अध्याय - 37
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अब तक....
माहौल एकदम से बदल सा गया था और मुझे भी इस माहौल में थोड़ा अच्छा महसूस हो रहा था। मेरे कमरे में वो बच्ची मेरे बेड पर बैठी ख़ुशी ख़ुशी लड्डू खा रही थी। कुसुम उसके पास ही बैठी थी। थोड़ी देर में रागिनी भाभी और मेनका चची भी मेरे कमरे में आ गईं थी। वो सब उस प्यारी सी बच्ची को देख कर खुश थीं और उससे बातें करती जा रही थी। वो बच्ची जब अपनी तोतली भाषा में बातें करती तो वो सब मुस्कुरा उठतीं थी। सहसा मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी तो मैं चौंका।
अब आगे....
रागिनी भाभी बेड के पास ही खड़ी थीं और उनका चेहरा भी उस बच्ची की ही तरफ था लेकिन वो मुझे कहीं खोई हुई सी नज़र आ रहीं थी। चाँद की मानिन्द खिला हुआ चेहरा एकदम से बेनूर सा नज़र आने लगा था। जाने क्यों उनके चेहरे पर आ गई इस उदासी को देख कर मुझे अच्छा नहीं लगा। अब क्योंकि मैं जानता था कि उन्होंने अपने सीने में किस तरह का दर्द सबसे छुपा रखा था इस लिए मुझे उनके लिए दुःख का एहसास हुआ। अभी मैं उनके उदास और मलिन पड़े चेहरे को देख ही रहा था कि तभी जैसे उनका ध्यान टूटा और वो किसी से बिना कुछ बोले पलटीं और कमरे से बाहर चली गईं। दरवाज़े के पास पहुंचते पहुंचते मैंने ये देख लिया कि उन्होंने अपने दाहिने हाथ से अपने आंसू पोंछे थे।
कमरे में उस छोटी सी बच्ची की वजह से बाकी सब खुश थे और उस बच्ची में ही मगन थे। किसी का इस बात पर ध्यान ही नहीं गया कि उनकी ख़ुशी के बीच से कोई बेहद उदास और दुखी हो कर चुप चाप चला गया है। मैंने कुसुम और मेनका चाची से ज़रूरी काम का बहाना बनाया और बेड से उतर कर कमरे से बाहर चला गया। मैं अपनी उस भाभी को उदास और दुखी कैसे देख सकता था जिनका कुल गुरु की भविष्यवाणी के अनुसार सब कुछ छिन जाने वाला था और जो भाभी इतने बड़े दुःख दर्द को अपने सीने में छुपा कर सबके सामने ज़बरदस्ती मुस्कुराने पर बेबस थीं।
जल्दी ही मैं भाभी के कमरे के पास पहुंच गया। उनके कमरे का दरवाज़ा बंद था। मैंने धड़कते दिल से दरवाज़े को हल्के से खटखटाया लेकिन अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैंने फिर से दरवाज़ा खटखटाया और उन्हें आवाज़ भी दी। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और मेरी आँखों के सामने भाभी का आंसुओं से तर चेहरा नज़र आया। उनकी ये हालत देख कर मुझे झटका सा लगा और मेरे दिल में एक टीस सी उभरी।
"मुझे इस वक़्त किसी से कोई बात नहीं करनी वैभव।" भाभी ने अपने जज़्बातों को दबाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा_____"भगवान के लिए मुझे इस वक़्त अकेला छोड़ दो।"
"नहीं छोड़ सकता।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए गंभीरता से कहा____"मैं अपनी उस भाभी को ऐसे हाल में हर्गिज़ नहीं छोड़ सकता जिसने अपने सीने में इतने बड़े दुःख दर्द को दबा रखा है और जो किसी को अपना दर्द और अपने आंसू नहीं दिखा सकती।"
"मेरे भाग्य में यही सब लिखा है वैभव।" भाभी ने दुखी भाव से कहा____"अब तक किसी तरह खुद को सम्हालते ही रखा था लेकिन आज उस बच्ची को देख कर मैं अपने दर्द को काबू में नहीं रख पाई। वो मासूम सी बच्ची मेरी कोई दुश्मन नहीं है लेकिन जाने क्यों उसे देख कर मेरे दिलो दिमाग़ में एक झंझावात सा उठ खड़ा हुआ और मेरे मन में उस मासूम के प्रति जलन ईर्ष्या और न जाने क्या क्या पैदा हो गई।"
"इसमें आपका कोई दोष नहीं है भाभी।" मैंने अपने हाथों को बढ़ा कर भाभी के आंसू पोंछते हुए कहा____"और मैं ये भी अच्छी तरह जानता हूं कि मेरी महान भाभी किसी के भी प्रति बुरा नहीं सोच सकती हैं। मेरी भाभी तो दुनिया की सबसे महान और सबसे बहादुर भाभी हैं जिनके सीने में भले ही दुःख दर्द भरा हुआ है लेकिन उनके उसी सीने में सबके लिए प्रेम और सबके बारे में भला सोचने की भावना भी प्रबल रूप से मौजूद है।"
"तुम मुझे बहलाने की कोशिश मत करो वैभव।" भाभी ने पलट कर कमरे के अंदर की तरफ जाते हुए कहा____"मुझे थोड़ी देर के लिए अकेले में जी भर के रो लेने दो।"
"आपने उस दिन मुझे वचन दिया था भाभी कि ना तो आप कभी खुद को दुखी करेंगी और ना ही आंसू बहाएंगी।" मैं अंदर उनके क़रीब बढ़ते हुए बोला_____"फिर आज ये सब क्यों? आप अपने ही वचन को कैसे तोड़ सकती हैं?"
"मुझे इसके लिए माफ़ कर दो वैभव।" भाभी ने मेरी तरफ पलट कर दुखी भाव से कहा_____"लेकिन अपने इस दुःख दर्द को बरदास्त कर लेना मेरे अख़्तियार में नहीं है। मैं बहुत कोशिश करती हूं कि मेरा दर्द मुझे कमज़ोर न बना पाए लेकिन हर बार हार जाती हूं मैं।"
"नहीं भाभी आप हारी नहीं हैं।" मैंने उनको उनके कन्धों से पकड़ कर नम्र भाव से कहा____"आप बस थोड़ी सी कमज़ोर पड़ गई हैं। ख़ैर अब चलिए अपने ये आंसू पोंछिए। मुझे अपनी प्यारी सी भाभी की आँखों में ये आंसू बिल्कुल भी अच्छे नहीं लग रहे हैं। मुझे तो बस अपनी भाभी का ये चेहरा आसमान के चाँद की तरह चमकता हुआ और बाग़ के फूलों की तरह खिला हुआ ही चाहिए।"
मेरी बातें सुन कर भाभी मेरी तरफ एकटक देखने लगीं। आंसुओं से भीगी हुई उनकी आँखें समंदर से भी ज़्यादा गहरी थीं। उनको मैंने कभी भी ज़्यादा श्रृंगार वगैरह किए हुए नहीं देखा था। वो बिना श्रृंगार के ही बेहद खूबसूरत लगतीं थी। इस वक़्त जब वो मुझे एकटक देखे जा रहीं थी तो मुझे उनके चेहरे पर किसी छोटी सी बच्ची की तरह मासूमियत नज़र आई। मेरा जी चाहा कि मैं उन्हें खींच कर अपने सीने से छुपका लूं लेकिन फिर ये सोच कर मैंने अपने जज़्बातों को कुचल दिया कि ऐसा करने से कहीं मेरे मन में उनके प्रति ग़लत भावना न जन्म ले ले। बस यहीं तो मात खा जाता था मैं। उनमें गज़ब का आकर्षण महसूस करता था मैं और फिर उनकी तरफ खिंचने लगता था।
"क्या हुआ भाभी?" मैंने जब उन्हें अपनी तरफ एकटक देखते हुए देखा तो धड़कते दिल से पूछ ही बैठा____"आप मुझे ऐसे क्यों देख रही हैं? क्या मैंने कोई ग़लत बात कह दी है आपसे?"
"नहीं वैभव।" मेरी बात सुन कर जैसे उनकी तन्द्रा टूट गई थी, सम्हल कर बोलीं____"तुमने कोई ग़लत बात नहीं कही है। मैं बस ये सोच कर मन ही मन थोड़ा हैरान हूं कि मेरा देवर अपनी भाभी की कितने सुन्दर शब्दों में तारीफ़ की। कहां से सीखी हैं ऐसी सुन्दर बातें? क्या ऐसी ही बातों से तुम गांवों की लड़कियों को फंसाते हो?"
"क्या भाभी, आप तो मेरा मज़ाक उड़ाने लगीं।" मैंने झेंपते हुए कहा___"और मैंने कब की आपकी तारीफ़?"
"ये भी तो एक तरह की तारीफ़ करना ही हुआ न वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए और फीकी सी मुस्कान के साथ कहा_____"कि तुम्हें अपनी इस भाभी का चेहरा आसमान के चाँद की तरह चमकता हुआ और बाग़ के फूलों की तरह खिला हुआ ही चाहिए।"
"हां तो क्या ग़लत कहा मैंने?" मैंने अपने कंधे उचकाते हुए लावरवाही से कहा____"मुझे आपकी रोनी सूरत बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती इस लिए कहा कि मुझे आपका चेहरा वैसा ही चाहिए। वैसे भी, आप ठाकुर वैभव सिंह की भाभी हैं। आप में काफी ऊँचे दर्ज़े की बात होनी चाहिए।"
"अच्छा जी।" भाभी इस बार मुस्कुराए बगैर न रह सकीं थी। उसी मुस्कान में उन्होंने आगे कहा____"पर मुझे तुम्हारी तरह इतने ऊँचे दर्ज़े वाली नहीं बनना। ऊँचा दर्ज़ा तुम्हें ही मुबारक हो।"
"अरे! देख लेना आप।" मैंने गर्व से सीना तानते हुए कहा____"एक दिन ऐसा आएगा जब आप इस हवेली की ठकुराइन बनेंगी और बड़े भैया दादा ठाकुर बनेंगे। तब आपकी शख्सियत ऊँचे दर्ज़े वाली ही होगी और आपका ये तुच्छ देवर आप दोनों के कदमों में बैठ कर आपके हर हुकुम की तामील करेगा।"
"ये सब छोड़ो।" भाभी ने सहसा आँखें दिखाते हुए कहा____"तुमने तुच्छ किसे कहा? ख़बरदार, आज के बाद मेरे देवर को तुच्छ मत कहना। मेरा देवर तो वो शख़्स है जिसके नाम का डंका दूर दूर तक बजता है और जिसकी दहशत गांव के साहूकारों के दिलों में भरी पड़ी है। मेरा देवर तो इस हवेली की शान है वैभव और इस हवेली का होने वाला दादा ठाकुर है।"
रागिनी भाभी ने जिस जोश और जिस अंदाज़ में ये सब कहा था उसे देख कर मैं हैरान रह गया था। उनके चेहरे पर उभर आए भावों को देख कर मैं चकित रह गया था। मुझे पहली बार एहसास हुआ उनके मन में मेरे प्रति कितना स्नेह था। वो मेरे चरित्र को अच्छी तरह जानती थीं इसके बावजूद उनको मेरे बारे में ऐसा सुनना ज़रा सा भी पसंद नहीं आया था। इस एहसास के साथ ही मुझे एक अलग ही ख़ुशी का एहसास हुआ लेकिन मैं वो नहीं चाहता था जो उन्होंने आख़िर में कहा था। इस हवेली के असली उत्तराधिकारी बड़े भैया थे और पिता जी के बाद उन्हें ही दादा ठाकुर का पद मिलना चाहिए।
"अब जो सच है वही तो बोला मैंने।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"मैं तो आप दोनों के सामने खुद को तुच्छ ही समझता हूं भाभी।"
"अब तुम मार खाओगे मुझसे।" भाभी ने फिर से मुझे आँखें दिखाई____"मैंने कहा न कि तुम मेरे देवर को तुच्छ नहीं कह सकते। तुम शायद कभी नहीं समझ सकते वैभव कि हमारे दिलों में तुम्हारे लिए कैसी भावना है। ख़ैर छोडो, अब जाओ तुम।"
"ठीक है मैं जा रहा हूं।" मैंने कहा____"लेकिन ख़बरदार अब अगर फिर से मेरी प्यारी भाभी को आपने रुलाया तो।"
"जिसका तुम जैसा प्यारा देवर हो।" भाभी ने आगे बढ़ कर मेरे दाहिने गाल को सहलाते हुए बड़े स्नेह से कहा____"वो ज़्यादा देर तक भला कहां खुद को दुखी रख पाएगी? मुझे बहुत अच्छा लगा वैभव कि तुम मेरे अंदर के दुःख को समझ कर फ़ौरन ही मेरे पीछे यहाँ मुझे सम्हालने के लिए आ गए। मैं भगवान से बस यही दुआ करती हूं कि तुम ऐसे ही हमेशा सबके बारे में सोचो और अपने कर्तव्यों को निभाओ।"
भाभी का प्यार और स्नेह पा कर मैं अंदर ही अंदर बेहद खुश हो गया था। कितनी अच्छी थीं वो और कितना मानती थीं मुझे। एक मैं था जो उन्हें देख कर हमेशा अपना मन ख़राब कर बैठता था। ये सोच कर एकदम से मेरा दिल ग्लानि से भर उठा जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से शांत किया और फिर कमरे से बाहर निकल गया।
ज़िन्दगी में विचित्र सा मोड़ आ गया था जिसने मुझ जैसे इंसान को सच में बदलना शुरू कर दिया था। कहां मैं दूसरों की बहू बेटियों के साथ ऐय्याशियां करता फिरता था और कहां अब एकदम से संजीदा हो गया था। कभी कभी सोचता था कि क्या सच में मैं वही ठाकुर वैभव सिंह हूं या फिर मेरी शक्लो सूरत में कोई और ही मेरे अंदर समां गया है?
अपने कमरे में आया तो देखा कोई नहीं था। मैं समझ गया कि कुसुम उस बच्ची को अपने कमरे में ले गई होगी या फिर नीचे माँ के पास ले गई होगी। ख़ैर मैंने कुछ देर आराम किया और फिर बुलेट ले कर हवेली से बाहर निकल गया। मुझे अपने नए मकान का निर्माण कार्य भी देखना था और वहीं से मुझे मुरारी काका के घर भी जाना था। अनुराधा का चेहरा बार बार आँखों के सामने घूम जाता था। मुझे उसको देखने का बहुत मन कर रहा था। थोड़े ही समय में मेरी बुलेट उस जगह पहुंच गई जहां मेरा नया मकान बन रहा था। भुवन वहीं मौजूद था, मुझे देखते ही उसने मुझे सलाम किया और वहां के कार्य के बारे में बताने लगा। मैंने देखा मकान की दीवारें दरवाज़े के ऊपर तक पहुंच गईं थी। सामने कुएं को पक्का कर दिया गया था और कुछ मिस्त्री चारो तरफ से बाउंड्री वाली दीवारें खड़ी कर रहे थे। भुवन ने बताया जल्दी ही मकान बन कर तैयार हो जाएगा, हालांकि उसकी छपाई में थोड़ा और भी समय लग जाएगा। इस जगह पर कई सारे मिस्त्री थे और ढेर सारे मजदूर जिसकी वजह से मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी से अपने आख़िरी पड़ाव की तरफ बढ़ रहा था।
कुछ देर उधर रुकने के बाद मैं मुरारी काका के घर की तरफ बुलेट ले कर चल पड़ा। मन में अनुराधा को ले कर तरह तरह के ख़याल बुनता हुआ मैं जल्द ही मुरारी के घर पहुंच गया। बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि घर के दरवाज़े पर जैसे ही मैं पहुंचा तो दरवाज़ा खुल गया। दरवाज़े के पार मुझे वही खड़ी नज़र आई जिसे देखने के लिए मैं आया था। उसे देख कर दिल को एक सुकून सा महसूस हुआ और मेरे होठों पर अनायास ही मुस्कान उभर आई। यही हाल अनुराधा का भी हुआ था। मुझे देखते ही वो हल्के से मुस्कुराई और फिर नज़र नीचे की तरफ कर ली। मुझसे नज़रें मिलाने में वो हमेशा ही झिझकती थी।
"मां घर पर नहीं है।" उसने नज़र नीचे किए ही धीमी आवाज़ में कहा____"वो अनूप को ले कर जगन काका के घर गई है।"
"तो क्या ऐसे में मैं अंदर नहीं आ सकता?" मैंने मुस्कुराते हुए उससे पूछा तो उसने सिर उठा कर मुझे देखा और फिर से नज़र नीचे कर के कहा____"ऐसा तो मैंने नहीं कहा। आप अंदर आ जाइए, माँ को गए हुए काफी देर हो गई है। शायद आती ही होगी।"
अनुराधा कहने के साथ ही दरवाज़े से हट गई थी इस लिए मैं अंदर दाखिल हो गया था। मेरी ये सोच कर दिल की धड़कनें थोड़ा बढ़ गईं थी कि इस वक़्त अनुराधा घर पर अकेली ही है। वो मेरे आ जाने से असहज महसूस करने लगती थी। हालांकि मैंने कभी ऐसा कुछ भी नहीं किया था जिसकी वजह से उसे मुझसे कोई समस्या हो लेकिन इसके बावजूद वो अकेले में मेरे सामने रहने से असहज महसूस करने लगती थी। एकदम छुई मुई सी नज़र आने लगती थी वो।
"बैठिए।" दरवाज़ा बंद कर के अनुराधा ने पलट कर मुझसे कहा____"मैं आपके लिए गुड़ और बताशा ले कर आती हूं।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं है अनुराधा।" मैंने आँगन में रखी खटिया पर बैठते हुए कहा____"लेकिन हाँ तुम्हारे हाथ का पानी ज़रूर पिऊंगा।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा ने सिर हिलाया और कोने में रखे मटके की तरफ जाने लगी। हल्के सुर्ख रंग की कमीज और घाघरा पहन रखा था उसने। गले में दुपट्टा नहीं था। शायद उसे दुपट्टा डालने का ध्यान ही नहीं रहा था। मटके से पानी निकालने के लिए जैसे ही वो झुकी तो कमीज का गला फ़ैल गया और मुझे उसके अंदर उसके सीने के उभार आधे से ज़्यादा दिखने लगे। उन्हें देख कर एकदम से मेरे अंदर हलचल सी मच गई। ये पहली बार था कि मैंने अनुराधा के जिस्म के किसी गुप्त अंग को देखा था। एकाएक मुझे उसको इस तरह से देखना बहुत ही बुरा लगा तो मैंने झट से अपनी नज़रें उसके उभारों से हटा ली। खुद पर ये सोच कर थोड़ा गुस्सा भी आया कि मेरी नज़र क्यों उस मासूम के गुप्त अंगों पर इस तरह चली गई?
"ये लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा की आवाज़ से मैं हल्के से चौंका और उसकी तरफ देखा। वो मेरे सामने खड़ी थी। पानी से भरा गिलास उसने मेरी तरफ बढ़ा रखा था। मेरी नज़र पहले गिलास पर पड़ी और फिर ऊपर उठते हुए उसके उस चेहरे पर जिसमें इस वक़्त ढेर साड़ी मासूमियत और झिझक के साथ हल्की शर्म भी विद्यमान थी।
"कैसी हो ठकुराईन?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए हल्के से मुस्कुरा कर कहा तो वो एकदम से चौंक गई और हैरानी से मेरी तरफ देखने लगी, जबकि ऐसा कहने के बाद मैं उसके हाथ से पानी का गिलास ले कर पानी पीने लगा था।
"आ...आपने मुझे ठकुराईन क्यों कहा छोटे ठाकुर?" उसने कांपती हुई आवाज़ में पूछा।
"क्योंकि तुमने मुझे छोटे ठाकुर कहा इस लिए।" मैंने उसके चेहरे की तरफ देखते हुए कहा_____"मैंने उस दिन तुमसे कहा था न कि अगर तुम मुझे छोटे ठाकुर कहोगी तो मैं भी तुम्हें ठकुराईन कहूंगा। अब अगर तुम्हें मेरे द्वारा अपने लिए ठकुराईन सुनना पसंद नहीं आया तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर मत कहो क्योंकि मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता है।"
"पर आपको तो हर कोई छोटे ठाकुर ही कहता है न।" अनुराधा ने नज़रे नीची किए धीमे स्वर में कहा____"मेरे बाबू जी भी आपको छोटे ठाकुर कहते थे। फिर भला मैं कैसे आपको छोटे ठाकुर न कहूं?"
"हर किसी के कहने में और तुम्हारे कहने में ज़मीन आसमान का फ़र्क है अनुराधा।" मैंने कहा____"मैंने इस घर का नमक खाया है। तुम्हारे हाथों का बना हुआ दुनियां का सबसे स्वादिष्ट भोजन खाया है इस लिए मैं चाहता हूं कि तुम मुझे मेरे नाम से पुकारो। जब तुम मुझे छोटे ठाकुर कहती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं तुम सबके लिए कोई ग़ैर हूं जबकि मैं तो इस घर को और इस घर के लोगों को अपना मानता हूं। तुम्हारे बाबू जी भी मेरे कहने पर मुझे वैभव कह कर ही पुकारने लगे थे। काकी भी मुझे मेरे नाम से ही पुकारती है तो फिर तुम क्यों मुझे ग़ैर समझती हो?"
"ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने बेचैन भाव से कहा____"हम सब भी आपको अपना ही मानते हैं। आपने हमारे लिए जो कुछ किया है वो कोई ग़ैर थोड़े न करता?"
"मैंने इस घर के लिए कोई भी बड़ा काम नहीं किया है अनुराधा।" मैंने उसके झुके हुए चेहरे की तरफ देखते हुए कहा____"बल्कि मैंने तो बस अपना एक मामूली सा फ़र्ज़ निभाने की कोशिश की थी और आगे भी ऐसी कोशिश करता ही रहूंगा। मेरा मन तो ये भी करता है कि मैं इस घर को स्वर्ग बना दूं लेकिन हर चीज़ मेरे चाहने से भला कहां होगी? ख़ास कर तब तो बिल्कुल भी नहीं जब इस घर की बेटी अनुराधा मुझे ग़ैर समझे।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा। उसके मासूम से चेहरे पर उलझन और बेचैनी के भाव गर्दिश कर रहे थे। मेरे सामने अक्सर उसका यही हाल हो जाता था। मैं समझ नहीं पाता था कि आख़िर क्यों वो मेरे सामने इतना असहज हो जाती थी? क्या इस लिए कि उसको मेरे चरित्र के बारे में पता है और वो कहीं न कहीं ये समझती होगी कि मैं उसे भी अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता हूं? उसको रूपचंद्र के द्वारा ये भी पता चल चुका था कि मेरा उसकी अपनी ही माँ के साथ जिस्मानी सम्बन्ध बन चुका है। हालांकि अपनी माँ के बारे में तो उसे बाद में पता चला था लेकिन वो तो पहले से ही मेरे सामने असहज होती आई थी।
"तुम्हें पता है मैं यहाँ क्यों आया हूं?" मैंने उसको ख़ामोशी और बेचैनी से अपनी तरफ देखते हुए देखा तो धड़कते दिल से कह उठा____"सिर्फ तुम्हें देखने के लिए। हाँ अनुराधा, सिर्फ तुम्हें देखने के लिए आया हूं। पांच महीने पहले तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मुझे कोई लड़की या कोई औरत इस कदर याद आए कि मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हो कर उसको देखने चला जाऊं लेकिन इस घर से जुड़ने के बाद बहुत कुछ बदल गया। इस घर ने मुझे मुकम्मल तौर पर बदल दिया, ख़ास कर तुमने अनुराधा। मैंने तुमसे उस दिन भी यही कहा था कि मेरी फितरत बदलने में सबसे बड़ा योगदान तुम्हारा है और इसके लिए मुझे कोई रंज या मलाल नहीं है बल्कि मैं खुश हूं कि तुमने मुझे बदल दिया।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा कुछ न बोली। सिर झुकाए वो चुप चाप आंगन की कच्ची ज़मीन को घूरे जा रही थी। मेरी बातों ने शायद उसे किसी और ही दुनियां में पहुंचा दिया था। इधर मेरे दिल की धड़कनें बढ़ी हुईं थी, ये सोच कर कि कहीं मैंने अपने दिल की बात उसको बता कर ग़लत तो नहीं कर दिया। कहीं अनुराधा ये न सोचने लगे कि मैं उसे यहाँ अकेला देख कर फंसाने की कोशिश कर रहा हूं।
"क्या हुआ? तुम मेरी बात सुन रही हो न?" मैंने उसका ध्यान भंग करने की गरज़ से कहा तो उसने चौंक कर मेरी तरफ देखा। मैं कुछ पलों तक उसके मासूम से चेहरे को देखता रहा फिर बोला_____"आख़िर क्या बात है अनुराधा? तुम हर बार मेरे सामने यूं चुप्पी क्यों साध लेती हो और असहज क्यों हो जाती हो? क्या तुम्हें मुझसे डर लगता है?"
"जी...नहीं तो।" उसने इंकार में सिर हिलाते हुए धीमे स्वर में कहा____"ऐसी तो कोई बात नहीं है?""
"तो फिर खुल कर बताओ अनुराधा।" मैंने ब्यग्रता से कहा____"आख़िर ऐसी क्या बात है कि तुम मेरे सामने हमेशा चुप्पी साध लेती हो और असहज महसूस करने लगती हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मेरे बारे में ये सोचती हो कि मैं यहाँ पर तुम्हें बाकी लड़कियों की तरह ही अपने जाल में फंसाने के लिए आता हूं?"
मेरी बात सुन कर अनुराधा ने फिर से सिर झुका लिया। कुछ देर पता नहीं वो क्या सोचती रही फिर धीमे से बोली____"मैं आपके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं सोचती हूं। मुझे आपके बारे में सारी बातें पता हैं। अगर आपकी नीयत में मुझे अपने जाल में फंसाना ही होता तो क्या मुझे कभी इस बात का एहसास न होता? इतना तो मैं भी समझती हूं कि एक पुरुष किसी के प्रति कैसी नीयत रखे हुए होता है। आप यहाँ इतने समय से आते जाते रहे हैं तो इतने समय में मैंने ऐसा कभी भी महसूस नहीं किया जिससे मुझे ये लगे कि आपके मन में मेरे प्रति कोई बुरी भावना है।"
"ये सब कह कर तुमने मेरे अंदर का बहुत बड़ा बोझ निकाल दिया है अनुराधा।" मैंने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"मैं नहीं जानता कि तुम्हें मेरी बातों पर यकीन होगा कि नहीं लेकिन सच यही है कि मैं चाहे भले ही कितना भी बुरा इंसान होऊं लेकिन तुम्हारे बारे में ज़रा सा भी ग़लत नहीं सोच सकता। जैसे तुम मुरारी काका का गुरूर और अभिमान थी वैसे ही अब तुम मेरा भी गुरूर बन चुकी हो। मुझे ये कहने में अब कोई संकोच नहीं है कि तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बेहद ही ख़ास जगह बन गई है। अगर तुम मानती हो कि मेरी नीयत तुम्हारे लिए ग़लत नहीं है तो तुम बेझिझक हो कर मुझसे बातें करो। तुम्हारे मन में जो कुछ भी कहने का विचार उठे वो कहो और हाँ मुझे मेरे नाम से पुकारो।"
अनुराधा मेरी बातें सुन कर हैरान थी। एकटक मुझे ही देखे जा रही थी। उसके मासूम से चेहरे पर कई तरह के भाव आते जाते नज़र आ रहे थे। उसके सुर्ख होठ हल्के हल्के काँप रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वो कुछ कहना चाहती हो लेकिन हिम्मत न जुटा पा रही हो।
"कुछ तो बोलो ठकुराईन।" मैंने मज़ाकिया लहजे में जब ये कहा तो वो चौंकी और इस बार मुझे घूरते हुए उसने कहा____"अगर आप ऐसे मुझे इस नाम से पुकारेंगे तो मैं आपसे बिल्कुल भी बात नहीं करुंगी।"
"बात तो तुम्हें मुझसे करनी ही पड़ेगी ठकुराईन।" मैंने उसी मज़ाकिया लहजे में मुस्कुराते हुए कहा____"और अगर नहीं करोगी तो मैं काकी को सब कुछ बता दूंगा।"
"क्..क्या मतलब?" वो बुरी तरह चौंकी। आँखें फैला कर बोली____"आप क्या बता देंगे माँ को?"
"यही कि तुमने मुझे सिर्फ पानी पिलाया और खाने का पूछा ही नहीं।" मैंने उसे घबराए हुए देखा तो बात को बदलते हुए कहा____"कोई अपने घर आए मेहमान के साथ इतना बड़ा अत्याचार करता है भला?"
"क्या आपको भूख लगी है??" अनुराधा एकदम से चिंतित भाव से बोली____"आप बैठिए मैं आपके लिए ताज़ा खाना तैयार करती हूं।"
"कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा_____"मैं बिना खाए ही चला जाऊंगा यहाँ से। अगली बार जब काकी मिलेगी तो बताऊंगा उससे कि तुमने मुझे भूखा ही जाने दिया था।"
"अरे! आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?" अनुराधा ने बुरी तरह घबराए हुए लहजे में कहा____"मैं आपके लिए खाना बनाने जा तो रही हूं न। आप खाना खा के ही जाइएगा। माँ को अगर ये बात पता चलेगी तो वो मुझे बहुत डांटेगी।"
"कोई तुम्हें डांट के तो दिखाए।" मैंने उसके घबराए हुए चेहरे की तरफ देखते हुए कहा____"मैं पलट झपकते ही खून न कर दूंगा उसका।"
"ये...ये क्या कह रहे हैं आप??" अनुराधा एक बार फिर से बुरी तरह चौंक पड़ी थी। इस वक़्त वो जिस तरह से घबराई हुई और परेशान सी नज़र आ रही थी उससे वो मुझे बहुत ही प्यारी लग रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैं कहना क्या चाहता हूं?
"अरे! मैं तो तुमसे मज़ाक कर रहा था यार।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम तो मेरी इतनी सी बात पर ही बुरी तरह घबरा गई। इतना क्यों डरती हो काकी से? क्या वो सच में तुम्हें बहुत डांटती है?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर हल्के से मुस्कुराई फिर सिर झुका कर न में सिर हिलाया। उसके चेहरे पर राहत के भाव उभर आए थे। मैं उससे बहुत कुछ कहना चाहता था और उससे बहुत सारी बातें करना चाहता था लेकिन कुछ बातें ऐसी थी जिन्हें कहने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी।
"तो अब जाने की आज्ञा दो ठकुराईन।" मैंने उसे छेड़ने वाले अंदाज़ से कहा तो उसने झट से मेरी तरफ देखा। चेहरे पर नाराज़गी के भाव उभर आए उसके, बोली___"आपने फिर मुझे ठकुराईन कहा?"
"तुम मुझे मेरे नाम से पुकारो तो मैं भी तुम्हें ठकुराइन कहना बंद कर दूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अभी तो मैं अकेले में ही तुम्हें ठकुराईन कह रहा हूं लेकिन अब से काकी के सामने भी मैं तुम्हें ठकुराईन कहूंगा।"
"आप क्यों तंग कर रहे हैं मुझे?" अनुराधा ने बेचैन भाव से कहा____"मां के सामने कहेंगे तो वो क्या सोचेगी मेरे बारे में?"
"सोचने वाले तो बहुत कुछ सोच लेते हैं।" मैंने अर्थपूर्ण लहजे में कहा____"सम्भव है काकी भी बहुत कुछ सोच बैठे। अब ये तुम पर है कि तुम क्या चाहती हो या फिर क्या करना चाहती हो।"
अनुराधा के चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। वो एकटक मुझे ही देखे जा रही थी। मुझे उसको यूं सताने में बड़ा मज़ा आ रहा था। हालांकि थोड़ा बुरा भी लग रहा क्योंकि मैं उस मासूम को बेवजह ही सता रहा था लेकिन मैं चाहता था कि वो मुझसे खुल जाए और मुझे मेरे नाम से ही पुकारे।
"अच्छा चलता हूं अब।" मैंने चारपाई से उठते हुए कहा____"कल सुबह फिर आऊंगा और काकी के सामने तुम्हें ठकुराईन कह कर पुकारुंगा। ठीक है न?"
"नहीं न।" उसने रो देने वाले भाव से कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कीजिएगा। अगर आप यही चाहते हैं कि मैं आपको आपके नाम से ही पुकारूं तो ठीक है। मैं अब से ऐसा ही करुंगी।"
"तो फिर एक बार मेरा नाम ले कर पुकारो मुझे।" मैं अंदर ही अंदर खुश होते हुए झट से बोल पड़ा था____"मैं तो जाने कब से ये देखना चाहता था कि जब तुम मेरा नाम लोगी तो वो नाम कैसा लगेगा और मुझे कैसा महसूस होगा?"
अनुराधा बेचैनी से मेरी तरफ देख रही थी। उसके माथे पर पसीना झिलमिला रहा था। अपने हाथों की उंगलियों को वो आपस में उमेठ रही थी। उसकी शक्ल पर उभरे हुए भाव बता रहे थे कि इस वक़्त वो अंदर ही अंदर किस द्वंद्व से जूझ रही थी।
"बोलो भी जल्दी।" मुझसे रहा न गया तो मैं बोल ही पड़ा___"इतना क्या सोच रही हो अब?"
"व...वैभव जी।" उसने कांपती आवाज़ में लेकिन धीरे से मेरा नाम लिया।
"वैभव..जी.??" मैंने सुनते ही आँखें फैला कर कहा____"सिर्फ वैभव कहो न। मेरे नाम के आगे जी क्यों लगा रही हो तुम?"
"इस तरह मुझसे नहीं कहा जाएगा वैभव जी।" अनुराधा ने अपनी उसी कांपती आवाज़ में कहा____"कृपया मुझे और मजबूर मत कीजिए। मेरे लिए तो आपका नाम लेना ही बड़ा मुश्किल काम है।"
"अच्छा चलो कोई बात नहीं।" मैंने भी उसे ज़्यादा मजबूर करना ठीक नहीं समझा____"वैसे तुम्हारे मुख से अपना नाम सुन कर मुझे बहुत ही अच्छा लगा। अब से तुम मुझे मेरे नाम से ही पुकारोगी। सिर्फ अकेले में ही नहीं बल्कि सबके सामने भी। इसके लिए अगर तुम्हें कोई कुछ कहेगा तो मैं देख लूंगा उसे।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा बस मुस्कुरा कर रह गई। अब वो सामान्य हो गई थी और पहले की अपेक्षा उसके चेहरे में एक अलग ही चमक दिखने लगी थी। मेरा मन तो उससे बहुत सारी बातें करने का कर रहा था लेकिन वक़्त ज़्यादा हो गया था। हम दोनों ही अकेले थे और अगर इस वक़्त उसके गांव का कोई ब्यक्ति यहाँ आ जाता तो निश्चय ही वो हमारे बारे में ग़लत सोच लेता जो कि हम दोनों के लिए ही ठीक नहीं होता।
मैंने अनुराधा से कहा कि मैं कल का खाना यही खाऊंगा, वो भी उसके हाथ का बना हुआ। मेरी बात सुन कर अनुराधा ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। उसके बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी घर से बाहर निकल गया। अनुराधा मेरे पीछे पीछे दरवाज़े तक आई। मैंने जब बुलेट में बैठ कर उसकी तरफ देखा तो हमारी नज़रें आपस में मिल गईं। मैं उसे देख कर मुस्कुराया तो उसके होठों पर भी शर्म मिश्रित हल्की मुस्कान उभर आई। उसके बाद मैंने बुलेट को आगे बढ़ा दिया। तेज़ आवाज़ करती हुई बुलेट कच्ची पगडण्डी पर दौड़ी चली जा रही थी। सारे रास्ते मैं अनुराधा के बारे में ही सोचता रहा। उसके साथ हुई हमारी बातों के बारे में सोचता रहा। आज उससे बातें कर के एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था मुझे।
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Bahut hi badhiya update tha ....kahani romanchak to hoti ja rahi h par dard bhi de rahi h .... Mughe to jald se jald kusum wale update ka intezar h mai chahta hu kusum wala matter jald solve ho aur naukrani ka bhi pardafash ho....
Bs ye kusum wali kadi h jo dard de rahi....kusum wala matter solve hone me abhi kitna update lagega ...
Waise aksar bade bade haveliyon me bahut sare raah chhipe huye hote h aur ghar ke kai sadasya bhi do chehre Wale hote h .....
Pura itihaas bhara pada h