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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192

Kuldipr99

Active Member
527
706
93
Story complete ho gayi
Kya kahu aapki is kahani ke liye
Behad umda bahot hi khoobsurat aur pyar bhara raha ye safar aapke saath
Kahi dukh Mila to kahi sukh kahi bahot jyada pyar dekhne ko Mila to kahi par rishto me kadwahat to dwesh bhi dikha
But aakhir me Prem ki Jeet hui aur main yahi kehna chaunga ki aage bhi isi prakar ke story aapke madhyam se hume padhne ko mile
Jyada kuch ni kahunga bas best of luck for future
Keep going 💪
Karm karte jao fal ki chinta mat karo
Jiski Jaisi sonch uske waise karm
 

33Bruce

Trust the process
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अध्याय - 168
━━━━━━༻♥༺━━━━━━



दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

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रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

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रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

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ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?




━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
Happy Ending
 

Abhishek Kumar98

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अध्याय - 168
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दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

✮✮✮✮

रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

✮✮✮✮

रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

✮✮✮✮

ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?




━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
Bahut jabardast story thi bhai aapki kafi had tak Half Blood Prince bhai ki tarah likhi huyi hai jo ko mujhe bahut pasand aayi hai hamesha se aur bahut hi sukhad ending bhi kari ummid karta hun aisi hi aur story aap likhoge aur sorry bhai mai har update par comment aur like nahi kar paya kafi baar bhul Gaya aur karo baar aage kya hoga es chaah me bas padta hi gaya jo ki mai amuman karta nahi hu bas kuch writers ke likhne ki shaili aur kuch stories ki wajah se aisa lagta hai bas padhte jao
 
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Jannat1972

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Ht hi behtreen tareeke se likhi gayi story hai bhai..4 din lagataar padh kr abhi khatam kari h ...bht hi emotional bhi h ye kahani khaskaer 113 aur 114 no. Uodate padh kr aasu hi aa gaye the ...aakhir k 3-4 uodate bht hi acche ban pade h aur khaskr ragini ki suhagraat wala uodate aur uska samarpan ..adhbhut hi tha ...ns ek cheez thoda khai k anuradha ki hatya us munim k haatho itni bhyanak tarike se na ho kr kisi drishye m apne chote thakur ki jaan bachate hue hoti toh aur jada accha lagta ..kahir kul mila kr bht hi saafsuthri aur ek acchi kahani thi....aur bhi dusri kahaniya padhunga mai aapki.....take care..
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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बहुत ही सुंदर लाजवाब और अद्भुत अद्वितीय अपडेट हैं भाई मजा आ गया
वैभव और रागिणी के बीच का वार्तालाप कितना सुंदर और मनमोहक हैं
रागिणी ने अपने पति वैभव को कितने खुले दिल से बता दिया की वो उन्हे यानी अपने देवर को मन ही मन चाहने लगी थी प्रेम करने लगी थी
दोनों एकाकार होने के पहले रागिणी ने वैभव को किस तरह से उसकी संमती हैं ये क्रिया और उसके सिने छुपके,शब्दों में और अंत में वैभव के ओठों को हलके से चुमकर वैभव को आगे बढने का इशारा दिया फिर क्या दो जिस्म एक जान हो गये

एक बहुत ही अद्भुत रमणिय और निर्विवाद रुप से मनमोहक समापम हुआ लाजवाब कहानी का
रागिणी और रुपा ने वैभव के जीवन में आकर उसे पुर्ण तरीके से बदल कर रख दिया
सुहागरात रात के लिये रागिणी का रुपा को ले जाना और वहा सुहागरात मनाने को रुपा का उतावला पण बडा ही मस्त और शानदार हैं
रुपचंद्र का निलम भाभी से विवाह होना मतलब उसका जीवन संवर जाना
सरोज काकी के हाथ से रुपा का कन्यादान सावकारों का बड्डपन दर्शाता हैं
वैभव का जीवन के पथ पर दादा ठाकुर के राह पर चलना और सबकी भलाई का सोचना जबरदस्त
अंत में लेखक शुभंम के लेखनी को नमन
फिर एक अद्भुत रोमांचक कहानी का इंतजार रहेगा
Thanks dost..
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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शुभम भाई एक रिक्वेस्ट है आपसे
भविष्य में आप जब भी कोई नई स्टोरी लिखे तो वो गांव की ही पृष्ठभूमि पर लिखे

हम सब रूपा और अनुराधा जैसे किरदार को फिर से देखने के लिए इंतजार करेंगे

वो सादगी वो प्रेम .. खासकर वो जब गांव की गलियों में हो और लेखक आपके जैसा हो जिसके लिखने पर ऐसा प्रतीत हो मानो सारी घटनाएं सामने हो रही हो तो पढ़ने में बहुत आनंद आता है

उम्मीद है भाई आप जल्द वापस आकर हम सबको अपने लेखन कला से आनंदित करेंगे
Let's see what happens...filhal to ab kuch bhi likhne ka man nahi hai, USC contest me ek story post karna hai uske baad...lambi chhutti par jana hai :roll:
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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Story complete ho gayi
Kya kahu aapki is kahani ke liye
Behad umda bahot hi khoobsurat aur pyar bhara raha ye safar aapke saath
Kahi dukh Mila to kahi sukh kahi bahot jyada pyar dekhne ko Mila to kahi par rishto me kadwahat to dwesh bhi dikha
But aakhir me Prem ki Jeet hui aur main yahi kehna chaunga ki aage bhi isi prakar ke story aapke madhyam se hume padhne ko mile
Jyada kuch ni kahunga bas best of luck for future
Keep going 💪
Karm karte jao fal ki chinta mat karo
Jiski Jaisi sonch uske waise karm
Thanks bhai..
 
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