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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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क्या कोई तस्वीर बन सकती है सूरत के बग़ैर।
फिर किसी से क्यूँ मिले कोई ज़रूरत के बग़ैर।।

दुश्मनी तो चाहने की इंतिहा का नाम है,
ये कहानी भी अधूरी है मोहब्बत के बग़ैर।।

तेरी यादें हो गईं जैसे मुक़द्दस आयतें,
चैन आता ही नहीं दिल को तिलावत के बग़ैर।।

धूप की हर साँस गिनते शाम तक जो आ गए,
छाँव में वो क्या जिएँ जीने की आदत के बग़ैर।।

बच गया दामन अगर मेरे लहू के दाग़ से,
वो मिरा क़ातिल तो मर जाएगा शोहरत के बग़ैर।।

उस की सरदारी से अब इंकार करना चाहिए,
रौशनी देता नहीं सूरज सियासत के बग़ैर।।

हुस्न की दूकान हो कि इश्क़ का बाज़ार हो,
याँ कोई सौदा नहीं है दिल की दौलत के बग़ैर।।

शबनमी चेहरा छुपाऊँ कैसे बच्चों से 'फहीम'
शाम आती ही नहीं घर में तहारत के बग़ैर।।

________'फ़हीम' जोगापुरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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बर्ग-ए-सदा को लब से उड़े देर हो गई।
हम को भी अब तो ख़ाक हुए देर हो गई।।

अब साहिलों पे किस को सदा दे रहे हो तुम,
लम्हों के बादबान खुले देर हो गई।।

ऐ हुस्न-ए-ख़ुद-परस्त ज़रा सोच तो सही,
मेहर-ओ-वफ़ा से तुझ को मिले देर हो गई।।

तेरा विसाल ख़ैर अब इक वाक़िआ' हुआ,
अब अपने-आप से भी मिले देर हो गई।।

सदियों की रेत ढाँप कर आसूदा हो गए,
सर को हमारे तन से कटे देर हो गई।।

सरसर हो या सबा हो कि हों तेज़ आँधियाँ,
हम को फ़सील-ए-शब पे जले देर हो गई।।

तेरी गली के मोड़ पे पहुँचे थे जल्द हम,
पर तेरे घर को आते हुए देर हो गई।।

इक दौर था 'शनास' सदा थी मिरी बुलंद,
और अब तो मेरे होंट सिले देर हो गई।।

________फ़हीम 'शनास' काज़मी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हम एक दिन निकल आए थे ख़्वाब से बाहर।
सो हम ने रंज उठाए हिसाब से बाहर।।

इसी उमीद पे गुज़री है ज़िंदगी सारी,
कभी तो हम से मिलोगे हिजाब से बाहर।।

तुम्हारी याद निकलती नहीं मिरे दिल से,
नशा छलकता नहीं है शराब से बाहर।।

किसी के दिल में उतरना है कार-ए-ला-हासिल,
कि सारी धूप तो है आफ़्ताब से बाहर।।

'शनास' खोल दिए जिस ने हम पे सब असरार,
वो एक लफ़्ज़ मिला है किताब से बाहर।।

________फ़हीम 'शनास' काज़मी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते।
करते हैं बहुत लोग मगर हम नहीं करते।।

है अपनी तबीअत में जो ख़ामी तो यही है,
हम इश्क़ तो करते हैं मगर कम नहीं करते।।

नफ़रत से तो बेहतर है कि रस्ते ही जुदा हों,
बेकार गुज़रगाहों को बाहम नहीं करते।।

हर साँस में दोज़ख़ की तपिश सी है मगर हम,
सूरज की तरह आग को मद्धम नहीं करते।।

क्या इल्म कि रोते हों तो मर जाते हों 'फ़ैसल'
वो लोग जो आँखों को कभी नम नहीं करते।।

_________'फ़ैसल' अजमी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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मुझ को ये फ़िक्र कब है कि साया कहाँ गया।
सूरज को रो रहा हूँ ख़ुदाया कहाँ गया।।

फिर आइने में ख़ून दिखाई दिया मुझे,
आँखों में आ गया तो छुपाया कहाँ गया।।

आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में ,
लेकिन ख़बर नहीं कि बुलाया कहाँ गया।।

कितने चराग़ घर में जलाए गए न पूछ,
घर आप जल गया है जलाया कहाँ गया।।

ये भी ख़बर नहीं है कि हमराह कौन है,
पूछा कहाँ गया है बताया कहाँ गया।।

वो भी बदल गया है मुझे छोड़ने के बाद,
मुझ से भी अपने आप में आया कहाँ गया।।

तुझ को गँवा दिया है मगर अपने आप को,
बर्बाद कर दिया है गँवाया कहाँ गया।।

_________'फ़ैसल' अजमी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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कोई हमराह नहीं राह की मुश्किल के सिवा।
हासिल-ए-उम्र भी क्या है ग़म-ए-हासिल के सिवा।।

एक सन्नाटा मुसल्लत था गुज़रगाहों पर,
ज़िंदगी थी भी कहाँ कूचा-ए-क़ातिल के सिवा।।

हर क़दम हादसे हर गाम मराहिल थे यहाँ,
अपने क़दमों में हर इक शय रही मंज़िल के सिवा।।

था मिसाली जो ज़माने में समुंदर का सुकूत,
कौन तूफ़ान उठाता रहा साहिल के सिवा।।

अपने मरकज़ से हर इक चीज़ गुरेज़ाँ निकली,
लैला हर बज़्म में थी ख़ल्वत-ए-महमिल के सिवा।।

अपनी राहों में तो ख़ुद बोए हैं काँटे उस ने,
दुश्मन-ए-दिल कि नहीं और कोई दिल के सिवा।।

अपनी तक़दीर था बरबाद-ए-मोहब्बत होना,
महफ़िलें और भी थीं आप की महफ़िल के सिवा।।

_________ग़नी एजाज़
 

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ख़बर कहाँ थी मुझे पहले इस ख़ज़ाने की।
ग़मों ने राह दिखाई शराब-ख़ाने की।।

चराग़-ए-दिल ने की हसरत जो मुस्कुराने की,
तो खिलखिला के हँसीं आँधियाँ ज़माने की।।

मैं शाइ'री का हुनर जानता नहीं बे-शक,
अजीब धुन है मुझे क़ाफ़िया मिलाने की।।

वजूद अपना मिटाया किसी की चाहत में,
बस इतनी राम-कहानी है इस दीवाने की।।

वो घोंसला भी बना लेगा बाद में अपना,
अभी है फ़िक्र परिंदे को आब-ओ-दाने की।।

मैं अश्क बन के गिरा हूँ ख़ुद अपनी नज़रों से,
कहाँ मिलेगी जगह मुझ को सर छुपाने की।।

अनाथ बच्चों की आहें सवाल करती हैं,
ख़ुदा को क्या थी ज़रूरत जहाँ बनाने की।।

________दिनेश कुमार
 

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उस की तस्वीर को सीने से लगाता ही नहीं।
हाँ मैं वो शख़्स हूँ जो इश्क़ जताता ही नहीं।।

उस को कब से है तवक़्क़ो की बुलाऊँगा मैं,
मैं ही मसरूफ़ हूँ इतना की बुलाता ही नहीं।।

एक सच ये है कि उस ने ही किया है बर्बाद,
एक ये भी है कि वो ज़ेहन से जाता ही नहीं।।

मेरे कमरे की तो आदत है बिखर जाने की,
मैं यही सोच के कमरे को सजाता ही नहीं।।

ख़ौफ़ लगता है मुझे रौशनी में जाने से,
शाम के वक़्त भी मैं शम्अ' जलाता ही नहीं।।

हिज्र के बाद से उस ने न रचाई मेहंदी,
मैं भी अब झट से कोई फ़ोन उठाता ही नहीं।।

_______दीपक प्रजापति ख़ालिश
 

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इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया।
जान कर हम ने उन्हें ना-मेहरबाँ रहने दिया।।

आरज़ू-ए-क़ुर्ब भी बख़्शी दिलों को इश्क़ ने,
फ़ासला भी मेरे उन के दरमियाँ रहने दिया।।

कितनी दीवारों के साए हाथ फैलाते रहे,
इश्क़ ने लेकिन हमें बे-ख़ानुमाँ रहने दिया।।

अपने अपने हौसले अपनी तलब की बात है,
चुन लिया हम ने तुम्हें सारा जहाँ रहने दिया।।

कौन इस तर्ज़-ए-जफ़ा-ए-आसमाँ की दाद दे,
बाग़ सारा फूँक डाला आशियाँ रहने दिया।।

ये भी क्या जीने में जीना है बग़ैर उन के 'अदीब'
शम्अ' गुल कर दी गई बाक़ी धुआँ रहने दिया।।

_________'अदीब' सहारनपुरी
 

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दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं।
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं।।

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हँस,
जो तअ'ल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं।।

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा,
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं।।

किस तरह लोग चले जाते हैं उठ कर चुप-चाप,
हम तो ये ध्यान में लाते हुए मर जाते हैं।।

उन के भी क़त्ल का इल्ज़ाम हमारे सर है,
जो हमें ज़हर पिलाते हुए मर जाते हैं।।

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन,
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं।।

हम हैं वो टूटी हुई कश्तियों वाले 'ताबिश'
जो किनारों को मिलाते हुए मर जाते हैं।।

________अब्बास 'ताबिश'
 
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