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Thik update tha bhai....अध्याय - 38
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अब तक....
मैंने अनुराधा से कहा कि मैं कल का खाना यही खाऊंगा, वो भी उसके हाथ का बना हुआ। मेरी बात सुन कर अनुराधा ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। उसके बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी घर से बाहर निकल गया। अनुराधा मेरे पीछे पीछे दरवाज़े तक आई। मैंने जब बुलेट में बैठ कर उसकी तरफ देखा तो हमारी नज़रें आपस में मिल गईं। मैं उसे देख कर मुस्कुराया तो उसके होठों पर भी शर्म मिश्रित हल्की मुस्कान उभर आई। उसके बाद मैंने बुलेट को आगे बढ़ा दिया। तेज़ आवाज़ करती हुई बुलेट कच्ची पगडण्डी पर दौड़ी चली जा रही थी। सारे रास्ते मैं अनुराधा के बारे में ही सोचता रहा। उसके साथ हुई हमारी बातों के बारे में सोचता रहा। आज उससे बातें कर के एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था मुझे।
अब आगे....
मैं जब मुंशी चंद्रकांत के घर के पास पहुंचा तो मुझे अचानक रजनी का ख़याल आया। उसे तो मैं जैसे भूल ही गया था। मुझे याद आया कि कैसे उस दिन वो रूपचंद्र से चुदवा रही थी। साली रांड मेरे पीठ पीछे उसका लंड भी गपक रही थी। मैंने बुलेट को मुंशी के घर की तरफ मोड़ा और खाली जगह पर खड़ी कर दिया। बुलेट की तेज़ आवाज़ शायद घर के अंदर तक गई थी इस लिए जैसे ही मैं दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर खटखटाना चाहा वैसे ही दरवाज़ा खुल गया। मेरी नज़र दरवाज़ा खोलने वाली रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे अंदर गुस्सा और नफरत दोनों ही उभर आई, लेकिन मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"छो..छोटे ठाकुर आप?" उसने धीमे स्वर में हकला कर मुझसे कहा तो मैंने सपाट लहजे में कहा____"क्यों क्या मैं यहाँ नहीं आ सकता?"
"न...नहीं ऐसा तो मैंने नहीं कहा आपसे।" वो एकदम से बौखला गई थी_____"आइए अंदर आइए।"
वो दरवाज़े से हटी तो मैं अंदर दाखिल हो गया। सहसा मेरी नज़र उसके चेहरे पर फिर से पड़ी तो मैंने देखा वो कुछ परेशान सी नज़र आ रही थी और साथ ही चेहरे का रंग भी उड़ा हुआ दिखा। मुझे उसकी ये हालत देख कर उस पर शंका हुई। ज़हन में एक ही ख़याल उभरा कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है?
"मुंशी जी कहां हैं?" मैंने उसकी तरफ ही गौर से देखते हुए पुछा।
"ससुर जी हवेली गए हैं।" रजनी ने खुद को सम्हालते हुए संतुलित लहजे में कहा____"और माँ की तबियत ख़राब थी तो ये (उसका पति रघु) उन्हें ले कर वैद जी के पास गए हैं।"
रजनी आज मुझे अलग ही तरह से नज़र आ रही थी। उसके चेहरे पर परेशानी के भाव अभी भी कायम थे। माथे पर पसीना झिलमिला रहा था। वो बार बार बेचैनी से अपने हाथों की उंगलियों को आपस में उमेठ रही थी। मैं समझ चुका था कि भारी गड़बड़ है। वो इस वक़्त घर में अकेली है और निश्चय की अंदर उसके साथ कोई ऐसा है जिसके साथ वो अपनी गांड मरवाने वाली थी लेकिन मेरे आ जाने से उसका काम ख़राब हो गया था।
"क्या हुआ तू इतनी परेशान क्यों दिख रही है?" मैंने उसको देखते हुए उससे पूछा____"सब ठीक तो है न?"
"जी...जी हाँ छोटे ठाकुर।" वो एकदम से चौंकी थी और फिर हकलाते हुए बोली____"स..सब कुछ ठीक है।"
"पर मुझे तो कुछ और ही लग रहा है।" मैंने उसकी हालत ख़राब करने के इरादे से कहा____"लगता है अपनी सास को अपने मरद के साथ भेज कर इधर तेरी भी तबियत ख़राब हो गई है। चल अंदर आ, तेरा इलाज़ करता हूं मैं।"
मेरी बात सुनते ही रजनी की मानो अम्मा मर गई। चेहरे पर जो पहले से ही परेशानी और बेचैनी थी उसमें पलक झपकते ही इज़ाफ़ा हो गया। वो मेरी तरफ ऐसे देखने लगी थी जैसे मैं अचानक ही किसी जिन्न में बदल गया होऊं।
"य...ये क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?" फिर वो खुद को किसी तरह सम्हालते हुए बोल पड़ी____"मुझे भला क्या हुआ है? मैं तो एकदम ठीक हूं, हाँ थोड़ा सिर ज़रूर दुःख रहा है।"
मैं समझ चुका था कि उसके साथ कुछ तो भारी गड़बड़ ज़रूर है लेकिन क्या, ये देखना चाहता था मैं। इस लिए उसकी बात सुन कर मैं उसको बिना कोई जवाब दिए अंदर की तरफ चल पड़ा। मुझे अंदर की तरफ जाते देख वो और भी बुरी तरह बौखला गई। डर और घबराहट के मारे उसका बुरा हाल हो गया लेकिन उसकी बिवसता ये थी कि वो मुझे अंदर जाने से रोक भी नहीं सकती थी। ख़ैर जल्दी ही मैं अंदर आँगन में पहुंच गया।
आंगन में एक तरफ एक खटिया बिछी हुई थी लेकिन वो खाली थी। मैंने आस पास नज़र घुमाई पर कोई न दिखा। तभी मेरे पीछे पीछे रजनी भी आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी डर और घबराहट के भाव तांडव सा करते दिख रहे थे। रजनी की जो हालत थी उससे मुझे यकीन हो चुका था कि वो मुझसे कोई बड़ी बात छुपाना चाहती थी। मेरी नज़रें हर तरफ घूम रहीं थी कि तभी सहसा मुझे कुछ दिखा। कुछ दूरी पर बने दो कमरों में से एक का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और वो कुछ पल मुझे हिलता सा प्रतीत हुआ था। मेरी नज़रें उसी जगह पर जम गईं। मुझे उस तरफ देखते देख रजनी और भी घबरा गई।
"अरे! खड़ी क्या है?" मैंने पलट कर रजनी से शख़्त लहजे में कहा____"घर आए इंसान से जल पान का भी नहीं पूछेगी क्या?"
"जी...जी माफ़ करना छोटे ठाकुर।" रजनी बुरी तरह हड़बड़ा कर बोली____"आप खटिया पर बैठिए मैं अभी आपके लिए पानी लाती हूं।"
रजनी दूसरी तरफ रखे मटके की तरफ तेज़ी से बढ़ी और इधर मैं उस कमरे की तरफ जिस कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और थोड़ा सा हिलता प्रतीत हुआ था मुझे। रजनी को कुछ महसूस हुआ तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। मुझे उस कमरे की तरफ जाता देख वो बुरी तरह घबरा गई। मारे दहशत के उसके माथे पर पसीना उभर आया। पलक झपकते ही उसकी हालत ऐसी हो गई मानो काटो तो खून नहीं। उसके होठ कुछ कहने के लिए खुले तो ज़रूर मगर आवाज़ न निकल सकी। मटके से पानी निकालना भूल गई थी वो।
मैं दरवाज़े के पास पहुंचा और एक झटके से उसे खोल कर अंदर दाखिल हो गया। अंदर दरवाज़े के अगल बगल मैंने निगाह घुमाई तो दाएं तरफ मुझे रूपचन्द्र छुपा खड़ा नज़र आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बेजान सा खड़ा रह गया था। मारे डर के उसका चेहरा पीला ज़र्द पड़ गया था। उसकी हालत देख कर मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन क्योंकि अब उससे और उसके पूरे परिवार वालों से मैंने अपने अच्छे सम्बन्ध बना लिए इस लिए ऐसे वक़्त में उससे कुछ उल्टा सीधा कहना मैंने ठीक नहीं समझा।
"रुपचंद्र तुम, यहाँ??" उसे देख कर मैंने बुरी तरह चौकने का नाटक किया और फिर हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"क्या बात है, लगता है रजनी को पेलने आए थे यहाँ लेकिन मैंने तुम्हारा काम ख़राब कर दिया, है ना?"
"ये...ये क्या कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"मैं तो यहाँ ब....।"
"अरे! यार मुझसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है तुम्हें।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"अब तो तुम मेरे छोटे भाई भी हो और दोस्त भी। वैसे मुझे पहले से ही पता है कि तुम्हारा और रजनी का जिस्मानी सम्बन्ध है। ख़ैर मुझे तुम्हारे इस सम्बन्ध से कोई ऐतराज़ नहीं है और ना ही मैं किसी को बताऊंगा कि तुम्हारा मुंशी की बहू से ऐसा रिश्ता है।"
"क्...क्या तुम सच कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र के चेहरे पर राहत के साथ साथ आश्चर्य के भाव उभरे____"क्या सच में तुम्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है?"
"अब कितनी बार तुमसे कहूं भाई?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"ये सब तुम दोनों की रज़ामंदी से हो रहा है तो किसी को इससे क्या समस्या होगी भला? वैसे, तुम्हें पता है मैं भी उस रजनी को दबा के पेलता हूं। साली बड़ी चुदक्कड़ है। हुमच हुमच के चुदवाती है। एक काम करते हैं, चलो हम दोनों मिल के आज उसकी मस्त पेलाई करते है।"
मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुझे इस तरह देखने लगा था जैसे मेरे चेहरे पर अचानक ही उसे आगरे का ताजमहल नज़र आने लगा हो। मैं समझ सकता था कि मौजूदा परिस्थिति में उसका मुझ पर यकीन कर पाना संभव नहीं था लेकिन सच तो उसकी आँखें खुद ही देख रहीं थी और कान सुन रहे थे।
मैं रूपचंद्र को कंधे से पकड़ कर कमरे से बाहर ले आया। मुझे रूपचन्द्र को इस तरह साथ लिए आते देख रजनी एकदम से बुत बन गई थी। भाड़ की तरह मुँह खुला रह गया था। जिस तरह कुछ देर पहले रूपचंद्र का चेहरा मारे डर के पीला पड़ गया था उसी तरह अब रजनी का पीला पड़ गया था।
"इतना लम्बा मुँह क्यों फाड़ लिया अभी से?" मैंने रजनी को होश में लाने की गरज़ से कहा____"पहले हम दोनों के कपड़े तो उतार। उसके बाद हम दोनों तेरे हर छेंद में अपना लंड डालेंगे, क्यों रूपचंद्र?"
मैंने आख़िरी वाक्य रूपचंद्र को देख कर कहा तो वो एकदम से हड़बड़ा गया और फिर खुद को सम्हालते हुए ज़बरदस्ती मुस्कुरा कर बोला____"हां हाँ क्यों नहीं भाई।"
उधर रजनी को काटो तो खून नहीं। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसकी आँखें क्या देख रहीं थी और कान क्या सुन रहे थे। उसे तो शायद ये लगा था कि आज मैं उसकी और रूपचंद्र की मस्त गांड तोड़ाई करुंगा लेकिन अब जो होने जा रहा था उसकी तो उसे ख़्वाब में भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से उसे होश आया और उसके ज्ञान चच्छू जागे।
मैं जानता था कि हमारे पास समय नहीं है क्योंकि कोई भी यहाँ आ सकता था। मेरी बुलेट भी बाहर ही खड़ी थी और उसे देख कर किसी के भी मन में मुंशी के घर में आने का विचार आ सकता था इस लिए मैंने इस काम को फटाफट करने का सोचा। रजनी को शख़्त लहजे में बोला कि वो पूरी तरह नंगी हो जाए। मेरे कहने पर वो पहले तो झिझकी क्योंकि रूपचंद्र सामने था लेकिन मेरे आगे भला कहां उसकी चलने वाली थी। इस लिए जल्दी ही उसने अपना साड़ी ब्लाउज उतार दिया। रांड ने अंदर ना तो कच्छी पहन रखी थी और ना ही ब्रा। उसकी बड़ी बड़ी छातियां आँगन में आ रही धूप में चमक रहीं थी। जांघों के बीच उसकी चूत घने बालों में छुपी हुई थी। मेरी वजह से जहां रूपचंद्र को ये आलम थोड़ा असहज महसूस करा था वहीं रजनी का भी यही हाल था। वो अपनी छातियों और चूत को छुपाने का प्रयास कर रही थी।
"देखा रूपचंद्र।" मैंने रूपचंद्र को रजनी की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये रांड कितना करारा माल लग रही है। क्या लगता है तुझे, इसकी ये बड़ी बड़ी छातियां कितने लोगों की मेहनत का नतीजा होंगी?"
"म..मैं भला क्या बताऊं वैभव?" रूपचंद्र झिझकते हुए धीमी आवाज़ में बोला तो मैंने उससे कहा____"लगता है तू अभी भी मुझसे डर रहा है यार, जबकि अब हमारे बीच ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। अब से हम दोनों पक्के वाले यार हैं और जो कुछ करेंगे साथ ही करेंगे, क्या बोलता है?"
रूपचंद्र मेरी तरफ अपलक देखने लगा। शायद वो मेरे चेहरे के भावों को पढ़ कर ये समझने की कोशिश कर रहा था कि इस वक़्त मैं उससे जो कुछ कह रहा हूं उसके पीछे कितना सच है?
"हद है यार।" मैंने खीझने का नाटक किया____"तुझे अब भी मुझ पर यकीन नहीं हुआ है?"
"नहीं ऐसी बात नहीं है वैभव।" फिर उसने गहरी सांस लेते हुए कहा____"बात ये है कि हमारे बीच इतना जल्दी सब कुछ बदल गया है तो उसे मैं इतना जल्दी हजम नहीं कर पा रहा हूं।"
"अरे! तो पगले इसी लिए तो मैं कह रहा हूं कि हम दोनों मिल के इस रांड को पेलेंगे।" मैंने उसके दोनों कन्धों पर हाथ रख कर समझाते हुए कहा____"जब हम दोनों साथ मिल कर इसके साथ पेलम पिलाई करेंगे तो हमारे बीच सब कुछ खुल्लम खुल्ला वाली बात हो जाएगी। फिर न तुझे मुझसे झिझकने की ज़रूरत होगी और ना इस रांड को।"
रूपचंद्र को देर से ही सही लेकिन मैंने आस्वस्त कर दिया था। उसके बाद मेरे कहने पर रजनी ने फ़ौरन ही हम दोनों के कपड़े उतारे। रूपचंद्र नंगा हो जाने के बाद मेरे सामने थोड़ा शरमा रहा था। अपना मुरझाया हुआ लंड वो अपने ही हाथ से छुपाने की कोशिश कर रहा था जबकि मैं आराम से खड़ा था।
"चल अब पहले रूपचंद्र का लंड मुँह में ले कर चूस।" मैंने रजनी से कहा____"और हाँ थोड़ा जल्दी करना क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी के आ जाने से हमारा ये खेल ख़राब हो जाए।"
रजनी मरती क्या न करती वाली हालत में थी। उसे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि ये सब आज हो क्या रहा है। उसने घुटनों के बल बैठ कर रूपचंद्र के मुरझाए हुए लंड को पकड़ा तो रूपचंद्र की सिसकी निकल गई। रजनी उसके लंड को पकड़ कर सहलाने लगी जिससे रूपचंद्र को धीरे धीरे आनंद आने लगा और उसने अपनी आँखें बंद कर ली। इधर मैं खुद ही अपने हाथ से अपने लंड को सहला रहा था। कुछ ही देर में रूपचन्द्र का लंड अपने अकार में आ गया। मैंने पहली बार उसके लंड पर नज़र डाली तो ये देख कर मन ही मन हँसा कि इसका तो मेरे लंड का आधा भी नहीं है।
रजनी रूपचंद्र के लंड को मुँह में ले कर चूस रही थी और रूपचंद्र मज़े में उसके सिर को थामे अपनी कमर हिलाए जा रहा था। रजनी अपने सिर को आगे पीछे कर के उसका लंड चूस रही थी। हिलने से उसकी बड़ी बड़ी चूंचियां भी हिल रहीं थी।
"चल अब क्या उसे ऐसे ही झड़ा देगी रांड?" मैंने रजनी से कहा तो दोनों को होश आया। रजनी ने उसका लंड अपने मुख से निकाल कर मेरी तरफ देखा।
"अब इसे भी अपने मुँह में ले कर चूस।" मैंने कहा_____"उसके बाद तेरी पेलाई शुरू करते हैं हम दोनों।"
रजनी चुप चाप मेरी तरफ सरकी और मेरे लंड को पकड़ कर सहलाने लगी। मैंने रूपचंद्र की तरफ देखा। वो आँखें फाड़े मेरे लंड को देख रहा था। मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन लंड के बारे में उससे कुछ कहना ठीक नहीं समझा क्योंकि ऐसे में वो अपनी कमी महसूस करता। रजनी कुछ पलों तक मेरा लंड सहलाती रही उसके बाद उसने मेरे लंड को मुँह में भर लिया। उसका गरम मुख जैसे ही मेरे लंड के टोपे पर लगा तो मैंने उसकी तरफ देखा। मेरा लंड अभी अपने पूरे अकार में नहीं आया था इस लिए उसे अभी कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। मैंने रजनी के सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और उसे अपने लंड की तरफ खींचने लगा। मेरा आधे से ज़्यादा लंड रजनी के मुँह में समां गया जिससे रजनी को झटका लगा और वो मेरी जाँघों को पकड़ कर ज़ोर लगाने लगी। एक तो रजनी के ऊपर पहले से ही मुझे गुस्सा था ऊपर से आज वो फिर से रूपचंद्र से चुदवाने जा रही थी इस लिए मेरे मन में अब उसे ऐसे ही सज़ा देने का ख़याल उभर आया था।
कुछ ही देर में रजनी की हालत ख़राब हो गई। मेरा लंड अपने पूरे आकार में आ चुका था और मैं मजबूती से उसके सिर को पकड़े उसके मुँह में अपने लंड को पेले जा रहा था। आँगन में रजनी के मुँह से निकलने वाली गूं गूं की आवाज़ें गूंजने लगीं थी। रूपचंद्र आश्चर्य से आँखें फाड़े कभी रजनी की हालत को देखता तो कभी मुझे। इधर मुझे रजनी को इस तरह पेलने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जब मैंने देखा कि रजनी की आँखों से आंसू निकलने लगे हैं तो मैंने उसे छोड़ दिया। मुँह से लंड निकलते ही रजनी बुरी तरह खांसने लगी। उसके साँसें बुरी तरह उखड़ गईं थी। उसके थूक और लार से सना हुआ मेरा लंड धूप में अलग ही चमक रहा था। रूपचंद्र मेरे मोटे और लम्बे लंड को देख कर मानो सकते में आ गया था।
"छो...छोटे ठाकुर...खौं खौं...छोटे ठाकुर।" रजनी अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए और खांसते हुए बोली____"आपने तो मेरी जान ही ले ली थी।"
"चिंता मत कर।" मैंने कहा_____"लंड लेने से कोई नहीं मरता, ख़ास कर तेरे जैसी रांड तो बिल्कुल भी नहीं।"
मैंने रूपचंद्र को आँगन में लेटने के लिए कहा तो उसने न समझने वाले भाव से मेरी तरफ देखा। मैंने उसे समझाया कि वो ज़मीन पर सीधा लेट जाए ताकि रजनी उसकी तरफ अपनी पीठ कर के उसके ऊपर लेट जाए। नीचे से वो रजनी की गांड में अपना लंड डाले और उसके बाद मैं ऊपर से रजनी की चूत में अपना लंड डाल कर उसकी चुदाई करुंगा। सारी बात समझ में आते ही रूपचंद्र झट से ज़मीन पर लेट गया। मैंने रजनी को इशारा किया तो वो रूपचंद्र के ऊपर अपनी पीठ कर के लेट गई। घुटनों को उसने ज़मीन पर टिका लिया था और दोनों हाथों को पीछे रूपचंद्र के सीने में। उसके लेटते ही रूपचंद्र ने नीचे से अपने लंड को रजनी की गांड में डाल दिया और फिर अपनी कमर को हिलाने लगा।
खिली धूप में वो दोनों इस आसान में अलग ही नज़ारा पेश कर रहे थे। रजनी की गोरी गोरी लेकिन भारी छातियां रूपचंद्र के धक्के लगाने से हिल रहीं थी। रजनी मुझे ही देख रही थी। मैं वक़्त को बर्बाद न करते हुए आगे बढ़ा और रजनी के ऊपर आसान ज़माने लगा। एक हाथ से अपने लंड को पकड़ कर मैंने रजनी की बालों से भरी चूत पर टिकाया और ज़ोर का झटका दिया जिससे रजनी उछल गई और नीचे उसकी गांड से रूपचंद्र का लंड निकल गया। रूपचंद्र ने जल्दी से अपने लंड को पकड़ कर उसकी गांड में डाला और धीरे धीरे धक्के लगाने लगा। इधर मैं अपने दोनों हाथ ज़मीन पर टिकाए तेज़ तेज़ कमर हिलाने लगा था। रजनी की पानी बहाती चूत पर मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था जिससे अब रजनी की सिसकियां और दर्द में डूबी आहें निकलने लगीं थी।
रजनी के लिए शायद ये पहली बार था जब वो दो दो लंड एक ही बार में अपनी चूत और गांड में ले रही थी। जल्दी ही वो मस्ती में आ गई और ज़ोर ज़ोर आहें भरने लगी। नीचे से रूपचंद्र अपना पिछवाड़ा उठा उठा कर रजनी की गांड में अपना लंड डाल रहा था और ऊपर से मैं रजनी की चूत को पेले जा रहा था। कुछ देर तक तो गज़ब का रिदम बना रहा लेकिन फिर रूपचंद्र हिच्च बोल गया। वो कहने लगा कि नीचे से कमर उठा उठा कर रजनी की गांड मारने से उसकी कमर दुखने लगी है इस लिए अब वो ऊपर आना चाहता है। मैंने भी सोचा चलो उसकी ही इच्छा पूरी कर देते हैं। जल्दी ही हमने अपना अपना आसन बदला। अब रूपचंद्र की जगह मैं रजनी के नीचे था और रूपचंद्र मेरी जगह पर। एक बार फिर से चुदाई का खेल शुरू हो गया। बीच में फंसी रजनी आँखें बंद किए अलग ही दुनिया में खो गई थी। वो ज़ोर से चिल्ला उठती थी जिससे मुझे उसको कहना पड़ता था कि साली रांड पूरे गांव को घर बुला लेगी क्या।
क़रीब दस मिनट भी न हुआ था कि रूपचंद्र बुरी तरह आहें भरते हुए रजनी की चूत में झड़ गया और उसके ऊपर पसर कर बुरी तरह हांफने लगा।
"क्या हुआ रूपचंद्र जी?" रजनी ने हांफते हुए किन्तु हल्की मुस्कान में कहा____"इतने में ही दम निकल गया तुम्हारा?"
"साली कुतिया।" रूपचंद्र उसके ऊपर से उठते हुए बोला____"मेरा दम निकल गया तो क्या हुआ, मेरा दोस्त तो लगा हुआ है न?"
"छोटे ठाकुर तो अपने दम पर लगे हुए हैं।" रजनी ने आहें भरते हुए कहा____"मैं तुम्हारी बात कर रही हूं। क्या तुम में भी छोटे ठाकुर जितना दम है?"
"साली रांड ये क्या बकवास कर रही है?" मैंने उसे अपने ऊपर से हटाते हुए कहा____"रुक अभी बताता हूं तुझे।"
"इस बुरचोदी की गांड फाड़ दो वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार आवेश में आ कर कहा_____"इसके अंदर बहुत गर्मी भरी हुई है।"
मैंने रजनी को खटिया की बाट पर हाथ रख कर झुकने को कहा तो वो झुक गई। पीछे उसकी गांड उभर कर आ गई थी। मैंने जल्दी जल्दी चार पांच थप्पड़ उसकी गांड पर मारे जिससे वो दर्द से सिहर उठी। उसके बाद मैंने उसकी गांड को फैला कर अपने लंड को उसकी गांड के छेंद पर टिकाया और एक ही झटके में पूरा डाल दिया।
"आह्ह्ह्ह मररर गईईईई मां।" रजनी की दर्द भरी चीख फ़िज़ा में गूँज गई____"धीरे से डालिए...आह्ह्ह्ह मेरी गांड फट गई छोटे ठाकुर?"
"क्या हुआ रांड?" मैंने उसकी गांड पर ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"दम निकल गया क्या तेरा?"
"आह्ह्ह्ह आपके ही करने से तो दम निकल जाता है मेरा।" रजनी आहें भरते हुए बोली____"आपका लंड किसी घोड़े के लंड से कम नहीं है। चूत और गांड में जब जाता है....आह्ह्ह्ह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने गरमा गरम सरिया डाल दिया हो।"
"रुपचंद्र खटिया पर चढ़ो तुम।" मैंने रूपचंद्र से कहा____"और इसके मुँह में अपना लंड डालो। साली बहुत बोलती है।"
"अभी डालता हूं इस साली के मुँह में।" रूपचंद्र अपने लंड को सहलाते हुए फ़ौरन ही खटिया में चढ़ गया और रजनी के सिर को बालों से पकड़ कर उठाया। रजनी मेरी बात सुन चुकी थी इस लिए उसने अपना मुँह खोल दिया जिससे रूपचंद्र ने अपना लंड गप्प से उसके मुँह में डाल दिया।
एक तरफ से रूपचंद्र रजनी के सिर को पकड़े उसके मुँह की पेलाई कर रहा था और दूसरी तरफ से मैं रजनी की गांड फाड़ रहा था। सहसा मैंने अपना लंड उसकी गांड से निकाला और पलक झपकते ही नीचे उसकी चूत में एक झटके से डाल दिया। रजनी दर्द से कराही लेकिन मुँह में रूपचन्द्र का लंड होने की वजह से उसकी आवाज़ दब कर रह गई। मैं भीषण गति से उसकी चूत को चोदे जा रहा था। जल्दी ही रजनी का जिस्म थरथराता महसूस हुआ और फिर वो झटके खाते हुए झड़ने लगी। झड़ते वक्त वो बुरी तरह चिल्लाने लगी थी लेकिन रूपचंद्र ने जल्दी से उसके मुंह में अपना लंड घुसा दिया था। उसकी चूत का गरम पानी मेरे लंड को भिगोता चला गया मगर मैं रुका नहीं बल्कि तेज़ तेज़ लगा ही रहा। रूपचंद्र हैरानी से मुझे देख रहा था। कभी कभी मेरी नज़र उससे मिलती तो वो अपनी नज़रें हटा लेता था। शायद खुद को मुझसे कमज़ोर समझने लगा था जिससे वो नज़रें नहीं मिला पा रहा था।
"आह्ह्ह छोटे ठाकुर रुक जाइए थोड़ी देर।" रजनी रूपचंद्र का लंड मुँह से निकाल कर बोल पड़ी थी____"मुझे बहुत तेज़ जलन हो रही है...आह्ह्ह रुक जाइए कुछ देर के लिए।"
"चिंता मत कर बुरचोदी।" मैंने उसकी गांड में ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"तेरी जलन को मैं अपने लंड के पानी से बुझा दूंगा।"
"आह्ह्ह छोटे ठाकुर।" रजनी दर्द से बोली____"झुके झुके मेरी कमर दुखने लगी है। आह्ह्ह भगवान के लिए थोड़ी देर रुक जाइए। मैं विनती करती हूं आपसे।"
"क्या बोलता है रूपचंद्र?" मैंने खटिया में खड़े रूपचंद्र से कहा____"छोड़ दूं उसे?"
"छोड़ ही दो यार।" रूपचंद्र ने रजनी की तरफ देखते हुए कहा____"इसके चेहरे से लग रहा है कि ये तकलीफ़ में है।"
मैंने एक झटके से अपना लंड रजनी की चूत से निकाल लिया। रजनी फ़ौरन ही सीधा खड़ी हो गई लेकिन अगले ही पल वो लड़खड़ा कर वापस खटिया पर झुक गई। शायद इतनी देर में उसके खून का दौड़ान रुक गया था या फिर उसकी कमर अकड़ गई थी। कुछ देर वो खटिया की बाट को पकड़े झुकी हुई गहरी गहरी साँसें लेती रही उसके बाद वो खड़ी हो कर खटिया में ही बैठ गई और मेरी तरफ देखते हुए गहरी गहरी साँसें लेती रही।
"अब इसको क्या तेरी अम्मा आ के शांत करेगी रांड?" मैंने शख़्त भाव से कहा तो रजनी ने जल्दी से मेरे लंड को पकड़ लिया और सिर को आगे कर के उसे मुँह में भर लिया।
उसके बाद रजनी की ना चूत में लंड डलवाने की हिम्मत हुई और ना ही गांड में। उसने मेरे लंड को चूस चूस कर ही मुझे शांत किया। इस बीच रूपचंद्र मेरी क्षमता देख कर बुरी तरह हैरान था। रजनी को पेलने के बाद हम दोनों ने अपने अपने कपड़े पहने और घर से बाहर आ गए। रजनी खटिया पर ही बैठी रह गई थी। उसमें उठ कर बाहर दरवाज़ा बंद करने के लिए आने की शक्ति नहीं थी।
बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।
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बहुत ही कामुक और गरमा गरम अपडेट है वैभव ने तो आम के बगीचे में रजनी की धमाकेदार चूदाई कर दी है उसकी चार महीनो की प्यास बुझा दी है लेकिन कोई आहट सुनाई देती है वो कोन हो सकता है????????☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 16
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अब तक,,,,,
"हाथ में बंदूख ले कर।" मैंने ब्यंग भाव से मुस्कुराते हुए कहा____"और कुत्तों की फ़ौज ले कर मुझे मत डराइए चाचा जी। वैभव सिंह उस ज़लज़ले का नाम है जिसकी दहाड़ से पत्थरों के भी दिल दहल जाते हैं। ख़ैर आप इन लोगों को ले जाइए क्योंकि इन्हें ही न्याय की ज़रूरत है। दादा ठाकुर का जो भी फैसला हो उसका फ़रमान ज़ारी कर दीजिएगा। वैभव सिंह आपसे वादा करता है कि फ़ैसले का फरमान सुन कर सज़ा के लिए हाज़िर हो जाएगा।"
मेरी बात सुन कर जहां दोनों शाहूकार और उनके बेटे आश्चर्य चकित थे वहीं जगताप चाचा दाँत पीस कर रह गए। इधर मैं इतना कहने के बाद पलटा और चन्द्रभान की तरफ देख कर मुस्कुराते हुए बोला____"तेरे बाप का वीर्य तो गंदे नाली के पानी से भी ज़्यादा गया गुज़रा निकला रे...चल हट सामने से।"
चन्द्रभान मेरी ये बात सुन कर बुरी तरह तिलमिला कर रह गया जबकि मैं अपने कपड़ों की धूल झाड़ता हुआ आगे बढ़ गया मगर मैं ये न देख सका कि मेरे जाते ही वहां पर किसी के होठों पर बहुत ही जानदार और ज़हरीली मुस्कान उभर आई थी।
अब आगे,,,,,
साहूकारों के लड़कों को पेलने का मौका तो बढ़िया मिला था मुझे लेकिन चाचा जी के आ जाने से सारा खेल बिगड़ गया था। ख़ैर शाम होने वाली थी और आज क्योंकि होलिका दहन था इस लिए गांव के सब लोग उस जगह पर जमा हो जाने वाले थे जहां पर होलिका दहन होना था। हालांकि अभी उसमे काफी वक़्त था मगर मैंने मुंशी की बहू को यही सोच कर बगीचे में मिलने के लिए कहा था कि उसका ससुर यानी कि मुंशी और पति रघुवीर घर से जल्दी ही हवेली के लिए निकल जाएंगे। वैसे भी मैंने मुंशी की गांड में डंडा डाल दिया था कि वो परसों मेरे लिए एक छोटे से मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाए। हलांकि हवेली में आज जो कुछ भी हुआ था उससे इसकी संभावना कम ही थी लेकिन फिर भी मुझे उम्मीद थी कि मुंशी कुछ भी कर के दादा ठाकुर को इसके लिए राज़ी कर ही लेगा।
मैं हवेली से गुस्से में आ तो गया था मगर अब मुझे अपने लिए कोई ठिकाना भी खोजना था। हवेली में दादा ठाकुर के सामने जाते ही पता नहीं मुझे क्या हो जाता था कि मैं उनसे सीधे मुँह बात ही नहीं करता था और सिर्फ उन्हीं बस से ही नहीं बल्कि कुसुम के अलावा सबसे मेरा ऐसा ही बर्ताव था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आज कल मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है और क्यों मैं अपने घर वालों से सीधे मुँह बात नहीं करता? क्या इसकी वजह ये है कि मैंने चार महीने उस बंज़र ज़मीन में रह कर ऐसी सज़ा काटी है जो मुझे नहीं मिलनी चाहिए थी या फिर इसकी वजह कुछ और भी थी? दूसरी कोई वजह क्या थी इसके बारे में फिलहाल मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
मुरारी काका की हत्या का मामला अपनी जगह अभी भी मेरे लिए एक रहस्य के रूप में बना हुआ था और मैं उनके इस मामले पर कुछ कर नहीं पा रहा था। असल में कुछ करूं तो तब जब मुझे कुछ समझ आए या मुझे इसके लिए कुछ करने का मौका मिले। आज अनुराधा से मिला तो उसने जो कुछ कहा उससे तो मेरे लौड़े ही लग गए थे और फिर मैं भी भावना में बह कर उससे ये वादा कर के चला आया कि अब मैं उसे तभी अपनी शक्ल दिखाऊंगा जब मैं उसके पिता के हत्यारे का पता लगा लूंगा। मुझे अब समझ आ रहा था कि इस तरह भावना में बह कर मुझे अनुराधा से ऐसा वादा नहीं करना चाहिए था मगर अब भला क्या हो सकता था? मैं अब अपने ही वादे को तोड़ नहीं सकता था।
मुझे याद आया कि पिता जी ने मुरारी की हत्या की जांच के लिए गुप्त रूप से दरोगा को कहा था तो क्या मुझे इस मामले में दरोगा से मिलना चाहिए? क्या दरोगा इस मामले में मेरी कुछ मदद करेगा? मेरा ख़याल था कि वो मेरी मदद नहीं करेगा क्योंकि उसे दादा ठाकुर ने शख़्त हुकुम दिया होगा कि वो इस मामले में उनके अलावा किसी से कोई ज़िक्र न करे। इसका मतलब इस मामले में जो कुछ करना है मुझे ही करना है मगर कैसे? आख़िर मैं कैसे मुरारी काका के हत्यारे का पता लगाऊं? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ फटने लगा तो मैंने सिर को झटका और चलते हुए मुंशी के घर के पास आया।
मुंशी के घर के पास आया तो देखा मुंशी और रघुवीर दोनों बाप बेटे अपने घर के बाहर ही खड़े थे। घर के दरवाज़े पर मुंशी की बीवी प्रभा खड़ी थी जिससे मुंशी कुछ कह रहा था। मैंने कुछ सोचते हुए फ़ौरन ही खुद को पीछे किया और बगल से लगे एक आम के पेड़ के पीछे छुपा लिया। मैं नहीं चाहता था कि इस वक़्त मुंशी और उसके बेटे की नज़र मुझ पर पड़े। इधर पेड़ के पीछे छुपा मैं उन दोनों को ही देख रहा था। कुछ देर मुंशी अपनी बीवी से जाने क्या कहता रहा उसके बाद उसने अपने बेटे रघुवीर को चलने का इशारा किया तो वो अपने बाप के साथ चल पड़ा।
मुंशी और रघुवीर जब काफी आगे निकल गए तो मैं पेड़ के पीछे से निकला और सड़क पर आ गया। मैंने देखा मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद हो चुका था। खिड़की से दिए के जलने की रौशनी दिख रही थी मुझे। ख़ैर मैं सड़क पर चलते हुए काफी आगे आ गया और फिर सड़क से उतर कर बाएं तरफ खेत की पगडण्डी पकड़ ली। ये पगडण्डी हमारे बगीचे की तरफ जाती थी जो यहाँ से एक किलो मीटर की दूरी पर था।
पगडण्डी के दोनों तरफ खेत थे। खेतों में गेहू की पकी हुई फसल थी जिसमे कटाई चल रही थी। मैं जानता था कि इस पगडण्डी से खेतों में कटाई करने वाले मजदूरों से मेरी मुलाक़ात हो जाएगी इस लिए मैं जल्दी जल्दी चलते हुए उन खेतों को पार कर रहा था जिन खेतों में फसल की कटाई शुरू थी क्योंकि मजदूर इन्हीं खेतों पर मौजूद थे।
अंधेरा होता तो इसका मुझे फायदा होता किन्तु चांदनी रात थी इस लिए वहां मौजूद मजदूर मुझे देख सकते थे। मैं जल्दी ही वो सारे खेत पार कर के आगे निकल गया। वैसे तो बगीचे में जाने के लिए एक दूसरा रास्ता भी था लेकिन वो थोड़ा दूर था इस लिए मैंने पगडण्डी से बगीचे पर जाना ज़्यादा सही समझा था। यहाँ से जाने में वक़्त भी कम लगता था। पगडण्डी पर चलते हुए मैं कुछ देर में बगीचे के पास पहुंच गया। बगीचे में आम के पेड़ लगे हुए थे और ये बगीचा करीब दस एकड़ में फैला हुआ था। इसी बगीचे के दाहिनी तरफ कुछ दूरी पर एक पक्का मकान भी बना हुआ था जिसमे जगताप चाचा अक्सर रुकते थे।
मैं मकान की तरफ न जा कर बगीचे की तरफ बढ़ गया। मुंशी की बहू रजनी को मैंने इसी बगीचे में जाने कितनी ही बार बुला कर चोदा था। बगीचे में अपने अड्डे पर आ कर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ गया। शाम के इस वक़्त यहाँ पर कोई भी आने का साहस नहीं करता था किन्तु मेरी बात अलग थी। मैं मस्त मौला इंसान था और किसी बात से डरता नहीं था।
पेड़ के नीचे बैठा मैं उस सबके बारे में सोचता रहा जो कुछ आज हुआ था। पहले साहूकार हरिशंकर के लड़के मानिक का हाथ तोड़ना, फिर हवेली आ कर दादा ठाकुर से बहस करना, उस बहस में जगताप चाचा जी का मुझे थप्पड़ मारना, उसके बाद गुस्से में हवेली से आ कर मणिशंकर के दोनों बेटों से झगड़ा होना। जगताप चाचा जी अगर न आते तो शायद ये मार पीट आगे भी जारी ही रहती और बहुत मुमकिन था कि इस मार पीट में मेरे साथ या मणिशंकर के लड़कों के साथ बहुत बुरा हो जाता।
मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि जब मेरे घर वालों के साथ मेरे अच्छे रिश्ते नहीं हैं तो बाहर के लोगों की तो बात ही अलग है। आख़िर ऐसा क्या है कि मेरे अपनों के साथ मेरे रिश्ते अच्छे नहीं हैं या मेरी उनसे बन नहीं पाती है? चार महीने पहले भी मैं ऐसा ही था लेकिन पहले आज जैसे हालात बिगड़े हुए नहीं थे। पहले भी दादा ठाकुर का बर्ताव ऐसा ही था जैसा कि आज है मगर उनके अलावा बाकी लोगों का बर्ताव पहले जैसा आज नहीं है। जहां तक मेरा सवाल है मैं पहले भी ऐसा ही था और आज भी वैसा ही हूं, फ़र्क सिर्फ इतना है कि जब मुझे गांव से निष्कासित कर दिया गया तो मेरे अंदर अपनों के प्रति गुस्सा और भी ज़्यादा बढ़ गया। मैं पहले भी किसी की नहीं सुनता था और आज भी किसी की नहीं सुनता हूं। मैं तो वैसा ही हूं मगर क्या हवेली के लोग वैसे हैं? मेरे बड़े भैया का बर्ताव बदल गया है और जगताप चाचा जी के दोनों लड़को का भी बर्ताव बदल गया है। सवाल है कि आख़िर क्यों उन तीनों का बर्ताव बदल गया है? उन तीनों को आख़िर मुझसे क्या परेशानी है?
मेरे ज़हन में कुसुम और भाभी की बातें गूँज उठीं। अपने नटखटपन और अपनी चंचलता के लिए मशहूर कुसुम ने उस दिन गंभीर हो कर कुछ ऐसी बातें कही थी जिनमे शायद गहरे राज़ छुपे थे। भाभी ने तो साफ़ शब्दों में मुझसे कहा था कि उनके पति दादा ठाकुर की जगह लेने के लायक नहीं हैं। सवाल है कि आख़िर क्यों एक पत्नी अपने ही पति के बारे में ऐसा कहेगी और मुझे दादा ठाकुर की जगह लेने के लिए ज़ोर देगी?
मैं ये सब सोचते हुए एक अजीब से द्वन्द में फंस गया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं आख़िर करूं तो करूं क्या? एक तरफ तो मैं इस सबसे कोई मतलब ही नहीं रखना चाहता था और दूसरी तरफ ये सारे सवाल मुझे गहरे ख़यालों में डूबा रहे थे। एक तरफ मुरारी काका की हत्या का मामला तो दूसरी तरफ हवेली में मेरे अपनों की समस्या और तीसरी तरफ इन साहूकारों का मामला। अगर मानिकचंद्र की बात सच है तो ये भी एक सोचने वाली बात ही होगी कि अचानक ही साहूकारों के मन में ठाकुरों से अपने रिश्ते सुधार लेने का विचार क्यों आया? कहीं सच में ये कोई गहरी साज़िश तो नहीं चल रही ठाकुरों के खिलाफ़? अचानक ही मेरे ज़हन में पिता जी के द्वारा कही गई उस दिन की बात गूँज उठी। अगर उन्हें लगता है कि ऐसा कुछ सच में हो रहा है तो ज़ाहिर है कि यकीनन ऐसा ही होगा।
अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी एक आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। बगीचे की ज़मीन पर पड़े सूखे पत्ते किसी के चलने से आवाज़ करते सुनाई देने लगे थे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। सतर्क हो जाने का कारण भी था क्योंकि आज कल सच में मेरा वक़्त ख़राब चल रहा था।
"छोटे ठाकुर।" तभी मेरे कानों में धीमी मगर मीठी सी आवाज़ पड़ी। उस आवाज़ को मैं फ़ौरन ही पहचान गया। ये आवाज़ मुंशी की बहू रजनी की थी। जो अँधेरे में मुझे धीमी आवाज़ में छोटे ठाकुर कह कर पुकार रही थी।
रजनी की आवाज़ पहचानते ही मैं तो खुश हुआ ही किन्तु मेरा लौड़ा भी खुश हो गया। कमीना पैंट के अंदर ही कुनमुना उठा था, जैसे उसने भी अपनी रानी को सूंघ लिया हो।
"बड़ी देर लगा दी आने में।" मैंने उठ कर उसके क़रीब जाते हुए कहा____"मैं कब से तेरे आने की राह ताक रहा था।"
"क्या करूं छोटे ठाकुर।?" रजनी मेरी आवाज़ सुन कर मेरी तरफ बढ़ते हुए बोली____"मां जी की वजह से आने में देरी हो गई।"
"ऐसा क्यों?" मैंने उसके पास पहुंचते ही बोला____"क्या तेरी सास ने तुझे खूंटे से बांध दिया था?"
"नहीं ऐसी बात तो नहीं है।" रजनी ने अपने हाथ में लिए पानी से भरे डोलचे को ज़मीन पर रखते हुए कहा____"वो दिशा मैदान के लिए मुझे अपने साथ ले जाना चाहतीं थी।"
"अच्छा फिर?" मैंने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा____"फिर कैसे मना किया उसे?"
"मैंने उनसे कहा कि मुझे अभी हगास नहीं लगी है।" रजनी ने हंसते हुए कहा_____"इस लिए आप जाओ और जब मुझे हगास लगेगी तो मैं खुद ही चली जाऊंगी।"
"अच्छा फिर क्या कहा तेरी सास ने?" मैंने रजनी की एक चूची को उसके ब्लॉउज के ऊपर से ही मसलते हुए कहा तो रजनी सिसकी लेते हुए बोली____"क्या कहेंगी? गाली दे कर हगने चली गईं और फिर जब वो वापस आईं तो मैंने कहा कि माँ जी मुझे भी हगास लग आई है। मेरी बात सुन कर माँ जी ने मुझे गरियाते हुए कहा भोसड़ी चोदी जब पहले चलने को कह रही थी तब तो बोल रही थी कि हगास ही नहीं लगी है। अब अकेले ही जा और हग के आ।"
मैं रजनी की बातें सुन कर हंसते हुए बोला____"अच्छा तो इस लिए आने में देर हो गई तुझे?"
"और नहीं तो क्या?" रजनी ने मेरे सीने में हाथ फेरते हुए कहा____"वरना मैं तो यही चाहती थी कि उड़ के जल्दी से आपके पास पहुंच जाऊं और फिर आपका...!"
"आपका क्या??" मैंने उसके चेहरे को अपने चेहरे की तरफ उठा कर कहा____"खुल कर बोल न?"
"और फिर आपका ये मोटा तगड़ा लंड।" रजनी ने मेरे पैंट के ऊपर से मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"अपनी प्यासी चूत में डलवा कर आपसे चुदाई करवाऊं। शशशश छोटे ठाकुर आज ऐसे चोदिए मुझे कि चार महीने की प्यास आज ही बुझ जाए और मेरी तड़प भी मिट जाए।"
रजनी बाइस साल की कड़क माल थी। साल भर पहले उसकी शादी रघुवीर से हुई थी। पहले तो मेरी नज़र उस पर नहीं पड़ी थी लेकिन जब पड़ी तो मैंने उसे अपने नीचे लेटाने में देर नहीं लगाई। मुँह दिखाई में चांदी की एक अंगूठी उसे दी तो वो लट्टू हो गई थी मुझ पर। रही सही कसर अंजाने में मुंशी की बीवी ने मेरी तारीफें कर के पूरी कर दी थी।
"क्या सोचने लगे छोटे ठाकुर?" रजनी की इस आवाज़ से मैं ख्यालों से बाहर आया और उसकी तरफ देखा तो उसने कहा____"मुझे यहाँ से जल्दी जाना भी होगा इस लिए जो करना है जल्दी से कर लीजिए।"
रजनी की बात सुन कर मैंने उसके चेहरे को ऊपर किया और अपने होठ उसके दहकते होठों में रख दिए। रजनी मुझसे जोंक की तरह लिपट गई और खुद भी मेरे होंठों को चूमने चूसने लगी। मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर उसकी एक चूची को पकड़ लिया और मसलने लगा जिससे उसकी सिसकियां मेरे मुँह में ही दब कर रह गईं।
कुछ देर हम दोनों एक दूसरे के होठों को चूमते रहे उसके बाद रजनी झट से नीचे बैठ गई और मेरे पैंट को खोलने लगी। कुछ ही पलों में उसने मेरे पैंट को खोल कर और मेरे कच्छे को नीचे कर के मेरे नाग की तरह फुँकारते हुए लंड को पकड़ लिया।
"आह्ह छोटे ठाकुर।" मेरे लंड को सहलाते हुए उसने सिसकी लेते हुए कहा____"आपके इसी लंड के लिए तो चार महीने से तड़प रही थी मैं। आज इसे जी भर के प्यार करुँगी और इसे अपनी चूत में डलवा कर इसकी सवारी करुंगी।"
कहने के साथ ही रजनी ने अपना चेहरा आगे कर के मेरे लंड को अपने मुँह में लपक लिया। उसके कोमल और गरम मुँह में जैसे ही मेरा लंड गया तो मेरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ गई। मेरा लंड इस वक़्त अपने पूरे शबाब पर था और उसकी मुट्ठी में समां नहीं रहा था। लंड का टोपा उसके मुख में था जिसे वो जल्दी जल्दी अपने सिर को आगे पीछे कर के चूसे जा रही थी। मैंने मज़े के तरंग में अपने हाथों से उसके सिर को पकड़ा और अपने लंड की तरफ खींचा जिससे मेरा लंड उसके मुख में और भी अंदर घुस गया। मोटा लंड रजनी के मुख में गया तो वो गूं गूं की आवाज़ें निकालने लगी।
मुझे इतना मज़ा आ रहा था कि मैं रजनी का सिर पकड़ कर उसके मुख में अपने लैंड को और भी अंदर तक घुसेड़ता ही जा रहा था। मुझे इस बात का अब होश ही नहीं रह गया था कि मेरे द्वारा ऐसा करने से रजनी की हालत कितनी ख़राब हो गई होगी। मैं तो रजनी के मुख को उसकी चूत समझ कर ही अपने लंड को और भी अंदर तक पेलता जा रहा था। इधर रजनी बुरी तरह छटपटाने लगी थी और अपने सिर को पीछे की तरफ खींच लेने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही थी जबकि मैं चेहरा ऊपर किए और अपनी आँखे मूंदे पूरे ज़ोर से उसका सिर पकड़े अपनी कमर हिलाए जा रहा था।
रजनी की हालत बेहद नाज़ुक हो चली थी। जब उसने ये जान लिया कि अब वो मेरी पकड़ से अपना सिर पीछे नहीं खींच सकती तो उसने मेरी जांघ पर ज़ोर से च्युंटी काटी जिससे मैं एकदम से चीख पड़ा और झट से अपना लंड उसके मुख से निकाल कर पीछे हट गया।
"मादरचोद साली रंडी।" फिर मैंने उसे गाली देते हुए कहा____"च्युंटी क्यों काटी मुझे?"
"म..मैं..मैं क्या करती छोटे ठाकुर?" रजनी ने बुरी तरह हांफते हुए और खांसते हुए कहा____"अगर मैं ऐसा न करती तो आप मेरी जान ही ले लेते।"
"ये क्या बकवास कर रही है तू?" मैं एकदम से चौंकते हुए बोला____"मैं भला तेरी जान क्यों लूँगा?"
"आपको तो अपना लंड मेरे मुँह में डाल कर मेरा मुंह चोदने में मज़ा आ रहा था।" रजनी ने अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए कहा____"मगर आप अपने मज़े में ये भूल गए थे कि आप अपने इस मोटे लंड को मेरे मुँह में गले तक उतार चुके थे जिससे मैं सांस भी नहीं ले पा रही थी। थोड़ी देर और हो जाती तो मैं तो मर ही जाती। आप बहुत ज़ालिम हैं छोटे ठाकुर। आपको अपने मज़े के आगे दूसरे की कोई फ़िक्र ही नहीं होती।"
रजनी की बातें सुन कर जैसे अब मुझे बोध हुआ था कि मज़े के चक्कर में मुझसे ये क्या हो गया था। मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और मैंने रजनी को उसके दोनों कन्धों से पकड़ कर ऊपर उठाया और फिर उसके चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में ले कर कहा____"मुझे माफ़ कर दे रजनी। मैं सच में ये भूल ही गया था कि मैं मज़े में क्या कर रहा था।"
"आप नहीं जानते कि उस वक़्त मेरी हालत कितनी ख़राब हो गई थी।" रजनी ने बड़ी मासूमियत से कहा____"मैं ये सोच कर बुरी तरह घबरा भी गई थी कि कहीं मैं सच में न मर जाऊं।"
"मैंने कहा न कि मुझसे भूल हो गई मेरी जान।" मैंने रजनी के दाएं गाल को प्यार से चूमते हुए कहा____"अब दुबारा ऐसा नहीं होगा।"
रजनी मेरी बात सुन कर मुस्कुराई और फिर मेरे सीने से छुपक गई। कुछ पलों तक वो मुझसे ऐसे ही छुपकी रही फिर मैंने उसे खुद से अलग किया और उसके चेहरे को पकड़ कर उसके होठों पर अपने होंठ रख दिए। अब मैं अपना होश नहीं खोना चाहता था। इस लिए बड़े प्यार से रजनी के होठों को चूमने लगा। रजनी खुद भी मेरा साथ देने लगी थी। मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर रजनी के ब्लॉउज के बटन खोले और उसकी दोनों मुलायम चूचियों को बाहर निकाल कर एक चूंची को मसलते हुए दूसरी चूंची को अपने मुँह में भर लिया।
रजनी के सीने के उभार मेरे हाथ में पूरी तरह समां रहे थे और मैं उन्हें सहलाते हुए मुँह में भर कर चूमता भी जा रहा था। रजनी मज़े में सिसकारियां भरने लगी थी और अपने एक हाथ से मेरे सिर को अपनी चूंची पर दबाती भी जा रही थी। मैंने काफी देर तक रजनी की चूचियों को मसला और उसके निप्पल को मुँह में भर कर चूसा। उसके बाद मैंने रजनी को अपनी साड़ी उठाने को कहा तो उसने दोनों हाथों से अपनी साड़ी उठा कर पलट गई।
पेड़ पर अपने दोनों हाथ जमा कर रजनी झुक गई थी। उसकी साड़ी और पेटीकोट उसकी कमर तक उठा हुआ था। मैंने आगे बढ़ कर अँधेरे में ही रजनी की चूत पर अपने लंड को टिकाया और फिर उसकी कमर पकड़ कर अपनी कमर को आगे की तरफ ठेल दिया जिससे मेरा मोटा लंड रजनी की चूत में समाता चला गया। लंड अंदर गया तो रजनी के मुख से आह निकल गई। मुझे रजनी की चूत इस बार थोड़ी कसी हुई महसूस हुई थी। शायद चार महीने मेरे लंड को न लेने का असर था। ख़ैर लंड को उसकी चूत के अंदर डालने के बाद रजनी की कमर को पकड़े मैंने धक्के लगाने शुरू कर दिए।
बगीचे के शांत वातावरण में जहां एक तरफ मेरे द्वारा लगाए जा रहे धक्कों की थाप थाप करती आवाज़ गूँज रही थी वहीं हर धक्के पर रजनी की आहें और सिसकारियां गूँज रही थीं। रजनी मज़े में आहें भरते हुए मुझसे जाने क्या क्या कहती जा रही थी। इधर मैं उसकी बातें सुन कर दोगुने जोश में धक्के लगाये जा रहा था। काफी दिनों बाद आज चूत मिली थी मुझे।
"आह्ह छोटे ठाकुर इसी के लिए तो तड़प रही थी इतने महीनों से।" रजनी अपनी उखड़ी हुई साँसों को सम्हालते हुए और सिसकियां लेते हुए बोली____"आह्ह आज मेरे चूत की प्यास बुझा दीजिए अपने इस हलब्बी लंड से। आह्ह्ह और ज़ोर से छोटे ठाकुर आह्ह्ह बहुत मज़ा आ रहा है। काश! आपके जैसा लंड मेरे पति का भी होता।"
"साली रांड ले और ले मेरा लंड अपनी बुर में।" मैंने हचक हचक के उसकी चूत में अपना लंड पेलते हुए कहा____"तेरे पति का अगर मेरे जैसा लंड होता तो क्या तू मुझसे चुदवाती साली?"
"हां छोटे ठाकुर।" रजनी ने ज़ोर ज़ोर से आहें भरते हुए कहा____"मैं तब भी आपसे चुदवाती। भला आपके जैसा कोई चोद सकता है क्या? आप तो असली वाले मरद हैं छोटे ठाकुर। मेरा मन करता है कि आह्ह्ह शशशश दिन रात आपके इस मोटे लंड को अपनी बुर में डाले रहूं।"
रजनी की बातें सुन कर मैं और भी जोश में उसकी बुर में अपना लंड डाले उसे चोदने लगा। मेरे धक्के इतने तेज़ थे कि रजनी ज़्यादा देर तक पेड़ का सहारा लिए झुकी न रह सकी। कुछ ही देर में उसकी टाँगे कांपने लगीं और एकदम से उसका जिस्म अकड़ गया। झटके खाते हुए रजनी बड़ी तेज़ी से झड़ रही थी जिससे उसकी बुर के अंदर समाया हुआ मेरा लंड उसके चूत के पानी से नहा गया और बुर में बड़ी आसानी से फच्च फच्च की आवाज़ करते हुए अंदर बाहर होने लगा।
रजनी झड़ने के बाद एकदम से शांत पड़ गई थी और जब उससे झुके न रहा गया तो मैंने उसकी चूत से लंड निकाल कर उसे वहीं पर नीचे सीधा लिटा दिया। रजनी को सीधा लेटाने के बाद मैंने उसकी दोनों टाँगें फैलाई और टांगों के बीच में आते हुए उसकी चूत में लंड पेल दिया रजनी ने ज़ोर की सिसकी ली और इधर मैं उसकी दोनों टांगों को अपने कन्धों पर टिका कर ज़ोर ज़ोर से धक्के लगाने लगा। बगीचे में पेड़ों की वजह से अँधेरा था इस लिए मुझे उसका चेहरा ठीक से दिख तो नहीं रहा था मगर मैं अंदाज़ा लगा सकता था कि रजनी अपनी चुदाई का भरपूर मज़ा ले रही थी। कुछ ही देर में रजनी के शिथिल पड़े जिस्म पर फिर से जान आ गई और वो मुख से आहें भरते हुए फिर से बड़बड़ाने लगी।
मैं कुछ पल के लिए रुका और झुक कर रजनी की एक चूंची के निप्पल को मुँह में भर लिया जबकि दूसरी चूंची को एक हाथ से मसलने लगा। मेरे ऐसा करने पर रजनी मेरे सिर को पकड़ कर अपनी चूंची पर दबाने लगी। वो फिर से गरम हो गई थी। कुछ देर मैंने बारी बारी से उसकी दोनों चूचियों के निप्पल को चूसा और मसला उसके बाद चेहरा उठा कर फिर से धक्के लगाने लगा।
रजनी की चूंत में मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था और रजनी मज़े में आहें भर रही थी। मुझे महसूस हुआ कि मेरे जिस्म में दौड़ते हुए खून में उबाल आने लगा है और अद्भुत मज़े की तरंगे मेरे जिस्म में दौड़ते हुए मेरे लंड की तरफ बढ़ती जा रही हैं। मैं और तेज़ी से धक्के लगाने लगा। रजनी बुरी तरह सिसकारियां भरने लगी और तभी फिर एकदम से उसका जिस्म अकड़ने लगा और वो झटके खाते हुए फिर से झड़ने लगी। इधर मैं भी अपने चरम पर था। इस लिए पूरी ताकत से धक्के लगाते हुए आख़िर मैं भी मज़े के आसमान में उड़ने लगा और मेरे लंड से मेरा गरम गरम वीर्य रजनी की चूंत की गहराइयों में उतरता चला गया। झड़ने के बाद मैं बुरी तरह हांफते हुए रजनी के ऊपर ही ढेर हो गया। चुदाई का तूफ़ान थम गया था। कुछ देर मैं यूं ही रजनी के ऊपर ढेर हुआ अपनी उखड़ी हुई साँसों को शांत करता रहा उसके बाद मैं उठा और रजनी की चूंत से अपना लंड बाहर निकाल लिया। रजनी अभी भी वैसे ही शांत पड़ी हुई थी।
"अब ज़िंदा लाश की तरह ही पड़ी रहेगी या उठेगी भी?" मैंने अपने पैंट को ठीक से पहनते हुए रजनी से कहा तो उसने थकी सी आवाज़ में कहा____"आपने तो मुझे मस्त कर दिया छोटे ठाकुर। मज़ा तो बहुत आया लेकिन अब उठने की हिम्मत ही नहीं है मुझ में।"
"ठीक है तो यहीं पड़ी रह।" मैंने कहा____"मैं तो जा रहा हूं अब।"
"मुझे ऐसे छोड़ के कैसे चले जाएंगे आप?" रजनी ने कराहते हुए कहा, शायद वो उठ रही थी जिससे उसकी कराह निकल गयी थी, बोली____"बड़े स्वार्थी हैं आप। अपना मतलब निकल गया तो अब मुझे छोड़ कर ही चले जाएंगे?"
"मतलब सिर्फ मेरा ही बस तो नहीं निकला।" मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा____"तेरा भी तो निकला ना? तूने भी तो मज़े लिए हैं।"
"वैसे आज आपको हो क्या गया था?" खड़े होने के बाद रजनी ने अपनी साड़ी को ठीक करते हुए कहा____"इतनी ज़ोर ज़ोर से मेरी बुर चोद रहे थे कि मेरी हालत ही ख़राब हो गई।"
"तूने ही तो कहा था कि चार महीने की प्यास आज ही बुझा दूं।" मैंने उसे खींच कर अपने से छुपकाते हुए कहा____"इस लिए वही तो कर रहा था। वैसे अगर तेरी प्यास न बुझी हो तो बता दे अभी। मैं एक बार फिर से तेरी बुर में अपना लंड डाल कर तेरी ताबड़तोड़ चुदाई कर दूंगा।"
"ना बाबा ना।" रजनी ने झट से कहा____"अब तो मुझ में दुबारा करने की हिम्मत ही नहीं है। आपके मोटे लंड ने तो एक ही बार में मेरी हालत ख़राब कर दी है। अब अगर फिर से किया तो मैं घर भी नहीं जा पाऊंगी।"
रजनी की बात सुन कर मैंने उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया और उसके होठों को चूमने लगा। उसके शहद जैसे मीठे होठों को मैंने कुछ देर चूमा चूसा और फिर उसकी चूचियों को मसलते हुए उसे छोड़ दिया।
"लगता है आपका अभी मन नहीं भरा है।" रजनी ने अपने ब्लॉउज के बटन लगाते हुए कहा____"लेकिन मैं बता ही चुकी हूं कि अब दुबारा करने की मुझ में हिम्मत नहीं है। अभी भी ऐसा महसूस हो रहा है जैसे आपका मोटा लंड मेरी बुर में अंदर तक घुसा हुआ है।"
"तुझे चोदने से मेरा मन कभी नहीं भरेगा मेरी जान।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तू कह रही है कि अब तुझमे हिम्मत ही नहीं है चुदवाने की वरना मैं तो एक बार और तुझे जी भर के चोदना चाहता था।"
"रहम कीजिए छोटे ठाकुर।" रजनी दो क़दम पीछे हटते हुए बोली____"फिर किसी दिन मुझे चोद लीजिएगा लेकिन आज नहीं। वैसे भी बहुत देर हो गई है। माँ जी मुझ पर गुस्सा भी करेंगी।"
"चल ठीक है जा तुझे बक्श दिया।" मैंने कहा____"वैसे आज मैं तेरे ही घर में रुकने वाला हूं।"
"क्या???" रजनी चौंकते हुए बोली____"मेरा मतलब है कि क्या सच में?"
"हां मेरी जान।" मैंने कहा____"अब मैं हवेली नहीं जाऊंगा। आज की रात तेरे ही घर में गुज़ारुंगा। कल कोई दूसरा ठिकाना देखूंगा।"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रजनी ने हैरानी से पूछा____"और हवेली क्यों नहीं जाएंगे आप?"
"बस मन भर गया है हवेली से।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"असल में हवेली मेरे जैसे इंसान के लिए है ही नहीं। ख़ैर छोड़ ये बात और निकल यहाँ से। तेरे घर पहुंचने के बाद मैं भी कुछ देर में आ जाऊंगा।"
मैंने रजनी को घर भेज दिया और खुद बगीचे से निकल कर उस तरफ चल दिया जहां पर मकान बना हुआ था। मकान के पास आ कर मैं चबूतरे पर बैठ गया। रजनी को छोड़ने के बाद मेरे अंदर की कुछ गर्मी निकल गई थी और अब ज़हन कुछ शांत सा लग रहा था। अभी मैं रजनी के बारे में सोच ही रहा था कि तभी किसी चीज़ की आहट को सुन कर मैं चौंक पड़ा।
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Kya baat Hai.अध्याय - 38
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अब तक....
मैंने अनुराधा से कहा कि मैं कल का खाना यही खाऊंगा, वो भी उसके हाथ का बना हुआ। मेरी बात सुन कर अनुराधा ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। उसके बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी घर से बाहर निकल गया। अनुराधा मेरे पीछे पीछे दरवाज़े तक आई। मैंने जब बुलेट में बैठ कर उसकी तरफ देखा तो हमारी नज़रें आपस में मिल गईं। मैं उसे देख कर मुस्कुराया तो उसके होठों पर भी शर्म मिश्रित हल्की मुस्कान उभर आई। उसके बाद मैंने बुलेट को आगे बढ़ा दिया। तेज़ आवाज़ करती हुई बुलेट कच्ची पगडण्डी पर दौड़ी चली जा रही थी। सारे रास्ते मैं अनुराधा के बारे में ही सोचता रहा। उसके साथ हुई हमारी बातों के बारे में सोचता रहा। आज उससे बातें कर के एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था मुझे।
अब आगे....
मैं जब मुंशी चंद्रकांत के घर के पास पहुंचा तो मुझे अचानक रजनी का ख़याल आया। उसे तो मैं जैसे भूल ही गया था। मुझे याद आया कि कैसे उस दिन वो रूपचंद्र से चुदवा रही थी। साली रांड मेरे पीठ पीछे उसका लंड भी गपक रही थी। मैंने बुलेट को मुंशी के घर की तरफ मोड़ा और खाली जगह पर खड़ी कर दिया। बुलेट की तेज़ आवाज़ शायद घर के अंदर तक गई थी इस लिए जैसे ही मैं दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर खटखटाना चाहा वैसे ही दरवाज़ा खुल गया। मेरी नज़र दरवाज़ा खोलने वाली रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे अंदर गुस्सा और नफरत दोनों ही उभर आई, लेकिन मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"छो..छोटे ठाकुर आप?" उसने धीमे स्वर में हकला कर मुझसे कहा तो मैंने सपाट लहजे में कहा____"क्यों क्या मैं यहाँ नहीं आ सकता?"
"न...नहीं ऐसा तो मैंने नहीं कहा आपसे।" वो एकदम से बौखला गई थी_____"आइए अंदर आइए।"
वो दरवाज़े से हटी तो मैं अंदर दाखिल हो गया। सहसा मेरी नज़र उसके चेहरे पर फिर से पड़ी तो मैंने देखा वो कुछ परेशान सी नज़र आ रही थी और साथ ही चेहरे का रंग भी उड़ा हुआ दिखा। मुझे उसकी ये हालत देख कर उस पर शंका हुई। ज़हन में एक ही ख़याल उभरा कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है?
"मुंशी जी कहां हैं?" मैंने उसकी तरफ ही गौर से देखते हुए पुछा।
"ससुर जी हवेली गए हैं।" रजनी ने खुद को सम्हालते हुए संतुलित लहजे में कहा____"और माँ की तबियत ख़राब थी तो ये (उसका पति रघु) उन्हें ले कर वैद जी के पास गए हैं।"
रजनी आज मुझे अलग ही तरह से नज़र आ रही थी। उसके चेहरे पर परेशानी के भाव अभी भी कायम थे। माथे पर पसीना झिलमिला रहा था। वो बार बार बेचैनी से अपने हाथों की उंगलियों को आपस में उमेठ रही थी। मैं समझ चुका था कि भारी गड़बड़ है। वो इस वक़्त घर में अकेली है और निश्चय की अंदर उसके साथ कोई ऐसा है जिसके साथ वो अपनी गांड मरवाने वाली थी लेकिन मेरे आ जाने से उसका काम ख़राब हो गया था।
"क्या हुआ तू इतनी परेशान क्यों दिख रही है?" मैंने उसको देखते हुए उससे पूछा____"सब ठीक तो है न?"
"जी...जी हाँ छोटे ठाकुर।" वो एकदम से चौंकी थी और फिर हकलाते हुए बोली____"स..सब कुछ ठीक है।"
"पर मुझे तो कुछ और ही लग रहा है।" मैंने उसकी हालत ख़राब करने के इरादे से कहा____"लगता है अपनी सास को अपने मरद के साथ भेज कर इधर तेरी भी तबियत ख़राब हो गई है। चल अंदर आ, तेरा इलाज़ करता हूं मैं।"
मेरी बात सुनते ही रजनी की मानो अम्मा मर गई। चेहरे पर जो पहले से ही परेशानी और बेचैनी थी उसमें पलक झपकते ही इज़ाफ़ा हो गया। वो मेरी तरफ ऐसे देखने लगी थी जैसे मैं अचानक ही किसी जिन्न में बदल गया होऊं।
"य...ये क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?" फिर वो खुद को किसी तरह सम्हालते हुए बोल पड़ी____"मुझे भला क्या हुआ है? मैं तो एकदम ठीक हूं, हाँ थोड़ा सिर ज़रूर दुःख रहा है।"
मैं समझ चुका था कि उसके साथ कुछ तो भारी गड़बड़ ज़रूर है लेकिन क्या, ये देखना चाहता था मैं। इस लिए उसकी बात सुन कर मैं उसको बिना कोई जवाब दिए अंदर की तरफ चल पड़ा। मुझे अंदर की तरफ जाते देख वो और भी बुरी तरह बौखला गई। डर और घबराहट के मारे उसका बुरा हाल हो गया लेकिन उसकी बिवसता ये थी कि वो मुझे अंदर जाने से रोक भी नहीं सकती थी। ख़ैर जल्दी ही मैं अंदर आँगन में पहुंच गया।
आंगन में एक तरफ एक खटिया बिछी हुई थी लेकिन वो खाली थी। मैंने आस पास नज़र घुमाई पर कोई न दिखा। तभी मेरे पीछे पीछे रजनी भी आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी डर और घबराहट के भाव तांडव सा करते दिख रहे थे। रजनी की जो हालत थी उससे मुझे यकीन हो चुका था कि वो मुझसे कोई बड़ी बात छुपाना चाहती थी। मेरी नज़रें हर तरफ घूम रहीं थी कि तभी सहसा मुझे कुछ दिखा। कुछ दूरी पर बने दो कमरों में से एक का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और वो कुछ पल मुझे हिलता सा प्रतीत हुआ था। मेरी नज़रें उसी जगह पर जम गईं। मुझे उस तरफ देखते देख रजनी और भी घबरा गई।
"अरे! खड़ी क्या है?" मैंने पलट कर रजनी से शख़्त लहजे में कहा____"घर आए इंसान से जल पान का भी नहीं पूछेगी क्या?"
"जी...जी माफ़ करना छोटे ठाकुर।" रजनी बुरी तरह हड़बड़ा कर बोली____"आप खटिया पर बैठिए मैं अभी आपके लिए पानी लाती हूं।"
रजनी दूसरी तरफ रखे मटके की तरफ तेज़ी से बढ़ी और इधर मैं उस कमरे की तरफ जिस कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और थोड़ा सा हिलता प्रतीत हुआ था मुझे। रजनी को कुछ महसूस हुआ तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। मुझे उस कमरे की तरफ जाता देख वो बुरी तरह घबरा गई। मारे दहशत के उसके माथे पर पसीना उभर आया। पलक झपकते ही उसकी हालत ऐसी हो गई मानो काटो तो खून नहीं। उसके होठ कुछ कहने के लिए खुले तो ज़रूर मगर आवाज़ न निकल सकी। मटके से पानी निकालना भूल गई थी वो।
मैं दरवाज़े के पास पहुंचा और एक झटके से उसे खोल कर अंदर दाखिल हो गया। अंदर दरवाज़े के अगल बगल मैंने निगाह घुमाई तो दाएं तरफ मुझे रूपचन्द्र छुपा खड़ा नज़र आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बेजान सा खड़ा रह गया था। मारे डर के उसका चेहरा पीला ज़र्द पड़ गया था। उसकी हालत देख कर मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन क्योंकि अब उससे और उसके पूरे परिवार वालों से मैंने अपने अच्छे सम्बन्ध बना लिए इस लिए ऐसे वक़्त में उससे कुछ उल्टा सीधा कहना मैंने ठीक नहीं समझा।
"रुपचंद्र तुम, यहाँ??" उसे देख कर मैंने बुरी तरह चौकने का नाटक किया और फिर हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"क्या बात है, लगता है रजनी को पेलने आए थे यहाँ लेकिन मैंने तुम्हारा काम ख़राब कर दिया, है ना?"
"ये...ये क्या कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"मैं तो यहाँ ब....।"
"अरे! यार मुझसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है तुम्हें।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"अब तो तुम मेरे छोटे भाई भी हो और दोस्त भी। वैसे मुझे पहले से ही पता है कि तुम्हारा और रजनी का जिस्मानी सम्बन्ध है। ख़ैर मुझे तुम्हारे इस सम्बन्ध से कोई ऐतराज़ नहीं है और ना ही मैं किसी को बताऊंगा कि तुम्हारा मुंशी की बहू से ऐसा रिश्ता है।"
"क्...क्या तुम सच कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र के चेहरे पर राहत के साथ साथ आश्चर्य के भाव उभरे____"क्या सच में तुम्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है?"
"अब कितनी बार तुमसे कहूं भाई?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"ये सब तुम दोनों की रज़ामंदी से हो रहा है तो किसी को इससे क्या समस्या होगी भला? वैसे, तुम्हें पता है मैं भी उस रजनी को दबा के पेलता हूं। साली बड़ी चुदक्कड़ है। हुमच हुमच के चुदवाती है। एक काम करते हैं, चलो हम दोनों मिल के आज उसकी मस्त पेलाई करते है।"
मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुझे इस तरह देखने लगा था जैसे मेरे चेहरे पर अचानक ही उसे आगरे का ताजमहल नज़र आने लगा हो। मैं समझ सकता था कि मौजूदा परिस्थिति में उसका मुझ पर यकीन कर पाना संभव नहीं था लेकिन सच तो उसकी आँखें खुद ही देख रहीं थी और कान सुन रहे थे।
मैं रूपचंद्र को कंधे से पकड़ कर कमरे से बाहर ले आया। मुझे रूपचन्द्र को इस तरह साथ लिए आते देख रजनी एकदम से बुत बन गई थी। भाड़ की तरह मुँह खुला रह गया था। जिस तरह कुछ देर पहले रूपचंद्र का चेहरा मारे डर के पीला पड़ गया था उसी तरह अब रजनी का पीला पड़ गया था।
"इतना लम्बा मुँह क्यों फाड़ लिया अभी से?" मैंने रजनी को होश में लाने की गरज़ से कहा____"पहले हम दोनों के कपड़े तो उतार। उसके बाद हम दोनों तेरे हर छेंद में अपना लंड डालेंगे, क्यों रूपचंद्र?"
मैंने आख़िरी वाक्य रूपचंद्र को देख कर कहा तो वो एकदम से हड़बड़ा गया और फिर खुद को सम्हालते हुए ज़बरदस्ती मुस्कुरा कर बोला____"हां हाँ क्यों नहीं भाई।"
उधर रजनी को काटो तो खून नहीं। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसकी आँखें क्या देख रहीं थी और कान क्या सुन रहे थे। उसे तो शायद ये लगा था कि आज मैं उसकी और रूपचंद्र की मस्त गांड तोड़ाई करुंगा लेकिन अब जो होने जा रहा था उसकी तो उसे ख़्वाब में भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से उसे होश आया और उसके ज्ञान चच्छू जागे।
मैं जानता था कि हमारे पास समय नहीं है क्योंकि कोई भी यहाँ आ सकता था। मेरी बुलेट भी बाहर ही खड़ी थी और उसे देख कर किसी के भी मन में मुंशी के घर में आने का विचार आ सकता था इस लिए मैंने इस काम को फटाफट करने का सोचा। रजनी को शख़्त लहजे में बोला कि वो पूरी तरह नंगी हो जाए। मेरे कहने पर वो पहले तो झिझकी क्योंकि रूपचंद्र सामने था लेकिन मेरे आगे भला कहां उसकी चलने वाली थी। इस लिए जल्दी ही उसने अपना साड़ी ब्लाउज उतार दिया। रांड ने अंदर ना तो कच्छी पहन रखी थी और ना ही ब्रा। उसकी बड़ी बड़ी छातियां आँगन में आ रही धूप में चमक रहीं थी। जांघों के बीच उसकी चूत घने बालों में छुपी हुई थी। मेरी वजह से जहां रूपचंद्र को ये आलम थोड़ा असहज महसूस करा था वहीं रजनी का भी यही हाल था। वो अपनी छातियों और चूत को छुपाने का प्रयास कर रही थी।
"देखा रूपचंद्र।" मैंने रूपचंद्र को रजनी की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये रांड कितना करारा माल लग रही है। क्या लगता है तुझे, इसकी ये बड़ी बड़ी छातियां कितने लोगों की मेहनत का नतीजा होंगी?"
"म..मैं भला क्या बताऊं वैभव?" रूपचंद्र झिझकते हुए धीमी आवाज़ में बोला तो मैंने उससे कहा____"लगता है तू अभी भी मुझसे डर रहा है यार, जबकि अब हमारे बीच ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। अब से हम दोनों पक्के वाले यार हैं और जो कुछ करेंगे साथ ही करेंगे, क्या बोलता है?"
रूपचंद्र मेरी तरफ अपलक देखने लगा। शायद वो मेरे चेहरे के भावों को पढ़ कर ये समझने की कोशिश कर रहा था कि इस वक़्त मैं उससे जो कुछ कह रहा हूं उसके पीछे कितना सच है?
"हद है यार।" मैंने खीझने का नाटक किया____"तुझे अब भी मुझ पर यकीन नहीं हुआ है?"
"नहीं ऐसी बात नहीं है वैभव।" फिर उसने गहरी सांस लेते हुए कहा____"बात ये है कि हमारे बीच इतना जल्दी सब कुछ बदल गया है तो उसे मैं इतना जल्दी हजम नहीं कर पा रहा हूं।"
"अरे! तो पगले इसी लिए तो मैं कह रहा हूं कि हम दोनों मिल के इस रांड को पेलेंगे।" मैंने उसके दोनों कन्धों पर हाथ रख कर समझाते हुए कहा____"जब हम दोनों साथ मिल कर इसके साथ पेलम पिलाई करेंगे तो हमारे बीच सब कुछ खुल्लम खुल्ला वाली बात हो जाएगी। फिर न तुझे मुझसे झिझकने की ज़रूरत होगी और ना इस रांड को।"
रूपचंद्र को देर से ही सही लेकिन मैंने आस्वस्त कर दिया था। उसके बाद मेरे कहने पर रजनी ने फ़ौरन ही हम दोनों के कपड़े उतारे। रूपचंद्र नंगा हो जाने के बाद मेरे सामने थोड़ा शरमा रहा था। अपना मुरझाया हुआ लंड वो अपने ही हाथ से छुपाने की कोशिश कर रहा था जबकि मैं आराम से खड़ा था।
"चल अब पहले रूपचंद्र का लंड मुँह में ले कर चूस।" मैंने रजनी से कहा____"और हाँ थोड़ा जल्दी करना क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी के आ जाने से हमारा ये खेल ख़राब हो जाए।"
रजनी मरती क्या न करती वाली हालत में थी। उसे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि ये सब आज हो क्या रहा है। उसने घुटनों के बल बैठ कर रूपचंद्र के मुरझाए हुए लंड को पकड़ा तो रूपचंद्र की सिसकी निकल गई। रजनी उसके लंड को पकड़ कर सहलाने लगी जिससे रूपचंद्र को धीरे धीरे आनंद आने लगा और उसने अपनी आँखें बंद कर ली। इधर मैं खुद ही अपने हाथ से अपने लंड को सहला रहा था। कुछ ही देर में रूपचन्द्र का लंड अपने अकार में आ गया। मैंने पहली बार उसके लंड पर नज़र डाली तो ये देख कर मन ही मन हँसा कि इसका तो मेरे लंड का आधा भी नहीं है।
रजनी रूपचंद्र के लंड को मुँह में ले कर चूस रही थी और रूपचंद्र मज़े में उसके सिर को थामे अपनी कमर हिलाए जा रहा था। रजनी अपने सिर को आगे पीछे कर के उसका लंड चूस रही थी। हिलने से उसकी बड़ी बड़ी चूंचियां भी हिल रहीं थी।
"चल अब क्या उसे ऐसे ही झड़ा देगी रांड?" मैंने रजनी से कहा तो दोनों को होश आया। रजनी ने उसका लंड अपने मुख से निकाल कर मेरी तरफ देखा।
"अब इसे भी अपने मुँह में ले कर चूस।" मैंने कहा_____"उसके बाद तेरी पेलाई शुरू करते हैं हम दोनों।"
रजनी चुप चाप मेरी तरफ सरकी और मेरे लंड को पकड़ कर सहलाने लगी। मैंने रूपचंद्र की तरफ देखा। वो आँखें फाड़े मेरे लंड को देख रहा था। मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन लंड के बारे में उससे कुछ कहना ठीक नहीं समझा क्योंकि ऐसे में वो अपनी कमी महसूस करता। रजनी कुछ पलों तक मेरा लंड सहलाती रही उसके बाद उसने मेरे लंड को मुँह में भर लिया। उसका गरम मुख जैसे ही मेरे लंड के टोपे पर लगा तो मैंने उसकी तरफ देखा। मेरा लंड अभी अपने पूरे अकार में नहीं आया था इस लिए उसे अभी कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। मैंने रजनी के सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और उसे अपने लंड की तरफ खींचने लगा। मेरा आधे से ज़्यादा लंड रजनी के मुँह में समां गया जिससे रजनी को झटका लगा और वो मेरी जाँघों को पकड़ कर ज़ोर लगाने लगी। एक तो रजनी के ऊपर पहले से ही मुझे गुस्सा था ऊपर से आज वो फिर से रूपचंद्र से चुदवाने जा रही थी इस लिए मेरे मन में अब उसे ऐसे ही सज़ा देने का ख़याल उभर आया था।
कुछ ही देर में रजनी की हालत ख़राब हो गई। मेरा लंड अपने पूरे आकार में आ चुका था और मैं मजबूती से उसके सिर को पकड़े उसके मुँह में अपने लंड को पेले जा रहा था। आँगन में रजनी के मुँह से निकलने वाली गूं गूं की आवाज़ें गूंजने लगीं थी। रूपचंद्र आश्चर्य से आँखें फाड़े कभी रजनी की हालत को देखता तो कभी मुझे। इधर मुझे रजनी को इस तरह पेलने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जब मैंने देखा कि रजनी की आँखों से आंसू निकलने लगे हैं तो मैंने उसे छोड़ दिया। मुँह से लंड निकलते ही रजनी बुरी तरह खांसने लगी। उसके साँसें बुरी तरह उखड़ गईं थी। उसके थूक और लार से सना हुआ मेरा लंड धूप में अलग ही चमक रहा था। रूपचंद्र मेरे मोटे और लम्बे लंड को देख कर मानो सकते में आ गया था।
"छो...छोटे ठाकुर...खौं खौं...छोटे ठाकुर।" रजनी अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए और खांसते हुए बोली____"आपने तो मेरी जान ही ले ली थी।"
"चिंता मत कर।" मैंने कहा_____"लंड लेने से कोई नहीं मरता, ख़ास कर तेरे जैसी रांड तो बिल्कुल भी नहीं।"
मैंने रूपचंद्र को आँगन में लेटने के लिए कहा तो उसने न समझने वाले भाव से मेरी तरफ देखा। मैंने उसे समझाया कि वो ज़मीन पर सीधा लेट जाए ताकि रजनी उसकी तरफ अपनी पीठ कर के उसके ऊपर लेट जाए। नीचे से वो रजनी की गांड में अपना लंड डाले और उसके बाद मैं ऊपर से रजनी की चूत में अपना लंड डाल कर उसकी चुदाई करुंगा। सारी बात समझ में आते ही रूपचंद्र झट से ज़मीन पर लेट गया। मैंने रजनी को इशारा किया तो वो रूपचंद्र के ऊपर अपनी पीठ कर के लेट गई। घुटनों को उसने ज़मीन पर टिका लिया था और दोनों हाथों को पीछे रूपचंद्र के सीने में। उसके लेटते ही रूपचंद्र ने नीचे से अपने लंड को रजनी की गांड में डाल दिया और फिर अपनी कमर को हिलाने लगा।
खिली धूप में वो दोनों इस आसान में अलग ही नज़ारा पेश कर रहे थे। रजनी की गोरी गोरी लेकिन भारी छातियां रूपचंद्र के धक्के लगाने से हिल रहीं थी। रजनी मुझे ही देख रही थी। मैं वक़्त को बर्बाद न करते हुए आगे बढ़ा और रजनी के ऊपर आसान ज़माने लगा। एक हाथ से अपने लंड को पकड़ कर मैंने रजनी की बालों से भरी चूत पर टिकाया और ज़ोर का झटका दिया जिससे रजनी उछल गई और नीचे उसकी गांड से रूपचंद्र का लंड निकल गया। रूपचंद्र ने जल्दी से अपने लंड को पकड़ कर उसकी गांड में डाला और धीरे धीरे धक्के लगाने लगा। इधर मैं अपने दोनों हाथ ज़मीन पर टिकाए तेज़ तेज़ कमर हिलाने लगा था। रजनी की पानी बहाती चूत पर मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था जिससे अब रजनी की सिसकियां और दर्द में डूबी आहें निकलने लगीं थी।
रजनी के लिए शायद ये पहली बार था जब वो दो दो लंड एक ही बार में अपनी चूत और गांड में ले रही थी। जल्दी ही वो मस्ती में आ गई और ज़ोर ज़ोर आहें भरने लगी। नीचे से रूपचंद्र अपना पिछवाड़ा उठा उठा कर रजनी की गांड में अपना लंड डाल रहा था और ऊपर से मैं रजनी की चूत को पेले जा रहा था। कुछ देर तक तो गज़ब का रिदम बना रहा लेकिन फिर रूपचंद्र हिच्च बोल गया। वो कहने लगा कि नीचे से कमर उठा उठा कर रजनी की गांड मारने से उसकी कमर दुखने लगी है इस लिए अब वो ऊपर आना चाहता है। मैंने भी सोचा चलो उसकी ही इच्छा पूरी कर देते हैं। जल्दी ही हमने अपना अपना आसन बदला। अब रूपचंद्र की जगह मैं रजनी के नीचे था और रूपचंद्र मेरी जगह पर। एक बार फिर से चुदाई का खेल शुरू हो गया। बीच में फंसी रजनी आँखें बंद किए अलग ही दुनिया में खो गई थी। वो ज़ोर से चिल्ला उठती थी जिससे मुझे उसको कहना पड़ता था कि साली रांड पूरे गांव को घर बुला लेगी क्या।
क़रीब दस मिनट भी न हुआ था कि रूपचंद्र बुरी तरह आहें भरते हुए रजनी की चूत में झड़ गया और उसके ऊपर पसर कर बुरी तरह हांफने लगा।
"क्या हुआ रूपचंद्र जी?" रजनी ने हांफते हुए किन्तु हल्की मुस्कान में कहा____"इतने में ही दम निकल गया तुम्हारा?"
"साली कुतिया।" रूपचंद्र उसके ऊपर से उठते हुए बोला____"मेरा दम निकल गया तो क्या हुआ, मेरा दोस्त तो लगा हुआ है न?"
"छोटे ठाकुर तो अपने दम पर लगे हुए हैं।" रजनी ने आहें भरते हुए कहा____"मैं तुम्हारी बात कर रही हूं। क्या तुम में भी छोटे ठाकुर जितना दम है?"
"साली रांड ये क्या बकवास कर रही है?" मैंने उसे अपने ऊपर से हटाते हुए कहा____"रुक अभी बताता हूं तुझे।"
"इस बुरचोदी की गांड फाड़ दो वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार आवेश में आ कर कहा_____"इसके अंदर बहुत गर्मी भरी हुई है।"
मैंने रजनी को खटिया की बाट पर हाथ रख कर झुकने को कहा तो वो झुक गई। पीछे उसकी गांड उभर कर आ गई थी। मैंने जल्दी जल्दी चार पांच थप्पड़ उसकी गांड पर मारे जिससे वो दर्द से सिहर उठी। उसके बाद मैंने उसकी गांड को फैला कर अपने लंड को उसकी गांड के छेंद पर टिकाया और एक ही झटके में पूरा डाल दिया।
"आह्ह्ह्ह मररर गईईईई मां।" रजनी की दर्द भरी चीख फ़िज़ा में गूँज गई____"धीरे से डालिए...आह्ह्ह्ह मेरी गांड फट गई छोटे ठाकुर?"
"क्या हुआ रांड?" मैंने उसकी गांड पर ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"दम निकल गया क्या तेरा?"
"आह्ह्ह्ह आपके ही करने से तो दम निकल जाता है मेरा।" रजनी आहें भरते हुए बोली____"आपका लंड किसी घोड़े के लंड से कम नहीं है। चूत और गांड में जब जाता है....आह्ह्ह्ह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने गरमा गरम सरिया डाल दिया हो।"
"रुपचंद्र खटिया पर चढ़ो तुम।" मैंने रूपचंद्र से कहा____"और इसके मुँह में अपना लंड डालो। साली बहुत बोलती है।"
"अभी डालता हूं इस साली के मुँह में।" रूपचंद्र अपने लंड को सहलाते हुए फ़ौरन ही खटिया में चढ़ गया और रजनी के सिर को बालों से पकड़ कर उठाया। रजनी मेरी बात सुन चुकी थी इस लिए उसने अपना मुँह खोल दिया जिससे रूपचंद्र ने अपना लंड गप्प से उसके मुँह में डाल दिया।
एक तरफ से रूपचंद्र रजनी के सिर को पकड़े उसके मुँह की पेलाई कर रहा था और दूसरी तरफ से मैं रजनी की गांड फाड़ रहा था। सहसा मैंने अपना लंड उसकी गांड से निकाला और पलक झपकते ही नीचे उसकी चूत में एक झटके से डाल दिया। रजनी दर्द से कराही लेकिन मुँह में रूपचन्द्र का लंड होने की वजह से उसकी आवाज़ दब कर रह गई। मैं भीषण गति से उसकी चूत को चोदे जा रहा था। जल्दी ही रजनी का जिस्म थरथराता महसूस हुआ और फिर वो झटके खाते हुए झड़ने लगी। झड़ते वक्त वो बुरी तरह चिल्लाने लगी थी लेकिन रूपचंद्र ने जल्दी से उसके मुंह में अपना लंड घुसा दिया था। उसकी चूत का गरम पानी मेरे लंड को भिगोता चला गया मगर मैं रुका नहीं बल्कि तेज़ तेज़ लगा ही रहा। रूपचंद्र हैरानी से मुझे देख रहा था। कभी कभी मेरी नज़र उससे मिलती तो वो अपनी नज़रें हटा लेता था। शायद खुद को मुझसे कमज़ोर समझने लगा था जिससे वो नज़रें नहीं मिला पा रहा था।
"आह्ह्ह छोटे ठाकुर रुक जाइए थोड़ी देर।" रजनी रूपचंद्र का लंड मुँह से निकाल कर बोल पड़ी थी____"मुझे बहुत तेज़ जलन हो रही है...आह्ह्ह रुक जाइए कुछ देर के लिए।"
"चिंता मत कर बुरचोदी।" मैंने उसकी गांड में ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"तेरी जलन को मैं अपने लंड के पानी से बुझा दूंगा।"
"आह्ह्ह छोटे ठाकुर।" रजनी दर्द से बोली____"झुके झुके मेरी कमर दुखने लगी है। आह्ह्ह भगवान के लिए थोड़ी देर रुक जाइए। मैं विनती करती हूं आपसे।"
"क्या बोलता है रूपचंद्र?" मैंने खटिया में खड़े रूपचंद्र से कहा____"छोड़ दूं उसे?"
"छोड़ ही दो यार।" रूपचंद्र ने रजनी की तरफ देखते हुए कहा____"इसके चेहरे से लग रहा है कि ये तकलीफ़ में है।"
मैंने एक झटके से अपना लंड रजनी की चूत से निकाल लिया। रजनी फ़ौरन ही सीधा खड़ी हो गई लेकिन अगले ही पल वो लड़खड़ा कर वापस खटिया पर झुक गई। शायद इतनी देर में उसके खून का दौड़ान रुक गया था या फिर उसकी कमर अकड़ गई थी। कुछ देर वो खटिया की बाट को पकड़े झुकी हुई गहरी गहरी साँसें लेती रही उसके बाद वो खड़ी हो कर खटिया में ही बैठ गई और मेरी तरफ देखते हुए गहरी गहरी साँसें लेती रही।
"अब इसको क्या तेरी अम्मा आ के शांत करेगी रांड?" मैंने शख़्त भाव से कहा तो रजनी ने जल्दी से मेरे लंड को पकड़ लिया और सिर को आगे कर के उसे मुँह में भर लिया।
उसके बाद रजनी की ना चूत में लंड डलवाने की हिम्मत हुई और ना ही गांड में। उसने मेरे लंड को चूस चूस कर ही मुझे शांत किया। इस बीच रूपचंद्र मेरी क्षमता देख कर बुरी तरह हैरान था। रजनी को पेलने के बाद हम दोनों ने अपने अपने कपड़े पहने और घर से बाहर आ गए। रजनी खटिया पर ही बैठी रह गई थी। उसमें उठ कर बाहर दरवाज़ा बंद करने के लिए आने की शक्ति नहीं थी।
बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।
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मेरी पारखी नजरों को मानिए शुभम भाई ! बहुत पहले डेथ किंग भाई की काबिलियत को पहचान गया था मैं । वैसे ही जैसे आलू भाई को । बहुत सारे रीडर्स हैं जिसे आप अभी तक ढंग से परिचित नहीं हैं । थोड़ा अपने थ्रीड से बाहर निकलिए..... मालूम हो जायेगा ।Death Kiñg bhai
Pahle apan ye dekh ke shock hua ki ye update apan ne kab chipka diya, fir jab update dene wale naam par nazar padi to muskura utha. Is review ko padh kar main bina kisi sankoch kah raha hu ki aap forum ke best reviewer SANJU ( V. R. ) Bhaiya ko bhi peechhe chhod diya hai. Sanju bhaiya maaf karna mujhe, mera irada aapko hurt karne ka bilkul bhi nahi hai lekin mujhe yakeen hai ki is review ko padh kar aapke man me bhi khud ke liye yahi vichaar aaya hoga. Ek samay tha jab review ke maamle me Firefox kamdev99008 bhaiya aur Naina in teeno ka koi jawaab nahi tha. Khaas kar firefox aur kamdev bhai ka kyoki inke review achchhe writer ki band bajane wale hote the aur sach kahu to aise reviews ko padh kar maza bhi aata tha. Samay aage badha aur fir aapki entry huyi. aalu bhai jaisa reader bhi aaya, lekin samajh me nahi aaya ki inke aane se pahle wale surma review dena kyo band kar diye jabki har writer ko unke jaise readers ki hi zarurat hai. Ab to firefox aur aalu bhai dikhte hi nahi aur usse nuksaan sirf aur sirf ham jaise mamuli writers ka hi hua hai.
Death Kiñg bhai, is khubsurat review ko maine kayi baar padha hai aur yakeen maano itni khushi huyi ki shabdo me bata nahi sakta. Mera un sabhi reader bhaiyo se kahna hai jo nice update likh kar apna farz pura kar lete hain ki dekho aur kuch seekho inse. Ek writer ko uski mehnat ka fal kis tarah se dene chahiye ye dekho.... Devnagari me review likhna aur wo bhi ek update ke size ka ye koi mamuli baat nahi hai. Devnagari me likhne wale hi samajh sakte hain ki isme kitna time lagta hai aur kitna bariki se soch kar sameeksha Deni padti hai. Well thank death king bhai is khubsurat review ke liye
Ab tak ki kahani ka aapne bahut hi khubsurti se vishleshan kiya hai, isse ye bhi zaahir hota hai ki aapne kahani ko bahut ki baariki se padha hai. Kisi ke dwara jab is tarah ki sameeksha dekhne ko milti hai tab dil ko apaar khushi milti hai aur andar hazaaro Guna josh aur utsaah bhar jata hai. Well kahani ke bare me bas yahi kahuga ki daily update Dena mere liye behad hi mushkil hai lekin jab bhi time milega to thoda thoda kar ke update zarur taiyar karuga aur use post karuga. Der se hi sahi lekin kahani ko uske anjaam tak zarur pahuchaauga, bas aap sab ka sath yu hi bana rahe. Ek lekhak ko isi tarah ka motivation chahiye hota hai. Shukriya death king bhai
ये इंसानी कला साया वही लगता है जिससे वैभव सिंह मुरारी काका के मौत के दिन टकराया था ।☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 17
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अब तक,,,,,
"हां मेरी जान।" मैंने कहा____"अब मैं हवेली नहीं जाऊंगा। आज की रात तेरे ही घर में गुज़ारुंगा। कल कोई दूसरा ठिकाना देखूंगा।"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रजनी ने हैरानी से पूछा____"और हवेली क्यों नहीं जाएंगे आप?"
"बस मन भर गया है हवेली से।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"असल में हवेली मेरे जैसे इंसान के लिए है ही नहीं। ख़ैर छोड़ ये बात और निकल यहाँ से। तेरे घर पहुंचने के बाद मैं भी कुछ देर में आ जाऊंगा।"
मैंने रजनी को घर भेज दिया और खुद बगीचे से निकल कर उस तरफ चल दिया जहां पर मकान बना हुआ था। मकान के पास आ कर मैं चबूतरे पर बैठ गया। रजनी को छोड़ने के बाद मेरे अंदर की कुछ गर्मी निकल गई थी और अब ज़हन कुछ शांत सा लग रहा था। अभी मैं रजनी के बारे में सोच ही रहा था कि तभी किसी चीज़ की आहट को सुन कर मैं चौंक पड़ा।
अब आगे,,,,,
आहट पीछे से आई थी और जब मैंने चौंक कर पीछे देखा तो चांदनी रात में कुछ दूर मुझे एक इंसानी साया नज़र आया। उस साए ने अपने बदन पर काला कपड़ा ओढ़ा हुआ था और उसका चेहरा भी काले कपड़े से ढंका हुआ था। उसके दाहिने हाथ में एक बड़ा सा लट्ठ था। मैं उस साए को देख कर एकदम से चौकन्ना हो गया। मुझे समझने में ज़रा भी देरी नहीं हुई कि वो साया मेरी वजह से ही यहाँ था। वो मुझसे क़रीब दस या पंद्रह फ़ीट की दूरी पर खड़ा था। उसे देख कर मैं चौकन्ना तो हो गया था किन्तु जाने क्यों मेरे जिस्म में झुरझुरी सी होने लगी थी और मेरी धड़कनें भी तेज़ हो गईं थी।
मैं एक झटके में अपनी जगह से उठ कर खड़ा हो गया। मेरे ज़हन में अचानक ही ख़याल उभरा कि कहीं ये वही साया तो नहीं जो उस रात मुझसे टकराया था और मुझे धक्का दे कर गायब हो गया था? मेरे मन में कई सारे सवाल अचानक से ही तांडव करने लगे थे। आख़िर कौन हो सकता है ये रहस्यमयी शख़्स और यहाँ पर क्यों आया होगा ये? क्या इसी ने मुरारी काका की हत्या की होगी और क्या इसी ने मेरी फसल को जलाया होगा? ऐसे न जाने कितने ही सवाल मेरे ज़हन में उभरते जा रहे थे। मैं उसी की तरफ देख रहा था और वो भी अपनी जगह पर लट्ठ लिए मुझे ही देख रहा था।
मकान से बगीचा क़रीब सौ मीटर की दूरी पर था और चांदनी रात में इस वक़्त तीसरा कोई भी मुझे आस पास नहीं दिख रहा था। मैं ये तो नहीं जानता था कि वो साया यहाँ क्या करने आया था किन्तु मैंने मन ही मन ये ज़रूर सोच लिया था कि उस साए को अब हाथ से जाने नहीं दूंगा। मन में ये विचार कर के मैं उसकी तरफ बढ़ने लगा। मैं इस वक़्त एकदम निहत्था था किन्तु मेरे अंदर डर या घबराहट जैसी कोई बात नहीं थी बल्कि मेरी मुट्ठियां शख़्ती से कस गईं थी।
मैं निरंतर उस साए की तरफ बढ़ता ही जा रहा था और वो अपनी जगह पर किसी पुतले की तरह खड़ा जैसे मुझे ही घूर रहा था। मैं जब उसके और क़रीब पंहुचा तो मैंने देखा उसका चेहरा काले कपड़े से ढंका हुआ था। उसके बदन पर काला ही कपड़ा था जिसे उसने अपने जिस्म के चारो तरफ लपेट रखा था। साए की लम्बाई मुझसे थोड़ी ही ज़्यादा थी। मैं पूरी तरह चौकन्ना था और उसके द्वारा किए जाने वाले किसी भी हमले के लिए तैयार था। चलते हुए मैं उसके एकदम क़रीब पहुंच गया। अब उसके और मेरे बीच में सिर्फ चार या पांच क़दम का ही फासला था।
"कौन हो तुम?" मैंने उसे देखते हुए शख़्त भाव से उससे पूछा____"और इस वक़्त यहाँ क्या कर रहे हो?"
"अपनी जान की सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ।" मेरे पूछने पर उसने ऐसी आवाज़ में कहा जैसे उसे बोलने में बहुत ही मेहनत करनी पड़ रही हो।
"शायद तुम जानते नहीं हो कि तुम किसके सामने खड़े हो।" मैंने कठोर भाव से कहा____"मेरा नाम ठाकुर वैभव सिंह है और वैभव सिंह उस बला का नाम है जो हर वक़्त अपनी जान अपनी हथेली पर ले कर चलता है। तुम मेरी नहीं बल्कि खुद अपनी सलामती की चिंता करो। अब इससे पहले कि मुझे गुस्सा आ जाए तुम फटाफट अपने बारे में बताओ और ये भी बताओ कि यहाँ किस लिए आए हो?"
"लगता है तुम्हें अपनी ताकत पर बहुत घमंड है।" साए ने कहा____"लेकिन तुम्हारे लिए ये जान लेना ज़रूरी है कि तुम्हारी ताकत मेरी ताकत के सामने बहुत ही मामूली है।"
"तो तुम मुझे धमकी दे रहे हो?" मैंने शख़्त भाव से उसे घूरते हुए कहा तो उसने कहा____"ये धमकी नहीं है लड़के बल्कि तुम्हें सच्चाई बता रहा हूं। इस लिए अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ वरना फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ।"
"चलो ये भी देख लेते हैं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर असली मर्द हो तो मेरी तरह निहत्था हो कर मुझसे मुक़ाबला करो।"
"हां क्यों नहीं।" उसने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहने के साथ ही अपने लट्ठ को एक तरफ उछाल दिया, फिर बोला_____"ये लो अब मैं भी तुम्हारी तरह निहत्था हो गया हूं। वैसे अभी भी वक़्त है तुम अपनी सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ।"
"वैभव सिंह एक ऐसे शख़्स से डर कर यहाँ से जाने वाला नहीं है जिसने खुद को छुपाने के लिए नक़ाब का सहारा ले रखा हो।" मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"बल्कि वो तो उस शख़्स से अब मुक़ाबला करेगा जिसने उसे मौत से डर कर भाग जाने की बात कही है। मैं भी देखना चाहता हूं कि किसका इतना बड़ा जिगरा है जो वैभव सिंह को नक़ाब पहन कर डराने आया है।"
"बहुत खूब।" उस साए ने कहा____"तो देर किस बात की है? अगर तुम में ताकत है तो ऐसा जिगरा रखने वाले का पता लगा लो फिर।"
"पहली बार कोई ऐसा मिला है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"जिसने वैभव सिंह को इस तरह से ललकारा है। मज़ा आएगा तुमसे मुक़ाबला कर के।"
मेरी बात सुन कर वो साया कुछ न बोला मगर मैंने महसूस किया जैसे मेरी बात सुन कर नक़ाब के अंदर उसके होठों पर मुस्कान उभर आई हो। वो एकदम से लापरवाह सा खड़ा मुझे ही देख रहा था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि उसे मुझसे किसी बात का खतरा है, जबकि मैं अब मुक़ाबले के लिए एकदम से तैयार हो गया था। इतना तो मैं भी समझ गया था कि मुझसे इस तरह से उलझने वाला कोई मामूली शख़्स नहीं होगा। तभी उसने अपने दोनों हाथ के इशारे से मुझे अपनी तरफ हमला करने के लिए बुलाया।
मैं ये सोच कर गुस्से में आ गया कि वो मुझे किसी बच्चे की तरह पुचकार कर बुला रहा है। जैसे उसकी नज़र में मेरी कोई औकात ही न हो। मैं तेज़ी से आगे बढ़ा और उछल कर उसके ऊपर छलांग लगाया ही था कि वो बड़ी तेज़ी से अपनी जगह से हट गया जिससे मैं खाली ज़मीन पर गिर कर लुढ़कता चला गया। अभी मैं उठने ही लगा था कि उसके पैर की ठोकर मेरे पेट में पड़ी जिससे मैं दर्द से चीखते हुए दूर जा गिरा। मेरे पेट में उसके पैर का प्रहार बड़ा ज़ोर का हुआ था और इतने में ही मैं समझ गया था कि वो साया काफी ताकतवर है।
मैं दर्द को बरदास्त कर के फ़ौरन ही उठा और जैसे ही उसकी तरफ देखा तो मेरे चेहरे पर उसका ज़बरदस्त घूंसा पड़ा और मैं एक बार फिर से उछल कर ज़मीन पर जा गिरा। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मेरे जबड़े हिल गए हों। तभी मेरी नज़र उस पर पड़ी। वो बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ आया और जैसे ही उसने अपना एक पैर उठा कर मुझ पर प्रहार किया तो मैं बड़ी तेज़ी से एक तरफ पलटा और झुक कर अपनी टांग उसके दूसरे पैर पर चला दी। परिणामस्वरूप साए का दूसरा पैर मेरी टांग लगते ही ज़मीन से हट गया और वो धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही मैं उछल कर उसके ऊपर आ गया मगर तभी उसने एक घूंसा मेरे चेहरे पर जड़ दिया और मैं एक तरफ को लहरा कर जा गिरा।
अभी मैं उठ ही रहा था कि उसने फिर से अपनी टांग घुमाई जिसे मैंने पकड़ लिया और उसकी टांग पकड़े ही मैं तेज़ी से खड़े हो कर उसे पूरी ताकत से उछाल दिया जिससे वो भरभरा कर ज़मीन पर गिर गया मगर गिरते ही वो बड़ी तेज़ी पलट गया। चांदनी रात थी इस लिए कोई समस्या नहीं थी किन्तु साया मेरी सोच से ज़्यादा फुर्तीला था और लड़ने के काफी दांव पेंच भी जानता था। जब तक मैं उसके क़रीब पंहुचा तब तक वो उछल कर खड़ा हो गया था।
मैं समझ गया था कि मेरा प्रतिद्वंदी मुझसे बिलकुल भी कमज़ोर नहीं है इस लिए मैं अब पूरी तरह से सतर्क हो गया था और कुछ सोचते हुए मैंने उसको मारने के लिए तेज़ी से हाथ चलाया तो वो झुक गया मगर यहीं पर उससे गलती हो गई। मैंने उसे मारने के लिए सिर्फ हाथ चलाने का उपक्रम किया था, वो मेरे वार से बचने के लिए झुक गया था और जैसे ही वो झुका तो मैंने अपने घुटने का वार ज़ोर से उसके माथे पर किया जिससे वो दर्द से बिलबिलाते हुए लहरा गया और इससे पहले कि वो सम्हलता मैंने उछल कर एक लात उसकी छाती पर मारी तो वो हिचकी लेते हुए धड़ाम से चित्त हो कर ज़मीन पर गिरा। इस बार वो जल्दी से उठा नहीं। मैं समझ गया कि उसकी छाती पर मेरा प्रहार बड़े ज़ोर का हुआ है जिससे वो शिथिल पड़ गया था।
अभी मैं उसके पेट पर लात मारने ही वाला था कि तभी दो तरफ से उसी के जैसे दो साए एकदम से आ गए। ये देख कर मैं चौंक पड़ा। उन सायों के हाथों में वैसे ही लट्ठ थे जैसे इस वाले साए के हाथ में था। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता एक साये ने अपना लट्ठ घुमा दिया जो सीधा मेरे बाजू में बड़े ज़ोर से लगा। मेरे हलक से दर्द में डूबी चीख निकल गई। तभी दूसरे वाले ने भी अपना लट्ठ घुमाया मगर ऐन वक़्त पर मैंने उसे लट्ठ घुमाते देख लिया था जिससे मैं फ़ौरन ही झुक गया था और उसका वार खाली चला गया था।
मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये दोनों साए कहां से आ गए थे और एकदम से मुझ पर हमला क्यों कर दिया था? मेरे बाजू में एक साए का लट्ठ लगा था जिससे मुझे बड़ा तेज़ दर्द हो रहा था। तभी मैंने देखा कि जिस साए से मैं पहले मुक़ाबला कर रहा था वो तेज़ी से उठा और एक ही जम्प में अपने लट्ठ को उठा लिया। उसे लट्ठ उठाते देख वो दोनों साए उसकी तरफ पलट गए और दोनों ने उस पर एक साथ हमला कर दिया। ये देख कर मैं फिर से चौंक पड़ा। उधर पहले वाला वो साया उन दोनों के हमलों का जवाब देने लगा था।
मैं उन दोनों सायों को पहले वाले साए के साथ इस तरह लड़ते देख काफी हैरान था। मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा था कि वो दोनों साए कहां से आ गए थे और जब वो दोनों मुझ पर हमला करने लगे थे तो वो पहले वाला साया उनसे कैसे भिड़ गया था। वातावरण में लट्ठ के टकराने की आवाज़ें गूँज रहीं थी। दोनों साए पहले वाले साए पर अपने अपने लट्ठ से वार करते जा रहे थे और पहला वाला साया उन दोनों के वार को बड़ी कुशलता से काटता जा रहा था। मैं कुछ देर तक भौचक्का सा खड़ा उन तीनों को लड़ते हुए देखता रहा उसके बाद मेरे ज़हन में अचानक ही ये ख़याल आया कि क्या मुझे इन तीनों के बीच में जाना चाहिए?
मैने ये साफ़ देखा था कि वो दोनों साए आते ही बिना कुछ बोले मुझ पर वार करने लगे थे लेकिन मैंने किसी तरह खुद को बचाया था और फिर उसके बाद पहले वाला साया उन दोनों से भीड़ गया था। इसका मतलब ये हुआ कि पहला वाला साया ये नहीं चाहता था कि वो दोनों साए मुझ पर हमला करें। अब सवाल था कि ऐसा क्यों? आख़िर पहला वाला साया ऐसा क्यों चाहता था और कौन था वो? बाद में ये जो दो साए आये हैं तो ये कौन हैं और इस तरह अचानक से मुझ पर हमला क्यों कर दिया था? तभी मुझे पहले वाले साए की कही बात याद आई, उसने कहा था कि अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ। इसका मतलब वो इन्हीं दो सायों के बारे में ऐसा कह रहा था। इसका मतलब ये भी हुआ कि उसे पहले से पता था कि ये दोनों साए यहाँ आएंगे और मुझ पर हमला करेंगे। अब सवाल ये था कि पहले वाले साए को ये सब कैसे पता था? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा मगर कुछ समझ में नहीं आया मुझे।
उधर वो दोनों साए पहले वाले साए से अब भी भिड़े हुए थे और पूरी कोशिश कर रहे थे कि वो पहले वाले साए को अपने लट्ठ से हरा कर उसे ख़त्म कर सकें मगर ऐसा हो नहीं रहा था। मैं ये देख कर हैरान था कि पहला वाला साया बड़ी ही कुशलता से उन दोनों का मुकाबला कर रहा था। कुछ ही देर में नौबत यहाँ तक आ गई कि वो दोनों ही साए पहले वाले साए से कमज़ोर पड़ने लगे। अचानक ही दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर दोनों एक साथ मुकाबला छोंड़ कर भाग निकले। पहले वाले साए ने कुछ दूर तक उनके पीछे दौड़ कर उनका पीछा किया मगर वो बगीचे में घुस गए और घने पेड़ पौधों के बीच अँधेरे में गायब हो गए।
"आख़िर कौन हो तुम?" पहला वाला साया जब वापस आया तो मैंने उससे पूछा____"और तुम्हारी तरह ही दिखने वाले वो दोनों साए कौन थे? उन दोनों ने आते ही मुझ पर हमला क्यों कर दिया था?"
"अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो तो भाग जाओ यहाँ से।" साए ने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहा____"और फिर कभी दुबारा इस तरह अकेले मत भटकना।"
"अगर मेरी इतनी ही फिक्र है तो बताते क्यों नहीं कि कौन हो तुम?" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"और उन दोनों से इस तरह क्यों भिड़ गए थे तुम? उन दोनों ने मुझ पर हमला किया था मगर तुमने उन्हें रोक लिया। इसका मतलब तुम ये नहीं चाहते थे कि वो दोनों मुझे कोई नुकसान पहुँचाएं। अब सवाल ये है कि आख़िर ऐसा क्यों चाहते थे तुम?"
"तुम्हें ख़तरों से खेलने का अगर कुछ ज़्यादा ही शौक है।" साए ने शख़्त भाव से कहा____"तो खेलो फिर मगर याद रखना इस खेल में नुकसान तुम्हारा ही है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते।" साया पलट कर जाने ही लगा था कि मैंने झट से कहा____"तुम्हें बताना पड़ेगा कि कौन हो तुम और वो दोनों साए तुम्हारे जैसा रूप बना कर मुझ पर हमला करने क्यों आये थे?"
"मैं तुम्हारे सवालों के जवाब देना ज़रूरी नहीं समझता।" साए ने पलट कर मुझसे कहा____"लेकिन हां इतना ज़रूर कहूंगा कि अब अगर तुम मुझे दुबारा इस तरह मिले तो मैं तुम्हे ज़िंदा नहीं छोडूंगा।"
इससे पहले कि मैं उसकी इस बात का कोई जवाब देता वो तेज़ी से एक तरफ को बढ़ गया। पहले मेरे ज़हन में ख़याल आया कि मैं उसका पीछा करूं मगर फिर मैंने ये सोच कर अपना इरादा बदल दिया कि अगर उसे कुछ बताना ही होता तो वो खुद ही बता देता सब कुछ। वो साया मेरी आँखों से ओझल हुआ तो मैं भी गांव की तरफ बढ़ चला।
सारे रास्ते मैं यही सोचता रहा कि आख़िर वो साया कौन रहा होगा और उसने शुरू में मुझसे ये क्यों कहा था कि अगर मैं अपनी जान की सलामती चाहता हूं तो वहां से भाग जाऊं? उसके बाद हमारे बीच बातें हुईं और फिर मुक़ाबला करने तक की नौबत आ गई। हलांकि मुक़ाबला करने की नौबत मैंने खुद ही बनाई थी किन्तु उसके बाद जो दूसरे साए आए और उन्होंने आते ही मुझ पर हमला किया था उससे मैं बुरी तरह चकरा गया था। ये तो अब स्पस्ट था कि बाद में जो दो साए आये थे वो मुझे मारना चाहते थे और पहला वाला मुझे बचाने के लिए उन दोनों से भिड़ गया था। इसका मतलब पहला वाला साया नहीं चाहता था कि वो दोनों साए मुझे मार पाएं।
मैं इतना तो समझ गया था कि पहला वाला साया मेरी सुरक्षा के लिए ही आया था किन्तु सवाल ये था कि आख़िर वो था कौन और खुद को इस तरह काले कपड़ों से क्यों छुपा रखा था? सबसे बड़ी बात ये कि उसे पहले से पता था कि मुझे मारने के लिए कोई आने वाला था और अब मुझे उसकी ये बात भी समझ आ गई थी कि वो क्यों मुझे यहाँ से भाग जाने के लिए कह रहा था?
इस हादसे ने मेरे ज़हन में कई सारे सवाल पैदा कर दिए थे किन्तु मेरे पास किसी भी सवाल का जवाब नहीं था। इस हादसे से मैं इतना तो समझ गया था कि कोई मुझे जान से मार देना चाहता है लेकिन कौन ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था। अचानक ही मेरे मन में साहूकारों का ख़याल आया। मैंने सोचा क्या गांव के शाहूकार मुझे जान से मार देना चाहते हैं? यकीनन उनके पास मुझे जान से मार देने की वजह थी। आख़िर आज के समय में मैं ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन था। इस लिए हो सकता है कि मुझे जान से मारने के लिए उन्होंने किसी ऐसे आदमी को सुपारी दी हो जो किसी की जान लेने का काम करता हो। उनका भेद न खुले इस लिए उन्होंने हत्यारे को समझाया होगा कि वो खुद को काले कपड़ों में छुपा के रखें। मैंने जितना सोचा उतना ही मेरे मन में इस बारे में यही विचार दृढ़ हुआ कि ये काम साहूकारों का ही है लेकिन क्योकि मैं उन दोनों सायों को पहचान नहीं सका था इस लिए मैं इसके लिए उन पर आरोप नहीं लगा सकता था।
सारे रास्ते मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर मुंशी के घर पहुंच गया। मुंशी के घर के बाहर और आस पास हमेशा की तरह सन्नाटा छाया हुआ था। गांव का हर मर्द आज होलिका दहन के लिए गया हुआ था। मुझे याद आया कि माँ ने भी मुझे आज साथ में ही रहने को कहा था मगर हवेली से आने के बाद अब मैं वहां नहीं जा सकता था। हलांकि मेरे वहां जाने में कोई समस्या नहीं थी किन्तु वैभव सिंह का अहंकार वह जाने से रोक रहा था मुझे।
मुंशी के घर के दरवाज़े पर आ कर मैंने दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर बजाया तो कुछ ही देर में दरवाज़ा खुला। दरवाज़े के उस पार मुंशी की बीवी प्रभा खड़ी दिखी। इस वक़्त अपने दरवाज़े पर मुझे देखते ही उसके चेहरे पर चौंकने के भाव उभर आए।
"छोटे ठाकुर आप??" फिर उसने खुद को सम्हालते हुए कहा____"आइए अंदर आइए।"
"मुझे यहाँ देख कर ख़ुशी नहीं हुई क्या तुम्हें?" अंदर आने के बाद मैंने उसके पिछवाड़े में हल्के से थप्पड़ मारते हुए कहा तो वो हल्के से ही उछल पड़ी और फिर मुस्कुराते हुए बोली____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर। असल में मुझे इस वक़्त आपके यहाँ होने की उम्मीद ही नहीं थी। इस लिए पूछा आपसे।"
"आज की रात मैं यहीं पर रुकने वाला हूं।" वो दरवाज़ा बंद कर के जैसे ही पलटी तो मैंने कहा और उसे पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया जिससे वो चौंक पड़ी और फिर अंदर की तरफ देखते हुए आँखें फैला कर बोली____"ऐसे मत पकड़िए छोटे ठाकुर। कहीं रजनी न आ जाये इस तरफ। अगर उसने ऐसे देख लिया तो क्या सोचेगी वो मेरे बारे में?"
"सोचने दे मेरी रांड काकी।" मैंने एक हाथ से उसकी भारी भरकम चूंची को ज़ोर से मसलते हुए कहा तो वो सिसकी लेते हुए बोली____"नहीं नहीं छोटे ठाकुर। मैं रजनी की नज़रों में गिरना नहीं चाहती। भगवान के लिए इस वक़्त छोड़ दीजिए मुझे। आप कहेंगे तो मैं कल बगीचे में आपकी सेवा के लिए आ जाऊंगी।"
"कल नहीं आज।" मैंने उसकी चूंची को फिर से मसल कर कहा____"हां मेरी जान। आज रात ही तुझे मेरी सेवा करनी होगी। तुझे पता नहीं है कि पिछले चार महीने से मेरे लंड को कोई चूत नहीं मिली है। इस लिए आज मेरा लंड तेरी चूत के अंदर जा कर नाचेगा और धूम मचाएगा और इसके लिए तू इंकार नहीं कर सकती।"
"ठीक है छोटे ठाकुर।" प्रभा ने कसमसाते हुए कहा____"मैं करने को तो तैयार हूं मगर घर में सबके रहते ये कैसे संभव हो सकेगा? मेरा बेटा और बहू होंगे और मेरा मरद भी यहीं होगा। ऐसे में मैं कैसे आपकी सेवा कर पाऊंगी?"
"चिंता मत कर।" मैंने प्रभा की दूसरी चूंची को ज़ोर से मसला और फिर उसे छोड़ते हुए कहा____"मैं तो ऐसे ही तुझे परेशान कर रहा था। चल अंदर चल कहीं सच में तेरी बहू न आ जाए।"
मेरे ऐसा कहने पर प्रभा के चेहरे पर राहत के भाव उभरे और फिर वो मुस्कुराते हुए अंदर की तरफ चल पड़ी। अब भला उसे कैसे पता हो सकता था कि मुझे आज उसकी सेवा की ज़रूरत ही नहीं थी क्योकि उसकी बहू रजनी पहले ही मेरी सेवा कर चुकी थी।
अंदर आ कर मैं आँगन में बिछी चारपाई पर बैठ गया। बड़ा का आँगन था इस लिए ठण्ड ठण्ड हवा लग रही थी जिससे अच्छा महसूस हो रहा था मुझे। रजनी रसोई घर में थी और खाना बना रही थी। प्रभा ने जा कर उसे मेरे आने के बारे में बताया तो उसने उससे कुछ नहीं कहा। उसे तो पहले से ही पता था कि आज रात मेरा इसी घर में क़याम होना था।
प्रभा आँगन में ही मेरे पास आ कर नीचे एक बोरा बिछा कर बैठ गई और मुझसे मेरा हाल चाल पूछने लगी कि मैं चार महीने कैसे उस जगह पर रहा और अब हवेली में कैसे हालात हैं तो मैंने उसे संक्षेप में सब बता दिया। प्रभा मेरी बातें सुन कर हैरान थी। ख़ास कर इस बात से कि मैंने आज दादा ठाकुर को उल्टा सीधा बोला और हवेली छोड़ कर चला आया था।
खाना बन गया तो प्रभा ने मुझसे खाने के लिए कहा तो मैं हाथ मुँह धो कर खाना खाने बैठ गया। मैं अक्सर कभी कभार मुंशी के यहाँ खाना खा लिया करता था। मैं ये कभी नहीं सोचता था कि मैं दादा ठाकुर का बेटा हूं तो मैं किसी और के घर का खाना नहीं खाऊंगा बल्कि मैं तो मस्त मौला इंसान था। जब चाहे अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने के लिए आज़ाद था मैं।
खाना खाने के बाद मैं फिर से आँगन में चारपाई पर बैठ गया। मुंशी और उसका बेटा रघुवीर देर रात ही आने वाले थे इस लिए प्रभा ने मेरा बिस्तर बाहर वाले चौखटे पे लगा दिया जहां पर मुंशी का भी बिस्तर था। कुछ देर मैं प्रभा से बातें करता रहा और फिर चौखटे में बिछे अपने बिस्तर पर आ कर लेट गया।
बिस्तर पर लेटा मैं सोच रहा था कि मेरी ज़िन्दगी क्या से क्या हो गई है। कहां चार महीने पहले मैं हर चिंता से मुक्त था और अपनी मौज मस्ती में लगा रहता था और कहां आज मैं ऐसे हालातों में फंस कर दर दर भटकने लगा था। दादा ठाकुर ने मुझे गांव से निष्कासित कर के चार महीने तक उस बंज़र ज़मीन पर रहने के लिए मजबूर कर दिया था और बाद में बताया कि ये सब उन्होंने किसी मकसद के तहत किया था। उनके अनुसार कोई ऐसा था जो ठाकुरों के खिलाफ़ गहरा षड़यंत्र रचने वाला था और उस षड़यंत्र का मकसद था ठाकुरों के वर्चस्व को ख़त्म करना। अब सवाल था कि अगर ऐसी ही बात थी तो इसके लिए मुझे गांव से निष्कासित करने की भला क्या ज़रूरत थी? उन्होंने मुझे इस बारे में जो कुछ भी उस दिन बताया था उससे तो यही लगता है कि ऐसा कर के उन्होंने यकीनन ग़लत ही किया था। किन्तु मैं अपने पिता जी से अच्छी तरह परिचित था इस लिए मेरा मन ये मानने को तैयार नहीं था कि उन्होंने मुझे निष्कासित करने के बारे में जो कुछ बताया था वही सच हो। यकीनन इसके अलावा भी कोई ऐसी वजह हो सकती है जिसके बारे में उन्होंने मुझे नहीं बताया है।
जाने कितनी ही देर तक मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँख लग गई और मैं नींद की आगोश में चला गया। नींद में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे चारो तरफ गाढ़ा काला धुआँ फैलता जा रहा है और मैं उस धुएं में धीरे धीरे समाता जा रहा हूं। मैं अपने हाथ पैर ज़ोर ज़ोर से चला रहा था मगर मेरे हाथ पैर चलने से भी कुछ नहीं हो रहा बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में समाता ही जा रहा था और फिर तभी मैं ज़ोर से चीख पड़ा।
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Fantastic updated☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 18
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अब तक,,,,,
जाने कितनी ही देर तक मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँख लग गई और मैं नींद की आगोश में चला गया। नींद में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे चारो तरफ गाढ़ा काला धुआँ फैलता जा रहा है और मैं उस धुएं में धीरे धीरे समाता जा रहा हूं। मैं अपने हाथ पैर ज़ोर ज़ोर से चला रहा था मगर मेरे हाथ पैर चलने से भी कुछ नहीं हो रहा बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में समाता ही जा रहा था और फिर तभी मैं ज़ोर से चीख पड़ा।
अब आगे,,,,,
"क्या हुआ...क्या हुआ???" मेरे बाएं तरफ दूसरी चारपाई पर सोया पड़ा मुंशी मेरी चीख सुन कर ज़ोर से उछल पड़ा था____"छोटे ठाकुर क्या हुआ? आप अचानक इस तरह चीख क्यों पड़े?"
मुंशी की ये बात सुन कर मैंने इधर उधर देखा। चीखने के साथ ही मैं उठ बैठा था। हर तरफ अँधेरा था और इस वक़्त मुझे कुछ दिख नहीं रहा था। हलांकि अपने बाएं तरफ से मुंशी की ये आवाज़ ज़रूर सुनी थी मैंने किन्तु उसके पूछने पर मैं कुछ बोल न सका था। मेरे ज़हन में अभी भी वही सब चल रहा था। मैं एक जगह पर लेटा हुआ था और कहीं से गाढ़ा काला धुआँ फैलते हुए आया और मैं उसमे डूबता ही जा रहा था। उस धुएं से बचने के लिए मैं बड़ी तेज़ी से अपने हाथ पैर चला रहा था और चीख भी रहा था मगर मेरी आवाज़ खुद मुझे ही नहीं सुनाई दे रही थी। मेरे हाथ पैर चलाने का भी कोई असर नहीं हो रहा था बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में डूबता ही जा रहा था।
"छोटे ठाकुर।" मैं अभी इन ख़यालों में ही खोया था कि मुंशी की आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी____"आप कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है आपको? आप इतनी ज़ोर से चीख क्यों पड़े थे?"
"मुंशी जी?" अपने आपको सम्हालते हुए मैंने मुंशी को पुकारा तो उसने जी छोटे ठाकुर कहा जिस पर मैंने कहा____"हर तरफ इतना अँधेरा क्यों है?"
"वो इस लिए छोटे ठाकुर कि इस वक्त रात है।" मुंशी ने कहा____"और रात में सोते समय हम दिए बुझा कर ही सोते हैं। अगर आप कहें तो मैं दिए जलवा देता हूं। बिजली तो है ही नहीं।"
अभी मैं कुछ बोलने ही वाला था कि तभी अंदर से हाथ में दिया लिए मुंशी की बीवी और उसका बेटा रघुवीर तेज़ी से चलते हुए आए। दिए की रौशनी में अँधेरा दूर हुआ तो मैंने अपने आस पास देखा। इस वक्त मेरी हालत थोड़ी अजीब सी हो गई थी।
"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मुंशी की बीवी ने ब्याकुल भाव से मुझसे पूछा तो उसके जवाब में मुंशी ने कहा____"मुझे तो लगता है प्रभा कि छोटे ठाकुर सोते समय कोई डरावना सपना देख रहे थे जिसकी वजह से वो इतना ज़ोर से चीख पड़े थे।"
"छोटे ठाकुर हमारे घर में पहली बार सोये हैं।" प्रभा ने कहा____"इस लिए हो सकता है कि नई जगह पर सोने से ऐसा हुआ हो। ख़ैर सपना ही तो था। इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है। आप आराम से सो जाइए छोटे ठाकुर। हम सब यहीं हैं।"
"शायद तुम सही कह रही हो काकी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं यकीनन सपना ही देख रहा था। वैसे बड़ा अजीब सा सपना था। मैंने आज से पहले कभी ऐसा कोई सपना नहीं देखा और ना ही इस तरह डर कर चीखा था।"
"कभी कभी ऐसा होता है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"नींद में हम ऐसा सपना देखने लगते हैं जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा होता और उस सपने को हकीक़त मान कर हम उसी के हिसाब से प्रतिक्रिया कर बैठते हैं। ख़ैर अब आप आराम सो जाइए और अगर अँधेरे में आपको सोने में समस्या है तो हम ये जलता हुआ दिया यहीं पर रखवा देते हैं आपके लिए।"
"नहीं ऐसी बात नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"अँधेरे में सोने में मुझे कोई समस्या नहीं है। पिछले चार महीने तो मैं उस बंज़र ज़मीन में झोपड़ा बना कर रात के अँधेरे में अकेला ही सोता था और ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं उस अकेलेपन में कभी डरा होऊं। ख़ैर आप लोग जाइए मैं अब ठीक हूं।"
मेरे कहने पर प्रभा काकी और रघुवीर अंदर चले गए। प्रभा ने जलता हुआ दिया वहीं दिवार पर बने एक आले पर रख दिया था। उन दोनों के जाने के बाद मैंने मुंशी को भी सो जाने के लिए कहा और खुद भी चारपाई पर लेट गया। काफी देर तक मेरे ज़हन में वो सपना घूमता रहा और फिर पता नहीं कब मैं सो गया। इस बार के सोने पर मैंने कोई सपना नहीं देखा बल्कि रात भर चैन से सोता रहा।
सूबह हुई तो मैं उठा और दिशा मैदान से फुर्सत हो कर आया। मुंशी ने सुबह ही मेरे लिए बढ़िया नास्ता बनाने को कह दिया था। इस लिए मैं मुंशी के साथ ही नास्ता करने बैठ गया। नास्ते के बाद मैं मुंशी के साथ बाहर बैठक में आ गया।
"कल क्या हुआ था इस बारे में तो आपको पता चल ही गया होगा।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"वैसे क्या मैं आपसे जान सकता हूं कि साहूकारों के लिए क्या न्याय किया दादा ठाकुर ने?"
"कल आपके और साहूकारों के बीच जो कुछ भी हुआ था।" मुंशी ने कहा____"उसके बारे में साहूकारों ने ठाकुर साहब के पास जा कर कोई फ़रियाद नहीं की।"
"क्या मतलब??" मैंने चौंकते हुए पूछा।
"असल में ये बात तो शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमे ग़लती मानिक की ही थी।" मुंशी ने कहा____"वो लोग भी ये समझते थे कि मानिक को कल आपके साथ उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। उसके बाद कल मणिशंकर के बेटों ने जो कुछ किया उसमे भी ग़लती उन्हीं की थी। उनकी ग़लती इस लिए क्योंकि उन्हें आपसे उलझना ही नहीं चाहिए था। अगर उन्हें लगता था कि उनके या उनके बेटे के साथ आपने ग़लत किया है तो उसके लिए उन्हें सीधा दादा ठाकुर के पास न्याय के लिए जाना चाहिए था जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि मणिशंकर ने कल रास्ते में आपको रोका और आपसे उस सम्बन्ध में बात शुरू कर दी।"
"वैसे ग़लती तो मेरी भी थी मुंशी जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"माना कि कल मानिक ने ग़लत लहजे में मुझसे बात की थी और मैंने उसके लिए उसे सज़ा भी थी मगर उसके बाद मणिशंकर से मुझे उलटे तरीके से बात नहीं करनी चाहिए थी। वो मुझसे उम्र में बड़े थे और इस नाते मुझे सभ्यता से उनसे बात करनी चाहिए थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। हलांकि ऐसा इसी लिए हुआ क्योंकि उस वक़्त मैं बेहद गुस्से में था। ख़ैर जो हुआ सो हुआ लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि साहूकारों ने इस सबके लिए दादा ठाकुर से न्याय की मांग क्यों नहीं की?"
"जैसा कि मैंने आपको बताया कि वो लोग इस सब में अपनी भी ग़लती मानते थे इस लिए उन्होंने ठाकुर साहब से न्याय की मांग नहीं की।" मुंशी ने कहा____"दूसरी बात ये हैं कि कुछ दिन पहले ही मणिशंकर और हरिशंकर ठाकुर साहब से दोनों खानदान के बीच के रिश्ते सुधार लेने के बारे में बातचीत की थी। इस लिए वो ये भी नहीं चाहते थे कि इस झगड़े की वजह से सुधरने वाले सम्बन्ध इस सब से ख़राब हो जाएं। ख़ैर आप तो कल वहां थे नहीं इस लिए आपको पता भी नहीं होगा कि कल ठाकुर साहब और साहूकारों के बीच आपस में अपने रिश्ते सुधार लेने का फैसला हो चुका है। इस फैसले के बाद कल शाम को होलिका दहन पर भी शाहूकार ठाकुर साहब के साथ ही रहे और ख़ुशी ख़ुशी होलिका दहन का सारा कार्यक्रम हुआ। आज रंगों का पर्व है इस लिए आज भी शाहूकार और उनका पूरा परिवार हवेली में जमा होगा और वहां पर रंगों के इस त्यौहार पर ख़ुशी ख़ुशी सब एक दूसरे से गले मिलेंगे।"
"क्या आपको नहीं लगता मुंशी जी कि ये सब बहुत ही अजीब है?" मैंने मुंशी की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा____"मेरा मतलब है कि जो शाहूकार हमेशा ही हमारे खिलाफ़ रहे हैं उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लेने की बात ही नहीं कही बल्कि अपने रिश्ते सुधार भी लिए। क्या आपको लगता है कि ये सब उन्होंने हम ठाकुरों से सच्चे प्रेम के लिए किया होगा?"
"आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं छोटे ठाकुर?" मुंशी ने कहा____"क्या आपको ये लगता है कि साहूकारों ने ठाकुर साहब से अपने रिश्ते इस लिए सुधारे हैं कि इसके पीछे उनकी कोई चाल है?"
"क्या आपको ऐसा नहीं लगता?" मैंने मुंशी की आँखों में झांकते हुए कहा।
"बात अजीब तो है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने बेचैनी से पहलू बदला____"मगर इसके लिए कोई क्या कर सकता है? अगर गांव के शाहूकार ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेना चाहते हैं तो ये ग़लत बात तो नहीं है और ये ठाकुर साहब भी समझते हैं। ठाकुर साहब तो हमेशा से ही यही चाहते आए हैं कि गांव का हर इंसान एक दूसरे से मिल जुल कर प्रेम से रहे और अगर ऐसा हो रहा है तो ये ग़लत नहीं है। हलांकि साहूकारों के सम्बन्ध में ऐसा होना हर किसी के लिए सोचने वाली बात है और यकीनन ठाकुर साहब भी इस बारे में सोचते होंगे किन्तु जब तक साहूकारों की तरफ से ऐसा वैसा कुछ होता हुआ नहीं दिखेगा तब तक कोई कुछ भी नहीं कर सकता।"
"ख़ैर छोड़िए इस बात को।" मैंने विषय को बदलने की गरज़ से कहा____"ये बताइए कि आपने दादा ठाकुर से उस जगह पर मकान बनवाने के सम्बन्ध में बात की?"
"असल में कल इस बारे में बात करने का मौका ही नहीं मिला छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"किन्तु आज मैं इस सम्बन्ध में ठाकुर साहब से बात करुंगा। उसके बाद आपको बताऊंगा कि क्या कहा है उन्होंने। वैसे अगर आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहता हूं आपसे।"
"जी कहिए।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा।
"आपको भी ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेने चाहिए।" मुंशी ने कहा____"मैं ठाकुर साहब के बारे में सिर्फ इतना ही कहूंगा कि वो एक ऐसे इंसान हैं जो कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं और ना ही कभी कोई ग़लत फैसला करते हैं। आपको गांव से निष्कासित करने का उनका ये फैसला भी ग़लत नहीं हो सकता और ये बात मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं।"
"हर किसी का अपना अपना नज़रिया होता है मुंशी जी।" मैंने कहा____"लोग एक ही बात को अपने अपने नज़रिये से देखते और सोचते हैं। मैं सिर्फ ये जानता हूं कि उस हवेली में मेरे लिए कोई जगह नहीं है और ना ही उस हवेली में मुझे कोई देखना चाहता है।"
"ऐसा आप समझते हैं छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"जबकि ऐसी कोई बात ही नहीं है। मैं भी बचपन से उस हवेली में आता जाता रहा हूं। बड़े दादा ठाकुर के समय में मेरे पिता जी उनके मुंशी थे। बड़े दादा ठाकुर तो ऐसे थे कि उनके सामने जाने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी जबकि ठाकुर साहब तो उनसे बहुत अलग हैं। जिस तरह की बातें आप अपने पिता जी से कर लेते हैं वैसी बातें बड़े दादा ठाकुर से कोई सात जन्म में भी नहीं कर सकता था। वो इस मामले में बहुत ही शख्त थे। उनके समय में अगर आपने उनसे ऐसे लहजे में बातें की होती तो आप अब तक जीवित ही नहीं रहते। उनके बाद जब ठाकुर साहब दादा ठाकुर की जगह पर आए तो उन्होंने उनकी तरह किसी पर भी ऐसी कठोरता नहीं दिखाई। उनका मानना है कि किसी के मन में अपने प्रति डर नहीं बल्कि प्रेम और सम्मान की भावना पैदा करो। ख़ैर, सच बहुत कड़वा होता है छोटे ठाकुर मगर किसी न किसी दिन उस सच को मानना ही पड़ता है। आपने अब तक सिर्फ वही किया है जिसमे सिर्फ आपकी ख़ुशी थी जबकि आपके असल कर्त्तव्य क्या हैं इस बारे में आपने कभी सोचा ही नहीं।"
"तो आप भी दादा ठाकुर की तरह मुझे प्रवचन देने लगे।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा तो मुंशी ने हड़बड़ाते हुए कहा____"नहीं छोटे ठाकुर। मैं आपको प्रवचन नहीं दे रहा। मैं तो आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूं कि सच क्या है और आपको क्या करना चाहिए।"
"आपको मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"मुझे अच्छी तरह पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिए। ख़ैर मैं चलता हूं अभी और हां उम्मीद करता हूं कि कल आप उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा देंगे।"
कहने के साथ ही मैं उठा और घर से बाहर निकल गया। मुंशी के घर से बाहर आ कर मैं पैदल ही दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मेरे ज़हन में यही बात चल रही थी कि अब मैं यहाँ से कहा जाऊं क्योंकि मुझे अपने लिए एक नया ठिकाना ढूढ़ना था। मुरारी काका के घर मैं जा नहीं सकता था और अपने दोस्तों को मैंने उस दिन भगा ही दिया था। आस पास खेतों में मजदूर फसल की कटाई में लगे हुए थे। सड़क के किनारे एक जगह जामुन का पेड़ था जिसके नीचे छांव में मैं बैठ गया।
जामुन के पेड़ की छांव में बैठा मैं आस पास देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो कुछ मैंने सोचा था वो सब हो ही नहीं रहा है। आख़िर कैसे मैं अपनी बिखरी हुई ज़िन्दगी को समेटूं? मुरारी काका की हत्या का रहस्य कैसे सुलझाऊं? मेरे तीनो भाइयों का ब्योहार मेरे प्रति अगर बदला हुआ है तो इसके कारण का पता मैं कैसे लगाऊं? कुसुम को मैंने हवेली में जासूसी के काम पर लगाया था इस लिए अगर उसे कुछ पता चला भी होगा तो अब वो मुझे कैसे बतायेगी, क्योकि मैं तो अब हवेली में हूं ही नहीं। मेरे लिए ये सब अब बहुत कठिन कार्य लगने लगा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ जाऊं और किस तरह से इस सबका पता लगाऊं?
मुंशी चंद्रकांत के अनुसार गांव के साहूकारों ने दादा ठाकुर से अपने सम्बन्ध सुधार लिए हैं जो कि बेहद सोचने वाली और चौंकाने वाली बात थी। मेरा मन ज़रा भी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था कि गांव के ये शाहूकार हम ठाकुरों से बड़े नेक इरादों के तहत अपने सम्बन्ध जोड़े हैं। मुझे इसके बारे में पता लगाना होगा। आख़िर पता तो चले कि उनके मन में इस सबके पीछे कौन सी खिचड़ी पकने वाली है? मैंने सोच लिया कि इस सबका पता करने के लिए मुझे अभ कुछ न कुछ करना ही होगा।
(दोस्तों यहाँ पर मैं गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)
वैसे तो गांव में और भी कई सारे शाहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ लोग ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमे से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।
☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)
इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।
चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।
☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।
(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)
☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।
(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)
☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)
☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)
चंद्रमणि सिंह को एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो कई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।
जामुन के पेड़ के नीचे बैठा मैं सोच रहा था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता कैसे लगाऊं? मेरे और उनके बीच के रिश्ते तो हमेशा से ही ख़राब रहे हैं किन्तु इसके बावजूद हरिशंकर की बेटी रूपा से मेरे अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। साल भर पहले रूपा से मेरी नज़रें मिली थी। जैसा उसका नाम था वैसी ही थी वो। गांव के दूसरे छोर पर बने माता रानी के मंदिर में अक्सर वो जाया करती थी और मैं अपने दोस्तों के साथ इधर उधर कच्ची कलियों की तलाश में भटकता ही रहता था।
रूपा से मेरी मुलाक़ात का किस्सा भी बस संयोग जैसा ही था। मैं एक ऐसा इंसान था जो देवी देवताओं को बिलकुल भी नहीं मानता था किन्तु नए शिकार के लिए मंदिर के चक्कर ज़रूर लगाया करता था। ऐसे ही एक दिन मैं मंदिर के बाहर बैठा अपने दोस्तों के आने का इंतज़ार कर रहा था कि तभी रूपा मंदिर से बाहर आई और मेरे सामने आ कर मुझे माता रानी का प्रसाद देने के लिए अपना एक हाथ मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा। दोस्तों ने बताया तो था मुझे कि साहूकारों की लड़किया बड़ी सुन्दर हैं और मस्त माल हैं लेकिन क्योंकि साहूकारों से मेरे रिश्ते ख़राब थे इस लिए मैं कभी उनकी लड़कियों की तरफ ध्यान ही नहीं देता था।
खिली हुई धूप में अपने सिर पर पीले रंग के दुपट्टे को ओढ़े रूपा बेहद ही खूबसूरत दिख रही थी और मैं उसके रूप सौंदर्य में खो सा गया था जबकि वो मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाए वैसी ही खड़ी थी। जब उसने मुझे अपनी तरफ खोए हुए से देखा तो उसने अपने गले को हल्का सा खंखारते हुए आवाज़ दी तो मैं हकीक़त की दुनिया में आया। मैंने हड़बड़ा कर पहले इधर उधर देखा फिर अपना हाथ प्रसाद लेने के लिए आगे कर दिया जिससे उसने मेरे हाथ में एक लड्डू रख दिया।
रूपा ने मुझे प्रसाद में लड्डू दिया तो मेरे मन में भी कई सारे लड्डू फूट पड़े थे। इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहता वो मुस्कुराते हुए चली गई थी। इतना तो मैं समझ गया था कि उसे मेरे बारे में बिलकुल भी पता नहीं था, अगर पता होता तो वो मुझे कभी प्रसाद न देती बल्कि मेरी तरफ नफ़रत से देख कर चली जाती।
उस दिन के बाद से मेरे दिलो दिमाग़ में रूपा की छवि जैसे बैठ सी गई थी। मैं हर रोज़ माता रानी के मंदिर आता मगर वो मुझे न दिखती। मैं रूपा को देखने के लिए जैसे बेक़रार सा हो गया था। एक हप्ते बाद ठीक उसी दिन वो फिर से आई। हल्के सुर्ख रंग के शलवार कुर्ते में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रही थी। चेहरे पर ऐसी चमक थी जैसे कई सारे सितारों ने उस पर अपना नूर लुटा दिया हो। माता रानी की पूजा कर के वो मंदिर से बाहर आई तो सीढ़ियों के नीचे उसका मुझसे सामना हो गया। उसने मुस्कुराते हुए मुझे फिर से प्रसाद देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो मैं उसी की तरफ अपलक देखते हुए अपनी हथेली उसके सामने कर दी जिससे उसने फिर से मेरी हथेली पर एक लड्डू रख दिया। उसके बाद जैसे ही वो जाने लगी तो इस बार मैं बिना बोले न रह सका।
"सुनिए।" मैंने नम्र स्वर में उसे पुकारा तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में सवाल देख कर मैंने खुद की बढ़ी हुई धड़कनों को सम्हालते हुए कहा____"क्या आप जानती हैं कि मैं कौन हूं?"
"मंदिर में आया हुआ हर इंसान माता रानी का भक्त ही हो सकता है।" उसने अपनी मधुर आवाज़ में मुस्कुराते हुए कहा तो मेरे होठों पर भी मुस्कान उभर आई, जबकि उसने आगे कहा____"बाकि असल में आप कौन हैं ये भला मैं कैसे जान सकती हूं और सच तो ये है कि मैं जानना भी नहीं चाहती।"
"मेरा नाम ठाकुर वैभव सिंह है।" मैंने उसे सच बता दिया जिसे सुन कर उसके चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभर आए और साथ ही उसके चेहरे पर घबराहट भी नज़र आने लगी।
"आपके चेहरे के भाव बता रहे हैं कि आप मेरी सूरत से नहीं बल्कि मेरे नाम से परिचित हैं।" मैंने कहा____"इस लिए ज़ाहिर है कि मेरे बारे में जान कर अब आप मुझसे नफ़रत करने लगेंगी। ऐसा इस लिए क्योंकि आपके भाइयों के साथ मेरे ताल्लुकात कभी अच्छे नहीं रहे।"
"मैंने आपके बारे में सुना है।" उसने कहा____"और ये भी जानती हूं कि दादा ठाकुर के दूसरे बेटे के साथ मेरे भाइयों का अक्सर झगड़ा होता रहता है। ये अलग बात है कि उस झगड़े में अक्सर मेरे भाई बुरी तरह पिट कर आते थे। ख़ैर मैं ये मानती हूं कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। उसके लिए दोनों हाथों का स्पर्श होना ज़रूरी होता है। कहने का मतलब ये कि अगर आपके और मेरे भाइयों के बीच झगड़ा होता है तो उसमे किसी एक की ग़लती तो नहीं होती होगी न? अगर कभी आपकी ग़लती होती होगी तो कभी मेरे भाइयों की भी तो ग़लती होगी।"
"काफी दिलचस्प बातें कर रही हैं आप।" मैं रूपा की बातों से प्रभावित हो गया था____"इसका मतलब आप उस सबके लिए सिर्फ मुझ अकेले को ही दोषी नहीं मानती हैं? मैं तो बेवजह ही इस बात के लिए अंदर से थोड़ा डर रहा था आपसे।"
"चलती हूं अब।" उसने नम्रता से कहा और पलट गई। मैंने उसे रोकना तो चाहा मगर फिर मैंने अपना इरादा बदल दिया। असल में मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझे कि मैं उस पर डोरे डाल रहा हूं। उसे मेरे बारे में पता था तो ये भी पता होगा कि मैं लड़कियों और औरतों का कितना बड़ा रसिया इंसान हूं।
मैं रूपा के लिए काफी संजीदा हो गया था। वो मेरे दिलो दिमाग़ में छा गई थी और अब मैं उसे किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता था। मेरे दोस्तों को भी ये सब पता था किन्तु वो भी कुछ नहीं कर सकते थे। ख़ैर ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैंने ये देखा था कि वो हर हप्ते माता रानी के मंदिर पर आती थी इस लिए जिस दिन वो आती थी उस दिन मैं भी माता रानी के मंदिर पहुंच जाता था। उसके चक्कर में मैंने भी माता रानी की भक्ति शुरू कर दी थी। वो मुझे मिलती और मुझे बिना किसी द्वेष भावना के प्रसाद देती और चली जाती। मैं उससे बात करने की कोशिश करता मगर उससे बात करने में पता नहीं क्यों मुझे झिझक सी होती थी और इस चक्कर में वो चली जाती थी। मैं खुद पर हैरान होता कि मैं लड़कियों और औरतों के मामले में इतना तेज़ था मगर रूपा के सामने पता नहीं क्या हो जाता था मुझे कि मैं उससे कोई बात नहीं कर पाता था।
ऐसे ही दो महीने गुज़र गए। मैं हर हप्ते उसी के जैसे माता रानी के मंदिर जाता और उससे प्रसाद ले कर चला आता। इस बीच इतना ज़रूर बदलाव आ गया था कि हम एक दूसरे से हाल चाल पूछ लेते थे मगर मेरे लिए सिर्फ हाल चाल पूछना और बताना ही काफी नहीं था। मुझे तो उसे हासिल करना था और उसके खूबसूरत बदन का रसपान करना था। जब मैंने जान लिया कि मेरी दाल रूपा पर गलने वाली नहीं है तो मैंने माता रानी के मंदिर जाना ही छोड़ दिया। ठाकुर वैभव सिंह हार मान गया था और अपना रास्ता बदल लिया था। ऐसे ही दो हप्ते गुज़र गए और मैं माता रानी के मंदिर नहीं गया। एक तरह से अब मैं रूपा को अपने ज़हन से निकाल ही देना चाहता था किन्तु मेरे लिए ये इतना आसान नहीं था।
तीसरे हप्ते मैं अपने दोस्त के घर जा रहा था कि रास्ते में मुझे रूपा मिल गई। मैंने बिलकुल भी उम्मीद नहीं की थी कि उससे मेरा इस तरह से सामना हो जाएगा। उसे देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं और दिल में घंटियां सी बजने लगीं। वो हाथ में पूजा की थाली लिए मंदिर जा रही थी और जब हम दोनों एक दूसरे के सामने आए तो हमारी नज़रें चार हो गई जिससे उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। उसकी ये मुस्कान हमेशा की तरह मेरे मन में उम्मीद जगा देती थी मगर दो महीने बाद भी जब मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी थी तो मैंने अब उसको हासिल करने का इरादा ही छोड़ दिया था मगर आज तो जैसे होनी कुछ और ही होने वाली थी।
"छोटे ठाकुर जी आज कल आप मंदिर क्यों नहीं आते।" अपने सामने मुझे देखते ही उसने मुस्कुराते हुए कहा____"कहीं चले गए थे क्या?"
"मंदिर आने का फायदा क्या है रूपा?" मैंने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"जिस देवी की भक्ति करने आता था उसे शायद मेरी भक्ति करना पसंद ही नहीं है। इस लिए मंदिर जाना ही छोड़ दिया।"
"कमाल है छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने अपनी उसी मुस्कान में कहा____"आपने ये कैसे सोच लिया कि देवी को आपकी भक्ति करना पसंद नहीं है? सच्चे दिल से भक्ति कीजिए। आपकी जो भी मुराद होगी वो ज़रूर पूरी होगी।"
"मेरे जैसा नास्तिक इंसान।" मैंने रूपा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"सच्चे दिल से ही भक्ति कर रहा था किन्तु मैं समझ गया हूं कि जिस देवी की मैं भक्ति कर रहा था वो देवी ना तो मुझे मिलेगी और ना ही वो मेरी मुराद पूरी करेगी।"
"इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने कहा___"इंसान को आख़िरी सांस तक प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि संभव है कि आख़िरी सांस के आख़िरी पल में उसे अपनी भक्ति करने का प्रतिफल मिल जाए।"
"यही तो समस्या है रूपा।" मैंने कहा____"कि इन्सान आख़िरी सांस तक का इंतज़ार नहीं करना चाहता बल्कि वो तो ये चाहता है कि भक्ति किये बिना ही इंसान के सारे मनोरथ सफल हो जाएं। मैं भी वैसे ही इंसानों में से हूं। ख़ैर सच तो ये है कि मैं तो मंदिर में आपकी ही भक्ति करने आता था। अब आप बताइए कि क्या आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हुई हैं?"
रूपा मेरी ये बात सुन कर एकदम से भौचक्की रह गई। आँखें फाड़े वो मेरी तरफ इस तरह देखने लगी थी जैसे अचानक ही मेरी खोपड़ी मेरे धड़ से अलग हो कर हवा में कत्थक करने लगी हो।
"ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर जी?" फिर रूपा ने चकित भाव से कहा____"आप माता रानी के मंदिर में मेरी भक्ति करने आते थे?"
"इसमे इतना चकित होने वाली कौन सी बात है रूपा?" मैंने कहा____"इन्सान को जो देवी जैसी लगे उसी की तो भक्ति करनी चाहिए ना? मेरी नज़र में तो आप ही देवी हैं इस लिए मैं आपकी ही भक्ति कर रहा था।"
"बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप।" रूपा जैसे बौखला सी गई थी____"भला ऐसा भी कहीं होता है? चलिए हमारा रास्ता छोड़िए। हमें मंदिर जाने में देर हो रही है।"
"जी बिल्कुल।" मैंने एक तरफ हटते हुए कहा____"आप मंदिर जाइए और अपनी देवी की भक्ति कीजिए और मैं अपनी देवी की भक्ति करुंगा।"
"करते रहिए।" रूपा ने कहा____"लेकिन याद रखिएगा ये देवी आपकी भक्ति से प्रसन्न होने वाली नहीं है। मैं समझ गई हूं कि आपकी मंशा क्या है। मैंने बहुत कुछ सुना है आपके बारे में।"
"बिल्कुल सुना होगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वैभव सिंह चीज़ ही ऐसी है कि हर कोई उसके बारे में जानता है। ख़ैर मैं बस ये कहना चाहता हूं कि भक्ति का जो उसूल है उसे आप तोड़ नहीं सकती हैं। इंसान जब किसी देवी देवता की भक्ति करता है तो देवी देवता उसकी भक्ति का प्रतिफल उसे ज़रूर देते हैं। इस लिए इस बात को आप भी याद रखिएगा कि मेरी भक्ति का फल आपको भी देना होगा।"
"भक्ति का सबसे बड़ा नियम ये है छोटे ठाकुर जी कि बिना किसी इच्छा के भक्ति करना चाहिए।" रूपा ने कहा____"अगर भक्त के मन में भगवान से कुछ पाने की लालसा होती है तो फिर उसकी भक्ति भक्ति नहीं कहलाती। ऐसे में कोई भी देवी देवता फल देने के लिए बाध्य नहीं होते।"
"मैं बस ये जानता हूं कि मेरी देवी इतनी कठोर नहीं है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"कि वो अपनी भक्ति करने वाले पर कोई नियम बना के रखे।"
रूपा मेरी सुन कर कुछ पलों तक मुझे देखती रही और फिर बिना कुछ बोले ही चली गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए दोस्त के घर की तरफ चला गया। आज मैं खुश था कि इस मामले में रूपा से कोई बात तो हुई। अब देखना ये था कि इन सब बातों का रूपा पर क्या असर होता है।
कुछ दिन ऐसे ही गुज़रे और फिर एक रात मैं हरिशंकर के घर पहुंच गया। घर के पिछवाड़े से होते हुए मैं रात के अँधेरे का फायदा उठाते हुए उस जगह पर पहुंच गया जहां पर रूपा के कमरे की खिड़की थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि उस तरफ बांस की एक सीढ़ी रखी हुई थी जिसे ले कर मैं रूपा के कमरे की खिड़की के नीचे दीवार पर लगा दिया। आस पास कोई नहीं था। मैं बहुत सोच विचार कर के ही यहाँ आया था। हलांकि यहाँ आना मेरे लिए ख़तरे से खाली नहीं था किन्तु वैभव सिंह उस बाला का नाम था जो ना तो किसी ख़तरे से डरता था और ना ही किसी के बाप से।
सीधी से चढ़ कर मैं खिड़की के पास पहुंच गया। दूसरे माले पर बने छज्जे पर चढ़ कर मैंने खिड़की के खुले हुए पल्ले से अंदर की तरफ देखा। कमरे में बिजली के बल्ब का धीमा प्रकाश था। आज दिन में ही मैंने पता करवा लिया था कि रूपा का कमरा कहां पर है इस लिए मुझे ज़्यादा परेशानी नहीं हुई थी। ख़ैर खिड़की के पल्ले से अंदर की तरफ देखा तो रूपा कमरे में रखे एक पलंग पर लेटी हुई नज़र आई। वो सीधा लेटी हुई थी और छत पर धीमी गति से चल रहे पंखे को घूर रही थी। यकीनन वो किसी ख़यालों में गुम थी। मैंने खिड़की के पल्ले को हाथ से थपथपाया तो उसकी तन्द्रा टूटी और उसने चौंक कर इधर उधर देखा।
मैंने दूसरी बार खिड़की के पल्ले को थपथपाया तो उसका ध्यान खिड़की की तरफ गया तो वो एकदम से घबरा गई। उसे लगा खिड़की पर कोई चोर है लेकिन तभी मैंने खिड़की के अंदर अपना सिर डाला और उसे हलके से आवाज़ दी। बिजली के बल्ब की धीमी रौशनी में मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बुरी तरह चौंकी। आँखें हैरत से फट पड़ी उसकी, जैसे यकीन ही न आ रहा हो कि खिड़की पर मैं हूं। मैंने उसे खिड़की के पास आने का इशारा किया तो वो घबराये हुए भाव लिए खिड़की के पास आई।
"छोटे ठाकुर जी आप इस वक्त यहाँ कैसे?" मेरे पास आते ही उसने घबराये हुए लहजे में कहा।
"अपनी देवी के दर्शन करने आया हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या करूं इस देवी का चेहरा आँखों में इस क़दर बस गया है कि उसे देखे बिना चैन ही नहीं आता। इस लिए न दिन देखा न रात। बस चला आया अपनी देवी के दर्शन करने।"
"ये आप बहुत ग़लत कर रहे हैं छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने इस बार थोड़े नाराज़ लहजे में कहा____"आप यहाँ से चले जाइये वरना मैं शोर कर के सबको यहाँ बुला लूंगी। उसके बाद क्या होगा ये आप भी बेहतर जानते हैं।"
"मैं तो बस अपनी देवी के दर्शन करने ही आया था रूपा।" मैंने कहा____"मेरे दिल में कोई ग़लत भावना नहीं है और अगर तुम शोर कर के अपने घर वालों को यहाँ बुलाना ही चाहती हो तो शौक से बुलाओ। तुम भी अच्छी तरह जानती हो कि इससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा बल्कि उल्टा तुम्हारे घर वाले तुम्हारे ही बारे में ग़लत सोचने लगेंगे।"
रूपा मेरी ये बात सुन कर हैरत से मेरी तरफ देखने लगी थी। उसके चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। मुझे उसके चेहरे पर ऐसे भाव देख कर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा।
"चिंता मत करो रूपा।" मैंने कहा____"मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करुंगा जिससे मेरी देवी के बारे में कोई भी ग़लत सोचे। दिल में अपनी देवी को देखने की बहुत इच्छा थी इस लिए रात के इस वक़्त यहाँ आया हूं। अब अपनी देवी को देख लिया है इस लिए जा रहा हूं। तुम भी आराम से सो जाओ। मैं दुआ करुंगा कि मेरी देवी को अपनी नींद में अपने इस भक्त का ही सपना आए।"
इतना कह कर मैं रूपा को हैरान परेशान हालत में छोड़ कर छज्जे से उतर कर सीढ़ी पर आया और फिर सीढ़ी से नीचे। बांस की सीढ़ी को उठा कर मैंने उसे उसी जगह पर रख दिया जहां पर वो पहले रखी हुई थी। उसके बाद मैं जैसे यहाँ आया था वैसे ही निकल भी गया।
ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैं अक्सर रात में रूपा की खिड़की पर पहुंच जाता और उसे देख कर वापस आ जाता। कुछ दिनों तक तो रूपा मेरी ऐसी हरकतों से बेहद चिंतित और परेशान रही किन्तु धीरे धीरे वो भी इस सबकी आदी हो गई। उसके बाद ऐसा भी हुआ कि रूपा को भी मेरा इस तरह से उसके पास आना अच्छा लगने लगा। फिर तो हालात ऐसे बन गए कि रूपा भी मुझसे ख़ुशी ख़ुशी बातें करने लगी। उसे भी मेरा रात में इस तरह छुप कर उसके कमरे की खिड़की के पास आना अच्छा लगने लगा। मैं समझ गया था कि रूपा अब मेरे जाल में फंस गई है और इससे मैं खुश भी था। वो हप्ते में माता रानी के मंदिर जाती थी किन्तु अब वो हर रोज़ जाने लगी थी। धीरे धीरे हमारे बीच हर तरह की बातें होने लगीं और फिर वो दिन भी आ गया जब रूपा के ही कमरे में और उसकी ही ख़ुशी से मैंने उसको भोगा। हलांकि इस हालात पर पहुंचने में दो महीने लग गए थे मगर मैं उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था। रूपा ने खुल कर मुझसे कह दिया था कि वो मुझसे प्रेम करने लगी है मगर उसे भोगने के बाद मैंने उसे अच्छी तरह समझाया था कि हम दोनों के खानदान के बीच के रिश्ते अच्छे नहीं हैं इस लिए हम दोनों का प्रेम एक दर्द की दास्ताँ बन कर रह जाएगा। इससे अच्छा तो यही है कि हम अपने इस प्रेम को अपने दिल तक ही सीमित रखें।
रूपा भी जानती थी कि हम दोनों के खानदान के बीच जो सम्बन्ध थे वो कभी भी अच्छे नहीं रहे थे। इस लिए रूपा ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया। मैंने रूपा को वचन दिया था कि मैं कभी भी उसे रुसवा नहीं करुंगा बल्कि हमेशा उसकी और उसके प्रेम की इज्ज़त करुंगा। उसके बाद जब भी रूपा को प्रेम मिलन की इच्छा होती तो वो मंदिर के बहाने आ कर मुझसे मिलती और कहती कि आज रात मैं उसके घर आऊं। रूपा के साथ मेरा सम्बन्ध गांव की बाकी हर लड़कियों से बहुत अलग था।
अभी मैं रूपा के बारे में ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र दूर से आती हुई बग्घी पर पड़ी। मैं समझ गया कि हवेली का कोई सदस्य मेरी तलाश करता हुआ इस तरह आ रहा है। बग्घी अभी दूर ही थी इस लिए मैं जामुन के उस पेड़ से निकल कर खेतों में घुस गया। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता मैं रूपा के द्वारा ही लगाऊंगा। खेत में गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और मैं उसी के बीच बैठ गया था जिससे किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ सकती थी। कुछ ही देर में बग्घी मेरे सामने सड़क पर आई। मेरी नज़र बग्घी में बैठे हुए शख़्स पर पड़ी तो मैं हलके से चौंक पड़ा।
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बहुत ही शानदार अपडेट है । आखिरकार वैभव की फसल जलाने वाले का पता तो चल गया ।और ये साहुकारो के लड़के वैभव के पास ही पिटने के लिए क्यू आते है साले जो भी आता है वैभव की गांड़ में उंगली करता है और गांड़ मरवा कर चला जाता है अनुराधा ने वैभव से सब रूपचंद के कहने पर बोला है रूपचंद अपने कर्जे की वसूली करने आता है लेकिन वैभव उसकी गांड़ मार कर भगा देता है साला ये ठाकुर कितनी सफाई देगा रोज रोज देर सवेर मुरारी काका के हत्यारे का पता भी चल ही जाएगा । जगताप ठाकुर के साथ साहूकार का बेटा बग्गी में क्या कर रहा था☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 19
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अब तक,,,,,,
अभी मैं रूपा के बारे में ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र दूर से आती हुई बग्घी पर पड़ी। मैं समझ गया कि हवेली का कोई सदस्य मेरी तलाश करता हुआ इस तरह आ रहा है। बग्घी अभी दूर ही थी इस लिए मैं जामुन के उस पेड़ से निकल कर खेतों में घुस गया। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता मैं रूपा के द्वारा ही लगाऊंगा। खेत में गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और मैं उसी के बीच बैठ गया था जिससे किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ सकती थी। कुछ ही देर में बग्घी मेरे सामने सड़क पर आई। मेरी नज़र बग्घी में बैठे हुए शख़्स पर पड़ी तो मैं हलके से चौंक पड़ा।
अब आगे,,,,,,
बग्घी में बैठे हुए शख़्स को देख कर मैं चौंका तो था ही किन्तु सोच में भी पड़ गया था। साहूकारों ने ठाकुरों से अपने रिश्ते सुधार लिए थे मगर उसका असर इतना जल्दी देखने को मिलेगा इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। बग्घी में मझले चाचा जगताप के साथ शाहूकार हरिशंकर का दूसरा बेटा रूपचंद्र बैठा हुआ था और उसी को देख कर मैं चौंका था।
बग्घी में मझले चाचा रूपचंद्र के साथ थे और आगे बढ़े जा रहे थे। पहले तो मैंने यही सोचा था कि बग्घी में मेरे परिवार का कोई सदस्य होगा जो कि मुझे खोजने के लिए आया होगा लेकिन यहाँ तो कुछ और ही दिख रहा था। ख़ैर बग्घी काफी आगे निकल चुकी थी इस लिए मैं भी खेतों से निकल कर उनके पीछे हो लिया। मैं देखना चाहता था कि मझले चाचा जी रूप चंद्र के साथ आख़िर जा कहां रहे हैं?
बग्घी में पीछे की तरफ छतुरी जैसा बना हुआ था जिससे उसमे बैठा हुआ इंसान पीछे की तरफ देख नहीं सकता था। मैं तेज़ तेज़ क़दमों के साथ चलते हुए बग्घी का पीछा कर रहा था। हलांकि बग्घी की रफ़्तार मुझसे ज़्यादा थी लेकिन मैं फिर भी उससे अपनी दूरी बराबर ही बना कर चल रहा था। कुछ देर बाद बग्घी मुख्य सड़क से नीचे उतर कर पगडण्डी में आ गई। ये पगडण्डी वाला वही रास्ता था जो बंज़र ज़मीन और मेरे झोपड़े की तरफ जाता था।
बग्घी को पगडण्डी में मुड़ते देख मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि ये लोग उधर क्यों जा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जगताप चाचा जी सच में ही मुझे खोजने निकले हों? उन्होंने सोचा होगा कि हवेली से निकलने के बाद मैं शायद अपने झोपड़े में ही गया होऊंगा। ऐसा भी हो सकता है कि मुंशी हवेली गया हो और वहां पर जगताप चाचा जी ने उससे मेरे बारे में पूछा हो या फिर मुंशी ने खुद ही उन्हें बताया हो।
मैं तेज़ तेज़ चलते हुए बग्घी का पीछा कर रहा था और इस चक्कर में मेरी साँसें फूल गईं थी और मेरे पैर भी दुखने लगे थे मगर मैं फिर भी बढ़ता ही जा रहा था। कुछ ही समय में बग्घी मेरे झोपड़े के पास पहुंच कर रुक गई। मैं उनसे बीस पच्चीस क़दम की दूरी पर था। मैंने देखा कि बग्घी के रुकते ही जगताप चाचा जी और रूपचंद्र बग्घी से नीचे उतरे और झोपड़े की तरफ बढ़ गए। इसका मतलब वो लोग मुझे ही खोजने आये थे।
मेरे मन में ख़याल उभरा कि मुझे उन दोनों की बातें सुननी चाहिए। मुझे जगताप चाचा जी के साथ शाहूकार के लड़के का होना बिलकुल भी हजम नहीं हो रहा था इस लिए मैं सावधानी से आगे बढ़ चला। कुछ ही देर में मैं झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास इक्का दुक्का पेड़ थे बाकी झाड़ियां थी। मैं छिपते छिपाते चलते हुए झाड़ियों के बीच आ कर रुक गया। यहाँ से झोपड़ा क़रीब दस कदम की दूरी पर था।
"यहां भी नहीं है तो फिर कहां गया होगा वैभव?" चाचा जी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"मुंशी जी ने तो कहा था कि वो सुबह इसी तरफ गया था।"
"कहीं ऐसा तो नहीं कि वो आपके बगीचे वाले मकान में गए हों?" रूपचंद्र की आवाज़ आई____"वो जगह उनके रुकने के लिए काफी बेहतर है। मेरे ख़याल से आपको वहीं जाना चाहिए।"
"क्यों, तुम नहीं चलोगे क्या साथ में?" चाचा जी ने पूछा तो रूपचंद्र ने कहा____"आप जाइए चाचा जी। मुझे इस गांव में कुछ ज़रूरी काम है इस लिए मैं आपके साथ अब नहीं जा पाऊंगा।"
"अच्छा ठीक है।" चाचा जी ने कहा____"लेकिन वापसी में क्या पैदल आओगे तुम?"
"मैंने गौरव से बताया था कि मुझे इस गांव में कुछ काम है।" रूपचंद्र ने कहा____"इस लिए वो मुझे लेने के लिए मोटर साइकिल ले के आ जाएगा। आप मेरी चिंता मत कीजिए।"
"फिर ठीक है।" चाचा जी ने कहा और फिर वो चल कर बग्घी के पास आए।
झाड़ियों के बीच छुपा बैठा मैं उन्हें देख रहा था। चाचा जी बग्घी में बैठे और घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल पड़े। जगताप चाचा जी के जाने के बाद रूपचंद्र के होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और फिर उसने एक बार मेरे झोपड़े को देखा, उसके बाद वो मुरारी काका के गांव की तरफ जाने वाली पगडण्डी पर चल पड़ा।
रूपचंद्र मुरारी काका के गांव की तरफ जा रहा था और मैं ये सोचने लगा था कि उसका मुरारी काका के गांव में कौन सा ज़रूरी काम हो सकता है? अपने मन में उठे इस सवाल का जवाब पाने के लिए मैंने फैसला किया कि मुझे भी उसके पीछे जाना चाहिए। ये सोच कर मैं फ़ौरन ही झाड़ियों से निकला और रूपचंद्र के पीछे हो लिया।
पगडण्डी के दोनों तरफ सन्नाटा फैला हुआ था। कुछ दूरी से दूसरे गांव के खेत दिखने लगते थे जहां पर कुछ किसान लोग अपने खेतों की कटाई में लगे हुए थे। इक्का दुक्का पेड़ भी लगे हुए थे। मैं बहुत ही सावधानी से रूपचंद्र का पीछा कर रहा था। मुझे इस बात का डर भी था कि अगर उसने पलट कर पीछे देखा तो मैं ज़रूर उसकी नज़र में आ जाऊंगा क्योंकि इस तरफ छुपने का कोई ज़रिया नहीं था।
रूपचंद्र अपनी ही धुन में चला जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उसे किसी बात की फ़िक्र ही ना हो। हलांकि मेरे लिए ये अच्छी बात ही थी क्योंकि वो अपनी धुन में जा रहा था और ऐसे में इंसान इधर उधर या पीछे पलट कर नहीं देखता। कुछ ही समय बाद मुझे मुरारी काका का घर दिखने लगा। जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि मुरारी काका का घर उसके गांव से अलग हट कर बना हुआ था, जहां पर उसके खेत थे। एक तरह से ये समझ लीजिए कि मुरारी काका का घर उसके खेत में ही बना हुआ था।
रूपचंद्र मुझसे क़रीब पंद्रह बीस क़दम की दूरी पर था। मुरारी काका के घर के पास कुछ पेड़ पौधे लगे थे जिससे अब अगर रूपचंद्र पलट कर पीछे देखता भी तो मैं आसानी से किसी न किसी पेड़ के पीछे खुद को छुपा सकता था। मुरारी काका के घर के पास पहुंच कर रूपचंद्र रुक गया और फिर इधर उधर देखने लगा। मैं समझ गया कि वो पलट कर पीछे भी देखेगा इस लिए मैं जल्दी से पास के ही एक पेड़ के पीछे छुप गया। पेड़ के पीछे से मैंने हल्का सा सिर बाहर निकाल कर देखा तो सचमुच रूपचंद्र पीछे ही देख रहा था। हलांकि वो मुझे देख नहीं सकता था क्योंकि इस वक़्त वो ये उम्मीद ही नहीं कर सकता था कि कोई उसका पीछा कर रहा होगा। इस लिए उसने फौरी तौर पर इधर उधर देखा और फिर मुरारी काका के घर की तरफ बढ़ चला।
रूपचंद्र को मुरारी काका के घर की तरफ बढ़ते देख मैं चौंक गया था और साथ ही ये भी सोचने लगा था कि रूपचंद्र मुरारी काका के घर की तरफ क्यों जा रहा होगा? आख़िर मुरारी काका के घर में इस वक़्त वो किससे मिलने जा रहा होगा? पलक झपकते ही ऐसे न जाने कितने ही सवाल मेरे ज़हन में उभरते चले गए थे और इस सबकी वजह से मेरे ज़हन में एक अजीब सी आशंका ने जन्म ले लिया था।
मैंने देखा कि रूपचंद्र मुरारी काका के घर के दरवाज़े पर पहुंच कर रुक गया था। इस वक़्त आस पास कोई नहीं था। घर के सामने सड़क के किनारे पर पेड़ के नीचे जो चबूतरा बना था वो भी खाली था इस वक़्त। फसलों की कटाई का मौसम था इस लिए मैं समझ सकता था कि लोग इस वक़्त अपने अपने खेतों में कटाई करने गए होंगे।
दरवाज़े के पास पहुंच कर रूपचंद्र ने एक बार फिर से इधर उधर देखा और फिर उसने दरवाज़े की कुण्डी पकड़ कर दरवाज़े पर बजाया। कुछ ही देर में दरवाज़ा खुला और मैंने रूपचंद्र के चेहरे पर अचानक ही उभर आई चमक को देखा और साथ ही उसके होठों पर फ़ैल गई मुस्कान को भी। पेड़ के पीछे से मुझे दरवाज़े के उस पार का दिख नहीं रहा था इस लिए मैं ये न जान सका कि दरवाज़ा किसने खोला था। हलांकि मेरा अंदाज़ा ये था कि दरवाज़ा अनुराधा ने ही खोला होगा क्योंकि उसकी माँ इस वक़्त गेहू की फसल काटने के लिए खेतों पर गई होगी।
रूपचंद्र दरवाज़े के पास कुछ पलों तक खड़ा कुछ बोलता रहा और फिर वो दरवाज़े के अंदर दाखिल हो गया। मेरे दिल की धड़कनें ये सोच कर ज़ोर ज़ोर से चलने लगीं थी कि आख़िर रूपचंद्र इस वक्त अनुराधा के घर पर किस लिए आया होगा? क्या अनुराधा से उसका कोई चक्कर है? इस ख़याल के साथ ही मेरी आँखों के सामने अनुराधा का मासूमियत से भरा चेहरा उजागर हो गया। मैं सोचने लगा कि क्या अनुराधा का कोई सम्बन्ध शाहूकार हरिशंकर के लड़के रूपचंद्र से हो सकता है? मेरा दिल ये मानने को तैयार ही नहीं था मगर मैं ये भी जानता था कि किसी के अंदर क्या है इस बारे में भला कोई कैसे जान सकता है?
उधर रूपचंद्र जैसे ही दरवाज़े के अंदर दाखिल हुआ तो दरवाज़ा बंद हो गया। ये देख कर मेरे मन में और भी कई तरह की आशंकाए उभरने लगीं। मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या मुझे ये पता करना चाहिए कि इस वक्त घर के अंदर रूपचंद्र और अनुराधा के बीच क्या बातें हो रही हैं? मेरे मन में उभरे इस सवाल का जवाब भी मेरे मन ने ही दिया कि बिलकुल मुझे इस बात का पता लगाना ही चाहिए।
मैं इधर उधर नज़र घुमा कर पेड़ के पीछे से निकला और तेज़ी से मुरारी काका के घर की तरफ बढ़ गया। दरवाज़े के पास पहुंच कर मैंने दरवाज़े की झिरी से अंदर देखने की कोशिश की तो जल्द ही मुझे अंदर आँगन में रूपचंद्र और अनुराधा खड़े हुए दिख गए। जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि मुरारी काका का घर मिट्टी का बना हुआ था और सामने वाली दीवार एक ही थी जिस पर दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े के अंदर जाते ही आँगन मिल जाता था।
दरवाज़े की झिरी से मुझे रूपचंद्र और अनुराधा दोनों ही नज़र आ रहे थे। रूपचंद्र की पीठ दरवाज़े की तरफ थी और अनुराधा का चेहरा दरवाज़े की तरफ होने से मैं साफ़ देख सकता था कि इस वक्त उसके चेहरे पर कैसे भाव थे।
अनुराधा के चेहरे पर इस वक़्त चिंता और परेशानी वाले भाव थे। उसने अपनी गर्दन को हल्का सा झुकाया हुआ था। उसके दोनों हाथ उसके सीने पर पड़े दुपट्टे के छोरों को पकड़ कर बेचैनी से उमेठने में लगे हुए थे। दोनों के बीच ख़ामोशी थी। मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था और मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि आख़िर रूपचंद्र इस वक़्त यहाँ आया क्यों होगा?
"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने दो क़दम अनुराधा की तरफ बढ़ते हुए कहा____"तुम मुझसे इतना डर क्यों रही हो? मैं तुम्हें खा थोड़ी न जाऊंगा।"
"जी वो..।" अनुराधा सहम कर दो क़दम पीछे हटते हुए बोली____"आपने उस दिन जैसा कहा था मैंने छोटे ठाकुर से वैसा ही कह दिया था। उसके बाद फिर वो दुबारा मेरे घर नहीं आए।"
"उसे आना भी नहीं चाहिए यहां।" रूपचंद्र चल कर अनुराधा के पीछे गया और फिर कमीनी मुस्कान के साथ उसके कान के पास अपना मुँह ला कर बोला____"क्योंकि इसी में तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की भलाई है। ख़ैर छोड़ो ये बात, अगर तुम मेरे कहे अनुसार चलोगी तो फ़ायदे में ही रहोगी। उस वैभव के बारे में अब सोचना भी मत। वो तुम लोगों का साथ नहीं देगा और ना ही कोई मदद करेगा। मदद भी वो तभी कर पाएगा न जब वो मदद करने के लिए खुद सक्षम हो। तुम्हें पता है कल उसने फिर से हमसे झगड़ा किया था। मेरे ताऊ ने उसे थोड़ा सा उकसाया तो उसकी गांड में आग लग गई और फिर वो मेरे ताऊ के लड़कों से भिड़ गया। हाहाहा कसम से मैंने ऐसा लम्पट और मूर्ख आदमी अपने जीवन में कभी नहीं देखा। ख़ैर हमारे लिए तो अच्छा ही है। पता चला है कि अपने बाप से भी भिड़ गया था और फिर गुस्से में हवेली छोड़ कर चला गया है कहीं। अब तुम समझ सकती हो कि वो तुम लोगों की ना तो कोई मदद कर सकता है और ना ही तुम्हारे बाप का कर्ज़ा चुका सकता है।"
रूपचंद्र की बातें सुन कर जहां एक तरफ अनुराधा एकदम चुप थी वहीं दूसरी तरफ उसकी बातें सुनकर मेरी झांठें सुलग गईं थी। मन तो किया कि अभी दरवाज़े को एक लात मार कर खोल दूं और फिर अंदर जा कर रूपचंद्र की गर्दन पकड़ लूं मगर फिर मैंने ये सोच कर अपने गुस्से को काबू किया कि देखूं तो सही, ये शाहूकार का पूत और क्या क्या बोलता है अनुराधा से।
"तुम्हारी माँ ने मुझे इजाज़त दी थी कि मैं अपना कर्ज़ा तुम्हारी इस मदमस्त जवानी का रसपान कर के वसूल कर लूं।" रूपचंद्र ने पीछे से अनुराधा की गर्दन के पास हल्के से चूमते हुए कहा____"मगर मैंने अभी तक ऐसा नहीं किया। जानती हो क्यों? क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम ख़ुद अपनी ख़ुशी से अपने इस हुस्न को मेरे सामने बेपर्दा करो और फिर मुझसे कहो कि मेरे इस गदराए हुए जिस्म को जैसे चाहो मसलो और जैसे चाहो भोग लो।"
रूपचंद्र की बातें सुन कर अनुराधा की आँखों से आंसू छलक पड़े। उसके चेहरे पर दुःख संताप और अपमान के भाव उभर आये थे। तभी वो अचानक ही आगे बढ़ कर रूपचंद्र की तरफ पलटी और फिर कातर भाव से बोली____"ऐसा मत कीजिए। मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूं। आप चाहें तो अपना कर्ज़ हमारी ज़मीनें ले कर चुकता कर लीजिए मगर मेरे साथ ऐसा मत कीजिए।"
"ज़मीनों का मैं क्या करुंगा मेरी जान?" रूपचंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा____"वो तो मेरे पास बहुत हैं मगर तुम्हारे जैसी हूर की परी नहीं है मेरे पास। जब से मुझे पता चला था कि उस हरामज़ादे वैभव की नज़र भी तुम पर है तब से मैंने भी ये सोच लिया था कि अब तुम और तुम्हारा ये गदराया हुआ मादक जिस्म सिर्फ और सिर्फ मेरा ही होगा। वैभव को रास्ते से हटाने का कोई तरीका नहीं मिल रहा था मुझे मगर भगवान की दया से तरीका मिल ही गया। एक रात मैं उसका पीछा करते हुए यहाँ आया तो देखा घर के पीछे तुम्हारी माँ नंगी हो कर उस हरामज़ादे से अपनी चूत मरवा रही थी। पहले तो मैं ये सब देख कर बड़ा ही हैरान हुआ मगर फिर अचानक ही मेरे अकल के दरवाज़े खुले और इस सब में मुझे एक मस्त उपाय नज़र आया। मैंने सोच लिया कि तेरी माँ को इसके लिए मजबूर करुंगा और उससे कहूंगा कि अगर उसने अपनी बेटी को मेरे लिए राज़ी नहीं किया तो पूरे गांव में इस बात की डिग्गी पिटवा दूंगा कि उसका दादा ठाकुर के बेटे वैभव के साथ नाजायज़ सम्बन्ध है। ख़ैर उस रात मैं वैभव का वो कारनामा देख कर चुपचाप चला गया था। सोचा था कि मौका देख कर यहां आऊंगा और तुम्हारी मां से इस सिलसिले में बात करूंगा। वैभव को अपने रास्ते से हटाने के लिए मैंने बहुत सोच समझ कर ये क़दम उठाया था। ख़ैर उस दिन मैं घर से चला तो पता चला कि तुम्हारे बाप की किसी ने हत्या कर दी है। मैं ये जान कर एकदम से उछल ही पड़ा था और सोचने लगा कि साला अब ये क्या काण्ड हो गया? ऐसे हालात में मैं अपने उस काम को अंजाम नहीं दे सकता था लेकिन मैं ये ज़रूर पता करने में लग गया कि तुम्हारे बाप की हत्या किसने की होगी। इसका पता जल्द ही चल गया मुझे। मेरे एक आदमी ने बताया कि तुम्हारा काका जगन अपने भाई की अत्या का जिम्मेदार वैभव को मान रहा है। ये जान कर तो मैं खुशी से बौरा ही गया और मन ही मन हंसते हुए सोचा कि उस वैभव के तो लौड़े ही लग गए। तुम्हारे बाप की इस हत्या से मुझे वैभव को अपने रास्ते से हटाने का एक और उपाय मिल गया। पहले तो मैं तुम्हारी माँ से मिला और उसे बताया कि वैभव के साथ उसकी मज़े की दास्तान का मुझे पता है इस लिए अगर वो अपनी इज्ज़त सरे बाज़ार नीलाम होता नहीं देखना चाहती तो वो वही करे जो मैं कहूं। तुम्हारी माँ मरती क्या न करती वाली हालत में फंस गई थी। आख़िर उसे मजबूर हो कर मेरी बात माननी ही पड़ी मगर उसने मुझसे ये कहा कि वो खुद अपनी बेटी से इस बारे में बात नहीं कर सकती, इस लिए मुझे खुद ही उससे बात करना होगा। तुम्हारी माँ की इजाज़त मिलते ही मैं शेर से सवा शेर बन गया।"
रूपचंद्र की बातें सुन कर अनुराधा थर-थर कांपती हुई खड़ी थी। भला वो ऐसी परिस्थिति में कर भी क्या सकती थी? जबकि मैं रूपचंद्र की बातें सुन कर गुस्से से उबलने लगा था। उधर रूपचंद्र कुछ देर सांस लेने के लिए रुक गया था और अनुराधा के पीछे खड़ा वो अनुराधा की दाहिनी बांह पर अपना हाथ फेरने लगा था। उसके ऐसा करने से अनुराधा बुरी तरह कसमसाने लगी थी।
"उस दिन वैभव जब तुम्हारे घर आया तो उधर मैं उसके झोपड़े की तरफ गया।" रूपचंद्र ने अनुराधा को अपनी तरफ पलटा कर कहा____"झोपड़े के सामने खेत पर मेरी नज़र उस जगह पड़ी जहां पर उसने गेहू की पुल्लियों के गट्ठे जमा कर रखे थे। ये देख कर मैं मुस्कुराया। उस साले ने हमेशा ही हमें नीचे दिखाया था जिससे उसके प्रति हमारे मन में हमेशा ही गुस्सा और नफ़रत भरी रही थी। उसकी फसल के गड्ड को देख कर मैंने सोचा कि क्यों न उसकी मेहनत को आग के हवाले कर दिया जाए। ये सोच कर मैं खेत की तरफ बढ़ा और फिर जेब से माचिस निकाल कर मैंने उसके गेहू के उस गड्ड में माचिस की जलती हुई तीली छुआ दी। सूखी हुई गेहू की फसल में आग लगने में ज़रा भी देर न लगी। देखते ही देखते आग ने उसकी पूरी फसल को अपनी चपेट में ले लिया। ये सब करने के बाद मैं फ़ौरन ही वहां से नौ दो ग्यारह हो गया। वैभव की फसल में आग लगाने से मैं बड़ा खुश था। पहली बार उसे उस तरह से शिकस्त दे कर मुझे ख़ुशी महसूस हो रही थी। मैं जानता था कि जब वो ये सब देखेगा तो उसकी गांड तक जल कर ख़ाक हो जाएगी और वो गुस्से में अपने बाल नोचने लगेगा। पगलाया हुआ वो इधर उधर भटकते हुए उस इंसान की खोज करेगा जिसने उसकी इतनी मेहनत से उगाई हुई फसल में आग लगाईं थी।"
रूपचंद्र फिर से चुप हुआ तो इस बार मेरी आँखों से गुस्से की आग जैसे लपटों में निकलती हुई नज़र आने लगी थी। तो मेरी फसल को आग लगाने वाला हरिशंकर ये बेटा रूपचंद्र था और मैं बेवजह ही उस साए को दोष दे रहा था जो उस रात मुझसे टकराया था।
"उसके बाद मेरे मन में बस तुम्हें ही पाने की इच्छा बची थी।" रूपचंद्र ने अनुराधा के चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा____"वैभव सिंह हवेली लौट गया था और इधर मैं तुम्हारे घर पर आ धमका। तुम्हें उसके और तुम्हारी माँ के बारे में सब कुछ बताया और फिर कहा कि अब जब वो कमीना वैभव तुम्हारे घर आये तो तुम्हें उससे वही कहना है जो मैं तुम्हें कहने को बोलूंगा। उस दिन जब तुमने वैभव से वो सब कहा था तब मैं तुम्हारी रसोई के अंदर खड़ा सब कुछ देख सुन रहा था। मैंने देखा था कि कैसे वो हरामज़ादा तुम्हारी बातें सुन कर सकते में आ गया था और फिर जब तुमने उससे ये कहा कि अब तुम उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती तो कैसे उसका चेहरा देखने लायक हो गया था। बेचारा भावना में बह गया था। मुझे तो उस वक़्त उसकी शक्ल देख कर बड़ी हंसी आ रही थी। ख़ैर अब छोडो ये सब बातें और चलो कमरे में चलते हैं।"
"नहीं नहीं।" रूपचंद्र की ये बात सुन कर अनुराधा एकदम से घबरा कर पीछे हट गई, फिर बोली____"भगवान के लिए मुझ पर दया कीजिए। मेरी ज़िन्दगी बर्बाद मत कीजिए।"
"ऐसा नहीं हो सकता मेरी गुले गुलज़ार।" आगे बढ़ते हुए रूपचंद्र ने कमीनी मुस्कान के साथ कहा_____"तुम्हें पाने के लिए मैंने कितने सारे पापड़ बेले हैं। मेरी इतनी मेहनत पर ऐसे तो न पानी फेरो मेरी जान। चलो जल्दी कमरे में चलो। मैं अब और ज़्यादा बरदास्त नहीं कर सकता। तुम्हारे इस गदराये हुए बदन को चाटने के लिए मेरी जीभ लपलपा रही है। तुम्हारे इन सुर्ख और रसीले होठों की शहद को चखने के लिए मेरा मन मचला जा रहा है।"
"नही नहीं।" अनुराधा बुरी तरह रोती हुई घर के पीछे की तरफ जाने वाले दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ी। उसे भागता देख रूपचंद्र बड़ी ही बेहयाई से हँसा और फिर तेज़ी से उसके पीछे दौड़ पड़ा। इधर मैं भी समझ गया कि इस खेल को यहीं पर समाप्त करने का अब वक़्त आ गया है।
मैं तेज़ी से खड़ा हुआ और ज़ोर से दरवाज़े पर लात मारी तो दरवाज़ा भड़ाक से खुल गया। असल में दरवाज़ा अंदर से कुण्डी लगा कर बंद नहीं किया गया था। शायद रूपचंद्र को कुण्डी लगाने का ध्यान ही नहीं रहा होगा या फिर उसे इतना यकीन था कि इस वक़्त यहाँ पर कोई नहीं आ सकता।
दरवाज़ा जब तेज़ आवाज़ करते हुए खुला तो अनुराधा के पीछे भागता हुआ रूपचंद्र एकदम से रुक गया। अनुराधा भी दरवाज़े की तेज़ आवाज़ सुन कर ठिठक गई थी। इधर दरवाज़ा खुला तो मैं अंदर दाखिल हुआ। रूपचंद्र की नज़र जब मुझ पर पड़ी तो उसकी जैसे माँ बहन नानी मामी सब एक साथ ही मर गईं। आँखों में आश्चर्य और दहशत लिए वो बुत बना मेरी तरफ देखता ही रह गया था, जबकि अनुराधा ने जब मुझे देखा तो उसके चेहरे पर राहत के साथ साथ ख़ुशी के भी भाव उभर आए।
"इस वक़्त मेरे हाथ पैर मुझसे चीख चीख कर कह रहे हैं कि रूपचंद्र नाम के इस आदमी को तब तक मारुं जब तक कि उसके जिस्म से उसकी नापाक रूह नहीं निकल जाती।" दरवाज़े को अंदर से कुण्डी लगा कर बंद करने के बाद मैं रूपचंद्र की तरफ बढ़ते हुए सर्द लहजे में कहा____"इस वक़्त दुनिया की कोई भी ताकत तुझे मुझसे नहीं बचा सकती नाजायज़ों की औलाद।"
"आ आप यहाँ कैसे????" रूपचंद्र मारे डर के हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से बोला।
"हम तो हर जगह जिन्न की तरह प्रगट हो जाते हैं रूप के चांद।" मैंने उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा_____"मैंने सुना कि तूने अनुराधा को पाने के लिए न जाने कितने ही पापड़ बेले हैं और ये भी सुना कि उसके गदराये हुए बदन को चाटने के लिए तेरी जीभ लपलपाई जा रही है।"
"नहीं तो।" रूप चंद्र बुरी तरह हड़बड़ा गया____"मैंने ऐसा तो कुछ नहीं कहा छोटे ठाकुर। आप तो बेवजह ही जाने क्या क्या कहे जा रहे हैं आअह्ह्ह्हह।"
"महतारीचोद।" मैंने बिजली की सी तेज़ी से रूपचंद्र के पास पहुंच कर उसके चेहरे में एक घूंसा मारा तो वो उछल कर दूर जा गिरा, जबकि उसकी तरफ बढ़ते हुए मैंने गुस्से से कहा____"क्या समझता है मुझे कि मैं निरा चूतिया हूं....हां?"
"ये आप ठीक नहीं कर रहे छोटे ठाकुर।" मैंने झुक कर रूपचंद्र को उसकी शर्ट का कॉलर पकड़ कर उठाया तो वो बोल पड़ा____"आपको शायद पता नहीं है कि अब ठाकुरों से हमारे रिश्ते सुधर चुके हैं आआह्ह्ह्।"
"मैं जानता हूं मादरचोद कि तुम हरामज़ादों ने किस लिए हमसे अपने रिश्ते सुधारे हैं।" रूपचंद्र के पेट में मैंने ज़ोर से घुटने का वार किया तो वो दर्द से कराह उठा, जबकि मैंने आगे कहा____"दोस्ती कर के पीठ पर छूरा मारना चाहते हो तुम लोग।"
"नहीं छोटे ठाकुर।" दर्द से बिलबिलाते हुए रूपचंद्र ने कहा____"आप ग़लत समझ रहे हैं।
"तेरी माँ को चोदूं मादरचोद।" मैंने रूपचंद्र को उठा कर आँगन की कच्ची ज़मीन पर पटक दिया जिससे उसके हलक से ज़ोरदार चीख निकल गई____"तू मुझे बताएगा कि मैं क्या समझ रहा हूं? तुझे क्या लगा कि मुझे कुछ पता ही नहीं है? जब तू जगताप चाचा जी के साथ बग्घी में बैठ कर आ रहा था तभी से मैं तेरे पीछे लगा हुआ था। जगताप चाचा जी के साथ तू मेरे झोपड़े तक आया उसके बाद तूने उन्हें ये कह कर वापस भेज दिया कि तुझे इस गांव में कोई ज़रूरी काम है। मैंने भी सोचा कि देखूं तो सही कि तेरा इस गांव में कौन सा ज़रूरी काम है। उसके बाद तेरा पीछा करते हुए जब यहाँ आया तो देखा और सुना भी कि तेरा ज़रूरी काम क्या था।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" मेरी बात सुन कर रूपचंद्र पहले तो बुरी तरह हैरान हुआ था फिर अचानक ही रंग बदल कर गिड़गिड़ाते हुए बोला____"मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है। मैं आपसे वादा करता हूं कि अब से ऐसी ग़लती नहीं होगी।"
"तू साले जलती आग में कूद कर भी कहेगा ना कि अब से तू ऐसा नहीं करेगा तब भी मैं तेरा यकीन नहीं करुंगा।" मैंने उसके पेट में एक लात लगाते हुए कहा____"क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम लोगों की ज़ात कुत्ते की पूंछ वाली है जो कभी सुधर ही नहीं सकती।"
"मां की कसम छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र ने गले में हाथ लगाते हुए जल्दी से कहा____"मैं अब से ऐसा कुछ भी नहीं करुंगा।"
"अगर तू यहाँ पर मेरे द्वारा रंगे हाथों पकड़ा न गया होता।" मैंने उसे फिर से उठाते हुए कहा____"तो क्या तू ऐसा कहने के बारे में सोचता?"
मेरी बात सुन कर रूपचंद्र कुछ न बोला। उसका चेहरा भय के मारे पीला ज़र्द पड़ चुका था। जब वो कुछ न बोला तो मैंने सर्द लहजे में कहा_____"तेरी चुप्पी ने मुझे बता दिया है कि तू ऐसा नहीं सोचता। क्या कहा था तूने अनुराधा से कि कमरे में चल?"
"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र रो देने वाले लहजे में बोला____"मैं अब सपने में भी अनुराधा को ऐसा नहीं कहूंगा। यहाँ तक कि उसके बाप ने जो कर्ज़ा लिया था उस कर्ज़े को भी भूल जाऊंगा।"
"वो तो तू अगर ना भी भूलता तब भी तुझे भूलना ही पड़ता बेटीचोद।" मैंने खींच के एक थप्पड़ उसके गाल पर मारा तो वो लहरा गया, जबकि मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए उससे कहा____"ये हरामज़ादा तुम्हें इस तरह से जलील कर रहा था और तुमने मुझे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा कुछ न बोल सकी बल्कि सिर को झुकाए अपनी जगह पर खड़ी रही। उसके कुछ न बोलने पर मैंने कहा____"कितना कर्ज़ा लिया था मुरारी काका ने इससे?"
"मुझे नहीं पता छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने धीमे स्वर में नज़रें झुकाये हुए ही कहा____"मां को पता होगा।"
"तू बता बे मादरचोद।" मैंने रूपचंद्र की तरफ गुस्से से देखते हुए कहा____"कितना कर्ज़ा दिया था तूने मुरारी काका को?"
"वो तो पिता जी ने दिया था।" रूपचंद्र ने सहमे हुए लहजे में कहा____"मैं बस इतना ही जानता हूं कि अनुराधा के बाप ने मेरे पिता जी से दो साल पहले कर्ज़ा लिया था जिसे वो अब तक चुका नहीं पाया था।"
"तो क्या तेरे बाप ने तुझे कर्ज़ा वसूली के लिए यहाँ भेजा था?" मैंने गुस्से से दाँत पीसते हुए पूछा तो रूपचंद्र जल्दी से बोला____"नहीं छोटे ठाकुर। वो तो मैं अपनी मर्ज़ी से ही कर्ज़ा वसूलने के बहाने यहाँ आया था।"
"मन तो करता है कि तुझे भी वैसे ही आग लगा कर जला दू जैसे तूने मेरी फसल को जलाया था।" मैंने उसके चेहरे पर ज़ोर से घूंसा मारते हुए कहा तो वो चीखते हुए दूर जा गिरा, जबकि मैं उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला_____"मगर मैं तुझे जलाऊंगा नहीं बल्कि तेरे उस हाथ को तोड़ूंगा जिस हाथ से तूने मेरी फसल को आग लगाया था। चल बता किस हाथ से आग लगाया था तूने?"
"माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र डर के मारे रो ही पड़ा_____"मैं आपकी टट्टी खाने को तैयार हूं मगर भगवान के लिए मुझे माफ़ कर दीजिए।"
"बता मादरचोद वरना दोनों हाथ तोड़ दूंगा।" मैंने ज़ोर से एक लात उसके पेट में मारी तो वो पेट पकड़ कर दोहरा हो गया। कुछ दूरी पर खड़ी अनुराधा ये सब सहमी हुई नज़रों से देख रही थी।
"मैं आपके पैर पड़ता हूं छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र सच में ही मेरे पैरों को पकड़ कर गिड़गिड़ा उठा____"बस इस बार मुझे माफ़ कर दीजिए। अगली बार अगर मैंने ऐसा कुछ किया तो आप बेशक मुझे जान से मार देना।"
"चल उठ।" मैंने झटका दे कर उसे अपने पैरों से दूर करते हुए कहा____"और जा कर अनुराधा के पैरों में सिर रख कर अपने किए की उससे माफ़ी मांग और ये भी कह कि आज से तू उसे अपनी बहन मानेगा।"
मारता क्या न करता वाली हालत थी रूपचंद्र की। मेरी बात सुन कर वो तेज़ी से उठा और लपक कर अनुराधा के पास पहुंचा। अनुराधा के पैरों में गिर कर वो उससे माफ़ी मांगने लगा। अनुराधा ये सब देख कर एकदम से बौखला गई और उसने मेरी तरफ देखा तो मैंने इशारे से ही उसे शांत रहने को कहा।
"अनुराधा बहन मुझे माफ़ कर दो।" अनुराधा के पैरों में गिरा रूपचंद्र बोल रहा था____"मैंने जो कुछ भी तुम्हें कहा है उसके लिए मुझे माफ़ कर दो बहन। आज के बाद मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहूंगा और ना ही यहाँ कभी आऊंगा।"
रूपचंद्र के द्वारा इस तरह माफ़ी मांगने पर अनुराधा घबरा कर मेरी तरफ देखने लगी थी। मैंने उसे इशारे से ही कहा कि वो उससे घबराए नहीं बल्कि अगर उसे माफ़ करना है तो माफ़ कर दे और अगर उसे सज़ा देना है तो मुझे बताए।
"ठीक ठीक है।" अनुराधा ने घबराहये हुए भाव से कहा____"मैंने आपको माफ़ किया। अब उठ जाइए।"
"बहुत बहुत शुक्रिया अनुराधा बहन।" रूपचंद्र उठ कर ख़ुशी से हाथ जोड़ते हुए बोला____"मैं पिता जी से कह दूंगा कि वो मुरारी काका को दिया हुआ कर्ज़ा माफ़ कर दें।"
"अब तू फ़ौरन ही यहाँ से निकल ले।" मैंने सर्द लहजे में रूपचंद्र से कहा____"और हां, अगर मुझे कहीं से भी पता चला कि तू इस घर के आस पास भी कभी आया है तो सोच लेना। वो दिन तेरी ज़िन्दगी का आख़िरी दिन होगा।"
मेरी बात सुन कर रूपचंद्र ने सिर हिलाया और दरवाज़ा खोल कर इस तरह भागा जैसे अगर वो रुक जाता तो उसकी जान उसकी हलक में आ जाती। रूपचंद्र के जाने के बाद मैंने अनुराधा की तरफ देखा। वो नज़रें झुकाए मुझसे दस क़दम की दूरी पर खड़ी थी।
"मुझे भी माफ़ कर दो अनुराधा।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"मैं यहाँ अपने ही द्वारा किए गए वादे को तोड़ कर आ गया हूं। मैंने तो तुमसे वादा किया था कि मैं तुम्हें अपनी शक्ल तभी दिखाऊंगा जब मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा लूंगा।"
"आपको माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने धीमे स्वर में कहा____"माफ़ी तो मुझे मांगनी चाहिए कि मैंने आपसे उस दिन उस लहजे में बात की और आपको जाने क्या क्या कह दिया था।"
"मैंने बाहर से रूपचंद्र की सारी बातें सुन ली हैं अनुराधा।" मैंने उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा____"इस लिए मैं जान गया हूं कि तुमने उस दिन वो सब मुझसे उसके ही कहने पर कहा था। हलांकि ये बात तो सच ही है कि मेरे और तुम्हारी माँ के बीच उस रात वैसे सम्बन्ध बने थे किन्तु ये ज़रा भी सच नहीं है कि मैंने मुरारी काका की हत्या की है। मैंने उस दिन भी तुमसे कहा था कि मैंने जो गुनाह किया है उसके लिए तुम मुझे जो चाहे सज़ा दे दो और आज भी तुमसे यही कहूंगा।"
"आपने और माँ ने जो कुछ किया है।" अनुराधा ने नज़रें झुकाए हुए ही कहा____"वो सब आप दोनों की इच्छा से ही हुआ है। इस लिए उसके लिए मैं सिर्फ आपको ही दोष क्यों दू? मुझे तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं था। वो तो रूपचंद्र ने ही एक दिन मुझे ये सब बताया था और फिर मुझसे कहा था कि जब आप मेरे घर आएं तो मैं आपसे वो सब कहूं। उसने धमकी दी थी कि अगर मैंने वो सब आपसे नहीं कहा तो वो मेरे छोटे भाई के साथ बहुत बुरा करेगा। मैं मजबूर थी छोटे ठाकुर। उस दिन पता नहीं वो कहां से मेरे घर में आ धमका था और उसके आने के कुछ देर बाद आप भी आ गए थे।"
"शायद वो मुझ पर पहले से ही नज़र रखे हुए था।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"ख़ैर मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है अनुराधा। बल्कि मुझे खुद अपने बारे में बुरा लग रहा है कि मैंने काकी के साथ वैसा सम्बन्ध बनाया।"
"भगवान के लिए अब इस बात को भूल जाइए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखते हुए बेचैनी से कहा____"मैं उस बारे में अब आपसे कोई बात नहीं करना चाहती। मुझे तो सोच कर ही शर्म आती है कि मेरी माँ ने आपके साथ वो सब कैसे किया?"
"होनी अटल होती है अनुराधा।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"होनी अनहोनी पर किसी का कोई ज़ोर नहीं होता। सब कुछ उस ऊपर वाले के इशारे पर ही होता है। हम इंसान तो बस उसका माध्यम बनते हैं और उस माध्यम में ही हम सही और ग़लत ठहरा दिए जाते हैं। कितनी अजीब बात है ना?"
मेरी बात सुन कर अनुराधा ख़ामोशी से मेरी तरफ देखती रही। उसके मासूम से चेहरे पर मेरी नज़र ठहर सी गई और साथ ही दिल में अजीब अजीब से एहसास भी उभरने लगे। मैंने फ़ौरन ही उसके चेहरे से अपनी नज़रें हटा ली।
"मुझे लगता है कि इन साहूकारों ने ही मुरारी काका की हत्या की है।" फिर मैंने कुछ सोचते हुए अनुराधा से कहा____"मुझसे अपनी दुश्मनी निकालने के लिए इन लोगों ने मुरारी काका की हत्या की और उनकी हत्या के आरोप में मुझे फसाना चाहा। वो तो दादा ठाकुर ने पुलिस के दरोगा से मिल कर दरोगा को यहाँ आने से मना कर दिया था वरना उस दिन यकीनन वो दरोगा यहाँ आता और फिर मुरारी काका की हत्या का दोषी मान कर वो मुझे पकड़ कर यहाँ से ले जाता। शायद यही इन साहूकारों का षड़यंत्र था।"
"अगर ऐसा है तो दादा ठाकुर ने पुलिस के दरोगा को यहाँ आने से मना क्यों किया था?" अनुराधा ने कहा_____"क्या उन्हें पहले से ही ये पता चल गया था कि साहूकारों ने ही मेरे बाबू की हत्या की है और उनकी हत्या के जुर्म में वो लोग आपको फंसा देना चाहते हैं?"
"सच भले ही यही हो अनुराधा।" मैंने अनुराधा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इस सच को साबित करने के लिए न हमारे पास कोई ठोस प्रमाण है और ना ही शायद पुलिस के दरोगा के पास हो सकता है। पिता जी को भी शायद ये बात पता रही होगी। शक की बिना पर दरोगा भले ही मुझे पकड़ कर ले जाता मगर जब मैं हत्यारा साबित ही नहीं होता तो उसे मुझे छोड़ना ही पड़ता। मैं भले ही साफ़ बच कर थाने से आ जाता किन्तु इस सबके चलते मेरे माथे पर ये दाग़ तो लग ही जाता कि ठाकुर खानदान के एक सदस्य को पुलिस का दरोगा पकड़ कर ले गया था और उसे जेल में भी बंद कर दिया था। दादा ठाकुर यही दाग़ मेरे माथे पर शायद नहीं लगने देना चाहते थे और इसी लिए उन्होंने दरोगा को यहाँ आने से मना कर दिया होगा। हलांकि उन्होंने दरोगा को गुप्त रूप से काका के हत्यारे का पता लगाने के लिए भी कहा था। पता नहीं अब तक उसने हत्यारे का पता लगाया भी होगा या नहीं।"
अभी मैंने ये सब कहा ही था कि तभी पीछे की तरफ जाने वाले दरवाज़े पर दस्तक हुई। दस्तक सुन कर अनुराधा चौंकी और उसने मेरी तरफ देखा। दोपहर हो चुकी थी और आसमान से सूरज की चिलचिलाती हुई धूप बरस रही थी। दरवाज़े के उस पार शायद अनुराधा की माँ थी। अनुराधा बेचैनी से मेरी तरफ देख रही थी। शायद उसे इस बात की चिंता होने लगी थी कि अगर दरवाज़े पर उसकी माँ ही है तो उसने अगर यहाँ पर अपनी बेटी को मेरे साथ अकेले देख लिया तो वो क्या सोचेगी?
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