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Adultery छुटकी - होली दीदी की ससुराल में

motaalund

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Thanks, friends for supporting and encouraging me and this thread.

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लगता है जल्द हीं JKG के रिकॉर्ड तोड़ेगी....:claps::claps::perfect::perfect::applause::applause:
 

motaalund

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एकदम सही कहा आपने नन्द भौजाई का झगड़ा इसी बात का

ननद कसमसा के रह जाती है रात भर, वहां भौजी की पायल छनकती है, चूड़ी चुरमुराती है, बिछुए बोलते हैं, भौजी मजे से सिसकियाँ लेती हैं और सुबह उनके चेहरे पे वो ख़ुशी नजर आती है , देह में वो थकान, जोबन पे वो उफान

और ननद रात भर बस करवट बदलती है सोचती है मेरी जाँघों के बीच भी तो वही बुलबुल है, चारा घोंटने को तैयार और भौजी मजे ले रही है और मैं कसक रही हूँ

इसलिए भौजी को जल्द से जल्द ननद की बुलबुल का इंतजाम करना चाहिए।
एक हीं छत के नीचे दो अलग अलग अहसास....
 

motaalund

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एकदम सही कहा आपने लेकिन एक बात और इस कहानी में कई बारे ऐसे प्रंसग भी आते हैं जब सुख के नीचे दुःख छिपा होता है, मजाक कि कलई कर के विषाद को छुपाया जाता है, और इस पोस्ट में खास तौर पर

इस कहानी में सास बहू का रिश्ता करीब करीब ऐसा ही है जैसा मोहे रंग दे में था, एक दूसरे को अच्छी तरह समझने वाला, बिना बोले दुःख सुख में साथ देना

और सावन में जाने को मना करना, सास के अकेलेपन के दर्द को देखते था जैसा एक लाइन में कहा

"जेठानी मेरी तो,... एक पैर उनका बंबई में, जेठ जी तो बंबई में ही रहते थे, कुछ काम धंधा था, मेरी शादी और गौने में आये थे, उसके बाद एक दो दिन के लिए एक दो बार, तो जेठानी पंद्रह बीस दिन के लिए जेठ जी के पास गयी थीं साथ में मेरी छोटी ननद भी, तो बस मैं सास और ये,"

और जहाँ तक इनका, सास के बेटे का सवाल था, एक पैर खेत में और एक पैर शहर में , बाजार में, कभी ये काम, कभी वो काम

और बहू अगर सावन के नाम पे मायके तो सास इतने बड़े घर में अकेले, बार बार दरवाजा देखेगीं, सूना आंगन और बोलेंगी तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन अकेलापन सालेगा,

लेकिन बहू ये बात तो सास से कह नहीं सकती कि वो जानती है सास का दुःख इसलिए मजाक में ही उस बात को कह देती है
" आपको अकेली छोड़ के मैं नहीं जाने वली धक्का देके भी भेजेंगी तो भी नहीं, आपके सर में दर्द होगा तो तेल कौन लगाएगा, फिर मैं मायके में, और लौटी तो देखा की मेरी सास को कोई उठा ले गया, तो दूसरी सास कहाँ से लाऊंगी, आठ दस रूपया देके भी मंगल वाली बजार में नहीं मिलेंगी "

और सास भी समझती है वह बहू ही नहीं, बेटी भी है, और सुख दुःख कि सहेली भी।

इसी तरह ननद भौजाई के रिश्ते को एक नॉन एरोटिक ढंग से भी इस पार्ट में लाया गया है , दुःख बांटने वाली सहेली के तौर पर,

" लेकिन जब ननद भौजाई बहनों से बढ़ कर, सहेली झूठ ऐसा रिश्ता हो, सुख के साथ ननद अपने दुःख की गठरी पोटरी भी अपने भौजाई के आगे ही खोलती है,

कुछ बातें तो माँ से भी नहीं कही जाती, उनका दुःख ही बढ़ता है, पति से तो सपने में भी नहीं, बहुत अच्छा हुआ तो बोलेगा नहीं वरना कौन मरद अपनी माँ बहन की बुराई सुनता है,

--

मुझे पूरा विश्वास है कि आप और मेरे अन्य मित्र पाठकों ने इस निहतार्थ को, सास बहू और ननद भौजाई के रिश्ते के इन पक्षों को भी सराहा होगा।
ग्राम्य जीवन ... हाय तेरी कहानी...
लेकिन फिर यही अकेलापन पास भी ले आता है...
बेशक... ये ऐसे रिश्ते हैं जो खून के नहीं होते...
लेकिन समझ और सहयोग से प्रगाढ़ और अटूट हो जाते हैं...
 

motaalund

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ब्याहता ननदे जब मायके लौटती हैं तो फिर घूंघट हटाकर कल की लड़कियां बन जाती है, वही उछल कूद, हंसी मजाक, पुराने गैल रस्ते सब याद आ जाते हैं और जब घर में माँ भी न हो, वो भी अपने मायके चली गयी हो और सिर्फ भौजी, एक तो समौरिया, दूसरे एकदम सहेली की तरह तो बस कुंवारेपन के दिन वापस आ जाते हैं, और भौजी की ऊँगली पकड़ के मेले में, अरे मेरे गाँव का मेला नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा भौजी,

और ननद भौजाई की छेड़छाड़, जो रही सही दूरियां खत्म करती है
फिर लगता है ननद को मायके का असली सुख, किसी के कंधे पर सर रख के सब दुःख सुख कहने का सुख और ये विश्वास
माँ रहे न रहे, मायका रहेगा, भौजाई तो है न।
बचपन के खेल..
सखी सहेलियां...
आते जाते रस्ते और उनसे जुड़ी यादें
और भाभी के आने के बाद एक हमउम्र सहेली...
जिससे सुख दुःख भी.. साझा...
 

motaalund

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इस कहानी में ढेर सारे एरोटिक प्रसंगों के बीच कहीं कहीं अवसाद छलक जाता है, शायद यह फोरम के किसी अलिखित परंपंरा या पाठकों की आशा के अनुरूप न हो पर कहानी जिंदगी के आसपास चलती है तो दस बीस पार्ट्स के बाद रोकते रोके भी वह अनबोला दुःख छलक ही जाता है। मौज मस्ती की मोटी परत के नीचे कहीं कहीं अकेलापन भी है, सन्नाटा भी है और वह अकेलापन कुछ नजदीकियां भी ले आता है।

अरविन्द का मामला कुछ ऐसा ही है। आपको याद ही होगा, भाग ५० माँ ( पृष्ठ ५२१ ), दोहा में कई काम करने गए लोगों की मौत से जुडी थी वो पोस्ट और उसी से जुड़े थे अरविन्द और गीता के बाबू जी, उसी भाग में ये लाइन आयी थी


" गीता फिर चुप हो गयी,... फिर अब उसने बोलना शुरू किया तो नहीं रुकी,...

बहुत खराब खबर थी,... पास के गाँव की दो औरतों ने,... एक को तो मैं जानती भी थी,... सिन्दूर पोंछ लिया, चूड़ी तोड़ दिया,...बिदा होके गौने आयी थी तो मैं गयी थी, गौने के दस दिन के अंदर ही,... उसका मरद, वही बाबू जी वाली एजेंसी से ही,... साल भर हुआ होगा,... बोल के गया था जल्दी आयंगे,... हम लोग चिढ़ाते भी थे की जब अबकी आएंगे तो नौ महीने बाद सोहर होगा,... लेकिन,... लेकिन अखबार में फोटो आयी।"

और होलिका माई वाले प्रसंग में ( भाग ६७ पृष्ठ ६४३ )

" बाइस पुरवा में ही तो पांच लोग मरे थे फूटबाल के खेल के लिए जो गए थे, गितवा के बाबू जी भेजे थे, गलती उनकी कोई नहीं थी वो तो अच्छी नौकरी ही दिलवाये थे,... लेकिन उसमें एक सुहागिन थी, हाथ की मेंहदी, पैर का महावर भी नहीं सूखा था की ज्यादा पैसे के लालच में वो चला गया और लौटी तो अखबार में फोटो, और कोई उसको समझा दिया की यही गितवा के माई के मर्द बुलवाये थे,

बस उसने जब चौखट पर चूड़ी तोड़ी तो गितवा के माई का नाम ले ले कर, जैसा मेरा सुहाग उजड़ा वैसे ही,...

बाद में लोगो ने बहुत समझाया,... गितवा के माई से वो खुद बोली, लेकिन गितवा क माई बोली, गलती तुम्हारी नहीं है दुःख ऐसा कौन बर्दास्त कर पायेगा, बस हम लोगों को माफ़ कर दो , गितवा के बाबू का पता नहीं चल रहा था, मिले भी तो कई महीने से टल रहा था अब बम्बई लौटेंगे तब लौटेंगे, लेकिन अब पक्का हो गया दो महीने में,... और गाँव नहीं आ पाएंगे की इतने लोगों की आह लगी है,..."

यहाँ तक की होलिका माई ने भी मना कर दिया की अरविन्द के बाबू अब इस गाँव की सरहद में नहीं आ पाएंगे,

" गितवा क माई बहुत पूजा पाठ की है, सबका उपकार की है, सपने में भी किसी का बुरा नहीं सोची, है तो सावित्री की तरह सत्यवान को लौटा लेगी, अषाढ़ के उज्जर पाख के एकादशी के दिन, लौट आयंगे समुन्दर पार से,... लेकिन,...


वो आवाज रुक गयी , फिर हलकी आवाज में बोली,

उनकर मरद बस ठीक ठाक रहेंगे, ये लड़कन को यहाँ से ले जाने क धंधा छोड़ दें,... हाँ अब यह बाइस पुरवा क सरहद में बकी अब वो नहीं आ सकते,... नहीं आएं तो ठीक,... गितवा क माई का घर गाँव है जब चाहे आये,... सावन में आएगी वो महीना भर के लिए तो सत्ती माई क पूजा करे और बाइस पुरवा क औरतों को भोज दे, ."

तो अब आप सोच सकते हैं अरविन्द और गीता की मनस्थिति, अरविन्द ने इसी लिए मन बना लिया था, गीता के अलावा और किसी के साथ नहीं हाँ फुलवा की बहिनिया या फुलवा की ननद की बात अलग थी, फुलवा खुद उसको अपनी बहन सौंप कर गयी थी।

लेकिन अरविन्द को छुटकी भा गयी थी इसलिए कबड्डी से ही गीता जैसे ही आउट हुयी छुटकी भी आउट हो गयी और वो दोनों

अरविन्द के पास, अगले दिन छुटकी को आना भी नहीं था , न वो ननद थी न भाभी तो अरविन्द, छुटकी और गीता और वो प्रंसग अलग से आएगा बाद में हो सकता है अंतिम हिस्से के आसपास।
यही प्रसंग कहानी को कहानी बनाते हैं...
बल्कि यादगार और जीवंत कहानी..
जिसमें मानवीय भावनाओं और मूल्यों को भी उतना हीं स्थान दिया गया है...
जितना कि काम शास्त्र से संबंधित प्रसंग...

और सचमुच उन प्रसंगों को कोट करके आपने भूली बिसरी बातें याद दिला दी...
और बरबस हीं आँखें नम भी...
बहुत बहुत धन्यवाद...
आपके इस विस्तृत उत्तर के लिए...
 

motaalund

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सब कुछ तो कह दिया आपने

जो मैं कहना चाहती थी

जो चाह कर भी नहीं कह पा रही थी, जो चित्र बस आँखों के आगे झिलमिला के रह जाते थे वो सब उतार दिए आपने कागज पे

बहुत धन्यवाद
ये तो हम पाठक गण आपके लिए कहना चाहते थे...
 

Shetan

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बड़ी बहना...
लेटी रहना...
देती रहना...
बिलकुल सही कहा. आनंदजी की बहेना का क्या ही कहना.
सब को देती रहना. किसी को मना मत करना.
तेरा भैया बनेगा तेरा सैया.
इस लिए सब को भैया कहती रहना.

आनंद जी की बहेना का क्या ही कहना.

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