मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।।
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं।।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं।।
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बांधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।।
किसी की आरज़ू के पांवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं।।
पकाकर रोटियां रखती थी मां जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं।।
हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं।।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहां जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।।
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं।।
गले मिलती हुई नदियां गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नजारा छोड़ आए हैं।।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं।।
______मुनव्वर राना