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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192

kamdev99008

FoX - Federation of Xossipians
8,816
35,411
219
Dosto, Is story ko complete karne ke baad राज-रानी story ko restart karuga :declare:
Hope ki readers ka achha response milega aur प्यार का सबूत jald hi complete ho jaye :love:
कायाकल्प :D भी याद रखना
प्रतिमा सिंह अभी तक लापता हैं
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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354
अध्याय - 38
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


अब तक....

मैंने अनुराधा से कहा कि मैं कल का खाना यही खाऊंगा, वो भी उसके हाथ का बना हुआ। मेरी बात सुन कर अनुराधा ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। उसके बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी घर से बाहर निकल गया। अनुराधा मेरे पीछे पीछे दरवाज़े तक आई। मैंने जब बुलेट में बैठ कर उसकी तरफ देखा तो हमारी नज़रें आपस में मिल ग‌ईं। मैं उसे देख कर मुस्कुराया तो उसके होठों पर भी शर्म मिश्रित हल्की मुस्कान उभर आई। उसके बाद मैंने बुलेट को आगे बढ़ा दिया। तेज़ आवाज़ करती हुई बुलेट कच्ची पगडण्डी पर दौड़ी चली जा रही थी। सारे रास्ते मैं अनुराधा के बारे में ही सोचता रहा। उसके साथ हुई हमारी बातों के बारे में सोचता रहा। आज उससे बातें कर के एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था मुझे।

अब आगे....

मैं जब मुंशी चंद्रकांत के घर के पास पहुंचा तो मुझे अचानक रजनी का ख़याल आया। उसे तो मैं जैसे भूल ही गया था। मुझे याद आया कि कैसे उस दिन वो रूपचंद्र से चुदवा रही थी। साली रांड मेरे पीठ पीछे उसका लंड भी गपक रही थी। मैंने बुलेट को मुंशी के घर की तरफ मोड़ा और खाली जगह पर खड़ी कर दिया। बुलेट की तेज़ आवाज़ शायद घर के अंदर तक गई थी इस लिए जैसे ही मैं दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर खटखटाना चाहा वैसे ही दरवाज़ा खुल गया। मेरी नज़र दरवाज़ा खोलने वाली रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे अंदर गुस्सा और नफरत दोनों ही उभर आई, लेकिन मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।

"छो..छोटे ठाकुर आप?" उसने धीमे स्वर में हकला कर मुझसे कहा तो मैंने सपाट लहजे में कहा____"क्यों क्या मैं यहाँ नहीं आ सकता?"
"न...नहीं ऐसा तो मैंने नहीं कहा आपसे।" वो एकदम से बौखला गई थी_____"आइए अंदर आइए।"

वो दरवाज़े से हटी तो मैं अंदर दाखिल हो गया। सहसा मेरी नज़र उसके चेहरे पर फिर से पड़ी तो मैंने देखा वो कुछ परेशान सी नज़र आ रही थी और साथ ही चेहरे का रंग भी उड़ा हुआ दिखा। मुझे उसकी ये हालत देख कर उस पर शंका हुई। ज़हन में एक ही ख़याल उभरा कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है?

"मुंशी जी कहां हैं?" मैंने उसकी तरफ ही गौर से देखते हुए पुछा।
"ससुर जी हवेली गए हैं।" रजनी ने खुद को सम्हालते हुए संतुलित लहजे में कहा____"और माँ की तबियत ख़राब थी तो ये (उसका पति रघु) उन्हें ले कर वैद जी के पास गए हैं।"

रजनी आज मुझे अलग ही तरह से नज़र आ रही थी। उसके चेहरे पर परेशानी के भाव अभी भी कायम थे। माथे पर पसीना झिलमिला रहा था। वो बार बार बेचैनी से अपने हाथों की उंगलियों को आपस में उमेठ रही थी। मैं समझ चुका था कि भारी गड़बड़ है। वो इस वक़्त घर में अकेली है और निश्चय की अंदर उसके साथ कोई ऐसा है जिसके साथ वो अपनी गांड मरवाने वाली थी लेकिन मेरे आ जाने से उसका काम ख़राब हो गया था।

"क्या हुआ तू इतनी परेशान क्यों दिख रही है?" मैंने उसको देखते हुए उससे पूछा____"सब ठीक तो है न?"
"जी...जी हाँ छोटे ठाकुर।" वो एकदम से चौंकी थी और फिर हकलाते हुए बोली____"स..सब कुछ ठीक है।"

"पर मुझे तो कुछ और ही लग रहा है।" मैंने उसकी हालत ख़राब करने के इरादे से कहा____"लगता है अपनी सास को अपने मरद के साथ भेज कर इधर तेरी भी तबियत ख़राब हो गई है। चल अंदर आ, तेरा इलाज़ करता हूं मैं।"

मेरी बात सुनते ही रजनी की मानो अम्मा मर गई। चेहरे पर जो पहले से ही परेशानी और बेचैनी थी उसमें पलक झपकते ही इज़ाफ़ा हो गया। वो मेरी तरफ ऐसे देखने लगी थी जैसे मैं अचानक ही किसी जिन्न में बदल गया होऊं।

"य...ये क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?" फिर वो खुद को किसी तरह सम्हालते हुए बोल पड़ी____"मुझे भला क्या हुआ है? मैं तो एकदम ठीक हूं, हाँ थोड़ा सिर ज़रूर दुःख रहा है।"

मैं समझ चुका था कि उसके साथ कुछ तो भारी गड़बड़ ज़रूर है लेकिन क्या, ये देखना चाहता था मैं। इस लिए उसकी बात सुन कर मैं उसको बिना कोई जवाब दिए अंदर की तरफ चल पड़ा। मुझे अंदर की तरफ जाते देख वो और भी बुरी तरह बौखला गई। डर और घबराहट के मारे उसका बुरा हाल हो गया लेकिन उसकी बिवसता ये थी कि वो मुझे अंदर जाने से रोक भी नहीं सकती थी। ख़ैर जल्दी ही मैं अंदर आँगन में पहुंच गया।

आंगन में एक तरफ एक खटिया बिछी हुई थी लेकिन वो खाली थी। मैंने आस पास नज़र घुमाई पर कोई न दिखा। तभी मेरे पीछे पीछे रजनी भी आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी डर और घबराहट के भाव तांडव सा करते दिख रहे थे। रजनी की जो हालत थी उससे मुझे यकीन हो चुका था कि वो मुझसे कोई बड़ी बात छुपाना चाहती थी। मेरी नज़रें हर तरफ घूम रहीं थी कि तभी सहसा मुझे कुछ दिखा। कुछ दूरी पर बने दो कमरों में से एक का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और वो कुछ पल मुझे हिलता सा प्रतीत हुआ था। मेरी नज़रें उसी जगह पर जम ग‌ईं। मुझे उस तरफ देखते देख रजनी और भी घबरा गई।

"अरे! खड़ी क्या है?" मैंने पलट कर रजनी से शख़्त लहजे में कहा____"घर आए इंसान से जल पान का भी नहीं पूछेगी क्या?"
"जी...जी माफ़ करना छोटे ठाकुर।" रजनी बुरी तरह हड़बड़ा कर बोली____"आप खटिया पर बैठिए मैं अभी आपके लिए पानी लाती हूं।"

रजनी दूसरी तरफ रखे मटके की तरफ तेज़ी से बढ़ी और इधर मैं उस कमरे की तरफ जिस कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और थोड़ा सा हिलता प्रतीत हुआ था मुझे। रजनी को कुछ महसूस हुआ तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। मुझे उस कमरे की तरफ जाता देख वो बुरी तरह घबरा गई। मारे दहशत के उसके माथे पर पसीना उभर आया। पलक झपकते ही उसकी हालत ऐसी हो गई मानो काटो तो खून नहीं। उसके होठ कुछ कहने के लिए खुले तो ज़रूर मगर आवाज़ न निकल सकी। मटके से पानी निकालना भूल गई थी वो।

मैं दरवाज़े के पास पहुंचा और एक झटके से उसे खोल कर अंदर दाखिल हो गया। अंदर दरवाज़े के अगल बगल मैंने निगाह घुमाई तो दाएं तरफ मुझे रूपचन्द्र छुपा खड़ा नज़र आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बेजान सा खड़ा रह गया था। मारे डर के उसका चेहरा पीला ज़र्द पड़ गया था। उसकी हालत देख कर मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन क्योंकि अब उससे और उसके पूरे परिवार वालों से मैंने अपने अच्छे सम्बन्ध बना लिए इस लिए ऐसे वक़्त में उससे कुछ उल्टा सीधा कहना मैंने ठीक नहीं समझा।

"रुपचंद्र तुम, यहाँ??" उसे देख कर मैंने बुरी तरह चौकने का नाटक किया और फिर हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"क्या बात है, लगता है रजनी को पेलने आए थे यहाँ लेकिन मैंने तुम्हारा काम ख़राब कर दिया, है ना?"

"ये...ये क्या कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"मैं तो यहाँ ब....।"
"अरे! यार मुझसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है तुम्हें।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"अब तो तुम मेरे छोटे भाई भी हो और दोस्त भी। वैसे मुझे पहले से ही पता है कि तुम्हारा और रजनी का जिस्मानी सम्बन्ध है। ख़ैर मुझे तुम्हारे इस सम्बन्ध से कोई ऐतराज़ नहीं है और ना ही मैं किसी को बताऊंगा कि तुम्हारा मुंशी की बहू से ऐसा रिश्ता है।"

"क्...क्या तुम सच कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र के चेहरे पर राहत के साथ साथ आश्चर्य के भाव उभरे____"क्या सच में तुम्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है?"

"अब कितनी बार तुमसे कहूं भाई?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"ये सब तुम दोनों की रज़ामंदी से हो रहा है तो किसी को इससे क्या समस्या होगी भला? वैसे, तुम्हें पता है मैं भी उस रजनी को दबा के पेलता हूं। साली बड़ी चुदक्कड़ है। हुमच हुमच के चुदवाती है। एक काम करते हैं, चलो हम दोनों मिल के आज उसकी मस्त पेलाई करते है।"

मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुझे इस तरह देखने लगा था जैसे मेरे चेहरे पर अचानक ही उसे आगरे का ताजमहल नज़र आने लगा हो। मैं समझ सकता था कि मौजूदा परिस्थिति में उसका मुझ पर यकीन कर पाना संभव नहीं था लेकिन सच तो उसकी आँखें खुद ही देख रहीं थी और कान सुन रहे थे।

मैं रूपचंद्र को कंधे से पकड़ कर कमरे से बाहर ले आया। मुझे रूपचन्द्र को इस तरह साथ लिए आते देख रजनी एकदम से बुत बन गई थी। भाड़ की तरह मुँह खुला रह गया था। जिस तरह कुछ देर पहले रूपचंद्र का चेहरा मारे डर के पीला पड़ गया था उसी तरह अब रजनी का पीला पड़ गया था।

"इतना लम्बा मुँह क्यों फाड़ लिया अभी से?" मैंने रजनी को होश में लाने की गरज़ से कहा____"पहले हम दोनों के कपड़े तो उतार। उसके बाद हम दोनों तेरे हर छेंद में अपना लंड डालेंगे, क्यों रूपचंद्र?"

मैंने आख़िरी वाक्य रूपचंद्र को देख कर कहा तो वो एकदम से हड़बड़ा गया और फिर खुद को सम्हालते हुए ज़बरदस्ती मुस्कुरा कर बोला____"हां हाँ क्यों नहीं भाई।"

उधर रजनी को काटो तो खून नहीं। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसकी आँखें क्या देख रहीं थी और कान क्या सुन रहे थे। उसे तो शायद ये लगा था कि आज मैं उसकी और रूपचंद्र की मस्त गांड तोड़ाई करुंगा लेकिन अब जो होने जा रहा था उसकी तो उसे ख़्वाब में भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से उसे होश आया और उसके ज्ञान चच्छू जागे।

मैं जानता था कि हमारे पास समय नहीं है क्योंकि कोई भी यहाँ आ सकता था। मेरी बुलेट भी बाहर ही खड़ी थी और उसे देख कर किसी के भी मन में मुंशी के घर में आने का विचार आ सकता था इस लिए मैंने इस काम को फटाफट करने का सोचा। रजनी को शख़्त लहजे में बोला कि वो पूरी तरह नंगी हो जाए। मेरे कहने पर वो पहले तो झिझकी क्योंकि रूपचंद्र सामने था लेकिन मेरे आगे भला कहां उसकी चलने वाली थी। इस लिए जल्दी ही उसने अपना साड़ी ब्लाउज उतार दिया। रांड ने अंदर ना तो कच्छी पहन रखी थी और ना ही ब्रा। उसकी बड़ी बड़ी छातियां आँगन में आ रही धूप में चमक रहीं थी। जांघों के बीच उसकी चूत घने बालों में छुपी हुई थी। मेरी वजह से जहां रूपचंद्र को ये आलम थोड़ा असहज महसूस करा था वहीं रजनी का भी यही हाल था। वो अपनी छातियों और चूत को छुपाने का प्रयास कर रही थी।

"देखा रूपचंद्र।" मैंने रूपचंद्र को रजनी की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये रांड कितना करारा माल लग रही है। क्या लगता है तुझे, इसकी ये बड़ी बड़ी छातियां कितने लोगों की मेहनत का नतीजा होंगी?"

"म..मैं भला क्या बताऊं वैभव?" रूपचंद्र झिझकते हुए धीमी आवाज़ में बोला तो मैंने उससे कहा____"लगता है तू अभी भी मुझसे डर रहा है यार, जबकि अब हमारे बीच ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। अब से हम दोनों पक्के वाले यार हैं और जो कुछ करेंगे साथ ही करेंगे, क्या बोलता है?"

रूपचंद्र मेरी तरफ अपलक देखने लगा। शायद वो मेरे चेहरे के भावों को पढ़ कर ये समझने की कोशिश कर रहा था कि इस वक़्त मैं उससे जो कुछ कह रहा हूं उसके पीछे कितना सच है?

"हद है यार।" मैंने खीझने का नाटक किया____"तुझे अब भी मुझ पर यकीन नहीं हुआ है?"
"नहीं ऐसी बात नहीं है वैभव।" फिर उसने गहरी सांस लेते हुए कहा____"बात ये है कि हमारे बीच इतना जल्दी सब कुछ बदल गया है तो उसे मैं इतना जल्दी हजम नहीं कर पा रहा हूं।"

"अरे! तो पगले इसी लिए तो मैं कह रहा हूं कि हम दोनों मिल के इस रांड को पेलेंगे।" मैंने उसके दोनों कन्धों पर हाथ रख कर समझाते हुए कहा____"जब हम दोनों साथ मिल कर इसके साथ पेलम पिलाई करेंगे तो हमारे बीच सब कुछ खुल्लम खुल्ला वाली बात हो जाएगी। फिर न तुझे मुझसे झिझकने की ज़रूरत होगी और ना इस रांड को।"

रूपचंद्र को देर से ही सही लेकिन मैंने आस्वस्त कर दिया था। उसके बाद मेरे कहने पर रजनी ने फ़ौरन ही हम दोनों के कपड़े उतारे। रूपचंद्र नंगा हो जाने के बाद मेरे सामने थोड़ा शरमा रहा था। अपना मुरझाया हुआ लंड वो अपने ही हाथ से छुपाने की कोशिश कर रहा था जबकि मैं आराम से खड़ा था।

"चल अब पहले रूपचंद्र का लंड मुँह में ले कर चूस।" मैंने रजनी से कहा____"और हाँ थोड़ा जल्दी करना क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी के आ जाने से हमारा ये खेल ख़राब हो जाए।"

रजनी मरती क्या न करती वाली हालत में थी। उसे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि ये सब आज हो क्या रहा है। उसने घुटनों के बल बैठ कर रूपचंद्र के मुरझाए हुए लंड को पकड़ा तो रूपचंद्र की सिसकी निकल गई। रजनी उसके लंड को पकड़ कर सहलाने लगी जिससे रूपचंद्र को धीरे धीरे आनंद आने लगा और उसने अपनी आँखें बंद कर ली। इधर मैं खुद ही अपने हाथ से अपने लंड को सहला रहा था। कुछ ही देर में रूपचन्द्र का लंड अपने अकार में आ गया। मैंने पहली बार उसके लंड पर नज़र डाली तो ये देख कर मन ही मन हँसा कि इसका तो मेरे लंड का आधा भी नहीं है।

रजनी रूपचंद्र के लंड को मुँह में ले कर चूस रही थी और रूपचंद्र मज़े में उसके सिर को थामे अपनी कमर हिलाए जा रहा था। रजनी अपने सिर को आगे पीछे कर के उसका लंड चूस रही थी। हिलने से उसकी बड़ी बड़ी चूंचियां भी हिल रहीं थी।

"चल अब क्या उसे ऐसे ही झड़ा देगी रांड?" मैंने रजनी से कहा तो दोनों को होश आया। रजनी ने उसका लंड अपने मुख से निकाल कर मेरी तरफ देखा।
"अब इसे भी अपने मुँह में ले कर चूस।" मैंने कहा_____"उसके बाद तेरी पेलाई शुरू करते हैं हम दोनों।"

रजनी चुप चाप मेरी तरफ सरकी और मेरे लंड को पकड़ कर सहलाने लगी। मैंने रूपचंद्र की तरफ देखा। वो आँखें फाड़े मेरे लंड को देख रहा था। मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन लंड के बारे में उससे कुछ कहना ठीक नहीं समझा क्योंकि ऐसे में वो अपनी कमी महसूस करता। रजनी कुछ पलों तक मेरा लंड सहलाती रही उसके बाद उसने मेरे लंड को मुँह में भर लिया। उसका गरम मुख जैसे ही मेरे लंड के टोपे पर लगा तो मैंने उसकी तरफ देखा। मेरा लंड अभी अपने पूरे अकार में नहीं आया था इस लिए उसे अभी कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। मैंने रजनी के सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और उसे अपने लंड की तरफ खींचने लगा। मेरा आधे से ज़्यादा लंड रजनी के मुँह में समां गया जिससे रजनी को झटका लगा और वो मेरी जाँघों को पकड़ कर ज़ोर लगाने लगी। एक तो रजनी के ऊपर पहले से ही मुझे गुस्सा था ऊपर से आज वो फिर से रूपचंद्र से चुदवाने जा रही थी इस लिए मेरे मन में अब उसे ऐसे ही सज़ा देने का ख़याल उभर आया था।

कुछ ही देर में रजनी की हालत ख़राब हो गई। मेरा लंड अपने पूरे आकार में आ चुका था और मैं मजबूती से उसके सिर को पकड़े उसके मुँह में अपने लंड को पेले जा रहा था। आँगन में रजनी के मुँह से निकलने वाली गूं गूं की आवाज़ें गूंजने लगीं थी। रूपचंद्र आश्चर्य से आँखें फाड़े कभी रजनी की हालत को देखता तो कभी मुझे। इधर मुझे रजनी को इस तरह पेलने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जब मैंने देखा कि रजनी की आँखों से आंसू निकलने लगे हैं तो मैंने उसे छोड़ दिया। मुँह से लंड निकलते ही रजनी बुरी तरह खांसने लगी। उसके साँसें बुरी तरह उखड़ ग‌ईं थी। उसके थूक और लार से सना हुआ मेरा लंड धूप में अलग ही चमक रहा था। रूपचंद्र मेरे मोटे और लम्बे लंड को देख कर मानो सकते में आ गया था।

"छो...छोटे ठाकुर...खौं खौं...छोटे ठाकुर।" रजनी अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए और खांसते हुए बोली____"आपने तो मेरी जान ही ले ली थी।"
"चिंता मत कर।" मैंने कहा_____"लंड लेने से कोई नहीं मरता, ख़ास कर तेरे जैसी रांड तो बिल्कुल भी नहीं।"

मैंने रूपचंद्र को आँगन में लेटने के लिए कहा तो उसने न समझने वाले भाव से मेरी तरफ देखा। मैंने उसे समझाया कि वो ज़मीन पर सीधा लेट जाए ताकि रजनी उसकी तरफ अपनी पीठ कर के उसके ऊपर लेट जाए। नीचे से वो रजनी की गांड में अपना लंड डाले और उसके बाद मैं ऊपर से रजनी की चूत में अपना लंड डाल कर उसकी चुदाई करुंगा। सारी बात समझ में आते ही रूपचंद्र झट से ज़मीन पर लेट गया। मैंने रजनी को इशारा किया तो वो रूपचंद्र के ऊपर अपनी पीठ कर के लेट गई। घुटनों को उसने ज़मीन पर टिका लिया था और दोनों हाथों को पीछे रूपचंद्र के सीने में। उसके लेटते ही रूपचंद्र ने नीचे से अपने लंड को रजनी की गांड में डाल दिया और फिर अपनी कमर को हिलाने लगा।

खिली धूप में वो दोनों इस आसान में अलग ही नज़ारा पेश कर रहे थे। रजनी की गोरी गोरी लेकिन भारी छातियां रूपचंद्र के धक्के लगाने से हिल रहीं थी। रजनी मुझे ही देख रही थी। मैं वक़्त को बर्बाद न करते हुए आगे बढ़ा और रजनी के ऊपर आसान ज़माने लगा। एक हाथ से अपने लंड को पकड़ कर मैंने रजनी की बालों से भरी चूत पर टिकाया और ज़ोर का झटका दिया जिससे रजनी उछल गई और नीचे उसकी गांड से रूपचंद्र का लंड निकल गया। रूपचंद्र ने जल्दी से अपने लंड को पकड़ कर उसकी गांड में डाला और धीरे धीरे धक्के लगाने लगा। इधर मैं अपने दोनों हाथ ज़मीन पर टिकाए तेज़ तेज़ कमर हिलाने लगा था। रजनी की पानी बहाती चूत पर मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था जिससे अब रजनी की सिसकियां और दर्द में डूबी आहें निकलने लगीं थी।

रजनी के लिए शायद ये पहली बार था जब वो दो दो लंड एक ही बार में अपनी चूत और गांड में ले रही थी। जल्दी ही वो मस्ती में आ गई और ज़ोर ज़ोर आहें भरने लगी। नीचे से रूपचंद्र अपना पिछवाड़ा उठा उठा कर रजनी की गांड में अपना लंड डाल रहा था और ऊपर से मैं रजनी की चूत को पेले जा रहा था। कुछ देर तक तो गज़ब का रिदम बना रहा लेकिन फिर रूपचंद्र हिच्च बोल गया। वो कहने लगा कि नीचे से कमर उठा उठा कर रजनी की गांड मारने से उसकी कमर दुखने लगी है इस लिए अब वो ऊपर आना चाहता है। मैंने भी सोचा चलो उसकी ही इच्छा पूरी कर देते हैं। जल्दी ही हमने अपना अपना आसन बदला। अब रूपचंद्र की जगह मैं रजनी के नीचे था और रूपचंद्र मेरी जगह पर। एक बार फिर से चुदाई का खेल शुरू हो गया। बीच में फंसी रजनी आँखें बंद किए अलग ही दुनिया में खो गई थी। वो ज़ोर से चिल्ला उठती थी जिससे मुझे उसको कहना पड़ता था कि साली रांड पूरे गांव को घर बुला लेगी क्या।

क़रीब दस मिनट भी न हुआ था कि रूपचंद्र बुरी तरह आहें भरते हुए रजनी की चूत में झड़ गया और उसके ऊपर पसर कर बुरी तरह हांफने लगा।

"क्या हुआ रूपचंद्र जी?" रजनी ने हांफते हुए किन्तु हल्की मुस्कान में कहा____"इतने में ही दम निकल गया तुम्हारा?"
"साली कुतिया।" रूपचंद्र उसके ऊपर से उठते हुए बोला____"मेरा दम निकल गया तो क्या हुआ, मेरा दोस्त तो लगा हुआ है न?"

"छोटे ठाकुर तो अपने दम पर लगे हुए हैं।" रजनी ने आहें भरते हुए कहा____"मैं तुम्हारी बात कर रही हूं। क्या तुम में भी छोटे ठाकुर जितना दम है?"

"साली रांड ये क्या बकवास कर रही है?" मैंने उसे अपने ऊपर से हटाते हुए कहा____"रुक अभी बताता हूं तुझे।"
"इस बुरचोदी की गांड फाड़ दो वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार आवेश में आ कर कहा_____"इसके अंदर बहुत गर्मी भरी हुई है।"

मैंने रजनी को खटिया की बाट पर हाथ रख कर झुकने को कहा तो वो झुक गई। पीछे उसकी गांड उभर कर आ गई थी। मैंने जल्दी जल्दी चार पांच थप्पड़ उसकी गांड पर मारे जिससे वो दर्द से सिहर उठी। उसके बाद मैंने उसकी गांड को फैला कर अपने लंड को उसकी गांड के छेंद पर टिकाया और एक ही झटके में पूरा डाल दिया।

"आह्ह्ह्ह मररर गईईईई मां।" रजनी की दर्द भरी चीख फ़िज़ा में गूँज गई____"धीरे से डालिए...आह्ह्ह्ह मेरी गांड फट गई छोटे ठाकुर?"
"क्या हुआ रांड?" मैंने उसकी गांड पर ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"दम निकल गया क्या तेरा?"

"आह्ह्ह्ह आपके ही करने से तो दम निकल जाता है मेरा।" रजनी आहें भरते हुए बोली____"आपका लंड किसी घोड़े के लंड से कम नहीं है। चूत और गांड में जब जाता है....आह्ह्ह्ह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने गरमा गरम सरिया डाल दिया हो।"

"रुपचंद्र खटिया पर चढ़ो तुम।" मैंने रूपचंद्र से कहा____"और इसके मुँह में अपना लंड डालो। साली बहुत बोलती है।"
"अभी डालता हूं इस साली के मुँह में।" रूपचंद्र अपने लंड को सहलाते हुए फ़ौरन ही खटिया में चढ़ गया और रजनी के सिर को बालों से पकड़ कर उठाया। रजनी मेरी बात सुन चुकी थी इस लिए उसने अपना मुँह खोल दिया जिससे रूपचंद्र ने अपना लंड गप्प से उसके मुँह में डाल दिया।

एक तरफ से रूपचंद्र रजनी के सिर को पकड़े उसके मुँह की पेलाई कर रहा था और दूसरी तरफ से मैं रजनी की गांड फाड़ रहा था। सहसा मैंने अपना लंड उसकी गांड से निकाला और पलक झपकते ही नीचे उसकी चूत में एक झटके से डाल दिया। रजनी दर्द से कराही लेकिन मुँह में रूपचन्द्र का लंड होने की वजह से उसकी आवाज़ दब कर रह गई। मैं भीषण गति से उसकी चूत को चोदे जा रहा था। जल्दी ही रजनी का जिस्म थरथराता महसूस हुआ और फिर वो झटके खाते हुए झड़ने लगी। झड़ते वक्त वो बुरी तरह चिल्लाने लगी थी लेकिन रूपचंद्र ने जल्दी से उसके मुंह में अपना लंड घुसा दिया था। उसकी चूत का गरम पानी मेरे लंड को भिगोता चला गया मगर मैं रुका नहीं बल्कि तेज़ तेज़ लगा ही रहा। रूपचंद्र हैरानी से मुझे देख रहा था। कभी कभी मेरी नज़र उससे मिलती तो वो अपनी नज़रें हटा लेता था। शायद खुद को मुझसे कमज़ोर समझने लगा था जिससे वो नज़रें नहीं मिला पा रहा था।

"आह्ह्ह छोटे ठाकुर रुक जाइए थोड़ी देर।" रजनी रूपचंद्र का लंड मुँह से निकाल कर बोल पड़ी थी____"मुझे बहुत तेज़ जलन हो रही है...आह्ह्ह रुक जाइए कुछ देर के लिए।"

"चिंता मत कर बुरचोदी।" मैंने उसकी गांड में ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"तेरी जलन को मैं अपने लंड के पानी से बुझा दूंगा।"
"आह्ह्ह छोटे ठाकुर।" रजनी दर्द से बोली____"झुके झुके मेरी कमर दुखने लगी है। आह्ह्ह भगवान के लिए थोड़ी देर रुक जाइए। मैं विनती करती हूं आपसे।"

"क्या बोलता है रूपचंद्र?" मैंने खटिया में खड़े रूपचंद्र से कहा____"छोड़ दूं उसे?"
"छोड़ ही दो यार।" रूपचंद्र ने रजनी की तरफ देखते हुए कहा____"इसके चेहरे से लग रहा है कि ये तकलीफ़ में है।"

मैंने एक झटके से अपना लंड रजनी की चूत से निकाल लिया। रजनी फ़ौरन ही सीधा खड़ी हो गई लेकिन अगले ही पल वो लड़खड़ा कर वापस खटिया पर झुक गई। शायद इतनी देर में उसके खून का दौड़ान रुक गया था या फिर उसकी कमर अकड़ गई थी। कुछ देर वो खटिया की बाट को पकड़े झुकी हुई गहरी गहरी साँसें लेती रही उसके बाद वो खड़ी हो कर खटिया में ही बैठ गई और मेरी तरफ देखते हुए गहरी गहरी साँसें लेती रही।

"अब इसको क्या तेरी अम्मा आ के शांत करेगी रांड?" मैंने शख़्त भाव से कहा तो रजनी ने जल्दी से मेरे लंड को पकड़ लिया और सिर को आगे कर के उसे मुँह में भर लिया।

उसके बाद रजनी की ना चूत में लंड डलवाने की हिम्मत हुई और ना ही गांड में। उसने मेरे लंड को चूस चूस कर ही मुझे शांत किया। इस बीच रूपचंद्र मेरी क्षमता देख कर बुरी तरह हैरान था। रजनी को पेलने के बाद हम दोनों ने अपने अपने कपड़े पहने और घर से बाहर आ गए। रजनी खटिया पर ही बैठी रह गई थी। उसमें उठ कर बाहर दरवाज़ा बंद करने के लिए आने की शक्ति नहीं थी।

बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।


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Sanju@

Well-Known Member
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 13
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अब तक,,,,,

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?


अब आगे,,,,,


कुसुम के जाने के बाद मैं भाभी के बारे में कुछ देर तक सोचता रहा और फिर जब मुझे लगा कि कुसुम ने भाभी को मेरे आने के बारे में बता दिया होगा तो मैं कमरे से निकल कर लम्बी राहदारी से होते हुए दूसरे छोर पर बने भाभी के कमरे की तरफ आ गया। इन चार महीनों में ये भी एक बदलाव ही हुआ था कि जिस भाभी से मैं हमेशा दूर दूर ही रहता था वो अब मेरे सामने आ रहीं थी। अपने गांव की ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों की भी जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों से मैं मज़े ले चुका था मगर मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता था कि मेरी नीयत भाभी के रूप सौंदर्य की वजह से उन पर ख़राब हो जाए।

मैं अभी भाभी के कमरे के पास ही पंहुचा था कि भाभी मुझे सीढ़ियों से ऊपर आती हुई दिखीं तो मैं दरवाज़े के पास ही रुक गया। सुर्ख रंग की साड़ी में भाभी गज़ब ढा रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके चेहरे पर चन्द्रमा का नूर चमक रहा हो। दूध में हल्का केसर मिले जैसा गोरा सफ्फाक बदन उनकी साड़ी से झलक रहा था। पेट के पास उनकी साड़ी थोड़ा सा हटी हुई थी जिससे उनका एकदम सपाट और रुई की तरह मुलायम पेट चमकता हुआ दिख रहा था। अचानक ही मुझे ख़याल आया कि मेरी नज़र उनके बेदाग़ पेट पर जम सी गई है और मेरी धड़कनें पहले से तेज़ हो चली हैं तो मैंने झट से अपनी नज़रें उनके पेट से हटा ली। मुझे अपने आप पर ये सोच कर बेहद गुस्सा भी आया कि मैंने उनकी तरफ देखा ही क्यों था।

भाभी जब चल कर मेरे क़रीब आईं तो मुझे देख कर वो हल्के से मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान ऐसी थी कि बड़े से बड़ा साधू महात्मा भी उन पर मोहित हो जाए, मेरी भला औकात ही क्या थी? भाभी की मुस्कान पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि चुप चाप ख़ामोशी से दरवाज़े से एक तरफ हट गया। मेरे एक तरफ हट जाने पर वो मेरे सामने से निकल कर कमरे के दरवाज़े को अपने हाथों से खोला और कमरे के अंदर दाखिल हो ग‌ईं। मेरे मन में अब भी यही सवाल था कि उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कुसुम से क्यों कहा होगा? ख़ैर उन्होंने कमरे के अंदर से मुझे आवाज़ दी तो मैं कमरे के अंदर चला गया।

"कहीं जा रहे थे क्या देवर जी?" मैं जैसे ही अंदर पंहुचा तो रागिनी भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"हां वो ज़रूरी काम से बाहर जा रहा था।" मैंने खड़े खड़े ही सपाट भाव से कहा____"कुसुम ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहतीं थी? कोई काम था क्या मुझसे?"

"क्या बिना कोई काम के मैं अपने देवर जी से नहीं मिल सकती?" मेरे पूछने पर भाभी ने उल्टा सवाल करते हुए कहा तो मैंने कहा____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।"

"देखो वैभव मैं ये तो नहीं जानती कि तुम मेरे सामने आने से हमेशा कतराते क्यों रहते हो?" भाभी ने कहा____"किन्तु मैं तुमसे बस यही कहना चाहती हूं कि जो कुछ हुआ है उसे भूल कर एक नई शुरुआत करो। हम सब यही चाहते हैं कि तुम दादा ठाकुर के साथ रहो और उनका कहना मानो। तुम सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर क्यों दे रही हूं तो इसका जवाब यही है कि सबकी तरह मैं भी यही चाहती हूं कि दादा ठाकुर के बाद तुम उनकी जगह सम्हालो।"

"मुझे दादा ठाकुर बनने का कोई शौक नहीं है।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"कल भी मैंने आपसे यही कहा था और हर बार यही कहूंगा। पिता जी के बाद उनकी जगह उनका बड़ा बेटा ही सम्हालेगा और यही नियम भी है। मैं इस सबसे दूर ही रहना चाहता हूं। अगर आपने मुझसे इसी बात के लिए मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो मेरा जवाब आपको मिल चुका है और अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

"क्या तुमने इस बारे में एक बार भी नहीं सोचा वैभव कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर दे कर क्यों कह रही हूं?" भाभी ने जैसे उदास भाव से कहा___"क्या मुझे ये पता नहीं है कि दादा ठाकुर का उत्तराधिकारी उनका बड़ा बेटा ही होगा?"

"मैं फ़ालतू चीज़ों के बारे में सोचना ज़रूरी नहीं समझता।" मैंने कहा____"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि जिसका जिस चीज़ में अधिकार है उसको वही मिले। मुझे बड़े भैया के अधिकार को छीनने का ना तो कोई हक़ है और ना ही मैं ऐसा करना चाहता हूं।"

"अधिकार उसे दिया जाता है वैभव जो उसके लायक होता है।" भाभी ने सहसा शख़्त भाव से कहा____"तुम्हारे बड़े भैया इस अधिकार के लायक ही नहीं हैं।"
"बड़े आश्चर्य की बात है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आप अपने ही पति के बारे में ऐसा कह रही हैं?"

"मैं किसी की पत्नी के साथ साथ इस हवेली की बहू भी हूं वैभव।" भाभी ने पुरज़ोर लहजे में कहा____"और हवेली की बहू होने के नाते मेरा ये फ़र्ज़ है कि मैं उसी के बारे में सोचूं जिसमे सबकी भलाई के साथ साथ इस हवेली और इस खानदान की मान मर्यादा पर भी कोई आंच न आए।"

"तो आप ये समझती हैं कि बड़े भैया इस अधिकार के लायक नहीं हैं?" मैंने गहरी नज़र से उन्हें देखते हुए कहा____"क्या मैं जान सकता हूं कि आप ऐसा क्यों समझती हैं?"

"इसके उत्तर में मैं बस यही कहूंगी वैभव कि वो अपने इस अधिकार के लायक नहीं है।" भाभी ने नज़रे नीचे कर के कहा____"अगर ऐसा न होता तो मैं तुमसे इसके लिए कभी नहीं कहती और इतना ही नहीं बल्कि दादा ठाकुर खुद भी तुमसे ऐसा न कहते।"

"आपको कैसे पता कि पिता जी ने मुझसे इसके लिए क्या कहा है?" मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए पूछा था।
"मुझे माँ जी से पता चला है।" भाभी ने कहा____"और माँ जी से दादा ठाकर ने खुद इस बारे में बताया था कि उन्होंने तुमसे उस दिन खेत में क्या क्या कहा था।"

भाभी की बात सुन कर मैं तुरंत कुछ न बोल सका था बल्कि इस सोच में पड़ गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात है जिससे पिता जी और भाभी बड़े भैया के बारे में ऐसा कहते हैं?

"फिर तो आपको ये भी पता होगा कि पिता जी ने मुझे किस वजह से गांव से निष्कासित किया था?" मैंने कुछ सोचते हुए भाभी से कहा____"और अगर पता है तो आप जब उस दिन मुझसे मिलने आईं थी तो मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं था?"

"मेरे बताने से क्या तुम्हारे अंदर का गुस्सा और नफ़रत दूर हो जाती?" भाभी ने कहा____"नहीं देवर जी कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें उचित समय पर सही आदमी से ही पता चलें तो बेहतर होता है। मुझे यकीन है कि आज जब तुम दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तब ज़रूर तुम्हारे और उनके बीच इस बारे में बातें हुई होंगी और जब तुम्हें असलियत का पता चला होगा तो तुम्हे फ़ौरन ही समझ आ गया होगा कि वो सही थे या ग़लत?"

"जो भी हो।" मैंने कहा____"पर इसके लिए उन्होंने मुझे बली का बकरा ही तो बनाया ना? चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे हैं उसका हिसाब कौन देगा? अपने मतलब के लिए मेरे साथ ऐसा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था।"

"ये तुम कैसी बातें कर रहे हो वैभव?" मेरी बात सुन कर भाभी ने हैरानी से कहा____"तुम दादा ठाकुर के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हो? वो तुम्हारे पिता हैं और तुम पर उनका पूरा अधिकार है। ऐसी बातें कर के तुमने अच्छा नहीं किया देवर जी। तुम जैसे भी थे लेकिन कम से कम मैं तुम्हें कुछ मामलों में बहुत अच्छा समझती थी।"

"मैं हमेशा से ही बुरा था भाभी।" मैंने कहा____"और बुरा ही रहना चाहता हूं। आपको मुझे अच्छा समझने की ग़लती नहीं करनी चाहिए।"
"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम ऐसी बातें क्यों करते हो?" भाभी ने बेचैन भाव से कहा____"आख़िर ऐसी क्या वजह है कि तुम हम सबसे खुद को अलग रखते हो? क्या हम सब तुम्हारे दुश्मन हैं? क्या हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?"

"चलता हूं भाभी।" मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा____"माफ़ कीजिएगा पर मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते वैभव।" भाभी ने जैसे हुकुम देने वाले लहजे में कहा____"तुम्हें बताना होगा कि तुम ऐसा क्यों करते हो?"

"मैं आपकी बहुत इज्ज़त करता हूं भाभी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मेरे अंदर आपके प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मैं चाहता हूं कि ऐसा हमेशा ही रहे। मैं अपने ऊपर किसी की बंदिशें पसंद नहीं करता और ना ही मैं किसी के इशारे पर चलना पसंद करता हूं। आपने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैंने आपसे मिल लिया और आपकी बातें भी सुन ली। अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

भाभी मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि मैं किस तरह का इंसान हूं। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने उन्हें एक बार फिर से प्रणाम किया और पलट कर कमरे से बाहर निकल गया।

भाभी से ऐसी बेरुख़ी में बातें करना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था क्योंकि जब से मैं यहाँ आया था तब से उनका बर्ताव मेरे लिए बदला बदला सा लगने लगा था और मैं नहीं चाहता था कि वो मेरे क़रीब आने की कोशिश करें। मैं जानता था कि वो अपनी जगह सही हैं मगर उन्हें नहीं पता था कि मेरे अंदर क्या था।

सीढ़ियों से उतर कर नीचे आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मुझे हवेली से बाहर जाता देख उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि मैं कहा जा रहा हूं तो मैंने चलते चलते ही कहा कि ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूं। वो जानती थी कि मुझे इस तरह किसी की टोका टोकी पसंद नहीं थी।

"शाम को जल्दी घर आ जाना बेटा।" पीछे से माँ की मुझे आवाज़ सुनाई दी____"तुझे पता है ना कि आज होलिका दहन है इस लिए मैं चाहती हूं कि शाम को तू भी हमारे साथ ही रहे।"
"जी बेहतर।" कहने के साथ ही मैं मुख्य दरवाज़े से बाहर निकल गया।

हवेली से बाहर आ कर मैं उस तरफ बढ़ चला जहां पर गाड़ियां रखी होतीं थी। आस पास मौजूद दरबान लोग मुस्तैदी से खड़े थे और मुझे देखते ही उन सबकी गर्दन अदब से झुक गई थी। वो सब मेरे बारे में अच्छी तरह जानते थे कि मैं हवेली के बाकी लड़को से कितना अलग था और किसी की ज़रा सी भी ग़लती पर मैं कितना उग्र हो जाता था। इस लिए मेरे सामने हवेली का हर दरबान पूरी तरह मुस्तैद हो जाता था।

मैने अपनी दो पहिया मोटर साइकिल निकाली और उसमे बैठ कर उसे स्टार्ट किया। मोटर साइकिल के स्टार्ट होते ही वातावरण में बुलेट की तेज़ आवाज़ गूँज उठी। मैं बुलेट को आगे बढ़ाते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े से हो कर बाहर निकल गया।

जैसा कि मैंने बताया था हवेली गांव के आख़िरी छोर पर सबसे अलग बनी हुई थी। हवेली से निकलने के बाद थोड़ी दूरी से गांव की आबादी शुरू होती थी। कच्ची सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। गांव के साहूकारों के घर दूसरे छोर पर थे और उनके मकान पक्के बने हुए थे। हमारे बाद गांव में वही संपन्न थे। हमारी ज़मीन बहुत थी जो दूसरे गांवों तक फैली हुई थी।

गांव से बाहर जाने के लिए साहूकारों के घर के सामने से गुज़ारना पड़ता था। साहूकारों के पास भी बहुत ज़मीनें थी और बहुत ज़मीनें तो उन्होंने ग़रीब लोगों को कर्ज़ा दे कर उनसे हड़प ली थी। ठाकुरों के साथ साहूकारों के सम्बन्ध हमेशा से ही थोड़े तनाव पूर्ण रहे थे किन्तु हमारी ताकत के सामने कभी उन लोगों ने अपना सिर नहीं उठाया था। हलांकि साहूकारों की नई पीढ़ी अब मनमानी पर उतर आई थी।

मैं बुलेट से चलते हुए साहूकारों के सामने से निकला तो मेरी नज़र सड़क के किनारे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे बने बड़े से चबूतरे पर बैठे साहूकारों के कुछ लड़कों पर पड़ी। वो सब आपस में बातें कर रहे थे लेकिन मुझे देखते ही चुप हो गए थे और मेरी तरफ घूरने लगे थे। साहूकारों के इन लड़कों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा था और वो सब मेरे द्वारा कई बार पेले जा चुके थे।

मैं उन सबकी तरफ देखते हुए मुस्कुराया और फिर निकल गया। मैं जानता था कि मेरे मुस्कुराने पर उन सबकी झांठें तक सुलग गईं होंगी किन्तु वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने मेरा कुछ उखाड़ने का कभी प्रयास ही नहीं किया था बल्कि वो तो कई बार किया था मगर हर बार मेरे द्वारा पेले ही गए थे।

बुलेट से चलते हुए मैं कुछ ही देर में मुंशी चंद्रकांत के घर पहुंच गया। मुंशी चंद्रकांत का घर पहले साहूकारों के पास ही था लेकिन साहूकार उसे अक्सर किसी न किसी बात पर परेशान करते रहते थे जिसकी वजह से दादा ठाकुर ने मुंशी के लिए गांव से बाहर हमारी ही ज़मीन पर एक बड़ा सा पक्का मकान बनवा दिया था और साहूकारों को ये शख़्त हिदायत दी गई थी कि अब अगर उनकी वजह से मुंशी चंद्रकांत को किसी भी तरह की परेशानी हुई तो उनके लिए अच्छा नहीं होगा। दादा ठाकुर की इस हिदायत के बाद आज तक अभी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। मुंशी ने अपना पहले वाला घर पिता जी के ही कहने पर एक ग़रीब किसान को दे दिया था।

बुलेट की आवाज़ सुन कर मुंशी के मकान का दरवाज़ा खुला तो मेरी नज़र दरवाज़े के पार खड़ी मुंशी की बहू रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे होंठों पर मुस्कान फैल गई और यही हाल उसका भी हुआ। मैंने बुलेट को बंद किया और उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही पलों में मैं रजनी के पास पहुंच गया। रजनी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रही थी और जैसे ही मैं उसके क़रीब पहुंचा तो वो दरवाज़े के अंदर की तरफ दो क़दम पीछे को हो ग‌ई। मैं मुस्कुराते हुए दरवाज़े के अंदर आया और फिर झट से दरवाज़ा बंद कर के रजनी को अपनी बाहों में कस लिया।

"ये क्या कर रहे हैं छोटे ठाकुर?" रजनी ने मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"मां जी अंदर ही हैं और अगर वो इस तरफ आ गईं तो गज़ब हो जाएगा।"

"आने दे उसे।" मैंने रजनी को पलटा कर उसकी पीठ अपनी तरफ करते हुए कहा____"उसे भी तेरी तरह अपनी बाहों में भर कर प्यार करने लगूंगा।"
"अच्छा जी।" रजनी ने मेरे पेट में अपनी कोहनी से मार कर कहा____"क्या मुझसे आपका मन भर गया है जो अब मेरी बूढ़ी सास को भी प्यार करने की बात कह रहे हैं?"

"बूढ़ी वो तेरी नज़र में होगी।" मैंने रजनी की बड़ी बड़ी चूचियों को मसलते हुए कहा तो उसकी सिसकी निकल गई, जबकि मैंने आगे कहा____"मेरे लिए तो वो तेरी तरह कड़क माल ही है। तूने अभी देखा ही नहीं है कि तेरी सास कैसे मेरे लंड को मुँह में भर कर मज़े से चूसती है।"

"आप बहुत वो हैं।" रजनी ने अपना हाथ पीछे ले जा कर पैंंट के ऊपर से ही मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"हम दोनों के मज़े ले रहे हैं मगर कभी ये नहीं सोचा कि अगर किसी दिन हमारा भांडा फूट गया तो हमारा क्या होगा?"

"मेरे रहते तुम दोनों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने रजनी के ब्लॉउज में हाथ डाल कर उसकी एक चूची को ज़ोर से मसला तो इस बार उसकी सिसकी ज़ोर से निकल गई____"ख़ैर ये सब छोड़ और आज शाम को बगीचे में मिल। चार महीने हो गए तुझे चोदे हुए और अब मुझसे रहा नहीं जा रहा।"

"मैं भी तो आपसे चुदवाने के लिए तब से ही तड़प रही हूं।" रजनी ने मेरे लंड को तेज़ तेज़ सहलाते हुए कहा जिससे मेरा लंड पैंट के अंदर ही किसी नाग की तरह फनफना कर खड़ा हो गया था, उधर रजनी ने आगे कहा____"रात में जब वो करते हैं तो मुझे ज़रा भी मज़ा नहीं आता। तब आपकी याद आती है और फिर सोचती हू कि उनकी जगह पर काश आप होते तो कितना मज़ा आता।"

"तेरा पति तो साला नपुंसक है।" मैंने एक हाथ से रजनी की चूंत को उसकी साड़ी के ऊपर से ही मसलते हुए कहा जिससे वो कसमसाने लगी____"उसमे तो दम ही नहीं है अपनी बीवी को हचक के चोदने का। ख़ैर तू आज शाम को बगीचे में उसी जगह पर मिल जहां पर हम हमेशा मिला करते थे।"

"ठीक है मैं समय से पहुंच जाऊंगी वहां।" रजनी ने मेरे लंड से अपना हाथ हटाते हुए कहा____"अब छोड़िए मुझे। कहीं माँ जी ना आ जाएं। आपसे कितनी बार कहा है कि एक बार मुझे भी उनके साथ करते हुए दिखा दीजिए मगर आप सुनते कहा हैं मेरी? क्या आपका मन नहीं करता कि आप हम दोनों सास बहू को एक साथ चोदें?"

"मन तो करता है मेरी जान।" मैंने रजनी के होठों को चूमने के बाद कहा___"मगर ऐसा मौका भी तो मिलना चाहिए। ख़ैर तू चिंता न कर। इस बार मौका मिला तो तुझे और तेरी सास दोनों को ही एक साथ पेलूंगा।"

मेरी बात सुन कर रजनी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक उभर आई। अभी हम बात ही कर रहे थे कि तभी अंदर से रजनी की सास और मुंशी की बीवी प्रभा की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी। रजनी की सास रजनी को आवाज़ दे कर पूछ रही थी कि कौन आया है बाहर?

प्रभा की इस आवाज़ पर मैं रजनी को छोड़ कर अंदर की तरफ चल दिया जबकि रजनी वहीं पर खड़ी हो कर अपनी साड़ी और ब्लॉउज को ठीक करने लगी थी। कुछ ही देर में मैं अंदर आँगन में आया तो देखा प्रभा अपने हाथ में सूपा लिए इस तरफ ही आ रही थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर मुस्कुराने लगी।

मुंशी की बीवी प्रभा इस उम्र में भी गज़ब का माल लगती थी। गठीला जिस्म था उसका और जिस्म में झुर्रियों के कही निशान तक नहीं थे। उसके सीने पर दो भारी भरकम खरबूजे जैसी चूचियां थी जो तंग ब्लॉउज की वजह से ब्लॉउज को फाड़ कर बाहर उछाल पड़ने को आतुर थे। प्रभा थोड़ी सांवली थी किन्तु लंड की सवारी वो अपनी बहू से कहीं ज़्यादा पूरे जोश से करती थी।

"क्या बात है।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर हमारे घर में कैसे? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए?"
"मुंशी काका कहां हैं?" रजनी को पीछे से आता देख मैंने प्रभा से कहा____"मुझे उनसे कुछ ज़रूरी काम है।"

"वो तो इस वक़्त यहाँ नहीं हैं।" प्रभा ने कहा____"दोपहर को रघू के साथ कहीं गए थे और अब तक नहीं लौटे। ख़ैर आप मुझे बताइए क्या काम था उनसे?"
"उनसे कहना मुझसे आ कर मिलें।" मैंने ठाकुरों वाले रौब में कहा____"और ये भी कहना कि मुझसे मिलने में उन्हें देरी नहीं होनी चाहिए।"

"जी बिलकुल छोटे ठाकुर।" प्रभा ने सिर हिलाते हुए कहा___"अरे! आप खड़े क्यों हैं बैठिए ना।"

प्रभा ने हाथ में लिए हुए सूपे को एक तरफ रखा और आँगन के एक कोने में रखी चारपाई को बिछा दिया। मैं जा कर चारपाई में बैठ गया। हलांकि अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहता था किन्तु मैं एक बार प्रभा की बेटी कोमल को भी देख लेना चाहता था। पिछली बार जब मैं उससे मिला था तब मैं उसे पटाने में लगभग कामयाब हो ही गया था। उसके बाद पिता जी ने गांव से निष्कासित कर देने का फैसला सुना दिया था तो मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई थी।

अभी मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी रजनी लोटा और गिलास में पानी ले कर आई और मेरी तरफ गिलास बढ़ाया तो मैंने उसके हाथ से गिलास ले लिया। पानी पीते हुए मैंने रजनी की तरफ देखा तो उसके होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभरी हुई थी।

"मां जी आपने पिता जी से कहा क्यों नहीं कि वो वापसी में कोमल को भी साथ ले आएंगे?" रजनी ने पलट कर प्रभा की तरफ देखते हुए कहा____"और कितने दिन वो मौसी जी के यहाँ रहेगी?"

"मुझे उनसे ये कहने का ख़याल ही नहीं आया बहू।" प्रभा ने कहा____"कल से पूरा एक महीना हो जायेगा कोमल को यहाँ से गए हुए। मैंने तो जीजा जी से कहा भी था कि वो उसे दस पंद्रह दिन में भेज देंगे मगर लगता है कि उन्हें फसलों की कटाई के चलते कोमल को भेजने का समय ही नहीं मिल रहा होगा।"

प्रभा की बात सुन कर रजनी बोली तो कुछ न लेकिन वो तिरछी नज़रों मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई ज़रुर। मैं समझ गया कि शायद उसे अपनी ननद के बारे में पता चल गया है और उसने जब मुझे इधर उधर देखते हुए देखा था तो शायद वो समझ गई थी कि मैं किसे देखने की कोशिश कर रहा हूं। रजनी अपनी सास की ही तरह बहुत चालाक थी। ख़ैर अब जबकि मुझे पता चल चुका था कि कोमल अपनी मौसी के यहाँ है तो अब यहाँ मेरे रुकने का सवाल ही नहीं था। इस लिए मैं चारपाई से उठा और रजनी की सास से चलने को कहा तो उसने इशारे से ही सिर हिला दिया। मैंने आँखों के इशारे से रजनी को एक बार फिर ये बताया कि वो आज शाम को बगीचे वाले अड्डे पर मिले।

मुंशी के घर से मैं बुलेट में बैठ कर चल पड़ा। अब मेरी मंज़िल मुरारी काका का घर थी। मैं मुरारी काका के घर जा कर देखना चाहता था कि वहां का माहौल कैसा है और उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? ये सोच कर मैं दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। मैं मुख्य सड़क से न जा कर उसी रास्ते से चल पड़ा जिस रास्ते से मैं पिछले दिन बग्घी में बैठ कर अपने झोपड़े से आया था।

फागुन का महीना चल रहा था और हर जगह खेतों में गेहू की कटाई चालू थी। पगडण्डी के दोनों तरफ हमारी ही ज़मीन थी और हमारे खेतों पर मजदूर गेहू की कटाई में लगे हुए थे। बुलेट की आवाज़ सुन कर उन सबका ध्यान मेरी तरफ गया तो सबने मुझे पहचान कर अदब से सिर नवाया जबकि मैं बिना उनकी तरफ देखे बढ़ता ही चला जा रहा था। कुछ दूरी से खेत समाप्त हो जाते थे और बंज़र ज़मीन शुरू हो जाती थी। बंज़र ज़मीन के उस पार जंगल लगा हुआ था।

कुछ ही देर में मैं अपने झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास बुलेट को खड़ी कर के मैंने कुछ देर झोपड़े का और आस पास का जायजा लिया और फिर से बुलेट में बैठ कर चल दिया। अब मैं मुरारी काका के घर जा रहा था।

कुछ ही देर में मुरारी काका के घर के सामने पहुंच कर मैंने बुलेट खड़ी की। पेड़ के पास बने चबूतरे पर आज कोई नहीं बैठा था और ना ही आस पास कोई दिख रहा था। मुरारी काका का घर वैसे भी गांव से हट कर बना हुआ था, जहां पर मुरारी काका के खेत थे। ये बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि कुछ ही पलों में मुरारी काका के घर का दरवाज़ा खुल गया और मेरी नज़र दरवाज़े के उस पार खड़ी अनुराधा पर पड़ी। इस वक़्त अनुराधा जिस रूप में मुझे दिख रही थी उससे मैं उसकी तरफ एकटक देखता रह गया था, जबकि वो भी मुझे बुलेट जैसी मोटर साइकिल में आया देख अपलक देखने लगी थी। कुछ पलों तक तो वो मुझे अपलक ही देखती रही फिर जैसे उसे कुछ याद आया तो वो बिना कुछ कहे ही वापस अंदर की तरफ पलट गई। उसका इस तरह से पलट कर घर के अंदर चले जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगा मुझे।

मैं आगे बढ़ा और दरवाज़े से अंदर दाखिल हो गया। मुरारी काका का घर मिटटी का बना हुआ था और घर के सामने थोड़ा सा मैदान था। घर के सामने मिट्टी की एक ही दीवार थी जिसमे लकड़ी का दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े से अंदर जाते ही बड़ा सा आँगन था। आँगन के बाईं तरफ भी मिट्टी की ही एक दीवार थी जिसमे दरवाज़ा लगा हुआ था और उस दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ जाना होता था। घर के पीछे एक कुआं था और उसी कुएं के बगल से सरोज काकी ने सब्जियों की एक छोटी सी बगिया लगा रखी थी। आँगन के सामने तरफ और दाएं तरफ दो दो दीवारों के हिसाब से चार कमरे बने हुए थे। सामने वाली दीवार के आगे तरफ क़रीब सात या आठ फ़ीट की एक दीवार बढ़ा कर रसोई बनाई गई थी और उसी रसोई की बढ़ी हुई दीवार के सामानांतर से लकड़ी की मोटी मोटी थून्ही ज़मीन में गाड़ कर और ऊपर से खपरैल चढ़ा कर बरामदा बनाया गया था।

मैं आँगन में आया तो अनुराधा मुझे सामने रसोई के पास ही बरामदे के पास खड़ी नज़र आई। घर के अंदर एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। मैंने नज़र इधर उधर घुमा कर देखा तो सरोज काकी मुझे कहीं नज़र नहीं आई।

"मां खेतों में गेहू की फसल काट रही है।" मुझे इधर उधर देखता देख अनुराधा ने धीमी आवाज़ में कहा____"और छोटकू भी माँ के साथ ही है। अगर आप माँ से मिलने आए हैं तो वो आपको खेत पर ही मिलेगी।"

"तो तुम इस वक़्त इस घर में अकेली हो?" मैंने धड़कते हुए दिल से पूछा____"क्या तुम काकी के साथ गेहू कटवाने नहीं गई?"
"ग‌ई थी।" अनुराधा ने कहा____"लेकिन सिर दर्द करने लगा था तो माँ ने मुझे घर जाने को कह दिया। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ आई हूं।"

अनुराधा इस वक़्त घर में अकेली थी और ये जान कर पता नहीं क्यों मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं थी। मुमकिन था कि मेरे जैसा ही हाल अनुराधा का भी होगा। आज से पहले कभी वो मेरे सामने अपने घर में अकेली नहीं थी। वो बरामदे के पास ही चुप चाप खड़ी थी और अपने दुपट्टे के छोर को पकड़ कर उसे कभी इधर उमेठती तो कभी उधर। मैं उसके मासूमियत से भरे चेहरे को ही निहारे जा रहा था और मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था। अभी मैं सोचमे गुम ही था कि अचानक उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और जो कुछ उसने कहा उसने मेरे चेहरे का रंग ही उड़ा दिया।


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वैभव अपनी भाभी से हमेसा दूर रहता है क्यू की वह चाहता की उसकी गंदी नजर अपनी भाभी पर न पड़े वह अपनी भाभी से मिलने जाता है उसकी भाभी उसको बोलती हैं की वह दादा ठाकुर की बात माने और आगे दादा ठाकुर का उत्तराधिकारी बने लेकिन वह अपनी भाभी से बोलता ही की वह अधिकार बड़े भैया का ही लेकिन भाभी बोलती ही की वे उसके काबिल नही है लेकिन क्यू ये क्या रहस्य है इसका पता तो भाभी से ही चल सकता है वही मुंशी की पत्नी और बहू दोनो को चोद चुका है और बहू को चोदने के लिए बगीचे में बुलाता है देखते हैं क्या होता है आगे
 
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