#19
मैं- नियति शायद यही चाहती थी .
मैने भी डायन के जैसे बात नियति पर डाल दी.
ओझा मेरी बात सुनकर मुस्कुरा पड़ा.
ओझा- सही कहा तुमने नियति पर इतने लोगो पर संकट है कुछ मारे गए कुछ मारे जायेंगे. क्या तब भी तुम नियति का ही बहाना लोगे.
मैं- इन्ही गाँव वालो ने दो मासूमो को फांसी से लटका दिया सिर्फ इस कसूर के लिए की वो प्रेम कर बैठे थे . उनकी नियति क्या फांसी थी .
ओझा- तो क्या इसी कुंठा के कारण तुम उसका साथ दे रहे हो.
मैं- मैं किसी का साथी नहीं हूँ, गाँव में हुई प्रत्येक मौत का दुःख है मुझे . और फिर ये मेरा काम नहीं है गाँव वालो ने समाधान के लिए आपको बुलाया है आप उपाय करो .
ओझा- जितना मुझसे हो सकेगा मैं करूँगा. पर मेरा प्रश्न अब भी यही है की उसने तुम्हे क्यों छोड़ दिया.
मैं-जब उस से मिलो तो पूछ लेना महराज.
ओझा के यहाँ से मैं आ तो गया था पर मेरे मन में बेचैनी थी . मन कही लग ही नहीं रहा था . मैं जानता था की ओझा देर सवेर उसे तलास कर ही लेगा. दिल के किसी कोने में निशा को लेकर फ़िक्र सी होने लगी थी . दूसरी तरफ आस-पास के गाँवो के लोग भी आज आने वाले थे . सामूहिक बैठक करने ताकि इस मुसीबत का कोई हल निकाला जाये.
निशा से मिलना बहुत जरुरी था पर घर से बाहर कैसे जाऊ मैं ये समस्या भी मेरे लिए तैयार खड़ी थी .
“क्या बात है देवर जी कुछ परेशां से लगते हो ” भाभी ने पूछा मुझसे
मैं- ऐसी तो कोई बात नहीं भाभी
भाभी- तो फिर चेहरे पर ये उदासी क्यों
मैं- मुझे आपकी आज्ञा चाहिए
भाभी- किसलिए
मैं- मुझे थोड़ी देर के लिए जाना है कही रात को , वादा करता हूँ जल्दी ही वापिस आ जाऊंगा.
भाभी- ये मेरे हाथ में नहीं है पिताजी ने तुम पर बंदिश लगाई है , उनके हुकुम की तामिल न हुई तो फिर तुम जानते ही हो
मैं- भाभी, मेरा जाना जरुरी है .
भाभी- गाँव का माहौल इतना तनावपूर्ण है तुम्हे अब भी बाहर घुमने की पड़ी है . घर में किसी को भी मालूम होगा तो फिर डांट मुझे ही पड़ेगी वैसे ही लोग कहते है की मेरे लाड ने बिगाड़ दिया है तुम्हे.
मैं-ठीक है भाभी मैं नहीं जाता
भाभी- तुम तो नाराज हो गए. सुनो रात को पिताजी और तुम्हारे भैया जब ओझा के पास जायेंगे तो तुम निकल जाना पर समय से वापिस आ जाना पर तुम वादा करो तुम जिस से भी मिलते हो जो भी करते हो उस से परिवार की प्रतिस्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी
मैं- मुझे ख्याल है परिवार का भाभी .
पर ये रात भी मेरी परीक्षा लेने वाली थी आज क्योंकि पिताजी अकेले ही गए ओझा के पास भैया घर पर ही रह गए थे . खैर, मैंने बहुत इंतजार के बाद ये सुनिश्चित कर लिया की सब लोग गहरी नींद में है तो मैं घर से निकल गया और गाँव को पार करके अपनी मंजिल की तरफ दौड़ गया.
एक बार फिर से वो तालाब और काली मंदिर मेरी आँखों के सामने थे . कड़ाके की ठण्ड में भी मेरा गला खुश्क था . मैं तालाब से पानी पी ही रहा था की अचानक से पानी में से एक साया ऊपर उठ कर सामने आ गया .
“कबीर ” बोली वो
कसम से मेरा दिल को दौरा ही आ गया था . जिस तरह से वो सामने आई थी मेरी नसे फट ही जाती .
“जान ही लेनी है तो सीधा ही ले लो न ऐसे डराने की क्या जरूरत थी ” मैंने हाँफते हुए कहा .
निशा-मैं तो नहा रही थी मुझे क्या मालूम था तुम ऐसे आ निकलोगे
मैं- मुझे तो आना ही तुमसे मिलने
निशा- आओ फिर
निशा तालाब की दिवार पर ही बैठ गयी . मैं भी उसके पास गया .
मैं- ठण्ड में पानी में जाने की क्या जरुरत थी तुम्हे
वो- मुझे फर्क नहीं पड़ता
मैं- फिर भी ,
निशा- ठीक है अपना कम्बल दे दो मुझे , राहत के लिए
मैंने अपना कम्बल उसे ओढा दिया .
निशा- इतनी बेचैनी क्यों मुझसे मिलने के लिए
मैं- कुछ सवालो ने मुझे पागल किया हुआ हैं
निशा- मेरे पास कोई जवाब नहीं तेरे सवालो का
मैं- दुनिया कहती है की ये तमाम क़त्ल डायन कर रही है .
निशा- कुछ तो लोग कहेंगे.
मैं- वो एक छोटा सा बच्चा था . अपने हाथो से दफनाया मैंने उसे .
निशा खामोश रही .
मैं- निशा, मैं जानता हूँ तू अलग है . मैं नहीं जानता की डायन कैसी होती है वैसी जो दुनिया मानती है या फिर वैसी जो मेरे साथ बैठी है. तूने मुझे कुछ नहीं किया . दो मुलाकातों में अपनी सी लगी मुझे . तेरे साथ उस सुनहरी आंच को तापना . तेरे साथ इस बियाबान में होना ये लम्हे बहुत खास है . पर गाँव में होती मौतों को भी नहीं झुठला सकता मैं . तू भी बता मैं क्या करू
निशा- कुछ मत कर. कुछ मत कह कबीर.
मैं- वो मौते कैसे रुकेंगी निशा. जब एक आदमी मरता है तो वो अकेला नहीं मरता उसके साथ उसका परिवार जो उस पर आश्रित होता है वो भी मरता है हर रोज मरता है .
निशा- तेरे मन की बात समझती हूँ मैं
मैं- निशा, तू चाहे तो तू मेरा रक्त पी ले. तू जब भी चाहे मैं हाज़िर हो जाऊंगा. तेरी प्यास तू मेरे रक्त से बुझा पर गाँव वालो का अहित मत कर.
मैंने अपनी जेब से उस्तरा निकाला और अपनी हथेली काट कर निशा के सामने कर दी.
रक्त की धारा को देख कर निशा की आँखों में आई चमक को मैंने अन्दर तक महसूस किया पर बस एक लम्हे के लिए .
“कबीर, पागल हुआ है क्या तू ” निशा ने तुरंत अपनी ओढनी के किनारे को फाड़ा और मेरी हथेली पर बाँध दिया .
“क्या हुआ निशा, मेरा खून उतना मीठा नहीं क्या जो तुझे पसंद नहीं आया. ” मैंने कहा
निशा - कबीर तू जा यहाँ से
मैं- मैं नहीं जानता तेरा मेरा क्या नाता होगा. पर निशा मैं इस से ज्यादा कुछ नहीं कर सकता . गाँव वालो ने ओझा बुलाया है . वो आज नहीं तो कल तेरे बारे में मालूम कर ही लेगा. मैं हरगिज नहीं चाहता तुझे कोई भी नुकसान हो .
निशा- एक डायन की इतनी परवाह किसलिए कबीर
मैं- डायन नहीं होती तब भी इतनी ही फ़िक्र होती तेरी.
निशा- मुझे इतना मानता है तो मेरी भी सुनेगा क्या
मैं- तेरी ही तो सुनने आया हूँ.
निशा- तो फिर विशबास कर मुझ पर
मैं- बिसबास है इसीलिए तो तेरे साथ यहाँ पर हूँ
निशा- तो फिर ठीक है कल दोपहर को मैं तेरे गाँव में आउंगी . उस ओझा से मुलाकात करुँगी . अगर उसके इल्जाम साबित हुए कबीर तो इस डायन का वादा है तुझसे ये सूरत फिर न दिखाउंगी तुझे.
मैं- नहीं निशा, तू ऐसा कुछ नहीं करेगी ओझा गाँव की हद , गाँव की हर दिशा को कील रहा है .
निशा बस मुस्कुरा दी . निशा ने कल गाँव में आने का कह दिया था . ओझा के सामने जब वो आयेगी तो क्या होगा ये सोच कर मैं घबरा गया था पर असली घबराहट क्या होती है ये मुझे तब मालूम हुआ जब मैं वनदेव के पत्थर के पास पहुंचा ..... मैंने देखा. मैंने देखा की.................