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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 10.0%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.6%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 74 38.9%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 23.2%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.3%

  • Total voters
    190

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
78,488
114,960
354
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 35
----------☆☆☆----------


अब तक....

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।

अब आगे....


(दोस्तों यहाँ पर मैं एक बार फिर से गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे साहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ परिवार ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमें से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह की एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।


☆☆☆

जैसा कि मैंने बताया था कि गांव के ये साहूकार गांव के बाकी सभी लोगों से कहीं ज़्यादा संपन्न थे। इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास न जाने कितने ही गांव के मुखिया मेरे पिता दादा ठाकुर थे और हमारे बाद आस पास के इलाकों में अगर कोई दबदबा बना के रखा था तो वो थे मेरे गांव के साहूकार। चंद्रमणि क्योंकि अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे इस लिए उनके बाद उनका सारा कार्यभार उनके बड़े बेटे मणिशंकर सिंह के हाथों में था। गांव के ये साहूकार छल कपट करने वाले या बुरी नीयत वाले भले ही थे लेकिन इनमें एक बात काफी अच्छी थी कि ये चारो भाई हमेशा एकजुट रहते थे। आज तक कभी भी ऐसा नहीं सुना गया कि इन भाइयों के बीच कभी किसी तरह का वाद विवाद हुआ हो और यही हाल उनके बच्चों का भी था। जिस तरह गांव के एक छोर पर हमारी एक विशाल हवेली बनी हुई थी उसी तरह गांव के दूसरे छोर पर इन साहूकारों का भी विशाल मकान बना हुआ था जो कि दो मंजिला था। मकान के बाहर विशाल मैदान था और उस मैदान के बाद सड़़क के किनारे से क़रीब छह फिट ऊँची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके बीच में एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था।

मकान के मुख्य दरवाज़े पर भीड़़ सी लगी हुई थी जिनमें मर्द, औरत, लड़के और लड़़कियां भी थीं। सबके चेहरों में जहां एक चमक थी वहीं उस चमक के साथ साथ हैरानी और आश्चर्य भी विद्यमान था। मैं भले ही पक्का लड़कीबाज़ या औरतबाज़ था लेकिन ये भी सच था कि मैंने कभी साहूकारों की बहू बेटियों पर बुरी नज़र नहीं डाली थी और ये बात रूपचंद्र के अलावा सब जानते थे। कहते हैं कि इंसान जो भी अच्छा बुरा कर्म करता है उसके बारे में वो खुद भी अच्छी तरह जान रहा होता है कि उसने अच्छा कर्म किया है या बुरा। कहने का मतलब ये कि मेरी जब भी साहूकारों के लड़कों से लड़ाई झगड़ा हुआ था उसके बारे में साहूकार भी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि लड़ाई झगड़े की पहल करने वाला हमेशा मैं नहीं बल्कि उनके ही घर के लड़के होते थे। इंसान जब गहराई से किसी चीज़ के बारे में सोचता है तो उसे वास्तविकता का बोध होता है और अंदर ही अंदर उसे खुद उस वास्तविकता को मानना पड़ता है। शायद यही वजह थी कि आज ऐसे हालात बने थे और मैं साहूकारों के घर सम्मान के लिए लाया गया था।

मैं उन सबके पाँव छू कर आशीर्वाद ले रहा था जो उम्र में मुझसे बड़े़ थे, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़कों के भी। साहूकारों के आधे से ज़्यादा लड़के उम्र में मुझसे बड़े थे। उस वक़्त उनके चेहरे देखने लायक हो गए थे जब मैं झुक कर उनके पाँव छू रहा था। उनके मुँह भाड़ की तरह खुले के खुले रह गए थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि किसी के बाप के भी सामने न झुकने वाला ठाकुर वैभव सिंह आज अपने ही दुश्मनों के सामने झुक कर उनके पाँव छू रहा था।

"ये तो ग़लत बात है चंद्र भइया।" मैंने चंद्रभान की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने आपके पाँव छुए और आपने मुझे कोई आशीर्वाद भी नहीं दिया?"

सच कहूं तो अपने इस आचरण से अंदर ही अंदर मैं खुद भी हैरान था लेकिन ये सोच कर मन ही मन मुझे मज़ा भी आ रहा था कि ये साले कैसे मेरे इस शिष्टाचार से बुत बन गए हैं। ख़ैर मेरी बात सुन कर चंद्रभान बुरी तरह हड़बड़ाया और फिर सबकी तरफ देखने के बाद ज़बरदस्ती अपने होठों पर मुस्कान सजा कर धीमी आवाज़ में खुश रहो कहा।

"मैं जानता हूं कि आज से पहले मैं किस तरह का इंसान था।" मैंने सबकी तरफ बारी बारी से देखते हुए शांत भाव से कहा_____"और मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरी वजह से हमेशा मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ लेकिन कहते हैं ना कि वक़्त की तरह इंसान भी हमेशा एक जैसा नहीं बना रह सकता। वक़्त और हालात अच्छे अच्छों को सही रास्ते पर ले आते हैं, मैं तो फिर भी एक अदना सा बच्चा हूं। मैं अभी तक ये सोच कर हैरान हूं कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया है जिसके लिए मणि काका अपने घर मुझे सम्मान देने के लिए ले आए हैं लेकिन कहीं न कहीं इस बात से ये महसूस भी करता हूं कि ऐसा कर के उन्होंने मेरे ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी रख दी है जिसे अब से पहले मैं समझ ही नहीं पाया था। वो जिम्मेदारी यही है कि अब से मैं वैसा ही बना रहूं जिसके लिए मुझे मणि काका ने ये सम्मान दिया है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैं पूरी तरह अब बदल ही जाऊंगा क्योंकि जो इंसान अब से पहले सिर्फ और सिर्फ बुराई का ही पुतला था वो एकदम से अच्छा कैसे बन जाएगा? उसे अच्छा बनने में थोड़ा तो समय लगेगा ही, पर मैं वचन देता हूं कि अब से मैं आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरुंगा। मैं अपने इन छोटे और बड़े़ भाइयों से भी यही कहता हूं कि आज से पहले हमारे बीच जो कुछ भी हुआ है उसे हम बुरा सपना समझ कर भुला देते हैं और अब से हम सब एक हो कर एक ऐसे रिश्ते का आग़ाज़ करते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और विश्वास हो।"

मैं लम्बा चौड़ा भाषण दे कर चुप हुआ तो फ़िज़ा में गहरा सन्नाटा छा गया। हर आँख मुझ पर ही टिकी हुई थी। हर चेहरे पर एक अलग ही तरह का भाव तैरता हुआ नज़र आ रहा था। सहसा फ़िज़ा में ताली बजने की आवाज़ हुई तो मैंने देखा मणि शंकर काका ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रहे थे। उन्हें ताली बजाता देख एक एक कर के हर कोई ताली बजाने लगा, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़के भी। सभी के चेहरों में ख़ुशी की चमक उभर आई थी।

"चलो अब ये सब बहुत हुआ।" मणि शंकर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"छोटे ठाकुर को अब क्या बाहर ही खड़ा रखोगे तुम लोग?"

"रूकिए मणि काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आज के बाद आप में से कोई भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहेंगे। मैं आप सबको और इस घर को अपना मान चुका हूं इस लिए मेरे लिए किसी भी तरह की औपचारिकता निभाने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। आप सब मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है वैभव बेटा।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"हमें अच्छा लगा कि तुम इतना कुछ सोचते हो। ख़ैर अब चलो अंदर चलो।"

उसके बाद एक एक कर के भीड़ छटने लगी और मैं मणि काका और उनके भाइयों के साथ मुख्य दरवाज़े के अंदर जाने लगा। मेरे आगे पीछे औरतें और लड़के लड़कियां भी थीं। उन्हीं के बीच रूपा भी थी लेकिन मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि इस वक़्त मैं साहूकारों की किसी भी लड़की की तरफ न देखूं। ख़ास कर रूपा की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उसका भाई रूपचंद्र इस वक़्त ज़रूर यही ताड़ने की कोशिश कर रहा होगा कि मैं उसकी बहन की तरफ देखता हूं कि नहीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में मैं सबके साथ अंदर एक बड़े से हाल में आ गया जहां पर चारो तरफ कतार से कुर्सियां लगी हुई थीं। मुख्य कुर्सी बाकी कुर्सियों से अलग थी। ज़ाहिर था वो परिवार के मुखिया जी कुर्सी थी।

मैं पहली बार साहूकारों के मकान के अंदर आया था। वैसे इसके पहले भी मैं कई बार आया था लेकिन तब मैं रूपा के कमरे में ही खिड़की के रास्ते आया गया था। हाल में लगी कुर्सियों के सामने एक एक कर के कई सारे स्टूल रखे हुए थे। मणि शंकर ने मुझे जिस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया मैं उसी पर बैठ गया।

"मणि काका।" इससे पहले कि बाकी लोग भी अपनी अपनी कुर्सी पर बैठते मैं एकदम से बोल पड़ा____"यहां पर बैठने से पहले मैं इस घर के मुख्य सदस्य से मिल कर उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूं।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर चौकने वाले भाव उभर आए। कदाचित उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई थी और ऐसा इस लिए क्योंकि घर के मुखिया तो मणि शंकर ही थे तो फिर मैंने किसका आशीर्वाद लेने की बात की थी?

"आप लोग हैरान क्यों हो रहे हैं?" मैंने सबकी तरफ नज़रें घुमाते हुए कहा____"मैं इस घर के असली मुखिया यानी दादा दादी का आशीर्वाद लेने की बात कर रहा हूं।"

"ओह! अच्छा अच्छा हाहाहा।" मेरी बात सुनते ही मणि शंकर एकदम से हंसते हुए बोल पड़ा। उसके साथ उसके भाई भी मुस्कुरा उठे थे, इधर मणि काका ने कहा____"बहुत खूब वैभव बेटा। हमें तो लगा था कि तुम्हें वो याद ही नहीं होंगे लेकिन ग़लत लगा था हमें। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई तुम्हारी इस बात से। चलो हम खुद तुम्हें उनके कमरे में ले चलते हैं। असल में वो दोनों ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहते हैं। एक तो उम्र ज़्यादा हो गई है दूसरे बिमारी की वजह से कहीं आने जाने में उन्हें भारी तकलीफ़ होती है।"

मैं मणि शंकर के साथ हाल के दूसरे छोर की तरफ बढ़ चला। मैं क्योंकि मणि शंकर के पीछे चल रहा था इस लिए इधर उधर बड़ी आसानी से देख सकता था। मैं ये देख कर थोड़ा चकित था कि साहूकारों का ये मकान अंदर से कितना सुन्दर बना हुआ था। हालांकि हमारी हवेली के मुकामले ये मकान कुछ भी नहीं था लेकिन जितना भी था वो अपने आप में ही उनकी हैसियत और उनके रुतबे का सबूत दे रहा था। कुछ ही देर में चलते हुए हम एक बड़े से कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे। मणि काका ने दरवाज़ा खोला और मुझे अपने साथ अंदर आने का इशारा किया। कमरा काफी बड़ा था और काफी सुन्दर भी। कमरे के अंदर दो भारी बेड रखे हुए थे। एक बेड पर एक बूढ़ा शख़्स रेशमी चद्दर ओढ़े लेटा हुआ था और दूसरे में एक बुढ़िया। दोनों के ही जिस्म कमज़ोर और बीमार नज़र आ रहे थे।

मणि शंकर ने आगे बढ़ कर बूढ़े चंद्रमणि को आवाज़ दी तो बूढ़े ने अपनी कमज़ोर सी आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा। मणि शंकर की आवाज़ सुन कर दूसरे बेड पर लेटी बुढ़िया की भी आँखें खुल गईं थी। मणि शंकर ने बूढ़े को मेरे बारे में बताया तो बूढ़ा सीधा लेटने की कोशिश करने लगा। मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ कर बेड के क़रीब पहुंचा।

"ख़ु...खुश रहो बेटा।" मैंने जैसे ही बूढ़े चंद्रमणि के पाँव छुए तो उसने अपनी मरियल सी आवाज़ में कहा____"भगवान हमेशा तुम्हारा कल्याण करे।"

बूढ़े से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने दूसरे बेड पर लेटी उसकी बूढ़ी बीवी सुभद्रा के भी पाँव छुए तो उसने भी मुझे स्नेह और आशीष दिया। कुछ देर मैं वहीं बूढ़े के पास ही खड़ा रहा। इस बीच बूढ़े ने अपने बेटे मणि शंकर से मेरे और मेरे खानदान के बारे में और भी बहुत सी बातें पूछी जिनके कुछ जवाब मणि शंकर काका ने दिए और कुछ के मैंने। वापट लौटते समय मैंने एक बार फिर से उन दोनों का आशीर्वाद लिया और फिर मणि शंकर काका के साथ वापस हाल में आ गया।

हाल में आया तो देखा घर के सभी मर्द अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मणि शंकर के इशारे पर मैं भी उसके क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने एक बार हाल में बैठे सभी लोगों पर निगाह घुमाई। मणि शंकर और उसके भाइयों के चेहरों पर जहां ख़ुशी के भाव दिख रहे थे वहीं उनके बेटों के चेहरों पर थोड़ी उलझन सी दिखाई दे रही थी। मैं समझ सकता था कि उनके लिए मेरा यहाँ पर आना इतनी आसानी से हजम नहीं हो सकता था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैंने पूरी तरह पक्का कर लिया था कि पूरे मन से वही करुंगा जिस उद्देश्य के तहत मैं यहाँ आया था या ये कहूं कि पिता जी ने मुझे भेजा था। मैं अपने बर्ताव से कुछ ऐसा करुंगा जिससे साहूकार और उनके बेटों के ज़हन से मेरे प्रति हर तरह की बुरी धारणा मिट जाए। हालांकि ये न तो मेरे लिए आसान था और ना ही उन सबके लिए।

अभी मुझे कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पल ही हुए थे कि अंदर से एक के बाद एक औरतें हाथों में थाली लिए हाल में आने लगीं। उन सबने एक एक कर के हम सबके सामने रखे स्टूल पर थालियों को रख दिया। उनके जाते ही एक बार फिर से कुछ औरतें आती दिखीं जिनके हाथों में पानी से भरा लोटा ग्लास था जिसे उन सबने हम सबकी थाली के बगल से रख दिया। मैं मन ही मन मणि शंकर के यहाँ की इस ब्यवस्था को देख कर थोड़ा हैरान हुआ और तारीफ़ किए बिना भी न रह सका। पूरे हाल में हम सबके बीच एक ख़ामोशी विद्यमान थी जबकि मेरा ख़याल ये था कि इस बीच बड़े बुजुर्ग किसी न किसी विषय पर बात चीत ज़रूर शुरू करेंगे। मैंने भी बीच में कुछ भी बोलना सही नहीं समझा था। हर कोई एक दूसरे की तरफ एक बार देखता और फिर अपनी नज़रें हटा लेता। एक अजीब सा वातावरण छा गया था हाल में। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी फिर से अंदर से वही औरतें आने लगीं। इस बार उनके हाथों में छोटी थाली यानी प्लेट्स थीं जिन्हें उन लोगों ने एक एक कर के हम सबके सामने स्टूल पर रख दिया। मैंने देखा उन प्लेट्स में कई प्रकार के फल रखे हुए थे। पहले जो थालियां आईं थी उनमें खाने का गरमा गरम पकवान था। ख़ैर उनके जाने के बाद मुझे लगा अब खाना पीना शुरू होगा लेकिन अगले ही पल मैं ग़लत साबित हो गया क्योंकि तभी कुछ औरतें फिर से आती नज़र आईं। उनके हाथों में बड़ी बड़ी परात जैसी थाली थी। जब वो क़रीब आईं तो मैंने देखा उन परात में कई सारी कटोरियां रखी हुईं थी जिनमें खीर और रसगुल्ले रखे हुए थे। थोड़ी ही देर में उन सबने दो दो कटोरियां सबके सामने थाली के बगल से रख दिया। ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब कभी खाया ही नहीं था लेकिन जिस तरीके से ये सब पेश किया जा रहा था वो गज़ब था।

सामने रखे स्टूल पर इतना सारा खाना एक ही बार में देख कर अपना तो पेट ही भर गया था। हमारी हवेली में इससे भी बढ़ कर ब्यंजन बनाए जाते थे लेकिन अपने को साधारण खाना ही पसंद था। अगर दिल की बात बताऊं तो मुझे अपने जीवन में वो खाना पसंद था जो अनुराधा बनाती थी। अनुराधा के खाने की याद आई तो एकदम से उसका मासूम चेहरा मेरी आँखों के सामने उजागर हो गया। उसका मेरे सामने छुई मुई सा हो जाना, उसका झिझकना, उसका शर्माना और मेरे द्वारा अपने खाने की तारीफ़ सुन कर हौले से मुस्कुराना ये सब एकदम से मुझे याद आया तो दिल में एक हलचल सी पैदा हो गई। पता नहीं क्या बात थी उसमें कि जब भी उसके बारे में सोचता था एक अजीब ही तरह का एहसास जागृत हो जाता था। मेरे दिल में एकदम से उसको देखने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने किसी तरह अपनी इस इच्छा को दबाया और उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा लिया।

"वैभव बेटा चलो शुरू करो।" मणि शंकर ने एकदम से कहा तो मैंने उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा_____"वैसे हमें पता है कि इससे कहीं ज़्यादा बेहतर पकवान तुम्हें अपनी हवेली में खाने को मिलते हैं लेकिन हमारे पास तो बस यही रुखा सूखा है।"

"ऐसा क्यों कहते हैं मणि काका?" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा_____"आपको शायद पता नहीं लेकिन मैं हमेशा साधारण भोजन ही खाना पसंद करता हूं। ये सच है कि हवेली में न जाने कितने ही प्रकार के पकवान बनते हैं लेकिन मेरा उन पकवानों से कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर पहले में और अब में ज़मीन आसमान का फ़र्क हो गया है। आज अगर आपके यहाँ मुझे नमक रोटी भी मिलती तो मुझे ज़रा सा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे आपकी उस नमक रोटी में भी आपके प्यार और स्नेह की मीठी सुगंध का आभास होता। मैंने तो आपसे पहले भी कहा था कि मेरे लिए इतना सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मुझे अपने लिए ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब मैंने सम्मान पाने लायक वाकई में कोई काम किया होता।"

"तुम्हारी बातें हमें आश्चर्य चकित कर देती हैं बेटा।" सहसा हरी शंकर ने कहा_____"ऐसा शायद इस लिए है क्योंकि हमें तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं है। इतना तो हम भी समझते हैं कि जो सच में अच्छा होता है और सच्चे मन से कोई कार्य करता है उसके अंदर का हर भाव और हर सोच बहुत ही खूबसूरत होती है। तुम इतनी सुन्दर बातें करने लगे हो इससे ज़ाहिर है कि तुम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। हमें ये देख कर बेहद ख़ुशी हो रही है।"

"तुम कहते हो कि तुम्हें ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब तुम ऐसा सम्मान पाने लायक कोई काम करते।" मणि शंकर ने कहा_____"जबकि कोई ज़रूरी नहीं कि अच्छा काम करने के बाद ही किसी के द्वारा सम्मान मिले। कभी कभी अच्छी सोच और अच्छी भावना को देख कर भी सम्मान दिया जाता है और हमने वही किया है। हमें तुम में अब अच्छी सोच और अच्छी भावना ही नज़र आती है और इस लिए अब हमें यकीन भी हो चुका है कि अब आगे तुम जो भी करोगे वो सब अच्छा ही करोगे इस लिए उसके लिए पहले से ही तुम्हें सम्मान दे दिया तो ये ग़लत नहीं है।"

"ये तो मेरी खुशनसीबी है मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"कि आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मुझ पर इतना विश्वास कर बैठे हैं। मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि मैं आपके विश्वास को कभी न टूटने दूं और आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।" कहने के साथ ही मैंने उन सबके लड़कों की तरफ मुखातिब हुआ और फिर बोला____"आप सब मेरे भाई हैं, मित्र हैं। आपस की रंजिश भुला कर हमें अपने बीच भाईचारे का एक अटूट रिश्ता बनाना चाहिए। मेरा यकीन करो जब ऐसा होगा तो जीवन एक अलग ही रूप में निखरा हुआ नज़र आएगा।"

"तुम सही कह रहे हो वैभव।" मणि शंकर के बड़े बेटे चन्द्रभान ने कहा_____"हमारे बीच बेकार में ही इतने समय से अनबन रही। हालांकि हम दिल से कबूल करते हैं कि जब भी तुम्हारा मेरे भाइयों से लड़ाई झगड़ा हुआ तब उस झगड़े की पहल तुम्हारी तरफ से नहीं हुई थी। हर बार मेरे भाइयों ने ही तुम्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से तुमसे झगड़ा किया। ये अलग बात है कि हर बार उन्हें तुम्हारे द्वारा मुँह की ही खानी पड़ी। जहां तक मेरा सवाल है तो तुम भी जानते हो कि मैं किस तरह की फितरत का इंसान हूं। मुझे किसी से द्वेष रखना या किसी से बेवजह झगड़ा करना पसंद ही नहीं है। मैं तो अपने इन भाइयों को भी समझाता था कि ये लोग तुमसे बेवजह बैर न बनाएं, पर ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाना ही बेहतर है। अब हम सब एक हो गए हैं तो यकीनन हमारे बीच एक अच्छा भाईचारा होगा।"

"अच्छा अब ये सब बातें छोड़ो तुम लोग।" मणि शंकर ने कहा____"ये समय इन बातों का नहीं है बल्कि भोजन करने का है। तुम लोग आपस के मतभेद खाने के बाद दूर कर लेना। अभी सिर्फ भोजन करो।"

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।


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Mastmalang

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 35
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अब तक....

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।

अब आगे....


(दोस्तों यहाँ पर मैं एक बार फिर से गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे साहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ परिवार ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमें से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह की एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।


☆☆☆

जैसा कि मैंने बताया था कि गांव के ये साहूकार गांव के बाकी सभी लोगों से कहीं ज़्यादा संपन्न थे। इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास न जाने कितने ही गांव के मुखिया मेरे पिता दादा ठाकुर थे और हमारे बाद आस पास के इलाकों में अगर कोई दबदबा बना के रखा था तो वो थे मेरे गांव के साहूकार। चंद्रमणि क्योंकि अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे इस लिए उनके बाद उनका सारा कार्यभार उनके बड़े बेटे मणिशंकर सिंह के हाथों में था। गांव के ये साहूकार छल कपट करने वाले या बुरी नीयत वाले भले ही थे लेकिन इनमें एक बात काफी अच्छी थी कि ये चारो भाई हमेशा एकजुट रहते थे। आज तक कभी भी ऐसा नहीं सुना गया कि इन भाइयों के बीच कभी किसी तरह का वाद विवाद हुआ हो और यही हाल उनके बच्चों का भी था। जिस तरह गांव के एक छोर पर हमारी एक विशाल हवेली बनी हुई थी उसी तरह गांव के दूसरे छोर पर इन साहूकारों का भी विशाल मकान बना हुआ था जो कि दो मंजिला था। मकान के बाहर विशाल मैदान था और उस मैदान के बाद सड़़क के किनारे से क़रीब छह फिट ऊँची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके बीच में एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था।

मकान के मुख्य दरवाज़े पर भीड़़ सी लगी हुई थी जिनमें मर्द, औरत, लड़के और लड़़कियां भी थीं। सबके चेहरों में जहां एक चमक थी वहीं उस चमक के साथ साथ हैरानी और आश्चर्य भी विद्यमान था। मैं भले ही पक्का लड़कीबाज़ या औरतबाज़ था लेकिन ये भी सच था कि मैंने कभी साहूकारों की बहू बेटियों पर बुरी नज़र नहीं डाली थी और ये बात रूपचंद्र के अलावा सब जानते थे। कहते हैं कि इंसान जो भी अच्छा बुरा कर्म करता है उसके बारे में वो खुद भी अच्छी तरह जान रहा होता है कि उसने अच्छा कर्म किया है या बुरा। कहने का मतलब ये कि मेरी जब भी साहूकारों के लड़कों से लड़ाई झगड़ा हुआ था उसके बारे में साहूकार भी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि लड़ाई झगड़े की पहल करने वाला हमेशा मैं नहीं बल्कि उनके ही घर के लड़के होते थे। इंसान जब गहराई से किसी चीज़ के बारे में सोचता है तो उसे वास्तविकता का बोध होता है और अंदर ही अंदर उसे खुद उस वास्तविकता को मानना पड़ता है। शायद यही वजह थी कि आज ऐसे हालात बने थे और मैं साहूकारों के घर सम्मान के लिए लाया गया था।

मैं उन सबके पाँव छू कर आशीर्वाद ले रहा था जो उम्र में मुझसे बड़े़ थे, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़कों के भी। साहूकारों के आधे से ज़्यादा लड़के उम्र में मुझसे बड़े थे। उस वक़्त उनके चेहरे देखने लायक हो गए थे जब मैं झुक कर उनके पाँव छू रहा था। उनके मुँह भाड़ की तरह खुले के खुले रह गए थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि किसी के बाप के भी सामने न झुकने वाला ठाकुर वैभव सिंह आज अपने ही दुश्मनों के सामने झुक कर उनके पाँव छू रहा था।

"ये तो ग़लत बात है चंद्र भइया।" मैंने चंद्रभान की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने आपके पाँव छुए और आपने मुझे कोई आशीर्वाद भी नहीं दिया?"

सच कहूं तो अपने इस आचरण से अंदर ही अंदर मैं खुद भी हैरान था लेकिन ये सोच कर मन ही मन मुझे मज़ा भी आ रहा था कि ये साले कैसे मेरे इस शिष्टाचार से बुत बन गए हैं। ख़ैर मेरी बात सुन कर चंद्रभान बुरी तरह हड़बड़ाया और फिर सबकी तरफ देखने के बाद ज़बरदस्ती अपने होठों पर मुस्कान सजा कर धीमी आवाज़ में खुश रहो कहा।

"मैं जानता हूं कि आज से पहले मैं किस तरह का इंसान था।" मैंने सबकी तरफ बारी बारी से देखते हुए शांत भाव से कहा_____"और मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरी वजह से हमेशा मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ लेकिन कहते हैं ना कि वक़्त की तरह इंसान भी हमेशा एक जैसा नहीं बना रह सकता। वक़्त और हालात अच्छे अच्छों को सही रास्ते पर ले आते हैं, मैं तो फिर भी एक अदना सा बच्चा हूं। मैं अभी तक ये सोच कर हैरान हूं कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया है जिसके लिए मणि काका अपने घर मुझे सम्मान देने के लिए ले आए हैं लेकिन कहीं न कहीं इस बात से ये महसूस भी करता हूं कि ऐसा कर के उन्होंने मेरे ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी रख दी है जिसे अब से पहले मैं समझ ही नहीं पाया था। वो जिम्मेदारी यही है कि अब से मैं वैसा ही बना रहूं जिसके लिए मुझे मणि काका ने ये सम्मान दिया है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैं पूरी तरह अब बदल ही जाऊंगा क्योंकि जो इंसान अब से पहले सिर्फ और सिर्फ बुराई का ही पुतला था वो एकदम से अच्छा कैसे बन जाएगा? उसे अच्छा बनने में थोड़ा तो समय लगेगा ही, पर मैं वचन देता हूं कि अब से मैं आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरुंगा। मैं अपने इन छोटे और बड़े़ भाइयों से भी यही कहता हूं कि आज से पहले हमारे बीच जो कुछ भी हुआ है उसे हम बुरा सपना समझ कर भुला देते हैं और अब से हम सब एक हो कर एक ऐसे रिश्ते का आग़ाज़ करते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और विश्वास हो।"

मैं लम्बा चौड़ा भाषण दे कर चुप हुआ तो फ़िज़ा में गहरा सन्नाटा छा गया। हर आँख मुझ पर ही टिकी हुई थी। हर चेहरे पर एक अलग ही तरह का भाव तैरता हुआ नज़र आ रहा था। सहसा फ़िज़ा में ताली बजने की आवाज़ हुई तो मैंने देखा मणि शंकर काका ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रहे थे। उन्हें ताली बजाता देख एक एक कर के हर कोई ताली बजाने लगा, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़के भी। सभी के चेहरों में ख़ुशी की चमक उभर आई थी।

"चलो अब ये सब बहुत हुआ।" मणि शंकर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"छोटे ठाकुर को अब क्या बाहर ही खड़ा रखोगे तुम लोग?"

"रूकिए मणि काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आज के बाद आप में से कोई भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहेंगे। मैं आप सबको और इस घर को अपना मान चुका हूं इस लिए मेरे लिए किसी भी तरह की औपचारिकता निभाने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। आप सब मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है वैभव बेटा।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"हमें अच्छा लगा कि तुम इतना कुछ सोचते हो। ख़ैर अब चलो अंदर चलो।"

उसके बाद एक एक कर के भीड़ छटने लगी और मैं मणि काका और उनके भाइयों के साथ मुख्य दरवाज़े के अंदर जाने लगा। मेरे आगे पीछे औरतें और लड़के लड़कियां भी थीं। उन्हीं के बीच रूपा भी थी लेकिन मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि इस वक़्त मैं साहूकारों की किसी भी लड़की की तरफ न देखूं। ख़ास कर रूपा की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उसका भाई रूपचंद्र इस वक़्त ज़रूर यही ताड़ने की कोशिश कर रहा होगा कि मैं उसकी बहन की तरफ देखता हूं कि नहीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में मैं सबके साथ अंदर एक बड़े से हाल में आ गया जहां पर चारो तरफ कतार से कुर्सियां लगी हुई थीं। मुख्य कुर्सी बाकी कुर्सियों से अलग थी। ज़ाहिर था वो परिवार के मुखिया जी कुर्सी थी।

मैं पहली बार साहूकारों के मकान के अंदर आया था। वैसे इसके पहले भी मैं कई बार आया था लेकिन तब मैं रूपा के कमरे में ही खिड़की के रास्ते आया गया था। हाल में लगी कुर्सियों के सामने एक एक कर के कई सारे स्टूल रखे हुए थे। मणि शंकर ने मुझे जिस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया मैं उसी पर बैठ गया।

"मणि काका।" इससे पहले कि बाकी लोग भी अपनी अपनी कुर्सी पर बैठते मैं एकदम से बोल पड़ा____"यहां पर बैठने से पहले मैं इस घर के मुख्य सदस्य से मिल कर उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूं।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर चौकने वाले भाव उभर आए। कदाचित उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई थी और ऐसा इस लिए क्योंकि घर के मुखिया तो मणि शंकर ही थे तो फिर मैंने किसका आशीर्वाद लेने की बात की थी?

"आप लोग हैरान क्यों हो रहे हैं?" मैंने सबकी तरफ नज़रें घुमाते हुए कहा____"मैं इस घर के असली मुखिया यानी दादा दादी का आशीर्वाद लेने की बात कर रहा हूं।"

"ओह! अच्छा अच्छा हाहाहा।" मेरी बात सुनते ही मणि शंकर एकदम से हंसते हुए बोल पड़ा। उसके साथ उसके भाई भी मुस्कुरा उठे थे, इधर मणि काका ने कहा____"बहुत खूब वैभव बेटा। हमें तो लगा था कि तुम्हें वो याद ही नहीं होंगे लेकिन ग़लत लगा था हमें। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई तुम्हारी इस बात से। चलो हम खुद तुम्हें उनके कमरे में ले चलते हैं। असल में वो दोनों ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहते हैं। एक तो उम्र ज़्यादा हो गई है दूसरे बिमारी की वजह से कहीं आने जाने में उन्हें भारी तकलीफ़ होती है।"

मैं मणि शंकर के साथ हाल के दूसरे छोर की तरफ बढ़ चला। मैं क्योंकि मणि शंकर के पीछे चल रहा था इस लिए इधर उधर बड़ी आसानी से देख सकता था। मैं ये देख कर थोड़ा चकित था कि साहूकारों का ये मकान अंदर से कितना सुन्दर बना हुआ था। हालांकि हमारी हवेली के मुकामले ये मकान कुछ भी नहीं था लेकिन जितना भी था वो अपने आप में ही उनकी हैसियत और उनके रुतबे का सबूत दे रहा था। कुछ ही देर में चलते हुए हम एक बड़े से कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे। मणि काका ने दरवाज़ा खोला और मुझे अपने साथ अंदर आने का इशारा किया। कमरा काफी बड़ा था और काफी सुन्दर भी। कमरे के अंदर दो भारी बेड रखे हुए थे। एक बेड पर एक बूढ़ा शख़्स रेशमी चद्दर ओढ़े लेटा हुआ था और दूसरे में एक बुढ़िया। दोनों के ही जिस्म कमज़ोर और बीमार नज़र आ रहे थे।

मणि शंकर ने आगे बढ़ कर बूढ़े चंद्रमणि को आवाज़ दी तो बूढ़े ने अपनी कमज़ोर सी आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा। मणि शंकर की आवाज़ सुन कर दूसरे बेड पर लेटी बुढ़िया की भी आँखें खुल गईं थी। मणि शंकर ने बूढ़े को मेरे बारे में बताया तो बूढ़ा सीधा लेटने की कोशिश करने लगा। मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ कर बेड के क़रीब पहुंचा।

"ख़ु...खुश रहो बेटा।" मैंने जैसे ही बूढ़े चंद्रमणि के पाँव छुए तो उसने अपनी मरियल सी आवाज़ में कहा____"भगवान हमेशा तुम्हारा कल्याण करे।"

बूढ़े से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने दूसरे बेड पर लेटी उसकी बूढ़ी बीवी सुभद्रा के भी पाँव छुए तो उसने भी मुझे स्नेह और आशीष दिया। कुछ देर मैं वहीं बूढ़े के पास ही खड़ा रहा। इस बीच बूढ़े ने अपने बेटे मणि शंकर से मेरे और मेरे खानदान के बारे में और भी बहुत सी बातें पूछी जिनके कुछ जवाब मणि शंकर काका ने दिए और कुछ के मैंने। वापट लौटते समय मैंने एक बार फिर से उन दोनों का आशीर्वाद लिया और फिर मणि शंकर काका के साथ वापस हाल में आ गया।

हाल में आया तो देखा घर के सभी मर्द अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मणि शंकर के इशारे पर मैं भी उसके क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने एक बार हाल में बैठे सभी लोगों पर निगाह घुमाई। मणि शंकर और उसके भाइयों के चेहरों पर जहां ख़ुशी के भाव दिख रहे थे वहीं उनके बेटों के चेहरों पर थोड़ी उलझन सी दिखाई दे रही थी। मैं समझ सकता था कि उनके लिए मेरा यहाँ पर आना इतनी आसानी से हजम नहीं हो सकता था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैंने पूरी तरह पक्का कर लिया था कि पूरे मन से वही करुंगा जिस उद्देश्य के तहत मैं यहाँ आया था या ये कहूं कि पिता जी ने मुझे भेजा था। मैं अपने बर्ताव से कुछ ऐसा करुंगा जिससे साहूकार और उनके बेटों के ज़हन से मेरे प्रति हर तरह की बुरी धारणा मिट जाए। हालांकि ये न तो मेरे लिए आसान था और ना ही उन सबके लिए।

अभी मुझे कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पल ही हुए थे कि अंदर से एक के बाद एक औरतें हाथों में थाली लिए हाल में आने लगीं। उन सबने एक एक कर के हम सबके सामने रखे स्टूल पर थालियों को रख दिया। उनके जाते ही एक बार फिर से कुछ औरतें आती दिखीं जिनके हाथों में पानी से भरा लोटा ग्लास था जिसे उन सबने हम सबकी थाली के बगल से रख दिया। मैं मन ही मन मणि शंकर के यहाँ की इस ब्यवस्था को देख कर थोड़ा हैरान हुआ और तारीफ़ किए बिना भी न रह सका। पूरे हाल में हम सबके बीच एक ख़ामोशी विद्यमान थी जबकि मेरा ख़याल ये था कि इस बीच बड़े बुजुर्ग किसी न किसी विषय पर बात चीत ज़रूर शुरू करेंगे। मैंने भी बीच में कुछ भी बोलना सही नहीं समझा था। हर कोई एक दूसरे की तरफ एक बार देखता और फिर अपनी नज़रें हटा लेता। एक अजीब सा वातावरण छा गया था हाल में। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी फिर से अंदर से वही औरतें आने लगीं। इस बार उनके हाथों में छोटी थाली यानी प्लेट्स थीं जिन्हें उन लोगों ने एक एक कर के हम सबके सामने स्टूल पर रख दिया। मैंने देखा उन प्लेट्स में कई प्रकार के फल रखे हुए थे। पहले जो थालियां आईं थी उनमें खाने का गरमा गरम पकवान था। ख़ैर उनके जाने के बाद मुझे लगा अब खाना पीना शुरू होगा लेकिन अगले ही पल मैं ग़लत साबित हो गया क्योंकि तभी कुछ औरतें फिर से आती नज़र आईं। उनके हाथों में बड़ी बड़ी परात जैसी थाली थी। जब वो क़रीब आईं तो मैंने देखा उन परात में कई सारी कटोरियां रखी हुईं थी जिनमें खीर और रसगुल्ले रखे हुए थे। थोड़ी ही देर में उन सबने दो दो कटोरियां सबके सामने थाली के बगल से रख दिया। ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब कभी खाया ही नहीं था लेकिन जिस तरीके से ये सब पेश किया जा रहा था वो गज़ब था।

सामने रखे स्टूल पर इतना सारा खाना एक ही बार में देख कर अपना तो पेट ही भर गया था। हमारी हवेली में इससे भी बढ़ कर ब्यंजन बनाए जाते थे लेकिन अपने को साधारण खाना ही पसंद था। अगर दिल की बात बताऊं तो मुझे अपने जीवन में वो खाना पसंद था जो अनुराधा बनाती थी। अनुराधा के खाने की याद आई तो एकदम से उसका मासूम चेहरा मेरी आँखों के सामने उजागर हो गया। उसका मेरे सामने छुई मुई सा हो जाना, उसका झिझकना, उसका शर्माना और मेरे द्वारा अपने खाने की तारीफ़ सुन कर हौले से मुस्कुराना ये सब एकदम से मुझे याद आया तो दिल में एक हलचल सी पैदा हो गई। पता नहीं क्या बात थी उसमें कि जब भी उसके बारे में सोचता था एक अजीब ही तरह का एहसास जागृत हो जाता था। मेरे दिल में एकदम से उसको देखने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने किसी तरह अपनी इस इच्छा को दबाया और उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा लिया।

"वैभव बेटा चलो शुरू करो।" मणि शंकर ने एकदम से कहा तो मैंने उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा_____"वैसे हमें पता है कि इससे कहीं ज़्यादा बेहतर पकवान तुम्हें अपनी हवेली में खाने को मिलते हैं लेकिन हमारे पास तो बस यही रुखा सूखा है।"

"ऐसा क्यों कहते हैं मणि काका?" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा_____"आपको शायद पता नहीं लेकिन मैं हमेशा साधारण भोजन ही खाना पसंद करता हूं। ये सच है कि हवेली में न जाने कितने ही प्रकार के पकवान बनते हैं लेकिन मेरा उन पकवानों से कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर पहले में और अब में ज़मीन आसमान का फ़र्क हो गया है। आज अगर आपके यहाँ मुझे नमक रोटी भी मिलती तो मुझे ज़रा सा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे आपकी उस नमक रोटी में भी आपके प्यार और स्नेह की मीठी सुगंध का आभास होता। मैंने तो आपसे पहले भी कहा था कि मेरे लिए इतना सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मुझे अपने लिए ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब मैंने सम्मान पाने लायक वाकई में कोई काम किया होता।"

"तुम्हारी बातें हमें आश्चर्य चकित कर देती हैं बेटा।" सहसा हरी शंकर ने कहा_____"ऐसा शायद इस लिए है क्योंकि हमें तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं है। इतना तो हम भी समझते हैं कि जो सच में अच्छा होता है और सच्चे मन से कोई कार्य करता है उसके अंदर का हर भाव और हर सोच बहुत ही खूबसूरत होती है। तुम इतनी सुन्दर बातें करने लगे हो इससे ज़ाहिर है कि तुम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। हमें ये देख कर बेहद ख़ुशी हो रही है।"

"तुम कहते हो कि तुम्हें ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब तुम ऐसा सम्मान पाने लायक कोई काम करते।" मणि शंकर ने कहा_____"जबकि कोई ज़रूरी नहीं कि अच्छा काम करने के बाद ही किसी के द्वारा सम्मान मिले। कभी कभी अच्छी सोच और अच्छी भावना को देख कर भी सम्मान दिया जाता है और हमने वही किया है। हमें तुम में अब अच्छी सोच और अच्छी भावना ही नज़र आती है और इस लिए अब हमें यकीन भी हो चुका है कि अब आगे तुम जो भी करोगे वो सब अच्छा ही करोगे इस लिए उसके लिए पहले से ही तुम्हें सम्मान दे दिया तो ये ग़लत नहीं है।"

"ये तो मेरी खुशनसीबी है मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"कि आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मुझ पर इतना विश्वास कर बैठे हैं। मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि मैं आपके विश्वास को कभी न टूटने दूं और आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।" कहने के साथ ही मैंने उन सबके लड़कों की तरफ मुखातिब हुआ और फिर बोला____"आप सब मेरे भाई हैं, मित्र हैं। आपस की रंजिश भुला कर हमें अपने बीच भाईचारे का एक अटूट रिश्ता बनाना चाहिए। मेरा यकीन करो जब ऐसा होगा तो जीवन एक अलग ही रूप में निखरा हुआ नज़र आएगा।"

"तुम सही कह रहे हो वैभव।" मणि शंकर के बड़े बेटे चन्द्रभान ने कहा_____"हमारे बीच बेकार में ही इतने समय से अनबन रही। हालांकि हम दिल से कबूल करते हैं कि जब भी तुम्हारा मेरे भाइयों से लड़ाई झगड़ा हुआ तब उस झगड़े की पहल तुम्हारी तरफ से नहीं हुई थी। हर बार मेरे भाइयों ने ही तुम्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से तुमसे झगड़ा किया। ये अलग बात है कि हर बार उन्हें तुम्हारे द्वारा मुँह की ही खानी पड़ी। जहां तक मेरा सवाल है तो तुम भी जानते हो कि मैं किस तरह की फितरत का इंसान हूं। मुझे किसी से द्वेष रखना या किसी से बेवजह झगड़ा करना पसंद ही नहीं है। मैं तो अपने इन भाइयों को भी समझाता था कि ये लोग तुमसे बेवजह बैर न बनाएं, पर ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाना ही बेहतर है। अब हम सब एक हो गए हैं तो यकीनन हमारे बीच एक अच्छा भाईचारा होगा।"

"अच्छा अब ये सब बातें छोड़ो तुम लोग।" मणि शंकर ने कहा____"ये समय इन बातों का नहीं है बल्कि भोजन करने का है। तुम लोग आपस के मतभेद खाने के बाद दूर कर लेना। अभी सिर्फ भोजन करो।"

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।



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Mastmalang

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 35
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अब तक....

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।

अब आगे....


(दोस्तों यहाँ पर मैं एक बार फिर से गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे साहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ परिवार ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमें से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह की एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।


☆☆☆

जैसा कि मैंने बताया था कि गांव के ये साहूकार गांव के बाकी सभी लोगों से कहीं ज़्यादा संपन्न थे। इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास न जाने कितने ही गांव के मुखिया मेरे पिता दादा ठाकुर थे और हमारे बाद आस पास के इलाकों में अगर कोई दबदबा बना के रखा था तो वो थे मेरे गांव के साहूकार। चंद्रमणि क्योंकि अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे इस लिए उनके बाद उनका सारा कार्यभार उनके बड़े बेटे मणिशंकर सिंह के हाथों में था। गांव के ये साहूकार छल कपट करने वाले या बुरी नीयत वाले भले ही थे लेकिन इनमें एक बात काफी अच्छी थी कि ये चारो भाई हमेशा एकजुट रहते थे। आज तक कभी भी ऐसा नहीं सुना गया कि इन भाइयों के बीच कभी किसी तरह का वाद विवाद हुआ हो और यही हाल उनके बच्चों का भी था। जिस तरह गांव के एक छोर पर हमारी एक विशाल हवेली बनी हुई थी उसी तरह गांव के दूसरे छोर पर इन साहूकारों का भी विशाल मकान बना हुआ था जो कि दो मंजिला था। मकान के बाहर विशाल मैदान था और उस मैदान के बाद सड़़क के किनारे से क़रीब छह फिट ऊँची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके बीच में एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था।

मकान के मुख्य दरवाज़े पर भीड़़ सी लगी हुई थी जिनमें मर्द, औरत, लड़के और लड़़कियां भी थीं। सबके चेहरों में जहां एक चमक थी वहीं उस चमक के साथ साथ हैरानी और आश्चर्य भी विद्यमान था। मैं भले ही पक्का लड़कीबाज़ या औरतबाज़ था लेकिन ये भी सच था कि मैंने कभी साहूकारों की बहू बेटियों पर बुरी नज़र नहीं डाली थी और ये बात रूपचंद्र के अलावा सब जानते थे। कहते हैं कि इंसान जो भी अच्छा बुरा कर्म करता है उसके बारे में वो खुद भी अच्छी तरह जान रहा होता है कि उसने अच्छा कर्म किया है या बुरा। कहने का मतलब ये कि मेरी जब भी साहूकारों के लड़कों से लड़ाई झगड़ा हुआ था उसके बारे में साहूकार भी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि लड़ाई झगड़े की पहल करने वाला हमेशा मैं नहीं बल्कि उनके ही घर के लड़के होते थे। इंसान जब गहराई से किसी चीज़ के बारे में सोचता है तो उसे वास्तविकता का बोध होता है और अंदर ही अंदर उसे खुद उस वास्तविकता को मानना पड़ता है। शायद यही वजह थी कि आज ऐसे हालात बने थे और मैं साहूकारों के घर सम्मान के लिए लाया गया था।

मैं उन सबके पाँव छू कर आशीर्वाद ले रहा था जो उम्र में मुझसे बड़े़ थे, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़कों के भी। साहूकारों के आधे से ज़्यादा लड़के उम्र में मुझसे बड़े थे। उस वक़्त उनके चेहरे देखने लायक हो गए थे जब मैं झुक कर उनके पाँव छू रहा था। उनके मुँह भाड़ की तरह खुले के खुले रह गए थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि किसी के बाप के भी सामने न झुकने वाला ठाकुर वैभव सिंह आज अपने ही दुश्मनों के सामने झुक कर उनके पाँव छू रहा था।

"ये तो ग़लत बात है चंद्र भइया।" मैंने चंद्रभान की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने आपके पाँव छुए और आपने मुझे कोई आशीर्वाद भी नहीं दिया?"

सच कहूं तो अपने इस आचरण से अंदर ही अंदर मैं खुद भी हैरान था लेकिन ये सोच कर मन ही मन मुझे मज़ा भी आ रहा था कि ये साले कैसे मेरे इस शिष्टाचार से बुत बन गए हैं। ख़ैर मेरी बात सुन कर चंद्रभान बुरी तरह हड़बड़ाया और फिर सबकी तरफ देखने के बाद ज़बरदस्ती अपने होठों पर मुस्कान सजा कर धीमी आवाज़ में खुश रहो कहा।

"मैं जानता हूं कि आज से पहले मैं किस तरह का इंसान था।" मैंने सबकी तरफ बारी बारी से देखते हुए शांत भाव से कहा_____"और मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरी वजह से हमेशा मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ लेकिन कहते हैं ना कि वक़्त की तरह इंसान भी हमेशा एक जैसा नहीं बना रह सकता। वक़्त और हालात अच्छे अच्छों को सही रास्ते पर ले आते हैं, मैं तो फिर भी एक अदना सा बच्चा हूं। मैं अभी तक ये सोच कर हैरान हूं कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया है जिसके लिए मणि काका अपने घर मुझे सम्मान देने के लिए ले आए हैं लेकिन कहीं न कहीं इस बात से ये महसूस भी करता हूं कि ऐसा कर के उन्होंने मेरे ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी रख दी है जिसे अब से पहले मैं समझ ही नहीं पाया था। वो जिम्मेदारी यही है कि अब से मैं वैसा ही बना रहूं जिसके लिए मुझे मणि काका ने ये सम्मान दिया है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैं पूरी तरह अब बदल ही जाऊंगा क्योंकि जो इंसान अब से पहले सिर्फ और सिर्फ बुराई का ही पुतला था वो एकदम से अच्छा कैसे बन जाएगा? उसे अच्छा बनने में थोड़ा तो समय लगेगा ही, पर मैं वचन देता हूं कि अब से मैं आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरुंगा। मैं अपने इन छोटे और बड़े़ भाइयों से भी यही कहता हूं कि आज से पहले हमारे बीच जो कुछ भी हुआ है उसे हम बुरा सपना समझ कर भुला देते हैं और अब से हम सब एक हो कर एक ऐसे रिश्ते का आग़ाज़ करते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और विश्वास हो।"

मैं लम्बा चौड़ा भाषण दे कर चुप हुआ तो फ़िज़ा में गहरा सन्नाटा छा गया। हर आँख मुझ पर ही टिकी हुई थी। हर चेहरे पर एक अलग ही तरह का भाव तैरता हुआ नज़र आ रहा था। सहसा फ़िज़ा में ताली बजने की आवाज़ हुई तो मैंने देखा मणि शंकर काका ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रहे थे। उन्हें ताली बजाता देख एक एक कर के हर कोई ताली बजाने लगा, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़के भी। सभी के चेहरों में ख़ुशी की चमक उभर आई थी।

"चलो अब ये सब बहुत हुआ।" मणि शंकर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"छोटे ठाकुर को अब क्या बाहर ही खड़ा रखोगे तुम लोग?"

"रूकिए मणि काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आज के बाद आप में से कोई भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहेंगे। मैं आप सबको और इस घर को अपना मान चुका हूं इस लिए मेरे लिए किसी भी तरह की औपचारिकता निभाने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। आप सब मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है वैभव बेटा।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"हमें अच्छा लगा कि तुम इतना कुछ सोचते हो। ख़ैर अब चलो अंदर चलो।"

उसके बाद एक एक कर के भीड़ छटने लगी और मैं मणि काका और उनके भाइयों के साथ मुख्य दरवाज़े के अंदर जाने लगा। मेरे आगे पीछे औरतें और लड़के लड़कियां भी थीं। उन्हीं के बीच रूपा भी थी लेकिन मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि इस वक़्त मैं साहूकारों की किसी भी लड़की की तरफ न देखूं। ख़ास कर रूपा की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उसका भाई रूपचंद्र इस वक़्त ज़रूर यही ताड़ने की कोशिश कर रहा होगा कि मैं उसकी बहन की तरफ देखता हूं कि नहीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में मैं सबके साथ अंदर एक बड़े से हाल में आ गया जहां पर चारो तरफ कतार से कुर्सियां लगी हुई थीं। मुख्य कुर्सी बाकी कुर्सियों से अलग थी। ज़ाहिर था वो परिवार के मुखिया जी कुर्सी थी।

मैं पहली बार साहूकारों के मकान के अंदर आया था। वैसे इसके पहले भी मैं कई बार आया था लेकिन तब मैं रूपा के कमरे में ही खिड़की के रास्ते आया गया था। हाल में लगी कुर्सियों के सामने एक एक कर के कई सारे स्टूल रखे हुए थे। मणि शंकर ने मुझे जिस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया मैं उसी पर बैठ गया।

"मणि काका।" इससे पहले कि बाकी लोग भी अपनी अपनी कुर्सी पर बैठते मैं एकदम से बोल पड़ा____"यहां पर बैठने से पहले मैं इस घर के मुख्य सदस्य से मिल कर उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूं।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर चौकने वाले भाव उभर आए। कदाचित उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई थी और ऐसा इस लिए क्योंकि घर के मुखिया तो मणि शंकर ही थे तो फिर मैंने किसका आशीर्वाद लेने की बात की थी?

"आप लोग हैरान क्यों हो रहे हैं?" मैंने सबकी तरफ नज़रें घुमाते हुए कहा____"मैं इस घर के असली मुखिया यानी दादा दादी का आशीर्वाद लेने की बात कर रहा हूं।"

"ओह! अच्छा अच्छा हाहाहा।" मेरी बात सुनते ही मणि शंकर एकदम से हंसते हुए बोल पड़ा। उसके साथ उसके भाई भी मुस्कुरा उठे थे, इधर मणि काका ने कहा____"बहुत खूब वैभव बेटा। हमें तो लगा था कि तुम्हें वो याद ही नहीं होंगे लेकिन ग़लत लगा था हमें। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई तुम्हारी इस बात से। चलो हम खुद तुम्हें उनके कमरे में ले चलते हैं। असल में वो दोनों ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहते हैं। एक तो उम्र ज़्यादा हो गई है दूसरे बिमारी की वजह से कहीं आने जाने में उन्हें भारी तकलीफ़ होती है।"

मैं मणि शंकर के साथ हाल के दूसरे छोर की तरफ बढ़ चला। मैं क्योंकि मणि शंकर के पीछे चल रहा था इस लिए इधर उधर बड़ी आसानी से देख सकता था। मैं ये देख कर थोड़ा चकित था कि साहूकारों का ये मकान अंदर से कितना सुन्दर बना हुआ था। हालांकि हमारी हवेली के मुकामले ये मकान कुछ भी नहीं था लेकिन जितना भी था वो अपने आप में ही उनकी हैसियत और उनके रुतबे का सबूत दे रहा था। कुछ ही देर में चलते हुए हम एक बड़े से कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे। मणि काका ने दरवाज़ा खोला और मुझे अपने साथ अंदर आने का इशारा किया। कमरा काफी बड़ा था और काफी सुन्दर भी। कमरे के अंदर दो भारी बेड रखे हुए थे। एक बेड पर एक बूढ़ा शख़्स रेशमी चद्दर ओढ़े लेटा हुआ था और दूसरे में एक बुढ़िया। दोनों के ही जिस्म कमज़ोर और बीमार नज़र आ रहे थे।

मणि शंकर ने आगे बढ़ कर बूढ़े चंद्रमणि को आवाज़ दी तो बूढ़े ने अपनी कमज़ोर सी आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा। मणि शंकर की आवाज़ सुन कर दूसरे बेड पर लेटी बुढ़िया की भी आँखें खुल गईं थी। मणि शंकर ने बूढ़े को मेरे बारे में बताया तो बूढ़ा सीधा लेटने की कोशिश करने लगा। मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ कर बेड के क़रीब पहुंचा।

"ख़ु...खुश रहो बेटा।" मैंने जैसे ही बूढ़े चंद्रमणि के पाँव छुए तो उसने अपनी मरियल सी आवाज़ में कहा____"भगवान हमेशा तुम्हारा कल्याण करे।"

बूढ़े से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने दूसरे बेड पर लेटी उसकी बूढ़ी बीवी सुभद्रा के भी पाँव छुए तो उसने भी मुझे स्नेह और आशीष दिया। कुछ देर मैं वहीं बूढ़े के पास ही खड़ा रहा। इस बीच बूढ़े ने अपने बेटे मणि शंकर से मेरे और मेरे खानदान के बारे में और भी बहुत सी बातें पूछी जिनके कुछ जवाब मणि शंकर काका ने दिए और कुछ के मैंने। वापट लौटते समय मैंने एक बार फिर से उन दोनों का आशीर्वाद लिया और फिर मणि शंकर काका के साथ वापस हाल में आ गया।

हाल में आया तो देखा घर के सभी मर्द अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मणि शंकर के इशारे पर मैं भी उसके क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने एक बार हाल में बैठे सभी लोगों पर निगाह घुमाई। मणि शंकर और उसके भाइयों के चेहरों पर जहां ख़ुशी के भाव दिख रहे थे वहीं उनके बेटों के चेहरों पर थोड़ी उलझन सी दिखाई दे रही थी। मैं समझ सकता था कि उनके लिए मेरा यहाँ पर आना इतनी आसानी से हजम नहीं हो सकता था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैंने पूरी तरह पक्का कर लिया था कि पूरे मन से वही करुंगा जिस उद्देश्य के तहत मैं यहाँ आया था या ये कहूं कि पिता जी ने मुझे भेजा था। मैं अपने बर्ताव से कुछ ऐसा करुंगा जिससे साहूकार और उनके बेटों के ज़हन से मेरे प्रति हर तरह की बुरी धारणा मिट जाए। हालांकि ये न तो मेरे लिए आसान था और ना ही उन सबके लिए।

अभी मुझे कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पल ही हुए थे कि अंदर से एक के बाद एक औरतें हाथों में थाली लिए हाल में आने लगीं। उन सबने एक एक कर के हम सबके सामने रखे स्टूल पर थालियों को रख दिया। उनके जाते ही एक बार फिर से कुछ औरतें आती दिखीं जिनके हाथों में पानी से भरा लोटा ग्लास था जिसे उन सबने हम सबकी थाली के बगल से रख दिया। मैं मन ही मन मणि शंकर के यहाँ की इस ब्यवस्था को देख कर थोड़ा हैरान हुआ और तारीफ़ किए बिना भी न रह सका। पूरे हाल में हम सबके बीच एक ख़ामोशी विद्यमान थी जबकि मेरा ख़याल ये था कि इस बीच बड़े बुजुर्ग किसी न किसी विषय पर बात चीत ज़रूर शुरू करेंगे। मैंने भी बीच में कुछ भी बोलना सही नहीं समझा था। हर कोई एक दूसरे की तरफ एक बार देखता और फिर अपनी नज़रें हटा लेता। एक अजीब सा वातावरण छा गया था हाल में। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी फिर से अंदर से वही औरतें आने लगीं। इस बार उनके हाथों में छोटी थाली यानी प्लेट्स थीं जिन्हें उन लोगों ने एक एक कर के हम सबके सामने स्टूल पर रख दिया। मैंने देखा उन प्लेट्स में कई प्रकार के फल रखे हुए थे। पहले जो थालियां आईं थी उनमें खाने का गरमा गरम पकवान था। ख़ैर उनके जाने के बाद मुझे लगा अब खाना पीना शुरू होगा लेकिन अगले ही पल मैं ग़लत साबित हो गया क्योंकि तभी कुछ औरतें फिर से आती नज़र आईं। उनके हाथों में बड़ी बड़ी परात जैसी थाली थी। जब वो क़रीब आईं तो मैंने देखा उन परात में कई सारी कटोरियां रखी हुईं थी जिनमें खीर और रसगुल्ले रखे हुए थे। थोड़ी ही देर में उन सबने दो दो कटोरियां सबके सामने थाली के बगल से रख दिया। ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब कभी खाया ही नहीं था लेकिन जिस तरीके से ये सब पेश किया जा रहा था वो गज़ब था।

सामने रखे स्टूल पर इतना सारा खाना एक ही बार में देख कर अपना तो पेट ही भर गया था। हमारी हवेली में इससे भी बढ़ कर ब्यंजन बनाए जाते थे लेकिन अपने को साधारण खाना ही पसंद था। अगर दिल की बात बताऊं तो मुझे अपने जीवन में वो खाना पसंद था जो अनुराधा बनाती थी। अनुराधा के खाने की याद आई तो एकदम से उसका मासूम चेहरा मेरी आँखों के सामने उजागर हो गया। उसका मेरे सामने छुई मुई सा हो जाना, उसका झिझकना, उसका शर्माना और मेरे द्वारा अपने खाने की तारीफ़ सुन कर हौले से मुस्कुराना ये सब एकदम से मुझे याद आया तो दिल में एक हलचल सी पैदा हो गई। पता नहीं क्या बात थी उसमें कि जब भी उसके बारे में सोचता था एक अजीब ही तरह का एहसास जागृत हो जाता था। मेरे दिल में एकदम से उसको देखने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने किसी तरह अपनी इस इच्छा को दबाया और उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा लिया।

"वैभव बेटा चलो शुरू करो।" मणि शंकर ने एकदम से कहा तो मैंने उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा_____"वैसे हमें पता है कि इससे कहीं ज़्यादा बेहतर पकवान तुम्हें अपनी हवेली में खाने को मिलते हैं लेकिन हमारे पास तो बस यही रुखा सूखा है।"

"ऐसा क्यों कहते हैं मणि काका?" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा_____"आपको शायद पता नहीं लेकिन मैं हमेशा साधारण भोजन ही खाना पसंद करता हूं। ये सच है कि हवेली में न जाने कितने ही प्रकार के पकवान बनते हैं लेकिन मेरा उन पकवानों से कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर पहले में और अब में ज़मीन आसमान का फ़र्क हो गया है। आज अगर आपके यहाँ मुझे नमक रोटी भी मिलती तो मुझे ज़रा सा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे आपकी उस नमक रोटी में भी आपके प्यार और स्नेह की मीठी सुगंध का आभास होता। मैंने तो आपसे पहले भी कहा था कि मेरे लिए इतना सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मुझे अपने लिए ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब मैंने सम्मान पाने लायक वाकई में कोई काम किया होता।"

"तुम्हारी बातें हमें आश्चर्य चकित कर देती हैं बेटा।" सहसा हरी शंकर ने कहा_____"ऐसा शायद इस लिए है क्योंकि हमें तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं है। इतना तो हम भी समझते हैं कि जो सच में अच्छा होता है और सच्चे मन से कोई कार्य करता है उसके अंदर का हर भाव और हर सोच बहुत ही खूबसूरत होती है। तुम इतनी सुन्दर बातें करने लगे हो इससे ज़ाहिर है कि तुम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। हमें ये देख कर बेहद ख़ुशी हो रही है।"

"तुम कहते हो कि तुम्हें ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब तुम ऐसा सम्मान पाने लायक कोई काम करते।" मणि शंकर ने कहा_____"जबकि कोई ज़रूरी नहीं कि अच्छा काम करने के बाद ही किसी के द्वारा सम्मान मिले। कभी कभी अच्छी सोच और अच्छी भावना को देख कर भी सम्मान दिया जाता है और हमने वही किया है। हमें तुम में अब अच्छी सोच और अच्छी भावना ही नज़र आती है और इस लिए अब हमें यकीन भी हो चुका है कि अब आगे तुम जो भी करोगे वो सब अच्छा ही करोगे इस लिए उसके लिए पहले से ही तुम्हें सम्मान दे दिया तो ये ग़लत नहीं है।"

"ये तो मेरी खुशनसीबी है मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"कि आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मुझ पर इतना विश्वास कर बैठे हैं। मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि मैं आपके विश्वास को कभी न टूटने दूं और आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।" कहने के साथ ही मैंने उन सबके लड़कों की तरफ मुखातिब हुआ और फिर बोला____"आप सब मेरे भाई हैं, मित्र हैं। आपस की रंजिश भुला कर हमें अपने बीच भाईचारे का एक अटूट रिश्ता बनाना चाहिए। मेरा यकीन करो जब ऐसा होगा तो जीवन एक अलग ही रूप में निखरा हुआ नज़र आएगा।"

"तुम सही कह रहे हो वैभव।" मणि शंकर के बड़े बेटे चन्द्रभान ने कहा_____"हमारे बीच बेकार में ही इतने समय से अनबन रही। हालांकि हम दिल से कबूल करते हैं कि जब भी तुम्हारा मेरे भाइयों से लड़ाई झगड़ा हुआ तब उस झगड़े की पहल तुम्हारी तरफ से नहीं हुई थी। हर बार मेरे भाइयों ने ही तुम्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से तुमसे झगड़ा किया। ये अलग बात है कि हर बार उन्हें तुम्हारे द्वारा मुँह की ही खानी पड़ी। जहां तक मेरा सवाल है तो तुम भी जानते हो कि मैं किस तरह की फितरत का इंसान हूं। मुझे किसी से द्वेष रखना या किसी से बेवजह झगड़ा करना पसंद ही नहीं है। मैं तो अपने इन भाइयों को भी समझाता था कि ये लोग तुमसे बेवजह बैर न बनाएं, पर ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाना ही बेहतर है। अब हम सब एक हो गए हैं तो यकीनन हमारे बीच एक अच्छा भाईचारा होगा।"

"अच्छा अब ये सब बातें छोड़ो तुम लोग।" मणि शंकर ने कहा____"ये समय इन बातों का नहीं है बल्कि भोजन करने का है। तुम लोग आपस के मतभेद खाने के बाद दूर कर लेना। अभी सिर्फ भोजन करो।"

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।



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उम्मीद करता हूँ कि आपकी वापसी का क्रम रूकेगा नहीं ।
 

Yamraaj

Put your Attitude on my Dick......
2,168
6,840
159
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 35
----------☆☆☆----------


अब तक....

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।

अब आगे....


(दोस्तों यहाँ पर मैं एक बार फिर से गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे साहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ परिवार ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमें से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह की एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।


☆☆☆

जैसा कि मैंने बताया था कि गांव के ये साहूकार गांव के बाकी सभी लोगों से कहीं ज़्यादा संपन्न थे। इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास न जाने कितने ही गांव के मुखिया मेरे पिता दादा ठाकुर थे और हमारे बाद आस पास के इलाकों में अगर कोई दबदबा बना के रखा था तो वो थे मेरे गांव के साहूकार। चंद्रमणि क्योंकि अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे इस लिए उनके बाद उनका सारा कार्यभार उनके बड़े बेटे मणिशंकर सिंह के हाथों में था। गांव के ये साहूकार छल कपट करने वाले या बुरी नीयत वाले भले ही थे लेकिन इनमें एक बात काफी अच्छी थी कि ये चारो भाई हमेशा एकजुट रहते थे। आज तक कभी भी ऐसा नहीं सुना गया कि इन भाइयों के बीच कभी किसी तरह का वाद विवाद हुआ हो और यही हाल उनके बच्चों का भी था। जिस तरह गांव के एक छोर पर हमारी एक विशाल हवेली बनी हुई थी उसी तरह गांव के दूसरे छोर पर इन साहूकारों का भी विशाल मकान बना हुआ था जो कि दो मंजिला था। मकान के बाहर विशाल मैदान था और उस मैदान के बाद सड़़क के किनारे से क़रीब छह फिट ऊँची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके बीच में एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था।

मकान के मुख्य दरवाज़े पर भीड़़ सी लगी हुई थी जिनमें मर्द, औरत, लड़के और लड़़कियां भी थीं। सबके चेहरों में जहां एक चमक थी वहीं उस चमक के साथ साथ हैरानी और आश्चर्य भी विद्यमान था। मैं भले ही पक्का लड़कीबाज़ या औरतबाज़ था लेकिन ये भी सच था कि मैंने कभी साहूकारों की बहू बेटियों पर बुरी नज़र नहीं डाली थी और ये बात रूपचंद्र के अलावा सब जानते थे। कहते हैं कि इंसान जो भी अच्छा बुरा कर्म करता है उसके बारे में वो खुद भी अच्छी तरह जान रहा होता है कि उसने अच्छा कर्म किया है या बुरा। कहने का मतलब ये कि मेरी जब भी साहूकारों के लड़कों से लड़ाई झगड़ा हुआ था उसके बारे में साहूकार भी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि लड़ाई झगड़े की पहल करने वाला हमेशा मैं नहीं बल्कि उनके ही घर के लड़के होते थे। इंसान जब गहराई से किसी चीज़ के बारे में सोचता है तो उसे वास्तविकता का बोध होता है और अंदर ही अंदर उसे खुद उस वास्तविकता को मानना पड़ता है। शायद यही वजह थी कि आज ऐसे हालात बने थे और मैं साहूकारों के घर सम्मान के लिए लाया गया था।

मैं उन सबके पाँव छू कर आशीर्वाद ले रहा था जो उम्र में मुझसे बड़े़ थे, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़कों के भी। साहूकारों के आधे से ज़्यादा लड़के उम्र में मुझसे बड़े थे। उस वक़्त उनके चेहरे देखने लायक हो गए थे जब मैं झुक कर उनके पाँव छू रहा था। उनके मुँह भाड़ की तरह खुले के खुले रह गए थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि किसी के बाप के भी सामने न झुकने वाला ठाकुर वैभव सिंह आज अपने ही दुश्मनों के सामने झुक कर उनके पाँव छू रहा था।

"ये तो ग़लत बात है चंद्र भइया।" मैंने चंद्रभान की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने आपके पाँव छुए और आपने मुझे कोई आशीर्वाद भी नहीं दिया?"

सच कहूं तो अपने इस आचरण से अंदर ही अंदर मैं खुद भी हैरान था लेकिन ये सोच कर मन ही मन मुझे मज़ा भी आ रहा था कि ये साले कैसे मेरे इस शिष्टाचार से बुत बन गए हैं। ख़ैर मेरी बात सुन कर चंद्रभान बुरी तरह हड़बड़ाया और फिर सबकी तरफ देखने के बाद ज़बरदस्ती अपने होठों पर मुस्कान सजा कर धीमी आवाज़ में खुश रहो कहा।

"मैं जानता हूं कि आज से पहले मैं किस तरह का इंसान था।" मैंने सबकी तरफ बारी बारी से देखते हुए शांत भाव से कहा_____"और मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरी वजह से हमेशा मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ लेकिन कहते हैं ना कि वक़्त की तरह इंसान भी हमेशा एक जैसा नहीं बना रह सकता। वक़्त और हालात अच्छे अच्छों को सही रास्ते पर ले आते हैं, मैं तो फिर भी एक अदना सा बच्चा हूं। मैं अभी तक ये सोच कर हैरान हूं कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया है जिसके लिए मणि काका अपने घर मुझे सम्मान देने के लिए ले आए हैं लेकिन कहीं न कहीं इस बात से ये महसूस भी करता हूं कि ऐसा कर के उन्होंने मेरे ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी रख दी है जिसे अब से पहले मैं समझ ही नहीं पाया था। वो जिम्मेदारी यही है कि अब से मैं वैसा ही बना रहूं जिसके लिए मुझे मणि काका ने ये सम्मान दिया है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैं पूरी तरह अब बदल ही जाऊंगा क्योंकि जो इंसान अब से पहले सिर्फ और सिर्फ बुराई का ही पुतला था वो एकदम से अच्छा कैसे बन जाएगा? उसे अच्छा बनने में थोड़ा तो समय लगेगा ही, पर मैं वचन देता हूं कि अब से मैं आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरुंगा। मैं अपने इन छोटे और बड़े़ भाइयों से भी यही कहता हूं कि आज से पहले हमारे बीच जो कुछ भी हुआ है उसे हम बुरा सपना समझ कर भुला देते हैं और अब से हम सब एक हो कर एक ऐसे रिश्ते का आग़ाज़ करते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और विश्वास हो।"

मैं लम्बा चौड़ा भाषण दे कर चुप हुआ तो फ़िज़ा में गहरा सन्नाटा छा गया। हर आँख मुझ पर ही टिकी हुई थी। हर चेहरे पर एक अलग ही तरह का भाव तैरता हुआ नज़र आ रहा था। सहसा फ़िज़ा में ताली बजने की आवाज़ हुई तो मैंने देखा मणि शंकर काका ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रहे थे। उन्हें ताली बजाता देख एक एक कर के हर कोई ताली बजाने लगा, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़के भी। सभी के चेहरों में ख़ुशी की चमक उभर आई थी।

"चलो अब ये सब बहुत हुआ।" मणि शंकर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"छोटे ठाकुर को अब क्या बाहर ही खड़ा रखोगे तुम लोग?"

"रूकिए मणि काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आज के बाद आप में से कोई भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहेंगे। मैं आप सबको और इस घर को अपना मान चुका हूं इस लिए मेरे लिए किसी भी तरह की औपचारिकता निभाने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। आप सब मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है वैभव बेटा।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"हमें अच्छा लगा कि तुम इतना कुछ सोचते हो। ख़ैर अब चलो अंदर चलो।"

उसके बाद एक एक कर के भीड़ छटने लगी और मैं मणि काका और उनके भाइयों के साथ मुख्य दरवाज़े के अंदर जाने लगा। मेरे आगे पीछे औरतें और लड़के लड़कियां भी थीं। उन्हीं के बीच रूपा भी थी लेकिन मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि इस वक़्त मैं साहूकारों की किसी भी लड़की की तरफ न देखूं। ख़ास कर रूपा की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उसका भाई रूपचंद्र इस वक़्त ज़रूर यही ताड़ने की कोशिश कर रहा होगा कि मैं उसकी बहन की तरफ देखता हूं कि नहीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में मैं सबके साथ अंदर एक बड़े से हाल में आ गया जहां पर चारो तरफ कतार से कुर्सियां लगी हुई थीं। मुख्य कुर्सी बाकी कुर्सियों से अलग थी। ज़ाहिर था वो परिवार के मुखिया जी कुर्सी थी।

मैं पहली बार साहूकारों के मकान के अंदर आया था। वैसे इसके पहले भी मैं कई बार आया था लेकिन तब मैं रूपा के कमरे में ही खिड़की के रास्ते आया गया था। हाल में लगी कुर्सियों के सामने एक एक कर के कई सारे स्टूल रखे हुए थे। मणि शंकर ने मुझे जिस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया मैं उसी पर बैठ गया।

"मणि काका।" इससे पहले कि बाकी लोग भी अपनी अपनी कुर्सी पर बैठते मैं एकदम से बोल पड़ा____"यहां पर बैठने से पहले मैं इस घर के मुख्य सदस्य से मिल कर उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूं।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर चौकने वाले भाव उभर आए। कदाचित उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई थी और ऐसा इस लिए क्योंकि घर के मुखिया तो मणि शंकर ही थे तो फिर मैंने किसका आशीर्वाद लेने की बात की थी?

"आप लोग हैरान क्यों हो रहे हैं?" मैंने सबकी तरफ नज़रें घुमाते हुए कहा____"मैं इस घर के असली मुखिया यानी दादा दादी का आशीर्वाद लेने की बात कर रहा हूं।"

"ओह! अच्छा अच्छा हाहाहा।" मेरी बात सुनते ही मणि शंकर एकदम से हंसते हुए बोल पड़ा। उसके साथ उसके भाई भी मुस्कुरा उठे थे, इधर मणि काका ने कहा____"बहुत खूब वैभव बेटा। हमें तो लगा था कि तुम्हें वो याद ही नहीं होंगे लेकिन ग़लत लगा था हमें। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई तुम्हारी इस बात से। चलो हम खुद तुम्हें उनके कमरे में ले चलते हैं। असल में वो दोनों ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहते हैं। एक तो उम्र ज़्यादा हो गई है दूसरे बिमारी की वजह से कहीं आने जाने में उन्हें भारी तकलीफ़ होती है।"

मैं मणि शंकर के साथ हाल के दूसरे छोर की तरफ बढ़ चला। मैं क्योंकि मणि शंकर के पीछे चल रहा था इस लिए इधर उधर बड़ी आसानी से देख सकता था। मैं ये देख कर थोड़ा चकित था कि साहूकारों का ये मकान अंदर से कितना सुन्दर बना हुआ था। हालांकि हमारी हवेली के मुकामले ये मकान कुछ भी नहीं था लेकिन जितना भी था वो अपने आप में ही उनकी हैसियत और उनके रुतबे का सबूत दे रहा था। कुछ ही देर में चलते हुए हम एक बड़े से कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे। मणि काका ने दरवाज़ा खोला और मुझे अपने साथ अंदर आने का इशारा किया। कमरा काफी बड़ा था और काफी सुन्दर भी। कमरे के अंदर दो भारी बेड रखे हुए थे। एक बेड पर एक बूढ़ा शख़्स रेशमी चद्दर ओढ़े लेटा हुआ था और दूसरे में एक बुढ़िया। दोनों के ही जिस्म कमज़ोर और बीमार नज़र आ रहे थे।

मणि शंकर ने आगे बढ़ कर बूढ़े चंद्रमणि को आवाज़ दी तो बूढ़े ने अपनी कमज़ोर सी आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा। मणि शंकर की आवाज़ सुन कर दूसरे बेड पर लेटी बुढ़िया की भी आँखें खुल गईं थी। मणि शंकर ने बूढ़े को मेरे बारे में बताया तो बूढ़ा सीधा लेटने की कोशिश करने लगा। मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ कर बेड के क़रीब पहुंचा।

"ख़ु...खुश रहो बेटा।" मैंने जैसे ही बूढ़े चंद्रमणि के पाँव छुए तो उसने अपनी मरियल सी आवाज़ में कहा____"भगवान हमेशा तुम्हारा कल्याण करे।"

बूढ़े से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने दूसरे बेड पर लेटी उसकी बूढ़ी बीवी सुभद्रा के भी पाँव छुए तो उसने भी मुझे स्नेह और आशीष दिया। कुछ देर मैं वहीं बूढ़े के पास ही खड़ा रहा। इस बीच बूढ़े ने अपने बेटे मणि शंकर से मेरे और मेरे खानदान के बारे में और भी बहुत सी बातें पूछी जिनके कुछ जवाब मणि शंकर काका ने दिए और कुछ के मैंने। वापट लौटते समय मैंने एक बार फिर से उन दोनों का आशीर्वाद लिया और फिर मणि शंकर काका के साथ वापस हाल में आ गया।

हाल में आया तो देखा घर के सभी मर्द अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मणि शंकर के इशारे पर मैं भी उसके क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने एक बार हाल में बैठे सभी लोगों पर निगाह घुमाई। मणि शंकर और उसके भाइयों के चेहरों पर जहां ख़ुशी के भाव दिख रहे थे वहीं उनके बेटों के चेहरों पर थोड़ी उलझन सी दिखाई दे रही थी। मैं समझ सकता था कि उनके लिए मेरा यहाँ पर आना इतनी आसानी से हजम नहीं हो सकता था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैंने पूरी तरह पक्का कर लिया था कि पूरे मन से वही करुंगा जिस उद्देश्य के तहत मैं यहाँ आया था या ये कहूं कि पिता जी ने मुझे भेजा था। मैं अपने बर्ताव से कुछ ऐसा करुंगा जिससे साहूकार और उनके बेटों के ज़हन से मेरे प्रति हर तरह की बुरी धारणा मिट जाए। हालांकि ये न तो मेरे लिए आसान था और ना ही उन सबके लिए।

अभी मुझे कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पल ही हुए थे कि अंदर से एक के बाद एक औरतें हाथों में थाली लिए हाल में आने लगीं। उन सबने एक एक कर के हम सबके सामने रखे स्टूल पर थालियों को रख दिया। उनके जाते ही एक बार फिर से कुछ औरतें आती दिखीं जिनके हाथों में पानी से भरा लोटा ग्लास था जिसे उन सबने हम सबकी थाली के बगल से रख दिया। मैं मन ही मन मणि शंकर के यहाँ की इस ब्यवस्था को देख कर थोड़ा हैरान हुआ और तारीफ़ किए बिना भी न रह सका। पूरे हाल में हम सबके बीच एक ख़ामोशी विद्यमान थी जबकि मेरा ख़याल ये था कि इस बीच बड़े बुजुर्ग किसी न किसी विषय पर बात चीत ज़रूर शुरू करेंगे। मैंने भी बीच में कुछ भी बोलना सही नहीं समझा था। हर कोई एक दूसरे की तरफ एक बार देखता और फिर अपनी नज़रें हटा लेता। एक अजीब सा वातावरण छा गया था हाल में। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी फिर से अंदर से वही औरतें आने लगीं। इस बार उनके हाथों में छोटी थाली यानी प्लेट्स थीं जिन्हें उन लोगों ने एक एक कर के हम सबके सामने स्टूल पर रख दिया। मैंने देखा उन प्लेट्स में कई प्रकार के फल रखे हुए थे। पहले जो थालियां आईं थी उनमें खाने का गरमा गरम पकवान था। ख़ैर उनके जाने के बाद मुझे लगा अब खाना पीना शुरू होगा लेकिन अगले ही पल मैं ग़लत साबित हो गया क्योंकि तभी कुछ औरतें फिर से आती नज़र आईं। उनके हाथों में बड़ी बड़ी परात जैसी थाली थी। जब वो क़रीब आईं तो मैंने देखा उन परात में कई सारी कटोरियां रखी हुईं थी जिनमें खीर और रसगुल्ले रखे हुए थे। थोड़ी ही देर में उन सबने दो दो कटोरियां सबके सामने थाली के बगल से रख दिया। ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब कभी खाया ही नहीं था लेकिन जिस तरीके से ये सब पेश किया जा रहा था वो गज़ब था।

सामने रखे स्टूल पर इतना सारा खाना एक ही बार में देख कर अपना तो पेट ही भर गया था। हमारी हवेली में इससे भी बढ़ कर ब्यंजन बनाए जाते थे लेकिन अपने को साधारण खाना ही पसंद था। अगर दिल की बात बताऊं तो मुझे अपने जीवन में वो खाना पसंद था जो अनुराधा बनाती थी। अनुराधा के खाने की याद आई तो एकदम से उसका मासूम चेहरा मेरी आँखों के सामने उजागर हो गया। उसका मेरे सामने छुई मुई सा हो जाना, उसका झिझकना, उसका शर्माना और मेरे द्वारा अपने खाने की तारीफ़ सुन कर हौले से मुस्कुराना ये सब एकदम से मुझे याद आया तो दिल में एक हलचल सी पैदा हो गई। पता नहीं क्या बात थी उसमें कि जब भी उसके बारे में सोचता था एक अजीब ही तरह का एहसास जागृत हो जाता था। मेरे दिल में एकदम से उसको देखने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने किसी तरह अपनी इस इच्छा को दबाया और उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा लिया।

"वैभव बेटा चलो शुरू करो।" मणि शंकर ने एकदम से कहा तो मैंने उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा_____"वैसे हमें पता है कि इससे कहीं ज़्यादा बेहतर पकवान तुम्हें अपनी हवेली में खाने को मिलते हैं लेकिन हमारे पास तो बस यही रुखा सूखा है।"

"ऐसा क्यों कहते हैं मणि काका?" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा_____"आपको शायद पता नहीं लेकिन मैं हमेशा साधारण भोजन ही खाना पसंद करता हूं। ये सच है कि हवेली में न जाने कितने ही प्रकार के पकवान बनते हैं लेकिन मेरा उन पकवानों से कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर पहले में और अब में ज़मीन आसमान का फ़र्क हो गया है। आज अगर आपके यहाँ मुझे नमक रोटी भी मिलती तो मुझे ज़रा सा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे आपकी उस नमक रोटी में भी आपके प्यार और स्नेह की मीठी सुगंध का आभास होता। मैंने तो आपसे पहले भी कहा था कि मेरे लिए इतना सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मुझे अपने लिए ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब मैंने सम्मान पाने लायक वाकई में कोई काम किया होता।"

"तुम्हारी बातें हमें आश्चर्य चकित कर देती हैं बेटा।" सहसा हरी शंकर ने कहा_____"ऐसा शायद इस लिए है क्योंकि हमें तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं है। इतना तो हम भी समझते हैं कि जो सच में अच्छा होता है और सच्चे मन से कोई कार्य करता है उसके अंदर का हर भाव और हर सोच बहुत ही खूबसूरत होती है। तुम इतनी सुन्दर बातें करने लगे हो इससे ज़ाहिर है कि तुम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। हमें ये देख कर बेहद ख़ुशी हो रही है।"

"तुम कहते हो कि तुम्हें ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब तुम ऐसा सम्मान पाने लायक कोई काम करते।" मणि शंकर ने कहा_____"जबकि कोई ज़रूरी नहीं कि अच्छा काम करने के बाद ही किसी के द्वारा सम्मान मिले। कभी कभी अच्छी सोच और अच्छी भावना को देख कर भी सम्मान दिया जाता है और हमने वही किया है। हमें तुम में अब अच्छी सोच और अच्छी भावना ही नज़र आती है और इस लिए अब हमें यकीन भी हो चुका है कि अब आगे तुम जो भी करोगे वो सब अच्छा ही करोगे इस लिए उसके लिए पहले से ही तुम्हें सम्मान दे दिया तो ये ग़लत नहीं है।"

"ये तो मेरी खुशनसीबी है मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"कि आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मुझ पर इतना विश्वास कर बैठे हैं। मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि मैं आपके विश्वास को कभी न टूटने दूं और आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।" कहने के साथ ही मैंने उन सबके लड़कों की तरफ मुखातिब हुआ और फिर बोला____"आप सब मेरे भाई हैं, मित्र हैं। आपस की रंजिश भुला कर हमें अपने बीच भाईचारे का एक अटूट रिश्ता बनाना चाहिए। मेरा यकीन करो जब ऐसा होगा तो जीवन एक अलग ही रूप में निखरा हुआ नज़र आएगा।"

"तुम सही कह रहे हो वैभव।" मणि शंकर के बड़े बेटे चन्द्रभान ने कहा_____"हमारे बीच बेकार में ही इतने समय से अनबन रही। हालांकि हम दिल से कबूल करते हैं कि जब भी तुम्हारा मेरे भाइयों से लड़ाई झगड़ा हुआ तब उस झगड़े की पहल तुम्हारी तरफ से नहीं हुई थी। हर बार मेरे भाइयों ने ही तुम्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से तुमसे झगड़ा किया। ये अलग बात है कि हर बार उन्हें तुम्हारे द्वारा मुँह की ही खानी पड़ी। जहां तक मेरा सवाल है तो तुम भी जानते हो कि मैं किस तरह की फितरत का इंसान हूं। मुझे किसी से द्वेष रखना या किसी से बेवजह झगड़ा करना पसंद ही नहीं है। मैं तो अपने इन भाइयों को भी समझाता था कि ये लोग तुमसे बेवजह बैर न बनाएं, पर ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाना ही बेहतर है। अब हम सब एक हो गए हैं तो यकीनन हमारे बीच एक अच्छा भाईचारा होगा।"

"अच्छा अब ये सब बातें छोड़ो तुम लोग।" मणि शंकर ने कहा____"ये समय इन बातों का नहीं है बल्कि भोजन करने का है। तुम लोग आपस के मतभेद खाने के बाद दूर कर लेना। अभी सिर्फ भोजन करो।"

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।


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Story shuru se hi pasand thi aur bahut lambe samay se intazar tha ..... Achha laga ki ye phir se start ho gyi h aasha yahi rahegi ki iske update hame nirantar milte rahenge .....

Waiting for your next update......
 

Sanju@

Well-Known Member
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हैलो दोस्तो, मैं एक बार फिर से आप सभी के समक्ष एक नई कहानी लेकर हाज़िर हुआ हूं। उम्मीद करता हूं कि इस बार देवनागरी में लिखी हुई ये कहानी आप सभी को पसंद आएगी। आप सभी का साथ एवं सहयोग मेरे लिए बेहद अनिवार्य है क्योंकि बिना आप सबके सहयोग और प्रोत्साहन के कहानी को अपने अंजाम तक पहुंचाना मेरे लिए मुश्किल ही होगा। इस लिए अपना साथ और सहयोग बनाए रखियेगा और साथ ही कहानी के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहिएगा।

आवश्यक सूचना
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यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। कहानी में मौजूद किसी भी पात्र या किसी भी घटना से किसी के भी वास्तविक जीवन का कोई संबंध नहीं है। कहानी में दिखाया गया समस्त कथानक सिर्फ और सिर्फ लेखक की अपनी कल्पना है जिसका उद्देश्य फक़त अपने पाठकों का मनोरंजन करना है।

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:congrats: new story
 
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