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भाग ९८
अगली परेशानी - ननदोई जी, पृष्ठ १०१६
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सत्य है, आदरणीयये भी मानवीय भावनाओं का एक रस है...
दुःख के बाद जो सुख आता है... उसका आनंद हीं अलग होता है...
Posted More of Shila Bhabhi in Rang Prasangसत्य है, आदरणीय
Thanks so much aapke isi tarh regular cooment aate rahenge to likhne men aur maja aayegaNice update
मैं सिर्फ फागुन के दिन चार कहानी का अंत जिन पंक्तियों से हुआ है उसे दुहरा सकती हूँप्रिय कोमल जी
आप तो दुःख लिखा ही मत करो, सच में दिल के आर पार हो जाता है। हर लाइन पर सिर पकड़ कर बैठने और जार जार रोने का मन करता है।
चाहे मोहे रंग दे की बिरहा हो, फागुन के दिन चार के बम ब्लास्ट या इस कहानी में हो। बस पढ़ कर एक खामोशी सी छा जाती है। कुछ अच्छा नहीं लगता।
लेकिन ये आपकी ही लेखनी का कमाल है कि जिस शिद्दत से आप लिखती हैं मुझ जैसे पाठक उसी शिद्दत से महसूस भी करते हैं और क्यों न करे हर लाइन में सच ही सच, सच के अलावा कुछ नहीं।
जैसा मन में आया लिख मारा। आपकी लेखनी को सादर प्रणाम और ईश्वर से प्रार्थना है कि ये इसी तरह चलती रहे।
सादर
“”
" माँ नहीं है न नहीं तो दस गारी देतीं तोहरी महतारी के , वैसे भी उनका समधिन का रिस्ता लगता,... बैंक के नाम से मुंह नोच लेती थी, कहती थी हमार पैसा लेते है तो ओनकर कउनो जमीन जायदाद नहीं और हमको जरूरत पड़ी तो कुल गिरवी रखा लेंगे, हमार पैसा लेंगे तोदो टका सूद देंगे और हमें पैसा देंगे तो १२ से पंद्रह टका और लेंगे और टेबल टेबल जाके बिनती करा, परसाद चढ़ावा बाबू लोगन के,...
“”
Waah finance ki barikiyan
मैं सिर्फ फागुन के दिन चार कहानी का अंत जिन पंक्तियों से हुआ है उसे दुहरा सकती हूँ
सुखिया सब संसार है खाये और सोये
दुःखिया दास कबीर है जागे और रोये।
और फ़ैज़ साहेब से चंद सतरें उधार मांग लेती हूँ अपनी बात कहने के लिए,
अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म
रेश-ओ-अठलस-ओ-कमख़ाब-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लितड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए
लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मग़र क्या कीजे - २
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
गाँव में होली गुजरते ही चैता शुरू हो जाता है होली की छुट्टी में आये परदेसी वापस चले जाते हैं, कोई टैक्सी चलाने, कोई दूध सब्जी बेचने, कोई खेती में काम करने कोई मिल में हाड़ तोड़ मेहनत करने,...
और गोदान में मुकेश ने जो चैता गाया था, बस बिन कहे सब कह देता है,
हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा
जरत रहत दिन रैन
अमवा की डाली पे बोलेली कोयलिया
तनिक न आवत चैन,
आस अधूरी प्यासी उमरिया, जाए अधूरी सूनी डगरिया
डरत जिया बेचैन
डरत जिया बेचैन ओ रामा,
जरत रहत दिन रैन
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सुना जरूर होगा, एक बार फिर कभी सुनियेगा,
हम बनजारे कहीं भी जाएँ, थोड़ा सा गाँव देस जरूर साथ ले जाते और कभी कोने अंतरे सूने सन्नाटे मुंह भर बतिया लेते हैं।
आप की एक लाइन आरुषी जी की तरह कई कई पोस्टों पर भारी होती है,ये रेल पिया को दूर हीं नहीं ले जाती...
पास भी लाती है...
रेलगाड़ी के गुजरने का दृश्य दूर से हीं दिख जाता है...
और गाँव में घर के छत पर से एकाध किमी दूर से हीं लोग पहचान लेते थे... खास कर जब पर्व त्योहार हो... और आने की प्रबल संभावना हो...
फलाना आ रहे हैं... उनका सामान खुद उठाने के लिए दौड़ कर पहुँच जाते थे और हँसते खिलखिलाते बातें करते रास्ता तय होता था....
और इन गीतों में दूर से आने वाले से फरमाइश भी होती थी...
पनिया के जहाज से पलटनिया बनी अईह पिया...
ले ले अईह हो पिया झुमका पंजाब से...
Awesome updates, super duper gazab,Gita ne bahut achha sikhaya padhaya hai chhutki ko.
New adbhut style writing.
Didi tume dekh kar mene bhi apni writing mein kuch changes ki hain.
Raji tumari shisya jo thehri.
Padh kar dekhna apni Raji behn ki story mein changes bilkul Komal the gr8 style mein.
Komal mam u r a superb, super se bhi upar writer.
Love u didi![]()
सही है, अक्सर, गोदान में किसी स्टेशन से गुलाबी साडी, पैरों में चौड़ा महावर, प्लास्टिक की गुलाबी सैंडिल,... और फाफामऊ में जैसे गंगा जी पार होती हैं,... वह गठरी धीरे धीरे खुलने लगती है,... इलाहाबाद में साथ का आदमी जो स्टेशन पर उसके साथ था लेकिन जैसे जानता पहचानता न हो,... अब स्टेशन से चाय ले आता है,... और कुछ देर में चकर मकर,... और जबलपुर इटारसी पार होते होते पूरी तरह खुल चुकी होती है।समस्याएं हर क्षेत्र, राज्य में हर तरह की हैं। लेकिन कुछ नव विवाहिताएं अपने मनसेधू के साथ बियाह के तुरंत बात परदेस जाके जोबन का जो आनंद उठाती हैं बिना लाज सरम के। अपने गांव देस से दूर । पौने दो साल बाद आती हैं तो एक लरिका नीचे चल रहा होता है तो एक कोरा (गोद) में होता है। फिर भी गांव की समौरी मेहरारू से कम उमर की दीखती हैं। परदेस में दुख भी है आनंद भी है। पहले जो डेढ़ साल परदेस में छ महीने गांव में रहते थे। उन्होंने गांव सहर दोनो का भरपूर आनंद लिया है। अगर आपने शहरों को करीब से देखा हो तो आपको पता होगा। सहर में कुछ औरतें बेहद आजादी से रहती हैं अच्छा भोजन दोपहर और रात में चुदाई । सुबह प्रकृति के साथ विहार शाम को बाजारों में विहार।