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Horror किस्से अनहोनियों के

Raj_sharma

परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति ||❣️
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ये स्टोरी हर दिन नई है. हो जाएगा सब
Story me to dum hai hi👍 isme koi shaq nahi:nope:
 

komaalrani

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Update 29

अचानक बस रुकी. और सभी की आँखों मे जैसे सुकून आया हो. वो कुछ ढाई घंटे के सफर से ऊब चुके थे. लेकिन कोमल को तो एक नई रोमांचक कहानी ने कई चीजों को सोचने पर मजबूर कर दिया था. हलाकि डॉ साहब की वो कहानी अब भी अधूरी थी. दोनों बसो से सभी निचे उतरे. और उतारते ही धीरे धीरे सारो ने दाई माँ को घेर लिया.

जैसे जान ना चाहते हो की अब आगे क्या करना है. दाई माँ ने भी घूम कर सब को देखा. वाराणसी का घाट कोई छोटा घाट नहीं था. वो बहोत बड़ा घाट था. जहा हार वक्त कई लाशें जलती हुई होती है.

कई संस्थाए है जो यहाँ जन सेवा भी करती है. भीड़ घाट के बहार भी बहोत थी. इस लिए बस को थोड़ी दूर पार्क किया गया था. तभि दाई माँ की हिदायते शुरू हुई.


दाई माँ : जे सुन लो रे सबई. जे मरन को स्थान है. ज्या कोउ किसन ने भी निमंत्रण नहीं देगो. काउए कही अपय साथ ले चलो. और दूसरी बात. कोउ भी कोइये पीछे ते नहीं पुकारेगो. कोई तुम्हे पीछेते बुलावे तो कोई जवाब नहीं देगो. ना ही कोउ पीछे मुड़के देखेगो. जिन ने भी जरुरत होंगी वो खुदाई तुमए आगे आ जाएगो. समझ गए सभई????
(ये सारे सुन लो. ये मरे हुए लोगो का स्थान है. यहाँ कोई किसी को निमंत्रण नहीं देगा. कही किसी को तुम अपने साथ ले चलो. और दूसरी बात कोई भी किसी को भी पीछे से नहीं पुकारेगा. कोई तुम्हे पीछे से बुलाए तो कोई भी जवाब नहीं देगा. और नहीं कोई पीछे मुड़कर देकगेगा. जिसको तुम्हारी जरुरत होंगी. वो खुद ही आगे आ जाएगा. समझ गए सारे????)


दाई माँ का कहने का मतलब ये था की कोई भी किसी को निमंत्रण नहीं देगा. मतलब की आपस मे बाते करते कोई किसी को बोले चाल, आजा. वगेरा. क्यों की वहां मरे लोगो की आत्माए होती है. जो इन शब्दो को निमंत्रण समझ कर उनके साथ चलने लगती है.


वही कोई भी किसी को पीछे से नहीं पुकारेगा. क्यों की लोग तो अपने साथ आए लोगो को पुकारते है. जैसे ओय रुक जा, या रुकजा बेटी या बेटा, या किसी का नाम लेकर पुकार देते है. पर आत्मा एक ऐसी चीज होती है की वो अपनी लालच मे शरीर ढूढ़ती है.

या फिर साथ ढूढ़ती है. अब आत्माए जीवित व्यक्ति का भुत भविस्य भी बता सकती है. (उसका कारण कभी अपडेट मे आ जाएगा) इसी लिए आत्मा किसी भी अनजान व्यक्ति के नाम को पुकार लेती है.


किसी के गण कमजोर हुए या फिर संपर्क साधने वाले हुए तो वो व्यक्ति उस आत्मा से पुकारे नाम को सुन लेता है. और गलती से पीछे मुड़कर देखता है. आत्माए उसे भी निमंत्रण समज़ती है. और साथ चल पडती है. उसी लिए दाई माँ ने हिदायत दी थी.


दाई माँ चलने लगी और सारे ही उसके पीछे थे. वैसे तो मनिकारनिका घाट मुर्दो का स्थान था. पर वहां सभी को बड़ी ही पॉजिटिव वाइब्स आ रही थी. जैसे वो कोई शमशान मे नहीं किसी मंदिर मे आए हो.

दाई माँ के पीछे वो सारे घाट के अंदर गए. घाट मे जाने से पहले ही उन्हें बड़ा द्वार भी मिल गया. गंगा नदी के किनारे पर घाट पक्का था. सीढिया बनी हुई थी. जगह जगह लोग पूजा करवा रहे थे. लोहे के पोल से घेरे हुए खुले केबिन थे. जिसमे चिताए जल रही थी.

घाट की खासियत ये थी की वहां हर वक्त कोई ना कोई चिताए जल रही होती थी. वहां बहोत सारे कई प्रकार के साधुए भी थे. कोई भक्ति मे लीन था तो कोई पूजा मे. दाई माँ ने थोड़ी दुरी पर एक मंदिर की तरफ हिशारा किया.


दाई माँ : बाबा मशान नाथ.


दाई माँ का कहने का मतलब ये था की वो मंदिर बाबा मशान नाथ का मंदिर है. सभी ने मंदिर की तरफ हाथ जोड़े. दाई माँ आगे चाल पड़ी. सभी उनके पीछे चल रहे थे. कोमल और बलबीर दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकडे हुए था. कोमल तो ऐसे चल रही थी. जैसे वो बलबीर के साथ इश्क लड़ाने किसी गार्डन मे आई हो. एक हाथ बलबीर का पकड़ा हुआ था. और दूसरे हाथ से अपने चहेरे पर आ रही जुल्फों को हटा ती बलबीर को स्माइल करते देख रही थी.

वो कैसे किसी को बताती की उसके कानो मे जैसे कोई वीणा बज रही हो. कोई शास्त्र संगीत सुनाई दे रहा हो. बलबीर का ध्यान तो कोमल पर नहीं था. मगर कोमल के फेस पर एक नटखट स्माइल थी. तभि उसे पीछे से किसी ने पुकारा. जिसे सुनकर कोमल के फेस से वो स्माइल चली गई.


पलकेश : कोमल......


कोमल तुरंत आगे देखने लगी. और बलबीर का हाथ कश के पकड़ लिया. पर बलबीर को समझ नहीं आया. कोमल ने दाई माँ की हिदायत का पूरा खयाल रखा. बस पांच कदम ही और आगे गए होंगे की एक बाबा दाई माँ के आगे आ गया.


बाबा : हे माँ..... एक बीड़ी पिलादे माँ.


वो बाबा ने एक लंगोट पहनी हुई थी बस. उसके बदन पर जैसे रख मली हुई हो. बहोत सारी गले मे रुद्राक्ष की माला पहनी हुई थी. बड़ी लम्बी दाढ़ी थी. देखने से ही वो बड़ा दरवाना लग रहा था. दाई माँ रुक गई. उस साधु को देख कर बलबीर तुरंत ही बहोत धीमे से बोला.


बलबीर : नागा साधु.


डॉ रुस्तम उसकी ये बात सुन गए. और बलबीर और कोमल की तरफ देखा.


डॉ : (स्माइल) नागा नहीं ये अघोरी है.


कोमल : (सॉक) क्या वो दोनों अलग अलग होते है.


डॉ : हा नागा अलग है. अघोरी अलग है. ओघड़ अलग है. कपाली अलग है. मै इस बारे मे तुम्हे एक किताब दूंगा.


कोमल इन अजीब शब्दो को सुनकर बड़ी हेरत मे थी. वही दाई माँ और वो साधु दोनों सीढ़ियों पर ही बैठ गए. साथ आए गांव के एक बुजुर्ग को दाई माँ ने 500 का नोट दिया.


दाई माँ : जा रे. कोई सबन के काजे चाय ले आओ.
(जा सबके लिए चाय लेकर आओ)


दाई माँ और वो अघोरी साधु बात करने लगे. साधुओ का भी एक समाज होता है. कोनसे वक्त मे कोनसा साधु कहा भटक चूका है. ये उनके समाज को जान ने मे कोई परेशानी नहीं होती. बिच मे चाय भी आ गई. सभी ने चाय पी. और चाय पीते पीते अघोरी और साधु बात करते रहे. कुछ मिंटो(मिनट) बाद दाई माँ और वो साधु खड़े हुए.


दाई माँ : तुम नेक देर जई बैठो. मै आय रई हु. पतों लग गो. बो बाबा को हतो.
(कुछ देर आप सब यही बैठो. मै आ रही हु. पता लग गया की वो बाबा कौन है.)


दाई माँ और वो अघोरी बाबा वहां से चले गए.


डॉ : वो अघोरी माँ को अपने अखाड़े मे लेजा रहे है.


कोमल : माँ की सब रेस्पेक्ट करते हे ना.


डॉ : (स्माइल) दाई माँ एक कपाली है. और कपाली इन सब पे भरी होती है.


बलबीर : ऐसा क्यों मतलब....


डॉ : एक वक्त ऐसा आया की भोलेनाथ ने सारे तंत्र को रोक दिया. बस नहीं रोका वो था नारी तंत्र. दाई माँ ने कपाली तंत्र मयोंग मे सीखा. और 11 सिद्धिया भी हासिल की. उन्होंने माशान वाशीनी के सारे रूपों को सिद्ध किया हुआ है. वो जब चेहरे तब शमशान जगा सकती है. जब चाहे शमशान सुला सकती है.


डॉ रुस्तम दाई माँ के बारे मे बोलते हुए बहोत गर्व महसूस कर रहा था.


कोमल : वाओ.... पर ये मयोंग कहा है???


डॉ : मयोंग मतलब माया नगरी. ये भीम की पत्नी हेडम्बा की नगरी है. आशाम मे कामख्या माता के करीब. वहां का काला जादू बहोत खतरनाक है. बड़े बड़े साधु तांत्रिक भी मयोंग जाने से डरते है. वहां सिर्फ औरते ही जादू करती है. कहते है की वो जिस मरद को पसंद करने लगे. या दुश्मनी निकालनी हो तों वहां की औरते उन मर्दो को कुत्ता बिल्ली बन्दर बनाकर अपने पास रख लेती है. बहोत खतरनाक है ये कपाली तंत्र.


कोमल : मतलब को अघोरी, नागा, ये सब अलग अलग तंत्र है.


डॉ रुस्तम : नागा भोले के हार रूप की भक्ति करते है. ये अपने मे मस्त रहते है. जब की अघोरी तंत्र मे माशान नाथ के बाल स्वरुप की भक्ति होती है. बस इन दोनों मे समानता है तों बस एक. जिस तरह एक बच्चा.

जिसे समझ नहीं होती. वो अपनी ही लैटरिंग पेशाब कर देता है. और अनजाने मे उसी मे हाथ दे देता है. ये उस हद तक की भक्ति करते है. मतलब दुनिया दरी से अनजान भी और बेपरवाह भी.

जब की अघोड तंत्र मे सम्पूर्ण मशण नाथ की भक्तो होती है. लेकिन कपाली तंत्र की तों बात ही अलग है. जब ये कपलिनी समसान जगती है. और माशान वासिनी बाल खोल कर नाचती है तों भुत प्रेत कई कोसो दूर भाग जाते है.


कोमल : मतलब सबसे पवरफुल होती है ये???


डॉ : भगवान हो या इंसान. चलती तों बीवी की ही है. कपाली तंत्र मे एक रूप मे माशाण नाथ बाल रूप मे माशाण वासिनी के चरणों मे है. एक मे दोनों पूर्ण अवस्था मे दोनों का समागम है. वही हम इन्हे सात्विक रूप मे पूजते है तों शिव शक्ति के रूप की पूजा है.


कोमल को तों काफ़ी कुछ समझ आया. लेकिन बलबीर के तों सब ऊपर से गया.


कोमल : इन तंत्रो से होता क्या है.


डॉ : मैंने सिर्फ तंत्रो के टाइटल बताएं है. ये अंदर तों बहोत डीप है.


कुछ पल माहोल शांत रहा. कोमल सोच रही थी की उसने जो पलकेश की आवाज सुनी. वो बताए या नहीं. कोमल से रहा नहीं गया और उसने बता ही दिया.


कोमल : मम मुजे किसी ने पीछे से पुकारा था.


डॉ रुस्तम हेरत से कोमल की तरफ देखते है. बलबीर भी ये सुनकर हैरान रहे गया.


कोमल : वो पलकेश की आवाज थी.


डॉ रुस्तम ने एक लम्बी शांस ली.


डॉ : वो पलकेश नहीं था.


कोमल भी बेसे ही हैरानी से डॉ रुस्तम की तरफ देखा.


डॉ : यहाँ सिर्फ वही आत्मा होती है. जिनका सब यहाँ जल रहा होता है. ये बहोत पवित्र स्थान है. दूसरी आत्मा यहाँ नहीं आ सकती. अब मेने पहले ही कहा था की एक आत्मा तुम्हारा पास्ट फयुचर जान सकती है. इसी लिए उसने तुम्हे पलकेंस की आवाज मे पुकारा.


कोमल सॉक जरूर हुई. पर उसने कोई रिएक्शन नहीं दिया. तभि दाई माँ और उस अघोरी साधु के साथ कुछ साधु और थे. जब दाई माँ उस अघोरी साधु के साथ उसके अखाड़े मे गई. तब वो अघोरियो के मुख्य गुरु से मिली. दाई माँ ने सारी बात बताई. तंत्र साधना करने वालो से कुछ छुपाना मुश्किल है. एक अघोरी खुद ही आगे आ गया. और उसने कबूला के वो ही था जो वहां आकर दिन दयाल से मिला था. दरसल उसे उन बच्चों के सब चाहिये थे.

जिसपर बैठकर वो एक मरण साधना कर सके. जिसके लिए उसने दिन दयाल को स्कूल बनाने लायक पुरे पैसे दिये थे. लेकिन दिन दयाल ने वो पैसा आधे से ज्यादा खा लिया. साथ ही उस अघोरी साधु की एक पुस्तक चोरी की. जिसमे एक बंधक साधना तंत्र का ज्ञान था.

उस समय वो साधु पूरी तरह से अघोरी नहीं बना था. वो सिद्धि हाशिल कर रहा था. इस लिए उस अघोरी को पता नहीं चला. दिन दयाल ने तों बंधक तंत्र को पढ़कर अपना कार्य शुरू किया. और मंदिर की सात्विकता मतलब भगवान को ही बंधक बनाने लगा.

जो इल्जाम मुझपर लगाए जा रहे है. की मेने उसके बेटों की बली ली. ये सरासर गलत है. बंधक साधना मे उस दिन दयाल ने ही बली दी थी. लेजिन विधि के अनुसार जिस तरह से बंधक बनाया जता है. मंदिर उस तरह से बंधक नहीं हुआ. क्यों की वहां एक पंडित की आत्मा थी. जिसके कारण उसका कार्य हमेशा से ही रुकता रहा???

दाई माँ ने पूछा की वो बंधक तंत्र की किताब कहा है. ताब उस अघोरी साधु ने बताया की मेने उसे मजबूर कर दिया. और वो खुद ही मुजे यहाँ आकर वो किताब दे गया. दाई माँ ने उस अघोरी को कपाली साधना की धमकी भी दी. पर वो अपने वचन से नहीं फिरा.

सबको विश्वास हो गया की वो अघोरी झूठ नहीं बोल रहा. अघोरी गुरु ने उस शिष्य अघोरी को सारी आत्माओ की मुक्ति करावाने की सजा दी. जिसके लिए वो तैयार भी हो गया. एक शांति पूजा करवाना वो भी भटकती हुई आत्माओ की. इतना भी आसान नहीं होता.

एक स्वस्थ सात्विक विधि भी होती है. जिसके लिए एक महा पंडित की जरुरत होती है. महा पंडित वो होता है. जो मरे हुए के लोगो की शांति पूजा करवाता है. अग्नि दह संस्कार करवाता है. उसके आलावा मरे हुए लोगो की आत्मा लम्बे वक्त से भटकती है. उनके जीवित रहते और मरने के पश्चायत पाप मुक्ति दोष को भी ख़तम करवाना होता है.

पर इसमें तामशिक विधि केवल जीवित रहते और मरने के बाद बाकि कोई दोष हो. उसे ख़तम करना होता है. यह कम ज़्यादातर चांडाल के जरिये करवाया जता है. मतलब की चांडाल से परमिशन लेनी होती है की घाट पर उन आत्माओ को बुलाने की परमिसन.

पर चांडाल वो व्यक्ति होते है जो शमशान में रहते हैं. चिता जलाने का कम अस्थिया चुकने का काम. लड़किया आदि बहोत कुछ होता है. एक अघोरी बन ने से पहले चांडाल बन ना पड़ता है. कई सालो तक 24 घंटे वो समसान मे ही रहते है. उस अघोरी साधु ने सब कार्य सिद्ध करवाए. जिसमे बहोत वक्त लग गया. तक़रीबन 12 बज चुके थे.

अस्थिया वित्सर्जन नहीं था. नहीं तों बनारस जाना पड़ता. दाई माँ ने गांव वालों को वापस जाने की हिदायत दी. और दाई माँ कोमल के पास आई. दोनों ही एक दूसरे को बड़े प्यार से देख रहे थे. दोनों के फेस पर स्माइल थी. दाई माँ ये जानती थी की कोमल उसे अपने साथ लेजाना चाहती है. मगर उनके पास अब भी 4 ऐसी आत्माए थी.

जो लावारिश थी. अनजान लोगो का पिंडदान केवल गया मे ही होता है. बाकि की आत्माओ के परिजन नाम पता थे. जिन्हे बाकि जीवन उस समसान मे रहने की परमिसन मिल गई थी. लेकिन वो चार आत्माए जिनका आता पता नहीं था. उन्हें गया बिहार लेजाना था. तभि वो अघोरी आया और दाई माँ के सामने खड़ा हो गया.


अघोरी : ला दे माँ. अपनी बेटी की इच्छा पूरी कर दे. तेरा ये बेटा इतना तों लायक है जो इस जिम्मे को सही से कर सके.


दाई माँ ने उस अघोरी की तरफ देखा. उसने बाकि सारे कार्य तों पुरे कर दिये. लेकिन उसपर भरोसा करना मुश्किल भी था. पर दाई माँ उस से इम्प्रेस हुई. क्यों की वो मस्तिका तंत्र अच्छे से जानता था. वो दाई माँ और कोमल दोनों के मन को पढ़ चूका था.


दाई माँ : याद रखोयो लाला. जे तूने कछु बदमाशी करी. तों बाकि जीवन तेरो चप्पल खा के गुजरेगो.
(याद रखना बेटा अगर तूने बदमाशी की तों तेरा बाकि जीवन चप्पल खा कर गुजरेगा )


अघोरी : माँ माशाण नाथ की कसम. तेरा बेटा अपना वचन निभाएगा माँ. भरोसा रख. माँ कपलिनी की इच्छा इस दास की इच्छा.


दाई माँ ने तुरंत वो हांडी उस अघोरी को दे दी.







अपडेट अच्छा तो था ही अलग भी था।

पहली बात सूचना से भरपूर, लेकिन यह नहीं लग रहा था की जबरदस्ती ज्ञान दिया जा रहा है। वह कहानी के प्रवाह में था और नागा साधू से जो बात शुरू हुयी तो अघोरी, कापालिक तक पहुंची और सबसे बड़ी बात यह की ये पाठकों को इन साधनाओं के बारे में जानने के लिए उत्सुकता जगायेगा। पैरा नॉर्मल, घोस्ट बस्टर या इस तरह की बातें हर सभ्यता और संस्कृति में थीं और हैं लेकिन तंत्र के ये जिन आयामों की आपने चर्चा की किस्से के जरिये, यह पूरी तरह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े हैं और अनेक धाराओं का उनमे संगम होता रहा।

दूसरी बात, जो इस कहानी में बार बार दिखती है कम शब्दों में दृश्यबंध बांधना, मणिकर्णिका का आपने कुछ शब्दों में दृश्य खिंच दिया। सच में वहां पहुँच कर लगता है मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, जैसे पूर्ण विराम के बिना वाक्य पूरा नहीं होता, और उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। रंगभरी एकादशी (आमलकी) के दूसरे दिन बाबा विश्वनाथ जी के गौना होता है ऐसी मान्यता है इस दिन बाबा मसान होली खेलते हैं जो कि काशी में मणिकर्णिका एवं हरिश्चन्द्र धाट के अतिरिक्त पूरे विश्व में अन्यत्र और कहीं नहीं मनाया जाता है| होली जो जीवंतता का पर्व है और मसान जो जीवन के अंत को स्वीकारता है दोनों का अद्भुत मिलान और महाकाल, वह काल जिसमे सब कुछ समा जाता है और बनारस जहाँ के कबीर ने कहा था, साधो यह मुर्दो का देस। सब मरेंगे, सूर्य चंद्र, देवता, सब उसी काल में समायेंगे। और आप के दृश्य मन के पंछी को कहँ कहाँ उड़ा के ले जाते हैं मैं ही समझ सकती हूँ।

तीसरी बात दाई माँ के माध्यम से लोक विश्वास, पीछे मुड़ के न देखना, हर बार यह कहा जाता है लेकिन उसके पीछे का बोध, अतीत को छोड़ के भविष्य की ओर बढ़ना, बस चलते रहना, पीछे जो है मोह है जो बांधता है, रोकता है



और दाई माँ का जो चरित्र आपने गढ़ा है, बरसों तक याद किया जाएगा। बेलौस, निस्पृह, निश्छल बच्चों ऐसी सरल, ज्ञान से भरपूर लेकिन अहंकार से दूर

तंत्र का जो रूप इसमें है वह काफी कुछ व्यवहारिक पक्ष है जो परिवार में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, उनके डेरे में गुरु से शिष्य तक और एक दुसरे के पास भी,

पर इसके साथ इसका एक सूक्ष्म पक्ष है पूरी तरह एकेडेमिक, आप में से बहुतो ने नाम सुना होगा शायद उनकी पुस्तकें पढ़ी भी होंगी,

जॉन वुड्रॉफ़ ( १८६५-१९३६), उन्नीसवीं शताब्दी में उन्होंने तंत्र से जुडी अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और वैसे तो कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे बाद में चीफ जस्टिस बने और ऑक्सफोर्ड में लॉ पढ़ाते थे, लेकिन संस्कृत का उनका ज्ञान अद्भुत था। उन्होंने महा निर्वाण तन्त्रम का अंग्रेजी में अनुवाद किया और हम में से जो लोग संस्कृत नहीं समझते ( में एकदम नहीं जानती ) वो अंग्रेजी में इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं जिसका मैं लिंक दे रही हूँ। उसी तरह देवी की स्तुतियां, जो तंत्र में हैं, पुराणों में हैं उसका भी उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया।


परम्परा में कितनी धाराएं कब कैसे मिलीं कहना मुश्किल है लेकिन तो आज हम टोने टोटके, जादू की बात करते हैं उसके बीज रूप अथरववेद में देखे जा सकते हैं। जैसे उत्तर में भक्ति काल में वैष्णव् परम्परा मजबूत हुयी उसी तरह पूरब में शाक्त परम्परा जिसका तंत्र पर बहुत असर पड़ा। और इसलिए लिए उड़ीसा, बंगाल और आसाम में यह अभी भी समृद्ध रूप में है। बुद्ध के अनुयायियों में वज्रयान परपंरा ने भी तंत्र को विकसित किया।

अंत में कुछ बातें कापालिक परंपरा के बारे में,

कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। लेकिन कापालिक मत में प्रचलित साधनाएँ बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं। यह कहना कठिन है कि कापालिक संप्रदाय का उद्भव मूलत: व्रजयानी परंपराओं से हुआ अथवा शैव या नाथ संप्रदाय से। यक्ष-देव-परंपरा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योंकि तीनों में ही प्राय: कई देवता समान गुण, धर्म और स्वभाव के हैं। 'चर्याचर्यविनिश्चय' की टीका में एक श्लोक आया है जिसमें प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत् की स्त्रियों को स्त्री-जन-साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गई।

बौद्ध संप्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्रीसाहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गई है और बौद्ध साधक अपने को 'कपाली' कहते थे (चर्यापद ११, चर्या-गीत-कोश; बागची)। प्राचीन साहित्य (जैसे मालतीमाधव) में कपालकुंडला और अघारेघंट का उल्लेख आया है।

और इसी के साथ कौलाचार भी जुड़ा है। सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवान्तर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल श्री चक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा करते हैं; उत्तरकौल सुंदरी तरुणी के प्रत्यक्ष योनि के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार वामाचार के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना। कौलाचार के इस उत्तरकालीन रूप पर तिब्बती तंत्र का भी असर पड़ा।



लेकिन यह सब बाते सिर्फ किताबी हैं, इन कहानियों के जरिये जो इन के लोक विशवास के और व्यवहारिक पक्षों से आप हमें परिचित करा रही हैं वह अद्भुत है।
 

Shetan

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अपडेट अच्छा तो था ही अलग भी था।

पहली बात सूचना से भरपूर, लेकिन यह नहीं लग रहा था की जबरदस्ती ज्ञान दिया जा रहा है। वह कहानी के प्रवाह में था और नागा साधू से जो बात शुरू हुयी तो अघोरी, कापालिक तक पहुंची और सबसे बड़ी बात यह की ये पाठकों को इन साधनाओं के बारे में जानने के लिए उत्सुकता जगायेगा। पैरा नॉर्मल, घोस्ट बस्टर या इस तरह की बातें हर सभ्यता और संस्कृति में थीं और हैं लेकिन तंत्र के ये जिन आयामों की आपने चर्चा की किस्से के जरिये, यह पूरी तरह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े हैं और अनेक धाराओं का उनमे संगम होता रहा।

दूसरी बात, जो इस कहानी में बार बार दिखती है कम शब्दों में दृश्यबंध बांधना, मणिकर्णिका का आपने कुछ शब्दों में दृश्य खिंच दिया। सच में वहां पहुँच कर लगता है मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, जैसे पूर्ण विराम के बिना वाक्य पूरा नहीं होता, और उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। रंगभरी एकादशी (आमलकी) के दूसरे दिन बाबा विश्वनाथ जी के गौना होता है ऐसी मान्यता है इस दिन बाबा मसान होली खेलते हैं जो कि काशी में मणिकर्णिका एवं हरिश्चन्द्र धाट के अतिरिक्त पूरे विश्व में अन्यत्र और कहीं नहीं मनाया जाता है| होली जो जीवंतता का पर्व है और मसान जो जीवन के अंत को स्वीकारता है दोनों का अद्भुत मिलान और महाकाल, वह काल जिसमे सब कुछ समा जाता है और बनारस जहाँ के कबीर ने कहा था, साधो यह मुर्दो का देस। सब मरेंगे, सूर्य चंद्र, देवता, सब उसी काल में समायेंगे। और आप के दृश्य मन के पंछी को कहँ कहाँ उड़ा के ले जाते हैं मैं ही समझ सकती हूँ।

तीसरी बात दाई माँ के माध्यम से लोक विश्वास, पीछे मुड़ के न देखना, हर बार यह कहा जाता है लेकिन उसके पीछे का बोध, अतीत को छोड़ के भविष्य की ओर बढ़ना, बस चलते रहना, पीछे जो है मोह है जो बांधता है, रोकता है



और दाई माँ का जो चरित्र आपने गढ़ा है, बरसों तक याद किया जाएगा। बेलौस, निस्पृह, निश्छल बच्चों ऐसी सरल, ज्ञान से भरपूर लेकिन अहंकार से दूर

तंत्र का जो रूप इसमें है वह काफी कुछ व्यवहारिक पक्ष है जो परिवार में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, उनके डेरे में गुरु से शिष्य तक और एक दुसरे के पास भी,

पर इसके साथ इसका एक सूक्ष्म पक्ष है पूरी तरह एकेडेमिक, आप में से बहुतो ने नाम सुना होगा शायद उनकी पुस्तकें पढ़ी भी होंगी,

जॉन वुड्रॉफ़ ( १८६५-१९३६), उन्नीसवीं शताब्दी में उन्होंने तंत्र से जुडी अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और वैसे तो कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे बाद में चीफ जस्टिस बने और ऑक्सफोर्ड में लॉ पढ़ाते थे, लेकिन संस्कृत का उनका ज्ञान अद्भुत था। उन्होंने महा निर्वाण तन्त्रम का अंग्रेजी में अनुवाद किया और हम में से जो लोग संस्कृत नहीं समझते ( में एकदम नहीं जानती ) वो अंग्रेजी में इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं जिसका मैं लिंक दे रही हूँ। उसी तरह देवी की स्तुतियां, जो तंत्र में हैं, पुराणों में हैं उसका भी उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया।


परम्परा में कितनी धाराएं कब कैसे मिलीं कहना मुश्किल है लेकिन तो आज हम टोने टोटके, जादू की बात करते हैं उसके बीज रूप अथरववेद में देखे जा सकते हैं। जैसे उत्तर में भक्ति काल में वैष्णव् परम्परा मजबूत हुयी उसी तरह पूरब में शाक्त परम्परा जिसका तंत्र पर बहुत असर पड़ा। और इसलिए लिए उड़ीसा, बंगाल और आसाम में यह अभी भी समृद्ध रूप में है। बुद्ध के अनुयायियों में वज्रयान परपंरा ने भी तंत्र को विकसित किया।

अंत में कुछ बातें कापालिक परंपरा के बारे में,

कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। लेकिन कापालिक मत में प्रचलित साधनाएँ बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं। यह कहना कठिन है कि कापालिक संप्रदाय का उद्भव मूलत: व्रजयानी परंपराओं से हुआ अथवा शैव या नाथ संप्रदाय से। यक्ष-देव-परंपरा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योंकि तीनों में ही प्राय: कई देवता समान गुण, धर्म और स्वभाव के हैं। 'चर्याचर्यविनिश्चय' की टीका में एक श्लोक आया है जिसमें प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत् की स्त्रियों को स्त्री-जन-साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गई।

बौद्ध संप्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्रीसाहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गई है और बौद्ध साधक अपने को 'कपाली' कहते थे (चर्यापद ११, चर्या-गीत-कोश; बागची)। प्राचीन साहित्य (जैसे मालतीमाधव) में कपालकुंडला और अघारेघंट का उल्लेख आया है।

और इसी के साथ कौलाचार भी जुड़ा है। सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवान्तर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल श्री चक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा करते हैं; उत्तरकौल सुंदरी तरुणी के प्रत्यक्ष योनि के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार वामाचार के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना। कौलाचार के इस उत्तरकालीन रूप पर तिब्बती तंत्र का भी असर पड़ा।



लेकिन यह सब बाते सिर्फ किताबी हैं, इन कहानियों के जरिये जो इन के लोक विशवास के और व्यवहारिक पक्षों से आप हमें परिचित करा रही हैं वह अद्भुत है।
बिलकुल कोमलजी. आप तों कपलिक तंत्र के बारे मे बहोत कुछ जानती हो. कपाली तंत्र से तों वैसे बहोत कुछ जुडा है. वैसे तों ये जुड़ाव नारी तंत्र से ही मिलता है. जब रावण ने शिवजी से अबोध ज्ञान हासिल कर लिया तब उसने बहोत सारे तंत्रो की रचना की. और उसके बचाव के तोर पर देव राज इंद्रा ने भी ज्ञान हासिल किया. और उसने इंद्राजाल की रचना की. जन लोग कई सारे इन तंत्रो को सिखने लगे. तब शिव ने ही इन तंत्रो पर प्रतिबन्ध लगाया. पर नहीं लगा तों सिर्फ एक पर. वो था नारी तंत्र. जिस से कपाल तंत्र जुडा हुआ है.
आशाम का मयोंग गांव इसका जीता जगता उदाहरण है. कपलिक साधना अपने आप मे बहोत बड़ी सकती है. माँ कामख्या के बारे मे जाउंगी तों और ज्यादा डीप हो जाएगा. बस यूह कहु की ये अपने आप मे ही एक अलग दुनिया है.
इस मे कई प्रकार की ऐसी साधना है. जिसे आम जीवन जीने वाला इंसान सोच ही नहीं सकता. सब साधना, भाषम साधना, और भी कई साधना है. जिस से कपालिक तंत्र सिद्ध होता है.


मुजे बहोत अच्छा लगा की आप कपलिक जीवन के बारे मे बहोत ही अच्छा ज्ञान रखती हो. ऐसे ही मे आप को गुरु नहीं मानती. आप का बहोत बहोत धन्यवाद.
 

Ajju Landwalia

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अपडेट अच्छा तो था ही अलग भी था।

पहली बात सूचना से भरपूर, लेकिन यह नहीं लग रहा था की जबरदस्ती ज्ञान दिया जा रहा है। वह कहानी के प्रवाह में था और नागा साधू से जो बात शुरू हुयी तो अघोरी, कापालिक तक पहुंची और सबसे बड़ी बात यह की ये पाठकों को इन साधनाओं के बारे में जानने के लिए उत्सुकता जगायेगा। पैरा नॉर्मल, घोस्ट बस्टर या इस तरह की बातें हर सभ्यता और संस्कृति में थीं और हैं लेकिन तंत्र के ये जिन आयामों की आपने चर्चा की किस्से के जरिये, यह पूरी तरह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े हैं और अनेक धाराओं का उनमे संगम होता रहा।

दूसरी बात, जो इस कहानी में बार बार दिखती है कम शब्दों में दृश्यबंध बांधना, मणिकर्णिका का आपने कुछ शब्दों में दृश्य खिंच दिया। सच में वहां पहुँच कर लगता है मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, जैसे पूर्ण विराम के बिना वाक्य पूरा नहीं होता, और उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। रंगभरी एकादशी (आमलकी) के दूसरे दिन बाबा विश्वनाथ जी के गौना होता है ऐसी मान्यता है इस दिन बाबा मसान होली खेलते हैं जो कि काशी में मणिकर्णिका एवं हरिश्चन्द्र धाट के अतिरिक्त पूरे विश्व में अन्यत्र और कहीं नहीं मनाया जाता है| होली जो जीवंतता का पर्व है और मसान जो जीवन के अंत को स्वीकारता है दोनों का अद्भुत मिलान और महाकाल, वह काल जिसमे सब कुछ समा जाता है और बनारस जहाँ के कबीर ने कहा था, साधो यह मुर्दो का देस। सब मरेंगे, सूर्य चंद्र, देवता, सब उसी काल में समायेंगे। और आप के दृश्य मन के पंछी को कहँ कहाँ उड़ा के ले जाते हैं मैं ही समझ सकती हूँ।

तीसरी बात दाई माँ के माध्यम से लोक विश्वास, पीछे मुड़ के न देखना, हर बार यह कहा जाता है लेकिन उसके पीछे का बोध, अतीत को छोड़ के भविष्य की ओर बढ़ना, बस चलते रहना, पीछे जो है मोह है जो बांधता है, रोकता है



और दाई माँ का जो चरित्र आपने गढ़ा है, बरसों तक याद किया जाएगा। बेलौस, निस्पृह, निश्छल बच्चों ऐसी सरल, ज्ञान से भरपूर लेकिन अहंकार से दूर

तंत्र का जो रूप इसमें है वह काफी कुछ व्यवहारिक पक्ष है जो परिवार में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, उनके डेरे में गुरु से शिष्य तक और एक दुसरे के पास भी,

पर इसके साथ इसका एक सूक्ष्म पक्ष है पूरी तरह एकेडेमिक, आप में से बहुतो ने नाम सुना होगा शायद उनकी पुस्तकें पढ़ी भी होंगी,

जॉन वुड्रॉफ़ ( १८६५-१९३६), उन्नीसवीं शताब्दी में उन्होंने तंत्र से जुडी अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और वैसे तो कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे बाद में चीफ जस्टिस बने और ऑक्सफोर्ड में लॉ पढ़ाते थे, लेकिन संस्कृत का उनका ज्ञान अद्भुत था। उन्होंने महा निर्वाण तन्त्रम का अंग्रेजी में अनुवाद किया और हम में से जो लोग संस्कृत नहीं समझते ( में एकदम नहीं जानती ) वो अंग्रेजी में इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं जिसका मैं लिंक दे रही हूँ। उसी तरह देवी की स्तुतियां, जो तंत्र में हैं, पुराणों में हैं उसका भी उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया।


परम्परा में कितनी धाराएं कब कैसे मिलीं कहना मुश्किल है लेकिन तो आज हम टोने टोटके, जादू की बात करते हैं उसके बीज रूप अथरववेद में देखे जा सकते हैं। जैसे उत्तर में भक्ति काल में वैष्णव् परम्परा मजबूत हुयी उसी तरह पूरब में शाक्त परम्परा जिसका तंत्र पर बहुत असर पड़ा। और इसलिए लिए उड़ीसा, बंगाल और आसाम में यह अभी भी समृद्ध रूप में है। बुद्ध के अनुयायियों में वज्रयान परपंरा ने भी तंत्र को विकसित किया।

अंत में कुछ बातें कापालिक परंपरा के बारे में,

कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। लेकिन कापालिक मत में प्रचलित साधनाएँ बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं। यह कहना कठिन है कि कापालिक संप्रदाय का उद्भव मूलत: व्रजयानी परंपराओं से हुआ अथवा शैव या नाथ संप्रदाय से। यक्ष-देव-परंपरा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योंकि तीनों में ही प्राय: कई देवता समान गुण, धर्म और स्वभाव के हैं। 'चर्याचर्यविनिश्चय' की टीका में एक श्लोक आया है जिसमें प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत् की स्त्रियों को स्त्री-जन-साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गई।

बौद्ध संप्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्रीसाहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गई है और बौद्ध साधक अपने को 'कपाली' कहते थे (चर्यापद ११, चर्या-गीत-कोश; बागची)। प्राचीन साहित्य (जैसे मालतीमाधव) में कपालकुंडला और अघारेघंट का उल्लेख आया है।

और इसी के साथ कौलाचार भी जुड़ा है। सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवान्तर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल श्री चक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा करते हैं; उत्तरकौल सुंदरी तरुणी के प्रत्यक्ष योनि के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार वामाचार के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना। कौलाचार के इस उत्तरकालीन रूप पर तिब्बती तंत्र का भी असर पड़ा।



लेकिन यह सब बाते सिर्फ किताबी हैं, इन कहानियों के जरिये जो इन के लोक विशवास के और व्यवहारिक पक्षों से आप हमें परिचित करा रही हैं वह अद्भुत है।

Bahut hi adhbhud jankari de he aapne komaalrani Ji

Aise aap dono is vishay par hamar gyanvardhan karti rahe
 

komaalrani

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Bahut hi adhbhud jankari de he aapne komaalrani Ji

Aise aap dono is vishay par hamar gyanvardhan karti rahe
🙏🙏🙏🙏
 

komaalrani

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बिलकुल कोमलजी. आप तों कपलिक तंत्र के बारे मे बहोत कुछ जानती हो. कपाली तंत्र से तों वैसे बहोत कुछ जुडा है. वैसे तों ये जुड़ाव नारी तंत्र से ही मिलता है. जब रावण ने शिवजी से अबोध ज्ञान हासिल कर लिया तब उसने बहोत सारे तंत्रो की रचना की. और उसके बचाव के तोर पर देव राज इंद्रा ने भी ज्ञान हासिल किया. और उसने इंद्राजाल की रचना की. जन लोग कई सारे इन तंत्रो को सिखने लगे. तब शिव ने ही इन तंत्रो पर प्रतिबन्ध लगाया. पर नहीं लगा तों सिर्फ एक पर. वो था नारी तंत्र. जिस से कपाल तंत्र जुडा हुआ है.
आशाम का मयोंग गांव इसका जीता जगता उदाहरण है. कपलिक साधना अपने आप मे बहोत बड़ी सकती है. माँ कामख्या के बारे मे जाउंगी तों और ज्यादा डीप हो जाएगा. बस यूह कहु की ये अपने आप मे ही एक अलग दुनिया है.
इस मे कई प्रकार की ऐसी साधना है. जिसे आम जीवन जीने वाला इंसान सोच ही नहीं सकता. सब साधना, भाषम साधना, और भी कई साधना है. जिस से कपालिक तंत्र सिद्ध होता है.



मुजे बहोत अच्छा लगा की आप कपलिक जीवन के बारे मे बहोत ही अच्छा ज्ञान रखती हो. ऐसे ही मे आप को गुरु नहीं मानती. आप का बहोत बहोत धन्यवाद.
मेरा ज्ञान सिर्फ किताबी है और आप का अनुभव जन्य और व्यवहारिक, लोक विश्वास पर आधारित और उससे बड़ी बात, जिस तरह कहानी के ताने बाने में बुन के आप पेश करती हैं, मैं नहीं पूरा फोरम अनुग्रहित है।
 
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sunoanuj

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अपडेट अच्छा तो था ही अलग भी था।

पहली बात सूचना से भरपूर, लेकिन यह नहीं लग रहा था की जबरदस्ती ज्ञान दिया जा रहा है। वह कहानी के प्रवाह में था और नागा साधू से जो बात शुरू हुयी तो अघोरी, कापालिक तक पहुंची और सबसे बड़ी बात यह की ये पाठकों को इन साधनाओं के बारे में जानने के लिए उत्सुकता जगायेगा। पैरा नॉर्मल, घोस्ट बस्टर या इस तरह की बातें हर सभ्यता और संस्कृति में थीं और हैं लेकिन तंत्र के ये जिन आयामों की आपने चर्चा की किस्से के जरिये, यह पूरी तरह भारतीय संस्कृति और इतिहास से जुड़े हैं और अनेक धाराओं का उनमे संगम होता रहा।

दूसरी बात, जो इस कहानी में बार बार दिखती है कम शब्दों में दृश्यबंध बांधना, मणिकर्णिका का आपने कुछ शब्दों में दृश्य खिंच दिया। सच में वहां पहुँच कर लगता है मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, जैसे पूर्ण विराम के बिना वाक्य पूरा नहीं होता, और उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। रंगभरी एकादशी (आमलकी) के दूसरे दिन बाबा विश्वनाथ जी के गौना होता है ऐसी मान्यता है इस दिन बाबा मसान होली खेलते हैं जो कि काशी में मणिकर्णिका एवं हरिश्चन्द्र धाट के अतिरिक्त पूरे विश्व में अन्यत्र और कहीं नहीं मनाया जाता है| होली जो जीवंतता का पर्व है और मसान जो जीवन के अंत को स्वीकारता है दोनों का अद्भुत मिलान और महाकाल, वह काल जिसमे सब कुछ समा जाता है और बनारस जहाँ के कबीर ने कहा था, साधो यह मुर्दो का देस। सब मरेंगे, सूर्य चंद्र, देवता, सब उसी काल में समायेंगे। और आप के दृश्य मन के पंछी को कहँ कहाँ उड़ा के ले जाते हैं मैं ही समझ सकती हूँ।

तीसरी बात दाई माँ के माध्यम से लोक विश्वास, पीछे मुड़ के न देखना, हर बार यह कहा जाता है लेकिन उसके पीछे का बोध, अतीत को छोड़ के भविष्य की ओर बढ़ना, बस चलते रहना, पीछे जो है मोह है जो बांधता है, रोकता है



और दाई माँ का जो चरित्र आपने गढ़ा है, बरसों तक याद किया जाएगा। बेलौस, निस्पृह, निश्छल बच्चों ऐसी सरल, ज्ञान से भरपूर लेकिन अहंकार से दूर

तंत्र का जो रूप इसमें है वह काफी कुछ व्यवहारिक पक्ष है जो परिवार में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, उनके डेरे में गुरु से शिष्य तक और एक दुसरे के पास भी,

पर इसके साथ इसका एक सूक्ष्म पक्ष है पूरी तरह एकेडेमिक, आप में से बहुतो ने नाम सुना होगा शायद उनकी पुस्तकें पढ़ी भी होंगी,

जॉन वुड्रॉफ़ ( १८६५-१९३६), उन्नीसवीं शताब्दी में उन्होंने तंत्र से जुडी अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और वैसे तो कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे बाद में चीफ जस्टिस बने और ऑक्सफोर्ड में लॉ पढ़ाते थे, लेकिन संस्कृत का उनका ज्ञान अद्भुत था। उन्होंने महा निर्वाण तन्त्रम का अंग्रेजी में अनुवाद किया और हम में से जो लोग संस्कृत नहीं समझते ( में एकदम नहीं जानती ) वो अंग्रेजी में इस पुस्तक को पढ़ सकते हैं जिसका मैं लिंक दे रही हूँ। उसी तरह देवी की स्तुतियां, जो तंत्र में हैं, पुराणों में हैं उसका भी उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया।


परम्परा में कितनी धाराएं कब कैसे मिलीं कहना मुश्किल है लेकिन तो आज हम टोने टोटके, जादू की बात करते हैं उसके बीज रूप अथरववेद में देखे जा सकते हैं। जैसे उत्तर में भक्ति काल में वैष्णव् परम्परा मजबूत हुयी उसी तरह पूरब में शाक्त परम्परा जिसका तंत्र पर बहुत असर पड़ा। और इसलिए लिए उड़ीसा, बंगाल और आसाम में यह अभी भी समृद्ध रूप में है। बुद्ध के अनुयायियों में वज्रयान परपंरा ने भी तंत्र को विकसित किया।

अंत में कुछ बातें कापालिक परंपरा के बारे में,

कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। लेकिन कापालिक मत में प्रचलित साधनाएँ बहुत कुछ वज्रयानी साधनाओं में गृहीत हैं। यह कहना कठिन है कि कापालिक संप्रदाय का उद्भव मूलत: व्रजयानी परंपराओं से हुआ अथवा शैव या नाथ संप्रदाय से। यक्ष-देव-परंपरा के देवताओं और साधनाओं का सीधा प्रभाव शैव और बौद्ध कापालिकों पर पड़ा क्योंकि तीनों में ही प्राय: कई देवता समान गुण, धर्म और स्वभाव के हैं। 'चर्याचर्यविनिश्चय' की टीका में एक श्लोक आया है जिसमें प्राणी को वज्रधर कहा गया है और जगत् की स्त्रियों को स्त्री-जन-साध्य होने के कारण यह साधना कापालिक कही गई।

बौद्ध संप्रदाय में सहजयान और वज्रयान में भी स्त्रीसाहचर्य की अनिवार्यता स्वीकार की गई है और बौद्ध साधक अपने को 'कपाली' कहते थे (चर्यापद ११, चर्या-गीत-कोश; बागची)। प्राचीन साहित्य (जैसे मालतीमाधव) में कपालकुंडला और अघारेघंट का उल्लेख आया है।

और इसी के साथ कौलाचार भी जुड़ा है। सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों के दो अवान्तर भेदों का निर्देश किया है। उनके अनुसार पूर्वकौल श्री चक्र के भीतर स्थित योनि की पूजा करते हैं; उत्तरकौल सुंदरी तरुणी के प्रत्यक्ष योनि के पूजक हैं और अन्य मकारों का भी प्रत्यक्ष प्रयोग करते हैं। उत्तरकौलों के इन कुत्सापूर्ण अनुष्ठानों के कारण कौलाचार वामाचार के नाम से अभिहित होने लगा और जनसाधारण की विरक्ति तथा अवहेलना का भाजन बना। कौलाचार के इस उत्तरकालीन रूप पर तिब्बती तंत्र का भी असर पड़ा।



लेकिन यह सब बाते सिर्फ किताबी हैं, इन कहानियों के जरिये जो इन के लोक विशवास के और व्यवहारिक पक्षों से आप हमें परिचित करा रही हैं वह अद्भुत है।


Bahut hi adhbhut and anokhi janakari dii hai aapne or kafi vistar se … 👏🏻👏🏻👏🏻
 

komaalrani

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Shetan

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Kya huaa janab??? Aap kyo nirash ho???
 
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