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Romance फ़िर से

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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अपडेट सूची :

दोस्तों - इस अपडेट सूची को स्टिकी पोस्ट बना रहा हूँ!
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि केवल पहनी पढ़ कर निकल लें। यह केवल आपकी सुविधा के लिए है। चर्चा बंद नहीं होनी चाहिए :)


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अपडेट 5


किसी दिन बनूँगी मैं राजा की रानी... ज़रा फिर से कहना
बड़ी दिलरुबा है ये सारी कहानी... ज़रा फिर से कहना


सुबह अजय की आँख इस गाने की आवाज़ पर खुली। एक समय था, जब ये गीत बहुत प्रसिद्ध था, और अजय को भी बहुत पसंद था! लेकिन इस फिल्म को आए और गए कई साल हो गए। बहुत समय पहले! ऐसे में अपना पसंदीदा गीत सुन कर उठना उसको बहुत अच्छा लगा। आज बहुत गहरी नींद आई थी - ऐसी जैसी उसने कभी नहीं महसूस की।

और ये तब था जब उसने वो सपना देखा था!

कैसा भयानक सपना था वो!

फिर भी इस समय उसको कितना शांत लग रहा था सब कुछ! न किसी तरह की उद्विग्नता, और न ही किसी तरह की बेचैनी! आश्चर्य की बात यह थी कि पहले जब उसको डरावने सपने आते थे, तो उसका पूरा शरीर पसीने से नहा उठता था। लेकिन आज नहीं! उसने अपनी तकिया को फिर से छुआ - हाँ, कोई पसीना नहीं। कमाल है! ऐसा भयानक सपना... ऐसे सपने देख कर कोई भी आदमी पसीने पसीने हो जाए डर के मारे! लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि उसको कुछ हुआ ही नहीं?

दरअसल दो बातें हुईं - पहली यह कि उसको ऐसा भयानक और डरावना सपना आया और उसके शरीर ने परिचित तरीके से प्रतिक्रिया नहीं दी। और दूसरा यह कि यह शायद पहली बार हुआ था कि वो माँ की ममता भरी गोद में सोया हो, और उसको ऐसा डरावना सपना आया हो। फिर उसने महसूस किया... इन दोनों बातों से इतर भी एक और बात हुई।

अजय का सपना अवश्य ही बहुत भयानक था, लेकिन इतनी गहरी और संतोषजनक नींद आई थी उसको, कि इस समय गज़ब की ऊर्जा महसूस हो रही थी उसको अपने शरीर में। गज़ब की ऊर्जा! जैसे वो किसी अत्याधुनिक स्पा में जा कर कोई यूथ ट्रीटमेंट करवाया हो!

उसने अंगड़ाई भरी - आज हमेशा की तरह उसकी हड्डियाँ भी नहीं कड़कड़ाईं!

कमाल है! उसने सोचा, और एक गहरी साँस भरी... अद्भुत रूप से उसने अपेक्षाकृत बहुत गहरी साँस भरी!

सब बहुत अद्भुत सा था आज - जैसे उसका आमूल-चूल परिवर्तन हो गया हो! एक तरह का कायाकल्प!

‘क्या हो रहा है आज!’ उसके मन में यह विचार आए बिना न रह सका।

एक बार और अँगड़ाई ली उसने! पूरा शरीर तान दिया, फिर भी कोई कड़कड़ाहट नहीं!

‘आह!’ वो खुश हो गया।

फिर उसने महसूस किया कि उसके शिश्न में भारीपन भी था। अभूतपूर्व तो नहीं कह सकते, लेकिन आज उसको ‘मॉर्निंग वुडी’ भी हो रखी है... आख़िरी बार उसको ऐसा कब हुआ था, अब तो याद भी नहीं था उसे। रागिनी ने उसकी ऐसी झण्ड करी थी कि अब तो उसको लड़की देख कर स्तम्भन भी नहीं होता था। मॉर्निंग वुडी भी नहीं। रही सही कसर जेल की सैर ने पूरी कर दी।

उसने चादर हटा कर बड़े ही आश्चर्य से अपने शिश्न को देखा - एक मज़बूत स्तम्भन! आश्चर्य है न - कैसा भयंकर स्वप्न और फिर भी शरीर में इस तरह की ऊर्जा! अजय का उद्धर्षण बेहद कठोर था। वैसा, जैसा उसको अपने युवावस्था के शिखर पर महसूस होता था! लेकिन, उसके लिंग का आकार? अजय चौंका।

‘ये क्या हुआ?’

उसका शिश्न आकार में अपेक्षाकृत छोटा लग रहा था! वृषण भी छोटे ही लग रहे थे!

क्या शिश्न, क्या वृषण, ये तो पूरा शरीर ही बहुत हल्का लग रहा था उसको।

‘ये क्या हुआ?’ उसने सोचा, ‘इरेक्शन तो परफेक्ट है, लेकिन साइज़ छोटा... और मेरी जांघें, मेरा पेट! ऐसे कैसे?’

एक रात भर में ही कोई कैसे तीस - पैंतीस किलो वज़न घटा सकता है?

उसका दिमाग चकरा गया। वो उठा और लपक कर उसने कमरे में लगे हुए दर्पण में स्वयं को देखा। और जो उसने देखा, वो अकल्पनीय था।

जो वो उसको दिख रहा था, वो अजय ही था, लेकिन अपनी उम्र से कहीं कम! लगभग एक दशक कम!

वो दृश्य देख कर अजय के शरीर में भीषण झुरझुरी होने लगी। अब जा कर उसको भय महसूस हुआ। अब जा कर उसका शरीर डर के मारे पसीने से नहा उठा।

‘ये क्या देख रहा हूँ मैं,’ उसने सोचा - आँखें मलीं और स्वयं को दो थप्पड़ भी लगाए कि नींद से बाहर निकले वो। लेकिन दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब नहीं बदला। वो वैसा ही रहा। दर्पण के एक तरफ जीवन के तीन दशक पार कर चुका अजय था, और दूसरी तरफ़ वो अजय था, जिसने अभी भी अपने जीवन के दूसरे दशक के दरवाज़े पर दस्तख़त भी नहीं दी थी।

“अज्जू बेटे,” इतने में किरण जी की आवाज़ आई।

अजय को साफ़ महसूस हुआ कि माँ की आवाज़ नीचे से आई है।

‘नीचे से?’ वो चौंका, ‘नीचे से माँ की आवाज़ कैसे आ सकती है?’

वो दोनों तो एक कमरे के फ्लैट में रहते हैं - माँ अंदर के कमरे में और वो बाहर हॉल में सोता है। यही बंदोबस्त है - इतनी ही व्यवस्था कर सका था वो जेल से निकलने के बाद!

“उठ जा बेटे... देर हो जाएगी कॉलेज जाने के लिए...” माँ की आवाज़ निकट आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कि वो सीढ़ियों से चढ़ते हुए ऊपर आ रही थीं।

‘सीढ़ियाँ?’

अब जा कर वो थोड़ा चैतन्य हुआ! उसने चौंक कर इधर उधर देखा।

‘ये तो... ये तो...’

वो कमरा अभूतपूर्व रूप से परिचित था!

यह कमरा तो उसके पुराने घर में था। पुराना घर... मतलब, दिल्ली का! पुराना घर, जो उसके माता पिता और ताऊ जी ताई जी ने मिल कर बनवाया था! वो घर, जो उनकी निशानी थी - जिसको वो गँवा बैठा था।

वो दिल्ली पहुँच गया?

कब? कैसे? क्या हो रहा है ये सब?

वो बड़ी ही अजीब सी उधेड़बुन में पड़ गया था - क्या हो रहा है ये, उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

“अज्जू बेटे... उठा नहीं अभी तक?” माँ की आवाज़ पास आती जा रही थी, “ये लड़का भी न!”

अजय अभी भी अचकचाया हुआ था, दर्पण के सामने खड़ा हुआ अभी भी सोच रहा था कि वो शायद कोई सपना देख रहा हो! इतने में दरवाज़ा खुला और माँ अंदर आ गईं।

“हे भगवान,” वो उसको देख कर बोलीं, “इतना समझाती हूँ और ये लड़का है कि समझता ही नहीं!”

“माँ... क्या...”

“अरे मेरे नंगू बाबा! क्या कर रहा है शीशे के सामने? टाइम का कोई अंदाज़ा है तुझे?” माँ दनादन बोले जा रही थीं, “देख कितनी देर हो गई है, बेटे!”

“माँ?”

“क्या माँ माँ कर रहा है? ब्रश किया?”

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो क्या कर रहा है ऐसे नंगा नंगा शीशे के सामने खड़ा हो कर?”

“अभी अभी उठा हूँ माँ!”

“तो चल! आ जा जल्दी से नीचे। देर नहीं हो रही है कॉलेज के लिए?”

‘कॉलेज?’

“माँ कॉलेज? क्यों?” वो चकराया हुआ बोला।

“नहीं जाना है कॉलेज?”

“मैं क्यों जाऊँगा कॉलेज माँ?” अजय अभी भी सोच रहा था कि वो कोई सपना देख रहा है।

ये सब हो भी कैसे सकता है?

“क्यों?” माँ ने समझाते हुए कहा, “सेशन अभी अभी शुरू हुआ है बेटे! ऐसे नागा करना ठीक नहीं है। चल, जल्दी से आ जा!”

‘क्या कह रही हैं माँ!’

“सेशन? काहे का सेशन माँ?” वो अभी भी चकराया हुआ था, “क्या कह रही हैं आप... समझ ही नहीं आ रहा है?”

“कॉलेज नहीं जाना है?” माँ ने थोड़ा सख़्त लहज़े में कहा।

उनको पढ़ाई लिखाई में कटौती करना बहुत नापसंद था।

“कॉलेज? क्यों मज़ाक करती हो माँ,” अजय ने कहा।

माँ ने उसका कान पकड़ कर कमरे से बाहर निकालते हुए कहा, “बस! अब और मज़ाक नहीं! चल तैयार हो जल्दी से! कमल आता ही होगा... और एक ये लाट साहब हैं कि मस्ती सूझ रही है इनको!”

‘कमल!’

माँ कह रही थीं, “सुन, माया ने नाश्ता तैयार कर दिया है। आधे घण्टे से पहले पहले नीचे आजा... हम वेट कर रहे हैं।”

‘माया?’

कमल उसका बचपन का दोस्त था। बचपन - मतलब आठवीं क्लास से।

माया - माया ‘दीदी’ - उसके माता पिता की दत्तक पुत्री थीं।

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अपडेट 6


माया ‘दीदी’ अजय से कोई पाँच साल बड़ी थीं।

वो उसकी सगी दीदी नहीं थीं।

माया दीदी की माँ एक नटिन थीं, और उनके पिता का कोई ठिकाना या कोई ज्ञान नहीं था किसी को। अजय के माता पिता अक्सर सड़क पर माया और उनकी माँ को नटों वाला खेल तमाशे दिखाते हुए देखते थे। अनेकों खेल तमाशे - जैसे कलाबाज़ियाँ दिखाना, आग के वृत्त में से कूद फाँद करना, मुँह से ही किसी बेढब चीज़ को सम्हालना, एक छोटे से पहिए पर बैलेंस बनाना इत्यादि! एक बार अचानक ही वो दोनों सड़क पर दिखने बंद हो गए, तो उनको लगा कि शायद नटों का डेरा उठ गया वहाँ से। लेकिन कुछ दिनों बाद उनको फिर से माया दिखी। पूछने पर माया से ही उनको पता चला कि कोई सप्ताह भर पहले रस्सी पर चलने वाला तमाशा दिखाते हुए माया की माँ कोई चौदह फुट की ऊंचाई नीचे गिर गईं। और कोई चोट होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन बदकिस्मती ऐसी कि वो सर के बल गिरीं, और उस दुर्घटना में उनकी गर्दन टूट गई।

एक अकेली, निःसहाय, लेकिन जवान लड़की की इस समाज में क्या दुर्दशा हो सकती है, यह सभी जानते हैं! कोई बड़ी बात नहीं थी कि कल वो वेश्यावृत्ति के काले संसार में फंस जाती! और न जाने क्या आकर्षण हुआ अजय के माता पिता को माया से कि वो उसको अकेली न छोड़ सके। इसलिए अजय के माता पिता, माया को अपने घर लिवा लाए। वो एक समय था और आज का समय है - माया इस परिवार का अभिन्न अंग बन गई थी। अवश्य ही वो कानूनी तौर पर उनकी पुत्री न बन सकीं, लेकिन शीघ्र ही वो हर मायनों में उनकी पुत्री अवश्य बन गईं।

अजय के माता पिता चाहते थे कि अजय की ही भाँति वो भी पढ़ लिख सके, लेकिन एक उम्र हो जाने पर कुछ लोगों को पढ़ने लिखने का मन नहीं करता। बहुत सी बाधाएँ आ जाती हैं। माया के साथ भी यही हुआ। उसको स्कूली ड्रेस पहन कर स्कूल जाना अखरता। वैसे भी एक सयानी लड़की अगर नौवीं दसवीं की क्लास में बैठे, तो उसको तो उसको, उसके सहपाठियों को भी अजीब लगता। सब उसको ‘दीदी’ कहते - आदर से नहीं, चिढ़ाने के लिए! तो इस तरह कुछ दिन स्कूल में पढ़ने की असफल कोशिश करने के बाद, एक दिन उन्होंने ‘अपने’ माता पिता से कह दिया कि वो स्कूल नहीं जाना चाहतीं। हाँ, पढ़ना अवश्य चाहती हैं। इसलिए घर पर ही रह कर जो पढ़ाई लिखाई हो सके, वो करने को तत्पर हैं... और बस उतना ही करना चाहती हैं।

लेकिन उनकी इच्छा गृहकार्य में निपुण होने की थी, जिससे वो अपने आश्रयदाताओं की देखभाल कर सकें। यह भी ठीक था। अधिक समय नहीं लगा कि माया दीदी को घर के लगभग हर काम करने में निपुणता हासिल हो गई। भिन्न भिन्न प्रकार के भोजन पकाना, घर को ठीक तरीके से सहेज कर रखना, घर की साज-सज्जा, और बाहर पौधों की देखभाल करना इत्यादि उनको बखूबी आ गया था। और इन पाँच सालों में पहले तो अजय की माँ प्रियंका, और फिर बाद में केवल उसकी ताई माँ किरण ने होम-स्कूलिंग कर के माया को प्राईवेट से हाई स्कूल और इण्टर दोनों पास करवा दिया।

माया के लिए पूर्व में यह मुक़ाम हासिल कर पाना भी लगभग असंभव था। पढ़ना लिखना एक काम होता है, लेकिन एक स्वस्थ सुरक्षित जीवन जी पाना अलग! उसको पहले यकीन ही नहीं हुआ कि कोई संभ्रांत परिवार उसको यूँ अपना सकता है। उसको पहले पहले लगता था कि अगर और कुछ नहीं तो वो इस घर की नौकरानी बनेगी। वो भी उसके लिए कोई खराब स्थिति नहीं थी। जिस तरह से उसका रहन सहन था, और जिस जिस तरह के लोगों से उसका पाला पड़ता था, उसके हिसाब से किसी बड़े घर की नौकरानी बनना एक अच्छी बात थी। कभी कभी उसको शक़ भी होता कि कहीं घर के दोनों मर्द (अजय के ताऊ जी, अनामि, और उसके पिता जी, अशोक) उसके साथ कुछ करना तो नहीं चाहते, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टा, दोनों ही उसको बड़े प्रेम से, बड़े आदर से, और अपनी बेटी समान ही रखते।

शीघ्र ही परिवार के शुद्ध प्रेम ने माया की शंकाओं पर विजय प्राप्त कर ली।

लेकिन सभी से इतर, अजय को माया से अलग ही प्रकार की चिढ़ थी।

बहुत से कारण थे इस बात के। एक तो यह कि अचानक से घर का एकलौता पुत्र होने का आनंद माया के आने के कारण कम हो गया था। लोग उस पर कम और माया पर अधिक ध्यान देते - हाँलाकि यह बात पूरी तरह से गलत थी, लेकिन एक बारह साल का लड़का और क्या सोचे? दूसरा कारण यह था कि उसको अब अपना कमरा माया के साथ शेयर करना पड़ता। घर में पाँच कमरे थे - बाहर के नौकर या चौकीदार का कमरा छोड़ कर। एक एक कमरा तो मम्मी-पापा और ताऊ जी और ताई जी का था। एक कमरा प्रशांत भैया का और एक कमरा अजय का। एक कमरा गेस्ट्स के लिए था। ऊपर नीचे दो हॉल थे, और एक डाइनिंग हाल था। प्रशांत भैया - अजय के चचेरे बड़े भाई और अनामि और किरण जी के एकलौते बेटे - ने अभी अभी इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू करी थी, और उनका जीवन थोड़ा अलग हो गया था। लेकिन फिर भी वो अपना कमरा छोड़ने वाले नहीं थे। उनको बहुत गुस्सा आता अगर कोई उनके कमरे में प्रविष्ट भी होता तो! गेस्ट रूम में माया को रखा नहीं जा सकता था। लिहाज़ा, ले दे कर एक अजय का ही कमरा शेष था। इसलिए अपना कमरा शेयर करने की मजबूरी से उसको माया से और भी चिढ़न महसूस होती।

माया की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी कि वो अजय के ‘क्षेत्र’ में अतिक्रमण करे। वो अपने सर पर एक छत्र-छाया पा कर ही धन्य हो गई थी। वो अजय के कमरे में, उससे दूर ज़मीन पर सोती - हाँलाकि प्रियंका जी और किरण जी ने उसको अजय के साथ ही सोने को कहा था। फिर भी अजय की चिढ़न कम नहीं हुई। कुछ दिन तो ऐसे ही चला, लेकिन एक दिन माया से एक गुनाह-ए-अज़ीम हो गया। शायद उसने अजय की किसी पसंदीदा वस्तु को छू लिया। मारे गुस्से के अजय ने माया के एक स्तन पर इतनी ज़ोर से दबाया (चिकोटी काटी) कि दर्द के मारे उस बेचारी की आँखों से आँसू निकल गए। शरीर पर लगी चोट बर्दाश्त हो भी जाती है, लेकिन जो चोट मन पर लगती है, उसका निदान आसान नहीं। बेचारी कोमल हृदय वाली माया अगले कई दिनों तक अपने आपको कोसती रही और सोचती रही कि वो ऐसा क्या करे कि ‘बाबू’ (अजय के लिए माया का प्यार वाला नाम) उससे इस तरह से नाराज़ न हो।

अवश्य ही वो अजय के दिल में स्थान न बना पाई हो, लेकिन बाकी परिवार के साथ वो जल्दी ही घुल-मिल गई। और तो और, अजय आशाओं के विपरीत प्रशांत भैया भी माया को बुरा नहीं कहते थे। उल्टा, वो उसको पसंद भी करते थे। माया में भी अब अंतर आ गया था। एक प्रेम-भरे परिवार की छत्र-छाया में आ कर वो निखर गई, और संभ्रांत और सौम्य भी दिखने लगी। उसका शरीर भी सुन्दर तरीक़े से भर गया। कोई उसका पुराना जानने वाला उसको देख कर पहचान नहीं सकता था।

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अपडेट 7


अच्छे कामों का अच्छा नतीजा निकलता है!

माया ने जिस तरह से घर के कामों को अपने सर ले लिया, उससे अजय की दोनों माँओं को अपने अपने पतियों के साथ अंतरंग होने के अधिक अवसर मिलने लगे। बाहर के लोगों को आश्चर्य हुआ होगा, लेकिन घर में किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ जब अजय की माँ और ताई माँ दोनों ही कुछ महीनों के अंतराल पर एक बार फिर से प्रेग्नेंट हुईं। अजय की माँ प्रियंका जी का तो ठीक था, लेकिन उसकी ताई माँ, किरण जी का पुनः प्रेग्नेंट होना उनके पुत्र प्रशांत को अच्छा नहीं लगा। शायद इसलिए क्योंकि अब वो स्वयं उस उम्र में था कि शादी कर के अपने बच्चे पैदा कर सके। उसके लिए यह ऐसी ख़ुशी की खबर थी, जिस पर वो स्वयं ख़ुशी नहीं मना सका। वैसे भी वो उस समय इंजीनियरिंग के अंतिम साल में था और आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका जाने की तैयारी में था। अपने समय पर ख़ुशियाँ आनी भी शुरू हुईं - किरण जी ने अपने नियत समय पर एक सुन्दर और स्वस्थ बालक को जन्म दिया। प्रियंका जी को पुनः माँ बनने में अभी भी कोई चार महीने शेष थे।

लेकिन फिर वो हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं करी थी!

एक सड़क दुर्घटना में अनामि जी, उनके नवजात शिशु, और गर्भवती प्रियंका जी की असमय मृत्यु हो गई। कार के ड्राइवर अनामि जी ही थे। प्रियंका जी उनके बगल ही पैसेंजर सीट पर बैठी थीं। दोनों गाड़ी की टकराहट के भीषण धक्के से तत्क्षण मृत हो गए। किरण जी संयोग से पीछे की सीट पर अपने नवजात के साथ बैठी थीं। वो तो बच गईं, लेकिन धक्के में उस शिशु को भी गहरी चोटें आईं। जिससे वो भी ईश्वर को प्रिय हो गया।

एक खुशहाल परिवार एक झटके में कैसे वीरान हो जाता है, कोई इनसे पूछे!

किरण जी सर्वाइवल गिल्ट के कारण अवसाद में चली गईं। उनके मन में होता कि वो भी अपनी चहेती और छोटी बहन जैसी देवरानी, पति, और नवजात शिशु के संग स्वर्गवासी क्यों नहीं गईं! ऐसे में माया दीदी ने ही उनको दिशा दिखाई।

अपनी माँ की मृत्यु के बाद न केवल किरण जी ही, बल्कि अजय भी गुमसुम सा रहने लगा था। भयानक समय था वो! अजय के पिता, अशोक जी अपनी पत्नी और अपने बड़े भाई की मृत्यु से शोकाकुल थे; और किरण जी का हाल तो बयान करने लायक ही नहीं था। ऐसे में अजय ही उन दोनों के उपेक्षा से आहत हो गया था। माया दीदी यथासंभव उसकी देखभाल करतीं, लेकिन अजय के मन में वो अभी भी एक बाहरी सदस्य थीं। इसलिए न तो उसको उनसे उतना स्नेह था और न ही उनके लिए उतना सम्मान। लेकिन माया को समझ आ रहा था सब कुछ! वो स्वयं सयानी थी। एक दिन हिम्मत कर के वो किरण जी के कमरे में गई,

“माँ जी?”

“हम्म?” पुकारे जाने पर किरण जी चौंकी।

“माँ जी... एक बात कहनी थी आपसे...”

“बोल न बेटे... इतना हिचकिचा क्यों रही है तू?”

“छोटा मुँह बड़ी बात वाली बात कहनी है माँ जी,” माया ने कहा, “इसलिए डरती हूँ कि कहीं आप नाराज़ न हो जाएँ!”

“बोल बच्चे! तू अपनी है न! बोल।” माँ ने उसको दिलासा दिया।

“माँ जी, बाबू की भी हालत ठीक नहीं है,” माया ने कहा - वो अजय को प्यार से बाबू कह कर बुलाती थी, “आप लोगों की ही तरह वो भी दुःखी है।”

किरण जी चौंक गईं! बात तो सही थी। अपने अपने ग़म में सभी ऐसे डूबे हुए थे कि उनको अजय का ग़म दिख ही नहीं रहा था।

“वो कुछ दिनों से ठीक से खाना नहीं खा रहा है। मैंने बहुत कोशिश करी, लेकिन एक दो निवालों से अधिक कुछ खाया ही नहीं उसने।”

“सच में?” किरण जी अवाक् रह गईं।

“सच की दीदी होती उसकी तो जबरदस्ती कर के खिला देती,” कहते हुए माया की आँखों में पानी भर गया।

“हे बच्चे, ऐसा अब आगे से कभी मत कहना! छुटकी (प्रियंका जी) ने तुझे बेटी कहा है। उस नाते तू भी मेरी बेटी है!”

“आपने मुझको इतना मान दिया, वो आपका बड़प्पन है माँ जी। लेकिन बाबू आपका बेटा है!” वो हिचकिचाती हुई बोली, “एक बात कहूँ माँ जी?”

“बोल न बच्चे?”

“आप... आप उसको माँ वाला प्यार दे दीजिए न...” माया झिझकते हुए कह रही थी, “आप उसको अपने आँचल में छुपा कर अपनी ममता से उसकी भूख मिटा दीजिए...”

क्या कह दिया था माया ने!

बात तो ठीक थी। अपने नवजात शिशु की असमय मृत्यु के बाद किरण जी की ममता जिस बात की मोहताज थी, उसका उपाय ही तो बता रही थी माया! और अजय अभी भी ‘उतना’ बड़ा नहीं हुआ है कि अपनी माँ के स्तनों से दूध न पी सके...
अचानक से ही किरण जी के मन से अवसाद के बदल छँट गए।

“थैंक यू बेटे,” कह कर किरण जी उठीं, और बोलीं, “तू भी आ मेरे साथ।”

जब दोनों अजय के कमरे में पहुँचीं, तो उसको खिड़की के सामने गुमसुम सा, शून्य को ताकते हुए पाया। किरण जी का दिल टूट गया उस दृश्य को देख कर! सच में - जिस समय अजय को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता थी, उसी समय उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया था। भला हो इस बच्ची माया का, जिसने उनको सही राह दिखा दी!

“बाबू?” माया ने अजय को पुकारा।

अजय अपनी तन्द्रा से बाहर निकल आया, “दीदी?”

“अज्जू बेटे,” किरण जी उसके बगल बैठती हुई बोलीं, “मुझे माफ़ कर दे बेटे... बहुत बड़ी गलती हो गई मुझसे...”

“माँ...?”

“मेरा बच्चा... तू अब से कभी मत सोचना कि तेरी माँ नहीं हैं... मैं हूँ न... तेरी माँ!”

कह कर किरण जी ने अपने स्तनों को अपनी ब्लाउज़ से स्वतंत्र कर लिया, और कहा, “आ मेरे बच्चे... मेरे पास आ...!”

किरण जी की ममता को जो निकास चाहिए था, वो उनको अजय में मिल गया और अजय जिस ममता का भूखा था, वो उसको अपनी ताई जी, किरण जी में मिल गई।

स्तनपान करते हुए जब उसको एक मिनट हो गया तब किरण जी ने अजय से कहा,

“मेरे बेटू... मैं तुझसे एक बात कहूँ?”

अजय ने माँ के स्तन को मुँह में लिए ही ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“जब माया दीदी तुझे खाना खिलने की कोशिश कर रही थीं, तो तूने खाया क्यों नहीं?”

उनकी इस बात पर अजय निरुत्तर हो गया।

“कहीं ऐसा तो नहीं कि तू उसको अपनी दीदी नहीं मानता?”

उसके मन की बात अपनी ताई जी के मुँह से सुन कर अजय शर्मसार हो गया - बात तो सही थी। ढाई साल हो गए थे माया दीदी को घर आये, लेकिन इतने समय में भी वो उनको अपना नहीं सका। माया उसी के साथ सोती, लेकिन वो उससे अलग अलग, खिंचा खिंचा रहता। और तो और, बदमाशी में कभी कभी वो उसको लात मार मार कर बिस्तर से नीचे गिरा देता - लेकिन बहाना ऐसा करता कि जैसे वो स्वयं सो रहा हो। उधर माया पूरी कोशिश करती कि “बाबू” की नींद में खलल न पड़े और वो आराम से सो सके। उसके खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने का पूरा ध्यान रखती। स्कूल जाते समय की पूरी व्यवस्था रहती - उसके कपड़े प्रेस रहते, जूते पॉलिश रहते - सब कुछ व्यवस्थित!

वो कुछ कह न सका। लेकिन अपराधबोध उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रहा था।

किरण जी ने समझ लिया कि बेटे को अपनी गलती का एहसास हो गया है।

वो बोलीं, “अज्जू... मेरे बच्चे, जैसे तू मेरा बेटा है न, वैसे ही माया मेरी बेटी है... जैसे तू मेरा दूध पी रहा है न, वैसे ही माया भी...” कह कर वो माया की तरफ़ मुखातिब हो कर बोलीं, “... आ जा बिटिया मेरी... आ जा...”

अब आश्चर्यचकित होने की बारी माया की थी। उसने यह उम्मीद तो अपने सबसे सुन्दर सपनों में भी कभी नहीं करी थी! किरण जी के ममतामई आग्रह को वो मना नहीं कर सकती थी। वो भी माँ के स्तन से जा लगी।

आगे आने वाले सालों में यह नए रिश्ते इस परिवार की दिशा बदलने वाले थे - यह किसी को नहीं पता था।

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अपडेट 8


“माया दीदी हैं?” अजय ने आश्चर्य से पूछा।

माया दीदी की तो शादी हो गई थी! फिर वो यहाँ कैसे?

उससे भी बड़ा प्रश्न - वो खुद यहाँ कैसे? ये घर तो बिक चुका! लुट चुका!

“नहीं होगी तो कहाँ चली जाएगी?” माँ ने कहा - अब उनका धैर्य जवाब दे रहा था, “क्या हो गया है तुझे आज? चल, कमल आता ही होगा बेटे! वैसे भी बहुत देर हो गई है!”

“माँ, आज डेट क्या है?”

“नौ तारीख़ है,”

“नहीं... मेरा मतलब पूरी डेट?”

“नौ जुलाई, नाइनटीन नाइंटी फाइव।”

“क्या?”

‘ऐसे कैसे हो सकता है?’

‘आज तो नौ जुलाई, टू थाउजेंड एट होना चाहिए!’

‘वो तेरह साल पीछे कैसे जाग सकता है?’

‘वो कोई सपना तो नहीं देख रहा है?’

ऐसे अनेकों ख़याल अजय के दिमाग में कौंध गए।

“क्या हुआ? ऐसा क्या हो गया? ऐसे क्यों चौंक रहा है लड़का?” माँ अपने अंदाज़ में बोलीं - उनके चेहरे पर हँसी वाले भाव थे।

“माँ मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ?”

“उठ जा, नहीं तो यहीं तेरे को पानी से नहला दूँगी! नींद और सपना सब उड़ जायेगा!” वो हँसती हुई बोलीं, “और तेरी सारी मसखरी भी!”

माँ ने कहा और कमरे से बाहर निकल गईं।

लेकिन अजय के दिमाग का बुरा हाल था। उसने आँखें मलते हुए ध्यान से अपने हर तरफ़ देखा - बात तो सही है! उसके आस पास की पूरी दुनिया बदल सी गई लगती है! घर... बिस्तर... बाहर चलते हुए गाने... माँ ने जो कुछ कहा... सब कुछ!

कल तक तो वो लगभग तीस साल का आदमी था, और आज! पूरे तेरह साल पीछे चला गया! क्या वाक़ई वो तेरह साल पीछे चला गया, या कि कोई सपना देख रहा था वो? ऐसी कहानियां तो बस विज्ञान गल्प में ही पढ़ने सुनने को मिलीं थीं! और अब शायद वो खुद वैसी ही कहानी में था! कल उस बूढ़े आदमी - प्रजापति - से वो यही बात कर रहा था न!

‘बूढ़े प्रजापति?’

‘प्रजापति... विश्वकर्मा...’

उसके मस्तिष्क में ये दो शब्द कौंधे।

उसने दिमाग पर ज़ोर डाला।

‘कौन थे प्रजापति?’

‘प्रजापति! कहीं वो प्रजापति जी ईश्वर का ही रूप तो नहीं थे?’

महाभारत में भगवान ब्रह्मा को प्रजापति नाम से सम्बोधित किया गया है। अन्य ग्रंथों में भगवान शिव और भगवान विष्णु को भी प्रजापति माना जाता है। ये तीनों ही सृष्टि के आधार हैं।

‘तो क्या... तो क्या...’

अजय का दिमाग चकरा गया!

‘क्या कल उसकी मुलाकात स्वयं सृष्टि रचयिता ईश्वर से हो गई थी?’

ऐसा संभव भी है क्या? और अगर है भी, तो उन्होंने उसको केवल तेरह साल ही पीछे क्यों भेजा? और पीछे क्यों नहीं? माँ से मिलना भी तो कितना अच्छा होता! वो केवल तेरह साल पीछे ही क्यों आया वो? और पीछे क्यों नहीं?

उसके मन में कई ख़याल आ रहे थे। शायद उसको तेरह साल पीछे इसलिए भेजा गया है, क्योंकि उसने प्रजापति जी से माँ के बारे में एक बार भी बात नहीं करी थी। उसने उनको बताया था कि वो अपने पिता के लिए कुछ करना चाहता है। माँ का नाम तो उसने एक बार भी नहीं लिया! उसका दिल निराशा से टूट गया! काश, वो एक बार माँ से मिल पाता। लेकिन यह बात भी कोई कम है क्या? अगर स्वयं ईश्वर ने उसको यह ‘दूसरा अवसर’ दिया है, तो उसका कर्त्तव्य होता है कि वो इस अवसर का पूरा पूरा लाभ उठाए। और अपने प्रियजनों को भी उसका लाभ दिलाए।

उसके दिमाग में प्रजापति जी की बातें घूम रही थीं - उसको जो समझ में आया वो यह था कि उसको इस अवसर का अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए... बस इतना कि जिस तरह से उसके प्रियजनों को अनावश्यक और अनुचित दुःख झेलने मिले हैं, वो न हो। वो प्रसन्न हों!

वो भागता हुआ बाहर हॉल में आया। वहाँ आ कर उसने देखा कि ये तो वही घर है, जिसको रागिनी ने बेच कर सारे पैसे हड़प लिए थे। यह घर - बंगला - उसके माता पिता और ताऊ जी और ताई जी ने मिल कर बनाया था। यह विरासत थी उनकी! प्रशांत भैया ने अपने हिस्से को अजय के नाम कर दिया था, इसलिए सब कुछ उसी का था! लेकिन... कितना अभागा था वो कि वो इस विरासत को सम्हाल कर नहीं रख सका। वो इन सबके लायक ही नहीं था, शायद!

हाल में आते ही उसने जिसको देखा, उसको देख कर वो ख़ुशी से फूला न समाया।

“पापा!” वो लगभग चीखते हुए बोला और भागते हुए आ कर अपने पिता, अशोक जी से लिपट गया।

“अरे, क्या हुआ बेटे?” अशोक जी अखबार पढ़ रहे थे और अपने बेटे को यूँ व्यवहार करते देख कर वो थोड़ा चौंक गए। लेकिन उनको अच्छा लगा कि उनका बेटा उनसे इतने प्यार से व्यवहार करता है।

अशोक ठाकुर, अजय के पिताजी एक बिजनेसमैन थे।

थे इसलिए क्योंकि जब वो ग्रेजुएशन की पढ़ाई शुरू कर रहा था, तब एक मेडिकल मेलप्रैक्टिस या कहिए, डाक्टरों की लापरवाही के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी।

कितना रोया था वो उनकी मृत्यु पर! लोग अक्सर कहते हैं कि लड़के अपनी माँ के अधिक करीब होते हैं, लेकिन अजय को अपने पिता से अपनी माँ की अपेक्षा अधिक लगाव और स्नेह था। उसके पिता उसके चैम्पियन थे। वो उसको अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते रहते थे, लेकिन उनकी असमय मृत्यु के कारण वो पूरा टूट गया था। इतने सालों बाद उनको पुनः जीवित देख कर उसको कितनी ख़ुशी मिली थी, वो बयान नहीं कर सकता था!

अगर ये सब सपना है, तो बहुत अच्छा है!

“कुछ नहीं पापा,” वो बोला, “कुछ नहीं! सब अच्छा है!”

“पक्का?”

“जी पापा पापा,” अजय ने उनको देखते हुए कहा, “आई ऍम जस्ट सो हैप्पी टू सी यू!”

वो मुस्कुराए, “जल्दी तैयार हो जाओ बेटे... सच में देर हो रही है आज!”

“जी पापा...”

अजय जल्दी जल्दी तैयार हुआ, और नाश्ते के लिए लगभग भागता हुआ नीचे डाइनिंग हॉल में आया।

तब तक माया ने टेबल पर नाश्ता लगा दिया था, “बाबू, चलो अब जल्दी से खा लो! आलू पराठे बनाए हैं तेरे लिए,”

“दीदी,” कह कर अजय माया से भी लिपट लगा।

आश्चर्यचकित होने की बारी माया की थी अब!

पिछले पाँच सालों में अजय और उसके रिश्तों में बहुत सुधार हुआ तो था, लेकिन जैसी आत्मीयता अजय इस समय दिखा रहा था, वो अभी तक अनुपस्थित थी। सबका प्यार मिल गया था उसको घर में - बस अपने छोटे भाई का नहीं! प्रशांत भैया भी उसको लाड़ करते थे... उनके लिए एक छोटी बहन की कमी माया ने अभूतपूर्व तरीक़े से पूरी कर दी थी। जब भी वो दीपावली पर घर आते, बिना भाई दूज मनाए वापस नहीं जाते थे।

अजय का बदला हुआ व्यवहार अन्य कारणों से भी था। हाँ, वो मैच्योर तो हो ही गया था, लेकिन समय के साथ माया दीदी उसके सबसे प्रबल समर्थकों में से थीं। वो उसके सबसे कठिन समय में उसके साथ खड़ी रही थीं। उनके साथ भी गड़बड़ हो गया था। जैसे प्रशांत भैया और स्वयं अजय की पत्नियाँ लालची और ख़राब किस्म की आई थीं, उसी तरह उनका पति भी खराब ही निकला! ख़राब होना एक अलग बात है, लेकिन वो उनको मानसिक यातनाएँ और संताप देता रहता। लेकिन माया का व्यवहार ऐसा था कि इतना होने पर भी वो उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी न बोलतीं।

वयस्क अजय अक्सर सोचता रहता कि काश वो माया दीदी को उनके नर्क भरे जीवन से निकाल पाता। लेकिन कैसे? संभव ही नहीं था। उसकी खुद की हालत ऐसी खराब थी कि क्या बताए! माँ के साथ गुजारा बहुत मुश्किल से चल रहा था।

उसने एक नज़र दीदी की माँग में डाली - कोई सिन्दूर नहीं! वो दृश्य देख कर उसको राहत हुई। मतलब कुछ तो हुआ है कि ईश्वर ने उसको एक और अवसर दिया है सब कुछ ठीक कर देने के लिए!

‘हाँ! इस समय तक भी माया दीदी की शादी नहीं हुई थी!’

उसने दिमाग पर ज़ोर डाला और पुरानी बातें याद करने की कोशिश करी।

‘लेकिन माया दीदी की शादी जुलाई में ही तय हुई थी... और नवम्बर में शादी हो गई थी उनकी!’

इस बात पर उसको याद आया कि नवम्बर के महीने में ही प्रशांत भैया की शादी भी तो कणिका भाभी से हुई थी! वो शादी भी सही नहीं हुई - प्रशांत भैया थोड़ा मेहरे स्वभाव के आदमी हैं। औरत देख कर बिछ जाने वाली हालत है उनकी। मतलब माया दीदी और प्रशांत भैया - दोनों की ही नैया उसी को सही राह पर लानी है! और अपनी? वो खुद शादी नहीं करेगा - एक बार जंजाल मोल लिया, और पेट भर गया उसका!

शरीर से वो अवश्य ही किशोर है, लेकिन अनुभव में तो वो काफ़ी आगे है! भविष्य से आया हुआ है वो! उस बात का कोई मोल तो होना चाहिए।

उसने माया के दोनों गालों को चूम लिया - ऐसा करना उसने अभी कुछ वर्षों पहले ही शुरू किया था। इसलिए ‘इस’ माया दीदी के लिए यह पहली घटना थी। उनको भी सुखद आश्चर्य हुआ।

“क्या हुआ है बाबू? कोई अच्छी खबर मिली है लगता है?” माया ने हँसते हुए कहा।

वो सच में बहुत प्रसन्न थी।

“ऐसा ही समझ लो दीदी... ऐसा ही समझ लो!”

“अच्छी बात है... स्कूल से वापस आओ, फिर आराम से सुनेंगे!”

“स्कूल नहीं दीदी, कॉलेज!”

“आलू पराठा!” दीदी ने मुस्कुराते हुए चेताया, “... अरे, कमल?” और कमल को भीतर आते देख कर कहा, “आ गया?” और फिर जैसे कमल से अजय की शिकायत करती हुई बोलीं, “ये देखो... तुम्हारा दोस्त अभी नाश्ता भी नहीं कर सका!”

“कोई बात नहीं दीदी... थोड़ा टाइम तो है!” कमल ने कहा।

“टाइम है?” उसने खुश होते हुए कहा, “तो बैठो फिर, तुमको भी पराठे खिलाती हूँ!”

और कमल के लिए भी प्लेट लगाने लगी।

कमल और अजय आज समझ गए थे कि कॉलेज के लिए लेट होगा।

**
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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प्रिय मित्रों -- इस नई कहानी को आप सभी ने जिस तरह से हाथों हाथ लिया है, उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

आज इसमें चार और अपडेट्स लिखे हैं -- कोई साढ़े पाँच हज़ार शब्द हैं इनमें।
(कुछ कहानियाँ इतने में ही निपट भी जाती हैं... लेकिन अपनी तो शुरू ही हो रही है बस )

पढ़ कर अपने अपने विचार व्यक्त करें।

क्रिसमस त्यौहार सन्निकट है, इसलिए परिवार संग थोड़ा मौज मस्ती करनी है।
इसलिए इतने सारे और बड़े अपडेट्स दिए हैं। आप सभी भी डिटेल में प्रतिक्रिया दीजिएगा। :)



christmas-gettyimages-184652817

हो हो हो :)
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Bahut hi beautiful way me aapne kahani ki starting ki h...

Koi hassle ni... Koi lamba introduction ni ... Seedha to the point kahani... Mujhe aapki yahi baat achhi lagti h... Wese to main detailings waali kahaniya padhti hu... Lekin for a change kuch kahaniya aisi bhi honi chahiye jo seedha to the point rhe...

Aapki lekhni ekdum upanyas jesi h... 🖤
Pehle update me zyada kuch nazar to ni aaya. Ye sirf prologue jesa tha... 🤔 Ajay ek under achiever h .. lagta h meri tarah h ... Mujhe bhi meri qualities k jitna praise ni milta 😓

Cpr aapne ekdum aptly describe kia... It's not an easy task to give cpr. Cpr dete time patient ki ribs tak toot sakti h... Lekin cpr rukna ni chahiye... Kyuki jitni zor se press karte h, tabhi blood heart tak pahuchta h ... Agar halka sa bhi lightly press kia to heart tak blood pahuchega hi nhi aur pateint ka wahi pe the end... 🪦

Baaki setting mujhe thodi cliche lagi... Jese wahi retired uncle aur unke bachho ka unn par dhyan na dena, foreign me rehna, nd paiso k peechhe crazy hona... But let's see how this turns out later...

Ek suggestion h... Baaki aapki marzi h follow karna na karna... 😊 Dots ka usage aap jitna kam karenge aur sahi jagah par bas karenge na to ye poori 100% upanyas wali feeling dega... At the end, a very beautiful start... Let's see how Ajay's future will turn the tables for him...

रिहाना जी -- इस बार "..." वाली शिकायत नहीं होगी संभव है :)
 

kas1709

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अपडेट 5


किसी दिन बनूँगी मैं राजा की रानी... ज़रा फिर से कहना
बड़ी दिलरुबा है ये सारी कहानी... ज़रा फिर से कहना


सुबह अजय की आँख इस गाने की आवाज़ पर खुली। एक समय था, जब ये गीत बहुत प्रसिद्ध था, और अजय को भी बहुत पसंद था! लेकिन इस फिल्म को आए और गए कई साल हो गए। बहुत समय पहले! ऐसे में अपना पसंदीदा गीत सुन कर उठना उसको बहुत अच्छा लगा। आज बहुत गहरी नींद आई थी - ऐसी जैसी उसने कभी नहीं महसूस की।

और ये तब था जब उसने वो सपना देखा था!

कैसा भयानक सपना था वो!

फिर भी इस समय उसको कितना शांत लग रहा था सब कुछ! न किसी तरह की उद्विग्नता, और न ही किसी तरह की बेचैनी! आश्चर्य की बात यह थी कि पहले जब उसको डरावने सपने आते थे, तो उसका पूरा शरीर पसीने से नहा उठता था। लेकिन आज नहीं! उसने अपनी तकिया को फिर से छुआ - हाँ, कोई पसीना नहीं। कमाल है! ऐसा भयानक सपना... ऐसे सपने देख कर कोई भी आदमी पसीने पसीने हो जाए डर के मारे! लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि उसको कुछ हुआ ही नहीं?

दरअसल दो बातें हुईं - पहली यह कि उसको ऐसा भयानक और डरावना सपना आया और उसके शरीर ने परिचित तरीके से प्रतिक्रिया नहीं दी। और दूसरा यह कि यह शायद पहली बार हुआ था कि वो माँ की ममता भरी गोद में सोया हो, और उसको ऐसा डरावना सपना आया हो। फिर उसने महसूस किया... इन दोनों बातों से इतर भी एक और बात हुई।

अजय का सपना अवश्य ही बहुत भयानक था, लेकिन इतनी गहरी और संतोषजनक नींद आई थी उसको, कि इस समय गज़ब की ऊर्जा महसूस हो रही थी उसको अपने शरीर में। गज़ब की ऊर्जा! जैसे वो किसी अत्याधुनिक स्पा में जा कर कोई यूथ ट्रीटमेंट करवाया हो!

उसने अंगड़ाई भरी - आज हमेशा की तरह उसकी हड्डियाँ भी नहीं कड़कड़ाईं!

कमाल है! उसने सोचा, और एक गहरी साँस भरी... अद्भुत रूप से उसने अपेक्षाकृत बहुत गहरी साँस भरी!

सब बहुत अद्भुत सा था आज - जैसे उसका आमूल-चूल परिवर्तन हो गया हो! एक तरह का कायाकल्प!

‘क्या हो रहा है आज!’ उसके मन में यह विचार आए बिना न रह सका।

एक बार और अँगड़ाई ली उसने! पूरा शरीर तान दिया, फिर भी कोई कड़कड़ाहट नहीं!

‘आह!’ वो खुश हो गया।

फिर उसने महसूस किया कि उसके शिश्न में भारीपन भी था। अभूतपूर्व तो नहीं कह सकते, लेकिन आज उसको ‘मॉर्निंग वुडी’ भी हो रखी है... आख़िरी बार उसको ऐसा कब हुआ था, अब तो याद भी नहीं था उसे। रागिनी ने उसकी ऐसी झण्ड करी थी कि अब तो उसको लड़की देख कर स्तम्भन भी नहीं होता था। मॉर्निंग वुडी भी नहीं। रही सही कसर जेल की सैर ने पूरी कर दी।

उसने चादर हटा कर बड़े ही आश्चर्य से अपने शिश्न को देखा - एक मज़बूत स्तम्भन! आश्चर्य है न - कैसा भयंकर स्वप्न और फिर भी शरीर में इस तरह की ऊर्जा! अजय का उद्धर्षण बेहद कठोर था। वैसा, जैसा उसको अपने युवावस्था के शिखर पर महसूस होता था! लेकिन, उसके लिंग का आकार? अजय चौंका।

‘ये क्या हुआ?’

उसका शिश्न आकार में अपेक्षाकृत छोटा लग रहा था! वृषण भी छोटे ही लग रहे थे!

क्या शिश्न, क्या वृषण, ये तो पूरा शरीर ही बहुत हल्का लग रहा था उसको।

‘ये क्या हुआ?’ उसने सोचा, ‘इरेक्शन तो परफेक्ट है, लेकिन साइज़ छोटा... और मेरी जांघें, मेरा पेट! ऐसे कैसे?’

एक रात भर में ही कोई कैसे तीस - पैंतीस किलो वज़न घटा सकता है?

उसका दिमाग चकरा गया। वो उठा और लपक कर उसने कमरे में लगे हुए दर्पण में स्वयं को देखा। और जो उसने देखा, वो अकल्पनीय था।

जो वो उसको दिख रहा था, वो अजय ही था, लेकिन अपनी उम्र से कहीं कम! लगभग एक दशक कम!

वो दृश्य देख कर अजय के शरीर में भीषण झुरझुरी होने लगी। अब जा कर उसको भय महसूस हुआ। अब जा कर उसका शरीर डर के मारे पसीने से नहा उठा।

‘ये क्या देख रहा हूँ मैं,’ उसने सोचा - आँखें मलीं और स्वयं को दो थप्पड़ भी लगाए कि नींद से बाहर निकले वो। लेकिन दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब नहीं बदला। वो वैसा ही रहा। दर्पण के एक तरफ जीवन के तीन दशक पार कर चुका अजय था, और दूसरी तरफ़ वो अजय था, जिसने अभी भी अपने जीवन के दूसरे दशक के दरवाज़े पर दस्तख़त भी नहीं दी थी।

“अज्जू बेटे,” इतने में किरण जी की आवाज़ आई।

अजय को साफ़ महसूस हुआ कि माँ की आवाज़ नीचे से आई है।

‘नीचे से?’ वो चौंका, ‘नीचे से माँ की आवाज़ कैसे आ सकती है?’

वो दोनों तो एक कमरे के फ्लैट में रहते हैं - माँ अंदर के कमरे में और वो बाहर हॉल में सोता है। यही बंदोबस्त है - इतनी ही व्यवस्था कर सका था वो जेल से निकलने के बाद!

“उठ जा बेटे... देर हो जाएगी कॉलेज जाने के लिए...” माँ की आवाज़ निकट आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कि वो सीढ़ियों से चढ़ते हुए ऊपर आ रही थीं।

‘सीढ़ियाँ?’

अब जा कर वो थोड़ा चैतन्य हुआ! उसने चौंक कर इधर उधर देखा।

‘ये तो... ये तो...’

वो कमरा अभूतपूर्व रूप से परिचित था!

यह कमरा तो उसके पुराने घर में था। पुराना घर... मतलब, दिल्ली का! पुराना घर, जो उसके माता पिता और ताऊ जी ताई जी ने मिल कर बनवाया था! वो घर, जो उनकी निशानी थी - जिसको वो गँवा बैठा था।

वो दिल्ली पहुँच गया?

कब? कैसे? क्या हो रहा है ये सब?

वो बड़ी ही अजीब सी उधेड़बुन में पड़ गया था - क्या हो रहा है ये, उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

“अज्जू बेटे... उठा नहीं अभी तक?” माँ की आवाज़ पास आती जा रही थी, “ये लड़का भी न!”

अजय अभी भी अचकचाया हुआ था, दर्पण के सामने खड़ा हुआ अभी भी सोच रहा था कि वो शायद कोई सपना देख रहा हो! इतने में दरवाज़ा खुला और माँ अंदर आ गईं।

“हे भगवान,” वो उसको देख कर बोलीं, “इतना समझाती हूँ और ये लड़का है कि समझता ही नहीं!”

“माँ... क्या...”

“अरे मेरे नंगू बाबा! क्या कर रहा है शीशे के सामने? टाइम का कोई अंदाज़ा है तुझे?” माँ दनादन बोले जा रही थीं, “देख कितनी देर हो गई है, बेटे!”

“माँ?”

“क्या माँ माँ कर रहा है? ब्रश किया?”

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो क्या कर रहा है ऐसे नंगा नंगा शीशे के सामने खड़ा हो कर?”

“अभी अभी उठा हूँ माँ!”

“तो चल! आ जा जल्दी से नीचे। देर नहीं हो रही है कॉलेज के लिए?”

‘कॉलेज?’

“माँ कॉलेज? क्यों?” वो चकराया हुआ बोला।

“नहीं जाना है कॉलेज?”

“मैं क्यों जाऊँगा कॉलेज माँ?” अजय अभी भी सोच रहा था कि वो कोई सपना देख रहा है।

ये सब हो भी कैसे सकता है?

“क्यों?” माँ ने समझाते हुए कहा, “सेशन अभी अभी शुरू हुआ है बेटे! ऐसे नागा करना ठीक नहीं है। चल, जल्दी से आ जा!”

‘क्या कह रही हैं माँ!’

“सेशन? काहे का सेशन माँ?” वो अभी भी चकराया हुआ था, “क्या कह रही हैं आप... समझ ही नहीं आ रहा है?”

“कॉलेज नहीं जाना है?” माँ ने थोड़ा सख़्त लहज़े में कहा।

उनको पढ़ाई लिखाई में कटौती करना बहुत नापसंद था।

“कॉलेज? क्यों मज़ाक करती हो माँ,” अजय ने कहा।

माँ ने उसका कान पकड़ कर कमरे से बाहर निकालते हुए कहा, “बस! अब और मज़ाक नहीं! चल तैयार हो जल्दी से! कमल आता ही होगा... और एक ये लाट साहब हैं कि मस्ती सूझ रही है इनको!”

‘कमल!’

माँ कह रही थीं, “सुन, माया ने नाश्ता तैयार कर दिया है। आधे घण्टे से पहले पहले नीचे आजा... हम वेट कर रहे हैं।”

‘माया?’

कमल उसका बचपन का दोस्त था। बचपन - मतलब आठवीं क्लास से।

माया - माया ‘दीदी’ - उसके माता पिता की दत्तक पुत्री थीं।

**
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अपडेट 6


माया ‘दीदी’ अजय से कोई पाँच साल बड़ी थीं।

वो उसकी सगी दीदी नहीं थीं।

माया दीदी की माँ एक नटिन थीं, और उनके पिता का कोई ठिकाना या कोई ज्ञान नहीं था किसी को। अजय के माता पिता अक्सर सड़क पर माया और उनकी माँ को नटों वाला खेल तमाशे दिखाते हुए देखते थे। अनेकों खेल तमाशे - जैसे कलाबाज़ियाँ दिखाना, आग के वृत्त में से कूद फाँद करना, मुँह से ही किसी बेढब चीज़ को सम्हालना, एक छोटे से पहिए पर बैलेंस बनाना इत्यादि! एक बार अचानक ही वो दोनों सड़क पर दिखने बंद हो गए, तो उनको लगा कि शायद नटों का डेरा उठ गया वहाँ से। लेकिन कुछ दिनों बाद उनको फिर से माया दिखी। पूछने पर माया से ही उनको पता चला कि कोई सप्ताह भर पहले रस्सी पर चलने वाला तमाशा दिखाते हुए माया की माँ कोई चौदह फुट की ऊंचाई नीचे गिर गईं। और कोई चोट होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन बदकिस्मती ऐसी कि वो सर के बल गिरीं, और उस दुर्घटना में उनकी गर्दन टूट गई।

एक अकेली, निःसहाय, लेकिन जवान लड़की की इस समाज में क्या दुर्दशा हो सकती है, यह सभी जानते हैं! कोई बड़ी बात नहीं थी कि कल वो वेश्यावृत्ति के काले संसार में फंस जाती! और न जाने क्या आकर्षण हुआ अजय के माता पिता को माया से कि वो उसको अकेली न छोड़ सके। इसलिए अजय के माता पिता, माया को अपने घर लिवा लाए। वो एक समय था और आज का समय है - माया इस परिवार का अभिन्न अंग बन गई थी। अवश्य ही वो कानूनी तौर पर उनकी पुत्री न बन सकीं, लेकिन शीघ्र ही वो हर मायनों में उनकी पुत्री अवश्य बन गईं।

अजय के माता पिता चाहते थे कि अजय की ही भाँति वो भी पढ़ लिख सके, लेकिन एक उम्र हो जाने पर कुछ लोगों को पढ़ने लिखने का मन नहीं करता। बहुत सी बाधाएँ आ जाती हैं। माया के साथ भी यही हुआ। उसको स्कूली ड्रेस पहन कर स्कूल जाना अखरता। वैसे भी एक सयानी लड़की अगर नौवीं दसवीं की क्लास में बैठे, तो उसको तो उसको, उसके सहपाठियों को भी अजीब लगता। सब उसको ‘दीदी’ कहते - आदर से नहीं, चिढ़ाने के लिए! तो इस तरह कुछ दिन स्कूल में पढ़ने की असफल कोशिश करने के बाद, एक दिन उन्होंने ‘अपने’ माता पिता से कह दिया कि वो स्कूल नहीं जाना चाहतीं। हाँ, पढ़ना अवश्य चाहती हैं। इसलिए घर पर ही रह कर जो पढ़ाई लिखाई हो सके, वो करने को तत्पर हैं... और बस उतना ही करना चाहती हैं।

लेकिन उनकी इच्छा गृहकार्य में निपुण होने की थी, जिससे वो अपने आश्रयदाताओं की देखभाल कर सकें। यह भी ठीक था। अधिक समय नहीं लगा कि माया दीदी को घर के लगभग हर काम करने में निपुणता हासिल हो गई। भिन्न भिन्न प्रकार के भोजन पकाना, घर को ठीक तरीके से सहेज कर रखना, घर की साज-सज्जा, और बाहर पौधों की देखभाल करना इत्यादि उनको बखूबी आ गया था। और इन पाँच सालों में पहले तो अजय की माँ प्रियंका, और फिर बाद में केवल उसकी ताई माँ किरण ने होम-स्कूलिंग कर के माया को प्राईवेट से हाई स्कूल और इण्टर दोनों पास करवा दिया।

माया के लिए पूर्व में यह मुक़ाम हासिल कर पाना भी लगभग असंभव था। पढ़ना लिखना एक काम होता है, लेकिन एक स्वस्थ सुरक्षित जीवन जी पाना अलग! उसको पहले यकीन ही नहीं हुआ कि कोई संभ्रांत परिवार उसको यूँ अपना सकता है। उसको पहले पहले लगता था कि अगर और कुछ नहीं तो वो इस घर की नौकरानी बनेगी। वो भी उसके लिए कोई खराब स्थिति नहीं थी। जिस तरह से उसका रहन सहन था, और जिस जिस तरह के लोगों से उसका पाला पड़ता था, उसके हिसाब से किसी बड़े घर की नौकरानी बनना एक अच्छी बात थी। कभी कभी उसको शक़ भी होता कि कहीं घर के दोनों मर्द (अजय के ताऊ जी, अनामि, और उसके पिता जी, अशोक) उसके साथ कुछ करना तो नहीं चाहते, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उल्टा, दोनों ही उसको बड़े प्रेम से, बड़े आदर से, और अपनी बेटी समान ही रखते।

शीघ्र ही परिवार के शुद्ध प्रेम ने माया की शंकाओं पर विजय प्राप्त कर ली।

लेकिन सभी से इतर, अजय को माया से अलग ही प्रकार की चिढ़ थी।

बहुत से कारण थे इस बात के। एक तो यह कि अचानक से घर का एकलौता पुत्र होने का आनंद माया के आने के कारण कम हो गया था। लोग उस पर कम और माया पर अधिक ध्यान देते - हाँलाकि यह बात पूरी तरह से गलत थी, लेकिन एक बारह साल का लड़का और क्या सोचे? दूसरा कारण यह था कि उसको अब अपना कमरा माया के साथ शेयर करना पड़ता। घर में पाँच कमरे थे - बाहर के नौकर या चौकीदार का कमरा छोड़ कर। एक एक कमरा तो मम्मी-पापा और ताऊ जी और ताई जी का था। एक कमरा प्रशांत भैया का और एक कमरा अजय का। एक कमरा गेस्ट्स के लिए था। ऊपर नीचे दो हॉल थे, और एक डाइनिंग हाल था। प्रशांत भैया - अजय के चचेरे बड़े भाई और अनामि और किरण जी के एकलौते बेटे - ने अभी अभी इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू करी थी, और उनका जीवन थोड़ा अलग हो गया था। लेकिन फिर भी वो अपना कमरा छोड़ने वाले नहीं थे। उनको बहुत गुस्सा आता अगर कोई उनके कमरे में प्रविष्ट भी होता तो! गेस्ट रूम में माया को रखा नहीं जा सकता था। लिहाज़ा, ले दे कर एक अजय का ही कमरा शेष था। इसलिए अपना कमरा शेयर करने की मजबूरी से उसको माया से और भी चिढ़न महसूस होती।

माया की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी कि वो अजय के ‘क्षेत्र’ में अतिक्रमण करे। वो अपने सर पर एक छत्र-छाया पा कर ही धन्य हो गई थी। वो अजय के कमरे में, उससे दूर ज़मीन पर सोती - हाँलाकि प्रियंका जी और किरण जी ने उसको अजय के साथ ही सोने को कहा था। फिर भी अजय की चिढ़न कम नहीं हुई। कुछ दिन तो ऐसे ही चला, लेकिन एक दिन माया से एक गुनाह-ए-अज़ीम हो गया। शायद उसने अजय की किसी पसंदीदा वस्तु को छू लिया। मारे गुस्से के अजय ने माया के एक स्तन पर इतनी ज़ोर से दबाया (चिकोटी काटी) कि दर्द के मारे उस बेचारी की आँखों से आँसू निकल गए। शरीर पर लगी चोट बर्दाश्त हो भी जाती है, लेकिन जो चोट मन पर लगती है, उसका निदान आसान नहीं। बेचारी कोमल हृदय वाली माया अगले कई दिनों तक अपने आपको कोसती रही और सोचती रही कि वो ऐसा क्या करे कि ‘बाबू’ (अजय के लिए माया का प्यार वाला नाम) उससे इस तरह से नाराज़ न हो।

अवश्य ही वो अजय के दिल में स्थान न बना पाई हो, लेकिन बाकी परिवार के साथ वो जल्दी ही घुल-मिल गई। और तो और, अजय आशाओं के विपरीत प्रशांत भैया भी माया को बुरा नहीं कहते थे। उल्टा, वो उसको पसंद भी करते थे। माया में भी अब अंतर आ गया था। एक प्रेम-भरे परिवार की छत्र-छाया में आ कर वो निखर गई, और संभ्रांत और सौम्य भी दिखने लगी। उसका शरीर भी सुन्दर तरीक़े से भर गया। कोई उसका पुराना जानने वाला उसको देख कर पहचान नहीं सकता था।

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अच्छे कामों का अच्छा नतीजा निकलता है!

माया ने जिस तरह से घर के कामों को अपने सर ले लिया, उससे अजय की दोनों माँओं को अपने अपने पतियों के साथ अंतरंग होने के अधिक अवसर मिलने लगे। बाहर के लोगों को आश्चर्य हुआ होगा, लेकिन घर में किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ जब अजय की माँ और ताई माँ दोनों ही कुछ महीनों के अंतराल पर एक बार फिर से प्रेग्नेंट हुईं। अजय की माँ प्रियंका जी का तो ठीक था, लेकिन उसकी ताई माँ, किरण जी का पुनः प्रेग्नेंट होना उनके पुत्र प्रशांत को अच्छा नहीं लगा। शायद इसलिए क्योंकि अब वो स्वयं उस उम्र में था कि शादी कर के अपने बच्चे पैदा कर सके। उसके लिए यह ऐसी ख़ुशी की खबर थी, जिस पर वो स्वयं ख़ुशी नहीं मना सका। वैसे भी वो उस समय इंजीनियरिंग के अंतिम साल में था और आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका जाने की तैयारी में था। अपने समय पर ख़ुशियाँ आनी भी शुरू हुईं - किरण जी ने अपने नियत समय पर एक सुन्दर और स्वस्थ बालक को जन्म दिया। प्रियंका जी को पुनः माँ बनने में अभी भी कोई चार महीने शेष थे।

लेकिन फिर वो हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं करी थी!

एक सड़क दुर्घटना में अनामि जी, उनके नवजात शिशु, और गर्भवती प्रियंका जी की असमय मृत्यु हो गई। कार के ड्राइवर अनामि जी ही थे। प्रियंका जी उनके बगल ही पैसेंजर सीट पर बैठी थीं। दोनों गाड़ी की टकराहट के भीषण धक्के से तत्क्षण मृत हो गए। किरण जी संयोग से पीछे की सीट पर अपने नवजात के साथ बैठी थीं। वो तो बच गईं, लेकिन धक्के में उस शिशु को भी गहरी चोटें आईं। जिससे वो भी ईश्वर को प्रिय हो गया।

एक खुशहाल परिवार एक झटके में कैसे वीरान हो जाता है, कोई इनसे पूछे!

किरण जी सर्वाइवल गिल्ट के कारण अवसाद में चली गईं। उनके मन में होता कि वो भी अपनी चहेती और छोटी बहन जैसी देवरानी, पति, और नवजात शिशु के संग स्वर्गवासी क्यों नहीं गईं! ऐसे में माया दीदी ने ही उनको दिशा दिखाई।

अपनी माँ की मृत्यु के बाद न केवल किरण जी ही, बल्कि अजय भी गुमसुम सा रहने लगा था। भयानक समय था वो! अजय के पिता, अशोक जी अपनी पत्नी और अपने बड़े भाई की मृत्यु से शोकाकुल थे; और किरण जी का हाल तो बयान करने लायक ही नहीं था। ऐसे में अजय ही उन दोनों के उपेक्षा से आहत हो गया था। माया दीदी यथासंभव उसकी देखभाल करतीं, लेकिन अजय के मन में वो अभी भी एक बाहरी सदस्य थीं। इसलिए न तो उसको उनसे उतना स्नेह था और न ही उनके लिए उतना सम्मान। लेकिन माया को समझ आ रहा था सब कुछ! वो स्वयं सयानी थी। एक दिन हिम्मत कर के वो किरण जी के कमरे में गई,

“माँ जी?”

“हम्म?” पुकारे जाने पर किरण जी चौंकी।

“माँ जी... एक बात कहनी थी आपसे...”

“बोल न बेटे... इतना हिचकिचा क्यों रही है तू?”

“छोटा मुँह बड़ी बात वाली बात कहनी है माँ जी,” माया ने कहा, “इसलिए डरती हूँ कि कहीं आप नाराज़ न हो जाएँ!”

“बोल बच्चे! तू अपनी है न! बोल।” माँ ने उसको दिलासा दिया।

“माँ जी, बाबू की भी हालत ठीक नहीं है,” माया ने कहा - वो अजय को प्यार से बाबू कह कर बुलाती थी, “आप लोगों की ही तरह वो भी दुःखी है।”

किरण जी चौंक गईं! बात तो सही थी। अपने अपने ग़म में सभी ऐसे डूबे हुए थे कि उनको अजय का ग़म दिख ही नहीं रहा था।

“वो कुछ दिनों से ठीक से खाना नहीं खा रहा है। मैंने बहुत कोशिश करी, लेकिन एक दो निवालों से अधिक कुछ खाया ही नहीं उसने।”

“सच में?” किरण जी अवाक् रह गईं।

“सच की दीदी होती उसकी तो जबरदस्ती कर के खिला देती,” कहते हुए माया की आँखों में पानी भर गया।

“हे बच्चे, ऐसा अब आगे से कभी मत कहना! छुटकी (प्रियंका जी) ने तुझे बेटी कहा है। उस नाते तू भी मेरी बेटी है!”

“आपने मुझको इतना मान दिया, वो आपका बड़प्पन है माँ जी। लेकिन बाबू आपका बेटा है!” वो हिचकिचाती हुई बोली, “एक बात कहूँ माँ जी?”

“बोल न बच्चे?”

“आप... आप उसको माँ वाला प्यार दे दीजिए न...” माया झिझकते हुए कह रही थी, “आप उसको अपने आँचल में छुपा कर अपनी ममता से उसकी भूख मिटा दीजिए...”

क्या कह दिया था माया ने!

बात तो ठीक थी। अपने नवजात शिशु की असमय मृत्यु के बाद किरण जी की ममता जिस बात की मोहताज थी, उसका उपाय ही तो बता रही थी माया! और अजय अभी भी ‘उतना’ बड़ा नहीं हुआ है कि अपनी माँ के स्तनों से दूध न पी सके...
अचानक से ही किरण जी के मन से अवसाद के बदल छँट गए।

“थैंक यू बेटे,” कह कर किरण जी उठीं, और बोलीं, “तू भी आ मेरे साथ।”

जब दोनों अजय के कमरे में पहुँचीं, तो उसको खिड़की के सामने गुमसुम सा, शून्य को ताकते हुए पाया। किरण जी का दिल टूट गया उस दृश्य को देख कर! सच में - जिस समय अजय को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता थी, उसी समय उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया था। भला हो इस बच्ची माया का, जिसने उनको सही राह दिखा दी!

“बाबू?” माया ने अजय को पुकारा।

अजय अपनी तन्द्रा से बाहर निकल आया, “दीदी?”

“अज्जू बेटे,” किरण जी उसके बगल बैठती हुई बोलीं, “मुझे माफ़ कर दे बेटे... बहुत बड़ी गलती हो गई मुझसे...”

“माँ...?”

“मेरा बच्चा... तू अब से कभी मत सोचना कि तेरी माँ नहीं हैं... मैं हूँ न... तेरी माँ!”

कह कर किरण जी ने अपने स्तनों को अपनी ब्लाउज़ से स्वतंत्र कर लिया, और कहा, “आ मेरे बच्चे... मेरे पास आ...!”

किरण जी की ममता को जो निकास चाहिए था, वो उनको अजय में मिल गया और अजय जिस ममता का भूखा था, वो उसको अपनी ताई जी, किरण जी में मिल गई।

स्तनपान करते हुए जब उसको एक मिनट हो गया तब किरण जी ने अजय से कहा,

“मेरे बेटू... मैं तुझसे एक बात कहूँ?”

अजय ने माँ के स्तन को मुँह में लिए ही ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“जब माया दीदी तुझे खाना खिलने की कोशिश कर रही थीं, तो तूने खाया क्यों नहीं?”

उनकी इस बात पर अजय निरुत्तर हो गया।

“कहीं ऐसा तो नहीं कि तू उसको अपनी दीदी नहीं मानता?”

उसके मन की बात अपनी ताई जी के मुँह से सुन कर अजय शर्मसार हो गया - बात तो सही थी। ढाई साल हो गए थे माया दीदी को घर आये, लेकिन इतने समय में भी वो उनको अपना नहीं सका। माया उसी के साथ सोती, लेकिन वो उससे अलग अलग, खिंचा खिंचा रहता। और तो और, बदमाशी में कभी कभी वो उसको लात मार मार कर बिस्तर से नीचे गिरा देता - लेकिन बहाना ऐसा करता कि जैसे वो स्वयं सो रहा हो। उधर माया पूरी कोशिश करती कि “बाबू” की नींद में खलल न पड़े और वो आराम से सो सके। उसके खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने का पूरा ध्यान रखती। स्कूल जाते समय की पूरी व्यवस्था रहती - उसके कपड़े प्रेस रहते, जूते पॉलिश रहते - सब कुछ व्यवस्थित!

वो कुछ कह न सका। लेकिन अपराधबोध उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रहा था।

किरण जी ने समझ लिया कि बेटे को अपनी गलती का एहसास हो गया है।

वो बोलीं, “अज्जू... मेरे बच्चे, जैसे तू मेरा बेटा है न, वैसे ही माया मेरी बेटी है... जैसे तू मेरा दूध पी रहा है न, वैसे ही माया भी...” कह कर वो माया की तरफ़ मुखातिब हो कर बोलीं, “... आ जा बिटिया मेरी... आ जा...”

अब आश्चर्यचकित होने की बारी माया की थी। उसने यह उम्मीद तो अपने सबसे सुन्दर सपनों में भी कभी नहीं करी थी! किरण जी के ममतामई आग्रह को वो मना नहीं कर सकती थी। वो भी माँ के स्तन से जा लगी।

आगे आने वाले सालों में यह नए रिश्ते इस परिवार की दिशा बदलने वाले थे - यह किसी को नहीं पता था।
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“माया दीदी हैं?” अजय ने आश्चर्य से पूछा।

माया दीदी की तो शादी हो गई थी! फिर वो यहाँ कैसे?

उससे भी बड़ा प्रश्न - वो खुद यहाँ कैसे? ये घर तो बिक चुका! लुट चुका!

“नहीं होगी तो कहाँ चली जाएगी?” माँ ने कहा - अब उनका धैर्य जवाब दे रहा था, “क्या हो गया है तुझे आज? चल, कमल आता ही होगा बेटे! वैसे भी बहुत देर हो गई है!”

“माँ, आज डेट क्या है?”

“नौ तारीख़ है,”

“नहीं... मेरा मतलब पूरी डेट?”

“नौ जुलाई, नाइनटीन नाइंटी फाइव।”

“क्या?”

‘ऐसे कैसे हो सकता है?’

‘आज तो नौ जुलाई, टू थाउजेंड एट होना चाहिए!’

‘वो तेरह साल पीछे कैसे जाग सकता है?’

‘वो कोई सपना तो नहीं देख रहा है?’

ऐसे अनेकों ख़याल अजय के दिमाग में कौंध गए।

“क्या हुआ? ऐसा क्या हो गया? ऐसे क्यों चौंक रहा है लड़का?” माँ अपने अंदाज़ में बोलीं - उनके चेहरे पर हँसी वाले भाव थे।

“माँ मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ?”

“उठ जा, नहीं तो यहीं तेरे को पानी से नहला दूँगी! नींद और सपना सब उड़ जायेगा!” वो हँसती हुई बोलीं, “और तेरी सारी मसखरी भी!”

माँ ने कहा और कमरे से बाहर निकल गईं।

लेकिन अजय के दिमाग का बुरा हाल था। उसने आँखें मलते हुए ध्यान से अपने हर तरफ़ देखा - बात तो सही है! उसके आस पास की पूरी दुनिया बदल सी गई लगती है! घर... बिस्तर... बाहर चलते हुए गाने... माँ ने जो कुछ कहा... सब कुछ!

कल तक तो वो लगभग तीस साल का आदमी था, और आज! पूरे तेरह साल पीछे चला गया! क्या वाक़ई वो तेरह साल पीछे चला गया, या कि कोई सपना देख रहा था वो? ऐसी कहानियां तो बस विज्ञान गल्प में ही पढ़ने सुनने को मिलीं थीं! और अब शायद वो खुद वैसी ही कहानी में था! कल उस बूढ़े आदमी - प्रजापति - से वो यही बात कर रहा था न!

‘बूढ़े प्रजापति?’

‘प्रजापति... विश्वकर्मा...’

उसके मस्तिष्क में ये दो शब्द कौंधे।

उसने दिमाग पर ज़ोर डाला।

‘कौन थे प्रजापति?’

‘प्रजापति! कहीं वो प्रजापति जी ईश्वर का ही रूप तो नहीं थे?’

महाभारत में भगवान ब्रह्मा को प्रजापति नाम से सम्बोधित किया गया है। अन्य ग्रंथों में भगवान शिव और भगवान विष्णु को भी प्रजापति माना जाता है। ये तीनों ही सृष्टि के आधार हैं।

‘तो क्या... तो क्या...’

अजय का दिमाग चकरा गया!

‘क्या कल उसकी मुलाकात स्वयं सृष्टि रचयिता ईश्वर से हो गई थी?’

ऐसा संभव भी है क्या? और अगर है भी, तो उन्होंने उसको केवल तेरह साल ही पीछे क्यों भेजा? और पीछे क्यों नहीं? माँ से मिलना भी तो कितना अच्छा होता! वो केवल तेरह साल पीछे ही क्यों आया वो? और पीछे क्यों नहीं?

उसके मन में कई ख़याल आ रहे थे। शायद उसको तेरह साल पीछे इसलिए भेजा गया है, क्योंकि उसने प्रजापति जी से माँ के बारे में एक बार भी बात नहीं करी थी। उसने उनको बताया था कि वो अपने पिता के लिए कुछ करना चाहता है। माँ का नाम तो उसने एक बार भी नहीं लिया! उसका दिल निराशा से टूट गया! काश, वो एक बार माँ से मिल पाता। लेकिन यह बात भी कोई कम है क्या? अगर स्वयं ईश्वर ने उसको यह ‘दूसरा अवसर’ दिया है, तो उसका कर्त्तव्य होता है कि वो इस अवसर का पूरा पूरा लाभ उठाए। और अपने प्रियजनों को भी उसका लाभ दिलाए।

उसके दिमाग में प्रजापति जी की बातें घूम रही थीं - उसको जो समझ में आया वो यह था कि उसको इस अवसर का अनुचित लाभ नहीं उठाना चाहिए... बस इतना कि जिस तरह से उसके प्रियजनों को अनावश्यक और अनुचित दुःख झेलने मिले हैं, वो न हो। वो प्रसन्न हों!

वो भागता हुआ बाहर हॉल में आया। वहाँ आ कर उसने देखा कि ये तो वही घर है, जिसको रागिनी ने बेच कर सारे पैसे हड़प लिए थे। यह घर - बंगला - उसके माता पिता और ताऊ जी और ताई जी ने मिल कर बनाया था। यह विरासत थी उनकी! प्रशांत भैया ने अपने हिस्से को अजय के नाम कर दिया था, इसलिए सब कुछ उसी का था! लेकिन... कितना अभागा था वो कि वो इस विरासत को सम्हाल कर नहीं रख सका। वो इन सबके लायक ही नहीं था, शायद!

हाल में आते ही उसने जिसको देखा, उसको देख कर वो ख़ुशी से फूला न समाया।

“पापा!” वो लगभग चीखते हुए बोला और भागते हुए आ कर अपने पिता, अशोक जी से लिपट गया।

“अरे, क्या हुआ बेटे?” अशोक जी अखबार पढ़ रहे थे और अपने बेटे को यूँ व्यवहार करते देख कर वो थोड़ा चौंक गए। लेकिन उनको अच्छा लगा कि उनका बेटा उनसे इतने प्यार से व्यवहार करता है।

अशोक ठाकुर, अजय के पिताजी एक बिजनेसमैन थे।

थे इसलिए क्योंकि जब वो ग्रेजुएशन की पढ़ाई शुरू कर रहा था, तब एक मेडिकल मेलप्रैक्टिस या कहिए, डाक्टरों की लापरवाही के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी।

कितना रोया था वो उनकी मृत्यु पर! लोग अक्सर कहते हैं कि लड़के अपनी माँ के अधिक करीब होते हैं, लेकिन अजय को अपने पिता से अपनी माँ की अपेक्षा अधिक लगाव और स्नेह था। उसके पिता उसके चैम्पियन थे। वो उसको अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते रहते थे, लेकिन उनकी असमय मृत्यु के कारण वो पूरा टूट गया था। इतने सालों बाद उनको पुनः जीवित देख कर उसको कितनी ख़ुशी मिली थी, वो बयान नहीं कर सकता था!

अगर ये सब सपना है, तो बहुत अच्छा है!

“कुछ नहीं पापा,” वो बोला, “कुछ नहीं! सब अच्छा है!”

“पक्का?”

“जी पापा पापा,” अजय ने उनको देखते हुए कहा, “आई ऍम जस्ट सो हैप्पी टू सी यू!”

वो मुस्कुराए, “जल्दी तैयार हो जाओ बेटे... सच में देर हो रही है आज!”

“जी पापा...”

अजय जल्दी जल्दी तैयार हुआ, और नाश्ते के लिए लगभग भागता हुआ नीचे डाइनिंग हॉल में आया।

तब तक माया ने टेबल पर नाश्ता लगा दिया था, “बाबू, चलो अब जल्दी से खा लो! आलू पराठे बनाए हैं तेरे लिए,”

“दीदी,” कह कर अजय माया से भी लिपट लगा।

आश्चर्यचकित होने की बारी माया की थी अब!

पिछले पाँच सालों में अजय और उसके रिश्तों में बहुत सुधार हुआ तो था, लेकिन जैसी आत्मीयता अजय इस समय दिखा रहा था, वो अभी तक अनुपस्थित थी। सबका प्यार मिल गया था उसको घर में - बस अपने छोटे भाई का नहीं! प्रशांत भैया भी उसको लाड़ करते थे... उनके लिए एक छोटी बहन की कमी माया ने अभूतपूर्व तरीक़े से पूरी कर दी थी। जब भी वो दीपावली पर घर आते, बिना भाई दूज मनाए वापस नहीं जाते थे।

अजय का बदला हुआ व्यवहार अन्य कारणों से भी था। हाँ, वो मैच्योर तो हो ही गया था, लेकिन समय के साथ माया दीदी उसके सबसे प्रबल समर्थकों में से थीं। वो उसके सबसे कठिन समय में उसके साथ खड़ी रही थीं। उनके साथ भी गड़बड़ हो गया था। जैसे प्रशांत भैया और स्वयं अजय की पत्नियाँ लालची और ख़राब किस्म की आई थीं, उसी तरह उनका पति भी खराब ही निकला! ख़राब होना एक अलग बात है, लेकिन वो उनको मानसिक यातनाएँ और संताप देता रहता। लेकिन माया का व्यवहार ऐसा था कि इतना होने पर भी वो उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी न बोलतीं।

वयस्क अजय अक्सर सोचता रहता कि काश वो माया दीदी को उनके नर्क भरे जीवन से निकाल पाता। लेकिन कैसे? संभव ही नहीं था। उसकी खुद की हालत ऐसी खराब थी कि क्या बताए! माँ के साथ गुजारा बहुत मुश्किल से चल रहा था।

उसने एक नज़र दीदी की माँग में डाली - कोई सिन्दूर नहीं! वो दृश्य देख कर उसको राहत हुई। मतलब कुछ तो हुआ है कि ईश्वर ने उसको एक और अवसर दिया है सब कुछ ठीक कर देने के लिए!

‘हाँ! इस समय तक भी माया दीदी की शादी नहीं हुई थी!’

उसने दिमाग पर ज़ोर डाला और पुरानी बातें याद करने की कोशिश करी।

‘लेकिन माया दीदी की शादी जुलाई में ही तय हुई थी... और नवम्बर में शादी हो गई थी उनकी!’

इस बात पर उसको याद आया कि नवम्बर के महीने में ही प्रशांत भैया की शादी भी तो कणिका भाभी से हुई थी! वो शादी भी सही नहीं हुई - प्रशांत भैया थोड़ा मेहरे स्वभाव के आदमी हैं। औरत देख कर बिछ जाने वाली हालत है उनकी। मतलब माया दीदी और प्रशांत भैया - दोनों की ही नैया उसी को सही राह पर लानी है! और अपनी? वो खुद शादी नहीं करेगा - एक बार जंजाल मोल लिया, और पेट भर गया उसका!

शरीर से वो अवश्य ही किशोर है, लेकिन अनुभव में तो वो काफ़ी आगे है! भविष्य से आया हुआ है वो! उस बात का कोई मोल तो होना चाहिए।

उसने माया के दोनों गालों को चूम लिया - ऐसा करना उसने अभी कुछ वर्षों पहले ही शुरू किया था। इसलिए ‘इस’ माया दीदी के लिए यह पहली घटना थी। उनको भी सुखद आश्चर्य हुआ।

“क्या हुआ है बाबू? कोई अच्छी खबर मिली है लगता है?” माया ने हँसते हुए कहा।

वो सच में बहुत प्रसन्न थी।

“ऐसा ही समझ लो दीदी... ऐसा ही समझ लो!”

“अच्छी बात है... स्कूल से वापस आओ, फिर आराम से सुनेंगे!”

“स्कूल नहीं दीदी, कॉलेज!”

“आलू पराठा!” दीदी ने मुस्कुराते हुए चेताया, “... अरे, कमल?” और कमल को भीतर आते देख कर कहा, “आ गया?” और फिर जैसे कमल से अजय की शिकायत करती हुई बोलीं, “ये देखो... तुम्हारा दोस्त अभी नाश्ता भी नहीं कर सका!”

“कोई बात नहीं दीदी... थोड़ा टाइम तो है!” कमल ने कहा।

“टाइम है?” उसने खुश होते हुए कहा, “तो बैठो फिर, तुमको भी पराठे खिलाती हूँ!”

और कमल के लिए भी प्लेट लगाने लगी।

कमल और अजय आज समझ गए थे कि कॉलेज के लिए लेट होगा।

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