आज ऑफिस जाने का मन नहीं हुआ, इसलिए सवेरे ही बहाना बना कर घर में रुकने का प्लान कर लिया। लेकिन, नीलम को कॉलेज जाना ही था – उसका कोई बहुत ज़रूरी लेक्चर था, जिसको वो बिलकुल भी मिस नहीं कर सकती थी। खैर, मैंने ठान ही ली थी, की आज घर में बैठूँगा, और नीलम के लिए कुछ अच्छा सा पका कर उसको दोपहर बाद सरप्राइज दूंगा।
खैर, दोपहर के निकट मैं टीवी लगाए चैनल इधर उधर कर रहा था। टीवी देखने की आदत नहीं थी, लेकिन समय काटने के लिए कुछ तो करना ही था। सैकड़ों चैनल तीन चार बार इधर उधर करने के बाद 'नेशनल जियोग्राफिक' चैनल पर रोक दिया – रोक क्या दिया, मेरी उंगलियाँ स्वतः रुक गईं। सामने टीवी स्क्रीन पर उत्तराखंड त्रासदी की एक डाक्यूमेंट्री चल रही थी। वो त्रासदी मेरे जीवन का सबसे बड़ा घाव थी – मेरे हाथ खुद ही रुक गए, और मैं देखने लगा। दिमाग कहीं और ही मंडरा रहा था। डाक्यूमेंट्री में क्या कहा जा रहा था, मुझे सुनाई नहीं दे रहा था – मेरा मष्तिष्क स्वयं ही सामने के चित्रों में कभी तो अथाह जलराशि की गड़गड़ जैसी आवाज़ भरता जा रहा था, तो कभी चोटिल व्यक्तियों की कराह की आवाज़! मन में तो हुआ की टीवी बंद कर दूं – लेकिन वो कहते हैं न, आदमी को अपने दुस्वप्नों से दो-चार होना चाहिए। और कुछ न हो, कम से कम तसल्ली तो मिल ही जाती है।
मैं टीवी बंद नहीं कर सका। बस – चित्र देखता गया। अचानक ही एक ऐसा चित्र आँखों के सामने आया जिसने मेरे ह्रदय की धड़कन कुछ क्षणों के लिए रोक दी। डाक्यूमेंट्री में एक अस्पताल का दृश्य दिखा रहे थे, जिसमे त्रासदी के शिकार लोग भरती किये गए थे। कैमरामैन ने अस्पताल के बड़े से हाल में अपना कैमरा एक कोने से दूसरे कोने तक चलाया था, लेकिन मुझे जो दिखा वो अत्यंत ही अकल्पनीय था।
उस अस्पताल के एक बिस्तर पर संध्या थी!!
कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा। दृश्य में संध्या लगभग निर्जीव सी बिस्तर पर लेटी हुई थी, नहीं – बैठी हुई थी। उसको एक नर्स ने पीछे से सहारा दिया हुआ, और सामने से एक और नर्स उसका कुछ तो मुआयना कर रही थी। एक क्षणिक दृश्य, एक झलक भर.. लेकिन मेरे दिलोदिमाग पर एक अमिट छाप लगाता हुआ! एकदम से रोमांच हो गया – शरीर से सारे रोंगटे खड़े हो गए। उत्तेजना में मेरी साँसे तेज हो गईं।
‘क्या सचमुच संध्या जीवित है? हे प्रभु! काश, ऐसा ही हो!’
अब मैं बहुत सचेत हो कर वो डाक्यूमेंट्री देखने लगा – हो सकता है पुनः दिखाएँ? लेकिन उस अस्पताल का दृश्य पुनः नहीं दिखाया गया। बीच में जब प्रचारों का समय आया तब मैंने डाक्यूमेंट्री का नाम नोट कर लिया। और वापस देखने लगा। अंत तक दोबारा वहां का दृश्य नहीं दिखाया गया। डाक्यूमेंट्री ख़तम होने पर मैंने कैमरामैन, फोटोग्राफर, निर्देशक और निर्माता समेत उस डाक्यूमेंट्री को बनाने में जितने भी सहयोगी थे, सबका नाम लिख लिया।
कुछ देर समझ ही नहीं आ सका की क्या करूँ! कहाँ से शुरू करूँ! कहीं ऐसा तो नहीं की पुराने दुःख के कारण मुझे संध्या दिखी हो! या वो लड़की संध्या न हो, कोई और हो? और फिर, नीलम ने भी तो देखा ही था न की संध्या मर चुकी थी। नीलम से पूछूं? नहीं नहीं! वो बेचारी को फिर से उस बुरी घटना की याद दिलाना बिलकुल ही गलत होगा। वैसे भी वो कितना कुछ झेल चुकी है। नहीं नहीं! नीलम से नहीं।
मैंने जल्दी से लैपटॉप में इन्टरनेट चला कर नेशनल जियोग्राफिक की वेबसाइट खोली, और उनके कॉर्पोरेट ऑफिस कॉल लगाई। अगले एक घंटे तक मैंने एक के बाद एक कई सारे लोगों से वहां बात करी, और सिलसिलेवार तरीके से उनको अपनी आप बीती सुनाई। अंततः, वहां ले एक बड़े अफसर ने मुझसे मिलने का वायदा किया और उसने अपना फ़ोन और ईमेल भी दिया। मैंने झटपट उसके ईमेल पर संध्या की तस्वीर के साथ, उस डाक्यूमेंट्री का पूरा विवरण लिख कर भेज दिया। नीलम के घर आने से पहले मुझे उनका कॉल आया की उन्होंने डाक्यूमेंट्री देखी है, लेकिन उनको नहीं लगता की वो लड़की संध्या है! क्योंकि ठीक से कुछ भी नहीं दिखा। लेकिन मैंने अपनी जिद नहीं छोड़ी। उन्होंने अंत में हार मान ली और डाक्यूमेंट्री बनाने वाली टीम से बात करने का वायदा किया। उन्होंने कहा की जो कुछ भी बन पड़ेगा, वो करेंगे।
कुछ देर में नीलम आ गई। कोई और समय होता, तो मैं सांझ को पहली बार मिलने के अवसर में अगले दस मिनटों में नीलम के साथ गुत्थम-गुत्था हो चुका होता। लेकिन आज मैं काफी शांत बैठा हुआ था – कम से कम नीलम को तो ऐसा ही लगा होगा। लेकिन, मुझे अगले कुछ मिनटों में मालूम होने वाला था की मैं अपनी पत्नी के बारे में काफी कम जानता था – और वो मुझको मुझसे ज्यादा समझती और जानती थी। नीलम ने मुझसे क्या बाते करीं, मुझे याद नहीं, लेकिन वो अन्दर चली गई। संभवतः चाय बनाने गई होगी।
मुझे नहीं मालूम की वो कब वापस आई और उसने क्या कहा – मेरी आँखें तो खुली हुई थीं लेकिन मन न जाने कितने ही कोसों दूर था। अचानक ही मुझे अपने चेहरे पर गरम साँसों और गालों पर नरम उँगलियों का स्पर्श महसूस हुआ। मैं एक झटके से वापस आया – नीलम मेरी आँखों में झाँक रही थी, मानों प्रयास कर रही हो की मेरे अन्दर क्या चल रहा था। वो प्रत्यक्ष मुस्कुराई, लेकिन वो चिन्तित थी। उसने कुछ कहा नहीं।
“जानू – कॉफ़ी!” उसने एक हाथ से मेरे गाल को छुआ, और उसके दूसरे में कॉफ़ी का मग था।
मैं उल्लुओं की भांति कभी उसकी तरफ तो कभी कॉफ़ी मग की तरफ देख रहा था। उसने फिर दोहराया, “कॉफ़ी..”
“ओह सॉरी! मैं किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था।“
उसने कुछ कहा नहीं। बस मेरी बगल आकर मुझसे सट कर बैठ गई। हम दोनों ही शान्ति से कॉफ़ी पीने लगे। कॉफ़ी समाप्त होने के बाद नीलम ने अपना और मेरा मग सामने की टेबल पर रखा, और वापस आकर मेरी गोद में इस तरह बैठ गई जिससे की उसकी दोनों टाँगे मेरे इधर उधर रहें। गोद में बैठे बैठे ही उसने अपनी पहनी हुई टी-शर्ट उतार फेंकी। अन्दर कुछ भी नहीं पहना हुआ था – कोमल पहाड़ियों के मानिंद उसके सुन्दर स्तन तुरंत ही स्वतंत्र हो कर मेरे सम्मुख हो गए।
इस बात का असर मुझ पर बहुत ही सकारात्मक पड़ा – उस मुद्रा में मेरा लिंग तुरंत ही खड़ा हो कर उसकी नितम्बों के मध्य की घाटी में अटक सा गया। हम दोनों ने ही इस समय पजामे पहने हुए थे, इसलिए सीधा कनेक्शन नहीं हो सका – लेकिन नीलम मेरे ऊपर पड़ने वाले अपने इस प्रभाव पर हलके से मुस्कुराई। उसने प्यार से मेरे गले में अपनी बाहें डाल दीं, और लिंग के ऊपर अपने नितम्बों को घिसने लगी। कुछ ही देर में मैंने भी देखा की मैं स्वयं भी हलके हलके अपनी कमर चला कर उसका साथ देने लगा था।
हम दोनों ने एक दूसरे का चुम्बन लिया। मैंने रह रह कर उसके होंठों, गालो, कन्धों और चूचकों पर चुम्बन लिया। इस बीच हम दोनों ही अपने अपने तरीके से तेजी तेजी घिस रहे थे। मेरा लिंग उत्तेजना के मारे फूल कर मोटा हो गया था।
थोड़ी देर में मैंने उससे कहा, “अगर मज़ा ही लेना है, तो ठीक से लेते हैं न...”
तो वो कुछ बोली नहीं, तो मैंने उसको अपनी गोद से उठाया और सामने खड़ा कर दिया। उसके बाद मैंने खुद उठा और अपना पजामा उतार दिया और फिर लगे हाथ नीलम का पजामा भी उसके शरीर से अलग कर दिया। उसने शर्म से अपनी आँखें बंद कर ली। नीलम ने उस समय काले रंग की चड्ढी पहनी हुई थी। मैंने देखा की इतनी देर तक लिंग घिसने के कारण चड्ढी का नरम नरम कपड़ा उसके नितम्बों की दरार में अन्दर घुस गया था।
मैंने जब उसके चूतड़ों को सहलाया, वो एकदम से कांप गई। मैंने उसके चूतड़ों को कुछ देर तक सहला कर तीन चार बार दबाया और उसको कमर से खींच के फिर से अपने लिंग पर बैठा लिया। पहली ही बार की तरह इस बार भी नीलम अपनी कमर हिला रही थी। मैं उसी के ताल में उसकी नंगी जांघों को सहलाने लगा। एकदम चिकनी जाँघें – मक्खन के जैसी! कुछ देर ऐसा ही करने के बाद मैंने एकदम से उसकी चड्ढी को पकड़ा और घुटनों तक खींच दिया। मैंने एक हाथ से अपने लिंग को साधा, और दूसरे से नीलम को फिर से अपनी गोद में बैठा लिया। उस समय मेरे लिंग के उसकी नग्न गुदा के स्पर्श से मुझे मन में आया की क्यों न गुदा मैथुन किया जाय? एक अजीब सा वासना पूर्ण अहसास था वो। मैंने अपने हाथों से उसके चूतड़ों को चौड़ा किया और उनके मध्य अपने लिंग को बैठाया।
“जानू.. जानू! उसमे नहीं! आपका बहुत मोटा है.. मर जाऊंगी मैं..”नीलम ने मिन्नत करी।
सचमुच! ध्यान ही नहीं रहा!
“ठीक है.. लेकिन, कभी ट्राई करते हैं!”
“हाँ.. लेकिन आज नहीं! प्लीज!”
“ओके” मैंने कहा और उसको लिटा कर, अपना मुँह उसकी योनि पर रख दिया।
लोग उत्तेजित योनि को ‘पाव रोटी’ की उपमा देते हैं.. मुझे यह पसंद नहीं आता। मुझे उत्तेजित योनि को मालपुए की उपमा देनी अच्छी लगती है। मालपुआ रसीला, और मीठा होता है। नीलम की योनि भी उसी तरह की हो रही थी। अब मेरा भी लिंग उत्तेजना के बल को सहन नहीं कर पा रहा था। लेकिन फिर भी फोरेप्ले तो करना होता ही है न! मैं अपनी जीभ उसकी योनि के भीता डाल कर अन्दर के स्वाद और वातावरण को महसूस कर रहा था, और उंगली से उसके भगनासे को छेड़ रहा था। नीलम उस शाम पहली बार स्खलित हुई। उसकी आवाजें अब कामुक सिसकारियों में बदल गई थी।
मैं फिर उसकी टाँगों के बीच आ गया। मैंने उसकी टाँगें उठा कर अपने कंधों पर रख ली और अपने लिंग को उसकी योनि के मुहाने पर टिका दिया। आप लोग उस दृश्य की कल्पना कर सकते हैं। नीलम की कुछ ऐसी हालत थी उसकी जांघें मुड़ कर लगभग क्षैतिज हो गई थीं, और योनि लगभग ऊर्ध्व! मैंने तेजी से अपना लिंग उसकी योनि में डालना शुरु कर दिया। मैंने गुरुत्व के प्रभाव से सारा काम जल्दी हो गया। और फिर वही चिरंतन चली आ रही प्रक्रिया करने लगा। नीलम भी मस्त हो कर अपनी चुदाई का आनंद लेने लगी । मेरे होंठ उसके मुँह और होंठों को चूस रहे थे। करीब पंद्रह मिनट के बाद मैंने अपना वीर्य नीलम के अन्दर ही छोड़ दिया।
उस पूरे साहचर्य के दौरान मेरे मन में सिर्फ संध्या की ही छवि घूम रही थी...
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