, आंचल उसका ढलक गया था।

पहले तो चोली के ऊपर से फिर चोली के अंदर, और वो भी ना ना करते खुल के हँस-हँसकर दबवा, मलवा रही थी।



लेकिन कुछ देर में उसने अपनी सहेलियों को ललकारा और भाभी की सहेलियां, बहनें, भाभियां…


फिर तो कुर्ता फाड़ होली चालू हो गई। एक ने कुर्ते की एक बांह पकड़ी और दूसरे ने दूसरी।

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Romance vahi feel mohe rang de ke jesa. Par ya muje thodi si kami khali. Dewar ko bhabhi ka support. Thodi si mamta. Kon pasand he. Bat chhedvana ya fir bhabhi ki taraf se dewarani ki mang.

Muje isme mamta ki kami lagi. But love it.

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Shetan

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कपड़ा फाड़ होली



मैं चिल्लाया- “हे फाड़ने की नहीं होती…”

वो मुश्कुरा के मेरे कान में बोली- “तो क्या तुम्हीं फाड़ सकते हो…”


मैं बनियान पाजामें में हो गया। उसने मेरी भाभी से बनियाइन की ओर इशारा करके कहा-



“दीदी, चोली तो उतर गई अब ये बाडी, ब्रा भी उतार दो…”

“एकदम…” भाभी बोलीं।



मैं क्या करता। मेरे दोनों हाथ भाभी की भाभियों ने कस के पकड़ रखे थे। वो बड़ी अदा से पास आयी। अपना आंचल हल्का सा ढलका के रंग में लथपथ अपनी चोली मेरी बनियान से रगड़ा।


मैं सिहर गया।



एक झटके में उसने मेरी बनियाइन खींच के फाड़ दी।

और कहा- “टापलेश करके रगड़ने में असली मजा क्या थोड़ा… थोड़ा अंदर चोरी से हाथ डाल के…"

फिर तो सारी लड़कियां औरतें, कोई कालिख कोई रंग। और इस बीच चम्पा भाभी ने पजामे के अंदर भी हाथ डाल दिया। जैसे ही मैं चिहुंका, पीछे से एक और किसी औरत ने पहले तो नितम्बों पर कालिख फिर सीधे बीच में।



भाभी समझ गई थीं। वो बोली- “क्यों लाला आ रहा है मजा ससुराल में होली का…”


उसने मेरे पाजामे का नाड़ा पकड़ लिया। भाभी ने आंख दबा के इशारा किया और उसने एक बार में ही।

उसकी सहेलियां भाभियां जैसे इस मौके के लिये पहले से तैयार थीं। एक-एक पायचें दो ने पकडे और जोर से खींचकर… सिर्फ यही नहीं उसे फाड़ के पूरी ताकत से छत पे जहां मेरा कुर्ता बनियाइन पहले से।



अब तो सारी लड़कियां औरतों ने पूरी जोश में… मेरी डोली बना के एक रंग भरे चहबच्चे में डाल दिया। लड़कियों से ज्यादा जोश में औरतें ऐसे गाने बातें।



मेरी दुर्दसा हो रही थी लेकिन मजा भी आ रहा था। वो और देख-देख के आंखों ही आंखों में चिढ़ाती।



जब मैं बाहर निकला तो सारी देह रंग से लथपथ। सिर्फ छोटी सी चड्ढी और उसमें भी बेकाबू हुआ मेरा तंबू तना हुआ।



चंपा भाभी बोली-

“अरे है कोई मेरी छिनाल ननद जो इसका चीर हरण पूरा करे…”





भाभी ने भी उसे ललकारा,

बहुत बोलती थी ना की देवर है की ननद तो आज खोल के देख लो।




वो सहम के आगे बढ़ी। उसने झिझकते हुए हाथ लगाया। लेकिन तब तक दो भाभियों ने एक झटके में खींच दिया। और मेरा एक बित्ते का पूरा खड़।



अब तो जो बहादुर बन रही थी वो औरतें भी सरमाने लगीं।

मुझे इस तरह से पकड़ के रखा था की मैं कसमसा रहा था। वो मेरी हालत समझ रही थी।
तब तक उसकी नजर डारे पे टंगे चंपा भाभी के साये पे पड़ी। एक झटके में उसने उसे खींच लिया और मुझे पहनाते हुये बोली-

“अब जो हमारे पास है वही तो पहना सकते हैं…”

और भाभी से बोली-

“ठीक है दीदी, मान गये की आपका देवर देवर ही है लेकिन हम लोग अब मिल के उसे ननद बना देते हैं…”





“एकदम…” उसकी सा


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find duplicates online
री सहेलियां बोलीं।

Next story yahi chalu hogi. Amezing romance he.
 
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