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कमल कम उस्ताद नहीं था, जहाँ छिला था, चमड़ी अंदर की छिल गयी थी, रगड़ गयी थी वहीँ पे दरेररते रगड़ते जान बुझ के पेल रहा था.
चिल्लाये ससुरी पूरे गाँव की लौंडियों को मालूम हो जाए , बीच बीच में चंदा के चूतड़ पे हाथ भी लगा रहा था, चटाक .
चूतड़ पे दर्जन भर कमल के फूल छप गए थे। कभी पूरा बाहर निकाल के जब अपनी कमर की पूरी ताकत से जड़ तक पेलता गाँड़ का छेद चौड़ा होकर फैल जाता, और दर्द से चंदा की चीख पूरी बगिया में फ़ैल जाती।
हिना को दबोचे, सुगना और गुलबिया समझ रही थीं, उनकी भी देख के सुरसुरा रही थी, इसी दर्द में तो मजा है, मरद कौन जो दरद न दे।
इसी दर्द को घूँट घूँट पीने में, अंजुरी में लेकर रोम रोम में रगड़ने मसलने में, ही तो असली मजा है। जब दरद देह का हिस्सा हो जाए, दरद इतना हो की उसी दरद के लिए जिया में हुक उठे, उस दरद देने वाले का इन्तजार करते, देहरी पर खड़े खड़े पलक न झपके, कुछ आहट हो तो लगे वो दरद देने वाला आ गया है
और जब यह अहसास हो जाए तो समझ लीजिये कैशोर्य की चौखट डांक कर, गली में आंगन में ठीकरे से इक्कट, दुक्क्ट खेलने वाली लड़की अब तरुणी हो गयी है,
और हिना को यह अहसास हो रहा था थोड़ा थोड़ा, ..
सुगना और गुलबिया के दुलार की दुलाई में लिपटी अब धीरे धीरे उन जैसी ही हो रही थी।
घुस चंदा के पिछवाड़े रहा था, चीख चंदा रही थी, दुबदुबा हिना की कसी गाँड़ रही थी,लग हिना को रहा था की उसके पिछवाड़े कोई मोटा पिच्चड घुसा है जो दर्द भी दे रहा है और मज़ा भी।
सुगना और गुलबिया की आँखे कमल के खूंटे पर लगी थीं लेकिन जाने अनजाने उन दोनों के हाथ अपनी किशोर ननद के उभारों को सहला रही थी बहुत हलके हलके जैसे कोई रुई के फाहे की तरह छू रहा हो. हिना का बदन उसके जोबन पलाश की तरह दहक रहे थे।
हिना का मन चावल चुगती कभी इस मुंडेर पर कभी उस मुंडेर पर फुदकती गौरेया की तरह, कभी चंदा की ख़ुशी में डूबी देह को देखता तो कभी सोचता साल दो साल पहले ही तो इस गाँव के लड़के लड़कियों के साथ बिना हिचक वो खेलती, झगड़ा करती, लड़ती, बारिश आने पे पहली बूँद के साथ ही अपनी इन्ही सहेलियों के साथ कभी अपने आंगन में कभी कम्मो के घर, अरई परई गोल गोल चक्कर काटती, सब सहेलिया देखतीं किसके ऊपर कितनी बूंदे पड़ी , सबकी मायें डांटती, लड़की सब पागल हो गयी हैं का,
सावन आता तो झूला झूलने इसी बगिया में आती, भाभियों की चिकोटियां, किसका झूला कितना ऊपर जाता है बस मन करता सावन को लपेट ले, ओढ़ ले और साल के बारहो महीने सावन के हो जाए, हरे भरे, सावन में पूरे गाँव में उसके अपने टोले में भी नयी नयी सुहागने गौने के बाद पहली बार मायके आतीं और भौजाइयां घेर के उनसे गौने की रात का हाल बार बार पूछतीं, ... चिकोटियां काटतीं और जब हिना ऐसे कुंवारियां भी चिपक के हाल सुनती तो कोई भौजाई उन कुंवारियों को छेड़ती भी
" सुन ले, सुन ले तेरे भी काम आएगा " .
और जब वो लड़कियां बिदा होती, किसी भी पुरवा की, पठानटोली वाली हो या पंडिताने की, जाने के पहले सब से, काकी ताई से भौजी से सब से, मिल के भेंट के, दिन कैसे बीत जाते थे पता ही नहीं चलता,
पिछले सावन ही अजरा उदासी की चादर हटाने के चक्कर में बात बदलने के लिए पंडिताइन चाची से भेंटते हुए छत पर चढ़े कद्दू की बेल को देखते हुए बोली,
" चाची, पिछली बार तो एकदम बतिया थी ये "
" अरे पगली खाली बेटियां थोड़ी बड़ी होती हैं, " पंडिताइन चाची हंसने की कोशिश करते बोलीं और आँचल की कोर से आंसू का एक कतरा पोंछ लिया।