" देवर जी मुझे सब पता चल गया , ये अच्छी बात नहीं है , मुझे यही पता करना था ,.... "
वो बेचारा एकदम घबड़ा गया , लेकिन वो कुछ बोलता , उसके पहले मैं जोर जोर से हंसने लगी और उसे गरियाती गाँव की भौजी की तरह बोली ,
" तोहरी बहन की फुद्दी मारुं ,... बस दो चार दिन फागुन बचा है , ... तुझे तोहरे भौजी की कसम , एही अखाड़ें में तोहसे पटक पटक के ,... और देवर भौजी की कुश्ती एक राउंड में नहीं पूरी होती , कम से कम तीन बार ,... और तेल वेल लगा के डंड पेल के ,... तब देखूंगी मेरे देवर को पेलना आता है की नहीं ,... समझे अबकी फागुन में तुम बचने वाले नहीं , ... अगर कतौं हमरे सास के पास भी जाके लुकाये न तो उन के भी भोंसडे में हाथ डाल के निकाल लुंगी ,.... "
और ये कह के मैं मुड़ गयी और जान बूझ के उसे दिखाते हुए , मैंने अपने बड़े बड़े चूतड़ मटका दिए ,...
हालत खराब , बड़ी मुशिकल से मुझे छेड़के बोला ,
" भौजी आपका पिछवाड़ा भी मुझे अच्छा लगता है , ... "
अच्छे घर दावत दे दी थी उसने ,
मुड़ के मैं बोली ,
" सही करते हो देवर जी , ... मुझे भी जो छेद , छेद में भेद करता है न वो अच्छा नहीं लगता , और अगर कही तू मेरा पिछवाड़ा छोड़ देते न , तो तुझे पलट कर , निहुरा कर तेरा पिछवाड़ा मैं मार लेती। "
और मैं चल दी , रास्ते भर सोचती रही , स्टार्ट तो सही हो गयी लेकिन जब तक पिचकारी का रंग मेरे अंदर नहीं घुसता तो मैंने जो बात तय की थी वो पूरी नहीं होगी .
कहानी यहीं ठहरी थी, पेज ७२ पर
तो आगे की बात आज