Update 31
सुबह हुई। रोजाना की तरह ही महिला पुलिसकर्मी कैदियों को जानवरों की तरह जगाने लगी। गाली-गलौच और गंदे-गंदे शब्दो से उनके दिन की शुरुआत हुई। सब कुछ वैसा ही था लेकिन बस बदल गए थे तो उन सातो के हालात, उनकी परिस्थिति और उनका पहनावा। बाकी औरतो के लिए वह सुबह भले ही अन्य दिनों की तरह बिल्कुल सामान्य थी लेकिन उन सातो के लिए यह उनके अंधकारमय और नर्करूपी भावी जीवन की पहली काली सुबह थी।
उनके बदन पर रंगीन साड़ियाँ, जीन्स, टीशर्ट, गाउन या नाइट सूट नही था बल्कि सफेद रंग की कैदियों वाली साड़ी थी जो उन्हें इस बात का एहसास करा रही थी अब वे लोग सज़ायाफ्ता कैदी हैं। एक दिन पहले तक जेल की हर सुबह उनके लिए एक नई आशा लेकर आती थी कि एक ना एक दिन उन्हें जेल से आजादी जरूर मिलेगी लेकिन अब उनकी परिस्थिति पूरी तरह बदल चुकी थी।
“ऐ चलो सब लोग। जल्दी-जल्दी बाहर निकलो…” - महिला सिपाहियों ने कैदियों पर चिल्लाते हुये कहा।
वे सातो भी अपनी-अपनी सेल से बाहर निकल आई और एक-दूसरे को खोजने लगी। महिला कैदियों की भारी भीड़ के बीच मे एक-दूसरे को खोजना भी एक बड़ी चुनौती थी। सभी औरते एक जैसे कपड़ो में थी जिस वजह से उन्हें और भी ज्यादा मुश्किले हो रही थी। कैदी औरते दिनचर्या के कामो में लगी हुई थी और शौच आदि करने के बाद उन्हें व्यायाम के लिए मैदान में ले जाया गया।
उन सातो में दया और माधवी को साड़ी में व्यायाम करने में कोई खासी परेशानी नही हुई लेकिन बबिता, अंजली, कोमल, रोशन और सोनू के लिए साड़ी पहनकर व्यायाम करना काफी मुश्किल था। उन्हें इसकी बिल्कुल भी आदत नही थी और जेल में आने से बाद भी वे लोग नाइट सूट या अन्य आरामदायक कपड़ो में ही व्यायाम किया करती थी। सज़ायाफ्ता होने के बाद उनके पास कोई और विकल्प नही था इसलिए मजबूरन उन्हें साड़ी में ही व्यायाम करना पड़ा। हालाँकि असल परेशानी तब शुरू हुई जब सारे कैदियों को दौड़ाना शुरू किया गया।
सोनू साड़ी में ठीक से दौड़ नही पा रही थी और उसे बार-बार साड़ी के खुलने का डर सता रहा था। चूँकि कैदियों को ना तो साड़ी में फँसाने के लिए पिन दिए जाते थे और ना ही किसी तरह की अन्य कोई चीजे जिस वजह से औरतो को साड़ी के खुलने और पल्लू के नीचे सरकने का खतरा बना रहता था। ज्यादातर औरते साड़ी के पल्लू को पीछे से घुमाकर कमर में लपेट लेती थी ताकि साड़ी मजबूती से बँधी रहे और उसके खुलने का डर ना रहे। उन लोगो ने भी वैसा ही किया और साड़ी के पल्लू को कसकर कमर में लपेट किया। व्यायाम के बाद सभी कैदियों की गिनती की गई और फिर रोजाना की तरह उनसे अन्य काम करवाये जाने लगे।
उन सातो से अपनी-अपनी सेल में सारे काम करवाये गए। उनसे झाड़ू लगवाई गई, पानी भरवाया गया और टॉयलेट शीट की सफाई करवाई गई। उसके बाद सुबह 9 बजे जेल में एक और सायरन बजा जो उन सातो के अनुसार संभवतः नहाने के समय का इशारा था। हालाँकि सर्कल 2 में यह सायरन नहाने के लिए नही बल्कि कैदी औरतो व लड़कियों को अपना दूध निकलवाने के लिए मैदान में जमा होने के समय का इशारा था।
दरअसल, जेल में सज़ायाफ्ता कैदी महिलाओ को अपना दूध निकलवाना अनिवार्य था। जेलर द्वारा महिला कैदियों का दूध मिल्क बैंक वालो को बेचा जाता था और उनसे भारी मुनाफा कमाया जाता था। हालाँकि आधिकारिक तौर पर मिल्क बैंक वाले केवल उन महिलाओं से ही दूध ले सकते थे जो स्वेच्छा से अपना दूध देने को तैयार हो लेकिन जेलर ने प्रत्येक महिला व लड़की के लिए इसे अनिवार्य कर दिया था। 18 साल की लड़कियों से लेकर 70 साल की बूढ़ी महिलाओ को भी अपना दूध देना जरूरी था।
कैदियों का दूध निकालने के लिए कुछ अलग-अलग तरीके प्रयोग किये जाते थे जिनमे मुख्य रूप से हाथो व दूध निकालने की मशीनों का इस्तेमाल किया जाता था। कैदियों को एक लाइन में खड़ा करवाया जाता था और फिर लेडी काँस्टेबल्स बारी-बारी से प्रत्येक महिला व लड़की का दूध निकालती थी। इसके लिए औरतो को काँस्टेबल के सामने आगे की ओर झुककर खड़े होना पड़ता था और वह काँस्टेबल उस औरत के स्तनों को दबाकर निप्पल्स के सहारे उसका दूध निकालकर बर्तन में गिराती जाती थी। यह ठीक वैसा ही था जैसे किसी गाय या भैस का दूध निकाला जाता हैं।
इसके अलावा दूध निकालने के लिए कुछ मशीनों का प्रयोग भी किया जाता था जो अलग-अलग प्रकार की थी। एक मशीन में कप के आकार की एक वस्तु को महिला के स्तनों में फँसाया जाता था जो इलेक्ट्रिसिटी की मदद से अपने आप दूध को स्तनों से खींच लेती थी। दूसरी मशीन में महिला के हाथ-पैरो व गले को पट्टे से बाँध दिया जाता था ताकि वे अपनी जगह से हिल ना पाए और फिर मशीन द्वारा उनके स्तनों से दूध निकाला जाता था। दूध निकालने की यह मशीनी प्रक्रिया महिलाओ के लिए बहुत ही ज्यादा तकलीफदेय होती थी और इससे स्तनों में बहुत दर्द होता था लेकिन जेलर को महिलाओ को होने वाले इस दर्द का जरा भी एहसास नही था।