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Romance कायाकल्प [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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159
अगली सुबह नाश्ते पर ससुर जी ने मुझसे कहा की उनके परिवार की भगवान केदारनाथ धाम में बड़ी अगाध श्रद्धा है। और हर शुभ-कार्य अथवा पर्व-प्रयोजन में वो सभी वहाँ जाते रहते हैं। उनका पूरा परिवार कई पीढ़ियों से शुभ प्रयोजनों में यह यात्रा करता रहा है। उनके अनुसार, अब चूंकि संध्या गर्भवती है, तो यदि संभव हो, तो हम सभी एक बार केदारनाथ जी के दर्शन कर आएँ? इस बात पर सबसे पहले तो मुझे राहत की सांस आई – कल रात की धमाचौकड़ी इन लोगो ने कैसे नहीं सुनी, वही एक अचरज की बात है। अच्छा है.. सवेरे सवेरे धर्म कर्म की बाते हो रही थीं।

“जी पिताजी, एक बार हम संध्या की डॉक्टर से बात कर लेते हैं। अगर उनकी सलाह हुई, तो ज़रूर चलेंगे। अभी जाना है क्या? मेरा मतलब, कोई मुहूर्त जैसा कुछ है?”

“नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है बेटा। जब आप लोगों को सही लगे, आ जाइए। भगवान् के दर्शनों के लिए कैसा मुहूर्त! बस हम सभी एक बार सपरिवार केदारनाथ जी के दर्शन कर लें.. हमारी बहुत दिनों से बड़ी इच्छा है।“

“जी, बिलकुल! मैं अभी कुछ ही देर में डॉक्टर को पूछता हूँ..”

खाने पीने के बाद कोई दस बजे मैंने डॉक्टर को फ़ोन लगाया। उन्होंने कहा की अगले महीने संध्या यात्रा कर सकती है। तब तक उसका पाँचवाँ महीना शुरू हो जाएगा, और वह सुरक्षित समय है। बस समुचित सावधानी रखी जाय। मैं उन रास्तों पर गया हुआ हूँ पहले भी, और मुझे मालूम है की कुछ स्थानों को छोड़ दिया जाय, तो वहाँ की सड़कें अच्छी हालत में हैं। इसलिए कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। वहाँ ऊपर जा कर पालकी इत्यादि की व्यवस्था तो हो ही जाती है... अतः डरने या घबराने वाली कोई बात नहीं थी।

दो दिन और बैंगलोर में रहने के बाद मेरे सास ससुर दोनों वापस उत्तराँचल को लौट गए। मैंने बहुत कहा की यही रुक जाएँ, लेकिन उनको वहाँ कई कार्य निबटाने थे, इसलिए हमारी बहुत मनुहार के बाद भी उनको जाना पड़ा। खैर, उनके जाते ही मैंने सबसे पहले देहरादून का हवाई टिकट हम तीनों के लिए बुक कर लिया। इस एक महीने में हमने बहुत सारे काम यहाँ पर भी निबटाए – सबसे पहले नीलम के दाखिले के लिए उसके संभावित कॉलेज के प्रिंसिपल से मिले, और उन्होंने भरोसा दिलाया की उसको दाखिला मिल जाएगा अगर बारहवीं में अंक अच्छे आयेंगे! उन्होंने काफी समय निकाल कर उसकी काउंसलिंग भी करी – वो क्या करना चाहती है, क्या पढना चाहती है, कौन से कोर्स वहाँ पढाए जा रहे हैं इत्यादि! मुझे भी काम के सिलसिले में दो हफ्ते घर से बाहर जाना पड़ा, और इस बीच दोनों लड़कियों ने ढेर सारी खरीददारी भी कर ली.. जैसे जैसे संध्या के शरीर में वृद्धि हो रही थी, उसको नए कपड़ो की आवश्यकता हो रही थी; नीलम को भी नए परिवेश के हिसाब से परिधान खरीदने की ज़रुरत थी। खैर, अच्छा ही है.. इसी बहाने उसको नई जगह को देखने और समझने का मौका मिल रहा था।

दोनों ही लड़कियों से रोज़ बात होती थी.. एक बार संध्या ने कहा की जिस तरह से उसका शरीर बढ़ रहा है, उसको लगता है की नए कपड़े लेने से बेहतर है की वो नंगी ही रहे। इस पर मैंने सहमति जताई, और कहा की यह ख़याल बहुत उम्दा है। संध्या ने कहा की ख़याल तो उम्दा है, लेकिन आज कल उसकी बहन रोज़ ही उससे चिपकी सी रहती है.. ऐसा नहीं है की संध्या को नीलम का संग बुरा लगता है। बस यह की एक वयस्क लड़की के लिए ऐसा व्यवहार थोड़ा अजीब है। मेरे पूछने पर उसने बताया की नीलम अक्सर उसके स्तनों और शरीर के अन्य हिस्सों को छूती टटोलती रहती है। कहती है की उसको संध्या बहुत सुन्दर लगती है, और उससे रहा नहीं जाता बिना उसको छुए। संध्या ने ही बताया की,

एक दिन नीलम ने संध्या को कहा, “दीदी, तुम्हारा बच्चा कितना लकी है न! हमें तो बस गिलास से ही...”

“क्या मतलब?” संध्या समझ तो रही थी.. फिर भी पूछा।

“मेरा मतलब दीदी, हर किसी को तुम्हारे जैसी खूबसूरत लड़की का ... पीने .. को.. नहीं मिलता है न!”

गर्भावस्था के दौरान लड़कियाँ स्वयं को फूली हुई महसूस करती हैं, इसलिए उनकी तारीफ़ इत्यादि करने से उनको ख़ुशी मिलती है। संध्या भी अपनी तारीफ़ सुन कर मुस्कुराई।

“दीदी, मैं तुमको चूम लूँ?”

“क्या नीलू! तू भी! तू अपने लिए एक लड़का ढूंढ ले.. तेरे भाव स्पष्ट नहीं लग रहे हैं मुझे.. हा हा हा!”

“तो ढूंढ दो न तुम ही.. जीजू जैसा कोई! तब तक यही भाव रहेंगे मेरे..”

कहते हुए नीलम ने अपना चेहरा संध्या के चेहरे के पास लाया। संध्या की आँखें नीलम के होंठो पर लगी हुई थीं। संध्या ने कभी नहीं सोचा था की उसके साथ ऐसा भी कुछ होगा। क्या उसकी ही अपनी, छोटी बहन उसकी तरफ यौन आकर्षण रखती है! ऐसा नहीं है की उसको बुरा लग रहा हो... शादी के बाद के कई अनुभवों के बाद उसकी खुद की अनगिनत वर्जनाएँ समाप्त हो गई थीं, लेकिन फिर भी, यह सब कुछ बहुत ही अलग था.. अनोखा! अनोखा, और बहुत ही रोचक। नीलम ने झुक कर अपने होंठ संध्या के होंठो से सटा दिए...

“ओह! कितने सॉफ्ट हैं!” एक छोटा सा चुम्बन ले कर उसने कहा।

नीलम संध्या के होंठों पर बहुत ही हलके हलके कई सारे चुम्बन दे रही थी। दे रही थी, या ले रही थी? जो भी है! जब उसने देखा की संध्या उसकी इस हरकत का कोई बुरा नहीं मान रही है, और साथ ही साथ उसकी इस हरकत के प्रतिउत्तर में वो खुद भी वापस चुम्बन दे रही है, तो उसने कुछ नया करने का सोचा। उसने चुम्बन में कुछ तेज़ी और जोश लाई, और साथ ही संध्या को अपने आलिंगन में बांध लिया। कुछ तो हुआ दोनों के बीच – दोनों लड़कियाँ अब पूरी तन्मयता के साथ एक दूसरे का चुम्बन ले रही थीं। संध्या ने भी अपने अनुभव का प्रयोग करते हुए नीलम के दोनों गाल अपने हाथों से थोड़ा दबा दिए, जिसके कारण नीलम का मुँह खुल गया। और इसी क्षण संध्या ने अपनी जीभ नीलम के मुँह के अन्दर डाल कर चूसना शुरू कर दिया।

उधर, नीलम संध्या की शर्ट के ऊपर से उसके स्तनों को बारी बारी छूने लगी। संध्या के लिए यह कोई नई बात तो नहीं थी, लेकिन फिर भी सुने आँख खोल कर देखा - नीलम तो अपनी आँखें बंद किये इस काम में पूरी तरह मगन थी। एक सहज प्रतिक्रिया में संध्या ने पुनः अपने स्तन को आगे की ओर ठेल दिया, जिसके कारण उसके स्तन नीलम के हाथ में आ गए। नीलम ने तुरंत ही खुश होकर उसके स्तन को मसलना चालू कर दिया।

चुम्बन की प्रबलता अब तीव्र हो चली थी और दोनों लड़कियों की साँसे भी। नीलम के दोनों हाथ अब संध्या के शर्ट के अन्दर जा कर उसके स्तनों का मर्दन कर रहे थे। संध्या के निप्पल गर्भावस्था की संवेदनशीलता के कारण उसके मर्दन से असहज महसूस कर रहे थे। लेकिन वो नीलम का मन रखना चाहती थी।

संध्या ने नीलम को अपने से कुछ दूर किया, और फिर अपनी शर्ट के बटन खोल कर उसके पट खोल दिए। वो शर्ट को उतार पाती, उससे पहले ही नीलम वापस उससे जा चिपकी और उसको पुनः चूमने लग गई। संध्या के स्वतंत्र स्तनों को वो बारी बारी से अपने मुंह में भर कर चूसना आरम्भ कर दिया। पहले के मर्दन के कारण उसके निप्पल पहले ही कड़े हो गए थे, और अब इस चूषण के बाद वो और भी कड़े हो गए।

“मैं भी लकी हूँ! ... उह्म्म्म उह्म्म्म (चूसते हुए) ओह दीदी..! आप प्लीज मुझको भी इनसे दूध पिलाना! आह! इतने सुन्दर हैं!” इतना कह कर वह पुनः चूसने में लग गई।

“हा हा! ये लो... अब एक और दावेदार आ गई! गाँव बसा नहीं, और लुटेरे आ गए!”

नीलम ने उसकी बात को जैसे अनसुना कर दिया। उसके हाथ संध्या के सारे शरीर पर चलने फिरने लगे। कभी वो उसके स्तन दबाती, तो कभी उसके नितम्ब, तो कभी उसकी पीठ! आगे वो उसकी स्कर्ट को नीचे की तरफ सरकाने लगी।

“अरे! ये क्या कर रही है? मुझे पूरा नंगा करने का मूड है क्या?” संध्या ने मुस्कुराते हुए पूछा।

"हाँ! मैं तुमको पूरा नंगा भी देखूँगी, और आपके साथ वह सब करूंगी जो जीजू करते हैं।“ कहते हुए नीलम संध्या की स्कर्ट और चड्ढी दोनों एक साथ ही नीचे सरकाने लगी।

“नहीं नीलू.. ऐसे मत कर.. बस, इनको पीने की इजाज़त है.. ये तेरे जीजू के लिए है!”

संध्या नीलम के सामने नग्न पड़ी हुई थी, और अपने शरीर का कोई हिस्सा छुपाने का यत्न नहीं कर रही थी। कदाचित, वह यह चाहती थी की नीलम उसकी सुन्दरता के रसभरे दृश्य से सराबोर हो जाए। लेकिन, नीलम को बस इतनी ही अनुमति थी। उसने एकदम आसक्त हो कर अपनी तर्जनी को संध्या की सूजी हुई योनि की दरार पर फिराया और फिर बहुत ही अनिच्छा से अपना हाथ वापस खींच लिया। संध्या मुस्कुराई।

नीलम ने वापस आकर संध्या के स्तनों पर अपना मोर्चा सम्हाला, और पुनः उनको चूसना शुरू कर दिया।

कुछ देर चूसने के बाद,

“अरे दीदी! ये क्या..?”

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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संध्या की बात सुन कर मुझे बहुत रोचक लगा! और मैं खुद भी काफी उत्तेजित हो गया!! बात तो सही है.. संध्या है ही इतनी सुन्दर! और अब जब वो माँ बनने वाली है, तो उसकी सुन्दरता और भी निखर आई है! ज्यादातर स्त्रियाँ गर्भ-धारण करने के बाद अतिपक्व दिखने लगती है, और उनके शरीर पर गर्भ का बोझ दिखने लगता है। कहने का मतलब, वे स्थूल, थकी हुई और निस्तेज हो जाती है। लेकिन, कुछ स्त्रियाँ ऐसी होती है, जो पुष्प की तरह खिल जाती हैं.. उनके चेहरे पर उनके अन्दर पनप रहे जीवन का तेज दिखने लगता है। संध्या इस दूसरी श्रेणी में थी। उसका चेहरा जीवन की आशा से दीप्तिमान होता जा रहा था, और उसका छरहरा शरीर स्थूल तो हो रहा था, परंतु साथ ही साथ अत्यंत आकर्षक भी होता जा रहा था। पहले ही वो रति का स्वरुप लगती थी, अब तो ऐसा लगता है की उसमें कम से कम सौ रतियों का वास हो! कोई भी ऐसी स्त्री को आकर्षक पायेगा ही! इसके लिए नीलम से मुझे कोई भी गिला-शिकवा नहीं था।

वापस आने के एक दिन पहले संध्या ने मुझे फ़ोन पर कहा की वापस आने पर मेरे लिए एक सरप्राइज है! मेरे लाख पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया की क्या! खैर, बता देती तो कैसा सरप्राइज! घर आने पर मेरा स्वागत एक बेहद झीने नाईटी पहने हुए संध्या ने एक गर्म कामुक फ्रेंच चुम्बन के साथ किया। दरवाज़े को भी ठीक से बंद नहीं पर पाया मैं। स्पष्ट था की इतने दिनों में संध्या की यौनरुचि कई गुना बढ़ गई थी। मुझे भी इस तराशी हुई सुंदरी को नंगा देखने की तीव्र इच्छा हो रही थी, इसलिए तुरत-फुरत मैंने उसकी नाईटी उतार फेंकी। मेरी नज़रों के सामने भरे हुए स्तन और उनके सामने सुशोभित स्थूल चूचक, जैसे किसी पूर्वज्ञान के कारण खड़े हुए, उपस्थित थे। मैंने आँख उठाई, तो मेरी आँखें संध्या की आँखों से मिलीं। उसकी आँखों में एक संतुष्ट चमक थी – उसको मालूम है की मैं उसके स्तनों की सुन्दरता का दीवाना हूँ। फिर भी वो एक शिकायत भरे लहजे में कहती है,

“बहुत बड़े हो गए न?” और कहते हुए अपने स्तनों के नीचे हथेलियाँ लगा कर उठाती है। उसके इस हरकत में किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं है.. वस्तुतः, मुझे ऐसा लगा जैसे वो मुझे अपने स्तनों का चढ़ावा दे रही हो। ऐसे चढ़ावे का भोग तो मैं कभी भी, और कहीं भी लगा सकता हूँ।

मैंने ‘न’ में सर हिलाया, “आई लव देम... आई लव यू!”

“तुम पागल हो..” कह कर संध्या खिलखिलाते हुए हंसी.. और फिर उसने आगे जो किया उसने मेरे दिमाग और शरीर के सारे तार झनझना दिए। उसने अपने स्तनों को हलके से दबा दिया, और ऐसा करने से दोनों चूचकों में हलके पीले से रंग के दूध की बूँदें निकल आईं। ज़रा सोचिये, उसके प्यारे प्यारे रसभरे स्तनों में से अमृत उतर रहा था, और मैं उसको पीने जा रहा था! यह मेरा दावा है की धरती के प्रत्येक पुरुष के मन की फंतासी होगी की वो अपनी प्रेमिका या पत्नी के स्तनों से दूध पिए! कम से कम मेरी तो थी! और आज यह स्वप्न पूरा होने वाला था। इस दृश्य को देखते ही मेरा लिंग अपने पूरे तनाव पर खड़ा हो गया।

“मेला बच्चा भूखा है?” संध्या ने मुझे प्यार से छेड़ा।

मैं मंत्रमुग्ध सा इस दृश्य को देख रहा था.. लिहाजा, मैं सिर्फ सर हिला कर हामी भर पाया।

“अले मेला बेटू... इत्ती देर शे उसे कुछ खाने को नहीं मिला... है न? मेला दूधू पिएगा..?”

संध्या ने दुलराते हुए मुझसे पूछा। मेरे फिर से ‘हाँ’ में सर हिलाने पर संध्या वहीँ सोफे पर बैठ गई, और उसने मुझे अपनी गोदी में आने का इशारा किया। मैंने उसकी गोदी में सावधानीपूर्वक व्यवस्थित हो जाने के बाद उसके होंठों को कोमलता से चूम लिया और उसके होंठों के अन्दर से होते हुए अपनी जीभ से उसकी जीभ चाट ली।

संध्या फिर से खिलखिलाई, और बोली, “नीचे और भी टेस्टी चीज़ है...”

और यह कहते हुए उसने मेरे सर को अपने स्तनों की तरफ निर्देशित किया। मैंने उसके निप्पल और areola का पूरा हिस्सा मुँह में भर लिया और जोर से चूसा। कोई पांच छः बार कोशिश करने के बाद मुझे अपने मुंह में एक स्वादरहित द्रव रिसता हुआ महसूस हुआ। और इसी के साथ ही मुझे संध्या के मुंह से संतुष्टि भरी आह भी सुनाई दी।

“आह्ह्ह मेरे राजा! ऐसे ही चूसते रहो.. आह.. बहुत अच्छा लग रहा है..।“

संध्या मेरे चूषण से प्रसन्न तो थी – उसकी विभिन्न प्रकार की आहें और उम्म्म आह्ह्ह.. इत्यादि इसका सबसे बड़ा प्रमाण थीं। कुछ देर में द्रव/दूध निकलना बंद हो गय, लेकिन फिर भी मैंने उसके बाद भी एक दो मिनट तक उसके उस स्तन को चूसा। उसके बाद आई दूसरे स्तन की बारी.. मुझे अनुभव तो हो ही गया था.. या यह कह लीजिये की शेर को खून... (ओह! माफ करियेगा), दूध का स्वाद पता चल गया था।

इधर मैं उसका दूध पी रहा था, और उधर संध्या मेरी पैंट की ज़िप के अन्दर से मेरे तने हुए लिंग के साथ खिलवाड़ कर रही थी। मैंने यह महसूस किया की जब वो मेरे लिंग को दबाती है, तो मेरा चूषण और बढ़ जाता है। खैर, यह खेल कब तक चलता.. अंततः उसके दोनों स्तनों में दूध समाप्त हो गया, तो मैं उसके पेट पर चुम्बन लेकर सोफे से ज़मीन पर उतर आया।

“कैसा लगा सरप्राइज?”

“बहुत ही बड़ा सरप्राइज था! मज़ा आ गया..”

“कब से बचा के रखा था.. आपका मन भरा?”

“मन कैसे भरेगा इससे मेरी जान! इतना न्यूट्रीशियश, इतना मजेदार! मैंने तो रोज़ पियूँगा!”

ऐसी बातें करते हुए शरीर पर जो प्रभाव होना होता है, वो होने लगा।

“अले ले ले! ये क्या.. मेले बेटू का छुन्नू तो ल्ल्ल्लंड बन गया है.. कितना बड़ा वाला ल्ल्ल्लंड..” उसने मुझे चिढ़ाया।

“मम्मी है ही इतनी सेक्सी!”

“ह्म्म्म? मम्मी इसको जल्दी से वापस छुन्नू बना दे? ठीक है न?”

“ख़याल बहुत ही उम्दा है!”

“मेला बेटू अपनी मम्मी की चुदाई करना चाहता है?” आज संध्या को क्या हो गया है! अगर ऐसे ही होता रहा तो उसकी बातें सुन कर ही मैं स्खलित हो जाऊंगा!

“हां.. मम्मी की ज़ोरदार चुदाई करनी है..”

“स्स्स्सीईई! गन्दा बच्चा! अपनी मम्मी को चोदेगा!”

मैं ज़मीन पर लेट गया और जल्दी से अपने लिंग को ज़िप के अन्दर से आज़ाद कर दिया।

“मेरे लंड को अन्दर ले लो और अपनी दोनों टाँगें मेरी दोनों ओर करके बैठ जाओ! आज मम्मी मेरी घुड़सवारी करेगी!”

“इस तरह?”

वह मेरी गोद पर चढ़ते ही पूछती है। वह अपनी दोनों टाँगें मेरी दोनों ओर करके बैठ गई है, लेकिन अभी भी ज़मीन पर अपने घुटनों के बल टिकी हुई है। उसके चूतड़ मेरी जांघों पर टिके हुए थे, और मेरा लिंग अभी भी बाहर था। मैंने अपने दोनों हाथों से उसके नितम्ब थाम लिए।

“इतना बड़ा लंड!”

संध्या पर मानो आज किसी भूत का साया पड़ गया था। ऐसे खुलेपन से उसने गन्दी-बातें कभी नहीं करीं थी। उसने मेरे लिंग को पकड़ कर अपने योनि के चीरे पर से ऊपर-नीचे कई बार फिराया। उसकी योनि में से तेजी से स्राव हो रहा था। फिर उसने धीरे से मेरे लिंग के सुपाड़े को अपने चीरे में लगाया और धीरे धीरे उस पर बैठने लगी। उसका योनि द्वार तुरंत खुल गया, और मेरा लिंग अपनी नियत जगह में आराम से जाने लगा – जैसे गरम चाकू, मक्खन के अन्दर जाता है। आधा लिंग अन्दर जाने तक वह नीचे की तरफ बैठती है, और साथ में हाँफते हुए यह भी कहती जाती है की “यह बहुत बड़ा है”। कहने के लिए शिकायत है, लेकिन उसकी मुस्कान से पता चलता है की वह खुद अपने झूठ से आनंदित है। फिर वह मेरे लिंग पर ऊपर और नीचे होना शुरू कर देती है।

एक मिनट भी नहीं हुआ होता है की मैं अपना वीर्य छोड़ देता हूँ। हैं! यह क्या!! एक मिनट भी नही! मुझे थोड़ी लज्जा आई.. इतने वर्षों के सम्भोग क्रीड़ा में मैंने कभी भी इतनी जल्दी मैदान नहीं छोड़ा! आज क्या हुआ! फिर मैंने अपने लिंग पर संध्या के खुद के सम्भोग निष्पत्ति का स्पंदन महसूस किया।

‘अरे! ये भी आ गई क्या!’

हम दोनों ने कुछ देर तक अपनी साँसे संयत करीं, और फिर संध्या ने ही कहा, “बेटू मेरा... अपनी माँ को ऐसे आसानी से छोड़ देगा, क्या?” न जाने क्यों उसके इस तरह चिढ़ाने से या फिर यह कह लीजिये की इस स्वांग से मैं जल्दी ही फिर से उत्तेजित हो गया।

“ऐसे सस्ते में जाने देगा? हम्म्म? ऐसे चोदो न, जैसे अपनी बीवी को चोदते हो... हर रोज़..” मेरा लिंग वापस अपने पूर्ण तनाव पर आ गया। और पूर्ण तनाव आते ही,

“जानू...”

‘हैं! इसकी तो भाषा ही बदल गई..!’

“आज एक नया आसान ट्राई करते हैं? कुछ ही दिनों में मेरा पेट फूल कर बहुत बड़ा हो जाएगा। लेकिन, मुझे आपना लिंग अपने अन्दर हमेशा चाहिए... मगर, आपको ठीक लगे तो ही!”

“जानू मेरी! मैं तो बस जो तुम चाहती हो, मुझे बताओ, और मैं वैसे ही कोशिश करूंगा। अगर तुमको अच्छा लगता है तो मैं किसी भी आसन में तुमको चोदने को तैयार हूँ।“

तब संध्या ने मुझे श्वान-सम्भोग आसन (दरअसल इसको कामसूत्र में ‘धेनुका’ कहा जाता है, लेकिन सामान्य भाषा में डॉगी स्टाइल कहते हैं) लगाने का निर्देश दिया। वो स्वयं अपने हाथों और सर को सोफे पर टिका कर और अपने नितम्बों को बाहर की तरफ निकाल कर घुटने के बल लेट/बैठ गई। जब मैं उसके पीछे जा कर अपना स्थान व्यवस्थित कर रहा था तो उसने बस इतना ही कहा, “जानू, आप सही छेद में ही करना..”

कहने सुनने में हास्यास्पद बात लगती है, लेकिन यह एक गंभीर चेतावनी थी। भगवान् के दिए दोनों छेद इतने करीब होते हैं, की इस आसन में अगर ध्यान नहीं दिया तो एक दर्दनाक और शर्मनाक गलती होने के पूरे आसार होते हैं। वैसे भी संध्या को मैं आज तक गुदा-मैथुन के लिए मना नहीं पाया था।

मैंने अपने लिंग को संध्या की योनि से रिसते रस (जो संध्या के और मेरे रसों का मिश्रण था) से अच्छी तरह भिगोया और उसके पीछे से योनि द्वार पर टिकाया। संध्या ने अपनी उँगलियों से अपनी योनि की दरार को कुछ फैलाया, जिससे मुझे उचित छेद खोजने में कोई कोई परेशानी न हो। अन्दर इतनी ज्यादा चिकनाई थी की ज़रा सी हरकत से मैं अन्दर तक समां गया।

संध्या ने एक कामुक किलकारी भरी, “उईई माँ! आप तो पूरा अन्दर तक घुस गए! आह्ह्ह!”

इस कथन में किसी भी तरह की शिकायत, या दर्द जैसा कुछ नहीं था, इसलिए मैंने इसको सम्भोग आरम्भ करने की अनुमति के रूप में लिया, और उसकी सूजी हुई योनि की कुटाई आरंभ कर दी। संध्या ने मेरे लिंग के घर्षण के साथ ही अपना आनंद भरा विलाप करना आरम्भ कर दिया। उधर मैंने पीछे से ही उसके स्तनों को दबाना, मसलना चालू कर दिया, और आराम से धक्के लगाने लगा। पीछे से सम्भोग करने से नितम्बों की पूरी संरचना स्पष्ट दिखाई देती है.. कमाल की बात यह है की इतने सारे आसन और पोजीशन ट्राई करने के बाद भी यह वाला बचा रह गया! संध्या के नितम्ब! मैंने उंगली से उसकी गुदा को छुआ और फिर उसके छेद पर अपनी अंगुली फिराने लगा। कुछ प्रतिक्रिया न देखने पर मैंने धीरे से अपनी उंगली अंदर डाली। संध्या चिहुंक गई, “ओउईई! म्म्मत क्क़करो..”

मैं रुक गया और कुछ और जोर से धक्के लगाने लगा। पहले स्खलन के बाद मेरा स्टैमिना काफी बढ़ गया था। इस नए काम युद्ध को करते हुए कोई दस-बारह मिनट के ऊपर तो हो ही गए होंगे। और अब मुझे भी लग रहा था की मंजिल निकट ही है। इस बीच में संध्या एक बार निवृत्त हो चुकी थी। मैं अब ज़ोर का धक्का लगाने लगा – संध्या भी अपनी तरफ से अपने नितम्ब आगे पीछे कर रही थी। कुछ ही देर में मेरे अन्दर का लावा फ़ूट पड़ा। स्खलन के उन्माद में मैंने अपनी कमर को कस कर संध्या के नितम्बो से पूरी तरह चिपका लिया।

सम्भोग का नशा उतरा तो याद आया की नीलम भी घर पर होगी! लेकिन संध्या ने बताया की वो अभी बाहर गई हुई है किसी काम से। मैंने राहत की साँस ली – कमाल है! सोचा भी नहीं की घर में हमारे अलावा एक और प्राणी रहता है। आगे से सजग रहना होगा।
 

avsji

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यात्रा वाले दिन :


संध्या : “जानू, आप भी साथ आते तो मज़ा आता।“

नीलम : “हाँ जीजू! आप भी न.. मौके पर धोखा देते हैं!”

मैं : “मौके पर धोखा! हा हा हा!”

नीलम : “और क्या! अब बताइए.. ये सारा लगेज हम दो बेचारी लड़कियों को खुद ही ढोना पड़ेगा..”

मैं : “अच्छा जी.. तो मैं तुम दोनों का कुली हूँ?”

नीलम : “नहीं नहीं.. आप तो मेरी दीदी के ‘जाआआनू’ हैं.. (नीलम ने मुझे चिढ़ाया) और मेरे प्याआआरे जीजू! लेकिन.. सामान उठाने वाला भी तो कोई चाहिए! ही ही ही!!!”

मैं : “देख रही हो जानेमन.. इस लड़की को सामान उठाने वाला चाहिए.. लगता है की इसके लिए लड़का ढूंढना शुरू कर देना चाहिए..”

नीलम : “धत्त जीजू! आपके होते हुए मुझे कोई और क्यों चाहिए?”

उफ्फ्फ़! इस लड़की से जीतना मुश्किल है!

मैं (नीलम की बात को नज़रंदाज़ करते हुए): “क्या बताऊँ जानू.. मेरा भी तो कितना मन है आपके साथ आने का! लेकिन यह मीटिंग्स! ये तो अच्छा है की मेरा काम दिल्ली में है.. बस, काम जल्दी से निबटा कर तुरंत आ जाऊँगा। बस यही तीन चार दिन की ही तो बात है... आप लोग एक दो दिन एक्स्ट्रा रह लेना वहाँ.. या एक दो दिन बाद चली जाना। मैं वहीँ सबको मिलूंगा! ओके?“

संध्या मुस्कुराई, और फिर मेरे पास आ कर दबी आवाज़ में बोली, “वो तो ठीक है.. लेकिन, ये दूध कौन पिएगा?”

नीलम : “हाँ हाँ.. सुनाई दे रहा है मुझे!” नीलम अँधेरे में तीर मार रही थी।

मैं : “क्या सुन रही है तू?”

नीलम : “आप दोनों मेरे खिलाफ कोई साजिश कर रहे हैं..”

संध्या : “तेरे कॉलेज में कहूँगी की रोज़ तेरे कान उमेठें जाएँ.. सारी चबड़ चबड़ निकल जायेगी!”

नीलम : “ठीक है! ठीक है! कर लो आप दोनों पर्सनल बातें! मैं क्यूँ कबाब में हड्डी बनूँ?” कहते हुए नीलम कमरे से बाहर निकल गई।

मैं (मुस्कुराते हुए) : “इसको सम्हाल कर रखिएगा... मैं इत्मीनान से पियूँगा, जब आपसे मिलूंगा!”

संध्या (खिलवाड़ करते हुए), “गन्दा बच्चा...!” और फिर अचानक गंभीर हो कर, “... जानू.. आपके बिना मेरा मन कहीं नहीं लगता! आप रहते हैं तो ज़िन्दगी में मज़ा रहता है!”

मैं : “क्या जानू.. बस तीन चार ही दिनों की तो बात है! मैं आ जाऊँगा! .. और फिर, मुझे ये डेयरी भी तो खाली करनी है! न्यूट्रीशन!! हेह हेह!”

संध्या : “मेरा तो बस यही मन रहता है की इनमें लबालब दूध भरा रहे.. जिससे मैं आपको जब मन करे, दूध पिला सकूं!”

केदारनाथ की चढ़ाई काफी कठिन है। करीब सात हज़ार फुट की चढ़ाई चढ़ कर केदारनाथ मन्दिर तक पहुंचते हैं। केदारनाथ जाने की प्रबल इच्छा क्यों थी इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मुझे वैसे तो किसी तीर्थ पर जाने में कोई ख़ास रुचि नहीं है। लेकिन, इन लोगो की आस्था, और उनके परिवार की एक प्रकार की परम्परा के कारण मैंने कोई विरोध नहीं किया। वैसे भी संध्या की डॉक्टर ने बताया था की इस यात्रा में कोई दिक्कत नहीं है, अगर बस कुछ ख़ास सावधानियाँ बरती जाएँ! मैंने यह सख्त निर्देश दिए थे, की संध्या को चढ़ाई चढ़ने न दिया जाय – पालकी कर ली जाय, जिससे आसानी रहेगी। यह भी निर्देश दिया की संध्या लगातार मुझसे बात करती रहे, जिससे मुझे वहाँ की परिस्थिति का मालूम होता रहे। इस पर संध्या ने कहा की वो दिन में पांच छः बार मुझसे फ़ोन पर बात ज़रूर करेगी।

दोनों लड़कियों को मैंने बैंगलोर विमानपत्तन तक छोड़ा, और वापस काम पर चला गया। दो दिन बाद मुझे दिल्ली के लिए निकलना था, और वहाँ चार ज़रूरी मीटिंग्स कर के देहरादून, और वहाँ से केदारनाथ की यात्रा करनी थी। संध्या, नीलम के जाने के बाद घर खाली खाली सा लगने लगा तो मेरा ज्यादातर समय ऑफिस में ही बीत रहा था। संध्या मुझे हर समय फ़ोन या एस ऍम एस पर अपनी जानकारी देती रहती। दिल्ली में मीटिंग्स वगैरह करते हुए मुझे संध्या ने बताया की केदार घाटी में काफी बारिश हो रही है। मैंने उसको सावधानी बरतने को कहा, और जल्दी मिलने का वायदा करके फोन काट दिया। देहरादून के लिए अगले दिन सवेरे की फ्लाइट थी।
 

Ashurocket

एक औसत भारतीय गृहस्थ।
426
1,820
123
यात्रा वाले दिन :


संध्या : “जानू, आप भी साथ आते तो मज़ा आता।“

नीलम : “हाँ जीजू! आप भी न.. मौके पर धोखा देते हैं!”

मैं : “मौके पर धोखा! हा हा हा!”

नीलम : “और क्या! अब बताइए.. ये सारा लगेज हम दो बेचारी लड़कियों को खुद ही ढोना पड़ेगा..”

मैं : “अच्छा जी.. तो मैं तुम दोनों का कुली हूँ?”

नीलम : “नहीं नहीं.. आप तो मेरी दीदी के ‘जाआआनू’ हैं.. (नीलम ने मुझे चिढ़ाया) और मेरे प्याआआरे जीजू! लेकिन.. सामान उठाने वाला भी तो कोई चाहिए! ही ही ही!!!”

मैं : “देख रही हो जानेमन.. इस लड़की को सामान उठाने वाला चाहिए.. लगता है की इसके लिए लड़का ढूंढना शुरू कर देना चाहिए..”

नीलम : “धत्त जीजू! आपके होते हुए मुझे कोई और क्यों चाहिए?”

उफ्फ्फ़! इस लड़की से जीतना मुश्किल है!

मैं (नीलम की बात को नज़रंदाज़ करते हुए): “क्या बताऊँ जानू.. मेरा भी तो कितना मन है आपके साथ आने का! लेकिन यह मीटिंग्स! ये तो अच्छा है की मेरा काम दिल्ली में है.. बस, काम जल्दी से निबटा कर तुरंत आ जाऊँगा। बस यही तीन चार दिन की ही तो बात है... आप लोग एक दो दिन एक्स्ट्रा रह लेना वहाँ.. या एक दो दिन बाद चली जाना। मैं वहीँ सबको मिलूंगा! ओके?“

संध्या मुस्कुराई, और फिर मेरे पास आ कर दबी आवाज़ में बोली, “वो तो ठीक है.. लेकिन, ये दूध कौन पिएगा?”

नीलम : “हाँ हाँ.. सुनाई दे रहा है मुझे!” नीलम अँधेरे में तीर मार रही थी।

मैं : “क्या सुन रही है तू?”

नीलम : “आप दोनों मेरे खिलाफ कोई साजिश कर रहे हैं..”

संध्या : “तेरे कॉलेज में कहूँगी की रोज़ तेरे कान उमेठें जाएँ.. सारी चबड़ चबड़ निकल जायेगी!”

नीलम : “ठीक है! ठीक है! कर लो आप दोनों पर्सनल बातें! मैं क्यूँ कबाब में हड्डी बनूँ?” कहते हुए नीलम कमरे से बाहर निकल गई।

मैं (मुस्कुराते हुए) : “इसको सम्हाल कर रखिएगा... मैं इत्मीनान से पियूँगा, जब आपसे मिलूंगा!”

संध्या (खिलवाड़ करते हुए), “गन्दा बच्चा...!” और फिर अचानक गंभीर हो कर, “... जानू.. आपके बिना मेरा मन कहीं नहीं लगता! आप रहते हैं तो ज़िन्दगी में मज़ा रहता है!”

मैं : “क्या जानू.. बस तीन चार ही दिनों की तो बात है! मैं आ जाऊँगा! .. और फिर, मुझे ये डेयरी भी तो खाली करनी है! न्यूट्रीशन!! हेह हेह!”

संध्या : “मेरा तो बस यही मन रहता है की इनमें लबालब दूध भरा रहे.. जिससे मैं आपको जब मन करे, दूध पिला सकूं!”

केदारनाथ की चढ़ाई काफी कठिन है। करीब सात हज़ार फुट की चढ़ाई चढ़ कर केदारनाथ मन्दिर तक पहुंचते हैं। केदारनाथ जाने की प्रबल इच्छा क्यों थी इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मुझे वैसे तो किसी तीर्थ पर जाने में कोई ख़ास रुचि नहीं है। लेकिन, इन लोगो की आस्था, और उनके परिवार की एक प्रकार की परम्परा के कारण मैंने कोई विरोध नहीं किया। वैसे भी संध्या की डॉक्टर ने बताया था की इस यात्रा में कोई दिक्कत नहीं है, अगर बस कुछ ख़ास सावधानियाँ बरती जाएँ! मैंने यह सख्त निर्देश दिए थे, की संध्या को चढ़ाई चढ़ने न दिया जाय – पालकी कर ली जाय, जिससे आसानी रहेगी। यह भी निर्देश दिया की संध्या लगातार मुझसे बात करती रहे, जिससे मुझे वहाँ की परिस्थिति का मालूम होता रहे। इस पर संध्या ने कहा की वो दिन में पांच छः बार मुझसे फ़ोन पर बात ज़रूर करेगी।

दोनों लड़कियों को मैंने बैंगलोर विमानपत्तन तक छोड़ा, और वापस काम पर चला गया। दो दिन बाद मुझे दिल्ली के लिए निकलना था, और वहाँ चार ज़रूरी मीटिंग्स कर के देहरादून, और वहाँ से केदारनाथ की यात्रा करनी थी। संध्या, नीलम के जाने के बाद घर खाली खाली सा लगने लगा तो मेरा ज्यादातर समय ऑफिस में ही बीत रहा था। संध्या मुझे हर समय फ़ोन या एस ऍम एस पर अपनी जानकारी देती रहती। दिल्ली में मीटिंग्स वगैरह करते हुए मुझे संध्या ने बताया की केदार घाटी में काफी बारिश हो रही है। मैंने उसको सावधानी बरतने को कहा, और जल्दी मिलने का वायदा करके फोन काट दिया। देहरादून के लिए अगले दिन सवेरे की फ्लाइट थी।
प्रिय avsji जिस पल की प्रतीक्षा थी, कहानी उस मोड़ पर आ पहुंची है।

अंत में इतना ही _ लगे रहो बहादुरों।

आशु
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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प्रिय avsji जिस पल की प्रतीक्षा थी, कहानी उस मोड़ पर आ पहुंची है।

अंत में इतना ही _ लगे रहो बहादुरों।

आशु

आपको और कई पाठकों को कहानी मालूम है।
कोई सस्पेंस नहीं रह गया है अब
 

Ashurocket

एक औसत भारतीय गृहस्थ।
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आपको और कई पाठकों को कहानी मालूम है।
कोई सस्पेंस नहीं रह गया है अब

प्रिय avsji सस्पेंस न होते हुए भी, मैं कायाकल्प को फिर से पढ़ने का आनंद ले रहा हूं।

अंत में इतना ही_ लगे रहो बहादुरों।

आशु
 
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कहानी का अंत तो सबको मालूम ही फिर भी इस कहानी को पढ़ने में जो मजा है वो शब्दों में वर्णण नही किया जा सकता
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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रात में सोने से पहले मैंने संध्या का नंबर लगाने की कोशिश करी – कई बार कोशिश किया, लेकिन नम्बर नहीं मिला। फिर उसके पापा और होटल का भी नंबर लगाया.. कहीं भी फ़ोन नहीं लग रहा था। निराश हो कर मैं सोने चला गया – रात भर ठीक से नींद नहीं आई। अजीब अजीब सपने आते रहे, और सवेरे उठने के बाद बुरे बुरे ख़याल आते रहे। उठते ही मैंने फिर से फ़ोन लगाने की कोशिश करी, लेकिन अभी भी फ़ोन नहीं लग रहा था।

ऐसे ही बुरे मूड में मैं दिल्ली विमानपत्तन पहुंचा और वहाँ जा कर मालूम हुआ की केदारनाथ में भीषण बाढ़ आई हुई है। मेरे पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन ही खिसक गई – पेट में जैसे गाँठ पड़ गई! मन अज्ञात आशंकाओं से घिर गया।

मन में अनजाने डर, और ह्रदय में ढेर सारी प्रार्थनाएँ लिए पूरी यात्रा बीती। लेकिन देहरादून विमानपत्तन पर पहुँचते ही सारे के सारे डर हकीकत में बदल गए। वहाँ मैंने टैक्सी करने की कोशिश करी, तो लोगों ने बताया की केदारनाथ में किसी भी ड्राईवर से उनका संपर्क नहीं हो पा रहा है। पूछने पर उसने आगे जाने से मना कर दिया, यह कह कर की ले तो जा सकता है, लेकिन सड़क की क्या हाल है, और बारिश में न जाने क्या क्या हो सकता है कुछ नहीं मालूम! आज का दिन यूँ ही निकल गया – एक एक मिनट.. एक एक पल ऐसा लग रहा है जैसे की एक एक सदी बीत रही हो! बॉस का भी दिन में कई बार कॉल आ चूका – वो संध्या के बारे में पूछते हैं! मैं क्या जवाब दूं! एक बार तो मेरी आंखों में आंसू छलक पड़े! मेरी चुप्पी और खामोश रुदन उन्होंने शायद सुन लिया हो! फ़ोन पर मुझे धाड़स बंधाते हुए उन्होंने कहा की उम्मीद मत छोड़ना, और मेरी हर तरह से मदद करने का आश्वासन किया। मुझे इतना तो मालूम पड़ गया की उन्होंने उत्तराखंड आपदा कंट्रोल रूम और अधिकारियों से संपर्क करने की हर संभव कोशिश की है।

एक दिन।

दो दिन।

तीन दिन।

चार दिन।

हर एक दिन गुजरने के बाद मुझे मेरे परिवार के लौटने की आशा भी धूमिल होती नजर आ रही थी। एक एक पल इंतजार की करना मुश्किल होता जा रहा था। न तो भोजन का कोई कौर गले के अन्दर जा पाता, और न ही हलक से पानी की एक बूँद! न जाने उन लोगों ने कुछ खाया पिया होगा या नहीं, बस यही सोच कर कुछ खाने पीने की हिम्मत भी नहीं पड़ रही थी।

ज्यादातर टैक्सी वाले अब मुझे पहचानने लग गए। मुझे देखते ही वह कहते हैं, “साहब, ऊपर के इलाकों में सड़कें ख़त्म हो चुकी हैं... और गाँव के गाँव साफ़ हो गए हैं। हमारे किसी भी साथी की कोई खोज खबर नहीं है। अब तो बस भगवान्, और सेना का ही सहारा है। आप बस प्रार्थना करिए की आपका परिवार सही सलामत आपको मिल जाय।“

रात में होटल वाले ने जबरदस्ती एक रोटी मुझे खिला दी। दिन भर आपदा कार्यालय के चक्कर लगाता, फ़ोन की घंटी बजने का इत्नाजार करता, और समाचार में मृतकों की बढ़ती हुई संख्या देख कर मन ही मन मनाता की मेरा कोई अपना न हो! इतनी बेबसी मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं महसूस करी। इतनी बेबसी, और इतनी खुदगर्जी!

इस आपदा में हुई और हो रही जान-माल की क्षति का आंकड़ा विकराल रूप से बढ़ता ही जा रहा है! मन में बस अब एक ही ख़याल आता है की अब बस! अब ये गिनती ख़त्म करो भगवान्! इतने दिन हो गए, और किसी से कोई संपर्क ही नहीं हो पाया है!

'काश! ये लोग ठीक हों! ओह संध्या! प्लीज प्लीज! काश! तुम ज़िंदा हो..!'

छठा दिन :

राहत और बचाव कार्य बाधित हो रहा है, क्योंकि घाटी में फिर से तेज बारिश हो रही है, और धुंध छाई हुई है। सेना के हेलिकॉप्टर उड़ान ही नहीं भर पा रहे हैं! खबर आई थी की एक हेलिकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया! बचने गए वीर युवक, खुद ही पहाड़ों की भेंट चढ़ गए! एक अफसर से बात हुई, उन्होंने मुझे साफगोई से कह दिया,

“साहब, यह तो एक तरह से 'रेस अगेन्स्ट टाइम' है... मौसम खराब है, हर तरह के जोखिम हैं और अब तो महामारी का खतरा भी पैदा हो गया है... लोग अब बीमारी और भूख–प्यास से मर रहे हैं! कितनी मौतें हुईं, कितने लापता हुए और कितने लोग सुरक्षित निकाले गए - इस पर अब कोई भी बात बेमानी लग रही है, क्योंकि यहाँ कोई समन्वय नज़र नहीं आ रहा है, और न ही कोई एक सूची है। सच्चाई यह भी है कि खुद प्रशासन का कितना नुकसान हुआ है, इसका अंदाजा ठीक-ठीक अभी उन्हें भी नहीं है। इसके शिकार हुए लोगों का पता लगाना ही अपने आप में एक बड़ी चुनौती बन गई है। हज़ारों की तादाद में लोग मदद की आस लगाए बैठे हैं। आप भी उम्मीद न छोडिए.. कुछ भी हो सकता है!”

सातवाँ दिन :

अब तो कोई उम्मीद ही नहीं बची है.. बस यंत्रवत रोज़ रोज़ राहत शिविर के दफ्तर पहुँच जाता हूँ। वहाँ लोगों से कई बार प्रार्थना भी करी है की मुझे भी सेवा का अवसर दें.. लेकिन वहाँ किसी के पास समय नहीं है। कई सारे लोग बचाए भी जा चुके हैं, लेकिन इन लोगों का कोई नामोनिशान ही नहीं है!

‘अरे! फ़ोन बज रहा है..’

कोई अनजाना नंबर था। स्थानीय! दिल धाड़ धाड़ कर के धड़कने लगा।

“हेल्लो?” मैंने बहुत उम्मीद से बोला।

“जीजू..?” यह तो नीलम की आवाज़ थी।

“नीलम?”

“जीजू... हू हू हू..” वो बेचारी रोने लगी!

‘हे भगवान्!’

“नीलू.. तुम ठीक तो हो न?”

“जीजू.. प्लीज आप मुझे ले चलो.. हू हू हू..” रोते हुए उसकी हिचकियाँ बांध गईं।

“हाँ नीलू.. बताओ कहाँ हो? बाकी लोग कैसे हैं?”

उत्तर में नीलम सिर्फ रोती रही।

“साहब, आप फलां फलां जगह पहुँच जाइए.. एक्सट्रैक्शन वही हो रहा है..”

“जी हाँ.. जी.. ठीक है.. मैं आ रहा हूँ..”

“ओह भगवान्! तेरा लाख लाख शुक्र है!”
 
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कह कर मैं बिलख बिलख कर रोने लगा। कोई देखे या नहीं.. मुझे कोई परवाह नहीं! जब सब उम्मीदें छूट गईं, तब देखिए! कैसे खुशखबरी आई! कोई तीन घंटे की मशक्कत के बाद मैं राहत शिविर / एक्सट्रैक्शन कैंप में पहुंचा। वहाँ की हालत तो और भी दयनीय थी। बचाए गए सभी लोगों की आँखों में राहत और आस की नमी थी। साफ़ दिख रहा था की वो सभी बेहद भूखे और बेबस थे, और अब उनके अन्दर किसी भी तरह की शक्ति नहीं बची हुई थी। वाजिब भी है - इन लोगों को एक हफ्ता हो गया, कुछ भी खाने को नहीं मिला था.. और पीने के लिए भी सिर्फ गन्दा पानी ही नसीब हुआ होगा। ज़मीन पर एक व्यक्ति लेटा हुआ था... उसकी हालत देखकर मुझे नहीं लगा की उसके बचने की कोई उम्मीद होगी। सभी के कपड़े फटे हुए और मैले-कुचैले हो गए थे... या तो वो खड़े थे, या फिर लेटे हुए थे।

एक वृद्ध मुझे देखते ही बोला, “हे बबुआ, हम हाथ जोड़ित है.. हमका हियाँ से ले चला।”

बेचारे को लगा होगा की मैं उसका पुत्र या कोई सगा सम्बन्धी हूँगा! एक तरफ कुछ लोग उल्टियाँ कर रहे थे।

‘ये लोग दिख क्यूँ नहीं रहे हैं?’ अचानक मेरी नज़र एक तरफ ज़मीन पर लेटी हुई लड़की पर पड़ी.. ‘नीलम!’

“नीलम?” ‘हे भगवान्! क्या हालत हो गई है इसकी! इतनी प्यारी बच्ची.. और ये दशा?’ उसके कपड़े बुरी तरह से फटे हुए थे। बुरी तरह से मैली कुचैली, ज़ख़्मी, बेदम!

“जीजू? ओह जीजू!” कहते हुए वो मुझसे लिपट गई।

“तुम ठीक तो हो नीलू?”

उसने सर हिला कर हामी भरी।

“बाकी लोग कहाँ हैं?”

मेरे प्रश्न पर उसकी आँखें भर आईं.. उसने बस ‘न’ में सर हिलाया।

मुझे समझ आ गया की वो बात करने की दशा में नहीं है। मैंने वहाँ उपस्थित अधिकारी से बात करी, तो उन्होंने बताया की मेरे परिवार का कोई और सदस्य उनको नहीं मिला.. नीलम अकेली ही थी। वही बता सकती है की बाकी लोग किधर हैं! मैंने वहाँ पर सारी ज़रूरी औपचारिकताएं पूरी करीं, और नीलम को होटल ले आया। रास्ते में आते आते वो या तो गहरी नींद सो गई, या फिर बेहोश हो गई। बेचारी की क्या दशा हो गई थी!! कोई और समय होता तो ऐसी हालत में किसी लड़की को लाने पर होटल के सभी लोग शक करते, लेकिन आज सभी सहयोग कर रहे थे। सामूहिक विपत्ति में समाज में मित्रों की संख्या बढ़ जाती है।

उन्ही की मदद से मैंने नीलम को बिस्तर पर लिटाया, और फिर दरवाज़ा बंद कर के उसके सारे कपड़े उतारे। उसके पूरे शरीर पर चोट, और कटने के निशान दिख रहे थे। शरीर में सूजन तो थी, लेकिन उसके तलवे काफी सूजे हुए थे, और साथ ही साथ उन पर फ़फोले पड़े हुए थे। उनमे से कुछ फूट भी गए थे, और वो घाव खुले भी हुए थे। मैं उसको बिस्तर में लिटा कर उसके लिए ज़रूरी वस्त्र, और डॉक्टर का इंतजाम करने चला गया। डॉक्टर के साथ वापस आया तो देखा की नीलम अभी भी सो रही थी, और उसका शरीर तप रहा था।

उन्होंने नीलम की पूरी तरह से जांच करी, और उसको इंजेक्शन दिया, और कुछ दवाएं लिख कर दीं। बताया की कोई डरने की बात नहीं लगती, बस नीलम को कुछ हल्का खिलाता रहूँ.. जैसे की जूस, सैंडविच इत्यादि, जब तक उसकी ताकत वापस न आ जाय! एक बार ताकत आने पर बुखार खुद ही उतर जाएगा। उनको बस इसी बात का डर है की कहीं उसको डि-हाइड्रेशन न हो जाय!

नीलम देर शाम को ही उठ पाई।

तब तक मैं उसके लिए जूस, और सैंडविच इत्यादि का इंतजाम कर लाया था। मैं उसको बिस्तर से उठा कर बाथरूम ले गया, जहाँ अन्य ज़रूरी कामों के साथ मैंने उसको नहलाया भी। वापस आ कर मैंने उसको कपड़े पहनाये – वो इतनी कमज़ोर हो गई थी की खुद के बल पर बैठ भी नहीं पा रही थी। खाना भी मैंने उसको अपने हाथों से ही खिलाया। और सबसे अंत में दवा पिलाई। फिर उसको वापस बिस्तर में लिटाया।

मैंने प्यार से उसके बालों को सहलाते हुए पूछा, “नीलू, अब ठीक लग रहा है?”

नीलम की आँखों से आंसू टपक पड़े।

“कोई नहीं बचा, जीजू! कोई नहीं..”

मेरे ऊपर मानो बिजली गिरी!

‘कोई नहीं..! मतलब!’

जब तक कोई निश्चित बुरी खबर नहीं मिलती, तब तक आशा बंधी रहती है। मेरी भी आशा बंधी हुई थी की शायद संध्या और बाकी सभी जीवित होंगे... लेकिन नीलम के इस एक वाक्य ने वह आशा भी छीन ली। मैं बुरी तरह से फूट पड़ा – मानो, थमा हुआ बाँध अचानक ही टूट गया हो। मेरे पैर... जैसे उनमें से सारी जान निकल गई हो। मेरा सर चकराने लगा, और मैं अचेत हो कर गिर गया।
 
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रजनीगंधा की मस्त कर देने वाली खुशबू मेरे नथुनों के रास्ते से आ कर मुझे आंदोलित कर देती है।

मेरी चेतना वापस आती है। आँख खुलती है, तो मुझे लगता है की मानो मैं स्वर्ग के नंदन वन में हूँ। चारो तरह चांदनी फैली हुई है, और हरी भरी घास पर ढेर सारे पुष्प खिले हुए हैं! वैसे ही जैसे फूलों की घाटी में देखे थे!

‘क्या बात है! लेकिन.. लेकिन, वो रजनीगंधा की खुशबू?’

मैं उठ कर देखता हूँ तो एक तरफ छोटा सा तालाब, जिसमें कई सारी कुमुदनियाँ अभी सुप्त अवस्था में थीं। दूसरी तरफ नज़र दौड़ाई तो देखा की एक बहुत ही सुन्दर सा घर था – उस घर के प्रथम तल पर स्थित एक बड़ी खिड़की से रौशनी छन कर बाहर आ रही थी। दिमाग की एक झटका सा लगा – यह तो वही घर है जैसा मैंने और संध्या ने साथ में सोचा था! एक बार और मैंने नज़र दौड़ाई, तो देखा की तालाब के समीप ही एक स्त्री, एक छोटी सी लड़की के साथ खेल रही है।

‘ओह! रजनीगंधा की सुगंध उसी तरफ से आ रही है।‘

अचानक उस स्त्री की दृष्टि भी मेरे ऊपर पड़ती है; वो खेलना बंद कर मेरे पास आती है.. संध्या को देख कर मैंने मुस्कुरा उठता हूँ। वो खजुराहो की मूर्तियों जैसी सर्वांग सुंदर दिख रही है - अत्यन्त कमनीय! दरअसल, उसने खजुराहो की मूर्तियों के समान ही वस्त्र पहने हुए हैं – कमर के नीचे धोती है, और स्तनों को ढके हुए कंचुकी! इन वस्त्रों में संध्या के रूप सौंदर्य और अंग-प्रत्यंग की रचना देखते ही बन रही है। उसके वक्ष गोलाकार थे, और शरीर चांदनी में चमक रहा था। आँखों में वही परिचित चंचलता और मादकता!

वो प्रेम से मेरे सर को अपनी गोद में रखकर मुझसे कहती है, “जानू.. उठ गए!”

मैंने एक गहरी सांस भरी – रजनीगंधा की मादक खुशबू मेरे पूरे वजूद में समां गई। समझ नहीं आ रहा की सो जाऊं या जागूँ?

“आई लव यू!” मैंने आँख बंद किये किये कहा।

उत्तर में संध्या खिलखिलाई! फिर रुक कर बोली, “अच्छा.. एक बात बताओ.. सुन्दर है न?”

“बहोत!” मैंने संध्या की कंचुकी में उंगली डाल कर उसको नीचे की तरफ खींचा। उसका बायाँ स्तन कंचुकी के बंधन से मुक्त हो गया। मेरी हरकत पर संध्या ने मेरे हाथ पर एक हलकी सी चपत लगाई।

“गंदे! मैं नहीं...”,

कहते हुए उसने एक तरफ अपनी उंगली से इशारा किया,

“... हमारी बेटी!”

संध्या की इस बात पर मेरा सर एक झटके से दूसरी तरफ उस छोटी लड़की को देखने के लिए मुड़ता है। मेरी आँख एक झटके से खुलती है। मेरे चेहरे पर नीलम झुकी हुई है और बदहवासी में मेरे दोनों गालों को पीट रही है।

“जीजू.. उठिए.. प्लीज.. उठिए! ओह थैंक गॉड!”

मेरा सर नीलम की गोद में था – उसने जब मेरी आँख खुली हुई देखी तो उसके चेहरे पर कुछ राहत के भाव आये।

“जीजू... आप ठीक तो हैं न?”

“ह्ह्ह..हाँ.. मैं ठीक हूँ..” कहते हुए मैं उसकी गोद से उठ कर बैठ जाता हूँ। लेकिन सदमे का असर अभी भी था – मेरा सर फिर से चकरा गया, तो मैं सर थाम कर बैठ गया। नीलम मुझे पकड़ कर पुनः रोने लगी।

“सब ख़तम हो गया.. सब..” कहते हुए उसकी एक बार फिर से हिचकियाँ बंध गईं। मैं तो मानो काठ का हो गया! क्या कहूँ? नीलम कुछ देर रोने के बाद खुद ही कहने लगी,

“बाढ़ से बचने के लिए हम लोग होटल बाहर निकले। होटल का अहाता बुरी तरह से टूट गया था, और वहाँ से पानी बह रहा था – वहीँ से बाहर निकलते हुए माँ का पैर फिसल गया। पानी इतना तेज़ और मैला था की गिरने के बाद वो फिर कभी नहीं दिखाई दीं। पापा उनको बचने के लिए अहाते में कुछ देर तक गए, और जब वापस आये तो लंगड़ा कर चल रहे थे – शायद उनके पैर में मोच आ गई थी।

हमने देखा की आस पास के कुछ लोग पहाड़ की ढलान के ऊपर की तरफ जा रहे थे, इसलिए हम लोग भी उधर ही चलने लगे। जैसे-तैसे हम लोग ऊपर पहुंच गए, लेकिन उस चढ़ाई को करने में बहुत समय लगा – न दिन का पता चलता और न रात का! दीदी तो प्रेगनेंसी के कारण पहले ही कुछ कमज़ोर थीं, और भूखी प्यासी रहने के कारण उसकी हिम्मत जवाब दे गई। और वो वहीँ बेहोश होकर गिर गई। पापा ने कहा की वो कुछ खाने के लिए लाते हैं, लेकिन पूरा दिन भर तलाशने के बाद भी उनको कुछ भी नहीं मिला।

हमारे साथ जो लोग ऊपर जा रहे थे उनमे से उस समय तक कोई नहीं दिख रहा था – शायद वो किसी और तरफ निकल गए, या फिर .. बह गए! मदद देने के लिए अब कोई नहीं था। खैर, पहाड़ पर घास भी उगी हुई थी, और उसको देख कर पापा ने सोचा की शायद उसको खाया जा सकता है। लेकिन उनको कुछ शक था की वो घास खाने लायक है भी, या नहीं! लेकिन, उनका शक सही था... वो वाली घास ज़हरीली थी। उसको खाने पर उनको अच्छा तो नहीं लगा तो उन्होंने उसको थूक दिया – लेकिन जगता है की कुछ ज़हर अन्दर चला गया। दिन भर उल्टियाँ करने के बाद उनकी भी मौत हो गई।

दीदी अब और चल नहीं सकती थीं.. इसलिए मैंने उसको वहीँ लिटा कर मैं आस पास खाने को ढूँढने गई। शायद किसी पक्षी ने कुछ मांस गिरा दिया था। वो मैंने और दीदी ने मिल कर खाया। रात में डर लगता - लगातार बारिश, ठंड और जंगली जानवरों का डर बना रहता था। मरने वालों के शवों को कुत्ते और अन्य जानवर खा रहे थे। अगले दिन दीदी की हालत काफी खराब हो गई। भूख, कच्चा मांस, डिहाइड्रेशन, कमजोरी, संक्रमण... रात में जब वो सोई तो उसका शरीर कांप रहा था। बाहर ठंडक भी बहुत हो रही थी। मैं जब सवेरे उठी तो देखा की दीदी नहीं बची..! रोने के लिए अब तो आंसू भी नहीं बचे थे! दो दिन तक जैसे तैसे जंगली जानवरों से बचते हुए मैं रही... फिर कल मैंने हेलिकॉप्टर की आवाज़ सुनी तो उसको इशारा किया... न जाने कैसे उन्होंने मुझे देखा और वहाँ से निकला। अब यह नहीं समझ आता की मैं लकी हूँ, या एकदम मनहूस!“

जीवन भी अजब है। क्या क्या रंग दिखलाता है। सब कुछ... इसी जन्म में हो जाता है, सब यहीं मिल जाता है! तीन साल भी हम साथ नहीं रह पाए! तीन साल भी नहीं!

‘हे देव! इतनी क्रूरता! ऐसे लेना था, तो दिया ही क्यों? संध्या ने ऐसा क्या किया था की उसकी इस तरह से मृत्यु हो? वह बेचारी सभी की हंसी ख़ुशी के लिए ही सब कुछ करती थी। किसी के प्रति उसके मन में कोई भी विद्वेष नहीं था। फिर क्यों? कहाँ है भगवान? कैसा भगवान?’

और मेरी हालत?

मैं तो एकदम अकेला हूँ! एकदम अकेला.. मेरे हर तरफ एक भीड़ जैसी है.. घर में रहो, सड़क पर निकालो, या फिर ऑफिस जाओ... हर तरफ लोगों की कोई कमी नहीं है.. लेकिन, मैं नितांत अकेला हूँ! सोसाइटी में लोग जब मुझे देखते हैं तो मानो उनको लकवा हो जाता है.. बात करते करते चुप हो जाते हैं, मुझे देख रहे होते हैं तो किसी और तरफ देखने लगते हैं.. कन्नी काट लेते हैं.. जैसे की मुझे कोई रोग हो!

मुझे भी मुक्ति चाहिए! लेकिन आत्महत्या कर नहीं सकता। ऐसे संस्कार नहीं हैं! लेकिन... मुक्ति तो मुझे अब चाहिए! वसीयत में मैंने अपना सब सब कुछ नीलम के नाम लिख दिया है, और अपनी आखिरी इच्छा के लिए निर्देश दिया है की मृत्यु के बाद मुझे विद्युत् शव-दाह गृह में जलाया जाय। क्यों बेकार में लकड़ियाँ जलाना?

संध्या की मृत्यु के बाद बीमा राशि और सरकारी सहायता से मिली हुई रकम मिला कर मैंने एक ट्रस्ट-फण्ड बनाया, जिसका एक ही उद्देश्य था – गरीब परिवार की चुनी हुई मेधावी क्षात्राओं को उनकी उच्च शिक्षा (कम से कम स्नातक स्तर तक) तक पूरी सहायता देना। मेरे ऑफिस, और संध्या के कॉलेज के लोगों ने इस फण्ड में भरपूर योगदान दिया था, जिससे अब यह एक स्थाई क्षात्रवृत्ति बन चुका था। बाकी का सारा निबटारा होने वाली सारी राशि (नीलम के माता पिता की बीमा राशि और सरकारी सहायता), और उत्तराँचल की सारी ज़मीन इत्यादि मैंने कानूनी सहायता से नीलम के नाम लिखवा दी। कम से कम उसका जीवन तो अब स्थिर हो गया था।

मुझे लग रहा था की अब मेरे जीवन का मकसद पूरा हो गया है.. ‘संध्या! मुझे भी अपने पास बुला लो!’ बस मैं यही एक बात रोज़ मन ही मन दोहराता। एक साल हो गया था मेरा परिवार नष्ट हुए! परिवार क्या, पूरा संसार नष्ट हुए! संसार की सबसे निराली लड़की को मुझसे आज से एक साल पहले काल ने छीन लिया। उसके साथ साथ छीन लिया उसने मेरी संतान को – मेरी बेटी! साथ ही चले गए मेरे माता और पिता भी! दोनों माता पिता!

‘कैसा क्रूर मजाक!’
 
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